प्रसिद्ध कथाकार बटरोही
हंगरी के बुदापैश्त में ३ वर्ष तक विजिटिंग प्रोफ़ेसर रहे. भारत की सभ्यता को लेकर
उत्सुकता का एक स्थाई भाव शेष विश्व में रहा है. इसे समझने के लिए लगभग हर देश के
विश्वविद्यालय में इंडोलॉजी विभाग हैं, जहाँ संस्कृति और भाषा को
लेकर गहरी दिलचस्पी दिखती है. इस यात्रा- गाथा में बटरोही ने दोनों संस्कृतिओं के
साम्य को देखते हुए, वहाँ की विशिष्टताओं को
भी प्रत्यक्ष किया है. साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में उनका मन विशेष रूप
से रमा है.
एक यादगार यात्रा की
गरिमामयी आभा यहाँ आपको मिलेगी.
बुदापैश्त में
हिंदी की दुनिया
बटरोही
जुलाई,
1997 को नई दिल्ली से रवाना होकर फ्रैंकफर्ट (जर्मनी) में जहाज बदला तो हंगरी
के स्थानीय समय के अनुसार साढ़े दस बजे (भारतीय समय दो बजे दोपहर) बुदापैश्त हवाई
अड्डे पर उतरा तो मेरी अगवानी के लिए वहाँ भारतीय दूतावास में प्रशासनिक सहायक के
रूप में कार्यरत उपेंद्र सिंह नेगी खड़ा था. पौड़ी गढ़वाल का रहने वाला,
दून स्कूल में पढ़ा उपेंद्र मुझे पहला गढ़वाली मिला जिसके उच्चारण में गढ़वाली
का जरा भी लहजा नहीं था. उपेंद्र के मन में पहाड़ के प्रति उस प्रकार की अतिरिक्त
भावुकता नहीं थी, जैसी कि हमारी पीढ़ी के प्रवासी पहाडि़यों में
देखने को मिलती है. गढ़वाल की बातें करना उसे विशेष पसंद नहीं था. वह हर सप्ताहांत
को अनिवार्य रूप से आस्ट्रिया या आसपास के
पड़ौसी देशों में क्रिकेट खेलने जाता था.
ester berki
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उपेंद्र मुझे दूतावास
की कार में अंतर्राष्ट्रीय अतिथिगृह ‘मेनेशी उत्’
ले गया. ‘मेनेश’ (घोड़ों का झुंड) में ‘ई’
विशेषण लगे इस शब्द का अर्थ है, ‘घोड़ों के झुंड वाली
सड़क’. दोनों ओर चिनार, मेग्नोलिया और
मोरपंखी के घने पेड़ों से निर्मित राजपथ के किनारे स्थित ‘मेनेशी उत्’
के अगल-बगल अठारहवीं सदी की चर्च शैली में बनी सुंदर काटेजें अपने विशाल लानों
के साथ एक खूबसूरत संसार रचती हुई मानो मेरे स्वागत में खड़ी थीं. ‘मेनेशी उत्’
में ज्यों ही मैंने कदम रखा, खिड़की से लगे बेड़ू के पेड़ पर एक घुघुती का
स्वर कानों में पड़ा, ‘घुघूती-बासूती’...
तो वह आवाज़ मुझे चालीस साल पुराने अपने विद्यार्थी जीवन की याद दिला गई.
नैनीताल के देवसिंह बिष्ट कालेज में पढ़ता था तो कालेज में एक कहानी प्रतियोगिता
हुई थी, जिसमें मेरी कहानी ‘घुघुती बासूती’
प्रथम आई थी. इस कहानी में मैंने पहाड़ों में प्रचलित एक लोक-विश्वास के आधार
पर अपनी बहिन की दुखभरी कथा कही थी और इस बहाने पहाड़ी औरत की व्यथा को उजागर किया
था.
बुदापैश्त के आत्वाश
लोरांद विश्वविद्यालय के जिस इंडोलाजी-विभाग में मैंने जुलाई,
1997 को ज्वाइन किया, वहाँ हिंदी विभाग की प्रभारी मारिया नेज्यैशी थी
जो करीब पैंतालिस साल की स्वर्णकेशी सुंदर महिला थीं. हमारे विभाग के अध्यक्ष
प्रोफेसर चाबा तोत्तीशी थे जो संस्कृत, पाली और अपभ्रंश के
विद्वान् लगभग सत्तर वर्षीय बुजुर्ग थे. विद्यार्थियों में सबसे पहले मेरी भेंट
चाबा दैजो से हुई जो एम.ए. के प्रोजेक्ट के रूप में आठवीं सदी के आचार्य जयंत भट्ट
के नाटक ‘आगमडंबर’ पर शोध कर रहा था. वह
बुदापैश्त से लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर दूर उत्तर-पश्चिम में स्थित ज्योर कस्बे में
रहता था और सप्ताह में दो या तीन बार अपने विभाग आता था. उसी ने शुरू में मेरा
रेजीडेंस परमिट और दूसरे सरकारी कागजात तैयार करने में दौड़धूप की. चीनियों की-सी
शक्ल-सूरत का चाबा दैजो दुबला-लंबा बाईस साल का नौजवान था,
जो बेहद विनीत मगर तीखी अभिरुचियों वाला युवक था. उसके अलावा विभाग में ऐसे
अनेक विद्यार्थी थे, जिनमें भारत और यहाँ की प्राचीन विरासत के बारे
में जानने की गहरी जिज्ञासा थी.
हिदश गैर्गेय और किश
चाबा (जिन्होंने उसी साल विभाग में प्रवेश लिया था) बहुत जल्दी मुझसे घुलमिल गए.
चाबा दैजो को मिलाकर हम चारों अमूमन साथ-साथ रहते और हिंदी में ही बातें करते. एक
और छात्र बोलोग दानियल का संस्कृत उच्चारण इतना अच्छा था कि 1998 में सईद नक़वी जब
स्टार-प्लस के अपने धारावाहिक ‘इट्स ए स्माल वर्ल्ड’
के लिए हमारे विभाग पर फिल्म बनाने के लिए बुदापैश्त आए तो दुना नदी के किनारे
प्राणायाम करते हुए दानियल ने कठोपनिषद् का शांति-पाठ अपने मूल-शुद्ध उच्चारण में
गाया था. दो साल बाद एक लड़की ऐस्तैर बेर्कि को देखकर तो मैं हैरान रह गया. उसका
हिंदी उच्चारण इतना सहज था कि लगता ही नहीं था, वह भारत से हजारों
मील दूर पैदा हुई है.
