मेघ - दूत : कविता का स्त्री उत्सव : प्रेमचन्द गांधी











कवि, संस्कृतिकर्मी प्रेमचन्‍द गांधी ने विश्व साहित्य से स्त्रिओं द्वरा रचित स्त्री संवेदना और सौंदर्य – बोध की कुछ कविताओं का चयन कर उनका हिंदी में अनुवाद किया है. ये कविताएँ साथ साथ रहने वाली पर समानांतर दुनिया का अंतरतम प्रदर्शित करती हैं. ऐसा कुछ जो अब तक हमारी संवेदना से अछूता ही रहा. चयन और अनुवाद बेहतरीन. 






ll कविता का स्‍त्री उत्‍सव है यह ll         

स्‍त्री मन और देह को जितना रहस्‍यमयी माना-कहा जाता रहा है, उसके पीछे पुरुषवादी समाज की सदियों पुरानी सोच है, जिसने रहस्‍य के आवरण में जीवन की कठोरतम सच्‍चाइयों को दुनिया से बेदख़ल रखा. जिन समाजों में स्त्रियों को स्‍वतंत्रता मिली, उन्‍होंने इन रहस्‍यों से न केवल परदा उठाया, बल्कि ऐसी संवेदनशील रचनाएं भी प्रस्‍तुत कीं जो धर्म और नैतिकता के बंधनों में कभी संभव नहीं थीं. ज़ाहिर है कि पुरुष उन विषयों पर अधिकारपूर्वक कभी नहीं लिख सकते थे, इसलिए महिलाओं के पुरज़ोर समर्थन के बावजूद उनकी रचनाओं में वह स्‍वर कभी नहीं आ सकता था. भारतीय भाषाओं में बेहद वर्जित माने जाने वाले इन विषयों पर कम ही लिखा गया है.


पिछले दिनों कुछ ऐसी कविताएं पढ़ते हुए महसूस हुआ कि इन्‍हें हिंदी में लाना चाहिये. इस कोशिश में विभिन्‍न स्रोतों से प्राप्‍त कविताओं में से कुछ कविताएं मैंने हिंदी में अपनी भावभूमि और भाषा में रखने की कोशिश की है. संख्‍या में कम इसलिये कि बहुत-सी कविताओं के संदर्भ हमारी चेतना को शायद इस तरह नहीं संवेदित कर सकें, जैसे इन कविताओं के. इधर हिंदी में कुछ युवा कवयित्रियों ने वर्जित विषयों पर लिखने की शुरुआत की है, लेकिन वे जितनी चौंकाने वाली रचनाएं हैं उतनी संवेदना के धरातल पर नहीं. इन अनूदित कविताओं से नारी मन और देह के अज्ञात संवेदनशील क्षेत्रों का एक नया संसार खुलता है कि इन विषयों पर ऐसे भी लिखी जा सकती हैं कविताएं... इसी उम्‍मीद के साथ ये कविताएं प्रस्‍तुत हैं. कविता की मूल संवेदना को बनाये-बचाये रखने की पूरी कोशिश अनुवाद में की गई है, फिर भी कमियां हैं तो अनुवादक की.
:: प्रेमचन्द गाँधी  


     

एक खाली कोख

एलिसन सोलोमन



मैंने नहीं देखी कोई कविता
मासिकधर्म की बदसूरती के बारे में
वैसे ऋतुचक्र चमत्‍कारिक होते हैं
चंद्रमा की चाल नियंत्रित रखती हैं हमारी जिंदगियां
रक्तिम लाल फूलों के सुंदर अवशेष
वे हमारे स्‍त्रीत्‍व की निशानियां हैं
हमारी शक्ति
कुदरत के साथ हमारा पक्‍का रिश्‍ता


मैंने कभी नहीं देखी कोई कविता
जो बताती हो उस उत्‍सुक इंतज़ार को
ना पाने की नहीं
बस रक्तिम निशान पाने की
बारंबार फिर से
यह जानते हुए कि मासिकधर्म
चमत्‍कारिक नहीं हैं
गहरे लाल फूल सिर्फ निशानी हैं
एक खाली कोख की

मैंने कभी नहीं पढ़ी कोई कविता
जो बताती हो कि
मासिकधर्म एक मानसिक अवस्‍था है
यह कि एक खाली कोख भी
बहुत खूबसूरत होती है
जब मैं देखती हूं ये कविताएं
मैं जान जाती हूं कि
बांझ स्‍त्री भी लिखती है कविताएं.



