हिंदी सिनेमा के मशहूर संगीतकार नौशाद अली को याद करते हुए उनके संगीत पर वेद उनियाल का आलेख. नौशाद से लेखक की मुलाकातों का दिलचस्प चल चित्र.
नौशाद : दूर कोई गाए धुन ये सुनाए..
वेद
विलास उनियाल
उत्तर प्रदेश के घर आंगन में गाए जाने वाले लोकगीतों की महक की तरह नौशाद का संगीत भी अपनी मिठास घोलता है. फिल्म संगीत के शुरूआती दिनों में पंजाब के हुनरबंदों के बीच रहकर उन्होंने जो कुछ सीखा, उस रियाज की मेहनत, उनके संगीत पर नजर आई. ठेट परंपरागत साजों के साथ वे फिल्म संगीत में ऐसी बहार लाए, जिसे सुनकर लोग मंत्र मुग्ध हो गए. उसमें पुरवई हवाओं की सी मीठी धुनें हैं. उनके साजों को जो आवाज मिलीं, वो सोना हो गई. उन्होंने न केवल बेशकीमती आवाजों को परखा, बल्कि उन्हें तराशा भी. उनकी धुनों का असर था कि उससे फिल्मों की पहचान होने लगी. जोहराबाई, नूरजहां, लता, शमशाद बेगम, अमीर बाई, सुरैया, उमा देवी के गाए गीत लोगों के मन में छाने लगे, रफी सितारे हो गए. धुनों में सहजता और माधुर्य से गीत,लोगों के अपने हो गए.
लोक धुनों और शास्त्रीयता को आधार बनाकर उन्होंने फिल्म संगीत को रसमय बना दिया. बांसुरी, हारमोनियम, सितार, तुरही जैसे साजों से निकले संगीत का सम्मोहन आज भी दिखता है. "दूर कोई गाए धुन ये सुनाए" में समर्पण है तो "ओ दुनिया के रखवाले" में याचना. "मधुबन मे राधिका नाचे रे" की शास्त्रीयता है तो "मोरे सैंया जी उतरेंगे पार" का लोकजीवन भी. "आवाज दे कहां है" की विरही पुकार है तो "छोड़ बाबुल का घर" की गहरी याद भी. "गाड़ी वाले गाड़ी धीरे हांक रे" और "उड़नखटोले में उड़ जाऊं" के लिए न जाने किस लोक से धुनें लेकर आ गए. एक खास तहजीब दिखती है. वे हर अवसर के लिए गीत सजाना जानते थे. "जब प्यार किया तो डरना क्या" की बगावती धुन पर न जाने कितने प्यार मोहब्बत निभाने के लिए घर की दीवारों को लांघे होंगे.
उनसे बातें करना भी बहुत दिलचस्प था. मुझे यही लगा कि गीत संगीत पर बातें करते हुए, वह उसी तरह डूब से जाते थे, जैसे शायद कभी "रतन ""बैजू बाबरा" के गीतों को तैयार करते हुए उसमें रमे होंगे. सुहावने दिनों में जब उनके संगीत की स्वर लहरियां चारों ओर सुनाई देती थीं, उस दौर में एक- एक गीत के पीछे के अफसाने उन्हें याद थे. एक बार खुलते तो फिर कई बातें सिलसिलेवार बताते चले जाते थे. सहगल के साथ के थोड़े दिन, "रतन , अमर और बैजू बाबरा का जमाना, "मुगले आजम" की दास्तां, इन सबसे जुड़ी यादें सुनने लायक होते. रफी साहब की गायकी और मिजाज को उन्होंने आत्मसात कर लिया था. वो शायरी को पसंद करते थे, अगर उन्हें रफी या किसी और की प्रशंसा करनी होती थी तो अपनी बातों में उनसे जुड़ी एक शायरी जरूर कहते.
