सहजि- सहजि गुन रमैं : सुमन केशरी



II प्रेम दिवस पर प्रेम कविताएँ II 

जब कुछ मतिमूढ़ लोग प्रेमियुगलों पर आक्रामक थे, जे.एन.यू के छात्र–छात्राओं ने एक परम्परा शुरू की, १४ फरवरी की रात प्रेम कविताओं के काव्य-पाठ के आयोजन की. यह सार्थक प्रतिवाद है. परम्परा में भी वसंतोत्सव मनाने का चलन रहा है जो एक तरह से ‘मदनोत्सव’ ही था. समालोचन, कवयित्री सुमन केशरी की कुछ प्रेम कविताओं के साथ इसी परम्परा में है.

सुमन जी की पहचान मिथकों को वर्तमान अर्थवत्ता देने वाली एक विदुषी की है. पर ये  कविताएँ अपनी सहजता में विस्मित करती हैं इसलिए कि प्रेम की प्रकृति सहजता की ओर है. ‘अति सूधो स्नेह को मारग हो’. एक विस्मय और कि कैसे इन कविताएँ ने एक युवतर स्त्रीमन की आकुलता, सूफियाना चाहत को अब तक संजो रखा है.
  



प्रेम को मनकों सा फेरता मन

सुमन केशरी 



1.
आगरा से गुजरते हुए मन
ताज के अंधियाले तल में
पल भर रुकता है
गहरी साँस लेता
प्रेम को मनकों सा फेरता
बंध कर रह जाता है उसी डोर से

तुम मेरे जीवन में
वही डोर हो प्रिय
जिसमें गुंथे मनको को
मेरी उंगलियाँ
अहर्निश फेरा करती हैं
अनथक...



2.
कभी कभी लगता है
तुम्हारे मन में
उसी तरह उतरूँ
जैसे उतरती हैं वर्षा की बूंदें
रिस रिस कर ढूहों के अंतर्तल में

ट्रेन से गुजरते हुए
अक्सर ही लगा
हाथ बढ़ाकर छू दूंगी
तो हरहरा कर गिर पड़ेंगी ये ढूहें
भेद खोलतीं अपने मन का

मैं कई बार उन ढूहों में उतरी
तुम्हे खोजते हुए
लगता कितना सरल है तुम्हें पा जाना
पर अक्सर ही ढूहें
दीवार सी खड़ी हो जाती हैं
जिसके गिर्द इतने रास्ते निकलते हैं
कि पता ही नहीं चलता
किस राह पे मुड़े हो तुम
तुम्हारे कदमों के निशान कभी नहीं मिले
इन ढूहों में मुझे
पर हाँ
तुम्हारे गंध से व्याकुल रहती हैं
यहाँ की हवाएँ
घटाएँ

मैं उन दीवारों के पार जाना चाहती हूँ प्रिय!


3.
तुमसे मिलने से पहले
देखीं थीं मैंने
तुम्हारी आँखों की गहराई
चंबल के नील जल में

उसके गहरे जल में दफ्न हैं
हजारों हजारों साल पुरानी
हमारी ख्वाहिशें
वे ख्वाहिशें
जिन्हें मैं चाहती थी
नाव सी तिरें
हमारे मन में

तुमने छू दिया है
हाथ बढ़ाकर चंबल-जल धीरे से
देखो तो
तट पर कितनी बतखें
तैर रही हैं पंखों में गर्माहट भरे ...


4.
कभी ले चलो न चंबल-तट पर
मुझे प्रिय

तुम नहीं जानते
मैंने तुम्हें पहली बार
वहीं विचरते देखा था
एकाकी मन

तुम नहीं जानते
तुम्हे पिछुआती...खोजती ...पुकारती
जाने कब से खड़ी हूँ मैं
एकाकी तन
मुझे मुझसे ही मिलवा दो न
चंबल-तट पर
मेरे प्रिय...

5.
उस जल तक
जिसमें पकी थी कभी रसोई इस पार
और जिसे पी रहा था एक शेर उस पार
उसी समय जब खाना सींझ रहा था
चूल्हे पर इस पार

उस जल तक
मैं जाना चाहती हूँ तुम्हारे संग
प्रिय
देखो बस कुछ कदमों की दूरी पर बहता है वह जल...

सच में क्या?
सच में क्या?
सच में क्या?


