कथाकार
कविता की स्मृतियों में राजेन्द्र यादव.
बाबुल
मोरा नैहर छूट ही जाये
कविता
यादें बहुत सारी
हैं. हां, यादें
हीं. हालांकि उन्हें यादें या कि स्मृतियां कह कर संबोधित करते हुये कलम थरथरा रही है... स्मृतियां तो उनकी होती है जो... तो क्या सचमुच मान लूँ
अब कि राजेंद्र जी नहीं रहे....नहीं... मन मानने को तैयार नहीं और एक प्रार्थना अब
भी गूंज रही है मेरे भीतर कि वे हमेशा रहें हमारे आसपास. कायदे से स्मृतियों को
भूतकाल में आना चाहिए, लेकिन अभी मेरे कलम इसके लिए तैयार नहीं. पता नहीं कितना वक्त
लग जाये इसे यह स्वीकारने में... फिलहाल तो ये कुछ दृश्य हैं जो चले आ रहे हैं
मेरे सामने... बेतरतीब.
दिल्ली आये महीनों
हो गये हैं. हंस बहुत पहले से पढ़ती रही हूं लेकिन हंस के दफ्तर जाने की हिम्मत
नहीं जुटा पा रही. एक दिन हिम्मत कर के फोन करती हूं...मेरी आशा के विपरीत फोन पर
खुद राजेन्द्र जी हैं... अपना नाम बताने के बाद मिलने के लिये समय मांगती हूं...
उत्तर मेरे लिये निराशाजनक है... उन्हें प्रसार भारती जाना है, आज
नहीं मिल सकते... उन्होंने कल बुलाया है.. मैं उदास मन से फोन रखती हूं...कल तो...
मुझे अखबारों के दफ्तर लेख पहुंचाने जाना है... फिर न जाने कब...
उस कल से भी
पहले का एक पल आ धमकता है मेरी स्मृतियों में. एक दृश्य मेरी आंखों के आगे से
गुजरते-गुजरते थम जाता है. साहित्य कादमी के वार्षिकोत्सव में लंच टाईम में वे
भीड़ से घिरे हैं. हंस रहे हैं... ठहाके लगा रहे हैं. मैं सोचती हूं बल्कि ठानती
हूं मन ही मन कि आज बल्कि अभी तो उनसे बात करनी ही है मुझे. मैं धकेलती हूं भीड़
में खुद को जो उन्हें चारों तरफ से घेरे हुये है. मैं खड़ी रहती हूं भीड़ के छंटने
का इंतजार करती हुई. अब इक्का-दुका लोग बच गये हैं बस... जी, मेरा
नाम कविता है... कहो कविता जी क्या कहना है... वे अपनी प्रचलित छवि के विपरीत कुछ
निस्पृह से हैं... मैं मुज़फ्फरपुर की हूं... पिछले छ: महीने से दिल्ली में हूं...
वे थोड़े सजग होते हैं... फिलहाल क्या कर रही हो?... बस फ्री लांसिंग...हंस लगातार पढ़ती रही हूं... उनके चेहरे पर
एक अविश्वास है (बाद में जाना कि उनसे मिलने वाले सभी लोग तो पहली बार ऐसा ही कहते
हैं).. वे पूछते हैं कोई रचना जो इधर के अंकों में अच्छी लगी हो...मैं बताती हूं, फलां
और धीरे-धीरे जैसे मेरी हिचकिचाहट की अर्गलायें खुलने
लगती हैं... एक के बाद एक कई कहानियों की चर्चा... राजेंद्र जी के चेहरे का
अविश्वास अब प्रसन्नता में बदल सा रहा है... मेरा आत्मविश्वास थोड़ा और खुलता है...
मैं एक सवाल पूछती हूं, जब हंस मेंपिछले डेढ़-दो साल से यह घोषणा लगातार छप रही है कि
कॄपया नई कहानियां न भेजें फिर भी कई कहानियों में हाल-फिलहाल की घटनाओं का जिक्र
कैसे मिल जाता है... वे हंसते हुये कहते हैं, ऐसा है कविता जी कि बातें फिर होंगी, आप
हंस के दफ्तर भी आ सकती हैं... अभी तो आप यह आइस्क्रीम खा लीजिये.. मैं बहुत देर
बाद अपने हाथ में पड़े आइस्क्रीम का प्लेट देखती हूं जो पिघल कर अब बहे या तब की
हालत में है... मैं झेंप कर उनके पास से चल देती हूं.