उनसे दो तीन बार मिलना हुआ. पहली ही मुलाकात का एक- एक शब्द याद है.तब बुजुर्ग हो चुके थे. पर स्पष्ट उच्चारण के साथ लखनवी लहजे में बात करते थे. बिल्कुल इसी तरह दिखे, जैसे किसी परिवार का ऐसा मुखिया, जो अपनी नौकरी से अवकाश ले चुका हो. सिल्क का कुर्ता पहने हुए अपनी बैठक में आए, तो मैं उन्हें कुछ पल देखता ही रहा. प्रसिद्धी और महानता के दर्प से दूर उनकी पूरी शैली गांव, कस्बों के उन बुजुर्गों की तरह नजर आती थी, जिनके पास सुनाने के लिए खूब किस्से होते हैं. इस तरह कहते मानो अंग्रेजी का कोई शिक्षक अपने प्रिय छात्रों को रोमियो-जूलियट की कहानी बता रहा हो. तब मैंने सोचा कि क्या मैं उन्हीं नौशादजी से मिल रहा हूं जिन्होंने इतनी चर्चित धुनें बनाई हैं. मैंने बातचीत शुरू करने के लिहाज से कहा था "रुन झुन रुन झुन छाए बदरवा" की धुन मुझ बहुत अच्छी लगती है. इस पर वह बोले, जोहराबाई ने बहुत सुंदर गाया भी था. बहुत लगन थी इन लोगों में. एकाएक मेरी नजर दीवार पर टंगी बाघ की खाल पर पड़ी. मैंने पूछा, क्या ये असली है! हंसते हुए उन्होंने कहा, "असली तो है ही, यह मुझे तब मिली, जब मैं शिकारी था." मैंने उत्सुक्ता से पूछा, "इसे क्या आपने मारा था?" धीरे से मुस्कराते हुए बोले. "नहीं, शिकार का शौक था, जिस शिकारी ने इस पर निशाना साधा था, उसने मुझे तोहफे में दिया था. पर निशानेबाजी का शौक मुझे भी था. इसलिए जंगलों में जाते थे "जितनी जल्दी यह शौक चढ़ा उतनी जल्दी छूट भी गया.”
बात कुंदन लाल सहगल की हो, तो फिर उनके पास कुछ अच्छी यादें थी. उनके मन में उस गायक के प्रति भरपूर अदब दिखी. कहने लगे शुरू में ही मेरे संगीत को सहगल की आवाज मिली, इससे बड़ी बात और क्या होती. उम्दा शायरी, उम्दा संगीत और दिल को छूती आवाज. हम जीकर क्या करेंगे, जब दिल ही टूट गया, गम दिए मुस्तकिल और भी तराने. नौशादजी सहगल को याद करते रहे और पुराने दिनों में खो गए. रह- रह कर बोलते जाते थे. एक-एक बात इस तरह मानो घटनाएं चलचित्र की तरह उनके आगे घूम रही हो और वे देखते हुए बताते जा रहे हों.
गुजरे दौर को नौशाद याद कर रहे थे, "सहगल साहब ने मेरे संगीत में गाकर मुझे इज्जत बख्शी है." उनसे पहली मुलाकात की भी अजीब दास्तान है. वह कारदार प्रोडक्शन की "शाहजहां" के लिए संगीत तैयार कर रहे थे. एक दिन जब वह गीतकार डीएन मधोक के साथ बातचीत कर रहे थे, तभी एक सज्जन आए. भूरे रंग की पेंट, सफेद कमीज और आंखों में चश्मा. मधोक उनकी तरफ मुखातिब हुए और उनसे पंजाबी में कुछ बातें करने लगे. फिर एकाएक नौशाद से कहा, "अरे तुमने इन्हें नहीं पहचाना. ये सहगल हैं." इतना बड़ा शख्स सामने था.
