कथा - गाथा : प्रत्यक्षा


हिंदी कथाकारों  की जो नई पीढ़ी है उसमें प्रत्यक्षा का नाम ख़ास है. प्रत्यक्षा के दो कहानी संग्रह आ गए हैं. इन कहानिओं ने अपनी कथा शैली और विषय वस्तु से एक अलग और अपरिचित यथार्थ का उद्घाटन किया है. मानवीय सम्बन्धों की रागात्मकता और फिर व्यर्थता बोध को वह लगभग कविता की शैली में सृजित करती हैं. उनकी कहानिओं में चित्रण की सघनता अक्सर किसी पेंटिग की तरह आती है, वह दृश्य बंध को उसके हज़ार रंग रेखाओं के साथ पकड़ती हैं और बड़ी ही खूबी से रखती हैं. भीतर जंगल एक ही श्रृंखला की तीन कहानियाँ हैं.  अंतर्मन  की यात्रा के जैसे तीन पडाव हो.  


भीतर जंगल               
प्रत्यक्षा



(1)                        

कमरे के अँधेरे में अधजागा आदमी जाने क्या बुदबुदाता फिर नींद में डूबता है. औरत तीन बार आहिस्ता, कमरे का दरवाज़ा ठेलती झाँकती धीमे स्वर में कहती है, उठिये
आदमी देह तोड़ता, नींद और जाने किस भय से खौराया दबी आवाज़ में चीखता है,
मेरी चाय कहाँ है?
औरत हारी लौटती है, सोचती, मेरे स्नेह का प्रतिकार क्या है, यही है ?

आदमी चुप चाय सुड़कता, खिड़की से बाहर तकता है. औरत इंतज़ार में बैठी फर्श तकती है, फिर दीवार, फिर तख्त पर रखी बेतरतीब किताबें, पुराने प्याले में सिगरेट की अनगिनत टोंटियाँ, राख, फ्रेम में टंगा हँसता आदमी जाने किस ज़माने का, फिर लौट कर आदमी के चेहरे को तकती है. बेढंगे फैले शरीर पर अफलातूनी कपड़े, आँखों में कीच, बढ़ी दाढ़ी का बेचारापन.

मुस्कुरा कर कहती है, यू आर अ बम

आदमी चाय की घूँट भरता कहता है, अच्छा ?

****
मैंने तुम्हारे लिये कभी कुछ नहीं किया. जो किया तो उस औरत के लिये किया जो किसी आदमी से बेहद प्यार करती थी, उस प्यार जताने के तरीकों में उसके लिये हज़ार चीज़ें करना वैसे ही शुमार था जैसे जीने के लिये साँस लेना, त्वचा पर उसे महसूस करना.
और अब ?
अब ? अब वो औरत मुझे बेवकूफ बनती औरत दिखती है जिसका इस्तेमाल किया जा रहा है. उस देहाती मूर्ख औरत के लिये मुझमें कोई उदारता नहीं

औरत आदमी की तरफ अपना लिखा बढ़ाती है, देखो, कुछ बात बनती है
आदमी सरसरी नज़र देखता कहता है, तुम इतनी बकवास चीज़ें क्यों लिखती हो
इस कहे में निस्संगता है और हिकारत का एक पुट है.

****
रात, नीली पीली मद्धिम रौशनी में उठंगा लेटा आदामी कोई किस्सा सुनाता है. उसकी आवाज़ कभी तरल कभी मीठी होती है. उसके किस्से में जो आदमी है वो इतना संजीदा इतना ठहरा हुआ है, उसमें इतनी गहराई, इतना मिठास और इतनी वल्नरेबिलिटी है, उसमें पूरे संसार की दिलदारी समाई है, उसके भीतर गहरा ठांठे मारता समन्दर है, ऊँचे बर्फ ढँके पर्वत हैं, दूर सुदूर आँखों में समा पाये उससे भी कहीं ज़्यादा दूर रेत का लहराता रेगिस्तान और नखलिस्तान का कूँआ और खजूर के पेड़ की दिलभरी हरियाली है.
औरत किस्सा सुनते जानती है कि वो सिर्फ किस्से वाले आदमी को जानना चाहती है, किस्सा सुनाने वाला आदमी जब उसे दिखता है तो दिखता है, ठुड्डी और गालों पर शेव से छूटे अधपके बालों का फूहड़ संसार, सस्ते हवाई चप्पल में आधा पैर फँसाये फटफटाता आदमी, गंदे तलवे पर फटी एड़ियों का एकदम मामूली बेढब संसार.

