कथा - गाथा : तरुण भटनागर









तरुण भटनागर

24 सितंबर 1968, रायपुर (छत्तीसगढ)
जनजातीय क्षेत्रों में लगभग सात बरसों तक अध्यापन कार्य

कविताएँ, कहानियाँ अनुवाद
कहानी संग्रह गुलमेंहदी की झाडियां (२००८) पर युवा रचनाशीलता का वागीश्वरी सम्मान  (२००९)
भूगोल के दरवाजे पर (कहानी), पर शैलेष मटियानी कथा सम्मान
कुछ कहानिओं का मराठी, उड़िया और अंग्रेजी में अनुवाद

सम्प्रति : मध्यप्रदेश की राज्य प्रशासनिक सेवा में
भारत भवन भोपाल में पदस्थ.
ई पता : tarun.bhatnagar.71@facebook.com


युवा कथाकार तरुण भटनागर की यह कहानी विस्मित करती है. आदिवासी समाज की संवेदना और यथार्थ कई तरह से हमारे सामने आ रहे हैं. तरुण इसे बाहरी और भीतरी नैतिकता के एक ख़ास एंगेल से प्रस्तुत करते हैं. इस कहानी के आदिवासी जोड़े की हंसी बाहरी समाज के खोखल पर देर तक गूंजती रहती है. तरुण के पास संवेदनशील भाषा है.  

 Dilip Shyam


ढिबरियों की कब्रगाह                                              

बस्तर के जंगल बेज़ार थे. जंगल का अंधेरा उदास था. आंगा देव आते. बेतरह रौशनी के बीच ठिठक जाते. उनका रास्ता अब जैसे कहीं नहीं जाता.
अंधेरे की कहानी एक औरत ने शुरू की थी.       
मां ने औरत को एक ढिबरी दी थी. मां को जंगल के अंधेरे का पता था. औरत को ढिबरी, रौशनी से ज्यादा कौतूहल थी. 

वह उन्नीस सौ बहत्तर का बसंत था.
जंगल में ढिबरियां पहुंच रही थीं. जंगल में ढिबरियां उतनी तिक्त नहीं थीं, जितने कपड़े. जंगल के लोगों को अंधेरे का मोल ठीक-ठीक पता नहीं था. अंधेरा हर जगह था, बेपनाह. यह मानना कठिन था, कि यह खो सकता है. सिमट-सिमटकर दूर जा सकता है. प्रागैतिहासिक अंधेरा, जो खत्म होने को इंकार था.

औरत की जंगली झोंपडी में ढिबरी जमीन पर पड़ी रहती. डुलती रहती. औरत उसे देखकर खुश होती. बाहरी दुनिया की चीजें उसे खुश करतीं. वह चुपचाप नीम अंधेरे में दुबक कर कहीं किसी कोने से बाहर की दुनिया को निहारती. एक बार उसने बस देखी थी. धूल फांकते रास्ते पर गुबार उठाती बस, जो हफ्ते में एकाध बार बाहरी दुनिया के उस विद्युतविहीन तथा नक्शे पर आज तक बेदखल गांव आ जाया करती थी. एकबारगी वह डर गयी थी. एक कंप उसको भेदता हुआ उसकी पीठ तक पहुंच गया था. पर फिर भी वह पेड़ों के पीछे दुबकी रही. बस को देखती रही. बाद में जंगल के भीतर के जंगल में लौटने पर उसे लगा कि वह लोगों को बताये कि उसने क्या देखा? वह सोचती, बोलने के लिए मुँह खोलती. आवाज़ करती. उसे समझ नहीं आया, वह पहियों को, लाइट को, बस के भीतर बैठे लोगों को, बस के पीछे से निकलते धुंए को कैसे समझाए. वह पहिये पर ही अटकी रही. उसकी दुनिया में कुछ भी ऐसा नहीं था जिससे वह बस के पहिये को ठीक-ठीक समझा पाती. वह नहीं बता पाई.