सहगल की आदत थी गाना हारमोनियम साथ लेकर गाते थे. मधुर आवाज और स्पष्ट उच्चारण.सुर का ठहराव और सुर के छोड़ने में उनका कोई सानी नहीं था.गाते समय कुर्सी पर बैठना उन्हें अच्छा नहीं लगता था. तख्त पर बैठकर ही रियाज करते थे. गजलों के शौकीन, एक बार गालिब की समाधि पर गए तो वहां संगमरमर बिछवा दिया. जिस दिन सहगल को "शाहजहां" के लिए एक गाना रिहर्सल करना था, हारमोनियम, तख्त सब कुछ मंगवा दिया था. आखिर शाम छह बजे वह पायजामा कुर्ता पहनकर तख्त पर बैठ गए, पहले माला से जाप किया, फिर अपने ड्राइवर से कहा, जरा पांच काली ले आओ. वह चौंके, ये पांच काली तो हारमोनियम का एक सुर है. उन्होंने कहा, हजूर! पांच काली का मतलब समझा नहीं. इस पर वे कहने लगे, बताता हूं, इतनी देर में उनका ड्राइवर विहस्की ले आया. फिर कहने लगे, नौशादजी हमारा सुर कुछ भी लगे, शुरुआत इसी सुर से होती है. माफ कीजिए, हमेशा गीत गाने से पहले यही सुर लगाता हूं. बस गीत एक तरफ हो गया और पांच काली के सुर लगने लगे.
जब देर रात शराब के प्रभाव में गा नहीं सके तो उनसे कहा, हुजूर साजिंदे भूखे हैं. आज काम रोक देते हैं. कल फिर रिहर्सल करेंगे. वह मान गए. उन्हें उनके मांटुगा स्थित घर पर छोड़ा गया. अगले दिन उसी गीत का फिल्मांकन भी होना था. तब फिर सहगल से कहा, " आपने हमेशा छोटो को इज्जत बख्शी है, कृपया इस गीत की रिकार्डिंग कर लीजिए." वह कहने लगे, "फिर मैं सुबह सुबह बिना पांच काली के सुर कैसे लगाऊंगा. मैं भटक जाऊंगा. " उनसे कहा गया, आप कोशिश करके तो देखिए. आखिर बहुत मनाने पर वे तैयार हो गए. गीत की रिकार्डिंग भी हुई और उन्होंने उस गीत को बहुत सुंदरता से गाया. मुझे फिर पास बुलाया और कहा, "मैं तो समझता था कि बिना पिए मैं गा ही नहीं सकता हूं. यह तो अच्छा गीत बन पड़ा. मैंने कहा, आप कहां गाते हैं, गाती तो ये शराब हैं. यह सुनकर वह चौंके. मैंने आगे कहना शुरू किया कि यह तो आपके दोस्तों का भरमाया हुआ है कि आप शराब पीकर ही गा सकते हैं. वे चुपचाप सुनते रहे. वे सिसकने लगे. कहा, नौशाद तुमने जो कहा, सच कहा. काश, इस तरह कोई पहले समझाता तो कुछ दिन और जी लेता.
बट नाऊ इट इज टू लेट. जो गीत उस
दिन गाया था , वह था जब दिल ही टूट गया, हम जी कर क्या करेंगे. यह उनका आखरी गीत था. फिर वह
ज्यादा दिन नहीं जिए. लाहौर में उनका निधन हो
गया था. मैं भी
यही समझता था कि नौशाद में पूरी तरह पूर्वी उत्तर प्रदेश का रंग चढ़ा
है. लखनऊ के रहने वाले हैं और उनकी पूरी शैली उसी तहजीब में रची बसी
है. उनकी संगीत कला यहीं से परिष्कृत हुई है. मगर पंजाब के गुलाम
मोहम्मद की सोहबत उन्हें एक परंपरा और संस्कृति के करीब ले गई.पंजाब की
लोक धुनों का हल्का सा स्पर्श उनके संगीत में कहीं-कहीं दिखता है.
फिल्म "मेला" के गीत "धरती को आकाश पुकारे" के
लिए वह ऐसी ही लोकधुन
को लेकर आए थे. इस बारे में उन्होंने बताया था कि गुलाम हैदर की पत्नी ने
कभी उन्हें एक गैर फिल्मी गीत रावी के उस पार सुनाया था. यह गीत
पंजाब की लोक धुन से प्रभावित था. वह जब मेला के लिए धुनें बनाने लगे तो उनके
मन में इस लोकगीत की धुन घुमड़ रही थी. उन्होंने हू बहू वही धुन नहीं
उठाई , लेकिन उससे प्रेरित होकर नई धुन बनाई.
