कथा - गाथा : अपर्णा मनोज













अपर्णा मनोज अपनी कहानिओं के लिए पूरी तैयारी करती हैं. चाहे उसका मनोवैज्ञानिक पक्ष हो यह उसका वातावरण. यह कहानी नैनीताल की पृष्भूमि पर है. यह स्त्रीत्व की यात्रा की कहानी है. उसकी नैतिक निर्मिति पर पुर्नविचार की कहानी है.  मातृत्व के अहसास और पीड़ा की शायद ऐसी मार्मिक कहानी आपने नहीं पढ़ी हो.  



मैवरिक :
अपर्णा मनोज



अनंतर

वह मेरे सामने खड़ी है और मुझे लग रहा है कि असंख्य नरगिस मेरे बदन पर खिल रहे हैं. सफ़ेद नरगिसपीले पुंकेसर की छोटी -छोटी चोटियों में गुंथे .. जिनकी खुशबू ख़ुशकुन अहसास है पर इस अहसास के पीछे भटकती एक गाथा -कथा हैजो हॉन्किंग हॉर्नस में छिपे असल नैनीताल से शुरू होती है. न जाने क्यों नार्सिसस की कहानी याद हो आई.

नार्सिसस..सुरूप सुकुमार. थैसपई के एक प्रांत का आखेटक. वह हर उस स्त्री का तिरस्कार करता जो उसकी तरफ आकर्षित होती. उसकी इस घृणा ने कई रूपसियों के दिल तोड़े. आखिरकार नींद के इस देव से नफरत की देवी नेमेसिस नाराज़ हो गई. वह अनुगूंज बनकर उसे सुदूर प्रांत ले गई. हरे-भरे रास्ते. मोहविष्ट नार्सिसस उसका अनुगमन करता गया. जंगल पर जंगल. खूब घने जंगल. ऊंचे बिलोबा के पेड़. मीठे जल स्रोत्र. गुफाएं... अंत में एक छोटी झील. शीशे की तरफ साफ़.

नार्सिसस थक गया था. झील देखते ही उसकी प्यास दुगुनी हो गई. नेमेसिस दूर रुक गई थी. वह हंस रही थी. पर प्यास से व्याकुल नार्सिसस को उसका अट्टहास सुनाई नहीं दिया. वह झुका और झुका ही रह गया. झील में उसका सुन्दर बिम्ब लहराने लगा. वह अपने बिम्ब में कैद हो गया. हाथ स्थिर. आँखें अपलक पानी में झिलमिलाते बिम्ब को देखती... बस देखता रहा. साल बीते. युग बीते... और जब उसकी मृत्यु हुई तो वहीँ उसी जगह एक सुन्दर लाल डेफोडिल खिल गया.. डेफोडिल यानी नरगिस.

हम सब भी तो नरगिस बनकर जीते हैं. अपने-अपने बिम्बों पर मोहित. कई मोहित बिम्ब एक मोहविष्ट समाज बनाते हैं और इस सब में सच कितना बच रह जाता है?

मैं नार्सिसस के मिथ में एक स्त्री देखती हूँ. बहुत जवान होती लड़की. ये लड़की नरगिस बन जाती है और फिर न जाने कहाँ खो जाती है! रह जाता है तो कुएँ में चटखता एक शीशाजिसने नार्सिसस को बावला बना दिया था.

आप अपने बगीचे में जब भी नरगिस देखेंगे तो मेरी तरह ही आपके मन में भी एक पगला नरगिस जन्म लेगा. उसकी शक्ल एक बहुत खूबसूरत लड़की जैसी होगी. मुझे पूरा यकीन हैआप इस नरगिस को देख देखकर दुहराएंगे.. मैवरिक..आवारा..अनंतर ये गूंजेगा और आपके बहुत पास होगी तब सोमिलयानी मैं: यात्रा वृत्तांत के किसी पर्यटक की तरह ..

हाँतो इस अनंतर में मैं चल रही हूँ. एक तलाश में निकली हूँ. मेरे पैरों के नीचे रपटीला शीशा हैजिसमें मैं अपना चलना देख रही हूँ. ये एक अनंत यात्रा है. इस यात्रा में वह कब-कब साथ रहीठीक -ठीक याद नहीं पड़ता. लेकिन यदि वह न होती तो यात्रा भी न होती और न होती ये कहानी. निशि गंधा के फूल लपेटे ये अधूरा यात्रा वृत्तांत आपको सौंप रही हूँ. इसके पूर्व कि मैं कुछ कहूँ -सुनूँ ;एक छोटा सा प्रश्न है आपसे.. एक छह -सात महीने के बच्चे को शीशा दिखाइए.. क्या वह अपनी पूरी इमेज देख पाता हैशायद नहीं.. वह इसे टुकड़ों में देखता है. हाथ अलग देखेगापैर अलगसिर अलग और उसके लिए अपना प्रतिबिम्ब केवल खंड होता हैकिन्तु ये ही बालक जब अपनी इमेज को कुछ माह बाद एक शरीर रूप में देखता है तो उसे कैसा लगता होगाअपनी आइडेंटिटी को लेकरइस ओवर नाईट चेंज को लेकर कोई द्वंद्व तो रहता ही होगा वहाँसमाज को क्या इसकी भनक लगती हैमाँ तक को नहीं होती होगी.. शीशे में टूटे प्रतिबिम्ब को देखना यथार्थ है या एक पूरे संघर्ष के बाद अपनेआप को जान लेनाइस बात को यहीं छोड़े दे रही हूँ. आप पर. किन्तु दर्पण के मिथक में जीता आदमी अपने हर सच को अंतिम सच मानता है. कहानी जब पूरी चुक जाए और आप आश्वस्त हों खुद के लिएकहानी के लिएतो फुर्सत से इस प्रश्न का उत्तर ढूंढ़ लीजियेगा. फिलहाल एक लड़की के एथोस की पड़ताल करते हुए ..एक कहानी मैवरिक यानी आवारा पशु.