आत्वाश लोरांद
विश्वविद्यालय का हमारा विभाग कुछ और मायनों में भी खास था. हिंदी और भारतीय
भाषाओं का केंद्र होने के कारण भारत और भारतीय भाषाओं संबंधी जो भी जानकारी देश
वासियों को जरूरत पड़ती थी, उसके लिए हमारे विभाग से ही संपर्क किया जाता
था. फ्रैंच भाषा में लिखी गई फूलन देवी की जीवनी ‘मुअ फूलन देवी: रैंदे
बांदि’ (मैं फूलन देवीः डाकुओं की रानी) का हंगेरियन
अनुवाद करते समय फूलन देवी की देहाती हिंदी का अनुवाद करते हुए हम चारों लोगों ने
बहुत मेहनत की, हालांकि चाबा के अनुसार हम फूलन के हंगेरियन
संवादों में वह बात नहीं ला पाए थे. यह बात भी कम हैरान करने वाली नहीं थी कि
आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में जब हिंदी विभाग खुला तो वहाँ हिंदी का पहला
प्राध्यापक हमारे ही विभाग का नियुक्त हुआ - इमरे बंघा. इमरे ने बुदापैश्त से एम.
ए. करने के बाद विश्वभारती, शांतिनिकेतन से रीतिकालीन कवि आनंदघन (घनानंद)
पर शोधकार्य किया. हिंदी के ख्यातिप्राप्त शोध-पत्रिकाओं में उनके निबंध प्रकाशित
हुए हैं.
दरअसल,
बुदापैश्त में बिताए गए तीन साल मेरे अपने लिए सचमुच दिवास्वप्न जैसे थे.
मैंने कभी सोचा ही नहीं था कि मुझे मेरा देश सांस्कृतिक राजदूत बनाकर प्रथम सचिव
का वेतन देकर यूरोप के ऐसे देश में भेजेगा, जिसकी सांस्कृतिक
जड़ें भारत की तरह गहरी हैं और लोग भी भारतीयों की तरह अपनी संस्कृति से बेहद
प्यार करते हैं. यूरोप के मध्य-पूर्व में बसे मानव-किडनी के आकार के देश हंगरी को
वहाँ के लोग अपनी भाषा में ‘मज्यारोत्साग’ कहते हैं और अपनी
भाषा को ‘मज्यार’, जो संसार की संपन्नतम
भाषाओं में एक है. इसकी लिपि कुछ अर्थों में देवनागरी से भी अधिक वैज्ञानिक है,
जिसमें ‘अ’ और ‘इ’
की तीन-तीन और ‘उ’ और ‘ओ’,
की पाँच-पाँच उच्चारण-घ्वनियाँ हैं.
रोमन लिपि को अपनाने
के बावजूद, यूरोप की दूसरी भाषाओं से हंगेरियन का चरित्र
इतना अलग है कि कभी-कभी भ्रम होता है कि यह भाषा मानो किन्हीं सुदूर आदिवासियों की
है. वैसे वहाँ के लोग मानते भी हैं कि मज्यार जाति का रक्त-संबंध फिनो-उगरिक लोगों
के साथ है जिनके पुरखे घुमंतू शिकारी और चरवाहे थे. 4000 ई. पू. में वोल्गा नदी के
मध्यवर्ती भाग और पश्चिमी साइबेरिया की यूराल पर्वत-श्रृंखलाओं में रहने वाले इन
लोगों की फिनिश-एस्टोनियन शाखा 2000 ई. पू. के लगभग जनसंख्या के बढ़ते दबाव के
कारण पश्चिम की ओर आगे बढ़ी और उन्होंने बाल्टिक सागर के किनारे अपना पड़ाव बनाया.
यहीं से मज्यार जाति के लोग यूराल पर्वतों के ढलानों में अपने मवेशियों को चराते,
शिकार और खेती करते हुए यूरोप की इन मध्य-पूर्वी घाटियों में पहुँचे. इन विराट
चरागाहों में सदियों तक जीवन-यापन करते हुए इनकी एक शाखा मध्य एशिया की ओर बढ़ी और
दूसरी पश्चिम जर्मनी से काला सागर तक बहने वाली दुना (अंग्रेज़ी नाम डेन्युब) नदी
के किनारे बसी. अपने रूपाकार में ये हूणों से मिलते हैं,
मगर ‘हंगरी’ से ‘हूण’
शब्द का शब्द-साम्य भले ही हो, ‘हंगरी’
तो इस देश का मूल नाम नहीं है. संभव है कि दक्षिण एशियाई जातियों में से
किन्हीं के साथ इनका रक्त संबंध हो, भारतीयों के साथ नहीं
दिखाई देता!
बहरहाल,
घुमंतू और सपने देखने वाली इस कलाप्रेमी कौम में मुझे अपने कुमाऊँ क्षेत्र के
साथ एक सहज-समानता दिखाई दी. वहाँ के लागों को देखकर मुझे बचपन में सुनी गई
लोक-कथाओं के जंगलों में रहने वाले अपने रखवाले विशालकाय ‘खबीसों’
की याद आती थी, जो किसी भी प्रकार का संकट आने पर,
याद करते ही फौरन प्रकट हो जाते थे और हमें संकट से उबार कर गायब हो जाते थे.
मज्यारोत्साग और कुमाऊँ के बुग्यालों में रहने वाले चरवाहों के लोक-संगीत के आलाप
में भी अद्भुत् समानता है.
बुदापैश्त दो हिस्सों
में बंटा हुआ है. दुना नदी के पहाड़ी ओर का हिस्सा ‘बुदा’
कहलाता है और मैदानी हिस्सा ‘पैश्त’.
यहाँ पेश है, बुदापैश्त में बिताए गए दिनों में लिखी गई मेरी
डायरी के कुछ अंश:
बुदापैश्त, शनिवार, 26 सितम्बर,1998 प्रातः 8.48 बजे
इस बीच मैं रेल से
रूमानियाँ गया था.पहाड़ पर रेल चलना पहली बार देखा. जिस माहौल के बीच से मैं संसार
में प्रकट हुआ था, वहाँ तो हमारे लिए रेल देखना भी एक घटना हुआ
करती थी. हमारे इलाके के अधिकांश लोगों ने बिना रेल देखे ही सारी जिंदगी बिता दी
थी. रेल तो क्या, बचपन में हमारे लिए बस को देखना भी एक बड़ी घटना
हुआ करती थी. हमारे गाँव से बारह किलोमीटर दूर ‘शहर फाटक’
में जब पहली बार बस आई थी तो कितने ही गाँववासी यह समझकर कि कोई भारी-भरकम पशु
आ गया है, उसके लिए हरी घास के गट्ठर लेकर पहुँचे थे.
