कथा - गाथा : विमल चंद्र पाण्डेय










विमल चंद्र पाण्डेय
रचनात्मक लेखन और फ़िल्म निर्माण

२० अक्टूबर,१९८१. बलिया (उत्तर-प्रदेश)
बी. एस-सी,, एम. ए.
कहानी संग्रह डर भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित
भारतीय ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार
शहर दर शहर : वाराणसी,दिल्ली, लखनऊ, इलाहबाद और अब मुंबई

ई पता : vimalpandey1981@gmail.com
मोब. 94 51 88 72 46


युवा कथाकार विमल चंद्र पाण्डेय की कहानिओं में स्थानीयता अपने पूरे रंगत में विराजमान रहती है. बनैले यथार्थ को वह कॉमिक प्रतिपक्ष में बदलते हैं और फिर परत दर परत  उघाड़ते चलते हैं.
शहर बनारस हालाकि यहाँ पात्र नहीं है पर वह हर जगह उपस्थित है. एक ‘लोकल’ पत्रकार के स्वप्न- दु:स्वप्न की दिलचस्प कथा.   

 
बाबा एगो हइये हंउएं              
                                          विमल चन्द्र पाण्डेय

  

कुछ भी कहना शुरू करने से पहले अगर फि़ल्मों की तरह यह कहने का रिवाज़ होता कि जो कुछ भी यहां लिखा जा रहा है, वह काल्पनिक है और इसकी सत्यता से कोई समानता संयोग मात्र है, तो मैं यह कहानी नहीं लिखता. बाबा का खास आग्रह था कि उनकी कहानी लिखी न जाय और अगर लिखी जाय तो वह इसकी जात की कहानी न हो, बवाल हो.


बाबा पर कहानी लिखने के लिये पिछले कई सालों में कई लोगों ने प्रेरित किया, सलाहें दीं और 
धमकियां-चेतावनियां तक दे डालीं कि अगर बाबा के ऊपर कलम नहीं चलायी तो इधर-उधर की लिखने का कोई मतलब नहीं है. मेरा डर भी सिर्फ़ इतना था कि बाबा को कहानी में समेटना किसी सिद्धहस्त कहानीकार के बस की बात है वरना बाबा महाकाव्य के नीचे कुछ डिज़र्व करते हैं तो कम से कम उपन्यास. मैं जब तक बाबा का परिचय दूं आप `काशी का अस्सी´ एक बार फिर से पढ़ जाइये और समझ लीजिये कि बाबा ने उसे एक बार भी पढ़ा नहीं है लेकिन अस्सी के हर पात्र में कम या ज़्यादा निवास करते हैं भले रहते नदेसर में हों. बाबा के बारे में जानने का मन अगर आपने बना लिया है तो बता दूं कि बाबा बजाप्ते एक बेतरतीब आदमी हैं इसलिये कहानी भी कभी आगे कभी पीछे यानि बाबा की गति से छलांगें लगाए तो आप एडजस्ट कर लीजियेगा, कंफ्यूज़ मत होइयेगा.

१.
बाबा का परिचय देने से पहले मुझे अपना परिचय भी देना पड़ेगा. मेरा नाम हंसमुख लाल अग्रवाल है और मैं एक छोटा मोटा पत्रकार होने के साथ-साथ हिंदी का एक सफल कथाकार हूं. मेरे शहर में कई सफल कथाकार रहते हैं और आपकी जानकारी के लिये बता दिया जाय कि मेरी एकाधिक कहानियां हिंदी की पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं. चूंकि हिंदी हमारी राष्ट्रीय भाषा है (यहां तो सब ऐसा ही कहते हैं) इसलिये हिंदी में निकलने वाली सभी पत्रिकाएं राष्ट्रीय पत्रिकाएं और उनमें से किसी भी पत्रिका में एक भी बार छप जाने पर लेखक को आसानी से राष्ट्रीय कहा जाने लगता है (जिसकी शुरूआत वह खुद करता है).


मैं बाबा का सातवीं कक्षा से दोस्त हूं और बाबा की उम्र इस समय मेरी उम्र के बराबर यानि लगभग पैंतीस साल है. अब बाबा का परिचय- (कायदे से तो आपको खड़े हो जाना चाहिये) बाबा का पूरा नाम अनुज श्रीवास्तव है और वह कायस्थों (बाबा के शब्दों में लालाओं) से सख़्त नफ़रत करते हैं. ये क्रन्तिकारी कहलाने का सबसे आसान रास्ता मना जाता रहा है. बाबा मीरापुर बसहीं, यानि यू. पी. कॉलेज के पीछे से जो रोड गयी है, में इलेक्ट्रॉनिक आइटम्स की एक दुकान चलाते हैं और साले को मस्त रहते हैं. आप स्वभाव से पूरे बनारसी हैं और काशी विद्यापीठ से पत्रकारिता की पढ़ाई में पूरे दो साल बर्बाद कर चुके हैं. बर्बाद इसलिये कि आपके भीतर पत्रकारिता की इतनी आग थी कि आपको किसी भी प्रकार के किसी प्रिशक्षण की कोई ज़रूरत नहीं थी.


दो साल की पत्रकारिता की डिग्री लेने के दौरान बाबा ने बहुत जलवे दिखाये थे और ´बाबा´ की उपाधि अर्जित की थी लेकिन वह बाद में. डिग्री लेने के बाद बाबा ने दिल्ली का रुख किया जहां हम लोगों के बचपन का एक और साथी वरुन एक अच्छे (सर्कुलेशन के आधार पर) अखबार में अपनी नौकरी बचा रहा था. बाबा ने पूरी मेहनत से बीस दिन तक नौकरी खोजने की पूरी दिल्ली में कोशिश की और आई.टी.., फिल्म सिटी से लेकर पी.टी.आई. यू.एन.आई. तक रिज़्यूमे फेंक आये. लेकिन बीस दिन में बनारस को हर सांस में खींचने वाले बाबा बुरी तरह घबरा गये और इतने ही अंतराल में दो बार तबियत खराब होकर ठीक होने के बाद दिल्ली पर एक दिन थूक कर भाग आये (सौजन्य: असगर साहब का ´कैसी आगी लगाई´). थूकने वाली थ्योरी के दो भाग हैं. मैंने उसी दौरान ´कैसी आगी लगाई´ पढ़ा था और बाबा के साथ जैसा गुज़र रहा था, मैं अंदाज़ा लगा रहा था कि बाबा जल्दी ही दिल्ली पर थूक कर भागेंगे. बाबा ने वरुन से जब बनारस जाकर दुकान खोलकर बाकी की ज़िंदगी (जो दिल्ली में नौकरी खोजने के बाद बहुत थोड़ी सी बाकी मालूम जान पड़ती थी) अपने बनारस में जाकर बिताने की इच्छा व्यक्त की तो वह बहुत खुश हुआ. उसने कहा कि इससे बढ़िया कुछ हो ही नहीं सकता कि आदमी जहां का है वहीं जाकर मरवाये. आखिर मरवाना हर जगह है तो दिल्ली क्यों. बाबा को उसने शिवगंगा में चालू में बिठा दिया क्योंकि दो दिन बाद का टिकट मिल रहा था और बाबा दो दिन रुकने के पक्ष में नहीं थे. जब ट्रेन सीटी देकर चल पड़ी तो बाबा और वरुन ने एक दूसरे को हाथ हिलाया. बाबा को बहुत भयंकर भीड़ होने के बावजूद खिड़की के पास जगह मिल गयी थी और आगे जब आप बाबा के विषय में बाक़ायदा जान लेंगे तो ऐसी घटनाओं के विषय में विस्तार से जानने की अपनी इच्छा आपको बहुत टुच्ची सी लगेगी. ट्रेन जब आगे से मुड़ी और बाबा बहुत हल्के से नज़र आ रहे थे तो वरुन का कहना था कि बाबा ने सिर आपातकालीन खिड़की से बाहर निकाल कर दिल्ली पर नफ़रत से थूका था. आपातकालीन खिड़की दरवाज़े के दांयी तरफ थी और आपात स्थिति में जो बॉक्स तोड़कर उसे खोला जाना था वह तोड़ा जा चुका था. बाद में जब बनारस में इस घटना का ज़िक्र हुआ तो बाबा थूकने वाली घटना से साफ़ मुकर गये और उन्होंने ताल ठोककर कहा कि ऐसा थोड़े ही था कि तुल जाते तो दिल्ली में नौकरी ही नहीं मिलती लेकिन उनको ऐसा लगा कि अपने घर में दो रुपया कम कमाना बाहर दो रुपया अधिक कमाने से अधिक फायदेमंद है.


बाबा कई काम कर के छोड़ चुके हैं और उन सभी कामों में जो चीज़ सबसे ख़ास होती है वह है उस काम को लेकर उनका एप्रोच. यह एप्रोच बाबा के उसी रवैये की देन है जिसे अच्छे से कहने वाले लोग यह कहते हैं कि बाबा की उम्र इंटर पास करने वाली जगह पर ही रुक गयी है और देसी भाषा वाले कहते हैं कि बबवा बकचोद है. बाबा ने लौटने के बाद जब बनारस में एक दो पन्ने का अख़बार ज्वाइन किया था तो उनकी निष्ठा बड़े-बड़े गणेश शंकर विद्यार्थियों और प्रभाष जोशियों को मात देने वाली थी.


इसके कुछ पीछे जाएं तो  मैंने बतौर पत्रकार अपना जीवन बनारस के एक ज़माने में क्रांतिकारी कहे जाने वाले अखबार ´´आज´´ से शुरू किया था. हमें कक्षाओं में पढ़ाया गया था कि आज का एक स्वर्णिम इतिहास रहा है और इसने आज़ादी की लड़ाई में महती योगदान दिया है. जब मैंने वहां काम करना शुरू किया तो उस समय तक इतिहास ही इतिहास बचा था और अब उस स्वर्णिम इतिहास को धूमिल किये जाने की कोशिशें ऐसी थीं कि कुछ समय बाद इस अख़बार का नाम लेने पर लोगों की बेलगाम हंसी छूटने वाली थी. हम नये नवेले पत्रकारों को इस बात से ज़्यादा दुख नहीं था कि हमसे पांच हज़ार रुपये पर हस्ताक्षर करा कर पांच सौ दिये जाते थे बल्कि असली चिंता की बात यह थी कि इस अखबार को कोई खरीदता नहीं था. लोग इसे बंद करने की सलाहें मालिकों को दिया करते थे और वह न जाने किस मजबूरी के तहत इसे निकालते ही जा रहे थे (उनकी मजबूरियां हमें खैर बाद में समझ में आयीं). इस अखबार को सिर्फ़ एक कारण से पसंद किया जाता था कि शहर के सिनेमाहॉलों में हुये परिवर्तनों को यह स्वर्णिम इतिहास वाला अखबार बीच के पूरे एक पन्ने (कभी-कभी दो पन्ने भी) पर स्वर्णाक्षरों टाइप छापता था. सबसे नीचे सबसे बड़ा फोटो उस फि़ल्म का हुआ करता था जिसे परिवार में लड़के तिरछी निगाहों से देखते थे और चाय की दुकानों पर एकदम खुल कर देखते और चर्चा करते थे. उसके ऊपर शहर में लगी हर फिल्म की एक छोटी फोटो, कलाकारों के नाम और फिल्म के बारे में एक-दो लाइनों में विशेषता दिये जाने का रिवाज़ था. ये विशेषताएं फिल्म के एक ऐसे सीन के साथ लिखी होती थीं जो सीन पूरी फिल्म में आंखें फाड़कर खोजने पर भी नहीं मिलता था. ये कुछ इस तरह होती थीं- दक्षिण भारतीय कलाकारों का जमावड़ा, सिराको से भी बढ़ कर बेहतरीन सीन, गोरी गोरी सुंदरियों का मेला, रोंगटे खड़े कर देने वाले रोमांटिक सीन आदि आदि. उन फिल्मों के विज्ञापनों के साथ कुछ और विज्ञापन उसी फांटसाइज में देने का जो प्रयोग इस अखबार ने शुरू किया था वो काबिल-ए-तारीफ़ था. ऐसा लगता था ये भी फि़ल्में ही हैं. `प्राइवेट ट्यूशन टीचर´, `मस्त जवानी´ और `केलेवाली´ जैसी फि़ल्मों के साथ `छोटा लिंग निराश क्यों´, ` और `जापानी लिंगवर्धक यंत्र फ्री´ वाले विज्ञापनों ने इस क्रांतिकारी अख़बार को एक ख़ास वर्ग में बहुत मशहूर कर दिया था. लोग चाय की दुकान पर फि़ल्मों के विज्ञापन पढ़ कर आपस में बातें करते कि रजा आज `पीछे से डाला ए राजाजी´ पिच्चर देखे चलल जायी जेम्मन `केकरा खातिर रखले बाड़ू ब्लाउज में बुलबुली´ गनवा हौ. ऐसी बातें करते हुये भी वे तिरछी निगाहों से जापानी यंत्र और नाना प्रकार के तेलों के बारे में ज़रूर पढ़ते और अंदाज़ा लगाते कि भले ही आज कोई दिक्कत नहीं है लेकिन कभी दिक्कत हो तो इसी दवाखाना में चला जायेगा.