अपनी यात्रा से 

आज अठारह साल बाद यहाँ आई हूँ
सब कुछ बदल गया हैबस नैनी झील वहीँ की वहीँ हैपहाड़ भी वहीँ हैंवही वीपिंग विलोबहुत ऊपर से नैनीताल को बदलता देख रहे हैं येकहते हैं कि अंग्रेजों ने इन्हें विदेशों से लाकर  यहाँ लगाया थाजाने-पहचाने बाँज  के पेड़ों की सीमाएं आकाश के पास से शुरू होती दिखाई देती हैंमैं जब छोटी थी तब माँ कहा करती थीं कि यहाँ की झीलों में तब तक पानी रहेगा जब तक ओक के पेड़ों की जड़ें अपने ओक में यानी अंजुरी में जल भरे रहेगीपानी है झीलों मेंपर झीलों के कंठ सूखे के सूखेतपते हुएकिसी आपातकालीन भय से सिमटी हुई झीलेंओक भी हैंबदस्तूरबेतरह बादलों में भीगे ओकइन पर कोई मेघदूत ठहर गया है,पर कोई कालिदास नहीं जो लिख देता पाती-पाती संदेसेकहता कि," मेघालोके भवति सुखिनोप्यन्यथा वृत्तिचेतकंठश्लेष प्रणयिनिजने किंपुनर्दूरसंस्थेउज्जैन के विरही यक्ष की आँखों की तरह मेरे शहर की आँखें भी भीगी हैंकितने विस्थापित यक्षकोई लौट नहीं रहा घर को.

स्त्री का विरह कारुणिक हैपर पुरुष का प्रेम पपीहा हैउसका विरह भी पपीहा.. एक नक्षत्र बूँद की तड़प है उसमें .. उसी एक बूँद से जुड़ा वह चितचोर सा आकाश  में टकटकी लगाए रहता है.. आषाढ़ गिरे तो पी ले छक कर या फिर रट लगाये -लगाये आँखें मूँद ले.  मुझे अपना  शहर उसी  चातक -पुरुष जैसा दिखाई देता हैमनमीत पपीहापुकारतापुकारताघने वनों में सघनतर पुकारताषष्टिखात के इर्द-गिर्द सम्मोहन बुनता..पुकार की कोई अपनी अवधि होती है क्याकौन जाने .. पर हर  पुकार में एक दूरी जरूर रहती है और दूरी के पास अलग हो जाने का दुःख..ये दुःख अपनी जड़ें ढूंढ़ता है और जड़ें अपनी छाती में समय को दबाती चलती हैंसमय का  निचला पायदान इतिहास है..विगत.. जर्जर बूढ़ा और निठल्लान आँखों में रौशनीन कोई आस-पासस्मृतियाँ वृद्ध कच्चे नाखून की तरह अपनेआप झड़ जाती हैं..फिर भी वह गला खंखारता हैऐसेजैसे कोई अंधकूप हैगफलतकि कोई देख ले पलटकर और जान ले मन का हालइस बूढ़े शहर ने एक कहानी भीनी की भी दबा रखी हैभीनी उसके लिए लोक कथा ही तो हैजब वह भीनी को दोहराता है तो क्यों उसे कुंती याद हो आती हैतब वह सुबकता है ... सूखी आँखों से जाते शरद की बूँदें बरसती हैं .....म्लानम्लानम्लानऔर मलिनता की इस ध्वनि को किसी ने मेरे कानों पर रख दिया है.


अजनबी शहर के अजनबी रास्ते
 

मैं खड़ी हूँ यहाँ
कौन खींच लाया मुझेखुद को अजनबी पा रही हूँमेरे सिर के एन ऊपर एक पनकौआ मंडरा रहा हैदेस बेगानी स्मृतियों की तरहगहरे पानी में डुब-डुब  डुबकियां लगातामछलियाँ पकड़तागगन को उड़तापर कितनी उदासी है इसमेंचस्पा की हुई गहरी तन्हाईये चिड़िया भी एक सैलानी है यहाँमेरी तरहकौन कहेगा कि ये मेरा अपना नैनीताल हैमेरी जन्मभूमियाद नहीं पड़ता कि मैं कब रही यहाँहाँउन दिनों राम सिंह  बैंड की बड़ी धूम होती थीधुंधला सा याद हैयहीं झील के किनारे वे पुराने गीतों की धुन बजाते थेमेरी छोटी बहन जो करीब आठ वर्ष छोटी थी मुझसेवह इन धुनों पर खूब नाचा करती थी.  राम सिंह भीनी  के नन्हे -नन्हें हाथों पर थोड़ा सा चूरण रख दिया करते थेशायद इस चूरण के लिए ही वह नाचती थी.

इस समय मैं बोट हाउज़ क्लब के सामने खड़ी हूँ
यहाँ से उचक -उचककर होटल ग्रेंड की वही चिर-परिचित बड़े-बड़े बरामदों वाली बिल्डिंग देखने की कोशिश कर रही हूँपर नए -नए होटलों की कतारों के बीच वह दीख नहीं रहाआगे बढ़ती हूँहाँअब ये मेरे ठीक सामने हैवही पुराना परिसर किन्तु एम्बिएन्स बदली-बदलीरुक कर उसे देखती हूँबादल का एक हलका टुकड़ा उसकी छत पर टिका हैजैसे वह यहाँ से हिलेगा नहींये बिलकुल वैसा ही हैजिसे बचपन में मैंने कभी पकड़ना चाहा था और एक कैनवास में ये साँसें भरता रहा थाकभी नीला हो जाता तो कभी कालामेरे लिए तो ये ही सितारा होटल हैनैनीताल का सबसे पुराना होटलइसकी कहानियां माँ ऐसे सुनाती थीं जैसे ये उनकी अचल संपत्ति रहा होग्रेंड होटल और उससे जुड़ा एक ख़ास किस्सा जिसे माँ  सुनाकर खुश हुआ करती थींयाद कर होठों पर मुस्कान तिर आईभीनी  इस किस्से को माँ से सुनने की बार-बार जिद करती और जब माँ सुनातीं तो उसके लाल गालों से हंसी कूदती -फांदती  सफ़ेद दन्त पंक्तियों में ज़ज्ब हो जातीवह हंसी मन के कोने में कैद है आज भीमाँ कहतींउन दिनों दिलीप कुमार और वैजयंती माला यहाँ आकर रुके थेइसी होटल ग्रेंड मेंशूटिंग देखने वालों का मजमा लगा रहताशहर के इस प्यार को दिलीप कुमार ने होटल की चाय पिला कर लौटाया थामाँ भी गईं थी चाय पीने या चुपके से अपने प्रिय हीरो की सूरत देखने.  बाबू कहते कि माँ ने उसकी ये  फिल्म मधुमती १२-१३ बार देखी थी बसबड़ी-बड़ी मूंछों वाले गोरे -चिट्टे बाबू मेरे.. रौब -दाब वालेअपने को थोकदार बतातेकिसी लाट से कम नहीं थेईज़ा उनसे ज्यादा बात नहीं करती थींमैं भी कम ही बोला करती उनसेपर,भीनी..उसके पास अजब-अजब तरह की चाबियाँ थी.. किस खिलौने में कितनी चाबी भरी जाएउसका बालमन इन हिसाबों में बड़ा पक्का थाबाबू उसे खबीस बुलाते और वह उन्हें बदले में अपने दांत दिखातीउसका दायीं तरफ का तीसरा दांत कुछ ज्यादा ही नुकीला थाहँसते में वही पहले नज़र आताअपने उस दांत के साथ खबीस कितनी मासूम लगती थी.


