
हिंदी सिनेमा के खलनायकत्व के सबसे बड़े नायक प्राण को दादासाहेब फाल्के पुरस्कार मिलने पर सुशोभित की सारगर्भित टिप्पणी जो प्राण के अवदान को भी सहेजती है.
हिंदी सिनेमा का
सबसे चहेता प्रतिनायक
सुशोभित सक्तावत
अभिनय इन मायनों में एक अलहदा कला है,
क्योंकि अभिनेता पूरे होशो-हवास में,
बल्कि वास्तव में और तीव्रतर चेतना के
साथ, अपने
भीतर एक 'डिस्टेंस" निर्मित करता है : व्यक्तित्व और व्यक्ति-रूपक,
पर्सनैलिटी और परसोना के बीच एक
सचेत-सुनिर्णीत फासला. और इसीलिए एक अभिनेता के आत्मसत्य और कलासत्य के बीच हमेशा
एक किस्म का तनाव होता है. कह सकते हैं कि अभिनेता हमेशा आइनों के संग्रहालय में
रहते हैं और बकौल बोर्हेस, चाकू की मांसल आत्मीयता से अधिक भय
उन्हें आइनों की भूलभुलैया से लगता होगा!

ऐसे में यह सोचना दिलचस्प लगता है कि
प्रतिरूपों की इस भीड़ में किसी अभिनेता का 'पर्सेप्शन ऑफ सेल्फ" कैसा बनता
होगा, खासतौर पर तब, जब उसने साढ़े तीन सौ से अधिक
सिने-चरित्रों को अपने भीतर शिद्दत से निबाहा हो.
आंखों में 'ग्लिन्ट" व ठंडा आतंक,
रीढ़ में सिहरन पैदा कर देने वाला एक
विशिष्ट नासिका-स्वर, पैने नाक-नक्श, होंठों पर कुटिल उपहासपूर्ण मुस्कराहट
और अनिष्ट के संकेत देती देहभाषा : इन प्रदत्त प्राकृतिक गुणों के साथ प्राण साहब
हिंदी सिनेमा का सबसे घृणास्पद प्रतिनायक रचते हैं. एक ऐसा प्रतिनायक,
जिसने कभी अतिनाटक के अहातों में
बिलाने की जरूरत नहीं समझी, क्योंकि उसके पास संयत देहभाषा का एक
ऐसा अंडरटोन था, जिसके जरिए वह सिनेमा हॉल में अंदेशे की एक लहर पैदा कर सकता था :
भूमिगत नदी की तरह. और तब हमारे जेहन में कौंध जाते हैं वे
तमाम चरित्र, जिन्हें प्राण साहब ने परदे पर साकार किया है.
मिसाल के तौर पर,
सन् छप्पन में आई फिल्म 'हलाकू" को याद करें,
जिसमें प्राण साहब ने,
खुद उन्हीं के शब्दों में,
कुछ इस अंदाज में डायलॉग बोले थे,
जैसे कोई 'भेड़िया रुक-रुककर हड्डियां चबा रहा
हो!" या
याद करें सन् 60 में आई 'जिस देश में गंगा बहती है" का
राका डाकू, जो अपनी गर्दन पर इस तरह अंगुलियां फिराता है,
मानो किसी अदृश्य फंदे से उसे छुड़ाने
की चेष्टा कर रहा है. महज इस एक जेस्चर से प्राण साहब इस दस्यु-चरित्र के
मनोविज्ञान में गहरे तक पैठ जाते हैं. 'मधुमती" का उग्रनारायण,
जो बकौल अजातशत्रु,
किसी 'नाग की तरह खूबसूरत,
डरावना
और चपल" है,
अपने भीतर बुराई की इतनी आदिम त्वरा
संजोए है कि परदे पर उसके अवतरित होने भर से ही फिल्म अनिष्ट की आशंका से ग्रस्त
हो जाती है और फिर उससे मुक्त नहीं हो पाती. और फिर, तस्वीर बदलती है. खलचरित्रों के स्याह
अंधेरे से सरककर प्राण साहब उजले-धूपछांही चरित्रों की रोशनी में आते हैं. इनमें
सर्वाधिक उल्लेखनीय 'उपकार" (1967) के मलंग चाचा उत्तर-नेहरू काल की विडंबनाओं का
प्रतिमान हैं, और उनका यह संवाद अविस्मरणीय है : 'राशन पर भाषण मिल सकता है,
पर
भाषण पर राशन नहीं मिलता, बरखुरदार!"

बल्लीमारां में जन्मा प्राण कृष्ण
सिकंद नामक यह शख्स, जो लाहौर में कोई दो दर्जन पंजाबी फिल्में करने के बाद सन् सैंतालीस
में बंबई चला आया था और रोजी-रोटी कमाने के लिए मरीन ड्राइव स्थित डेलमर होटल में
काम करता था, आज जब पीछे लौटकर अपनी जिंदगी की इतनी सुबहों-सांझों को याद करता
होगा, तो पता नहीं खुद को ठीक-ठीक पहचान पाता होगा या नहीं. लेकिन हम इस
तरह के विभ्रमों से पूरी तरह मुक्त हैं, क्योंकि हम सुनिश्चित हैं कि सिनेमा के
शलाका-पुरुषों की जब भी गणना होगा, उसमें प्राण साहब हमेशा अग्रगण्य
रहेंगे.
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सुशोभित नई दुनिया के संपादकीय प्रभाग से जुड़े है.
सत्यजित राय के सिनेमा पर उनकी एक पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य है.
प्राण के बारे में मनोयोग से लिखा गया यह लेख उनकी कई फिल्मों के दृश्य ताजा कर देता है.जहाँ आज के कई नायक आपराधिक मामलों में फंसे हैं, प्रतिनायक की भूमिका निभाने वाला प्राण अपनी जिन्दगी में बेहद सौम्य और भद्र हैं. इसके पीछे संभवतः उनके द्वारा किये गए संघर्ष की महत्वपूर्ण भूमिका है.
जवाब देंहटाएंबढिया,
जवाब देंहटाएंअच्छी जानकारी
छोटा किन्तु सारगर्भित लेख.
जवाब देंहटाएंसुशोभित को पढ़ना अक्सर अच्छा लगता है। अच्छा लेख
जवाब देंहटाएंbahut achha lekh!
जवाब देंहटाएंआज नई दुनिया में सुबह ही पढ़ लिया है, रोचक जानकारीपूर्ण और सारगर्भित लेख है।
जवाब देंहटाएंशब्द सीमा की व्यवस्था से निबाहते हुए अगली कडी भी प्रस्तुत करें! पहली कडी ने आगामी के प्रति भी मानस तैयार किया है!
जवाब देंहटाएंसुशोभित, गणेश पाइन के बाद अब ये एक और कलात्मक लेख ..आइनों के संग्रहालय के इस प्रतिनायक को इस परसेप्शन से देखना सुखद लगा .
जवाब देंहटाएंरोचक जानकारी
जवाब देंहटाएंक्षमा करें। मुझे तो यह आर्टिकल बिल्कुल समझ में नहीं आया। क्या कहा जा रहा है क्या कहने का प्रयास हो रहा है। सब कुछ। मेरे तो पल्ले ही नहीं पड़ा
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