अपने गर्भाशय के लिए कविता
लूसिलै क्लिफ्टन

अरे गर्भाशय तुम
तुम तो बहुत ही सहनशील रहे हो
जैसे कोई ज़ुराब
जबकि मैं ही तुम्‍हारे भीतर सरकाती रही
अपने जीवित और मृत शिशु और
अब वे ही काट फेंकना चाहते हैं तुम्‍हें

जहां मैं जा रही हूं वहां
अब मुझे लम्‍बे मोजों की ज़रूरत नहीं पड़ेगी
कहां जा रही हूं मैं बुढ़ाती हुई लड़की
तुम्‍हारे बिना मेरे गर्भाशय
ओ मेरी रक्‍तरंजित पहचान
मेरी एस्‍ट्रोजन रसोई
मेरी कामनाओं के काले झोले

मैं कहां जा सकती हूं
तुम्‍हारे बिना
नंगे पांव और
कहां जा सकते हो तुम
मेरे बिना




गर्भपात 
नीना सिल्‍वर 

क्‍या था तुम्‍हारे पेट में?”
मेरी मां की सवालिया आंखें
नासमझी का आवरण ओढ़े
उबल पड़ती हैं
ठण्‍डी हवा खड़खड़ाती चली जाती है

इस बीच मैं अविचल खामोश खड़ी रहती हूं
धुले हुए गर्भाशय की दीवारों से जद्दोजहद करती
उस दर्द का वह फूला हुआ घाव सहते हुए 
जो उसे देह से अलगाने के कारण लिपट गया दीवारों से 

यह ज़रूर ग़ैर यहूदी बच्‍चा रहा होगा
तुमने इसे इसीलिये छोड़ दिया क्‍योंकि
वो शख्‍स़ यहूदी नहीं था.

मैं झुकते हुए हंसती हूं
आंसुओं से भरा विरोध जताते हुए

मेरी जिंदगी में किसी दूसरे के लिए कोई जगह नहीं
चाहे कोई कितना भी सुंदर क्‍यों न हो
तुम जानती हो मां
मैं तो अभी शुरुआत कर रही हूं
जागने की 
खुशियों की एक नई भोर लाने की
मेरी अपनी बच्‍चों जैसी हंसी पाने की
जिसे तुम या कोई नहीं छीन सकता
अब चाहे तुम कितनी भी त्‍यौरियां चढ़ा लो





अपनी आखिरी माहवारी के लिए 
लूसिलै क्लिफ्टन

अच्‍छा लड़की अलविदा
अड़तीस बरस बाद आखिर अलविदा
इन बीते अड़तीस बरसों में
तुम कभी नहीं आई मेरे लिए
परेशानियों के बिना
अपनी शानदार लाल पोशाक में
कहीं भी किसी भी तरह

अब आखिर यह विदाई हो चुकी है
मैं उस दादी मां की तरह महसूस कर रही हूं जो
बदचलन कहे जाने के दिन गुज़र जाने के बाद
हाथों मे अपनी तस्‍वीर लिये बैठी है
और आहें भर रही है कि क्‍या वह
सुंदर नहीं थी...
क्‍या वह खूबसूरत नहीं थी... 





जननी
पॉला अमान

दूधों नहाओ और पूतों फलो !’’
सेब और सांपों की चमकदार जगहों में
बुदबुदाती-गूंजती है यही आवाज़

क्‍या तुम्‍हारा परिवार है
अजनबी पूछते हैं ऐसे
जैसे एक बच्‍चा ही इकलौता फल है
मेरे जैसी उम्र की एक स्‍त्री के लिए
और संभावित प्रसवन-शक्ति ही
दुनिया के लिए उसका आखि़री विश्‍वास है