बाबा मुझसे मिलने आज के दफ़्तर में आया करते थे और रिर्पोटिंग की एकाध घटनाओं में पत्रकारों के तथाकथित (आभासी) जलवे देखकर बाबा ने निर्णय लिया कि अब जो भी हो जाय, साले को पत्रकार ही बनना है. बाबा ने सारे अस्त्र आज़मा लिये और कुछ दिन के भीतर ही एक दो पन्ने के अखबार के ´क्राइम रिपोर्टर´ हो गये.


बाबा क्राइम रिर्पोटर क्या हुए कि हमारे ग्रुप में बातचीत का पूरा टॉपिक ही बदल गया. मान लीजिये मैं और रवि पहले से यादव की चाय की दुकान पर बैठे चाय लड़ा रहे हैं और बाबा का इंतज़ार कर रहे हैं और बाबा अचानक आते हैं. वैसे तो बाबा हमेशा अचानक ही आते थे लेकिन उन दिनों अंदाज़ कुछ यूं था.


´´साले तुम लोग यहां चाय लड़ा रहे हो वहां इसकी जात की करोड़ों रुपयों का हेरफेर हो गया.´´ हम घबरा कर उठते, ´´कहां, कैसे, कब....?´´ फिर बाबा इत्मीनान से कहानी सुनाते कि नदेसर से कैण्ट आने के बीच में जो सड़क पड़ती है उसका पुनर्निर्माण किया जा रहा है और उसका ठेका फलाने ठेकेदार को दिया गया है जो फलां मंत्री का छोटा साला है जिसके लिये इतने करोड़ रुपये स्वीकृत हुये हैं और पीडब्ल्यूडी का फलां इंजीनियर उस ठेकेदार का साढ़ू भाई है जो सड़क बनवा रहा है..... लब्बोलुआब ये होता था कि देश में और खासतौर पर बनारस में बहुत कुछ गलत और गैरकानूनी हो रहा है और चूंकि बाबा पत्रकार हैं इसलिये इसको सही करने की सारी ज़िम्मेदारी उनकी है. बाबा ने उन दिनों अपने चार पृष्ठों के अखबार में कई सारी ज्वलंत समस्याओं पर अपनी कलम चलायी थी और कसम से जितने भी लोगों ने उसे पढ़ा वे बाबा की खोजी पत्रकारिता के मुरीद हो गये. दिक्कत यह थी कि बाबा उस अखबार में कहानी कविता छाप रहे हैं, खोजी पत्रकारिता कर रहे हैं या नामर्दी दूर करने का विज्ञापन दे रहे हैं इससे अखबार के सम्पादक यानि मालिक को कोई मतलब नहीं था. वह अपने किराने की दुकान से एक दिन अचानक उठ कर आता था और बाबा को कहता था- ´´का मरदे अनुज एकबरवा जल्दी छापा केतना लोग खोजत हउवन कि अबहीं तक हमार ´बारूद´ आयल काहे नाहीं.´´ बाबा कहते -´´हां भइया प्रेस में चला गया है, कल शाम तक आ जायेगा. इस बार हम बनारस के सभी थानों के बारे में एक खबर दे रहे हैं कि कौन से कमाई वाले थाने हैं और कहां-कहां पोस्टिंग के लिये कितना पैसा लग रहा है और.....´´


´´बहुत सही रजा....चंपले रहा.´´ उसे बाबा की पत्रकारिता का बखान सुनने में कोई दिलचस्पी नहीं रहती थी. वह बाबा की हर रिपोर्टिंग को ऊंची आवाज़ में बहुत सही गुरू, बहुत सही रजा कहकर धनिया, हींग बेचने चला जाता तो बाबा थोड़े दुखी होते. लेकिन बाबा इतने आशावादी थे कि थोड़ी देर दुखी रहने के बाद यह मान लेते थे कि वाकई उनकी हर रिपोर्ट इतनी सही रहती है कि उनका सम्पादक बहुत सही के अलावा कुछ और नहीं कह पाता है. ज़्यादा दुखी होने पर वह यह भी सोचते कि जाने दो, चूतिया नमक तेल बेचने वाला आदमी है, मेरी पत्रकारिता क्या समझेगा. अखबार हर हफ्ते छपता था और बाबा पूरे हफ़्ते दौड़ते रहते थे. हम सब बाबा की मेहनत देखकर नतमस्तक थे. पत्रकारिता मैं भी कर रहा था और हम दोनों तनख्वाह में (रुपये पांच सौ मात्र) बराबर भी थे लेकिन बाबा वाली श्रद्धा मुझमें नहीं थी. मैं किसी तरह कोरम पूरा करके अपनी ड्यूटी बजाता था और चाहता था कि जल्दी से जल्दी कोई अच्छा अख़बार मुझे मिल जाय.


बाबा को इस बात से बहुत टेंशन होती जा रही थी कि वह और उनका अखबार बहुत मेहनत करके भी देश तो दूर बनारस में भी कोई गलत काम रोक नहीं पा रहे. बाबा थोड़े दुखी रहने लगे थे और लड़कियों और फिल्मों के बारे में बात करने की जगह हर समय विभिन्न समस्याओं पर बातें करते रहते थे जिसके अंत में एक लाइन का निष्कर्ष आता था-´´सिस्टम माधरचोद है.´´
उन्हीं दिनों बाबा एक दिन अपने छोटे भाई की बाइक (जो ऑटोमोबाइल की दुकान पर ठीक-ठाक कमाता था और मूड ठीक होने पर कभी-कभी, प्राय: रविवार को, बाबा को अपनी मोटरसायकिल कुछ देर के लिये देकर अनुगृहित करता था) लेकर विद्यापीठ एक सेमिनार की रिपोर्टिंग करने जा रहे थे कि इंगलिशिया लाइन के पास कुछ खाकी वर्दी वालों ने उन्हें रोक दिया.


´´कागज दिखाओ.´´
बाबा ने कहा कि उनके पास कागज़ नहीं है क्योंकि वह प्रेस में हैं.
´´डी एल दिखाओ.´´ पुलिस वाले ने कहा.


बाबा ने कहा कि वह ड्राइविंग लाइसेंस लेकर चलना अपनी तौहीन समझते हैं क्योंकि वह प्रेस में हैं. संयोग से बाबा उस दिन हेलमेट भी नहीं लगाये हुये थे और पुलिस वाला पहले ही प्रेस वालों की वजह से खार खाया हुआ था. नगर के दो तीन प्रमुख अखबारों ने यह खबर प्रकाशित की थी कि पुलिस वाले यातायात प्रबंधन पर ध्यान नहीं दे रहे और पूरे शहर में लोग ट्रिपलिंग कर रहे हैं और बिना हेलमेट के चलते हैं. आखिर पुलिस वाले ने गुस्से से पूछा, ´´न डीएल है न कागज है, आखिर तुम्हारे पास है क्या ?´´


इस पर बाबा ने जो किया उस पर यही कहा जा सकता है कि बाबा तो हमेशा सही होते हैं बस वक़्त गलत हो जाता है. बाबा ने अपना स्वेटर नीचे से थोड़ा सा उठाया और आंखों से नीचे की ओर इशारा करते हुये बोले, ´´मेरे पास यह है, देखिये और जाने दीजीए.´´


खाकी वर्दी वाला आगबबूला हो गया और उसने दांत पीसते हुए जो कहा था उसका सभ्य भाषा में अनुवाद यही होगा कि हे दो कौड़ी के पत्रकार तुम्हारी हिम्मत कैसे हुयी पुलिस वाले को ऐसे भद्दे इशारे करने की ? यह सवाल एक करारे झापड़ के साथ आया था. बाबा सकपका गये और उन्हें अपनी हरकत का विश्लेषण किया तो पाया कि उन्होंने अनजाने में एक खासी बद्तमीज़ी भरी हरकत कर दी है. उन्होंने अपने प्रेस कार्ड को, जो गले में लटका था और स्वेटर में अंदर ही कहीं फंस गया था, को बाहर निकाला और पुलिस की गलतफ़हमी दूर की. पुलिसवाला भी मान गया कि बाबा स्वेटर उठा कर नीचे की ओर दिखा कर वाकई यही कार्ड प्रदर्शित करना चाह रहे थे. उसने प्रेस कार्ड का आगे-पीछे उर्ध्वाधर क्षैतिज सब तरफ़ से मूल्यांकन किया और दिमाग की कई परतें खुरच डालीं. आखिरकार उसे झक मार कर पूछना ही पड़ा.


´´ये है क्या ?´´
´´अखबार है अउर क्या है.´´
´´ई कौन सा अखबार है दैनिक जागरण तो हम सुने हैं.´´
´´ई साप्ताहिक है.´´
´´अच्छा..... दैनिक लगा है नाम में तो साप्ताहिक कैसे....?´´
´´अरे नाम में लगा होने से का मतलब ? पहले पंद्रह दिन पे आता था और अब साप्ताहिक हो गया है. दैनिक भी हो जाएगा कभी न कभी....´´ बाबा का तर्क अकाट्य था लेकिन एसओ की चिंता भी वाज़िब थी.