18 सितम्बर की सुबह 9
बजे की रेल से हम चार लोग कोलोश्वार के लिए रवाना हुए - मैं,
चाबा दैजो, बौद्ध विद्यालय में संस्कृत का अध्यापक तिबोर और
उसका चार साल का बच्चा. चाबा ने बताया था कि रेल न्युगोती पायोद्वार (पश्चिमी
रेलवे स्टेशन) से जाएगी इसलिए हम लोग समय पर वहाँ पहुँच गए. वहाँ पता चला कि गाड़ी
कैलेती पायोद्वार (पूर्वी रेलवे स्टेशन) से जाएगी इसलिए दौड़े-दौड़े वहाँ गए. चाबा
और तिबोर ने मिल कर चारों के लिए रिटर्न टिकट खरीदा. ठीक नौ बजे हम लोगों की गाड़ी
रवाना हुई.
रास्ते भर हंगरी के
विशाल मैदानी भाग को देखते हुए हम लोग आगे बढ़ रहे थे. सामुदायिक कृषि के जमाने के
पठारी खेतों में पका हुआ गेहूँ लहलहा रहा था, मानो जंगल के बीच
पीले सागर की उर्मियाँ आर-से-पार तक नशे में झूम रही हों. बीच-बीच में आरक्षित वन
और छोटी-नुकीली बुर्जनुमा पहाडि़याँ भी दिखाई दे रही थीं और मुझे भ्रम हो रहा था
कि मैं कुमाऊँ की पहाडि़यों में ही सैर कर रहा हूँ. शाम को चार बजे हम लोग
कोलोश्वार पहुँचे जो रूमानियाँ का एक छोटा मगर शांत-सा कस्बा था,
ऊँघता हुआ-सा. कोलोश्वार के रेलवे स्टेशन पर एक बाईसेक साल की लंबे कद की,
नीली आँखों वाली, विनीत और सुंदर लड़की हमारे स्वागत के लिए
उपस्थित थी. वह सफेद रंग की आकर्षक पैंट और जैकेट पहने हुए थी. उसके चेहरे से आभार
और आत्मीयता मानो टपक रहा था. सभी आगंतुकों का उसने अपने देश की परंपरा के अनुसार
गाल छुआ कर नमन किया. इस तरह के अभिवादन का मुझे अभ्यास नहीं था,
अभिवादन करते हुए मुझे लगा, मेरे गालों की अपेक्षा उसके ओठों का बायाँ
हिस्सा मेरे ओठों पर कई पलों तक स्थिर रहा, जिन्हें अलग करने की
न उसने जल्दी दिखाई, न मैंने. अनायास ही ऐसा हुआ होगा,
मैंने सोचा. धीरे-से चेहरा हटाने के बाद वह हल्के-से मुस्कराई और मुझसे गाड़ी
में बैठने का आग्रह किया.
हमें एक टैक्सी में
बैठाकर वह किसी शिक्षण संस्था के छात्रावास में ले गई. वह स्थान रूमानियाँ का
प्रख्यात धर्मशास्त्र विश्वविद्यालय था, वहीं हमें ठहरना था.
चाबा दैजो और मैं एक कमरे में ठहरे और तिबोर और उसका बेटा दूसरे में. चूँकि वह
छात्रावास था, इसलिए बाथरूम और शौचालय साझे के थे.
हिंदी के विद्यार्थी |
हमें कपड़े बदलने और आराम करने के लिए करीब आधा घंटा
दिया गया और तत्काल ही टैक्सी से हमें आयोजन-स्थल तक ले जाया गया. मुझे बताया गया
कि पहला व्याख्यान मुझे ही अंग्रेज़ी में देना है जिसका अनुवाद आक्सफोर्ड में
हिंदी का अध्यापक इमरे बंघा करेगा. अंग्रेजी में बोलने का मुझे अभ्यास नहीं है
लेकिन मैं पहले ही से इस अवसर के लिए एक लेख तैयार करके ले आया था - ‘द फंडामैंटल्स आफ इण्डियन कल्चर.’
मैंने कोशिश की थी कि मैं अपने
लेख में धर्म के कर्मकांडी प्रसंगों से बचूँ. फिर भी भारत में धर्म और अंधविश्वास
इतने गहरे एक-दूसरे में गुँथे हुए हैं कि उन्हें अलग करना मुझे बहुत कठिन लगा.
व्याख्यान के बाद कुछ लोगों ने आज के भारत के बारे में अनेक जिज्ञासाएँ व्यक्त
कीं. बाद में सोमी पन्नी की एक शिष्या का भरतनाट्यम् नृत्य हुआ और फिर दर्शकों को
भारत संबंधी पारदर्शियाँ दिखाई गईं. मैंने भी नैनीताल के अपने मित्र अनूप साह के
द्वारा भेजी गई नैनीताल और कुमाऊँ की कुछ पारदर्शियाँ दिखाईं,
जो लोगों ने बेहद पसन्द कीं और
इस बात पर हैरानी व्यक्त की कि कुमाऊँ और रूमानियाँ में अनेक प्राकृतिक समानताएँ
हैं.
रात उस दिन खाना नहीं मिला. कार्यक्रम खत्म होते करीब
साढ़े दस बज चुके थे और उसके बाद सारे रेस्तराँ बन्द हो चुके थे. एक लड़की,
जो कार्यक्रमों में भी सहयोग
कर रही थी, खाना
लेने के लिए अनेक जगह भटकी लेकिन कहीं कुछ नहीं मिला. रात के करीब साढ़े ग्यारह
बजे एक शराबखाने में घुसे जहाँ पिज्जा मिल गया. एक-एक पिज्जा पेट में डाल कर हम
लोग अपने कमरों में आ गए. हास्टल के दरबान ने भी अजब तमाशा किया. कभी वह मेरा
पासपोर्ट माँगता था और कभी चाबा का. काफी बहस के बाद किसी तरह उसने गेट के अंदर
घुसने की इजाजत दी. शायद वह शराब पिये हुए था.