जैसे-जैसे मेरे जन्‍मदिन चालीस की ओर लपकते हैं
मेरे भीतर हर मौसम में परिवार और
उसके गुणसूत्र नाचते रहते हैं लेकिन
एक छोटे और जिद्दी शिशु की परवरिश के लिए
मैं सुबह चार बजे नहीं उठ जाती हूं

जब मैं गीत लिखने लगती हूं
गर्भावस्‍था के सपने देखने लगती हूं
प्रेरणाओं से भरा फूला हुआ पेट
जो पैदा करता है स्‍वर और शब्‍दों को
मेरे दिल के बाहर निकाल फेंकता हुआ
चीख कर उन्‍हें अपनी ही जिंदगी देता हुआ

अब मैं कविताएं करती हूं
मैं गूंजते व्‍यंजनों से
बेतरह भर दूंगी इस दुनिया को,
मैं ख़तरों से अंजान लोगों की देहरियों पर
रक्तिम छवियां और
विलाप करते शब्‍द छोड़ जाउंगी
मैं बेशर्म दुस्‍साहसिकता की मांस-मज्‍जा 
और उम्‍मीद की अस्थियों से भर देने वाली
रातों के रूपक पैदा कर छोड़ जाउंगी.




मां के आंसू
शेरी एन स्लॉटर


यह बहुत ही गंदी और ख़तरनाक दुनिया है
किसी भी बच्चे को जन्म देने के लिए,
फिर चाहे लड़का हो या लड़की

बिना इस बात से डरे कि कहीं उन्हें
ना चाहते हुए भी किसी गैंग में शामिल हो जाना है
या कि जीना है नशेडि़यों वाली गलियों में
बेफिक्र उस डर से जिसमें उन्हें तोड़ने हैं तमाम कानून
और इन्कार करना है किसी भी स्कूल में जाने से
और भटकना है सड़कों पर आवारा
उन ख़तरों से अंजान बनकर जो टकरा सकते हैं
जिंदगी के किसी भी मोड़ पर
बिना इस बात से डरे कि कम उम्र में ही
वे जन्म दे देंगे बच्चों को
कि विद्रोही हो जाएंगे अपनी मांओं से
उन सब डरों से डरे बिना जो कि वे हो सकते हैं

एक ऐसी सरकार जो कहती है कि
आइये और सेना में शामिल हो जाइये
मांओं के आंसुओं से कब्रिस्तानों में बाढ़ आ गई है
और मैं महसूस करती हूं कि
मैं वो वह कभी नहीं चाहूंगी
जो मेरे पास अभी तक नहीं है.



मेकअप
डोरा मलेक


मेरी मां बिना मेकअप वाली औरतों को पसंद नहीं करती
‘क्‍या है जिसे वे छिपा नहीं रहीं’
मतलब कोई मुर्दा चीज़ है जो बची है
और बची ही नहीं बल्कि जिंदा है

मैं जो कुछ भी कहती हूं वह
बादलों को बिल्‍कुल शांत कर देती है
जैसे वे उस खूबसूरत मुर्दा चीज़ को जानते हों

बिल्‍कुल असल, कोई मस्‍कारा नहीं, कोई सबूत नहीं
नीला आकाश, खाली चेहरा
एक विश्‍वसनीय झूठा खाली चेहरा नकली पैंदा
दुख जैसे जेहन में छुपा बैठा खरगोश

त्‍वचा जैसे कोई सहमत विचार वाला मूर्खतापूर्ण एकांकी
मेले में हर बच्‍चे के गाल इंद्रधनुष हो जाते हैं
ईश्‍वर मुझे मेरा चमकदार व्‍यक्तित्‍व दो
हर सांस जैसे एक खेल है
जियो हमेशा

मैं बहुत छोटी हूं
मुझे एक गुमनामी को दूसरी गुमनामी से
मिलाने के लिए मत कहना
मैं कहती हूं कि
मुर्दा चीज़ों को गुलाबी रंग दो कि इससे
वे सूर्योदय नहीं हो जाएंगी
जीवितों को नीला रंग दो कि
इससे वे आकाश, समुद्र, रसदार फल या कि
मुर्दा नहीं हो जाएंगे
ईश्‍वर हमें बख्‍श दो
हमारे कपड़ों को छोड़ दो
हमें नाकों चने मत चबवाओ

हमारी त्‍वचा को भीतरी परत तक उधेड़ दो
धरती भी साल में एक बार रंग बदलती है
लाल पत्‍ते पहने हुए जैसे
दरख्‍त बजाते हैं दुख और दर्द. 