मैं जानती हूं
कि राजेन्द्रजी की स्मृति में हमारी यह मुलाकात कहीं है ही नहीं... आखिर हो भी
कैसे.. ऐसी सभा-गोष्ठियों में न जाने कितने लोग रोज उनसे मिलते हैं. उन्हें तो
शायद हंस में मेरा पहली दफा जाना भी याद नहीं जब उनके कहने पर मैने उन्हें अपनी दो
लघुकथायें सुनाई थी जिसमें उन्होंने एक रख भी ली थी जो बाद में स्त्री विशेषांक
में छपी भी. राजेन्द्रजी के भीतर जो बात बैठ जाये वह आसानी से जाती नहीं. उन्हें
बहुत दिनों तक यह लगता रहा कि मैं उनके यहां सबसे पहले अपने मित्र समरेन्द्र
सिंह (पत्रकार) के साथ गई थी और उसे पसंद भी करती थी लेकिन राकेश की खातिर उसे
छोड़ दिया. जबकि सच तो यह है कि समरेन्द्र तब राकेश के ही मित्र थे और उसी के
माध्यम से मैं उन्हें जानती थी. पता नहीं अपनी इस भ्रांति से वे अबतक भी मुक्त हो
पाये हैं या नहीं.
स्मृतियां
कुछ आगे बढ़ती हैं... हंस आने-जाने का सिलसिला शुरु हो गया है... अखबारी लेखन के
समानांतर मैं कहानियां भी लिखती रहती हूं... यह लिखना मेरे लिये अपने पिता के गुम
हो जाने के अहसास को भूलकर उनके पास होने जैसा है, अपने अकेलेपन और अभाव को भरने जैसा कुछ. लेकिन उन कहानियों को
जब राजेन्द्र जी ने ‘हंस’ के दफ्तर में लौटाया तब यही लगा था कि वे नहीं खुद पापा ही
मुझसे पूछ रहे हैं.. कहानी बुनना तो तुमको आता है लेकिन इन कहानियों में तुम कहां
हो..? हां, उस
दिन पापा बेतरह याद आये थे, यथार्थ और सच्चाइयों के आग्रही वे पापा जो बचपन में परिकथाओं
के बदले जीवन जगत से जुड़ी छोटी-छोटी कहानियां सुनाते और पढ़ने को उत्प्रेरित करते
थे. एक के बाद एक मेरी कई शुरुआती कहानियां इसी सवाल के साथ लौटती रहीं. ‘सुख’ वह
पहली कहानी थी जिसे अपने भीतर के सारे भय से लड़कर लिखा था और वह हंस (फरवरी, २००२)
में प्रकाशित हुई थी. मैं जीत गई थी अपने इस भय से कि मैं पहचान ली जाऊंगी या कि
अपनी कहानियों मेंखोजी जाऊंगी... अब लगता है यदि राजेन्द्र जी ने वे कहानियां जो
बाद में अन्यत्र छपीं, नहीं लौटाई होती तो पता नहीं कब मैं अपने उस भय से मुक्त हो
पाती.
स्मृतियां थोड़ा और
खिसकती हैं... मैं एक बजे के आस-पास ‘हंस’ पहुंच जाती हूं. पांच बजे के बाद चल देती हूं. राजेन्द्र जी के
ही कमरे में उनकी एक पुरानी कुर्सी और टेबल पर उनकी तरफ पीठ किये दिन भर कहानियां
पढ़ती रहती हूं, आते-जाते
लोगों के ठहाकों, मजलिसों
से बेखबर. वहां आने वालों में से कुछ लोगों को दिक्कतें है तो कुछ को हैरत... ऐसे
कोई कैसे... लेकिन सौ साल की हिन्दी की महत्वपूर्ण कहानियों
के चयन का यह काम जिसमें मैं राजेन्द्र जी और अर्चना जी का सहयोग कर रही हूं, है
ही इतना बड़ा कि चाहते न चाहते मुझे उन ठहाकेदार गोष्ठियों के बीच रह कर भी वहां
नही रहने देता. कहानियां पढ़ने के बाद चयन के लिये खूब बहसें होती हैं... मैं
समृद्ध हो रही हूं कहानियों के उस संसार से गुजरते हुये और राजेन्द्र जी लगातार कई
माह तक उसके एवज में एक निश्चित राशि मुझे देते रहते हैं... मै नहीं जानती वे पैसे
राजेन्द्र जी ने अपनी जेब से दिये या कि हिन्दी अकादमी की तरफ से कारण कि एक
मनचाही भूमिका नहीं लिख पा सकने की राजेन्द्र जी की विवशता के कारण वह चयन आजतक
अप्रकाशित है. अक्सर राजेन्द्रजी मुझे पांडवनगर छोड़ते हुये अपने घर चले जाते हैं.