***
अखबार के हेडलाईंस डोमिनिक स्त्रास-कान और अन्य प्रभावशाली पुरुषों के बेसर इंस्टिंक्ट की कहानी चीख रहे हैं. औरत गार्जियन और न्यू यॉर्क टाईम्स और द नेशन और तहलका पढ़ती आदमी को सुनाती है. आदमी कहता है, ऐसे लोगों को फाँसी देनी चाहिये, हरामखोर साले
फिर अपना पैर बढ़ाता है, दबाओ

औरत अपने दुखते हाथ के टभकते पोर सहलाती कहती है, भूल गये, कल तुम्हारे लिये आलू के पराठे सेंकते उँगलियाँ आग में झुलस गई थीं ?
आदमी तब तक अनसुना कोई किताब पलटता है, देखो तुम्हारे लिये ये हिस्सा सँभाल कर रखा है, सुनो



औरत कान पर हाथ धरे सुनती है, बाहर दिन का हिसाब बदल रहा है. धूल भरे अँधड़ के उपटने के आसार में आसमान धूसर हो चला है. बाहर रखी चीज़ें समेटनी होंगी, नाश्ता निपटाना होगा, दफ्तर के हज़ारों झमेलेदार काम के बीच घर के होमलोन की बात करने बैंक जाना होगा और गाड़ी गैराज से सर्विसिंग के बाद लानी होगी.
औरत का आधा ध्यान आदमी की आवाज़ पर है और आधा इस जुगत में कि कैसे बीच आवाज़ उसे टोक कर रोक दे और उठ जाये.  

अपने उठ जाने की सोच की शर्मिन्दगी में औरत सोचे हुये से ज़्यादा देर और अधिक तल्लीनता से आदमी की बात सुनती है.  
आदमी अंगड़ाई लेता मुस्कुराता पढ़ना रोक कर कहता है, सुना सकता है और कोई तुम्हें ऐसी गहरी जीवन से भरी बातें ? ऐसे आसमान में उड़ान के सपने ?

औरत की आँखों की नीरवता उसे नहीं दिखती. न ही दिखती है कमरे में उपेक्षित पड़ी कॉपी जिसमें औरत ने कवितायें लिखी हैं. औरत जो अपने दो छोटे लड़कों को छोड़ कर आई है उसके पास, अपने मेल शोविनिस्ट कैरियरिस्ट पति को, उस स्थूल संसार को, उस पगलाये रैट रेस को.. सबसे पीछा छुड़ाकर भाग कर, किसी ब्लैक होल से गिर कर किसी धूप और रंग के चटक चमकते संसार के सपने को साझा करने, उस आदमी के साथ.
आदमी फोन उठाकर बात करता है, कहीं ..
फिर कहता है, सुनो आज मेरा मन अच्छा नहीं, शायद मैं कहीं न निकलूँ
कहीं न निकलना उस बात को इंगित करना है जहाँ उसे औरत के मुत्तलिक कोई काम करना था.
औरत कहती है, कोई बात नहीं, तुम अपना मन अच्छा रखो, अच्छा करो
फिर खुद के बिना कहे कहती है, और मैं अपना, अच्छा अच्छा ?




(2)               

नीम अँधेरे में उसकी हाथ दिखती है. आँखों के किनारे से. हवा में झूलती. हमेशा से उसकी आदत रही, बोलते वक्त खूब हाथ हिलाना. उसके चेहरे पर भाव झम्म से आते थे हमेशा. मालूम रहता था कब खुश है कब उदास. आज अँधेरे में उसकी शकल नहीं दिखती. उसके शरीर का एक खास अँदाज़ में गिरना दिखता है, उसका आभास दिखता है. उसने शाम की दसवीं सिगरेट सुलगाई होगी. नीचे सड़क पर किसी गाड़ी के गुज़रने की आवाज़ दूर होती जाती है. पड़ोस की बिल्ली दबे पाँव कूद कर बैलकनी में उतरी है. उसकी आँखे हरी चमकती हुई.
बिल्लो आ आ
बिल्ली ऐंठ में मुड़ती, पाँव एहतियातन रखती, पूँछ उठाये कमरे से बाहर निकल जाती है.
सुन बूला, याद है एक बार हम रात को निकले थे, कितना डर लगा था