यूँ ही चलते हुए
 : इतनी यादों के भटके हुए कारवां


अचानक मन बुझ गयाबार-बार उसकी सूरत झक बतख की तरह आँखों में तैरने लगीमैं क्यों रुक कर उससे नहीं पूछ पायी कि कैसी होबीच का लम्बा समय कहाँकिन संघर्षों में गुज़ाराउसका हाथ तक नहीं पकड़ पायीवही हाथ जिसे थामे मैं मल्लीताल के  हरे रास्तों से निकला करती थी.  कहाँ गुम हो गई थीफिर कब लौटी नैनीताल... यहाँ चर्च..बरेली डायसिस  के चर्च से इसका क्या वास्ता हो सकता हैया फिर मेरी तरह ये भी चली आई नैनीतालउसकी पोशाकउसकी आवाज़ सब कितना बदल गया हैअब लोग उसे क्या भीनी ही बुलाते होंगे.. उसकी आँखें कितनी पैनी हैंतब भी ऐसी ही थींइनके सहारे वह कहीं भीकिसी के भी मन में सीधे प्रविष्ट हो जाया करती थीआज भी उसने इसी तरह तो देखा थामुस्कराई भी थीआत्मीय लकीर सी खिंची मुस्कानकुछ बोली थी हौले सेक्या अब उसने ऐसे ही बोलना सीख लिया है.. यूँ धीमे -धीमे.

अलग लगी मुझेबहुत अलगलेकिन कुछ पुराना इस कदर उसके साथ चिपका था कि सब कुछ बदलने के बाद भी वह अजनबी नहीं लगी.

मैंने उसे गौर से देखा थासिर से गले तक सफ़ेद-नीली धारियों वाला विम्पल लपेटे..कंधे पर स्केप्यूलर झूल रहा था..उसका पारंपरिक सफ़ेद -नीला हैबिट बहुत चंज रहा था उस परथोड़े से बाल कनपटी के दिखाई दे रहे थेकाफी सफ़ेद हो गए थेहाथ में कोई  पुस्तक  लिए  थीमन किया था कि उसे भींच लूँ आलिंगन मेंहाथ खुल भी गए थेउसने भी देखा था..लेकिन वह चली गईनहीं रुकी.  मैं सेंट फ्रांसिस चर्च के पास हठात अकेली खड़ी न जाने क्या सोच रही हूँ.
 

दिमाग में झमाझम बर्फ गिरने लगी हैसब कुछ ढांपती  बर्फपीला पड़ा लिफ़ाफ़ा है ये बर्फ.

मैंने लगभग चौंकते हुए सिर घुमाकर इधर
-उधर देखालगा जैसे कोई पीछे खड़ा हैपर कोई न थामैं थीचर्च की लाल बिल्डिंग थी और बेचैन हवा.अजीब बात थीयहाँ की प्रकृति मेरे साथ कैसे कनेक्ट हो रही थी... हुबहू यादों को लौटा रही थी.. ये एक लाफिंग थ्रश की आवाज़ थीमैंने अपने मन की निस्तब्धता में इसे अभी-अभी सुनाकिन पत्तों में छिपी गा रही थी ये.. जैतूनी -भूरे रंग का ताज पहनेसफेद सीने वाली ये चिड़िया ..कितने साल बाद ये गीत सुन रही हूँभीनीयानि मेरी बहन.. रुक जाया करती थी ये गीत सुनकर और उसी दिशा में दौड़ने लगती थीकहती, "सोमी  इसका गीत हर बार अलग होता है न."

मैं हंसतीवह रूठ जाती," नहीं माननातो न मानो.  पर ध्यान से सुनो तो पता चले." फिर वह उस गाती थ्रश को ढूंढ़ निकालतीहंसकर बोलती, "जानती थी कि ये गीत इसके माँ बनने का आह्लाद हैसोमीदेखो कैसे आँख बंद करे गा रही है और इसका ये सतरंगा घोसला ...कितनी लाइकेन जमा कर रखी है .. पेड़ की लाइकेन से केमोफ्लेज हो रही है.  इसके अण्डों का रंग एकदम ओलिव नीला है." और फिर उँगली से वह लाइकेन खुरच कर मेरे कपड़ों में लगा देतीमैं उसके पीछे भागतीवह अपनी गोल -गोल फ्रॉक में उड़ती जातीउसके लम्बे घुंघराले बाल घटाओं से उड़तेफिर अचानक बीच रास्ते में रुक जाती और मुझसे लिपटकर हंसने लगती.  वह ऐसी ही थीथोड़ी चंचलथोड़ी दीवानीफिनोमिना ..एक किरदार.

और मैंउसकी सोमी..बहुत  शांतबहुत घुन्नीऔर अब कथाकार.


इसलिए सुनके भी अनसुनी कर गया


मैंने अपने घर का रास्ता पकड़ लियाआज मन है कि इस घर को फिर से सुनूँतब नहीं सुना था.  अनसुना कर चली आई थीईज़ा के साथबाबू के साथभीनी छूट गई थी हमसेपर इस घर में तो नहीं ही छूटी थी वहबितरा कर चली गई थी हम सभी कोइस घर की आवाजों कोउसके जाने के बाद घर वीराना हो गयाथोकदार जी की चाबियाँ वही ले गई अपने साथमैंने पिता को फिर कभी हँसते नहीं देखाईज़ा को मौन की लम्बी आदत थीसो वह नरकुल की तरह समय को भारी जूतों के साथ अपने ऊपर से जाता देखती रहींमैं सोमी..किल्मोड़े का जमुनिया रंग..जो यादों को पालता हैऔर उन्हें लाल -जामुनी बना देता हैबस यही किया मैंने भी.