´´कभी हम सुने नहीं `दैनिक बारूद´ का नाम.´´
बाबा ने अब ट्रम्प कार्ड फेंका.
´´अच्छा....नाम नहीं सुने ? लेकिन हर हफ्ते कप्तान साहब के कार्यालय और पुलिस लाइन जाता है हमारा अखबार.´´
इस बात में असर था और पुलिस वाले ने बाबा को इसके बाद और परेशान नहीं किया और बाइज्ज़त जाने दिया. इस घटना का चश्मदीद गवाह मेरा एक पत्रकार मित्र था जो उस समय बगल की चाय की दुकान पर बैठा था. मगर कमाल यह कि बाबा के प्वांइट ऑफ़ व्यू से जब यह घटना सुनायी गयी तो बिल्कुल अलहदा थी.
´´जानते हो कल एक लफ़ड़ा हो गया था.´´
´´क्या बाबा ?´´ हमने उत्साह में भर के पूछा.
´´एक पुलिस वाले से झकझक हो गयी थी.´´
´´कब...कैसे....कहां...?´´
´´अइसे ही, हम अनुपम की गाड़ी से विद्यापीठ जा रहे थे एक सेमिनार की रिपोर्टिंग करने और इंग्लिशिया लाइन पर कोई एस्सो था जो हमको रोक लिया.´´
´´अच्छा ... और फिर ?´´
´´उसको बहुत समझाये कि गाड़ी का कागज हम लेके चलते ही नहीं और डीयल हमारा आज तक बना नहीं लेकिन साला मनबे नहीं किया.´´
´´अच्छा ... और फिर ?´´
´´फिर का, लगा कहने कि न कागज है न डीयल है न हेलमेट है तब तुम्हारे पास है का ? हमारा दिमाग घूम रहा था, हम कहे अबे जाने दो दिमाग मत चाटो.´´
´´फिर ?´´
´´फिर का, हमारा हाथ पकड़ लिया. बस हाथ पकड़ना था कि घुमा के मारे एक लपाटा. कहे भोंसड़ी वाले, बड़े-बड़े लोगों की गांड़ में दम नहीं कि अनुज श्रीवास्तव का हाथ पकड़े और तुम चले हो पुलिसिया इस्टाइल मारने.....´´


मैं और रवि खामोश थे क्योंकि हम पहले भी ऐसी कई घटनाएं सुन चुके थे. लेकिन विवेक ने उन दिनों यादव टी स्टाल पर नया-नया बैठना शुरू किया था और बाबा के जौहर से पूरी तरह परिचित नहीं था. पहले तो उसने कई बार पूछा क्या वाकई ? क्या वाकई ? और आखिर में हतप्रभ होकर कह बैठा, ´´हमको लग रहा है बाबा तुम चूतिया बना रहे हो. एसओ तुमको झापड़ मारा होगा और तुम हिंया अपने वाहवाही लूट रहे हो.´´


बाबा चुपचाप उठे और यादव टी स्टाल के बगल वाली दुकान से एक सिगरेट जला आये. उन्होंने सबके चेहरों पर एक नज़र डाली और गहरी आवाज़ में बोले, ´´बेटा अभी तुमको मालूम ही नहीं कि अनुज श्रीवास्तव क्या चीज हैं. जिस दिन जान जाओगे ऐसी बकचोदी भरी बात नहीं पूछोगे.´´ इसके बाद बाबा के चेहरे पर ज़माने भर का दुख उभर आया जिसका भावार्थ था कि एक तो सिस्टम पहले से ज़ालिम है दोस्त भी साले सिस्टम की तरह होते जा रहे हैं.

२.

चित्र : रघु राय
इस प्रकरण के बाद यह आवश्यक हो जाता है कि बाबा का फिजिकल स्ट्रक्चर जान लिया जाय. स्वभाव से कभी महा उत्तेजित कभी औघड़ मलंग बाबा का रंग गेंहुंआ, कद दरम्याना और वज़न चौवालिस किलोग्राम है. पेट पर कटे का निशान है जिसे वह चाकू का निशान बताते हैं और करीबी बताते हैं कि कफ सीरप की शीशी टूट कर पेट में धंसी थी. बाबा उन दिनों एक दिन के लिये भी किसी दोस्त की बाइक लेते तो बाइक कुछ बदली हुयी आती थी. बाइक के तेवर बजाज प्लेटिना से हार्ले डेविडसन टाइप के हो चुके होते थे और उसकी हेडलाइट कवर पर प्रेस का स्टीकर लगा होता था. बाबा उन दिनों बहुत निडर हो गये थे. सड़क पर ऐसे चलते मानो उनके माथे पर प्रेस का स्टीकर लगा हुआ है. हर जगह पंगे लेते थे और अपुष्ट सूत्रों की मानें तो ज़्यादातर जगहों पर पिटा कर लौट आते थे. कुछ भी हो बाबा कोई भी गलत बात बर्दाश्त नहीं करते थे और कहीं भी भिड़ जाते थे.


बाबा में बाबत्व के गुण बचपन से थे लेकिन ये गुण परवान चढ़े तब जब बाबा ने किसी शुभचिंतक के यह कहने पर कि अच्छा और बड़ा पत्रकार बनने के लिये प्रशिक्षण ज़रूरी होता है, काशी विद्यापीठ में एडमिशन लिया. एडमिशन लेने की इच्छा के पीछे अखबार के उन भरमाऊ लेखों का भी उतना ही हाथ था जो कंरियर वाले पेज पर छपते थे और बताते थे कि मीडिया का क्षेत्र अनंत संभावनाओं से भरा है और इससे संबंधित कोर्स करने के बाद प्रारंभिक सेलरी भले ही आठ-दस हज़ार हो, कुछ अनुभव के बाद पत्रकार अपनी क्षमतानुसार लाखों कमा सकते हैं (क्षमता का अर्थ वे खुल कर नहीं बताते थे). बाबा ने जब विद्यापीठ में पत्रकारिता की पढ़ाई के लिये दो साल के कोर्स में एडमिशन लिया तो वे साल बकौल उनके उनकी ज़िंदगी के सबसे खूबसूरत साल थे (हालांकि बाद में बाबा ने इसे अपने जीवन का सबसे बुरा समय माना). उस समय उनका नाम बाबा नहीं रखा गया था और उन दो सालों में उन्होंने यह नाम अपनी योग्यता से अर्जित किया.


हम सभी दोस्त भी लड़कियां घूरने, भाग कर फिल्में देखने और टाइमपास करने से आगे आ चुके थे और नून तेल लकड़ी की चिंताओं से घिरने लगे थे. हम तब भी लगातार मिलते थे लेकिन अब हमारी बातें प्रेम प्रसंगों और जीवन को लेकर बड़े सपनों से उतर कर औकात पर आ चुकी थीं. मैं हमेशा से एक बड़ा लेखक बनना चाहता था लेकिन जब मैंने कहानियां लिखना और पत्रिकाओं में भेजना शुरू किया तो मेरी सारी कहानियां वापस लौट आती थीं. उन पत्रिकाओं में छपी सारी कहानियां अच्छी ही नहीं होती थीं बल्कि कुछ तो मेरी लौटायी गयी कहानियों से भी खराब होती थीं. फिर भी मैं समझ चुका था कि अच्छा लेखक बनने लायक न तो मेरी भाषा है न शैली. फिर भी मैं आज भी रोटी जुटाने के प्रयासों के बीच कुछ न कुछ लिखता ही रहता हूं और मज़े की बात यह है कि इस बीच मेरी दो तीन कहानियां देश की बड़ी मानी जाने वाली पत्रिकाओं में छप भी गयीं. यह तब की बात है जब हम गृहस्थ नहीं हुये थे और शादी के लिये हमारे घरों में रोज़ नये रिश्ते आ रहे थे, वह भी तब जब हममें से कोई किसी काम धंधे से नहीं लग पाया था. मैं एक ऐसे अख़बार में नौकरी कर रहा था जहां से चाय पीने का खर्चा भी नहीं निकल पाता था हालांकि मेरे कई साथी उसी अखबार से मोटरसायकिल, महंगे मोबाइल फोन और महंगे कपड़े कहां से मैनेज कर लेते थे यह कम से कम उस समय मेरे लिये एक अबूझ पहेली रहती थी.


बाबा ने पत्रकारिता के चकाचौंधी जलवे देखकर विद्यापीठ में एडमिशन लिया था और पढ़ाई छोड़े पूरे चार साल हो जाने के बावजूद फिर से फुलटाइम कोर्स करने की हिम्मत की थी. वह वहां वाकई सिर्फ़ पढ़ने ही गये थे लेकिन उन्हें नहीं मालूम था कि वहां उनके लिये प्रेम अपनी ज़ुल्फें खोले, लिपिस्टिक लगाये और पलकें बिछाये इंतज़ार कर रहा है. अपने क्लास में बाबा की मुलाकात अपनी क्लासमेट रिचा (बदला हुआ नाम) से हुयी जो फिजिक में अपने तरह की एकमात्र और दुर्लभ पीस थी और देखने में एकदम बाबा के लिये स्पेशल ऑर्डर पर बनवायी गयी लगती थी. बाबा बोलने में शुरू से उस्ताद थे और व्यवहार में महाभौकाली थे. वह मासूम लड़की धीरे-धीरे बाबा की वाणी और उनकी जानकारी (पढ़ें अपनी अज्ञानता) से जो एक बार इंप्रेस हुयी तो फिर होती चली गयी. बाबा जो काम करते थे वह एकदम जुट कर और फुलटाइम. बाबा की डिक्शनरी में पार्टटाइम शब्द ही नहीं था. वह जिन दिनों प्यार में थे उन दिनों हम दोस्तों को लगता था कि पूरी दुनिया प्यार में है. हमें लगता था कि ओसामा बिन लादेन, जॉर्ज बुश, ददुआ और ठोकिया सभी किसी न किसी के प्यार में ज़रूर गिरफ्तार होंगे. बाबा जब हमारे पास आते तो बातों का समां पूरी तरह बदल जाता. मान लीजिये मैं वरुन और रवि के साथ यादव के अड्डे पर बैठ कर किसी ऐसे अखबार में काम करने के बारे में सोच रहा होउं जिसका सर्कुलेशन भी अच्छा हो और पैसे भी मिलें और इस विषय पर सोचते-सोचते हमारे चेहरे बासी लौंगलत्ते की तरह दिखने लगे हों कि अचानक बाबा का आगमन होता था.


´´क्या बात हो रही है ?´´ वह सिगरेट हमारी ओर बढ़ाते हुये मुखातिब होते. उन दिनों बाबा के हाथ में बराबर सिगरेट रहती थी.
´´हंसमुखवा सोच रहा है कि अमर उजाला में रिज्यूमे डाल आये.´´वरुन बताता. बाबा के चेहरे पर ऐसी मुस्कराहट आती जिसका अर्थ होता कि सालों कभी तो कुछ अच्छा सोच बतिया लिया करो.
´´छिनरो के गोली मारो नौकरी को, मालूम है आज रिचवा से क्या बात हुयी है ?´´ और हम अपने-अपने दुख भूल कर बाबा के प्रेम के रंग में खो जाते और थोड़ी देर के लिये दुनिया से बाहर अपनी एक छोटी और पवित्र दुनिया में चले जाते. हालांकि बिजली चले जाने के बाद यादवजी जो जनरेटर चलाते उसकी कर्कश आवाज़ हमारी पवित्र दुनिया तक भी आ जाती थी और हम न चाहते हुये बाहर आ जाते थे.


लब्बोलुआब ये कि बाबा प्रेम में थे और हर दिन ऊपर उठते जा रहे थे. हम अपने हाथ बढ़ा कर उन्हें पकड़ने की कोशिश करते लेकिन वह दिनोंदिन हमारी पहुंच से बाहर जा रहे थे. उन्हीं दिनों मेरी पहली कहानी देश की एक अच्छी साहित्यिक पत्रिका में छपी थी और मेरे पास रोज़ दो के औसत से फ़ोन आते थे जो मेरे इस मुग़ालते को और पुख़्ता करते थे कि वाकई मैं अच्छा कहानीकार बन सकता हूं. यादव जी की चाय पीता हुआ मैं विवेक, वरुन और रवि को यह बताता रहता था कि आज किस-किसके फोन आये और क्या-क्या बातें हुंयीं. उस समय कुछ चार-छह दिनों के लिये तो ऐसा हुआ ही होगा कि किसी ऐसी साहित्यिक हस्ती का फोन आया होता था कि दोस्त बाबा के रोज़ के प्रेम प्रसंगों से ध्यान हटाकर मेरे फोन के बारे में जानने की इच्छा रखते थे. बाबा साहित्यिक चर्चाओं में एकदम से अलग-थलग सा महसूस करते क्योंकि रवि और वरुन ने रूचिवश थोड़ा बहुत साहित्य पढ़ रखा था और मेरी खरीदी किताबें भी मांग कर ले जाते रहते थे लेकिन बाबा ने आज तक साहित्य को ध्यान देने लायक चीज़ नहीं समझा था. 


आखिर एक दिन जब मैं सबको बता रहा था कि आज हिंदी के एक जाने माने कवि ने मेरी कहानी पढ़ कर फोन किया था और इस खुशी में सबको चाय के साथ पकौड़ियां भी खिला रहा था, बाबा ने बताया कि आज उन्होंने साले को एक बहुत बेहतरीन कहानी पढ़ी है. हम सबने उत्साह से पूछा कि कौन सी कहानी तो बाबा लेखक का नाम याद करने में तो असमर्थ रहे लेकिन उन्होंने सार संक्षेप में बताया कि एक व्यवसाई है जो अपनी लड़की को कैद करके रखता है, एक लड़का उसके घर में किरायेदार आता है तो लड़की उसको पसंद करने लगती है और कैद से छुड़ाने के लिये उसको चिट्ठी लिखती है आदि आदि. कुल मिलाकर बाबा ने उस दिन अपनी एडीशनल टिप्पणियों के साथ कहानी सुनायी और इस क्रम में खुद में एक लेखक सांस लेता महसूस किया.