खाना खा कर आई होने के बावजूद अपने खाने का कुछ हिस्सा खिलाये बिना नहीं मानते वे. बाद में मैं भी अपना खाना वहीं लाने लगी हूं. उनके आसपास होने
वाले कई लोगों की तरह कुछ विशिष्ट होने की अनुभूति या कि भ्रम कुछ-कुछ मुझे भी
होने लगा है.
उस दिन अचानक
आकाश में ढेर सारे बादल हैं.. मैं साढ़े चार बजे ही उठ खड़ी होती हूं... लगता है
तेज बारिश होगी, छतरी
भी नहीं है... रुक तो, मैं छोड़ दूंगा.... मैं रुक जाती हूं... बारिश हो रही है
धारदार... हम निकलने ही वाले हैं कि उनके कई मित्र और परिचित चले आते हैं... मौसम
सुहाना है और बातों ही बातों में रसरंजन का कार्यक्रम तय होजाता है... मैं सब को
नमस्कार करती हूं, चलने को होती हूं. राजेन्द्रजी कुछ नहीं कहते. बाहर बारिश हो
रही है जोरदार. मेरी आंखों के आंसू भी उसी गति से बह रहे हैं... बस स्टॉप तक, घर
तक की यात्रा में, घर पर भी. सोचती हूं बार -बार कि इतना क्यों रो रही हूं, आखिर
ऐसा हुआ क्या है.. कुछ भी तो नहीं पर आंसू हैं कि रुक ही नहीं
रहे...
स्मृतियां कुछ पीछे खिसक रही हैं. शायद सन २०००. राजेन्द्र जी का जन्मदिन
इस बार आगरे में ही मनना है, उनके सम्मान में गोष्ठी भी है... तू भी चलेगी?... बिना
सोचे समझे हां कह देती हूं... निकलना सुबह-सुबह ही है... सुबह..? मै
चौंकती हूं... साढ़े चार-पांच के आसपास... देर रात तक जगे रहने
की अपनी आदत और मजबूरी के कारण उतनी सुबह मुझसे उठा नहीं जाता अमूमन, पर
उनसे कुछ भी नहीं कहती.... सुबह राकेश के बार-बार उठाये जाने के बावजूद जगना मेरे
लिये बहुत भारी है. किसी तरह उठ कर चली जाती हूं, बस. गाड़ी राजेन्द्र जी की नहीं है, ड्राइवर
भी किशन नहीं... मैं राजेन्द्र जी के साथ पीछे बैठी हूं. आगे दूसरे सज्जन. मेरी
बोझिल आंखें कब नींद में डूब गई मुझे पता नहीं. नींद जब खुलती हैं, देखती
हूं मैं राजेन्द्र जी के पांव पर सिर रखे सो रही हूं. हड़बड़ा कर उठना चाहती
हूं... वे कहते हैं सो जा, इतनी चैन से तो सो रही थी. अभी आगरा पहुंचने में एक-सवा घंटे
और लगेंगे... मैं दुबारे सो जाती हूं.