वह नहीं बता पाती थी. जंगल में उसने सबसे ज्यादा बार बाहर की दुनिया देखी थी. जंगल में वह सबसे ज्यादा बार बाहर की दुनिया पर अजीबोगरीब आवाजे़ं निकालकर चुप हो जाती थी. पर फिर भी वह बाहर की दुनिया देखती. कभी-कभी गर्दन उचकाकर देखती, कभी छिपकर खुद को ढंककर, कभी एकदम से सामने आने के बाद जब लोग एक अर्धनग्न औरत को इस तरह बाहर की दुनिया देखता हुआ देखते और हूटिंग करते, तब डर कर भागते हुए भी हर बार उसने देखी. वह कौतुहल थी. बाहर की दुनिया जादुई थी. कितनी-कितनी तो उकसाने वाली.

औरत को सबसे पहले घोटुल के बुजुर्ग ने चेताया था. चेताना सही शब्द नहीं है. यूं कहें चुनौती दी थी. बुर्जुग हर रात घोटुल के सामने इकट्ठा लकड़ियों के ढेर को आग में बदलता था. उसकी आग की लपटें आकाश तक जाती थीं. इस तरह कि कभी-कभी कोई तारा उस आग से जलकर भस्म हो जाता और आकाश के एक कोने से दूसरे कोने तक तेज लाइट छोड़ता, नष्ट होता फिसलता जाता. उसकी सारी रौशनी एक झटके में ही खत्म हो जाती. बुजुर्ग पर आंगा देव खुश है. संसार की हर रौशनी को खत्म करने की शुरूआत आकाश के तारों को भस्म करने से ही तो होती है. रौशनी यानी पाप. तारा यानी अपराधी. टूटता तारा मतलब सजा. पल भर में टूटते तारे की सारी आने वाली ज़िन्दगी की भरपूर रौशनी का एक पल में खत्म हो जाना मतलब, .........मतलब जंगल की दुनिया में अब कोई दुबारा पाप नहीं होगा. एक दिन उसकी आग आंगा देव के प्रताप से आकाश के सारे तारों को भस्म कर ही देगी. ऐसे महामानुष के सामने ढिबरी की ज्वाला की बात करना बड़ा बेतुका और हास्यास्पद था. पर जंगल में ढिबरियां बढ़ रही थीं. घोटुल का बुजुर्ग दुःखी हो रहा था, हताश और क्रोधित भी.
औरत को ढिबरी जलानी थी.   
दुनिया आगे बढ़ चुकी थी. बाहर की दुनिया ने पन्द्रह साल पहले नमक की जो दुकान खोली थी उसके पास ही घासलेट की एक दुकान साल भर पहले खुल चुकी थी. औरत ने मां को ढिबरी में घासलेट डालते देखा था.

वह अक्सर माँ को कुछ करता देखकर लपक आती थी. दरवाजे की ओट में खडी होकर माँ को काम करता देखती, अपलक. माँ उसे पास बुलाती. कहती कि वह करे. वह खुद करे यह. खुद करने के नाम पर वह शरमा जाती. माँ उसे अक्सर बताती, सिखाती. माँ को पता था, कि औरत एक दिन चली जायेगी. एक दिन वह नहीं आयेगी और जंगल में ही रह जायेगी. फिर कभी लौटेगी नहीं. यूं वह घर के काम के लिए आई भी नहीं थी. जंगल के बाहर की दुनिया में कौतुहल नहीं होता तो वह जंगल के बाहर कदम भी नहीं रखती. गांव की एक औरत ने माँ को कहा था, कि वे किस्मत वाली हैं, जो जंगल की इस औरत ने उनके घर बाई का काम करना स्वीकारा....वे औरतें तो इस तरह जंगल की हैं, कि एकबारगी जंगली जानवर जंगल छोड दें पर वे नहीं. माँ को उसी दिन लग गया था, कि वह किसी भी दिन चली जायेगी. माँ जंगल से डरती थी. वह पिता से ज्यादा जंगल से डरती थी. वह जानती थी, कि संसार की हर औरत जंगल से डरती है. अंधेरे से डरती है. बस इसी वजह से एक दिन उसने औरत को ढिबरी दे दी थी. माँ आश्वस्त थी, कि जंगल के घुर अंधेरों में यह ढिबरी उसका डर कुछ कम कर देगी. माँ को नहीं पता था, कि अंधेरा तो जंगल की औरत के साथ हमेशा चलता है. वह उसकी देह पर चिपककर उसे और काला करता रहता है. पता नहीं वह अंधेरों को भगाना चाहे भी या नहीं. 