बूला सिगरेट का धूँआ छोड़ती मुनमुनाती है, ह्म्म, फिर ?
नहीं सिर्फ उस डर को याद कर रही थी. अब किसी बात से डर नहीं लगता


अकेले रहने से तुझे नहीं लगता ? कोई भूत, पिशाच ? स्टॉकर ?
मनी हँसती है, हट

बूला इंसिस्ट करती है, नहीं मानो अकेले में कुछ हो जाये, फिर ?
जब कुछ होना होगा, होगा ही न

होगा तो, सबके आसपास रहते भी होगा अगर होना हो तो

उसे अपना अस्पताल में होना याद आता है. अकेले, इन आईसोलेशन. कोई नहीं. तकलीफ और सोचना, बस इतना ही. उसने किसी को कभी नहीं बताया ये सब. जान डन की कविता तक किसी से शेयर नहीं की. क्या जीवन जिया.
मनी उठकर चली जाती है. बूला का सिगरेट खत्म हुआ. प्याले में सिगरेट की टोंटी बुझाते पीछे ओठंगती है. बहुत थकान है. दो दिन से सफर लेकिन ये थकान बरसों की है. साड़ी के कोर से निकले पाँव कितने रुखड़े अनकेयर्ड फॉर. कुहनी काली और चेहरा क्लांत. जब उम्र थी तब सोचा था क्या कि ऐसे निकलेंगे उम्र. ग्रेसफुली एज करना कोई लक्ज़री होगी ? साड़ी का आँचल गिर गया है. गर्मी है, नम पसीना.

मनी कॉफी लेकर आती है. अँधेरे में पाँव जमाती. कमरे में गुमस है. बाहर स्ट्रीटलाईट की रौशनी फीकेपन में लड़ाई करती है, अँधेरे की कालिमा को ज़रा सा डाईल्यूट करती. रसोई में पानी उबलते तक खिड़की से निर्विकार बाहर देखती रही थी. क्या याद था बूला का अब उसे. कि शादी की थी और दो नवजात बच्चों को खोया था. और क्या ? एक कोई विवाहेतर संबंध ? इधर उधर से सुनी और क्या गॉसिप ? पजामें का पाँव दराज़ के हैंडल में फँसता है. झुक कर छुड़ाती है. अपना सपाट पेट देखती है. अपने सुडौल हाथ. बूला फैल गई है. कितनी दुबली हुआ करती थी. और कितनी तेज़, प्रखर. एक लपक थी.

बिस्तर पर चादर गुड़ी मुड़ी हो चला है. रात धीरे से बिस्तर पर लम्बे लेट जाती है. काँफी का प्याला आधा पिया रखा है . एक चुप्पी पसरी है. सिर्फ आज की ही रात उनके पास है. कितना  कहना न कहना है ये तय करना है.

कमरे के कोनों में घने जँगल उग आये हैं. सब भटक गया है उनमें. बीच का समय, इतने साल. कोई स्नेह की डोर जो थी, थी. बूला धीरे से बुदबुदाती है, जानती है मनी, आगे झुक कर मनी के घुटने छूती है, उसाँस भरते भरते अचानक हँस देती है, याद है ? कितने बेवकूफ हुआ करते थे ? याद है वो लड़का चिट फेंका करता था तुझे ?

मनी के चेहरे के पास एक खाई खुल जाती है. कब्रिस्तान पर उगे झुरमुट की कालिमा, उनका निस्पंद होना. उसकी आवाज़ ठंडी हो जाती है, राशिद ? चार साल पहले डूब कर मर गया.
अरे ! कैसे ? पर तुम्हें इसकी खबर ... बूला उठकर बाथरूम चली जाती है. ऐसी चुप्पी का सामना कोई कैसे करे. बाथरूम में देर तक चेहरा धोती है. आईने में दिखता चेहरा किसी और का है  अस्पताल में ढीले गाउन को कँधे पर बार बार चढ़ाते, दुबली लड़की दिखती है, उसकी आँखों के नीचे के स्याह घेरे दिखते हैं. खून सना चादर. उफ्फ कितना खून. उस लड़की के भीतर था इतना खून ? बी पॉज़िटिव.