दूसरे दिन के कार्यक्रम शाम के पाँच बजे से हुए. दिन
में मैं और चाबा शहर में घूमे और कुछ पुराने चर्च और भवन देखे. काफी थकान हो गई थी
इसलिए बहुत अधिक घूमा भी नहीं गया.हम लोग ठीक नौ बजे चिकसैरदा के लिए रवाना
हुए. यह क्षेत्र त्रांसिलवानियाँ का सबसे
सुन्दर स्थान माना जाता है. रास्ते भर बेहद सुन्दर दृश्य देखने को मिलते रहे- झरने,
दूर-दूर तक फैले हुए देवदार के
विशाल वन, तेज
बहती हुई नदियाँ और बेहद आकर्षक सड़कें. इमरे ने बताया कि गरीब देश रूमानियाँ में
सामान्यतः इतनी अच्छी सड़कें नहीं हैं. यह सड़क जो रूमानियाँ का राजमार्ग भी है,
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद इसे
वहाँ के राजकुमार ने अपने शिकार खेलने के लिए बनाया था और उसके बाद लगातार उसकी
देख-रेख होती रही है.
चिकसैरदा के आयोजकों ने एक गाड़ी भिजवा दी थी जिसका
बेहद रोचक बातूनी ड्राइवर लास्लो और उसकी पत्नी हमारे गाइड थे. वह टूटी-फूटी
अंग्रेज़ी बोलता था, मगर अपनी बात को पूरी तरह से समझाए बिना मानता नहीं था. उन दोनों का आतिथ्य
वाकई स्मरणीय है. रास्ते में नैनीताल की तरह के एक स्थान में,
जहाँ का तापमान सितंबर के
महीने में करीब दस-बारह डिग्री के आसपास रहा होगा, हमें खाना खिलाया गया. हंगेरियन खाना था,
लेकिन फरासबीन का सूप बेहद
स्वादिष्ट था. दो बजे हम लोगों ने खाना खाया और सुन्दर प्राकृतिक दृश्यों से होकर
गुजरते हुए पाँच बजे हम चिकसैरदा पहुँचे.
विशाल पहाड़ी के शिखर पर बसा हुआ शहर चिकसैरदा वाकई
एक खूबसूरत पहाड़ी शहर है और यहाँ पहुँचने के करीब आधे घंटे के बाद मुझसे कहा गया
कि मैं अपने व्याख्यान से ही कार्यक्रम की शुरूआत करूँ. इस बार मुझे हिंदी में
बोलना था इसलिए मैंने व्याख्यान पढ़ा नहीं, बोला. इमरे ने इसका अनुवाद किया और फिर दूसरे लोगों
के व्याख्यान हुए. कार्यक्रम से पूर्व वहाँ के टेलिविजन चैनल ने मेरा तीन मिनट का
एक इण्टव्र्यू लिया और मुझसे हंगरी और रूमानियाँ के बारे में अपने विचार पूछे.
दो-तीन सवाल भारत के बारे में भी पूछे, जैसे भारत में क्या अभी भी जातिवाद है और हंगरी व
रूमानियाँ को वहाँ के लोग किस रूप में याद करते है, आदि. हंगेरियन भारत-प्रेमी एलेक्जेंडर चोमा डी. कोरोश
के बारे में भी पूछा और यह जानकर उन्हें अच्छा लगा कि यहाँ आने से पहले मैं चोमा
कोरोश के बारे में काफी जानकारी लेकर आया था.
बुदापैश्त, सोमवार, 5 अक्तूबर, 1998, सायंकाल 8.30 बजे
हम लोग यानी मैं, चाबा दैजो, तिबोर और उसका बच्चा एक मिनी बस में चिकसैरदा से
ऐलेक्जेंडर चोमा डी. कोरोश के गाँव गए जो चिकसैरदा से लगभग 150 कि.मी. दूर है. रास्ते में अनेक मिनरल वाटर के स्रोत
थे. दोस्तों ने बताया कि इस इलाके में ऐसे दो हजार से अधिक स्रोत हैं जिसका पानी
अगर बोतलों में भर कर वितरित किया जाय तो इस पानी से पूरी दुनिया की प्यास बुझाई
जा सकती है. चोमा कोरोश नाम वाले इस गाँवनुमा कस्बे में कुछ ही आधुनिक ढंग के मकान
हैं. बरसात के दिन थे, इसलिए सड़कें, जो भारतीय गलियों-जैसी ही थीं, कीचड़ से भरी थीं. चोमा डी. कोरोश के घर के पास लगे
उस अखरोट के पेड़ के नीचे पड़े दो दाने मैं अपने साथ ले आया,
जिसे उसने दार्जीलिंग से लाकर
दो सदी पहले रोपा था. आज भी उसमें खूब अच्छे कागजी भारतीय अखरोट लगते हैं. लौटते
हुए मेरी आँखों के सामने एक-दो बार कोरोशी चोमा का अपने मजबूत दाँतों से
दार्जीलिंगी अखरोटों को तोड़ता हुआ चेहरा धसपड़ के अपने खेत पर बैठा दिखाई दिया.
बिलकुल हमारे ही गाँवों की ही तरह का तो था एलेक्जेंडर चोमा का गाँव - हालांकि
साफ-सुथरा और व्यवस्थित. गरीबी वहाँ भी थी, मगर हमारे गाँवों की तरह वह दरिद्रता का अहसास नहीं
कराती थी. (भारत प्रेमी चोमा कोरोश की मृत्यु दार्जीलिंग में हुई थी.)
बुदापैश्त, शुक्रवार, 14 अक्तूबर, 1998, प्रातः 9.05 बजे
कल रात राजदूत सतनामजीत सिंह का परिवार,
मारिया,
इमरे बंघा तथा चाबा दैजो खाने
पर आए थे. मारिया अपने साथ भारतीय कहानियों का हंगेरियन अनुवाद ‘तैय अ ताजमहलबन’ (‘ताजमहल में चाय’) लाई थी जो अभी रिलीज तो नहीं हुआ लेकिन पूरा मुद्रित
हो चुका है . यह एक अच्छा संकलन है जिसमें कुल 21 कहानियां हैं:
1.
सुनील गंगोपाध्याय (बंगला),
2. राजा राव (अंग्रेजी),
3. अज्ञेय (हिन्दी),
4. बोल्वार मुहम्मद कुन्ही (कन्नड़),
5. शैलेश मटियानी (हिन्दी),
6. सत्यजित राय (अंग्रेजी),
7. मोहन राकेश (हिन्दी),
8. हरिकृष्ण कौल (काश्मीरी),
9. असगर वजाहत (हिन्दी),
10. एस. के पोट्टेकाट (मलयालम),
11. इस्मत चुगताई (उर्दू),
12. सुरेन्द्र झा ‘सुमन’ (मैथिली), 13. अजित कौर (पंजाबी), 14. बटरोही (हिन्दी), 15. गंगाधर गाडगिल (मराठी), 16. गोपीनाथ मोहन्ती (उडि़या),
17. राजेन्द्र यादव (हिन्दी),
18. मालचन्द तिवाड़ी (राजस्थानी),
19. सुब्रह्मण्यम् (तमिल),
20. रेन्तला नागेश्वर राव (तेलुगु),
और 21.