आदमी को औरत की हिम्मत अच्छी लगी. जंगल के दूसरे आदमियों की तरह वह भी औरत की हिम्मत बढ़ाता था. उसकी हिम्मत पर ताली बजाता था. औरत उससे सलाह-मशविरा करके ही घासलेट लाने निकली थी. घासलेट लाने के लिए उसके पास कुछ भी नहीं था. मिट्टी के कुछ बर्तन थे. वह जानती थी घासलेट इसमें नहीं आ सकता. उसने सोचा वह घासलेट वाले से बोलेगी कि वह सीधे ढिबरी में ही घासलेट डाल दे. उसे चाहिए ही कितना. चुल्लू भर.
वह शाम के धुंधलके में घासलेट वाले के पास गयी थी.

घासलेट वाला दुकान बंद कर रहा था. औरत को देखकर वह जल्दी-जल्दी सामान बटोरने लगा. औरत उसके सामने जा कर खड़ी हो गई. घासलेट वाले आदमी ने औरत को ऊपर से नीचे तक घूरा. औरत खड़ी रही. औरत को अजीब लगा. जंगल में इस तरह नहीं घूरते हैं. जंगल में घूरने में कोई जल्दीबाजी या टकटकापन नहीं होता है. जंगल में घूरने में एक खुशी होती है. घूरे जाने वाली घूरने वाले को देर तक घूरने देती है. अगर बीच में ही उसे कहीं जाना पडे तो उसे एक अपराधबोध होता है. जंगल में इत्मिनान से और अपनी तरह से घूरने का शऊर है. उसे बाहर की दुनिया का घूरना कौतुहल भरा लगा. बाहरी दुनिया का घूरना औरत को अच्छा लगा. घासलेट वाले आदमी की आंखें औरत की छाती पर टिकी थी. औरत मुस्कुरा दी.

घासलेट वाले आदमी ने उंगलियों से एक अश्लील इशारा किया. औरत उसकी उंगलियों से बनी गोल आकृति को देखती रही. वह इस इशारे को बूझ नहीं पाई. यह जंगल का इशारा नहीं था. उन मायनों के लिए जंगल को इशारों की दरकार कभी नहीं रही. औरत देर तक उंगलियों के उस संकेत को देखती रही. घासलेट वाले आदमी ने उसे देखकर अपनी भौहें उचकाईं. एक बार, दो बार, तीन बार...... औरत उस इशारे और भौहों के उचकने के बीच सूत्र तलाशती रही. वह सूत्र बस्तर से बहुत बाहर, सात समुद्र पार था. औरत की पहुंच सात समुद्र पार नहीं थी. औरत को लगा यह कोई दिल्लगी है. दिल्लगी ही तो है. वह घासलेट वाले आदमी को देखकर मुस्कुरा दी. घासलेट वाला आदमी भी उसे देखकर मुस्कुरा दिया.

घासलेट वाले आदमी ने देख लिया था कि औरत के हाथ में ढिबरी है. कि ढिबरी औरत की मुट्ठी में है. कि ढिबरी खाली है. वह जानता था कि जंगलों में ढिबरियां अभी नई हैं. ढिबरियों का कौतुहल आजकल जंगल की आवाजों में बार-बार गूंजता है. ढिबरियां अब जंगल के गीतों में हैं. उनकी बानकी, उनके किस्से,  उनका कौतुहल चुपके-चुपके जंगल में फैल रहा है. घासलेट वाले आदमी को पता था कि जंगल को ढिबरियों की लत लगने में अभी समय है. अभी तो अचरज है. बातें हैं. हंसी और अचानक की चुप्पियों भरे किस्से हैं. अभी सबसे सही समय है. बिल्कुल सही वक्त.