लौटती है. कमरे के एक कोने में बाहर से झिलमिल रौशनी का एक टुकड़ा झलकता मिटता है. मनी खिसक कर जगह बनाती है. आ न. इतनी सी रौशनी में उसका उठा विगलित चेहरा दिखता है.

आई हैड अ बाईपास लास्ट ईयर. अपने शर्ट का ऊपरी बटन खोलती, अपनी छाती उसे दिखाती है. देख ये निशान. उसकी छाती छोटी है, किसी किशोरी जैसी. कोई मांस नहीं. चीमड़ हड्डिहा. उसका हाथ पकड़ कर निशान पर रखती है.

मैं तब अकेली थी एकदम. कोई नहीं था.

चादर का सफेद रंग नीला दिखता है. मनी के आँख के कोये चमकते हैं. उसमें आँसू झिलमिल करते हैं. ईथर की महक और दवाईयों की गँध, सब अकेले. अकेले के खेल ये सब. मनी खुद से बात कर रही है. बाज दफा कोई सिर्फ इसलिये चाहिये होता है कि आपकी बात सुन सके. भले ही कुछ न बोले. आपकी बात सुन ले, बस.

तुम हमेशा अपने दुख में महान होती थी, है न मनी.
मनी बेतहाशा हँसती है, महान, यू आल्वेज़ कॉट मी बैंग ऑन टार्गेट. अंड यू ? तुम ?

सुन हम कितने साल बाद मिले हैं ? कितने बरस, कितने महीने, दिन ? याद है ऐसे ही हम रात को बैठते थे, कितनी बातें कभी न खत्म होने वाली बातें. मनी धीरे से स्नेह से बूला को पकड़ लेती है. कमरा,  चार दीवारों का कमरा जाने क्या हो जाता है. उसमें एक साँस चलती है, एक के बाद एक. अँधेरे में जैसे एक शरीर और बैठा है उन दोनों के बीच. पन्द्रह बरस बड़ा शरीर. इतने ही बरस हुये उनके मिलने के बीच.

मनी खाँसने लगती है. लगातार. इतना कि हिचकी लग जाती है. बूला दौड़ कर पानी लाती है, ले छोटे छोटे घूँट ले

धीरे से उसके बाल सहलाती है. जानती है मनी तुम्हारे साथ जो पहली बियर पी थी ? याद है, वाईन शॉप वाले ने हमें बोतल बेचने से इंकार किया था. बीस साल की उम्र में हम कितने नाबालिग लगते थे, नहीं ?
और अब अपनी उम्र से कितने बड़े. उसकी आवाज़ थकान से गहरा गई.

एक मिनट रुक, मनी दराज़ से कोई अलबम खोजती है. पुरानी तस्वीर. दो लड़कियाँ, ऑकवर्ड और मासूम. चेहरा सटाये, गंभीर .

मनी सोचती है हर रात का अकेलापन इस रात के गीलेपन पर भारी होगा ? कि मैं डूब जाऊँगी इसमें. ये रात खिंच जाये ईश्वर. चाहे मैं और कुछ भी न बोलूँ, चाहे और एक शब्द न सुनूँ. ये रात ..

(3)                    












खटपट की आवाज़ बगल के कमरे से लगातार आती रही. नींद में खलल डालती. छोटे छोटे फूलों पत्तियों वाले प्रिंट के पर्दे खिड़की पर तरतीब से फैले हैं. उनसे रौशनी झर कर भीतर आती है, हल्की पीली हल्की हरी. कमरा उष्म रौशनी में नहाया है. सब कुछ गुनगुना. गाढ़े भूरे रंग के भारी फर्निचर्स, बहुत इस्तेमाल किये जाने की पहचान और गंध लिये देखते हैं, चुपचाप. फर्श का मोज़ैक अजीब गर्माह्ट लिये हल्का पीला है, उसके ग्रेंस चमकते हैं सालों के इस्तेमाल से. धूप और शेल्फ का प्रतिबिम्ब धूमिल गिरता है फर्श पर. बिस्तर का चादर, सलीके से रखे मसनद और तकिये का जोड़ा, किताबों की शेल्फ, ऊपर घूमता पँखे का डैना. और उन सब के बीच निस्पंद लेटी मैं.
रत्ती के घर में रत्ती की महक है. ये घर रत्ती का है, माँ का नहीं.