सहादत हसन मण्टो (उर्दू).
अनुवाद अधिकांशतः विभाग के विद्यार्थियों और मारिया
ने ही किया है.कल रात बहुत दिनों के बाद (शायद दो माह बाद) मैंने वाइन पी और हमेशा
की तरह कुछ अधिक पी गया. आज सिर में दर्द है. शाम को तीन बजे ड्राइविंग के लिए
जाना है. दिन भर सोया रहा.
बुदापैश्त, 11 फरवरी 1999: प्रातः 9 बजे
अभी-अभी घड़ी ने नौ बजाए हैं . बाहर बर्फ पड़ रही है
एकदम शांत और अनायास. परसों दोपहर के किसी समय से बर्फ पड़नी शुरू हुई थी और तब से
लगभग बिना रुके गिर रही है. कल शाम छः बजे से मेरी कक्षा थी,
नैनीताल की आदत से मैंने सोचा
कि कोई आया नहीं होगा... एक बार जाने में आलस्य भी आया लेकिन प्रशासन के सख्त आदेश
हैं कि बाकी चाहे जो करें, कक्षा किसी हालत में नहीं छूटनी चाहिए. यहाँ लोगों ने अपने लिए इस तरह
व्यवस्था की हुई है कि कभी किसी बहाने की गुंजाइश नहीं रहती. बर्फ में घूमने या
आने-जाने के लिए ऐसे कपड़े और जूते कि बर्फ आनन्द की चीज बन जाती है और कमरों के
अन्दर हीटिंग, जिससे
कि बाहर भले ही तापमान शून्य से बीस डिग्री नीचे हो, अंदर हमेशा बीस-बाईस डिग्री सेल्सियस रहेगा.... मैं
डेढ़ फीट बर्फ को रोंदता विश्वविद्यालय गया तो सारे विद्यार्थी बैठे थे... बल्कि
बारह लोगों की कक्षा में चैदह लोग मौजूद थे. दो लोग, जो विद्यार्थी के रूप में पंजीकृत नहीं थे,
हिन्दी का अपना उच्चारण मानक
बनाने के लिए, यों
ही पाठ सुनने के लिए आए थे. वे बहुत ही टूटी-फूटी हिंदी बोल रहे थे,
और बार-बार हंगेरियन-हिंदी
शब्दकोश देखते हुए पूछ रहे थे कि वह सही शब्द, सही उच्चारण के साथ बोल रहे हैं या नहीं ?
बुदापैश्त, बुधवार, 24 फरवरी, 1999 शाम 5.30 बजे
इधर कई दिनों से मैं निर्मल वर्मा के पात्रों के बारे
में सोच रहा था. निर्मल की कहानियों के पात्र अधिकांशतः विदेशी पृष्ठभूमि के हैं,
मगर उनकी जमीन तो भारतीय
पहाड़ों की ही है. नैनीताल में जब उन पात्रों के बारे में पढ़ा तो एक पहाड़ी होने
के नाते वे सारे पात्र मुझे अपने अंतरंग लगते थे. एकदम ऐसा ही यहाँ बुदापैश्त में
उन लोगों को देखकर लगता है जो सर्दियों में पतझड़ और एकांत के बीच किसी एकाकी बैंच
पर बैठे हुए या किसी रास्ते-तिराहे के कोने या दुना नदी के किनारे खड़े दिखाई देते
हैं. ये पात्र, जिनमें
अधिकांश लड़कियाँ होती थीं, निर्मल जी के द्वारा बुदापैश्त छोड़ने के करीब आधी सदी के बाद आज उन्हीं के
बूढ़े प्रतिरूप अनुभव होते हैं. इनकी आँखों में आसानी से इनके अतीत के उस अकेलेपन
को पकड़ा जा सकता है, जिसके बारे में वर्षों पहले छात्र जीवन में निर्मल वर्मा की कहानियाँ पढ़ते
हुए मैंने जाना था. हालांकि आज की चेक, हंगेरियन और स्लाव लड़कियाँ एकदम फर्क हैं... अब वे
चुपचाप अपने जीवन के उदास अकेलेपन को अपने साथ साए की तरह लिए नहीं फिरतीं,
हालांकि कभी-कभी इस तरह की
उदास आँखें भी दिखाई दे जाती हैं. आजकल मेरे पास समय है इसलिए सोच रहा हूँ कि कुछ
दिनों के बाद निर्मल वर्मा की कहानियों को दुबारा पढ़ कर यहाँ के माहौल में उसे
महसूस करते हुए उनका पुनर्पाठ लिखूंगा. जाड़ों का मौसम खत्म होने को है इसलिए आने
वाले खुशनुमा दिनों में यह सब आसानी से सम्भव हो सकेगा....
कल रात एक रेस्त्राँ में खाना खा रहे थे. भय्यू ने
ग्रिल्ड चिकन मँगाया था और उसका पूरा ध्यान खाने पर था. खाना परोसने वाली,
सत्रह-अठारह साल की एक खूबसूरत
लड़की थी जिसके पेट में कम-से-कम चार-पाँच महीने का बच्चा था. उसके चेहरे पर थकान
और भूख साफ झलक रही थी. हर दो मिनट के बाद वह हमारे सामने खड़ी होकर खाने को एकटक
निहारती और कुछ देर बाद पूछती कि क्या हमने खाना खा लिया है ?
चैथी बार मैंने इनकार में सिर
हिलाया ही था कि उसने मानो यह समझा हो कि मैंने सहमति में सिर हिलाया है,
तेजी से उसने हमारी प्लेटें
समेटीं और हमारा अधखाया खाना लेकर वह किचन की ओर चली गईं. दरवाज़े के किनारे से
साफ दिखाई दे रहा था कि वह लड़की हमारे द्वारा छोड़ी गई हड्डियों को तेजी से
चिंचोड़ रही थी. भय्यू चिल्ला रहा था कि उसने पूरा खाना खाया भी नहीं था,
मैंने क्यों उसे प्लेट उठा ले
जाने के लिए कहा. इस तरह का दृश्य मैंने पहली बार यूरोप में देखा. इतनी कंगाली तो
भारत के मध्यवर्गीय युवाओं में कभी देखने को नहीं मिली,
खासकर एक प्रेग्नेंट लड़की के
साथ.