सोचें तो बहुत
अजीब सा लगता है, पर
मेरे लिये कुछ भी तो अजीब नहीं था. वह एक पुरसुकून और निश्चिंत नींद थी. मैं अपनी
ज़िंदगी के बहुत कम निर्द्वन्द्व नींदों में से उसे गिनती हूं... ऐसी नींद शायद ही
कभी आई हो फिर. पर उठने के बाद मन में एक ग्लानि थी कि राजेन्द्र जी के जिस पांव
को तकिया बनाये मैं सो रही थी वह उनका वही पैर था
जिसमें उन्हें तकलीफ रहती है. और बाद में फिर... कुछ प्रगतिशील कहे जाने वाले
लोगों की व्यंग्योक्तियां जिसने इन मीठी स्मृतियों के साथ
बहुत कुछ कटु भी जोड़ दिया.
मेरी
ज़िंदगी का वह दौर बहुत सारी अनिश्चितताओं और मुश्किलों से भरा था. निश्चित आय का
स्रोत नहीं. हां लिखने और छपने के लिये जगहें थी, और काम भी इतना कि सारे असाइन्मेंट पूरे कर लिये जायें तो
रहने-खाने की दिक्कत न हो. पर फ्री-लांसिग के पारिश्रमिक के चेकों के आने का कोई
नियत समय तो होता नहीं, जल्दी भी आये तो तीन महीने तो लग ही जाते थे. लेकिन उस पूरे
समय राजेन्द्र जी का साथ मेरे लिये इन अर्थों में भी एक बड़ा संबल था कि उस
ढाई-तीन वर्षों के कठिन काल-खंड में उन्होंने मुझे किसी न किसी ऐसे प्रोजेक्ट में
लगातार शामिल रखा जिससे मुझे नियमित आर्थिक आमदनी भी होती रही. और सिर्फ मैं ही
नहीं, मेरी
जानकारी में ऐसी मदद उन्होंने कई लोगों की है और अब भी करते हैं. हिन्दी अकादमी के
उपर्युक्त आयोजन के अलावा राजेन्द्र जी के साक्षात्कार, पत्रों
और लेखों की किताबों का संयोजन-संपादन उसी समयावधि की उपलब्धियां हैं.
यह मेरी ‘उलटबांसी’ कहानी
से जुड़ा प्रकरण है. तब मैं महाराष्ट्र में रहती थी. छुट्टियों में दिल्ली आने के पहले तब मैने राजेन्द्र जी को
पढ़ाने कि लिये वह कहानी जल्दी-जल्दी साफ की थी. वे दिन शायद मेरी चुप्पी के
होंगे. राजेन्द्र जी से जब भी बात होती वे नई कहानी भेजने को कहते. अब यह अलग-अलग
बात है कि कोंच-कोंच कर लिखवाई गई कहानी भी यदि उन्हें नहीं पसन्द आये तो वे उसे
बे हील-हुज्जत लौटाने से भी नहीं चूकते. पहली दृष्टि में तो राजेन्द्र जी ने ही
इसे बकवास करार दिया... बूढ़ी मां अचानक शादी कैसे कर सकती है, कौन
मिल जायेगा उसे?.. वह
बूढ़ी नहीं है, प्रौढ़ा
है. और गर पुरुषों को मिल सकती है कोई, किसी भी उम्र में तो फिर औरत को क्यों नहीं?.. होने
को तो कुछ भी हो सकता है, तू मेरी मां हो सकती है, यह (राकेश) तेरा पिता हो सकता है... लिख डाल एक और कहानी...