माँ को चैन नहीं पड़ता. जाने क्या करती रहती हैं. लगातार उनके भीतर की बेचैनी चक्कर खाती है. कुछ न हो तो इस कमरे उस कमरे घूमती रहेंगी. चीज़ों को छूती, ये चादर का कोना, वो स्लीपर ज़रा खिसका देना, परदों को तान देना, ये पानी का बोतल ले जाना और दूसरी ला देना. क्या बेचैनी है उनके भीतर. रात में भी ऐसे ही डोलती हैं. रात रात भर. बुदबुदाती हैं, बस अब नींद नींद नींद.

उनका शरीर कितना कृशकाय हो गया है. जैसे धीमे धीमे झर रही हों. हर दिन ज़रा ज़रा. मैं न देखूँ तो ये क्षय और तेज़ी से होता है. जब मेरे पास थीं, हर वक्त आँखों के सामने तब ऐसा नहीं लगता था कि एक सुबह से दूसरे उनमें कोई बदलाव आया है. हर दिन सुबह वैसी ही होती थीं. चेहरे पर जरा सी सूजन जो दिन बीतते ठीक हो जाता और शाम तक माँ का चेहरा चरफर दिखता. जब से रत्ती के घर आई हैं मेरा उनको देखना अंतराल के बाद हुआ है. माँ का शरीर घिस गया है. उसकी गोलाईयाँ घिस कर कोण में बदल गई हैं. उनकी कुहनी, उनके कूल्हे, उनके कँधे. सब ऐंगूलर शार्प. उनका चेहरा भी. नाक जो पहले से तीखी थी अब कोनों पर झुक गई है और चेहरा जैसे और पीछे चला गया हो. चेहरे पर जबकि अब भी झुर्रियाँ नहीं हैं. कल लेटी थीं तो बगल से उनका प्रोफाईल कितना तीखा और मुकम्मल लग रहा था. सीटा हुआ. मैं उनके उम्र में आऊँगी तो क्या इतना ग्रेस मुझमें रहेगा. माँ हमेशा मुझसे सुंदर रहीं. हम दोनों से. रत्ती मुझसे ज़्यादा माँ के करीब है दिखने में. मैं रत्ती की कैरिकेचर.लेकिन  कमबख्त रत्ती ने उनके बाल काट डाले. पूछने पर निर्विकार उसने कहा था, सँभालना मुश्किल हो गया था.

माँ के बाल कितने घने और लम्बे थे. बचपन में कितनी बार मैं और रत्ती उनके बाल से खेलते. लम्बी चोटियाँ बनाते, उनमें तेल लगाते. माँ चश्मा लगाये लेटी बालज़ाक पढ़तीं मनोयोग से. मैं और रत्ती उनके बाल बनाते तल्लीनता से. आधा आधा बाँटे. मैं कई बार उनके बाल अपने चेहरे पर फैला लेती और आँखें बन्द कर लेती. कल्पना करती कि जँगल में हूँ, घने सायेदार खुश्बूदार जँगल में. माँ करवट बदलती, अपने बाल समेटतीं हँसती, क्या करती है रानी ? मैं झेंप जाती. रत्ती अपने हिस्से का बाल बनाकर तब तक जाने कहाँ गायब हुई रहती.