गुलाम हैदर की पंजाबी रंग में रंगी धुनों को सुनकर उनका मन होता था कि वह भी ऐसी ही धुन बनाएं. ऐसी धुन जिसमें उप्र के लोकसंगीत की खुशबू हो. यह अपने आप में बड़ी चुनौती थी. "रतन" के गीत सामने आए तो लोग झूम उठे.लाहौर से कलकत्ता तक हर तरफ इन गीतों की धूम थी. इन गीतों में आंचलिकता की झलक है. शास्त्रीयता पर उनकी पकड़ रही है. लोकसंगीत और शास्त्रीयता की पगडंडी पर चलते हुए उन्होंने बेहद सुरीला सफर तय किया. कम उम्र में एक तो बारांबकी में देव शरीफ में सालाना उर्स में गाई जाने वाली कव्वाली और वहां एक फकीर की बांसुरी की तान, इसे सुनकर उन्हें लगा था कि अब तो संगीत ही उनकी दुनिया है. यहीं उन्होंने कव्वालों की संगत पाई. नौशाद के पास हर तरह के साज रहे हैं. उनके संगीत में पाश्चात्य साजों क्लेरेनेट, मैंडोलिन, एकार्डिन का भी बखूबी इस्तेमाल हुआ है. लेकिन बांसुरी की धुन की तो बात ही क्या. दस साल की उम्र में उर्स में एक फकीर की बांसुरी सुनी थी. इतना मीठा स्वर कि उसका सम्मोहन जिंदगी भर बना रहा. दूर कोई गाए धुन ये सुनाए, मैं भंवरा हूं तू फूल, आई सावन ऋतु आई, मन लेता है अंगड़ाई, जैसे तरानों में बजती बांसुरी उस फकीर को याद करती रही.
उन्होंने मुझसे कहा कि पिछली बातें याद दिला ही रहे हो, तो तुम्हें एक चीज दिखाता हूं. वह मुझे एक दूसरे कमरे में ले गए. वहां रखी एक हारमोनियम को दिखाते हुए कहा, इसमें अब कुछ बजता नहीं है, पर इसी से "रतन" के गाने तैयार किए थे. बहुत ही सुरीला था यह. उन गीतों ने जिदंगी बदल दी. मिल के बिछुड़ गई अंखिया, रुम झुम रुम झुम छाए बदरवा, परदेशी बालमा बादल छाया जैसे गीतों में पुरवई हवाओं की सुंगध थी. इससे पहले फिल्म संगीत में पंजाब और बंगाल का प्रभाव था. "रतन" के गीत सुने गए तो उप्र का लोकजीवन भी फिल्म संगीत में चला आया. लेकिन इसके पीछे की एक रोचक घटना उन्होंने बताई थी. कहने लगे, आप सोचते होंगे कि "रतन" के बाद हम शाहजहां हो गए. सच तो यह है कि अपनी शादी के समय भी परिवार वाले यही सोच रहे थे कि वह मुंबई में दर्जी हैं. शादी के दिन बैंडवाले इस फिल्म के ही गीत बजा रहे थे. पर वो नहीं जानते थे कि उनकी धुनों को तैयार करने वाला तो दूल्हा बना हुआ है. दूसरों को छोड़िए, पिता और ससुर दोनों भी इस बात से अनजान थे. उनके लिए तो वह बंबई के एक दर्जी थे. जो अब थोड़ा ठीक कमाने लगा हो.