प्रतिज्ञा
स्टीफनी हैरिस

रात का खाना एक कुरबानी है
बासी खाना और करीने से सजी मेज
जैसे ही वह उंडेलता है उसमें अपने दुख
वह इस कदर भर जाती है दुखों से कि
बमुश्किल हिल-डुल पाती है
फिर भी वह हर शाम उसे अपनी ही तरह अपनाती है
सूप और सलाद के दौरान
सुकून का जाम सजाने के बीच
उसके गिलास में ताकत भरते हुए
ख़ुद का गिलास उसका खाली ही रहता है

इसमें कुछ भी नया अथवा असामान्य नहीं है
उसकी मां और दादी ने भी यही सब किया होगा

मैं खुली आंखों से दुनिया देखने वाली
ग़ौर से देखती हूं यह सब
और प्रतिज्ञा करती हूं कि
जब मैं गिलास भरने लायक बड़ी होउंगी
तो सिर्फ एक गिलास होगा और
वो होगा मेरा अपना केवल...



खच्‍चर
जेन स्प्रिंगर

जब उन्‍होंने कहा कि मत बोलो तब तक
कहा ना जाए जब तक बोलने के लिए
हमने अपने कान मकई के भुट्टों जैसे बड़े कर लिए

जब उन्‍होंने हमें सब कुछ खा लेने के लिए मज़बूर किया
हम उनके तमाम दुखों को निगल गईं

जब उन्‍होंने हमें दीवार पर चित्रकारी करने के लिए पीटा
हमने परदों के पीछे वाले दरवाज़े रंग डाले

पीढि़यों तक वे ऐसे ही
हमें बेतरह बचाने की कामना के साथ
जीवन गुज़ारते रहे
बिना यह जाने कि कैसे बचाना है

और इसी सबके बीच हमने
असामान्‍य जगहों में तलाश लिया प्रेम
अपनी देह और चेहरों के उजाड़ गिरजों में
उनके लंबे तिरछे मुड़े हुए चेहरों में.
_______________________________________
सभी Sculpture : Mayyur Kailash Gupta   

प्रेमचंद गांधी
२६ मार्च१९६७,जयपुर
कविता संग्रह :  इस सिंफनी में
निबंध संग्रह : संस्‍कृति का समकाल
कविता के लिए लक्ष्‍मण प्रसाद मण्‍डलोई और राजेंद्र बोहरा सम्‍मान
कुछ नाटक लिखे, टीवी और सिनेमा के लिए भी काम
दो बार पाकिस्‍तान की सांस्‍कृतिक यात्रा.
विभिन्‍न सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी.
ई पता : prempoet@gmail.com

32/Post a Comment/Comments

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. कमाल का अनुवाद है. बहुत सहज ..
    स्त्रियों को यह ख़ास पसंद आएगा.

    जवाब देंहटाएं
  2. श्रेष्ठ कविताओं का सहज-सरल अनुवाद. प्रेम चंद को बधाई. दिल से. समालोचन का आभार.

    जवाब देंहटाएं
  3. Chitrakaar ka link bhi dete to achchaa hota.very nice chitrakaari

    जवाब देंहटाएं
  4. सभी कवितायेँ उत्कृष्टता का नमूना हैं ! प्रेम जी को बधाई डूब कर इनका अनुवाद करने के लिए !समालोचन का आभार !

    जवाब देंहटाएं
  5. kamaal ki kavitaye hai or behtreen anuwaad hai ,..is prakar ki rachnaye bahut kam padhne ko milti hai..

    जवाब देंहटाएं
  6. एक से बढ़कर एक कविताएँ. सहेजने लायक पोस्ट. आभार प्रेम भाई! आभार समालोचन!!