बुदापैश्त, सोमवार, दिनांक 3 मई, 1999 प्रातः 7.57 बजे
कल हम लोग चामार गए जो बुदापैश्त से करीब चालीस
किलोमीटर पूर्व की ओर पैश्त जिले में है. पहुँचने में करीब पैंतीस मिनट लगे. यहाँ
से लाल मैट्रो से ‘ओर्स वैजेर तेर’ तक गए और वहाँ से ‘हेव’ (एक तरह की मेट्रो) से चामार तक. वहाँ एक विचित्र हंगेरियन भारतप्रेमी रहता है
- बाराश ज्युला. करीब पैंतीस-चालिस साल का यह व्यक्ति आयुर्वेद का डाक्टर है जिसने
वाराणसी में रहकर भी कुछ शिक्षा प्राप्त की है यद्यपि उसने अपनी डिग्री बुदापैश्त
की विश्वविख्यात मैडिकल युनिवर्सिटी से ली है. लगभग डेढ़-दो हजार वर्ग मीटर जमीन
में उसका एक छोटा-सा बगीचा है, दो घोड़े और चार गायें हैं, और दो विशालकाय स्पैनिश कुत्ते हैं. घर पर कुल सात मानव-सदस्य हैं- पति-पत्नी,
सात-आठ साल के आसपास की दो
लड़कियाँ और तीन लड़के, जिनमें से सबसे बड़ा लगभग नौ साल का है और छोटा छह महीने का.
कल सुबह जब मैंने उसके घर फोन किया तो एक बच्चे की
आवाज आई - नमस्ते. काफी देर बाद ज्युला आया जो कि शायद पशुओं की देखरेख में गोशाला
में होगा. मैंने उसे उसके गाँव आने की बात की तो वह बहुत खुश हुआ और बताया कि
चामार पहुँचते ही मैं उसे फोन करूँ और वह मुझे गाड़ी से लेने टेलीफोन बूथ पर आ
जाएगा. भय्यू काफी उत्सुक था क्योंकि मैंने उसे बताया था कि वह एक हिंदू पंडित की
तरह रहता है. वास्तव में उसकी दिनचर्या एक हिन्दू की है. वह खुद को हिंदू मानता है
और यह स्वीकार करता है कि उसके पूर्वज हंगरी में ईसाइयों के आने से पहले एशिया,
मुख्य रूप से भारत से यहाँ आए
थे. उसने बताया कि नवीं सदी में दक्षिण एशिया से तीन हंगेरियन आए - ज्युला,
कोप्पान्य और अयतौन्य. दसवीं
सदी में प्रथम ईसाई हंगेरियन राजा इश्तवान ने इन तीनों को मार कर खुद राजगद्दी
हथिया ली. ईसाई धर्म को वह बड़ा संकीर्ण और कर्मकांडी धर्म मानता है और स्वीकार
करता है कि चूँकि उसके पूर्वज अतीत में भारत से आए थे इसलिए उसे यह सोचकर अच्छा
लगता है कि उसके पुरखे हिंदू थे.
रात के दो-ढाई बजे वह उठता है और पाँच बजे तक
नित्यकर्म, नहाना-धोना,
पूजा-पाठ आदि से निवृत्त होकर
तैयार हो जाता है. उसके बाद अपनी दो दुधारू गायों का दूध दुहता है और घोड़ों को
दौड़ा कर बच्चों को सुबह का दूध-नाश्ता आदि देता है. साढ़े सात बजे वह बच्चों को
अपनी गाड़ी से लगभग आठ-दस कि.मी. दूर मज्यरोद के स्कूल पहुँचा आता है और फिर आकर
अपनी पत्नी के साथ मिल कर खेती-बाड़ी और खाने-पीने की तैयारी करता है.
हम लोग सवा ग्यारह बजे चामार पहुँचे तो वह गाड़ी लेकर
टेलीफोन बूथ के पास आ गया. घर पहुँचकर उसने खूब गाढ़ी मलाईदार लस्सी पिलाई,
मटर पुलाव,
ज़ायकेदार सब्जी,
तैयफाल,
पापड़,
अचार आदि बेहद स्नेह से
खिलाया-पिलाया. साढ़े तीन बजे तक हम उसका घर और गाँव देखते रहे जो बेहद सुन्दर था.
चार बजे हमें छोड़ने हेव-स्टेशन तक अपने सभी बच्चों के साथ (छः महीने के बच्चे
सहित) आया. उसका आतिथ्य बेहद हृदयस्पर्शी और अंतरंग था.
बुदापैश्त, मंगलवार, दिनांक 2 नवम्बर, 1999
हम लोग 14 अक्टूबर को काफ्का के शहर प्राग गए. इस शहर का नाम
जाने कब से सुना था और इसे देखने की इच्छा थी. भय्यू के स्कूल में छुट्टियाँ थीं
इसलिए हम लोग शुक्रवार, 14 अप्रेल को गए और सोमवार,
18 को लौटे. दूसरे दिन नाश्ते के
बाद प्राग (जिसे वहाँ की भाषा में ‘प्राहा’ कहा जाता है) के मशहूर चार्ल्स ब्रिज में घंटों घूमते
रहे. लंदन और बुदापैश्त के चेन पुलों से मिलता-जुलता यह पुल इस रूप में अभूतपूर्व
है कि पुल के दोनों किनारों की रेलिंग में विशाल आदमकद मूर्तियाँ स्थापित हैं और
इस रूप में यह दुनिया का अकेला पुल है. दुनिया के अन्य अजूबों की तरह इसकी
असाधारणता आतंकित नहीं करती, वहाँ सहज आत्मीयता महसूस होती है. उस दिन की शाम काफ्का के संग्रहालय और उसके
चारों ओर फैले नदी-घाटियों के प्राकृतिक वैभव के बीच घूमते हुए बीती. उस दौरान
बचपन में पढ़ी गई काफ्का की डायरी से जुड़े न जाने कितने प्रसंग याद आते रहे. एक
साथ नैनीताल, इलाहाबाद,
बुदापैश्त और प्राग मानो उस
क्षण चार्ल्स ब्रिज पर सिमट आया था.