फिर ये घर हममें से किसी को लौटा नहीं सका
.  अभी मैं इसके सामने खड़ी हूँएकदम अकेलीवही हरे रंग से पुती स्लान्टिंग छतअब रंग उड़ गया हैघर का चेहरासो  फकत फब्तियों के और कुछ नहीं वहाँभीनी के कमरे की खिड़की यहाँ से दिखाई दे रही हैअधखुलीकुछ बिम्बित करती हुईसीने को चाक करतीजहाँ थोकदार जी का लॉन हुआ करता थाजिसमें दाड़िम का होना वर्जित  थापर ज़र्द आलू ( ईज़ा की खुबानी और मेरे लिए प्रूंसके कई पेड़ थेवहाँ बिच्छूबूटी और रिंगाल दिखाई दे रहे थेबीच -बीच में जिरेनियम और पौपी आदतन उग आये थेजमी काही वर्षों के बिछुड़ने का फिसलन भरा अहसास ...

आहमैं फिर चौंकी.. पलटकर देखाकोई नहीं वहां.


हम भी किसी साज़ की तरह हैं


हवा से खिड़की का पट रह-रह सिहर जाता था और अँधेरे की चोर बिल्ली वहां से भागती नज़र आतीमुंह में खून से तर-बतर कबूतर दबायेफिर हवा बजने लगतीउसके दांत किटकिटाने लगतेघर क्या है एक रुबाई है..समरकंद से यहाँ चली आई..एक औरत के मानिंदऔर मैं उससे रूबरू.. एक औरत बनती लड़की का खैयाम..न जाने कौनसे उधड़े -उखड़े तम्बू सिलने बचे हैंजोड़ने बचे हैं या ये रुबाइयात विषम -विषम  का कोई हिसाब है.. सम यहाँ बैठ ही नहीं पाया कभी.

उस दिन भीनी अपने कमरे में चुपचाप चली गई थी
.
रात माँ ने दीया -बत्ती करते पूछा था," ..क्या हुआ?"
"कुछ नहीं ईज़ाबस जी ठीक नहीं."
"कोई तो बात है.. आज मम्मी की जगह ईज़ा.."
"नहींबस मन नहीं हो रहासिर भारी है. "
"कल तुम्हारा  जन्मदिन भी है.. क्या सोचा?"
"कुछ सोचा नहींअब बड़ी हो गई हूँ.. जन्मदिन क्या मनाना.."
"अरेइत्ती भी बड़ी नहीं हुई है.. सोलह  की.."
"मम्मीप्लीज़..बात करने का मन नहीं कर रहा..ईज़ासोमी से कहो न.. सितार रख देअच्छी
नहीं लग रही आवाज़."
"सोमी सिर दबा देगी तेरा.. ओह दरवाज़ा खड़का..लगता है तुम्हारे बाबू आ गए.." माँ चली गईं.


अपने कमरे में बैठी मैं सब सुन रही थी
भीनी की आवाज़ में विकलता थीईजा नहीं समझ पायीं पर मेरे लिए भीनी एक ऐसा भाव थी जिसमें मैं अपना बचपन देखती..अपना युवा होना देखती और भी बहुत कुछमेरी हमजोलीमेरी बहनमैं उसके कमरे में आ गयीउसके सिरहाने बैठ देर तक सिर दबाती रहीकई बार लगा  कि भीनी रो रही है.. पर मैंने उसके रोने की आवाज़ कभी सुनी नहीं थी..तो भला वह कैसे रो सकती थीमन का वहम थापर नहींइस बार वह सच रो रही थीउसका नीला दुपट्टा भीग गया थामैंने उसे बांहों में भर लियाउसकी हिचकियाँ मेरे कंधे पर वज़न डालती रहींपर न मैंने उससे कुछ पूछा और न उसने ही कुछ बताया.
फिर वह मेरी गोद में ही सो गईवह गहरी नींद में थी.मैं अपने कमरे में चली आई.

अगले दिन वह एकदम नॉर्मल लगी
अवसाद का कोई चिह्न नहीं था वहाँमैंने उसे गौर से देखाचंचलता नहीं हैमुलायमियत हैजैसी ईज़ा के चेहरे पर रहती हैहलकी सी फ़िक्र और सबको सहेजने का भाव.

हाँआज वह बड़ी लग भी रही थीमैंने उसका माथा चूमाउसने पलटकर कहा, "दीदी..सोलह  की हो गई तुम्हारी भीनी."
पहली बार उसने मुझे दीदी पुकारा थामैंने उसकी ठोड़ी ऊपर की, "हम्म बहुत बड़ी हो गई हमारी भीनी.."
पर मन में  एक अलहदा रहस्यमयी भाव जन्म ले रहा था जो मुझे आतंकित करता रहाबार-बार मुझे सचेत करता रहा..भीनी अब बड़ी हो गई.. ध्यान रहे.


ज़िंदगी की तरफ इक दरीचा खुला


इधर कुछ दिनों से मैं भीनी में आये बदलाव को महसूस कर रही थीवह अनमनी रहतीहिसालू अब उसे नहीं भाते थेबुरुंश अपने दुप्पटे में नहीं भरती थीहाँअकसर वह अपने कमरे में बैठी कोई किताब पढ़ती दिखाई देतीकभी -कभी मेरे कमरे में आकर सितार के तारों को बिना वजह छेड़ जाती..उसकी इस शरारत में अब वैसी सहजता नहीं रह गई थीकॉलेज भी कभी जाती,कभी नहींअपने कमरे की खिड़की से पता नहीं क्या तका करती.
फिर एक दिन वह मेरे कमरे में आईहौले से बोली, "सोमीमम्मी बाबू को कुछ कह रही थीं..तुम्हारे बारे में."

"क्या.."
"यही कि अब तुम ब्याह लायक हो गई हो.. बाबू को फ़िक्र करनी चाहिए.."

"अरे नहीं.. धत्त."
"दीदीतुम जो ब्याह गईं तो..मैं किससे बात करुँगी.."
"कहाँ जा रही हूँ पगली.."
"नहींजा तो नहीं रही हो."
"तो फिर."
"दीदीतुमसे कुछ कहना थाबाहर चलो न बगीचे में.."


हम दोनों बाहर आ गए
ठण्ड पड़नी शुरू हो गई थीस्वेटर में भी  कम्फर्टेबल नहीं लग रहा था.  गार्डन चेयर तक  ठंडी थीहम दोनों वहीँ बैठ गएवह चकोतरे के पेड़ को देख रही थी और मैं उस पर निगाहें टिकाये थी.  कुछ बोल नहीं रही थीलेकिन पता नहीं कितनी इबारतें उसके सौम्य मुखड़े पर बनती-बिगड़ती रहीं.