कल माँ के बाल मैंने बनाये थे. चिड़िया के पर जैसे मुट्ठी भर बाल. सफेद निर्जीव. उनके बाल धोते मुझे ज़ोर से रुलाई आई. आज्ञाकारी बच्ची की तरह वो स्टूल पर बैठी थीं आँख बन्द किये हुये. मैंने कहा था, माँ ज़रा सिर झुकाईये. उन्होंने सर झुकाया था. उनकी गर्दन और उनकी पीठ कैसी बेसहारा अनाथ लग रही थी. बाल धोकर मैंने तौलिया उनके कँधे पर रखा था. अब चलिये कमरे में. उनके बाल झाड़ते मैं उनके कँधे से लग गई थी. अब मैं आपकी माँ हो गई और आप मेरी बच्ची. माँ ने निस्संग मुझे देखा था.

कमरे में बिस्तर के सामने वाली दीवार पर एक तस्वीर लगी है. ब्लैक एन्ड व्हाईट. माँ हँसती हुईं. उनकी लम्बी चोटी कँधे से आगे गिरी हुई है. पिता उनको देखते मुस्कुरा रहे हैं. पापा आप कहाँ चले गये ? माँ जब इस कमरे में आती हैं एक बार उस त्स्वीर को छूती जाती हैं. मैंने पूछा था, किसकी तस्वीर है माँ ? माँ की आवाज़ सपाट थी, मेरे पति हैं.

रत्ती धड़फड़ सुबह का काम निपटाते बाई को निर्देश देती जाती है. सूप बना लेना, मूँग दाल की खिचड़ी, बीच में एक बार केला, एक बार हॉर्लिक्स. माँ कुछ कहने आती हैं तो रत्ती घड़ी देखती है, मुझे देर हो रही है. फिर बिना उनकी सुने निकल जाती है. रत्ती अकेले अकेले रहकर ऐसी हो गई है. मेरे साथ भी ऐसी ही है. हमेशा ऐसी ही थी. मैंने उसे घेरकर फोन पर कहा था, माँ के साथ बैठा कर. उनको तेरे संगत की ज़रूरत है. रत्ती ने कुछ नहीं कहा था. पीछे से दूसरे फोन की घँटी लगातार बजती रही थी. हारकर मैंने कहा था, अच्छा घर आ फिर बात करते हैं.
रत्ती मेरी जुड़वाँ है. मुझे उसे भरपूर जानना चाहिये. और माँ को मुझे भरपूर जानना चाहिये न. लेकिन कहाँ हम किसी को समूचेपन में जान पाते हैं. खुद को ही कहाँ. हमारे भीतर कितनी जगह होती, कितने अतल गड्ढे, कितनी चोटियाँ, कितनी गहराई, कितने चोट, चोटों के ऊपर जमी खुरंच जिनके नीचे टभकता है दर्द सालों तक, अपने भीतर ही कहाँ पूरी यात्रा कर पाते हैं हम. समूचा जीवन पूरा नहीं पड़ता सब माप लेने को.  मैं रत्ती और माँ, हम तीनों को एक होना चाहिये था. अपने समूचेपन में एक. माँ के गर्भ में मैं और रत्ती. हम तीन. एक साथ धड़कते.

मैं माँ को अपने साथ चाहती हूँ. लेकिन मेरे घर की परिस्थिति ऐसी नहीं कि बहुत लम्बे समय तक उनको साथ रख पाऊँ. मेरा दिल हमेशा टूटता रहता है. लगता है पिता के साथ विश्वासघात कर रही हूँ. अपने साथ भी. माँ का इसमें कोई रोल नहीं. जैसे मेरे मन के जँगल में वो कोई ज़रूरी शिकार हैं जिनका आखेट होना तयशुदा है. माँ पैसिव हैं मेरी तकलीफ में. मैं अपनी संवेदनशीलता में महान. और रत्ती ?

माँ सब भूल गई हैं. अब उनको कुछ याद नहीं. अपना जीवन, अपने बच्चे. कुछ भी नहीं. रत्ती प्रक्टिकल हो कर कहती है, अब ये ऐसे ही जायेंगी, तुम ज़्यादा उम्मीद न रखा करो. मैं पापा को देखती कहती हूँ, पापा हमने माँ का ख्याल ठीक से नहीं रखा. आप हमें माफ करें. पापा सिर्फ मुस्कुराते हैं.
__________________________
फोटोग्राफ :Francesca Woodman