6.
तिघरा से होते हुए
दीख पड़ा
गुप्तेश्वर महादेव

कई कई बार सुना नाम गुप्तेश्वर
ठीक तुम्हारे मन की तरह
न खुला
न बंद

कितनी सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं
वहाँ पहुँचने के लिए
फिर वापस खुद तक लौटने के लिए
जो कभी हो ही नहीं पाया
न कभी पहुँची
न लौटी ही


उस दिन भी
दीख पड़ा
गुप्तेश्वर महादेव
बादलों में छिपा....
___________________________________


























14/Post a Comment/Comments

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  1. अति सूधो स्नेह को मारग है ..हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ?

    रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ?


    जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,

    हमारा यार है हम में हमन को इंतजारी क्या ?
    ...सूफियाना युवतर मन किस जल से किस जल को दौड़ा जा रहा है ...इन्हें पढ़कर गगन गिल और तेजी ग्रोवर की कविताएँ भी याद आयीं ..
    वसंत में वसंत होते हुए ..ढाई मौसम :)


    यह स्वप्न नहीं है
    रात ढाई के आसमान से मेरे ऊपर
    एक कोरा कपड़ा गिर रहा है

    मैं अपनी चटाई से हट नहीं रही
    मेरे दाईं ओर सिर्फ़ तुम्हारी नींद है

    मैं मान लूँ क्या
    इतने घने प्रेम में भी
    कोई किसी को बचा नहीं सकता (तेजी )..

    सुमन जी का आभार फूलों के पर्व के लिए

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  2. अथाह सागर सी ....गहन अभिव्यक्तियाँ .......
    डूब गया मन ....
    आभार एवं शुभकामनायें ....

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  3. मदन पर्व पर प्रेम में पगी सुंदर कवितायेँ ......बहुत ही अच्छा लगा इन्हें पढ़कर ....प्रेम की महक को महसूस किया .....बधाई चिरयुवा प्रेमी युगल को .......शुक्रिया समालोचन

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  4. "गहरे जल में दफ्‍न हैं/ हजारों साल पुरानी / हमारी ख्‍वाहिशें / वे ख्‍वाहिशें / जिन्‍हें हैं चाहती थी / नाव सी तिरें / हमारे मन में।
    तुमने छू दिया है / हाथ बढाकर चंबल-जल धीरे-से / देखो तो तट पर कितनी बतखें / तैर रही हैं पांखों में गर्माहट भरे।" मानवी के रागात्‍मक भाव की इतनी खूबसूरत विरल अभिव्‍यक्ति। वाह, क्‍या कहें, सुमन जी।

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  5. सुमन जी की कविता चाहे प्रेम पर हो या किसी अन्य विषय पर, यह बात तो माननी पड़ेगी कि आपको कविता से प्रेम है और कविता से प्रेम तभी हो सकता है जब आपने जीवन में डूब कर प्रेम किया हो चाहे किसी भी रूप में. सुमन जी के मन में एक माँ सा, एक बहन सा, एक दोस्त सा जो प्रेम है सबके लिए, और एक प्रेमी और पत्नी सा {किसी एक के लिए :-) } वह आपकी कविताओं में बरबस आ जाता है और वही आपकी कविताओं को बहुत ही सहज बना देता है. चाहे आपकी कविता किसी चिंता से, किसी प्रश्न से, किसी पीड़ा से ही क्यों न जूझ रही हो, आपके मन में बैठा प्रेम वहाँ भी दिखाई देता है. सारी कविताएँ और उनकी पंक्तियाँ तो बेजोड़ हैं ही, चाहे वह ढूहों के दीवार बन कर खड़े हो जाने की बात हो, चाहे वह चंबल का जल हो, उसमें तैर रहीं, अपने पंखों में गर्माहट भरी हुईं बत्तखें हो या चाहे...पर आखरी दो कविताएँ पूरे सीरीज को जिस ऊँचाई पर पहुंचाती हैं, वह देखते ही बनता है...."देखो कुछ क़दमों की दूरी पर बहता है वह जल / सच में क्या? सच में क्या? सच में क्या?" एक अफर्मेटिव वाक्य के बाद एक प्रश्न का तिहराव पाठक को असल में कविता की किसी ऐसी सलिला में ले जाकर उतार देता है जहाँ से पाठक वापस भी आना चाहता है क्योंकि प्रेम के इस दबाव को सहना आसान नहीं है तो दूसरी ओर वहीँ ठहरना भी चाहता है क्योंकि "वह खलिश कहाँ से होती..." "न कभी पहुँची, न लौटी ही....." यह खूबी है इस सीरीज की कि कविताएँ एक के बाद एक ऊँचाई प्राप्त करती हैं. सुमन जी की कई कविताएँ असल में गुप्तेश्वर महादेव हैं, पाठक को कहीं का नहीं छोड़तीं, "न कभी पहुँची, न लौटी ही" की तरह. :-)