बाद को वही बोली, "सोमी.."
कितनी कातरता थीमैंने सहम कर उसकी तरफ देखाउसके ओंठ जुड़े थेबीच-बीच में काँप जातेजैसे बहुत यत्न करना पड़ रहा हो.
"हाँ.. रुक क्यों गईं.. बोलो."
"अच्छाजो तुम्हें मासिकधर्म होने बंद हो जाएँ तो.."
मेरा मुंह फटा का फटा रह गया.
"क्या..क्या मतलब ?"
"मुझे नहीं हो रहे आजकल..उबकाइयाँ आती हैंखाने का मन नहीं करता."
"कौन है वह.. "मेरा स्वर विद्रूप हो गया थाबहुत रूखा और कठोर.
"दृढ़ता से बोली..कोई फायदा नहींवह यहाँ नहीं रहताकोई सैलानी थाआया और चला गया.."
"पागल हुई है..कहाँ हुई मुलाकात.. ऐसे कैसे.."
"सोमीहेंडसम थालम्बाबातें भली करता थापत्रकार थाकोई वृत्तांत लिख रहा थायहीं ठंडी सड़क पर हम घूमने जाते थे.. कभी-कभी बारा पत्थर की सुनसान पगडंडियों पर निकल जाते.. घोड़ों की टापों का पीछा करतेवह एकदम जाजाबोर था... जिप्सी."

"जो उसे ढूंढ़ कर ले आयें तो..बदमाश. "

सोमी.. अब बदमाश न कहो उसेअच्छा लगता थाबहुत अच्छा..और  जब भी उसके साथ होती तो  ईज़ा की तरह बनने की इच्छा होती थी.."
"ईजा की तरह..! पर वह माँ हैंबाबू हैं उनके साथ.."
"वही दीदी.. पर मैं भी तो ईजा.."
"मर जायेंगी ईजामर जायेंगे बाबू..और तुम ईजा बनोगी.."
"नहींकुछ नहीं होगा..तुम कह दो उनसे सबबस बता दो एक बार."
"खुद ही क्यों नहीं बता देतींमैवरिक.."
"नहीं.. ईजा.. ईजा क्या मैवरिक हैंसोमी.."

पहली बार मेरा हाथ भीनी पर उठालेकिन बीच ही कहीं रुक गयाउसकी आँखों में झील तैर रही थी..जिसमें मैंने अपना कठोर होता चेहरा देखाअविश्वास और तिरस्कार की अपनी नाव बहते देखी..पास में न जाने कितनी बतखें क्रेंग-क्रेंग करती तैर रही थीं..निस्संगनिश्छल,
निष्पाप.
वह भीतर जाते कह गई, "सोमीऔर कोई दरीचा अब नहीं खुलता.."
मैं विस्मित.
वह संतुष्ट.
मैं भार से लदी..
वह भार विहीन.


दिल के ज़ख्मों के दर खटखटाते रहे


मैं उसका ख़ास ख्याल रखने लगी थी और उधर ईजा के पास तानों के सिवा कुछ बचा नहीं थाबाबू हमारे थोकदार.. काम से फुर्सत नहीं थी याकि  भीनी के निर्णय को उन्होंने सम्मान देना सीख लिया थाअब मुझे भी इसमें बुराई दिखनी बंद हो गईमेरे कमरे की खिड़कियाँ सुबह -सुबह खोल देती थी ये लड़की और घंटों बाहर देखतीएक दिन बोली,"सुन न सोमी, ..चर्च का घंटा मुझे सहलाता जान पड़ता हैयाद है तुम्हें...कैसे शर्त लगती थी हम दोनों के बीच... कि मिस्सा का तीसरा घंटा बजने से पहले कौन चर्च पहुंचेगाढालू पर दौड़ते जाते थे हम-तुमजानबूझ कर हार जाया करती थीं तुममैं वहीँ चर्च के बाहर उछल्ला खेलतीतुम मुझे घसीट कर घर ले आतींफिर तुम यकायक बड़ी हो गईंझील जैसीमैं भी बड़ी हो गईशायद तुमसे भी ज्यादा बड़ीबाहर देखो!उन आवारा बादलों जितनी बड़ीपर चर्च का ये घंटा..क्या है इसमें ऐसा!ये बजता है तो आँखें थम जाती हैंकान अनजानी आवाज़ सुनते हैंएक प्रार्थना जो मरियम के ताबूत से उठकर सलीब को आलिंगन करती रहींकाँटों के ताज को चूमती.पहले घंटे में मरियम रोती हैदूसरे में वह अपना आँचल फैलाए चीखती हैतीसरे में उसके अन्दर का मौन नाजायज़ तरीके से थरथराने लगता है.. वह बार -बार यीशु को पैदा करती हैतीसरा घंटा उसी प्रसव के समय का आर्तनाद हैमैं इसे रोज़ सुनना चाहती हूँये गिरिजा..तुम्हारे कमरे से और साफ़ दीखता हैमेरी खिड़की से झील दिखती है पर चर्च नहींतुम्हारी खिड़की से दोनों दीखते हैं .कमरा बदलोगी सोमी."

कमाल की शासिका थी भीनीहमने उसी दिन कमरे बदल लिएदोनों थक गए थे और खिड़की के पास खड़े थेमैंने देखा वह जोर-जोर से हंस रही हैउसे रोका. "ऐसे में इस तरह नहीं हंसा जाता." वह चुप हो गईअब मेरी जिज्ञासा उसकी हंसी को लेकर बढ़ गई.. मैं पूछतीइसके पूर्व ही उसने मुस्कराते हुए कहासोमीदेख तो आज का सूरज..बादलों से गिरती उसकी किरणें..मुझे लगा कि ईजा की उँगलियों में सलाइयाँ हैं और उन पर किरणों के फंदे चढ़े हैं.. जुराब बुन रही हैं.. तो बस यूँ ही..गुदगुदी सी महसूस हुई." वह बोलते में और सुन्दर लग रही थी.शर्म के कबूतर फड़फड़ाए और उसके गालों के गड्ढों में गुल हो गए.