प्रत्यक्षा
कहानीकार, कवयित्री, पेंटर
२००८ में भारतीय ज्ञानपीठ से  जंगल का जादू तिल तिल
२०११ में हार्पर कालिंस से पहर दोपहर, ठुमरी कहानी संग्रह प्रकाशित
सोनभद्र युवा कथा सम्मान से २०११ में पुरस्कृत .
शिकार कहानी का अंगेजी अनुवाद हर पीस आफ एन्थालाजी मे शामिल .
कहानिओं के मराठी और अंग्रेजी में भी अनुवाद ,. सभी प्रमुख हिन्दी साहित्यिक पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित .
पावरग्रिड कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (गुड़गाँव)में मुख्य प्रबंधक वित्त . 

ई-पता : pratyaksha@gmail.com































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  1. वाह... समय-समाज को नए ढंग से देखती-दिखाती जीवंत रचना। रचनाकार को बधाई और ' समालोचन ' का आभार...

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  2. संबंधों के रंगों में उपस्थित श्वेत और श्याम को स्पष्ट दिखाती कहानियाँ..

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  3. बारीक बुनावट...सटल कलर्स के अलग-अलग स्ट्रोक.. प्रत्यक्षा को पढ़ना आहिस्ता -आहिस्ता मन की परतों से गुज़रना है. अरुण,कहानी के साथ श्वेत-श्याम चित्र संगीत का टिंज दे रहे हैं... कहानी के बैकग्राउंड म्यूज़िक की तरह.

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  4. भाग ३ विशेष पसंद आया...माँ बाप की ढलती उम्र और उनकी बच्चों निर्भरता ( जो हम बचपन में कभी कल्पना भी नहीं करते ) की जटिलता का सटीक वर्णन, फिलिअल रेलाश्न्शिप भी उतना सहज नहीं रहता जैसे जैसे परिस्थिति बदलती है, प्रत्यक्षा ने इसके dynamics को अच्छा लिखा है, ईमानदारी से

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  5. बेहद चुस्त, ताज़ा, धारदार और संवेदनशील कहानियां. अपने समय को ईमानदारी से अभिव्यक्त करती... प्रत्यक्षा जी को बधाई.

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  6. कल 04/06/2012 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  7. सभी कहानियां इस तस्वीर की तरह औरतों की जिंदगी के विभिन्न रंगों को दर्शाती हैं.

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  8. सारी कहानियाँ....अंदर गहरे तक छू कर हलचल मचाने वाली ....

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  9. समय के सम्बंधों के बदलते रंगों को दर्शाती कहानियां। प्रत्यक्षा जी को बधाई, समालोचना का आभार।

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  10. कहानि‍यां पढ़ गया....अच्‍छी हैं। प्रत्‍यक्षा नि‍रन्‍तर अच्‍छा लि‍ख रही हैं।

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  11. सभी कहानियां इस तस्वीर की तरह औरतों की जिंदगी के विभिन्न रंगों को दर्शाती हैं.

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  12. तिथि दानी7 जून 2012, 12:47:00 pm

    कहानियाँ पढ़ते हुए महसूस होता है कि सारे दृश्य हमारी आँखों के सामने पोर्ट्रे किए जा रहे हैं। एक बेहतरीन काव्यात्मक लहज़ा भी साथ-साथ चलता है। प्रत्यक्षा की कविताएँ भी बेहद संवेदनशीलता, विषय की गहरी समझ और ज्ञान की परिचायक हैं। बहुत शुभकामनाएँ प्रत्यक्षा को।

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  13. 'मैवरिक' और 'भीतर जंगल' पर एक टिप्पणी लिखी थी, जो अब यहाँ नहीं दिख रही. बहरहाल, ये दोनों कहानियां हिंदी कहानी की एकदम नई जमीन तोडती हैं, ऐसा मुझे लगा.

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  14. प्रत्‍यक्षा एक चुनौतीपूर्ण शिल्‍प में एक अत्‍यंत सामान्‍य दिखने वाले कथ्‍य को लेकर सामने आती हैं, जो उनकी साहसिकता को दर्शाता है। बिल्‍कुल अलग कहन और विवरणों की उनकी कहानियां, नए द्वार खोलती हैं। मेरी बधाई और शुभकामनाएं।

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