नौशाद से मिलकर महसूस हुआ था कि परंपरा, तहजीब का वह बहुत ख्याल रखते थे. संगीत ने उन्हें अपार ख्याति दी, पर उन ऊंचाइयों में उर्स के गायन और संगीत को कभी नहीं भूले. उसके प्रति उनके मन में अदब था. बंबई आने के बरसों बाद "बेकस पे करम कीजिए सरकार ए मदीना" के लिए धुन तैयार की तो यह एक तरह से हाजी वारिश अली शाह के ऊर्स के लिए अदब था. संगीत में नौशाद कई तरह के प्रयोग करते थे. "मौरे सैंया जी उतरेंगे पार" में साजों का इस्तेमाल बहुत कम हुआ है. तो मुगले आजम के कोरस गीत के लिए सौ से ज्यादा कोरस गाने वालों का सहयोग लिया. वहीं रतन के एक गीत के लिए मिट्टी वाले टाइलों के कमरे का इस्तेमाल किया. तो "मेरे महबूब" के टाइटिल सांग के लिए केवल छह साजों का उपयोग किया. वो अपने संगीत की चर्चा करते थे तो इस बात का जिक्र जरूर करते थे कि कितनी मुश्किल से उन्होंने मुगले आजम के एक शास्त्रीय गीत के लिए बड़े गुलाम अली को मनाया था. इसकी लंबी कहानी है. पर बड़े गुलाम अली जब तैयार हुए तो नौशाद को मानो कोई मुराद मिल गई. हालांकि इससे पहले वह "बैजू बाबरा" में अमीर खां और डीबी पलुस्कर से गीत गवा चुके थे. बड़े गुलाम अली फिल्मों के लिए गाना दोयम दर्जे की चीज समझते थे. यह उनका गाया अकेला गीत है. वह जिक्र इस बात भी करते थे कि किस तरह उन्होंने तेरह साल की सुरैया को स्टूल में खड़ा करके पहला गीत गवाया था. ऐसे तमाम प्रसंग नौशाद के पास अपने संगीत को लेकर रहते थे. बस थोड़ा सा खुल गए फिर वह पूरे प्रसंग को रोचकता के साथ सुनाते थे. उनसे ही सुना कि लताजी ने कभी समय न होने की
बात कहकर
किसी गाने के लिए इंकार नहीं किया. जब भी उनसे कहा गया वह आईं.मैंने
उनसे पूछा था, लताजी की साधना, संगीत का ज्ञान, बेहद
सुरीली आवाज इन सबके
बारे में तो कहा ही जाता है आप उनके लिए क्या अलग से कुछ कह सकते हैं.
उनका कहना था, इनकी आवाज तो भगवान की देन है.
जब शुरू में परिचय हुआ तो लगता
था कि गाते हुए थोड़ा मराठी उच्चारण जाता है. जब उनसे कहा गया तो
उन्होंने बहुत जल्दी इसे सुधार लिया. लताजी को जब भी कहा वे बड़ी शालीनता
से आईं. कभी ऐसा नहीं हुआ कि उनसे किसी गीत को गाने के लिए कहा हो, और वह इंकार कर दें. उन दिनों लताजी अक्सर कहा
करती थीं कि नौशादजी के यहां
से बुलावा आ जाए तो इंकार नहीं किया जा सकता.
रफी, नौशाद से मिले तो संगीत महक उठा. रफी साहब को गुजरे अर्सा हो गया . नौशाद के मन में उनके प्रति बड़ा दुलार पाया. साथ ही उनकी गायकी के लिए अथाह सम्मान भी. कहा था, फरिश्ता था वो. इतना बड़ा गायक. पर रियाज के लिए घर पर आते थे, बहुत सलीके से सीखते थे. जब तक तसल्ली न हो जाए, रियाज नहीं छोड़ते थे. गाने में पूरी तरह डूब जाते थे. तानपुरा लेकर "मधुबन में राधिका नाचे रे" का रियाज कई दिनों तक किया था. रफी साहब को सुनना ही नहीं गाते हुए देखना भी अच्छा लगता था. रोशन चेहरा और उनका तन्मय होकर गाना, सब कुछ अजब था. उन्होंने कहा था, रोज-रोज नहीं आते ऐसे गायक.