ठण्ड तो वाकई पड़ने लगी थी
.. उसके आने तक भी जुराबों वाली गुनगुनी सर्दी तो बनी ही रहेगीअगले दिन मैं गुलाबी रंग की  ऊन ले आईमाँ को नहीं बतायाहम दोनों आजकल माँ को शामिल नहीं करते थे अपने साथफिर वह भी उखड़ी तो रहती ही थीं.
डिजाइनदार नरम मोज़ेचट बुन डालेवह उन्हें अपने हाथ में पहन-पहन कर अप्रूव करती रहीबोली,"गुलाबी तो लड़कियों का रंग है.. नरम रंग . सोमी ,चुभेंगे नहीं न उसे .. फिर उसने जुराब बड़ी नरमाई से अपने गालों से चिपका लिएउन्हें अपने गालों पर मलती रही..गोया जुराब न हों पैर हों छोटे -छोटे .. कोमल.

मैं बड़ी होकर भी मातृत्व के उस सुख को समझ नहीं पा रही थी और उसके लिए आगंतुक मातृत्व सुखों की लदी नाव था.

दिन तेज़ी से चढ़ रहे थे
उसका पेट दरुमा गुड़ियों के आकार  जैसा हो गया थामैं मन ही मन मान बैठी थी कि ये दरुमाओं की तरह प्रबल भाग्य का सूचक हैवह भी यही मान रही थी और हम दोनों जादुई यथार्थ में बहुत कुछ अजब-अजब घटता देख रहे थेवह सूई-धागे लेकर बैठी रहतीझबले सिलते और बड़े करीने से तहाकर अलमारी में लगा दिए जातेनामों की फहरिस्त उसकी डायरी में बड़ी होती गई..वर्णमाला से अक्षर उठाये जातेउन्हें तरह-तरह से जमाया जातारोज़ उसे नए नाम की तलाश रहतीबाद को उसने सुनिश्चित करते हुए कहा था ,"सोमीप्यार से 'सुरऔर वैसे 'कोकिला'..कैसा रहेगा."

मैं मुस्करा दी थी.
वह खिलखिला उठी थी.


नर्गिस का खिलना


उस दिन वहाँ केवल ईजा थींबाबू भी भीतर नहीं जा सकते थेपर मैं चकित थी कि उसके चीखने की आवाजें नहीं आ रही थींदाई बार-बार कहती..बेटी दम लगादर्द न होगा तो..
बीच -बीच में माँ बाहर आतीं.  कभी गरम पानी तसले में ले जातीं..कभी उन्हें रुई चाहिए होती थी.
फिर रोने की आवाज़ आईमैं और बाबू लगभग दौड़ पड़ेदरवाज़ा खटखटायाईजा ने झिर्री से झांकते हुए कहा.. तुम नहीं.. बाबू को भेजोजल्दीबाबू और माँ कमरे में बात कर रहे थेकुछ सुनाई नहीं दे रहा था.

बाद को पिताजी मुहं लटकाए बाहर आयेउन्हें देखकर मैं डर गईवे बोले.. सोमीबाहर चल.
कुछ कहना है तुझसे.

बाबू ने कहा.
मैंने सुना.
दाई ने बताया कि एक बार रोकर हमेशा के लिए सो गई गुड़ियाचाँदसी थीसफ़ेदरुई का फाया.
भीनी को होश नहीं हैजागेगी तो सोमी उसे बाबू-ईजा और दाई का समझाया सच बता देगी.

दाई चली गई
उसके हाथ में चाँद की गुड़िया थीधक् -धक् करती चाँद की गुड़ियाउसके नन्हे हाथ.. काश एक बार छूकर देख लेती मैंएकबार उसके गाल चूमतीहाँमैंने उसके पैरों में जुराब डाल दिएउसने अपने छोटे-छोटे पैर हिलाए ..शुक्रियाठण्ड बहुत है न.

आँखें बहती रहीं
.
पता नहीं कितनी आँखें बहीं.
वह चली गई थी.रेशमी रजाई में लपेटकर दाई ले गई थी उसेदाई की छाती खूब गरम थी...कि बस उनसे चिपककर वह चुप-चुप चली गई.
ईजा ने कहा वह बची ही कहाँ.
उसने सब सुनावह भीनी थीमजबूत.  मेरी गोद में सिर रख लेटी रही.बाद को उसने पूछा,"सोमीनर्गिस क्यों खिलते हैं?"


अगला दिन
 : फिर वही अनंतर


अगले दिन ..
भीनी बिस्तर पर बैठी है.
उसके हाथ में कपड़े की गुड़िया हैबाबू लाये थेजब पांचवा पूरा हो गया था.
गुड़िया का छोटा सा मुख उसके स्तनों पर टिका है ...बेढब तरीके  सेअल्हड़ माँटेढ़े -मेढ़े  पकडे है.
मैंने कहा .."ये क्या.."
वह बोली.. "दीदी .. दूध देखो  कैसे बह रहा हैरुकता ही नहींदर्द उठता  है सोमी....चीस चलती हैएक बार कह दे सोमी..
कह दे तो सच."
क्या..क्या ..क्या कह दे सोमी?
फिर कपड़े की गुड़िया भी चली गई और भीनी भी..
कहाँ ..किस देशकिस ठौर?
नहीं पता.

बाबू का दिल  उखड़ गयाईजा से कुछ कहा करते थे अकसर.  तब दिल बहुत दुखता  थाथोड़े दिनों  बाद हम सब भी गुडगाँव चले आयेनैनीताल छूट गयाझील गईघाटी गईतल्ले की कोठी गईमल्ले की छत गईऔर जो सबसे ज्यादा गई ..वह थी मेरी भीनीबिना ठौर के गई.


तुम भी कुछ कहो


किसी ने मेरा हाथ पकड़ाइस बार मैं नहीं चौंकीजानती थी कि किसका स्पर्श हैकौन लौटा
है..क्यों लौटा है..

चर्च के घंटे सुनाने वालीसुनने वाली.
सफ़ेद बतख.
गले में क्रॉस..
गुलाबी गालों पर भागती हुई रौनक.. रुकी हुई ज़िंदगी.
चश्में से झांकती स्वच्छ आँखें.
"भीनी .. भीनी .."
"सिस्टर सिल्विया.. मैवरिक.."
रविवार की प्रार्थना खत्म हो चुकी थीऔर कोई कुछ कह नहीं रहा था.
कमाल है न.

तब..
हवा ने किया संवाद.
किससे ?
खिड़की सेभीनी की  खिड़की से.
जवाब में खिड़की बंद हो गई.    