घासलेट वाले आदमी ने औरत को अंदर आने को कहा. दुकान का सारा सामान बटोरा जा चुका था. औरत उसके साथ उसके कमरे में भीतर आ गयी. कमरे में तरह-तरह की कुप्पियों, टीनों और जैरीकेनों में घासलेट रखा था. वहां एक बड़ा सा ड्रम भी था. ड्रम घासलेट से लबालब था. औरत की आंखें अचरज से फटी रह गयीं. वह अवाक् घासलेट के पीपों और जैरीकेनों को देखती रही. पूरे कमरे में घासलेट की गंध आ रही थी. औरत को घासलेट की गंध अच्छी लग रही थी. जंगल को यह नई गंध थी.

घासलेट वाला आदमी औरत की नग्न पीठ पर हाथ फेर रहा था. औरत को उस स्पर्श में कुछ भी अजीब नहीं लगा. स्पर्श मतलब चाहना. स्पर्श यानी प्यार. जंगल में स्पर्श याने ना कही जा सकने वाली एक खुशी. जैसे साथ-साथ होने की खुशी. अपने और अनजाने हर किसी के स्पर्श में साथ-साथ चलने और आपस में हर अच्छी चीज बांट लेने का मतलब था. औरत को घासलेट वाला आदमी भला लगा.

घासलेट वाले आदमी का हाथ औरत की छाती पर था. औरत को अजीब सा एहसास हुआ. वह इस चीज के लिए तैयार नहीं थी. उसने घासलेट वाले आदमी को ऊपर से नीचे तक देखा. उसे उसकी टकली खोपड़ी, फ्रेंच दाढ़ी और बनियान की नीचे से बाहर तक फुटबाल की तरह निकली तोंद नजर आयी. औरत को अपना आदमी याद आया. वह दिन भी जब घोटुल की बुझ चुकी आग के पास तमाम युवा लड़के-लड़कियों के सामने पूर्णिमा की रात उसने  उसे चुना था. उसका आदमी आज भी खासा मजबूत और कितना तो मस्त है. औरत को लगा वह घासलेट वाले आदमी से कह दे कि वह इस बारे में बाद में सोचेगी. इसमें इतनी जल्दी क्या? कितना तो समय है? कितनी-कितनी बेफिक्रियाँ? पर घासलेट वाला आदमी लगभग उस पर टूट ही पड़ा था. जब वह उसे बिस्तर पर धकेल रहा था ढिबरी लुढ़ककर कमरे के एक कोने में गोल गोल घूमने लगी थी. औरत उस ढिबरी को लपककर उठा लेना चाहती थी. वह उस ढिबरी को देख रही थी. एकबारगी वह घासलेट वाले आदमी को भूल गई.

जब घासलेट वाला आदमी उस पर चढ़ा हुआ था, औरत ने उससे बस इतना ही कहा कि उसे बस एक चुल्लू घासलेट चाहिए. उसने अपनी तीन उंगलिओं से चुल्लू बनाकर बताया. इतना. बस इतना ही. एक बूंद भी ज्यादा नहीं. बस इतना ही तो......
घासलेट वाला आदमी उसे बिस्तर पर छोड़कर जल्दी ही उठ गया. औरत को लगा जैसे कुछ भी नहीं हुआ. यह सब ऐसे तो नहीं होता है. यह बहुत देर तक होता है. वह कपडा पहरते हुए नग्न घासलेट वाले आदमी को अचरज से देखती रही. घासलेट वाला आदमी शरमा गया.
जंगल लौटकर औरत ने आदमी को घासलेट का पूरा किस्सा सुनाया. आदमी को हंसी आ गई. आदमी को हंसता देख औरत भी हंस पड़ी. दोनों हंस रहे थे. जंगल हंस रहा था. बाहर की दुनिया शर्म से पानी-पानी हुई जा रही थी. घासलेट वाले आदमी को औरत की तीन उंगलियों में बना चुल्लू नजर आ रहा था. उसने सोचा अब जब भी औरत आयेगी वह उसे तत्काल घासलेट देकर रवाना कर देगा.