मैंने
पूछा, अक्सर कहा जाता है कि "ओ दुनिया के
रखवाले" गाते समय रफी साहब के
गले में तकलीफ होने लगी थी. नौशाद से शायद पहले भी कई लोग इस सवाल को
कर चुके होंगे, इसलिए छूटते ही उन्होंने कहा, नहीं-नहीं ऐसी बात नहीं, राग दरबारी में यह गीत थोड़ा मुश्किल तो था ही, ऊंचा अलाप लेना था.रफी ने
इसे बखूबी गा लिया. पर बाहर कहानियां और और बन गई. वैसे रफी को यह गीत खासा
पसंद था. लोग उनसे अक्सर इसे सुनाने की फरमाइश करते थे. जानते हो एक और
गीत को बड़े रूझान से सुना जाता था, "ना जाने
तुम कब आओगे." उन दिनों की यादों में खोए नौशाद ने बताया था कि स्टेज प्रोग्राम
में रफी होते
थे तो समां बंध जाता था. लोग तरह तरह की फरमाइश करते. कई बार तो कई गीत उनकी डायरी में लिखे भी नहीं होते थे, तो लोग कहते अच्छा शुरू की पंक्तियां
ही सुना दीजिए. गायकी के लिए रफी का समर्पण अद्भुत था.
सहगल से ज्यादा न
गवा पाने का जो मलाल उनके दिल पर था, उसे रफी
ने पूरा कर दिया था. कुछ
इस तरह ही वह शकील बदायुंनी को भी याद करते थे. वह यह बताना नहीं
भूलते थे कि "मन तड़फत हरी दर्शन" के गाने वाले रफी, यह गीत लिखने वाले
शकील और इसका संगीत तैयार करने वाले वो स्वयं मुस्लिम हैं. उन्होंने
अपार शोहरत पाई. उनके संगीत पर लोग मुग्ध हुए. पर उनसे बातचीत
में उस कसक को समझा जा सकता था जिसमें शुरू के गर्दिश भरे दिनों का दर्द
छिपा है. बंबई ने उन्हें भी दर दर पर भटकने दिया. बंबई आए थे तो पहले
खेमचंद प्रकाश का दामन थामा. यहां वहां घूमते रहे. यह सफर आसान नहीं था.
ब्राडवे थियेटर की फुटपाथ पर उन्होंने कई रातें बिताई. दो साल तो काम तलाशने
में ही लगे. इस बीच पियानो में भी पारंगत हो गए. पहचान "शारदा" से बनी.
यही फिल्म थी जिसमें सुरैया ने पहली बार गाया.
नौशाद के संगीत से बहुत कुछ बरसा है. यह जानने की इच्छा थी कि उनके कई तराने हैं जो मन को छूते हैं पर किसी ऐसे गीत की याद उनके दिल में है जो अंदर तक छूती हो. वह बताने लगे, बहुत कुछ बनता संवरता रहा. चार दशक तक संगीत रचते रहे. पर कुछ गीतों की याद जरूर मन में हैं. "छोड़ बाबुल का घर आज पी के पहर" के लिए धुन बनाते हुए मैं उस क्षण को महसूस कर रहा था जब एक लड़की अपने घर परिवार सब कुछ छोड़ दूसरे घर की हो जाती है. विदाई के उस क्षण की भावुकता और मन में उठती भावनाओं को शकील ने किस तरह पंक्तियों में उभारा था. शकील की पंक्तियों को उन्होंने कई बार पढ़ गए. अपने आप सुर सजने लगे. एक पल में ख्याल आया कि विदाई के इस क्षण के साज क्या हो सकते हैं. इस गीत के लिए शमशाद बेगम की आवाज कुछ अलग लगी. हालांकि वह अपनी खनकती आवाज में चुहुल भरे गीतों को बहुत मस्ती में गाती रहीं. पर इस आवाज में दिल भर आने वाला दर्द भी है.
शमशाद और उनके साथ कोरस गाने वालों ने इस बहुत मन से गाया. वो दिन याद है आम तौर पर रिकार्डिंग स्टूडियों में गीत के रिकार्ड के बाद एक दूसरे को मुबारक और बधाई देने का दौर चलता है. पर उस दिन यूं ही लग रहा था जैसे कोई लड़की अभी घर से विदा हुई हो. और सब चुपचाप उस खालीपन को महसूस कर रहे हों. शमशाद ने सिर झुकाया और बिना कुछ कहें चली गईँ. साजिंदे भी चले गए. मैं इस गीत को बार बार सुनता रहा. तब अहसास हो गया था कि जब भी कहीं विदा होने के लिए डोली उठेगी, यह गीत जरूर सुनाई देगा.