___________________________
फोटोग्राफ : Elliott Erwitt





अपर्णा मनोज : 
कवयित्री, कहानीकार, अनुवादक़ 
संपादन : आपका साथ साथ फूलों का
ई पता :
 aparnashrey@gmail.com

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  1. कुछ मिथकों की पृष्ठभूमि और कुछ अस्तित्व के आवश्यक प्रश्नों से शुरू होती एक भावपूर्ण यात्रा सी मार्मिक कहानी!
    Beautiful imagery runs marvelously throughout the story...!!!
    Congrats Aparna di:)

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  2. भीनी के अवसाद को सोमी बेशक समझ-सहेज ले, बाबू और ईजा के लिए समय का सामना कर पाना आसान नहीं है, सद्य-जात शिशु के सामने कितनी अमानवीय और संवेदनहीन हो जाती है मनुष्‍य के हाथ बनी यह सृष्टि। बेहतर था कि मनुष्‍य भी अन्‍य जीवधारियों की तरह मैवरिक ही बना रह जाता। तब सच में यह पृथ्‍वी एक अभयारण्‍य होती। एक बेहद संवेदनशील और आर्द्र मन से रची बर्फ के रेशों में दबी एक मार्मिक कथा, जिसे पढकर मन बेचैनी से सुलग जाए।

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  3. आपको पढ़ते हुए लगता है जैसे हम किसी और दुनिया में चले गए हैं.... शायद उसी जगह जिसके बारे में आपने लिखा है... Shaifaly

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  4. टुकड़े-टुकड़े दास्तान बढ़िया लगी. सहज और बेहद मौलिक.

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  5. एक ओर भीनी के सहज प्राकृतिक मनोभाव दूसरी ओर समाज के नियमों की निर्ममता को अनुभव करते भीनी के बाबू और ईजा। सबको देखती हुई सोमी और भीनी के मन की परतों को महसूस करते कहानी से गुजरता पाठक।
    प्रस्तुतिकरण की मार्मिकता पाठक को संवेदना के एसे वितान में ले जाती है जहां सारे सामाजिक नियम, भय प्रकृति के अमूल्य उपहार, मातृत्व का उपहास करते लगते हैं।
    मातृत्व की गरिमा को अनूठी ऊंचा ऊंचाई देती कहानी।
    यह अपर्णा जी की कलम का ही कमाल है कि पढते हुए नैनीताल को अनुभूत करने का आभास कराता है।
    अपर्णा जी को फिर एक अच्छी कहानी के लिये बधाई।
    समालोचना का आभार तो है ही। समालोचना के माध्यम से सतत सार्थक रचनाओं का आस्वाद मिलता है।

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  6. नंद जी का कमेंट सारी बातों को बखूबी रख देता है...मार्मिक कहानी....रचयिता में साहस और धैर्य हो सकता है..समाज में नहीं होता अक्सरहा...
    -सुमन केशरी

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  7. लीna malhotra rao11 जून 2012, 6:08:00 pm

    अपर्णा कहानी का कथ्य ही नही शिल्प भी शानदार है.. उदास कर दिया कहानी ने..बेरहम समाज..

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  8. अपर्णा ,हलाकि कहानी पढ़ना अभी बाकी है पर समालोचन जैसे स्तरीय माध्यम में रचना प्रकाशित होना यूँ भी सबूत है रचना की उत्कृष्टता का सो अग्रिम बधाई | शाम को पढूंगी फुर्सत से ...:)

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  9. बहुत ही सूक्ष्मता से संवेदनाओं को उकेरा गया है कथ्य और शिल्प की गहन,सशक्त एवं भावपूर्ण बुनावट...बधाई अपर्णा जी ...

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  10. इस बीच दो कथाकारों की कुछ कहानियां पढ़ीं : प्रत्यक्षा और अपर्णा मनोज कीं (खास तौर पर 'भीतर जंगल' और 'मैवरिक'). इन कहानियों को पढ़कर अनायास यह अहसास हुआ कि हमारे नए लेखन में कहानी का कंटेंट और फॉर्म ही नहीं, कहानी का बीज यानी आदमी और जिंदगी के प्रति रचनाकारों के सरोकार में भी फर्क आ गया है. पहले मुझे लगा कि नए समाज में आदमी की प्रवृत्ति अंतर्मुखी हो गयी है, इसलिए अपने परिवेश के प्रति उसके सरोकार भी बदले हुए दिखाई दे रहे है. मगर इन कहानियों को पढ़कर लगा कि यह बदलाव इससे न सिर्फ अलग, अधिक विश्वसनीय भी है. खास बात यह है कि यह प्रवृत्ति कथा लेखिकाओं में ही दिखाई दी है, सिर्फ लेखिकाओं में, मगर यहाँ भी पिछले दस पंद्रह सालों में उभरी कथा-लेखिकाओं में. आप स्नोवा वार्नो, महुवा मांझी, सुमन केशरी अग्रवाल, मनीषा कुलश्रेष्ठ, भाषा सिंह, कविता, सोनाली सिंह आदि में यह अंतर महसूस कर सकते हैं. जिन दो लेखिकाओं का शुरू में जिक्र किया गया हैं, वे तो इसमें हैं ही.
    इन कहानियों की दूसरी खास बात यह है कि इनका परिवेश कोई निश्चित या 'स्पेसिफिक' नहीं है. उसे आप बाहर के संसार में उसी नाम से नहीं पा सकते. वह आदमी (औरत) की अपने अन्दर की दुनिया है, जिसे वह अपनी शर्तों पर (जाहिर है, पहली बार) प्राप्त कर रही है. मजेदार बात यह है कि ये दुनिया दूसरे लोगों के लिए ही नहीं, उसके अपने लिए भी हैरत-अंगेज है. पहली बार देखा और महसूस किया गया यथार्थ. यह यथार्थ का एक तरह से नए सिरे से प्रजनन है... और निःसंदेह, यह काम सिर्फ और सिर्फ औरत ही कर सकती है.

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  11. कहानी से पहले कि भूमिका भी बहुत पसंद आई.....एक स्त्री के मनोभावों को जब आप जस का तस रख देती हैं तो हर स्त्री को उसमें कंही न कहीं अपना अक्स नज़र आना स्वाभाविक है अपर्णा दी, कहानी कई ऐसे सवाल छोड़ जाती है जो सोचने पर मजबूर करते हैं......कुछ पंक्तियाँ तो बस अद्भुत हैं.....जैसे वो मरियम और यीशु का बिम्ब......बधाई और शुभकामनाये.....