दो दिन बाद जब मैं ऑफिस से खाली होकर यादव टी स्टाल पर चाय की चुस्कियों के साथ रवि और वरुन को अपनी नयी कहानी का प्लॉट सुना रहा था कि बाबा नमूदार हुये. उन्होंने दिन दहाड़े घोषणा की कि वह एक भी एक कहानी पर काम कर रहे हैं और जल्दी ही पूरा करके सबको सुनाने वाले हैं. बाबा पूरी तरह साहित्यिक से हो गये थे ओर रिचा का नाम भूल कर भी नहीं लेते थे. हम तब उसकी चर्चा भी ले आते तो बाबा हमें ऐसी निगाहों से देखने लगते कि हमें अपने टुच्चेपन पर शर्म आने लगती. आखिरकार एक दिन वह घड़ी आ ही गयी. बाबा ने अपनी लिखी कहानी ´हरकत´ का यादव टी स्टॉल में बाकायदा पाठ किया जिसका आनंद यादवजी ने भी उठाया और कहानी खत्म करते ही लेखक ने मुझसे पूछा कि इसे हंस में भेजें या कथादेश में. कहानी का सार बाबा की दिल्ली से बनारस तक की रेल यात्रा थी जिसमें चालू डिब्बे में बैठे एक नवदम्पत्ति की अश्लील ´हरकतों´ (जिसके बारे में वह हमें विस्तार से बता चुके थे) का बाबा ने और भी अश्लील तरीके से वर्णन किया था. मैंने बाबा को सिर्फ़ इतना कहा था कि बाबा आप जिन पत्रिकाओं में कहानियां भेजना चाहते हैं पहले उनको एकाध महीना खरीद कर पढ़ तो लीजिये. साथ में मैंने बिना मांगे एक राय यह भी दी कि बाबा आपको कुछ लेखकों की किताबें ज़रूर पढ़ना चाहिये. जैसी कहानियां लिखने में आपकी रुचि है, बेहतर होगा आप मंटो, राजेन्द्र यादव, राजकमल चौधरी, कृश्ण बलदेव वैद और तसलीमा नसरीन की कम से कम प्रतिनिधि रचनाएं तो खरीद कर पढ़ें ही पढ़ें. बदले में बाबा ने जो जवाब दिया उससे मैं ही नहीं यादवजी तक लाजवाब हो गये और हमारी चर्चा से ध्यान हटाकर रबड़ी बेचने में ध्यान लगाने लगे.


´´अबे हम किसी लेखक का लिखा इसलिये नहीं पढ़ना चाहते क्योंकि हम नहीं चाहते कि हमारी राइटिंग पर किसी की छाप पड़े. समझे ?´´
मैं क्या कोई नहीं समझा था. बाबा लगभग एक महीने तक साहित्यिक रहे थे और फिर अचानक एक बीच छह-सात दिन के लिये लगातार गायब हो गये. जब बाबा लौटे तो उनकी कलाई पर कटने का निशान था.
´´ये कटा कइसे बाबा ?´´ रवि ने पूछा. निशान ताज़ा था.
´´अबे कुछ नहीं, पपीता काट रहे थे.´´ बाबा ने लापरवाही से कहा और अपनी दूसरी कहानी के बारे में बुझी आवाज़ में कुछ कहने लगे. सबने बेमन से बाबा की कहानी सुनी लेकिन ध्यान सबका बाबा की कलाई पर ही था. सब जानते थे कि बाबा का मन अभी बताने का नहीं है तो वह नहीं बताएंगे और बाद में बिना पूछे ही सब खोल देंगे. चिंता की बात यह थी कि यह पपीते का मौसम नहीं था.


बाद में बाबा के एक क्लासमेट ने, जो हमें यूं ही एक दिन चनुआ सट्टी में मिल गया था, हमें बताया कि बाबा ने रिचा को प्रपोज़ किया था और उसने उन्हें चालू फ़ैशन के हिसाब से सिर्फ़ दोस्त बताते हुये प्रेम का प्रपोजल मानने से इंकार कर दिया था. बाबा के पपीता काटने का राज़ हम समझ गये थे. ठीक उसी समय के आसपास मैंने और वरुन ने भी क्रमश: अपने ऑफिस और कॉलोनी में अपनी पसंद की लड़कियों को प्रेम प्रस्ताव दिया था जो बेरहमी से खारिज़ कर दिया गया था. हम दोनों ने इस ग़म को बाबा से बांटा था और दो दिन आंसू बहा कर दारू पीने के बाद धीरे-धीरे इसे भूलने लगे थे. लेकिन बाबा में लड़कपन था और वह जिन चीज़ों से दिल लगाते थे उन्हें इतनी आसानी से छोड़ने वालों में नहीं थे. हमें यह दुख था कि हमारे बचपन के दोस्त बाबा ने अपने जीवन की इतनी ज़रूरी बात हमसे छिपाये रखी. बाबा ने मुझसे मार्गदर्शन न पाने की स्थिति में अपनी कहानी ´दैनिक बारूद´ में छाप दी थी जिसे पढ़ने के बाद उनका उत्साहित संपादक कम मालिक (ज़्यादा) भी आजकल एक कहानी लिख रहा था जिसका शीर्षक था ´लटकता हुआ खंजर पजामे के अंदर´.


बाबा उस बीच हमसे काफी-काफी दिन पर मिलते थे और खासे गुमसुम नज़र आते थे. एक बीच वह हमसे पूरे एक हफ़्ते तक नहीं मिले और न ही हमारा फोन रिसीव किया. हम लोग उनके घर जाने की प्लानिंग कर ही रहे थे कि बाबा ने फ़ोन करके हम लोगों को यादवजी के अड्डे पर बुला लिया. बाबा ने हरियाली आवाज़ में बताया कि उन्हें रिचा ने प्रपोज़ किया है और उन्होंने उसका प्रपोज़ल मान लिया है. बाबा की आंखों में विजय की चमक थी.


बाबा उन दिनों कपड़े एकदम नये और चटख रंगों के पहनने लगे थे. वरुन दिल्ली चला गया था और एक बड़े नाम वाले अखबार में ठीक-ठाक पैसे पा रहा था. मैं लगातार उससे कहता और अपना बायोडाटा फॉरवर्ड करता रहता था कि मेरा भी दिल्ली के किसी अखबार में जुगाड़ लग जाये. वरुन कोशिश में था और मैं अब जल्दी से जल्दी बनारस छोड़ देना चाहता था. रवि ने मेडिकल रिप्रेजेण्टेटिव की नौकरी ज्वाइन कर ली थी और हर समय डॉक्टरों को गरियाता रहता था और कहता था कि इस लाइन में बहुत करप्शन है. मेरी और उसकी इस बात पर बहस होती ही रहती थी कि साला करप्शन तो हर लाइन में है कि अचानक बाबा आ जाते थे और बताने लगते थे कि रिचा आज हरे रंग के सलवार सूट में आयी थी और कमाल लग रही थी. आज दोनों ने मैक्डॉनल्ड में बर्गर खाये, कॉफी पी और इस दौरान बाबा ने उसकी हथेलियों को दबाया था जो कि फूल से भी नाज़ुक थीं. रवि का मूड उस दिन बहुत खराब था.


´´चुप रहबा बुजरो के, आग राग मत गावा, इहां पूरा जिंदगी सरवा अन्हारे में हौ. बु़ढ़ौती में पढ़ाई कइले का डिसीजन लेहले हउवा ता आपन उमिरियो याद रक्खल करा. ई खाये कमाये क उमिर हौ बाबा, लौडिंयाबाजी करे का नांहीं.´´


बाबा हतप्रभ थे. उनकी बातों को अपने ही नहीं दूसरे दोस्तों के ग्रुप में भी सम्मान दिया जाता था मगर आज रवि की ऊंची आवाज़ की हिकारत यादवजी ने भी महसूस की थी और चुपचाप दूसरी ओर मुंह करके चाय छानने लगे थे. बाबा उदास से हो गये थे और उसी समय विवेक आ गया था. रवि ने व्यंग्य से हंसते हुये विवेक को जो सुनाया उसका अर्थ यह था कि तीस साल की उम्र में एक तो बबवा पढ़ाई कर रहा है और दूसरे जीवन की जटिलताओं की ओर ध्यान न देकर बेवकूफि़यों में लिप्त है.


मुझे कुछ महीने पहले घटी ऐसी ही घटना याद हो आयी जिसमें बाबा की ऐसी ही हरकत पर वरुन ने उन्हें डांटा था और कहा था बेटा अनुज तुम्हारी आदतें सब वही हैं जो हम सबकी आठ साल पहले थीं. यह वही दिन था जब उनका नाम बाबा रखा गया था. दरअसल रात को नौ बजे, जब हम यादव टी स्टॉल से चाय सिगरेट पी कर अपने-अपने घरों को लौट चुके थे कि बाबा का फोन आया. मुझे, रवि और वरुन को बाबा ने फिर वहीं इमरजेंसी में बुलाया था जहां से हम सब सिर्फ़ एक घण्टे पहले रुखसत हुये थे.


´´बात क्या है ? क्या कोई बहुत ज़रूरी काम है ?´´ यह सवाल लगभग सभी ने पूछा था और इसका जवाब यही मिला था कि हां जल्दी आओ बहुत ज़रूरी काम है. हम सब बिना मन के पहुंचे थे तो बाबा यादवजी की दुकान में न बैठ कर बाहर वाली पान की दुकान पर खड़े सिगरेट पी रहे थे और मुस्करा रहे थे. मैं और रवि भी बिना मन के आये थे लेकिन वरुन घर पर कोई ज़रूरी काम छोड़ कर आया था. उसने पहुंचते ही पूछा.


´´क्या बात है जल्दी बताओ साले घर जाना है तुरंत.´´
बाबा अनवरत मुस्करा रहे थे और हम बहुत जल्दबाज़ी में कहीं कोई बदलाव नहीं देख पा रहे थे.
´´बात देख नहीं पा रहे हो ?´´ बाबा ने मुस्कराते हुये पूछा.
´´नहीं.....एकदम नहीं देख पा रहे, जल्दी बताओ.´´ वरुन ने कोई बात देखने की गरज से इधर उधर नज़रें फिरायीं और फिर बाबा से मुखातिब हुआ.
´´तुम बताओ बे?´´ अब बाबा मेरी ओर पलटे. मुझे भी कोई ख़ास बात नहीं दिखी. ´´और गुरू तुम....?´´ बाबा ने रवि की ओर देखा और रहस्यात्मक ढंग से मुस्कान बिखेरते हुये अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरा. दाढ़ी जो कुछ देर पहले बेतरतीब थी अब फ्रेंच कट हो चुकी थी और वाकई बाबा पर अच्छी लग रही थी लेकिन क्या बाबा ने हमें इसके लिये इतनी इमरजेंसी में बुलाया था.
´´भोसड़ी के यही देखने के लिये इतना इमरजेंसी में बुलवाये हो ?´´ वरुन आगबबूला हो गया था. बाबा हड़क गये थे लेकिन खुद को सम्भाल कर बोले थे.
´´अच्छा लग रहा है कि नहीं ? मेरे ऊपर जम रहा है न ?´´ बाबा ने धीरे से हम तीनों की ओर बारी-बारी से देखते हुये कहा था. मैं भी गुस्से में था और रवि ने हामी भरते हुये कहा था कि दाढ़ी अच्छी लग रही है लेकिन इसको कल दिखाना चाहिये था, कल तक दाढ़ी बढ़ तो नहीं जाती. वरुन का गुस्सा बहुत बढ़ गया था. उसने बाबा को बहुत लताड़ा और चेतावनी दी कि बाबा अपने आप को सत्रह साल का लौंडा समझें तो समझें, दूसरों को अपने चूतियापे में शामिल न करें. यही वह ऐतिहासिक दिन था जब अनुज श्रीवास्तव जैसा साधारण नाम एक युगांतरकारी नाम में परिवर्तित हो गया था.