    जवाब देंहटाएं

  7. मेरी जिंदगी में किसी दूसरे के लिए कोई जगह नहीं
    चाहे कोई कितना भी सुंदर क्यों ना हो
    तुम जानती हो मां
    मैं तो अभी शुरुआत कर रही हूं
    जागने की........................


    भाई प्रेम चंद ने अपने शानदार अनुवाद की ताकत द्वारा हमें स्त्री विमर्श में विद्रोह के विलक्षण आरोह- अवरोहों का अदभुत आस्वाद करवाया है पुरुषवादी ,विध्वंश्वादी सत्ता ने स्त्री को तरह से तरह से alienate कर दिया है .....'मांओं के आंसुओं से कब्रिस्तानों में बाढ़ आ गई है'.. यह सब पढ़ना नए तरह के पाठ का पढ़ने जैसा है। प्रकृति व सामाजिक तानेबाने को बड़े ही जटिल संबंधों में व्यक्त करती है यह कवितायें ..... तमाम तरह के दबाब सहने के बाद भी इस धरती के सबसे अच्छे रूप की जीवनदायी ...आंसुओं से भरा स्त्री- विरोध ..... यह उस भोर के तरफ ले जाने के लिए आशान्वित है जहां वास्तविक खुशियाँ हैं बच्चों की हंसी है बिल्कुल स्वच्छ ....समाज के अनगर्ल बोझ के परे -'रातों के रूपक पैदा कर छोड़ जाउंगी' ... उल्ट बिम्ब का अदभूत इस्तेमाल ........भाई प्रेमचंद को बधाई ...और समालोचना का आभार जो उन्होंने इन सब को एक लड़ी में पिरोकर, इस सार्थक काम को हमारे सामने प्रस्तुत किया ..

    जवाब देंहटाएं
  8. बहुत सुन्दर सर आप बधाई के पत्र है अनुवाद से ज्यादा इस तरीके से सोचने और सारी कवितों को एक साथ लेन के लिए .

    जवाब देंहटाएं
  9. स्त्री अभिव्यक्ति की बेजोड़ कवितायेँ ........ सुन्दर और संवेदनशील अनुवाद ........ और योजनाबद्ध प्रभावशाली प्रस्तुति ( सम्पादकीय )

    जवाब देंहटाएं
  10. स्‍त्री-मन केन्‍द्रीय चिन्‍ताओं और उसकी अस्मिता से जुड़े सवालों पर केन्द्रित इन कविताओं का असर देर तक बना रहता है। प्रेम चंद गांधी ने वाकई बहुत सूझ-बूझ से इन कविताओं का चयन और इतना खूबसूरत सरस अनुवाद किया है। खास कर नीना सिल्‍वर की कविता 'गर्भपात' ये ये पंक्तियां दूर पीछा करती रहीं - 'तुम जानती हो मां / मैं तो अभी शुरूआत कर रही हूं / जागने की / खुशियों की एक नयी भोर लाने की / मेरी अपनी बच्‍चों जैसी हंसी पाने की / जिसे तुम या कोई नहीं छीन सकता / तुम चाहे कितनी ही त्‍यौरियां चढ़ा लो। ' इसी तरह शेरी एन स्‍लॉटर की कविता 'मां के आंसू' भी गहरा प्रभाव छोड़ जाने वाली कविता है। इन बेहतरीन कविताओं के लिए प्रेमजी का और समालोचन का आभार।

    जवाब देंहटाएं
  11. इन बेहतरीन कविताओं से अच्छे अनुवादो के जरिये रूबरू कराने हेतु समालोचन एवं प्रेमचंद गांधी जी का बहुत-बहुत आभार ...