जंगल के आदमी को पता था कि बाहर की दुनिया में यह पाप है. उसने औरत को बताया कि यह पाप है. बाहरी दुनिया में पाप. कि पाप की भी सीमा होती है. उसने औरत को बताया कि, जंगल का पाप जंगल की सीमा तक ही चलता है. बाहर की दुनिया में बाहर का पाप चलता है. बाहर का पाप, बाहर की दुनिया की सीमा तक ही चलता है. पापों के अपने-अपने दायरे हैं. पापों की अपनी-अपनी बिरादरी है. अपने-अपने लोगों पर पापों के अपने-अपने दावे हैं. जैसे जंगल में किसी रात आग और नाच से पहले लिंगो देवता को तर्पण न करना. ठीक ऐसा ही पाप.
औरत डर गई. वह बाहर की दुनिया में, बाहर की दुनिया के पाप का भागी नहीं बनना चाहती थी. क्या हुआ अगर वह पाप जंगल के बाहर का है? उसकी अपनी दुनिया का नहीं. कुछ नहीं होता. बाहर की दुनिया के उस पाप को भी औरत वहां का पाप मान लेगी. वह बाहर की दुनिया के पाप को अपने माथे पर लेप लेगी. वह उसे तिनका भर भी नजरअंदाज नहीं करेगी. उसने मान लिया. फिर वह कभी घासलेट की दुकान नहीं गयी.

बाहर की दुनिया की घासलेट की दुकान का एक बेहद ईमानदार ग्राहक खत्म हो गया. जंगल के अंधेरे को चुनौती के लिए एक ढिबरी कभी नहीं जली. औरत के रहवास में वह डुलती रही. उसका घासलेट जमीन में बिखर-बिखर गया. जंगल की मिट्टी में सारा घासलेट खत्म हो गया. औरत एक दिन बड़ी नदी गयी. जंगल की बड़ी नदी. उसने वह ढिबरी नदी में फेंक दी.

उसे माँ याद आई. बाहरी दुनिया की माँ. जब माँ ने उसे ढिबरी सौंपी थी तब उसका हाथ माँ की हथेलियों में था. दोनों हथेलियों के बीच ढिबरी थी. उसने माँ की आंखो में वह भाषा पढ़ी थी. माँ, औरत की और औरत माँ की भाषा को ठीक-ठीक नहीं समझती थी. पर यह बात माँ उसे समझा पाई थी. वह जान गई थी, कि उजालों की दुनिया वाली माँ उसे अंधेरों से बचाना चाहती थी. 

औरत की आंखें भर आईं. बडी नदी की लहरों पर उछलती कूदती दूर जाती ढिबरी को वह ताकती रही. उसका गला भर आया. उसने नदी का पानी अपनी अंजुरी में भरा और अपने चेहरे पर बितरा लिया. वह उस ढिबरी को तब तक देखती रही जब तक वह नजरों से ओझल नहीं हो गई.
जंगल की हर नदी, बड़ी नदी इन्द्रावती में मिलती है. जंगल मानता है संसार के हर पानी का आखिरी रास्ता इन्द्रावती है. पानी की हर धार बस्तर के जंगलों के बीच लकदक बहती जाती इंद्रावती के अलावा कहीं और खत्म नहीं होती .

इन्द्रावती बरसों से खाली रह आयी ढिबरियों की कब्रगाह का नाम है.
____________________________

17/Post a Comment/Comments

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. तुरंत फुरत पढ़ गया !बहुत बढ़िया ! ढिबरी का द्योतक बहुत उम्दा बन पड़ा है ! तरुण जी को बधाई और अरुण जी का आभार !!

    जवाब देंहटाएं
  2. समालोचन बहुत अच्छी कहानी लाया है..सोच रही हूँ ढिबरी के बारे में...इन्द्रावती और स्त्री के बारे में..

    जवाब देंहटाएं
  3. इन्द्रावती जंगलों में ही नहीं शहर की खामोशियों में भी बहती है..वहां वह नियोन लाइट्स की कब्रगाह होती है....स्त्री वही है..जंगल के भीतर भी, बाहर भी...

    जवाब देंहटाएं
  4. समालोचना हमेशा की तरह बेहतरीन कहानी लेकर आया है. ढिबरी , जंगल का अँधेरा ,औरत और पाप के इर्द -गिर्द एक अच्छी रूपक कथा .