´´ऐसे नहीं चलता है चूतिये. हम लोग की उम्र तीस होने आयी यार और तुम अभी भी लौंडहरी में लगे हो. जिंदगी कैसे चलेगी यह सोचो.´´
अनुज ने कुछ प्रतिवाद करना चाहा था और वरुन को धीरे से कहा था कि तुम चूतिया हो.
´´हम तो चूतिया हैं ही बेटा लेकिन तुम च्यूतिया हो.´´ चूतिये और च्यूतिये में वही फ़र्क़ था जो बकचोद और महाबकचोद में था और यह हर बनारसी पर ज़ाहिर था.
उसी समय यादवजी ने अचानक एक भोजपुरी गाना चला दिया था. उसमें से कुछ लाइनें हमें बहुत पसंद आयी थीं.
´´छप-छप नहाने स्वीमींग पूल में.....
कि बाबा एगो हइये हउएं.´´


गाना हमें भा गया था और वरुन का कहना था कि अनुज भी आजकल जीवन रूपी स्विमिंग पूल में छप-छप नहा रहा है और इस लिहाज़ से बाबा कहे जाने के लिये सर्वथा योग्य है. वह दिन था और इसके बाद के कई साल, बाबा की यह सटीक उपाधि ऐसी हिट हुयी कि लोग उनका असली नाम भूल गये. इसके बाद तो उनकी तरह हरकतें करने वाले जितने लोग थे सब किसी न किसी तरह अधिक या कम समय के लिये इस विशेषण से नवाज़े गये. बाबा बाक़ायदा एक विश्वविद्यालय हो गये और ´बाबा´ उपाधि की फ्रेंचाइज़ी बांटने लगे. जैसे एक बीच बहुत बचकानी हरकतें करने वाले राहुल को बड़े बाबा का ख़िताब दिया गया तो सोनू को डीम्ड बाबा का. रवि ने एक बीच चुभती हुयी बातें कहने के लिये नुकीले बाबा का ख़िताब प्राप्त किया तो अजीत को घर जाने के लिये जल्दबाज़ी दिखाने पर फरफर बाबा की उपाधि दी गयी. बाबा की उपाधि अचानक बिजली की तरह से बाबा विश्वनाथ के शहर में फैल गयी. हमें हर तरफ़ बाबा लिखा हुआ नज़र आने लगा. बाबा ऑटोमोबाइल, बाबा गारमेण्ट्स, बाबा कैफ़े, बाबा मोबाइल्स, बाबा कोचिंग सेण्टर....आदि आदि. लोग अपनी मोटरसायकिलों के आगे बाबा लिखवा कर और स्वास्तिक बनवा कर चलते तो हम हंस हंस कर दोहरे हो जाते. बाबा का ध्यान उधर आकृष्ट कराते तो बाबा बहुत गुस्सा होते लेकिन धीरे-धीरे कोई और चारा न होने की स्थिति में उन्होंने इस उपाधि को ग्रहण कर लिया था और न चाहते हुये भी बाबा पुकारने पर जवाब देने लगे थे.


एक दिन जब मैं दोपहर का खाना खाकर लहरतारा पुल के नीचे सिगरेट पीने जा रहा था कि एक लोकल चैनल पर विद्यापीठ में मारपीट हो जाने की खबर देखी. मैंने ध्यान नहीं दिया और निकलने ही वाला था कि मुझे टीवी पर पुलिस से मार खाता बाबा का चेहरा दिखा. मैं घबराहट में वरुन को ( जो तीन-चार दिन की छुट्टी में दिल्ली से घर आया था) लेकर जब तक विद्यापीठ पहुंचता, तब तक मामला ठंडा हो चुका था. बाबा एक ओर पड़े थे और रिचा उनका माथा सहला रही थी. कुछ छात्र आक्रोशित से वहां खड़े थे और योजना बनायी जा रही थी कि एचओडी को घेर कर मारा जायेगा और बाबा की मार का बदला लिया जायेगा.


´´क्या हुआ बाबा ?´´ हमने बाबा से सुहानूभुति जतायी लेकिन बाबा को इसकी कतई ज़रूरत नहीं थी.


´´अबे कुच्छ नहीं...एक क्लर्क है. साला एचओडी का छर्रा है. प्रवेश पत्र देने के लिये बच्चों से पइसा मांग रहा था. पचास-पचास रुपया...हम मना किये तो हमको हड़काने लगा. सेंक दिये साले को....´´ बाबा के जोश में वृद्धि हो गयी थी. उनके माथे से खून बह रहा था और वह हीरो बन गये थे. अपने से हट्टे कट्टे सहपाठियों को बच्चा कहने और समझने वाले बाबा को पूरी पत्रकारिता विभाग के छात्र छात्राएं हीरो मान रहे थे लेकिन बाबा बाबा थे, हीरो नहीं. उन्होंने रिचा के चेहरे के पास अपना चेहरा किया और धीरे से उसके कान में कुछ फुसफुसाये जो काफ़ी धीमा होने के बावजूद हमने सुन लिया.


´´ये वरुन है....हिंदुस्तान दिल्ली में रिपोर्टर है. बहुत खतरनाक पत्रकार है. फाड़ कर रखता है. मेरे बचपन का दोस्त है.´´ हमने देखा कि फाड़ के रखने वाली भाषा पर रिचा के चेहरे पर कोई ख़ास परिवर्तन नहीं आया. यानि वह सचमुच बाबा के करीब हो चुकी थी. इसके बाद बाबा मेरी ओर इशारा करते हुये फुसफुसाये. रिचा के आसपास एकाध लड़कियां और इकट्ठी हो चुकी थीं और बाबा के फुसफुसाने का राज़ जानना चाहती थीं.
´´वह हंसमुख है. बहुत बड़ा लेखक है. यंग राइटर्स में सबसे भयंकर राइटर है. इसके बारे में बताये थे न....? कहानी के साथ इसकी फोटो भी छपती है. मेरे बचपन का दोस्त है.´´ ऐसा बताने के बाद बाबा की चोटों में काफ़ी सुधार दिख रहा था. खैर, इस घटना के बाद विभाग के किसी क्लर्क ने कभी किसी काम के लिये छात्रों से पैसा नहीं मांगा.


३.

हम कई तरह की कोशिशों से अपनी उम्र को रोकने और अपनी निश्चिन्तता बचाने की कोशिशें कर रहे थे लेकिन उम्र थी कि मुट्ठी में कैद रेत और सिगरेट में भरे गांजे की तरह सरकती और सुलगती जा रही थी. हम सब आपस में कम मिलते और जब भी मिलते, आगे आने वाली ज़िंदगी, जो बहुत विकराल सवाल पूछती दिखायी देती थी, के बारे में चर्चाएं करते. हमारी प्राथमिकताएं बदल रही थीं. हम ज़िम्मेदार हो रहे थे और बड़े-बड़े सवालों से जूझने लगे थे. मैं समझ गया था कि इस नौकरी से बेड़ा पार नहीं होने वाला और वरुन ने सलाह दी थी कि अगर मीडिया में बढ़िया कंरियर चाहिये तो दिल्ली की तरफ़ कूच करना होगा. मैं दिल्ली जाने की तैयारी में था. रवि दवाइयों की एजेंसी लेने के चक्कर में दिन रात एक कर रहा था और हम जब भी मिलते पत्रकारिता और दवाइयों की इस तरह मिक्स चर्चा करते जैसे पत्रकारिता कोई लाइलाज मर्ज़ हो और रवि इसके ही इलाज के लिये दवाइयों की एजेंसी ले रहा हो. बाबा की बचकानी हरकतें अब हमें बहुत कोफ़्त देती थीं और हम सब उन्हें गाहे-बगाहे उनके चूतियापे भरी हरकतों के लिये सरेआम यादव जी की दुकान पर ही हड़का देते थे जिसे यादवजी सुन कर भी अनसुनी कर देते थे. बाबा कई कामों से जूझने के बाद हमारी बातें सुनकर अपने जीवन के लिये भी चिंतित हो रहे थे. उन्होंने एक दिन बताया कि वे अपने एक दूर के बड़े भाई और मार्गदर्शक टाइप आदमी के साथ पार्टनरिशप में एक इलेक्ट्रॉनिक आयटम्स की दुकान शुरू करने वाले हैं. हमने बहुत ज़्यादा ध्यान नहीं दिया. सच कहूं तो उन दिनों हम बाबा की हरकतों और बातों से बहुत पक रहे थे और अक्सर उन्हें इग्नोर करते रहते थे.


हमारे भीतर की नमी को दुनिया की ज़हरीली आंच ने सोख लिया था और हम भी धीरे-धीरे वैसे ही होते जा रहे थे जैसी यह दुनिया थी. हम दुनिया से जैसा ले रहे थे वैसा ही वापस देने की इच्छा में बराबर कामयाब भी हो रहे थे. दूसरों की चालाकियों ने हमें शातिर बनाया था और दूसरों के धोखे हमें क्रूर बना रहे थे. हम किसी से भी अब काम से ही मिलना पसंद करने लगे थे और फालतू में दोस्तों के साथ समय बिताने में अब रस नहीं मिल रहा था. मैंने साहित्य लिखना तो दूर पढ़ना भी बहुत कम कर दिया था क्योंकि साहित्य की दुनिया में और ज़्यादा क्षुद्र लोग थे. खून जला कर लिखी गयी मेरी कहानियां अव्वल तो कहीं छपती नहीं थीं और अगर छपती भी तो न कहीं से कोई पत्र आता था न ही फोन, कहानियों के एवज़ में कुछ पैसे मिलना तो सपने जैसी बात थी. मैं इसकी जगह कभी-कभी कुछ चालू अख़बारों के लिये उनके कहने पर साहित्य और समाज पर कुछ लेखनुमा लिख कर दे देता था जिसके कुछ पैसे भी मिल जाते थे. मुझे लगता था कि किताबें और कहानियां पढ़ने वाला अब कोई नहीं बचा और लेखक लोग बेकार में किताबों पर किताबें लिखे जा रहे हैं. मैं चुपचाप अपनी बाइलाइन ख़बरें इकट्ठा करता जा रहा था और अपने जीवन के एकमात्र लक्ष्य की ओर ध्यान दे रहा था जो किसी अच्छे और बड़े अखबार में एक अदद नौकरी पाना था. वरुन ने मुझे लगातार अपने संपर्क बढ़ाने को कहा था और वह खुद भी ऐसा ही कर रहा था. रवि दवाइयों की एजेंसी लेने के लिये पैसे का इंतज़ाम कर चुका था और चीज़ें बहुत जल्दी ही फाइनलाइज़ होने वाली थीं. बाबा से मिलना कम हो रहा था क्योंकि न तो बाबा भविष्य को लेकर कोई उत्सुकता दिखाते थे न ही कभी कोई ऐसी गंभीर बात ही करते थे जिसमें रुचि ली जा सके. मैं और रवि जब भी मिलते आपस में अपने भविष्य को लेकर ही कुछ बात करते. एक दिन बाबा ने बताया कि वह अपने दूर के भाई के साथ इलेक्ट्रॉनिक का बिजनेस शुरू कर रहे हैं और इसके लिये मीरापुर में दुकान देख रहे हैं.


´´इतनी दूर क्यों ?´´ रवि ने पूछा था.
´´यार पास मिल नहीं रही दुकान और अगर मिल रही है तो दाम अधिक हैं. लेकिन हम सर्वे कर लिये हैं, उधर इलेक्ट्रॉनिक की दुकान खूब चलेगी.´´ हमने बहुत ज़्यादा रुचि नहीं दिखायी.