बातें खिंचती-खिंचती लम्बी खिंच गई थी और जो भी उस दिन हंस के दफ्तर में आता उस
बहती गंगा में हाथ धो डालता. मेरे भीतर उस दिन बहुत कुछ टूट-बिखर रहा था... क्या
मुझे कहानी लिखना छोड़ देना चाहिये..? बाद में मैंने वह कहानी अरुण प्रकाश जी को पढ़ाई थी. कहानी
उन्हें पसंद आई थी. उन्होंने मेरा मनोबल भी बढ़ाया. सोचा था कहानी उन्हीं को दूंगी
लेकिन टाईप होने के बाद राजेन्द्र जी ने कहानी दुबारा पढ़ने को मांगी. उन्हें पुन:
कहानी दे कर मैं अभी घर तक लौटी भी नहीं थी कि उनका फोन आ गया था ‘मुझे कहानी पसंद है, मैं
रख रहा हूं किसी और को मत देना. पर एक आपत्ति अब भी
है मेरी...कहानी से एक पात्र सिरे से नदारद है... वह कौन है.. कहां मिला, कैसे
मिला कुछ भी नहीं... मुझे उसकी जरूरत नहीं लगती.. कहानी मां और बेटी के बदलते
संबंधों की है... मैंने तर्क दिया था, अपूर्वा के भीतर की स्त्री अपनी मां के निर्णय में उसके साथ
है. लेकिन उसके भीतर की बेटी अपने पिता की जगह पर कैसे किसी और को देख कर सहज रह
सकती है. इसलिये बेहतर है वह अपनी मां के नये पति के बारे में ज्यादा दिलचस्पी न
दिखाये. राजेन्द्र जी भी अंतत: मान गये थे. आज उन्हें यह मेरी कहानियों में शायद
सबसे ज्यादा पसन्द है. देखें तो मूल में वह प्रतिवाद एक पुरुष का, पुरुष
दृष्टि का था, जिससे
जूझ कर अन्तत: वे उस कहानी को स्वीकार सके थे. हो राजेन्द्र जी अपने भीतर के पुरुष
से लगातार संघर्ष करते हैं और उसे संशोधित भी.. उनकी यही खासियत उन्हें औरों से
अलग बनाती है.
पिता की कमी, घर
से दूरी सबका खामियाजा मैंने राजेन्द्र जी से ही चाहा है. अपनी पहली मुलाकात से
ही- पिता जैसी ठहाकेदार हंसी, पाईप, किताबों आदि से उनमें मुझे पापा का चेहरा दिखाई पड़ता है. अगर
मायके का सम्बन्ध स्त्रियों के अधिकार भाव, बचपने और खुल कर जीने से होता है तो मैं कह सकती हूं ‘हंस’ मेरा
दूसरा मायका है. विश्वास नहीं हो रहा, राजेन्द्रजी के साथ मुझसे मेरा वह मायका भी छिन गया है.
________________
संपर्क:
एन एच 3 / सी 76,
एन टी पी सी विंध्यनगर, जिला
सिंगरौली (म.प्र.) 486 885
फोन –
0750997720
अच्छा मर्मस्पर्शी संस्मरण है ..
जवाब देंहटाएंबहुत आत्मीय एवं मार्मिक ...
जवाब देंहटाएंबहुत आत्मीय एवं मार्मिक ...
जवाब देंहटाएंआत्मीय और मर्मस्पर्शी संस्मरण .
जवाब देंहटाएंकविता ! बहुत आत्मीयता और ईमानदारी से लिखा... पढ़कर आँखें भीग गईं.
जवाब देंहटाएंaccha aur aatmiya....
जवाब देंहटाएंराजेन्द्र जी के जाने के बाद जज्बों की जो आंधी उठी है उससे उनकी शख्सियत को बखूबी पहचाना जा सकता है | आज मेरे शहर (सिलीगुड़ी) में हमने अपनी संस्था की तरफ से अपने मित्रों के साथ उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि दी और उनके लेखकीय अवदान को याद किया | किस्सा जुलाई-सितम्बर २०१३ दिनेश कुशवाह द्वारा उन पर लिखे गये संस्मरण " हम जा मिले खुदा से दिलवर बदल-बदलकर " की कुछ पंक्तियाँ यहाँ कोट करना चाहूँगी -राजेन्द्र यादव के बारे में जब भी सोचता हूँ प्रसिद्ध शायर शहरयार की ये पंक्तियाँ मेरे ज़ेहन में उभरने लगती हैं -
जवाब देंहटाएंउम्र भर देखा किए उनकी तरफ यूँ जैसे
सारे आलम की हकीक़त निगाहें-यार में है |
एक आलम है कि उस सिम्त खिंचा जाता है
जाने वो कौन सी खूबी रसन-ओ-दार में है ||
वो लिखते हैं -- वो नशा पिलाकर गिराना जानते थे और गिरने वालों को थाम भी लेते थे |
राजेन्द्र जी लिए अपनी चाँद पंक्तियाँ अर्पण करती हूँ---
उनके थामते ही गिरने की हदें सिमटती जाती थीं
वो बांका यार भर नहीं था मिसाले-खुदा था कोई --- (रंजना श्रीवास्तव )
एक टिप्पणी भेजें
आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.