    जवाब देंहटाएं
  12. ' एक खाली कोख ' आँखों में आँसू ले आयी | सभी कविताओं के अनुवाद और उनके समालोचन के माध्यम से हम सब तक इन कविताओं की संवेदनाओं को पहुँचाने के लिए श्री प्रेमचंद गाँधी जी तथा अपर्णा जी का तहे- दिल से शुक्रिया |

    जवाब देंहटाएं
  13. क्या कवितायें हैं ...? लाजबाब ..और अनुवाद भी उसी बेहतरीन तरीके का ...कहीं भी नहीं लगता कि हम किसी दूसरी भाषा से अनुदित कविता पढ़ रहे हैं ...बधाई आपको |

    जवाब देंहटाएं
  14. इतने सहज अनुवाद से कविताओं का सार एकदम मानस पटल पर एक गहरा असर छोड़ गया है....बधाई प्रेमचंद सर...धन्यवाद समालोचन....
    सुनीता

    जवाब देंहटाएं
  15. एक से एक सुन्दर कविताएँ । नारी ताकत, संवेदना, विचार, सोच और नारी जीवनों को परत परत स्पष्ट दिखाती कविताएँ ।
    अनुवादकको बहुत बहुत धन्यवाद संसारभर की इन सुन्दर कविताओं का हिन्दी अनुवाद के लिए ।

    मैं खुली आंखों से दुनिया देखने वाली
    गौर से देखती हूं यह सब
    और प्रतिज्ञा करती हूं कि
    जब मैं गिलास भरने लायक बडी होउंगी
    तो सिर्फ एक गिलास होगा और
    वो होगा मेरा अपना केवल...

    जवाब देंहटाएं
  16. लाजवाब कवितायें लीक से हट्कर

    जवाब देंहटाएं
  17. behetreen kavitayen, Umda anuvad,Premji ko sadhuvad, Samalochan ko dhanyavad.

    जवाब देंहटाएं
  18. यह एक ज़रूरी काम किया है आपने प्रेमचंद भाई. मुबारक

    जवाब देंहटाएं
  19. रिवाजों से हट कर .. नैसर्गिक .. और उसके दुखो को साथ लेता हुआ .. स्त्री तत्व से भरा उनकी संवेदनाओं के साथ .. बहुत सुन्दर रचनाएं

    जवाब देंहटाएं
  20. वाकई बेहतरीन अनुवाद और बेजोड़ कविताए

    जवाब देंहटाएं
  21. सभी कविताएं अंतर को छूने वाली और उन बातों पर उठाती लगीं जिन्हें हम जानते तो हैं लेकिन स्वीकार नहीं करते। उत्कृष्ट अनुवाद के लिए बधाई... वाकई ऐसी कविताओं का तो कोई अभाव नहीं है लेकिन उन्हें हमारी भाषा में हम तक पहुंचाने के लिए आप साधुवाद के पात्र हैं।

    जवाब देंहटाएं


  22. जब में गीत लिखने लगती हूँ ...गर्भावस्था के सपने देखने लगती हूँ ..प्रेरणाओं से भरा हुआ पेट .............!!
    जो पैदा करता है स्वर स्वर और शब्दों को ..मेरे दिल के बहार निकलता हुआ .....!!!
    चीख कर उन्हें अपनी ही जिन्दगी देता हूँ $$$$$$$$$$$$$$$$$.. वाह !!!वर्जित को अर्जित करना सामजिक द्रष्टि कोण में इतना भी आसन नहीं जबकि धरातल की कडवी सच्चाई हुआ करती है वो सगर्भित बातें और उनके संस्कार ...इस साहसिक रिद्यंगम गुंजन के लिए बधाई के पात्र है प्रेम जी Nirmal paneri

    जवाब देंहटाएं
  23. सुंदर ,अजीब सी अनुभूति से जुड़ता सा अहसास होता चला गया इन्हें पढ़ते-पढ़ते.......प्रेमचंद गांधी जी बधाई के हक़दार हैं ।

    जवाब देंहटाएं
  24. सुन्दर कवितायें और सटीक अनुवाद ! शेयर करने के लिए धन्यवाद !

    जवाब देंहटाएं
  25. कविताओं का चयन कवि की संवेदनशीलता का दर्पण है। यह बात इसलिए कि इन कविताओं को पढ़ते हुए मन में दुख तो उभरता है, कामना (कामुकता) नहीं। स्त्री की देह की उसके गर्भाशय की बात हो और केवल और केवल वेदना उभरे. , महत्वपूर्ण बात है।

    जवाब देंहटाएं
  26. stritav par likhi kavitaaon ko saarthak karta sunder anuwaad...

    जवाब देंहटाएं
  27. बहुत ही अच्छी कविताएं ।।।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.