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  12. अर्पणाजी बहुतै अच्छी कहानी है। बहुत भावुकता ह इसमें। कहानी की पूरी बुनावट अच्छी लगी। बहुत कुछ कह जाती है यह कहानी। जिन कहानियों में पात्र ज्यादा होते हैं मैं पढ़ते हुए उलझ जाता हूं। यहां कहानी दो तीन पात्रों के बीच चलती रही। कहानी के मोड़ अच्छे हैं।

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  13. स्मृतियों के अंदरूनी अंतर्विरोधों के बीच टूटता बनता अकेलापन. अपर्णा जी विडंबना के बेहद आक्रामक शिल्प बुनती हैं जहां सरलीकरण और रोमान के अभिशाप से ग्रस्त जीवन, यथार्थ के कुछ विस्मयपूर्ण प्रश्नों के रूप में सामने आता है...... शॉक ट्रीटमेंट की तरह.........यह उनका अपना शिल्प है. खरा और बेलौस...

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  14. बहुत मार्मिक कहानी है। जज्‍बात से भरपूर। भीनी का साहसिक निर्णय जितना आश्‍वस्तिकारक है, उतना ही दुख उसकी निर्मम परिणति में।... कहानी का शिल्‍प बहुत गठा हुआ है और जो वातावरण निर्मित किया गया है, वह कथ्‍य को पूरी संजीदगी के साथ व्‍यक्‍त करता है। मेरे ख़याल से कहानी की भूमिका की कोई जरूरत नहीं थी, कहानी अपने आप ही सब कह देती है। फिर भी रचनाकार का अपना निर्णय है। बधाई और शुभकामनाएं।

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  15. मार्मिक, स्त्री-मन की संवेदनाओं के विभिन्न पहलुओं को छूती हुई, गज़ब के शब्द-शिल्प व माधुर्य से भरी हुई कहानी। बधाई अपर्णा जी को ऐसी कहानी लिखने के लिए और अरुण जी को इसकी प्रस्तुति के लिए।

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  16. किन्वन्दंती को आधुनिक यथार्थ से जोड़कर बुनी गयी कहानी जिसमें काव्यात्मक शैली मनोस्थिति का भली भांति चित्रण करती हैं.अपर्णा मूलतः कवियत्री हैं जो उनकी कहानियों में कभी कभी प्रवाह को धीमा कर देता है.दो अंशों की बजाय मूल कथ्य में ही प्राचीन और नवीन को समेटा जा सकता था.उम्मीद से भी सुन्दर मार्मिक कहानी.

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  17. कई दिन पहले कहानी पढ़ी……कई दिनों तक मन बोझिल रहा। कहानी पढ़ने के बाद,ख़ुद को उस से खींच कर बाहर लाना पड़ा, और ऐसा प्रभाव एक अच्छी कहानी ही डाल सकती है। इससे पहले भी आपकी एक कहानी पढ़ी थी, नाम याद नहीं आ रहा पर कहानी पिक्चर की तरह मन में है। आप अच्छी कविताओं के साथ-साथ बहुत प्रभावशाली ढ़ग से कहानियाँ भी लिखती हैं और एक अच्छी अनुवादक भी हैं। बधाई के साथ शुभकामनाएं। और हाँ, कहानी का हर पैरा एक ग़ज़ल:

    "अजनबी शहर के अजनबी रास्ते, मेरी तन्हाई पर मुस्कुराते रहे।
    मैं बहुत देर तक यूँ ही चलता रहा, तुम बहुत देर तक याद आते रह॥

    ज़ख़्म जब भी कोई ज़हने दिल पर लगा, ज़िंदगी की तरफ़ इक दरीचा खुला।
    हम भी गोया किसी साज़ के तार हैं, चोट खाते रहे गुनगुनाते रहे॥

    कल कुछ ऐसा हुआ, मैं बहुत थक गया, इसलिए सुनके भी अनसुनी कर गया
    कितनी यादों के भटके हुए कारवाँ, दिल के ज़ख़्मों के दर खटखटाते रहे॥

    की लाईनों में से किसी लाईन से शुरू होता है। यह बात कुछ अलग हटके है। समालोचन को बधाई।

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  18. achchha laga Amrita ji .. aapne bade gaur se kahani ko padha aur gazal ke har us ansh ko pahchan liya... is gazal ka gahara connection hai is kahani se.. jab-jab is kahani ke plot ko aage badhaya.. tab-tab ye gazal likhne se pahle suni..ismen numaya dard afsaane mein bhi utarta gaya aur afsaana Bhini ho saka... shukriya is pyaare comment ke liye.

    sabhi mitron ka dhanywad ki unhone kahani ko padha aur pasand kiya.

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  19. kahani bahut marmik hai. kafi der baad hi uske prabhav se bahar nikal paya. tabhi likh pa raha hoon. kathya to man ko chhone vala hai hi, par shilp bhi adbhut hai. jeevant vatavaran ka chitr sa khich jaata ha, gazhal jaisa baareek ahsaas aur a rishton ki behad atmeey anubhuti, badhai aparna ji
    manmohan saral, mumbai

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  20. देर से देख पाया हूँ। अच्छी है। बधाई।

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  21. हाय! अपर्णा....पिघले मोम से मन को और पिघला दिया...कुछ कहूँगी नहीं फिलहाल....कहानी की अप्रतिमता पर....इसके अजब - गजब शिल्प पर....मगर मेरे भीतर जमता - सा दुख पिघला दिया, अच्छा होता कुछ ठहर कर पढ़ती. मर्म कुरेदना कोई तुम से सीखे....

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  22. badi pyari kahani hai aparna ji, dil ko chu lene wale shbdo ki aap jadugar hai badhai ho .

    RAMESH YADAV,
    MUMBAI
    PHONE - 9820759088

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  23. खरगोश का संगीत राग रागेश्री पर आधारित है जो कि खमाज थाट का सांध्यकालीन राग है,
    स्वरों में कोमल निशाद और बाकी स्वर शुद्ध लगते हैं, पंचम इसमें वर्जित है, पर हमने इसमें अंत में पंचम का
    प्रयोग भी किया है, जिससे इसमें राग
    बागेश्री भी झलकता है.
    ..

    हमारी फिल्म का संगीत वेद नायेर ने दिया
    है... वेद जी को अपने संगीत कि प्रेरणा जंगल
    में चिड़ियों कि चहचाहट से
    मिलती है...
    Feel free to surf my web blog :: हिंदी

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