वरुन की नौकरी एक अच्छे चैनल (टीआरपी के आधार पर) में लग गयी थी और उसकी तनख्वाह 
अचानक बहुत अच्छी हो गयी थी. मैंने भी अपना रिज्यूमे उसको उसके यह कहने पर फॉरवर्ड कर दिया कि अभी कुछ नियुक्तियां और होनी हैं. रवि ने एजेंसी डाल ली थी और अब अचानक बहुत व्यस्त हो गया था. हम लोग बीच में एक दिन मिले तो बाबा ने दुकान शुरू होने की खुशी में हम दोनों को बीयर पिला दी. बाबा ने आधी बीयर पी और जब उनको चढ़ गयी तो हमें ही उनकी आधी बियर पीनी पड़ी. बाबा ने कहा था कि उनका बजट सिर्फ़ एक-एक बीयर पिलाने का है लेकिन चढ़ने के बाद हमने एक-एक बीयर और पीने की इच्छा व्यक्त की.
´´बाबा पइसा तो है न ?´´ रवि ने बस बाबा को चिड़काने के लिये कहा.
´´भोसड़ी के दोस्तों के आगे पइसा क्या है बे ? हम कभी मना किये हैं खरचा करने से...?´´ बाबा जोश में आ गये थे और उनकी ज़बान लड़खड़ा रही थी.
´´तो हम लोगों को एक-एक और पिलाओ फिलहाल. इसके बाद मन किया तो एक-एक और मारा जायेगा.´´ मैंने रवि को आंख मारी. बाबा रौ में थे.
´´साले एक-एक क्या दस-दस पीओ. जितना मन करे पीओ साले को. अनुज श्रीवास्तव अपने आप को बेच के दोस्तों को पिलाएगा.´´
हम समझ गये कि बाबा ने अपनी खुराक से एकाध बूंद ज़्यादा मार ली है और उनको ओवरडोज़ हो गया है. हमने बाबा से मज़े में पूछा.
´´बाबा आपको अंदर तो नहीं लेना पड़ेगा ?´´ बाबा शरमा गये और मुस्कराने लगे.
´´भक्साले, मजा ले रहे हो. चढ़ी थोड़े ही है इसकी जात की.´´
अंदर लेने वाली घटना साल भर पहले विवेक के कमरे पर घटी थी. वह कमरा किराये पर लेकर अकेला रहता था और पढ़ाई के बहाने उसके कमरे पर पीने के लिये कभी-कभी इकट्ठा होते थे. हमने नया-नया पीना शुरू किया था और बाबा के कमाल के बारे में उसी दिन पता चला था कि बाबा एक पैग से भी कम वाले आदमी हैं.


हम सबकी खुराक कम ही थी लेकिन फिर भी हमने चार से पांच पैग तो मारे ही थे. बाबा ने पहला पैग तो नाक दबाकर मुंह बनाकर सबका देखादेखी पी लिया लेकिन दूसरे पैग में बाबा ने बहाना मार दिया कि उनके पेट में गैस जैसा कुछ हो रहा है और वह कोई ख़तरा नहीं उठाना चाहते लिहाज़ा ´स्किप´ कर रहे हैं. बाबा स्किप करने के बाद वहीं दरवाज़े के पास ही लेट गये जहां बैठकर हम लोग पी रहे थे. विवेक का कमरा छत पर था और हम बिलकुल दरवाज़े के पास बैठकर पी रहे थे ताकि बाहर की ठंडी हवा से हमारा संपर्क बना रहे. हमने तीसरा पैग खत्म ही किया था कि हल्की बारिश होने लगी. विवेक ने रवि को, जो दरवाज़े के सबसे पास था, कहा कि वह बाहर तार पर पसारे हुये सूखे कपड़े अंदर ले ले ताकि वे बारिश में भीग न जांय.
´´अबे वो साबुनदानी वहीं रखी होगी, उसको भी अंदर ले लेना, कहीं भीग के गल न जाय.´´ विवेक ने कहा.


´´अरे यार हल्की झींसी है अभी बंद हो जाएगी.´´ रवि ने साबुनदानी उठाते हुये कहा. जैसे ही वह अंदर पहुंचा विवेक ने एक और फरमान जारी कर दिया.
´´यार वहां जो छोटा वाला स्टूल रखा है उसको भी अंदर ले लो, कहीं भीग न जाय.´´
बाबा दरवाज़े के बीचोबीच सोये थे और उनको पार कर अंदर बाहर करना पड़ रहा था. उनका धड़ कमरे में था और कमर के बाद का हिस्सा बाहर था. बाबा के पैर पर हल्की फुहारें पड़ रही थीं और रवि स्टूल उठा कर अंदर रख रहा था. अचानक बाबा के पैर से रवि का पैर हल्के से छू गया और बाबा लेटे-लेटे आँखें बंद किये हुये ही धाराप्रवाह बनारसी गालियां देने लगे. गालियां देने के बाद बाबा ने उसी पोज में विनती की.


´´अबे हमको भी अंदर ले लो कहीं भीग न जांय.´´
हम सब पर अगला पैग पीने से पहले ही दुगुना नशा हो गया था और हम चिल्ला-चिल्ला कर हंसने लगे थे. इधर बाबा फिर चिल्लाये थे.
´´यार... भाई...दोस्त हमको भी अंदर ले ले कोई प्लीज बे.....´´ बाबा अंदर ही थे. उनके सिर्फ़ पांव ही बाहर थे. जब हमने उनको यह बात बताई तो उन्होंने बताने वाले को फिर गरियाआ और फिर से वही विनती दोहराई. यह घटना उस दिन और उस दिन के बाद से एक फेनोमेना बन गयी और पीने के बाद अंदर लेने वाले प्रसंग को एक बार ज़रूर छेड़ा जाता. बाबा होते तो उनके लिये और वह नहीं होते तो ग्रुप में जो भी कम पीने वाला होता, उसके लिये.
हमने दूसरी और फिर तीसरी बियर पी. बाबा के अंदर की बियर पेशाब करने के बावजूद अंदर जाकर पच गयी थी और बाबा बहुत उदास नज़र आने लगे थे.


´´क्या हुआ बाबा ? तुम्हारा मुंह घंटे की तरह लटका जा रहा है.´´ रवि ने मज़ा लिया.
बाबा यह सुन कर और भी उदास हो गये. वह थोड़ी देर तक पूरी तरह से ध्यान लगा कर सिगरेट खींचते रहे और जब रवि की ओर पलटे तो उनकी आंखें गीली थीं.
´´धीरे-धीरे सब लोग अलग होते जा रहे हैं.´´ लगा कि बाबा और बोले तो रो देंगे. मैं और रवि भी थोड़े भावुक हो गये थे लेकिन रवि ने अपनी आदत अनुसार बाबा की चुटकी ली.
´´कौन अलग हो रहा है बाबा ? किसी खास की याद आ रही है क्या ? कहीं रिचा....?´´
बाबा चुप रहे. हम बीयर पीते रहे और बाबा सिगरेट. हम सबकी शादियां हो गयी थीं और बाबा के आठ दस रिश्ते कटने के बाद आजकल शादी की बात चल रही थी जहां मामला लगभग फाइनल लग रहा था.


बाबा उसके बाद हमसे कुछ और दिन मिले थे कि मेरा दिल्ली जाने का वक़्त हो गया था. वह उन दिनों अपनी दुकान के प्रेम में गिरफ्तार थे और जब भी आते थे सिर्फ़ टीवी, पंखे और कूलर की ही बात करते जिसमें हमारी कतई रुचि नहीं हुआ करती थी.
´´जानते हो सबसे ज़्यादा मार्जिन किस टीवी पर है ?´´


´´आजकल धंधा सेल्स में नहीं सर्विस में है. समझ लो आज तीन टीवी बेचे लेकिन फ़ायदा कितना मालूम है ? सिर्फ़ नौ सौ रुपये. और सर्विस में क्या है कि एक टीवी खोली और पांच छह सौ बना लिये.´´


´´इंस्टालेशन में बिना मेहनत का पइसा है. एक डीटीएच लगाने के लिये लड़के को भेजते हैं तो वो झम्म से तीन सौ पा जाता है.´´
हमें इस तरह की बातों में कोई रुचि नहीं रह गयी थी. बाबा एकदम से बिजनेसमैन की तरह हो गये थे और हर समय खुद को एक अच्छा बिजनेसमैन साबित करने के लिये एक से एक उदाहरण दिया करते थे. मेरी वरुन वाले चैनल से कॉल आयी थी और मामला लगभग फिट हो गया था. जिस दिन मुझे निकलना था उसके दो दिन पहले बाबा ने ज़बरदस्ती बीयर की पार्टी दी थी और हम अरविंद वाले अड्डे पर बीयर पीते हुये काफ़ी चुपचुप से थे.


´´जम के पत्रकारिता करो और फाड़ दो इसकी जात की.....´´ बाबा ने पहली बोतल का दूसरा घूंट भरते हुये कहा. हम ये मान चुके थे कि पहले घूंट में बाबा को चढ़ गयी होगी. बाबा ने उस दिन बीयर, नमकीन और सिगरेट में कुल मिलाकर हज़ार रुपये तक तो खर्च किये ही थे. उसी बीच मेरे मोबाइल पर उसी चैनल के एक सीनियर जर्नलिस्ट का फोन आया और बात पूरी नहीं हो पायी कि फोन कट गया. मैंने फोन मिलाने के लिये नम्बर डायल किया था कि देखा कि मेरे फोन में बैलेंस नहीं है. मैंने बाबा को बताया कि वह अपने सूत्रों से मेरा मोबाइल रिचार्ज करा दें. बाबा फोन पर ही कुछ साथी यानि छोटे बाज़ारियों को कह कर किसी का भी मोबाइल रिचार्ज करा देते थे और वहीं के वहीं रिचार्ज का पैसा ले लेते थे जो अगले दिन उसे हैण्ड ओवर कर देते थे. मेरे मोबाइल में बाबा ने छप्पन रुपये वाला कूपन डलवाया जिसमें पचास रुपये मिलते थे. मेरी जेब में पचास रुपये चेंज थे जो मैंने बाबा को थमा दिये.


´´और दो छह रुपये.´´ बाबा ने हाथ आगे करते हुये कहा.
´´अबे ठीक है बाबा...इतना ही है.´´ मैंने बात टालनी चाही.
´´नहीं अइसे कइसे....छह रूपया और दो.´´ बाबा दृढ़ थे. मैंने अपनी सारी जेबें टटोली तों इत्तेफ़ाक से एक पांच रुपये का सिक्का जींस की पिछली जेब में मिल गया. मैंने बाबा के हवाले किया और बीयर के घूंट लगाने लगा.
´´एक रुपया और.....´´ बाबा ने फिर कहा.
´´साले डंडा मत करो. एक रुपया अपना लगा लेना. चूतिया....´´ मैंने बाबा को झिड़क दिया.
´´नहीं अपना क्यों लगाएंगे. निकालो फट्ट से....´´ बाबा एकदम दृढ़प्रतिज्ञ थे.
´´अबे हजार रुपया लगा रहे हो पार्टी देने में अउर एक रुपये के लिये पानी भर रहे हो. गजब आदमी हो.´´ रवि ने भी बाबा को पार्टी का मज़ा किरकिरा करने के लिये डांटा लेकिन बाबा ज़रा भी विचलित नहीं हुये.


´´पार्टी में हजार रुपया अउर लगवा लो चलेगा लेकिन बिजनेस इज बिजनेस. निकालो एक रुपया....´´ रवि ने अपनी जेबें चेक की और एक दो का सिक्का निकाल कर बाबा के हवाले किया.
´´ले साले....डाल ले. देख ले दो का सिक्का है.´´ रवि ने गुस्से में कहा और मेरी ओर पलटा, ´´साले इस पर एक कहानी लिखो अगर दम है तो....´´


बाबा ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया. दो का सिक्का अपनी जेब के हवाले किया, पिछली अगली सारी जेबें टटोल कर एक रुपये का एक सिक्का निकाला और रवि के हवाले कर दिया. बिजनेस डील समाप्त हो गयी थी और वह बिजनेसमैन बाबा से फिर से साधारण बाबा हो गये थे. वह हर बार की तरह कहने लगे थे कि उनका पेट दो दिन से थोड़ा गड़बड़ है. हमने उनसे पूछा कि उन्हें अंदर तो नहीं लेना पड़ेगा तो वह शरमा गये.