इस बीच भय्यू की बीमारी के दौरान जार्ज जैंतई ने बहुत
मदद की. मेरी अनुपस्थिति में वह हर रोज अस्पताल में भय्यू को खाना तो देता ही रहा,
लगातार तीन महीनों तक हर
वृहस्पतिवार वह भय्यू के खून और पेशाब के नमूने लेकर अस्पताल जाता रहा. अध्यापकों
के प्रति इतने आत्मीय बच्चे तो मुझे भारत में भी नहीं मिले. किश चाबा संगीत के हर
कार्यक्रम की जानकारी देता है और बिला-नागा मुझे कंसर्ट में ले जाता है. भय्यू के
लिए उसी ने गिटार खरीदवाया और हर इतवार को वह गिटार सिखाने घर आता है. गैर्गेय ने
बुदापैश्त का लगभग हर संग्रहालय दिखा दिया है, उनकी संपूर्ण जानकारियों के साथ. भारत के बारे में
उसकी, चाबा
दैजो, शोमाज्य
ऐश्तैर और जार्ज जैंतई की जो समृद्ध जानकारी है, उसे देखकर हैरानी होती है कि हम तक अपने बारे में
उतना नहीं जानते. बैर्कि ऐश्तैर और दानियल ने हिंदी के शुद्ध उच्चारण को इतनी
जल्दी ग्रहण कर लिया कि लगता ही नहीं, कोई हंगेरियन विदेशी भाषा बोल रहा है. आक्सफोर्ड में
हिंदी का अध्यापक इमरे बंघा कहता है, हंगेरियन लोग यूरोप के क्षत्रिय हैं और हंगरी में एक
गाँव आज तक भी ऐसा है, सिर्फ वहीं के लोगों को प्राचीन काल में राजा अपनी सेना में अपने विश्वस्त
सैनिकों का पद देते थे. मैंने उसे बताया कि अंग्रेजों ने कुमाऊँ,
गोरखा,
महार और राजपूत रेजिमैंटों का
गठन ही इस आधार पर किया था कि इनकी वीरता पर उन्हें भरोसा था. कुमाऊँ के राजपूतों
को जब कंपनी के प्रशासकों ने बिना किसी योग्यता के आँखें मूँद कर सेना में भरती
करना शुरू किया तो कई ब्राह्मण-जातियों ने अपना जाति-परिवर्तन कर लिया और वे अपने
नाम के साथ राजपूत-सूचक ‘सिंह’ लिखने
लगे.
परसों इतवार को अपने विद्यार्थियों को शाम के खाने पर
घर बुलाया था. करीब 15-16 लोग हो गए थे. सबके लिए खाना बनाना और बरतन आदि की
सफाई आदि का काम थकान भरा था लेकिन अच्छा लगा. दो दिनों तक प्रथम वर्ष का छात्र
सूच गाबोर मदद के लिए आ गया था. शनिवार को उसने खरीददारी में भी काफी मदद की.
इतवार को करीब तीन बजे तीन-चार लड़कियाँ - दोनों ऐस्तैर - (शोमोज्य और बैर्कि),
रिता,
और कॅक आ गई थीं. चावल शोमोज्य
ऐस्तैर ने ही बनाए और वह और रिता पूरे समय साड़ी पहने घर पर रहीं. उनके पास साड़ी
नहीं थी, बहुत
आग्रह के साथ उसने दीपा की अनुपस्थिति में साड़ी पहनने की इच्छा जताई. उस दिन हमने
दो तरह के पराठे, आलू-गोभी
की सब्जी, छोले,
रायता,
पापड़,
मूँग-मलका की दाल,
खीर,
भात आदि चीजें बनाई और रात
करीब दस बजे तक सब लोगों ने खूब मजे किए. भय्यू को छोड़कर सभी ने ‘पालिंका’ पी, जो हंगरी की प्रसिद्ध शराब है और थोड़ी-सी मात्रा में नीट पी जाती है. इसे ‘मेहनतकशों की दारू’ भी कहा जाता है.
बुदापैश्त, रविवार, दिनांक 05 दिसंबर 1999 अपरान्ह 2.00 बजे
chaba dejo |
बुदापैश्त, बुधवार, 5 अप्रेल, 2000 सायं 7.38 बजे
इस सप्ताहांत मैं चिकसैरदा (त्रांसिलवानियाँ) जाऊंगा
लेकिन भय्यू यहाँ अकेला ही रहेगा . 22 अप्रेल को हम लोग यानी भय्यू और मैं फिनलैंड जा रहे
हैं. यहाँ से सीधे सईद के पास तुर्कू जाएंगे जहाँ 25 या 26 तक रहेंगे. उसके बाद हेलसैंकी आ जाएंगे और वहाँ 30 तक रहेंगे. हेलसेंकी में रहने की व्यवस्था
आई.सी.सी.आर. प्रोफेसर गोपीनाथन के घर पर होगी, जो अपनी वार्षिक छुट्टियों में भारत गए हैं. चार साल
पहले विदेशों में हिंदी पढ़ाने के लिए जब आई.सी.सी.आर. में चयन हुआ था,
केरल के गोपीनाथन और मैं एक ही
बैच में थे. 30
की सुबह सवा नौ बजे की उड़ान से वापस बुदापैश्त आ जाएंगे. मई में भय्यू को फिर
फ्रैंकफर्ट जाना है - खेलकूद आदि में भाग लेने के लिए. अभी 30 मार्च को भी वह स्कूल की तरफ से वियना गया था जनरल
नालेज की एक प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए. उसकी टीम को कोई पुरस्कार नहीं मिला
लेकिन उत्साहवर्द्धन तो हुआ ही.
बुदापैश्त, सोमवार, 10 अप्रैल, 2000 सायं 8.02 बजे
आजकल यहाँ आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी से एक संस्कृत
अध्यापक आया हुआ है, हरुनागा आइसकसन. उसकी माँ जापानी है और पिता अमेरिकन. उसका संस्कृत उच्चारण
इतना अच्छा है कि हैरानी होती है. वह हमारे विभाग में एक सप्ताह तक कालिदास का ‘रघुवंशम्’ पढ़ाएगा. उसकी नियुक्ति हंबर्ग विश्वविद्यालय के
इंडियन एंड तिब्बतन स्टडीज़ विभाग में हो गई है, जहाँ वह जल्दी ही कार्यभार ग्रहण करेगा. एक और लड़की
उसके साथ है जो ब्रिटिश है और वह भी उत्तरी लन्दन के किसी कालेज में संस्कृत
पढ़ाती है. इंगलैंड का ही एक और लड़का एलेक्स वाटसन, जो चारवाकों पर काम कर रहा है,
जल्दी ही यहाँ आने वाला है. इस
समय वह वियना में है और शायद कल या परसों बुदापैश्त पहुँच जाएगा. वह भी हम लोगों
के साथ त्रांसिलवानियाँ चलेगा. उसकी एक-दो कक्षाओं में मैं भी बैठा;
मुझे हैरानी हुई कि हमारे
सांस्कृतिक अतीत में संसार भर के लोग कितनी गहरी रुचि लेते हैं.