उन्हें थोड़ा दुख इस बात का भी रहा है कि अगर विभाजन के बाद नूरजहां इस मुल्क से नहीं जातीं तो उनसे कुछ और बेहतर गीत सुने जा सकते थे. उनका मानना था कि पाकिस्तान मे उन्होंने गाया जरूर लेकिन उन जैसी शख्सियत के लिए असली जगह यहीं थी. कहने लगे, अच्छा होता वह बंबई में बनी रहतीं.बहुत सम्मान था सबके मन में उनके लिए.
जब पूछा था कि क्या आप अब भी अपने साजों पर ढले पुराने गीत सुनते हो, उस समय उन्होंने कहा था कि शास्त्रीय संगीत सुनना अच्छा लगता है. खासकर रेडियो पर सुनता हूं. पर बहुत अलग मन हो तो फिर आवाज दे कहां है, मोहे भूल गए सावंरियां, मधुबन में राधिका नाचे रे जैसे गीत तलाशता हू. बड़ा अलग अनुभव है कि आप अपनी बनाई धुनों पर गीतों को बरसों बाद सुनें. एक वक्त गुजर गया है, जब अनमोल घड़ी के लिए "आवाज दे कहां है" का गीत तैयार किया था. लगता है कि जैसे कल की ही बात हो जब नूरजहां सुरेंद्र को इस गीत की धुन बता रहे हों. इस गीत की रिकार्डिंग हुई थी, तो कहा था , यह जान लो नूरजहांजी इस गीत से आप हमेशा याद रखी जाएंगी. फिर तो कुछ समय बाद वो पाकिस्तान ही चली गईं.
"मुगले आजम" के
स्टारडम भव्यता में निर्देशक आसिफ ने कोई कमी नहीं की.इस फिल्म
के गीत संगीत के लिए भी खासी मशक्कत हुई. नौशाद के पास इसे लेकर कई
दिलचस्प किस्से थे. दो गीतों का जिक्र किया था. कहा, "प्यार किया तो डरना क्या"
के लिए हम रात भरे बैठे. यह गाना एकाएक नहीं बना. इसे कई
बार लिखा गया. आखिर जब गाना पूरी तरह तैयार हुआ तो बाहर सूरज निकल गया था.
हमारी पूरी रात की मेहनत की थी. आगे इस गीत की शौहरत आप जानते हैं.
नौशाद से ही जाना था कि राजस्थान के एक लोकगीत से प्रभाव में इसे लिखवाया
गया था. शकील ने इस गीत की पंक्तियों को कई बार लिखा. विश्वास करेंगे !
सौ से ज्यादा बार उन्होंने यह भी बताया था कि इसी फिल्म के कोरस के लिए किस
तरह सौ गायकों को लाया गया था. दस-बीस से बात नहीं बनी, गाने में प्रभाव लाने के लिए सौ कोरस वालों को रफी साहब के
साथ गवाया गया. यूं ही नहीं मुगले आजम का स्टारडम
बना है.
मगर कुछ
बातें मेरे दिल में थी, कहूं या
न कहूं का संकोच छोड़ कर
मैंने पूछ ही दिया कि क्या मोहे पनघट पे नंदलाल छेड़ गयो रे गीत असल में किसने लिखा है. वे विचलित नहीं हुए, उन्होंने बताया कि गीत रिकार्डिंग
के समय यह उनकी
जानकारी में नहीं था. शकील बहुत अच्छे शायर थे. उन पंक्तियों को आधार
बनाकर उन्होंने यह पूरा गीत लिखा था. सारे गीत अच्छे लिखे गए. फिल्म
पापुलर विधा है, इसमें कभी कभी कुछ अच्छी लगती
चीजों को नए स्वरूप में लाकर
या ढालकर सामने लाया जाता है. मुगले आजम में यह खासकर हुआ है. सच तो यह
है कि इस फिल्म का गीत- संगीत लोगों को मुगल ए आजम देखने के लिए
थियेटर की तरफ लाया.