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत अच्छी कहानी, बहुत बहुत बधाई तरुण जी, शुक्रिया समालोचन!

    जवाब देंहटाएं
  6. राजेश त्रिपाठी3 अक्तू॰ 2012, 9:49:00 am

    तरुणजी ,बहुत बढ़िया....! मैंने पहली बार आपकी कहानी पढ़ी.....! छोटी सी कहानी ने तब और अब के आदमी की सोच को कितनी स्पष्टता से व्यक्त किया है.....!

    जवाब देंहटाएं
  7. बेहद गहन अर्थों को समेटे एक उम्दा कहानी बहुत कुछ कह गयी।

    जवाब देंहटाएं
  8. Tarunबहुत अच्छा लिख रहे हैं आदिवासी समाज और उसके निरंतर आपद्ग्रस्त होते जा रहे जीवन व संस्कृति के विषय में ...अभी सितम्बर की हंस में उनकी कहानी "चाँद चाहता था कि पृथ्वी रुक जाये"...गज़ब की विचारोत्तेजक व अभिनव दृष्टि वाली थी ...बधाईयाँ..इस युवा लेखक और समालोचन दोनों को :)

    जवाब देंहटाएं
  9. ज्योत्स्ना पाण्डेय3 अक्तू॰ 2012, 3:50:00 pm

    संवेदना के जंगलों में अंधेरों के इर्द-गिर्द घूमती औरत आज भी एक अदद ढिबरी की तलाश में है .....तरुण जी को बधाई एक अच्छी कहानी के लिए..........समालोचन को एक अच्छी कहानी देने के लिए Arun Dev को बधाई...

    जवाब देंहटाएं
  10. यकीनन अच्छी कहानी है लेकिन तरुण की हंस के सितंबर अंक में आई कहानी चांद चाहता था कि धरती रुक जाए, निराश करती है। कुछ-कुछ सरकार का पक्ष धारण करती हुई।

    जवाब देंहटाएं
  11. तरुण आरंभ ही से गंभीर और कनसिस्टेंट कथाकार हैं.

    जवाब देंहटाएं
  12. शुरू से अंत तक बांधे रखा , निसंदेह अच्छी कहानी |

    regards.
    -aakash

    जवाब देंहटाएं
  13. निस्‍संदेह तरुण की कहानी की केन्‍द्रीय संवेदना वृहत्‍तर मानवीय सरोकारों को बखूबी रेखांकित करती है, वे जंगल के परिवेश और जीवन की विश्‍वसनीय छवि प्रस्‍तुत करते हैं, पर कहानी को पढ़ते हुए बराबर मुझे यह लगता रहा कि कि यही कहानी स्‍मृतियों, दृश्‍य बिम्‍बों, अनुभव-चित्रों के कोलाज बनाकर रचने की बजाय यदि वे यथार्थपरक शैली में रची जाती - कथा-परिवेश और चरित्रों के अपने जीवंत सामाजिक रिश्‍तों और बाहरी दुनिया से उसके स्‍वाभाविक टकराव के साथ रूपायित की जाती तो और गहरा प्रभाव छोड़ सकती थी, तब यह कौतुहल और कथा-शैली के विस्मित कर देने वाले प्रयोगों में रिड्यूस होकर न रह जाती। बहरहाल, ये वरण तो कथाकार का अपना है। शुभकामनाएं।

    जवाब देंहटाएं
  14. पहले तो इतनी अच्छी कहानी के लिए बधाई.....बस्तर अंचल की विडंबनाओं का अच्छा चित्र प्रस्तुत किया है आपने। आंगा देव एवं बस्तर के घोटुल आपकी कथा वस्तु बने पढ़ कर अच्छा लगा...बस्तरिहा संस्कृति को आपने बड़ी ही इमानदारी के साथ प्रस्तुत किया, एक बार पुनः बधाई

    जवाब देंहटाएं
  15. कहानी कहने का अंदाज़ अच्छा लगा ,आदिबासी के जीवन पर कुछ और अच्छा साहित्य पढना चाहती हूँ

    जवाब देंहटाएं
  16. एक उम्दा कहानी पढ लेना महसूस हो रहा है....

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.