मैं दिल्ली क्या गया कि बनारस और दुनिया सबसे कट गया. मुझे सीबीआई और भाजपा बीट मिली थी और इस पत्रकारिता में शुरू-शुरू में बहुत मज़ा आया था. ज़िंदगी बहुत शान से तो नहीं लेकिन आसानी से चलने लगी थी. मेरी तनख्वाह अच्छी थी और अपना जुगाड़ लगवाने के लिये मैं वरुन का इतना शुक्रगुज़ार था कि हर वीकेण्ड पर उसे दारू मैं अपने ही पैसे से पिलाता. वह अपने सीनियर के बहुत क़रीब था और उसके सीनियर ने धीरे-धीरे अपने परिचितों या अपने जूनियरों के परिचितों को अपनी टीम में भर लिया था. उसकी टीम बहुत अच्छा परफॉर्म कर रही थी और उसकी सफ़लता बाकी लोगों के लिये ईश्र्या का सबब थी. बनारस से दोस्तों के फ़ोन आने कम हो गये थे. बाबा कभी-कभी मुझे टीवी पर देखते तो किलक कर फोन घुमा देते लेकिन मैं बाबा की बातों को सीरीयसली नहीं ले पाता, चाह कर भी. बाबा की बातें ही ऐसी होती थीं. एक बार मैं भाजपा के एक बड़े नेता के दौरे की रिर्पोटिंग कर रहा था कि बाबा ने मेरी रिपोर्ट देख कर मुझे फ़ोन किया.
´´हंसमुख तुम उस नेता के बारे में बहुत अच्छा-अच्छा बोल रहे हो. अच्छी बात है लेकिन तुमको शायद यह फैक्ट नहीं मालूम कि पार्टी के भीतर ही एक ख़ास मद में इसने तीन करोड़ रुपये का घोटाला किया है. तुम एक काम करो, पार्टी के अंदरूनी सूत्रों को तोड़ो और पता करो कि असली मामला क्या है.´´


´´तुमको कैसे मालूम बाबा ?´´ मैंने आश्चर्य व्यक्त किया. बाबा के अंदर की आग अभी तक बाकी थी ? मेरे लिये आश्चर्य का विषय था. खैर, मैंने आश्चर्य व्यक्त करते हुये बाबा को टालने की कोशिश की. इस नेता से मेरे अच्छे संपर्क बन चुके थे और मैं उन्हें खराब नहीं करना चाहता था.
´´अबे हमको हल्के में ले रहे हो क्या ?  हमको बहुत कुछ मालूम है. तुम बस मार दो इस नेता की कायदे से....´´ बाबा को मारने में बहुत मज़ा आता था लेकिन मैं अपना कंरियर बिगाड़ने के मूड में नहीं था जो बहुत पापड़ बेलने के बाद यहां तक पहुंचा था. मैंने बाबा को फोन रखने के लिये कहा.


´´अबे इतना बढ़िया क्लू दिये तुमको और तुम.....´´ बाबा के पूरा करने से पहले ही मैंने उनकी बात काट दी. मेरा मूड खराब हो गया था.
´´बाबा यह दैनिक बारूद नहीं है. यह एक राष्ट्रीय चैनल है और तुम्हारी बकचोदियां नहीं चलतीं. यहां एक सिस्टम है और हर फ़ैसला लेने से पहले पचास तरह की औपचारिकताएं होती हैं. रखो फोन अभी फील्ड में हैं हम....´´ वरुन को बाद में सह बात बताने पर वह बाबा के ऊपर खूब हंसा और मुझसे कहा कि अगर मैं साहित्य में स्थापित होना चाहता हूं तो बाबा को मुख्य पात्र बनाकर एक कहानी ज़रूर लिखूं. उसने यह भी कहा कि बबवा अपने इसी तरह के चूतियापों की वजह से आज तक बल्ब बेच रहा है.


४.

ज़िंदगी अपनी रौ में बहती जा रही थी और मैं हर दिन खुद को पहले से अधिक चालाक और खुर्राट महसूस करता. वरुन ने पहले ही चेता दिया था कि अपनी स्पेशल स्टोरीज़ की चर्चा किसी से भी मत करना चाहे वह कितना भी करीब हो.


नलिनी ने मेरे बाद ऑफि़स ज्वाइन किया था और आश्चर्यजनक रूप से बहुत तेज़ फैशन और लाइफ़स्टाइल कवर करते हुये पॉलिटिकल बीट तक पहुंच गयी थी. उसे कांग्रेस और दिल्ली यूनिवर्सिटी को कवर करने की ज़िम्मेदारी मिली थी और मुझे उसकी मदद करने की सीख. मैंने अपने तई हमेशा ही उसकी मदद करने की कोशिश की थी और हमारे बीच अच्छे संबंध विकसित हो रहे थे. वह भी मुझसे अच्छे से पेश आती थी.


बाबा की शादी हो चुकी थी और अब मुझे लगता था कि बाबा सीरीयस हो गये होंगे. सीरीयस हमारे लिये बाबा के संबंध में एक बहुलार्थी शब्द था जिसके अनेक अर्थ थे. जैसे बाबा अब छोटी-छोटी बातों को इश्यू बना कर मारपीट करने पर उतारू नहीं हो जाते होंगे, जैसे बाबा अब छोटी-छोटी बातों को हमारी तरह भूल जाते होंगे दिल से नहीं लगाते होंगे, जैसे बाबा की चिंताएं भी अब लौंडों लपाड़ों वाली न रह कर गृहस्थों वाली हो गयी होंगी और उसी हिसाब से उनका नज़रिया भी बदल गया होगा. मैंने रवि को एकाध बार फ़ोन किया तो बाबा के बारे में पूछने पर उसने सिर्फ़ इतना कहा कि उसकी बहुत दिनों से मुलाक़ात नहीं हुयी है. सभी अपनी ज़िंदगी में रमते जा रहे थे क्योंकि धीरे-धीरे सबकी उम्र का पारा तैंतीस को छू रहा था और ज़िम्मेदारियों के मुँह बढ़ते जा रहे थे.


मेरे चैनल और मेरी ज़िंदगी में जब वह हादसा हुआ तब मेरी उम्र तैंतीस हो चुकी थी और मैं अगले ही महीने एलआईसी की जीवन प्लस टाइप की कोई पॉलिसी लेकर अपना और अपनी पत्नी के साथ अपने होने वाले बच्चे का भविष्य भी सुरक्षित करना चाह रहा था. हम सब बहुत असुरक्षित लोग थे और हर समय असुरक्षा के बारे में ही सोचते रहते थे. हमारी असुरक्षा का आलम यह था कि जब मैं बनारस छुटि्टयों में घर आता और सुबह पांच से नौ वाली बिजली कटौती के तहत अगर किसी दिन सुबह छह बजे तक बिजली नहीं कटती तो मैं असुरक्षित हो जाता. मुझे लगता कि कुछ घण्टे अतिरिक्त बिजली देकर बिजली विभाग अगर पूरे दिन हमें बिजली से महरूम रख देगा तो मेरा क्या होगा. दिल्ली में मयूर विहार के अपने फ्लैट में रहते वक्त अगर एक दिन पानी दिन भर आ जाता तो मुझे लगने लगता कि अगले दिन पानी ही नहीं आयेगा और मैं घर में उपलब्ध सारे बर्तन, यहां तक कि चम्मच भी भर के पानी स्टोर कर लेता. सड़क पर चलता आदमी अगर तेज़ी से दौड़ता हुआ अगर मेरी तरफ़ आता तो मुझे लगता कि वह मेरा बटुआ और मेरा महंगा मोबाइल फ़ोन छीन सकता है. किसी को सब्ज़ी काटते देखता तो डर लगता कि कहीं उसकी अंगुली न कट जाय और दरवाज़ा बंद करके ऑफि़स के लिये निकलता तो नीचे से ऊपर वापस आकर चेक करता कि दरवाज़े में ताला अच्छी तरह बंद किया है. हमारे चैनल में, हमारे फील्ड में, और हमारे आसपास सभी ऐसे ही असुरक्षित आदमी थे. इसका कारण भी था. अगर आप मुझसे पूछें तो मैं ऐसा कोई स्पष्ट कारण तो नहीं बता पाउंगा लेकिन कारण ज़रूर थे. वे इतने आसान नहीं थे कि एक दो लाइनों में किसी को समझाये जा सकें. चीज़ें बहुत जटिल थीं और हमें लगता था कि दुनिया के दो हिस्से हो गये हैं. एक हिस्सा हमारे पक्ष में है तो दूसरा विरोध में. मैं एक शब्द कहूंगा ´ऑफि़स पॉलिटिक्स´ और आप पूरी बात समझे बिना ढेर सारी नसीहतों के पिटारे खोल बैठेंगे. लेकिन कोई शब्द होठों पर और काग़ज़ पर जितना आसान होता है उस शब्द को जीवन में जीना उतना ही कठिन.


मैंने एक स्टोरी पर डेढ़ महीने मेहनत की थी और वह भी बिना किसी को बताये. यह एक गोपनीय मुहिम थी जिसके बारे में सिर्फ़ मेरे कैमरामैन को मालूम था. यह कवरेज मेरे लिये मेरी अब तक की ज़िंदगी का और लगभग तीन साल की नौकरी का सबसे महत्वपूर्ण कदम साबित हो सकती थी. मैं आपको उस ऑपरेशन के बारे में ज़रूर बताता लेकिन चूंकि अब वह रिपोर्ट किल की जा चुकी है, मैं उस मंत्री का नाम लेकर अपने लिये मुसीबतें नहीं खड़ी करना चाहता. न तो मैं इतना हिम्मती कहानीकार हूं और न ही इतना बेख़ौफ़ पत्रकार. मैंने अपने बॉस को उस दिन बताया जब मुझे पूरा यक़ीन था कि सिर्फ़ दो या तीन दिनों में पूरी ख़बर अपने पास होगी. मेरा बॉस हर बॉस की तरह चमचागिरीपसंद इंसान था और हर बॉस की तरह चाहे जितने भी खराब मूड में रहता हो उसका मूड अपनी तारीफ़ सुनते ही ठीक हो जाता था. इन सब के बावजूद वह एक ठीकठाक हिम्मती पत्रकार था और उसने इस स्टोरी के लिये थोड़ा झिझकने के बाद हामी भर दी. मैं नहीं जानता था कि नलिनी को इस स्टोरी के बारे में पता चल चुका है. चीज़ें, जैसा कि मैंने बताया कि बहुत जटिल थीं और मैं सारी बातें आपको बताने में असमर्थ हूं, सिर्फ़ इतना ही कह सकता था कि चैनल का मालिक उस मंत्री का करीबी था और यह खबर मेरे मालिक के लिये इतने काम की हो सकती है कि मैं उस मंत्री के खिलाफ एक रिपोर्ट कर रहा हूं, मुझे कतई मालूम नहीं था. सब कुछ पता नहीं कैसे बहुत जल्दी-जल्दी हुआ था और मेरी वजह से, जी हां सिर्फ़ मेरी वजह से मेरे बॉस की पूरी तीस लोगों की टीम सड़क पर थी. कम से कम मेरे बॉस ने मुझ पर यही इल्ज़ाम लगाया था कि उसकी और उसकी टीम की नौकरी जाने का ज़िम्मेदार मैं हूं लेकिन मुझे बाद में पता चला कि एक समूह इस कोशिश में तब से मालिक के कान भर रहा था जब मैं उस चैनल में आया भी नहीं था. वरुन भी मुझसे नाराज़ रहा था और उसने बॉस का पक्ष लिया था. मैं समझ चुका था कि बॉस अपनी टीम को कहीं दूसरे चैनल में लेकर जायेगा तो वरुन को वहां ले जाये, इसलिये वरुन उसका पक्ष ले रहा है वरना वह मेरे बचपन का दोस्त था और मैं उसे अच्छी तरह पहचानता था.
हालांकि मेरा यह मुग़ालता भी तब टूटा जब वरुन ने मुझे अपना कमरा खाली करने को कहा. उसने बॉस के कहने पर उनके ख़ास मेरे एक कलीग को अपना रूममेट बनाना स्वीकार किया जो मेरी लाख कोशिशों के बावजूद बॉस को मुझसे ज़्यादा तेल लगा ही लेता था.