नौशाद से उन मुलाकातें बहुत से अनुभव दे गई हैं. मैंने भी उनसे इस बात को सुना था, कि बैजू बाबरा के समय जब फिल्म को देखने के लिए लोग दादर के पास ब्राडवे थियेटर में उमड़ आए तो वे एक कोने में खड़े रो रहे थे. वह कहने लगे, उस दिन वह महसूस कर रहे थे कि उन्हें कोई मुकाम मिल गया था. बैजू बाबरा के गीत संगीत की धूम मची थी. "तू गंगा की मौज," "ओ दुनिया के रखवाले," जैसे गीतों को बड़े रुझान से सुना जा रहा था. फिल्म के निर्देशक उनके पास गए. कंधे पर हाथ रखा, और पूछा क्या बात हो गई, क्यों रो रहे हैं. पूछा तो भर्राए स्वर में ब्राडवे के फुटपाथ की ओर इशारा कर उनसे कहा, "यही वो जगह है जहां वो सोया करता था. यहां तक पहुंचने में उन्हें सोलह साल लग गए.” बेजू बाबरा के गीत संगीत की धूम मची थी. उन्हें वो दिन याद आ रहे थे जब वे अपने लिए काम तलाश रहे थे. वे बेहद कठिन दिन थे. मगर उनकी जिंदगी इस तरह बदली कि तब हर जगह उनके संगीत की शोहरत थी.
नौशाद
का बड़ा मन था कि वह लखनऊ में संगीत अकादमी बनाए. वहां लोगों को शास्त्रीय
संगीत को सीखने और सुनने के लिए प्रेरित करें. उनकी इच्छा मन में
रही, लेकिन उनका संगीत अपने आप में धरोहर है. लखनऊ उनके
जीवन में था.
उसे भूला नहीं पाए. उन्होंने बताया था कि पहले संगीत में वक्त नहीं
मिला करता था, लेकिन अब पुराने लोगों से मिलना
जुलना रहता है. पुराने
यानी लखनऊ के साथी. मैंने पूछा था कि किस तरह की महफिल सजाते हैं. उनका
जवाब था, शराब सिगरेट तो कोई छूता नहीं. बस पुराने दिनों को याद करते हैं.
हां, कुछ अच्छी शायरी गीत गजल भी हो जाता है. अपनी तहजीब को याद कर
लेते हैं. लखनऊ कहां भूलता है हमसे. एक शेर उन्होंने सुनाया था जिसे
मैंने तब अपने साथ लाए पन्नों में लिखा था,
रंग गया है लेकिन घर ये
पुराना है, ये कूचा
मेरा जाना पहचाना है
क्या जाने क्यूं उड़ गए पक्षी, कभी बहारों में गुलशन वीराना है.
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वेद विलास उनियाल : वरिष्ठ पत्रकार और लेखक
अमर उजाला से जुड़े हैं.
ई पता : vedvilas@gmail.com
वेद विलास उनियाल : वरिष्ठ पत्रकार और लेखक
अमर उजाला से जुड़े हैं.
ई पता : vedvilas@gmail.com
नौशाद पर कलात्मक लेख . साहित्य का दरवाज़ा खुलते ही कई कमरे कतार से खुल जाते हैं .. वहाँ जीवन है ,कहानियां हैं , व्यक्ति है , व्यक्तित्व है , समाज है , यथार्थ है: यथार्थ की लू में राहत देती कविता है ..गीत है , संगीत है ..बहुत सारे की नोट्स ..शास्त्रीयता में बंधे कंठ .. उससे उन्मुक्त राग .
जवाब देंहटाएंआभार इस लेख के लिए .
वेदविलास जी ने नौशाद साहब पर डूबकर लिखा है... बहुत बधाई...
जवाब देंहटाएंनौशाद फ़िल्म संगीत के स्वर्ण-युग के प्रतिनिधि संगीतकार थे. उनकी हर प्रकार के संगीत को सीखने की ललक, उनकी शायरी की समझ, लोक-संगीत और शास्त्रीय संगीत पर गहरी पकड़ ने उन से बेमिसाल और सदाबहार गीतों को तैयार करवाया था.
जवाब देंहटाएंप्रस्तुत लेख बहुत सुन्दरता के साथ नौशाद की महानता और सफलता को प्रस्तुत करता है.
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