बुदापैश्त, रविवार, 16 अप्रेल, 2000 सुबह के साढ़े छह बजे
त्रांसिलवानियां हम लोग यहाँ से 7
अप्रैल की शाम को पाँच बजे
रवाना हुए थे और आठ अप्रैल को सुबह नौ बजे चिकसैरदा के रेलवे स्टेशन पर पहुँच गए.
इस बार केवल दो रात वहाँ रहे लेकिन काफी अच्छा सफर रहा. यहाँ से कुल छह लोग गए -
इमरे बंघा, मारिया
नेज्यैशी, चाबा
दैजो, हरुनागा
आइसकसन, ऐलेक्स
वाटसन और मैं. हरू ने कालिदास और भारतीय संस्कृति के प्रस्थान पर,
ऐलेक्स ने बौद्ध,
हिन्दू और चार्वाक दर्शनों की
आपसी बहसों - मुख्य रूप से संसार, कर्म और मोक्ष को लेकर अच्छा व्याख्यान दिया. इमरे के
भाषण का शीर्षक था - ‘कबीर: एक रहस्यवादी जुलाहा’ तथा चाबा के व्याख्यान का शीर्षक कल्हण की राजतरंगिणी और उसके हंगेरियन
भाष्यकार औरेल मयर’ था. मैंने हिन्दुओं के सोलह संस्कारों पर भाषण दिया. काफी अच्छा आयोजन रहा.
बाकी लोग तो वहाँ से कहीं और भी दो-तीन जगह गए लेकिन मैं चिकसैरदा से वापस आ गया.
यहाँ भय्यू अकेला था....
लक्ष्मण सिंह बिष्ट
बटरोही
२५ अप्रेल १९४६, अल्मोड़ा (उत्तराखंड)
प्रसिद्ध कथाकार
४ कहानी संग्रह, ४ उपन्यास, ३ आलोचना पुस्तकें और
अनेक बाल साहित्य की
पुस्तकें प्रकाशित.
नैनीताल और इलाहाबाद
विश्वविद्यालय से शिक्षा
कुमाऊँ विश्वविद्यालय में
अध्यापन,
२००६ में कला संकाय के
डीन पद से सेवानिवृत्त.
१९९७ से २००० तक हंगरी के
औत्वाश लोरांद विश्वविद्यालय के भारतशास्त्र विभाग में विजिटिंग प्रोफ़ेसर.
फ़िलहाल महादेवी वर्मा
सृजन पीठ के निदेशक.
: batrohi@gmail.com
बटरोही जी का यह संस्मरणात्मक वृत्तान्त कई मायनों में बहुत महत्वपूर्ण है. डायरी की टीपों की शैली में उन्होंने जो लिखा है उसके माध्यम से यह जानना कितना सुखद है कि बुडापेस्ट में हिंदी की बिंदी कितनी चमक रही है. समालोचन का आभार पढवाने के लिए
जवाब देंहटाएंयात्रा वृतांत और डायरी .. मिलकर सुखन विधा बन जाते हैं ..बटरोही जी का आभार इस सांस्कृतिक , साहित्यिक सफ़र के लिए ..
जवाब देंहटाएंसाहित्य की गौड़ विधाओं ने उसको हर दौर में समृद्ध किया है |कभी कभी तो इतना कि उस पर इतराया जा सके ...|जैसे कि यह ...बधाई बटरोही जी को और समालोचन को भी ...
जवाब देंहटाएंयात्रा वृतांत अच्छा लगा। बटरोहीजी की मुंबई पर भी एक रचना बहुत पहले पढ़ी थी। उनके प्रति मन में सम्मान है। शायद जल्दी में एक जगह लिखा है कि वियना आस्ट्रिया जैसे देशों में, वियना राजधानी है। यह रचना पुस्तक के रूप में आए तो बहुत अच्छा।
जवाब देंहटाएंइसके पहले बुडापेस्ट का नाम सुरेंदर मोहन पाठक के एक उपन्यास में बरसों पहले सुना था आज यहाँ :-), बहुत अच्छा यात्रावृत्त ऐसा ही होना चाहिए जो बातें भी बताये और घुमाए भी, दोनों बातों का कमाल संतुलन है, बधाई
जवाब देंहटाएंमुझे यात्रा संस्मरण हमेशा से बहुत आकर्षित करतें हैं ......बुडापेस्ट वाकई बहुत ही अद्भुत स्थान है ...और जितनी कुशलता से बटरोही जी ने इस अनुभव को शब्दबद्ध किया है उसने इस यात्रा को उसकी व्यापकता मे खोल कर उसे और भी सुंदर और और आकर्षक बना दिया है .....बहुत सुंदर बटरोही जी ..बधाई ..
जवाब देंहटाएंEszter Berki Dear Bisht ji, यह पढ़कर मुझे खूब मज़ा आया . आप ने पुरानी यादें ताज़ा कीं , कितने जवान थे हम ! उस तस्वीर के लिए भी धन्यवाद. :
जवाब देंहटाएंबड़ा ही अच्छा यात्रा वृतांत है. हिन्दी को बाहर के देषों में भी सम्मान मिल रहा है जानकर अच्छा लगता ह
जवाब देंहटाएंshandaar yatra birtant hai. laga ham bhi lekhak ke saath yatra kar rahe hai.Batrohi sir ko is sanadar yatra biratant likhane ke liye badhai
जवाब देंहटाएंTrepan singh
जब हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में साहित्य अनादरित शब्द भर रह गया हो, जब मुख्या धारा की साहित्यिक पत्रिकाओं के अंतर्धान के बाद हिन्दी की ऐसी विधाएं गायब हो रही हों, तब बटरोही जी का यह डायरी वृत्तान्त एक सुखद एहसास है. बड़े दिनों बाद ऐसी भाषा देखी-पढ़ी. शायद ब्लोगों के जरिये डायरी, यात्रा वृत्तान्त, और संस्मरण-रेखाचित्रों की वापसी हो. बधाई और धन्यवाद.
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