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  6. प्रेम का एक पावन स्वरूप जो सीधा मन में प्रवेश कर जाता है ...इन कविताओं से झाँक रहा है ... बहुत बधाई सुमन केसरी जी को आभार समालोचन ..

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  7. क्या कहूँ सारी कवितायें अद्वितीय ..अपनी विषयवस्तु में भी अपनी मासूमियत में भी, सौभाग्य है हमारा कि उस दौर में हूँ जब सुमन केसरी जी जैसी कविता की (मेरी इच्छा है कि मैं यहाँ प्रेम कविता भी जोडूं) शख्सियत सक्रिय हैं, अभी बर्षों तक उनका आशीर्वाद मिलता रहेगा ..ये अमृत ऐसे ही बरसता रहेगा आश्वस्त हूँ !

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  8. आज अपने जन्मदिन के अगले दिन(16.07.2013) अरूण के सौजन्य से एक बार फिर अपनी ही रची पर रच कर अपने से अलग कर दी गईं इन रचनाओं को पढ़ा एक तीसरे व्यक्ति की तरह..पढ़ा आप सुधि जनों को भी और लगा कि सच में प्रेम सा दुरूह और ताकतवर भाव कोई दूसरा नहीं. मार्ग कितना भी कठिन हो आप नशे में बढ़ते चले दाते हैं, खड्डों-ढूहों को पार करते..आप चलते चले जाते हैं, अपनी ही धुन में. अपर्णा की कोमलतान, अंजू की शुभाकांक्षा, अनुपमा का अथाह भाव, नंद जी की रागात्मकता, सईद का कविता पढ़ने का अनोखा डंग और भावों तक पहुंचने की व्याकुलता और क्षमता, गीता जी का प्रेम भाव, आनंद की बात जो मुझे सदा विस्मित कर देती है और सुदेश जी की संक्षिप्त पर अमूल्य चिप्पणी और अरुण की पारखी नजर और कहने और समसामयिकता से जोड़ने की क्षमता...सच में कविता तो यह सब भाव है, जो मुझे कान में फुसफुसा कर कहता है..अब तो लिखो सुमन केशरी...लिखो तुम्हें पढ़ने वाले, समझने वाले, ऐप्रीशिएट करने वाले हैं...शुक्रिया दोस्तों...आप हैं तो मैं हूँ

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  9. प्रेम ऐसा ही होता है। जीवन मे हर पल साथ चलने की प्रतीति देता हुआ।जब भी कुछ सुंदर घटे मन मेँ ,जीवन मेँ, तो लगे कोई ऊर्जा है जो आपको ले चलता है सारे रहस्यों के पार। कठिन वक़्त मेँ संभालती सी आँखें, आशवस्त करता स्नेह भाव।प्रेम कि तरह ही मीठी है ये कवितायें। कलावंती,रांची।

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  10. एक बार फिर, एक लंबे अंतराल के बाद अपनी ही इन कविताओं को पढ़ना गोया किसी अन्य की कविताओं को पढ़ना है। प्रेम सच में विचित्रतम अनुभव है...खुला, अधखुला और बंद...आप उसे खोलना चाहते हैं, पर मन डरता है कि खिले फूल की पंखुड़ियों-सा कहीं वह बिखर न जाए...कबीर ने सच कहा है- गूंगे केरी सर्करा बैठा ही मुसकाय...

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  11. प्रेम पर कविता कहानी चाहिए,टिप्पणी नहीं। मन की बात तुमने मेरी कही। मैंने भी प्रेम किया है। प्रेम पात्र के न रहने पर भी उतनी ही शिद्दत से। वसन्त आता नहीं अब किसी एक दिन
    अब बसन्द चिरन्तन है प्रेम की तरह।

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    1. मन से मन की राह... स्त्री मन प्रेम के गहरे तल पर कब जा जुड़ता है दूसरी से , कब जल टापुओं के गिर्द हहने लगता है...

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