मैं टूट चुका था. दुनिया में मेरे लिये कुछ नहीं बचा था. मैं अब किसी के साथ बैठ कर फ्यूचर प्लानिंग भी नहीं कर सकता था क्योंकि मुझे वरुन और रवि के साथ ही इसकी आदत थी. रवि धंधे वाला हो गया था और वरुन तेल लगाने वाला. शारीरिक और मानसिक हर तरह के दबावों से मेरी तबियत खराब हो गयी. मेरे कैमरामैन दोस्त ने एक हफ्ते मुझे अपने घर में रखा और मेरी दवाई करवायी. घर से मां पापा और पत्नी के फोन आये कि मैं घर चला आऊं और वहीं कोई काम धंधा करूं. अगर चाहूं तो कुछ समय बाद वापस दिल्ली जाकर नौकरी ही खोजूं लेकिन फि़लहाल चला आऊं. मेरे दोस्त ने मेरा टिकट करा कर शिवगंगा में बिठा दिया. मैंने दिल्ली पर थूका तो नहीं लेकिन भरे दिन और नम आंखों से दिल्ली की ओर देखता रहा. मेरे लिये दिल्ली फिर से बहुत दूर हो गयी थी.


जब मैं बनारस पहुंचा तो मेरा बुखार तो कम हो गया था लेकिन मन बहुत थका हुआ था. मैंने रवि और बाबा को फोन कर दिया था और दोनों मुझे लेने कैण्ट आये थे. हमने स्टेशन पर ही पहले चाय पी और एक दूसरे का हाल पूछा. मैं जल्दी से जल्दी घर पहुंच जाना चाहता था. रवि ने बिल्कुल मैच्योर और दुनियादार इंसानों की तरह धीरे से मुझसे पूछा कि अगर मुझे कुछ पैसों की ज़रूरत हो तो मैं अभी बता दूं. उसने एक अच्छे दोस्त की तरह पूछा था लेकिन मुझे अच्छा नहीं लगा था. अगले दिन बाबा की शादी की पहली सालगिरह थी और हमने कल उनके घर ही शाम को मिलना तय किया. बाबा ने स्ट्रिक्टली कहा कि कोई इसकी जात की गिफ्ट लेकर नहीं आयेगा.
घर आने के बाद मैंने अपने पड़ोस के ही एक डॉक्टर को दिखाया. खाना खाकर मैंने उनकी दी हुयी दवाई खायी और सो गया. शाम को जब मैं उठा तो काफ़ी तरोताज़ा महसूस कर रहा था. पता नहीं यह मां के हाथ के खाने का असर था या पत्नी की बनायी हुयी चाय का, मुझे भीतर से बहुत बेहतर महसूस हो रहा था.


शाम सात बजे के आसपास हल्की फुहारें पड़ी और सड़कें धुल गयीं. पापा उसी समय ऑफिस से आये थे और मैं मां, पापा और पत्नी के साथ बैठ कर शाम की चाय पी रहा था कि बाबा का फ़ोन आया.
´´कैण्ट आ जाओ तुरंत थोड़ी देर के लिये.´´
मैंने बाबा को मना किया कि अभी एकदम मन नहीं कर रहा और थोड़ी कमज़ोरी भी लग रही है मगर बाबा नहीं माने.


´´सिर्फ़ पांच मिनट के लिये बे, बहुत अर्जेण्ट है.´´
मैंने बाबा से मिन्नतें की कि मुझे न बुलायें क्योंकि मेरा मन अभी कहीं निकलने को नहीं हो रहा और फिर मां पापा और पत्नी भी नाराज़ होंगे लेकिन बाबा ने मुझसे कहा कि बहुत ज़रूरी काम है और मैं अगर उन्हें अपना दोस्त मानता हूं तो ज़रूर आंऊ. मैंने इस तरह की बात बहुत लम्बे समय बाद सुनी थी. मैंने कपड़े पहने और थोड़ी देर में आने को कहकर घर से निकल गया. मैंने रवि को आने के लिये कहा तो उसने कहा कि उसे डीलर को पेमेण्ट देने जाना है और वह नहीं आ सकता.
कैण्ट पर यादवजी के अड्डे पर बाबा मेरा इंतज़ार कर रहे थे. बिल्कुल पीछे वाली मेज़ पर जहां हम अक्सर बैठा करते थे. मुझे देखते ही बाबा मुस्कराये तो मेरे भी होंठों पर मुस्कान आ गयी. यादव जी भी मुझे देखकर उस खुशी से मुस्कराये जो बहुत दिन बाद देखने पर छाती है.


´´साले क्या है तुम्हारा ज़रूरी काम ? देख रहे हो मौसम कैसा हुआ है और बेकार में दौड़ा दिये यहां तक ?´´ मैंने शिकायत दर्ज करायी और बेंच पर बैठ गया.
बाबा ने सिगरेट मेरी ओर बढ़ा दी और खुद बाहर निकल कर मेरे सामने खड़े हो गये. उनके चेहरे पर रहस्य भरी मुस्कराहट थी.
´´क्या....?´´ मैंने पूछा. बाबा के चेहरे के भावों से स्पष्ट था कि मैं कुछ ज़रूरी मिस कर रहा हूं.
´´देखो.....´´ बाबा फिर मुस्कराये.


´´क्या यार बताओ हमको नहीं समझ आ रहा कुछ.´´ मैं झल्ला गया. बाबा थोड़ा सकपका गये और मेरे थोड़ा पास आकर धीरे से बोले, ´´पठानी सूट सिलवाए हैं कल के लिये....सही है ?´´ मैंने बाबा को गौर से देखा. नीले रंग का टाइट फिटिंग में सिला पठानी सूट बाबा के पतले शरीर पर वाकई अच्छा लग रहा था. मैं उन्हें गौर से देखने लगा. मेरी आंखों के सामने हज़ारों हज़ार दृश्यों की आवाजाही होने लगी. हमारा बचपन, हमारी आवारागर्दियाँ और हमारा बड़े होना. हमारी दुनियादारी, हमारे सपने और उनका टूटना. हमारा भोलापन, हमारी मस्तियां और हमारी मतलबपरस्तियां. सब कुछ एक झटके में मेरी आंखों के सामने से गुज़र गया था. बाबा सामने खड़े इतने खुश थे जैसे इस वक़्त इससे बड़ा कोई मुद्दा कोई नहीं है. पता नहीं क्यों मेरा मन भर आया था. मैंने अपनी आंखों की नमी छिपाने की गरज़ से बाबा से पूछा, ´´दुकान कैसी चल रही है बाबा ?´´


´´अरे गांड़ मराने जाय दुकान. पहिले बताओ कइसा है ये...?´´
मैंने बाबा को बताया कि वह इन कपड़ों में वाकई बहुत अच्छे लग रहे हैं. वह थोड़ा पीछे गये और लगभग मेरे चेहरे के पास अपना जूता लाते हुये अपना पैर लहराने लगे.
´´इसी का सेट है. सही है कि नहीं.....?´´ जूता भी नया था और बाबा ने बाद में बताया था कि इसे नागरा कहा जाता है और यह पठानी सूट पर ही पहना जाता है.
´´बहुत सही है गुरू....बहुत सही.´´ न चाहते हुये भी मेरा गला पता नहीं क्यों भर्राया जा रहा था.
´´अबे दुकान का क्या है....चली नहीं रही है सही. खींचतान के काम हो रहा है. रविया सही कहता था, उस तरफ़ धंधा सही नहीं है इलेक्ट्रॉनिक आइटम का..... सोच रहे हैं इधरे दुकान डालें.....´´
बाबा इसके बाद मेरी नौकरी को लेकर कुछ बोलने लगे थे कि मुझे ज़्यादा सोचना नहीं चाहिये. पत्रकारिता करने के बाद आखिर उन्होंने भी बिजनेस शुरू किया ही है. इसमें कोई परेशान होने वाली बात नहीं है. मुझे बाबा की कोई बात सुनायी नहीं दे रही थी. मैं अचानक उठा और मैंने बाबा को गले लगा लिया. मेरी आंखें बह चली थीं जिसे छिपाने के लिये मैंने धीरे से शर्ट की बांह से उसे पोंछ लिया.


´´का हुआ बे....साले बहुत प्यार आ रहा है हमारे ऊपर....बीयर उअर झांट नहीं पिलाएंगे हम. इस समय पइसा नहीं है.´´ बाबा खुश थे. वह हमेशा से इतने ही एक्सप्रेसिव रहे थे.
``साले हम दिल्ली पर थूक के थोड़े भागे हैं.´´ मैंने बाबा की चुटकी ली. बाबा अचानक जोश में आ गये और मुझसे अलग होते हुये बोले, ´´गुरू, एकाक महीना जम के आराम करो और बहरी अलंग का मजा लो. एकदम रिफ्रेश होकर एकाक महीना बाद फिर निकलो दिल्ली साले को....´´ इसके बाद बाबा तुरंत प्लान बनाने में लग गये कि हर रविवार हम लोग सुबह पाँच बजे उठ के ओ पार रेती में चल के धूनी रमायी जाय और चउचक माचा-पानी करने के बाद दुपहरिया में खाना खाने के टाइम पर वापस आया जाय. बाबा हमारे प्लानिंग कमीशन के अध्यक्ष थे. वह बोलते जा रहे थे और मैं सिर्फ़ उनके चेहरे को देख रहा था जो दुनिया में सबसे प्यारा और अपना सा लग रहा था.
मैंने बताया कि आज घर जाने के बाद मैं बहुत लम्बे समय बाद एक कहानी लिखना शुरू करुंगा तो बाबा बहुत खुश हुये और यादवजी को एक राउंड और चाय भेजने का ऑर्डर दे दिया.


16/Post a Comment/Comments

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. बढ़िया रंग जमाया है विमल जी ने. एकदम जीवंत कहानी. बधाई कथाकार को और समालोचन को इतनी अच्छी प्रस्तुति के लिए.

    जवाब देंहटाएं
  2. kataha tatva me tazagi hai...sabvad chutile ar manorangak hote huye bhi her bat ko kholkar rakha dete hai.....lekin yeh samajh me nahi ata ki kya apsabdo ke prayog k bina koi rachana ho hi nahi sakati......ya hm duniya ko dikhana chahate hai ki hamare anchal me galiyo ke bina samvad hota hi nahi hai?

    जवाब देंहटाएं
  3. विमलेश त्रिपाठी5 अप्रैल 2012, 5:46:00 pm

    बाबवा के बारे में बहुत पहुले पढ़ा था। तो बड़ा इंटरेस्टिंग करेक्टर लगा था। विमल भइयवा बड़ा मन से लिखा है इ कहनिया। बाकि एगो बात हम कहेंगे कि एह कहानी में बाबा त महत्वपूर्ण हइए है, खुद कथाकार का जो जीवन संघरस है, वह भी लऊकाई देता है। पर साल में इ कहानी हम पढ़े थे, विमले भाई के सौजन्य से। फिर उनकरा से बातो हुआ रहा। फेरू इ कहानी पढ़ि के बड़ा बढ़िमा लगा... हम बधाई दे रहे हैं प्रिय भाई विमल जी को... निरंतर सर्जनशील रहसु...आ खूब बढ़िया लिखसू....

    जवाब देंहटाएं
  4. ई त विमल भईया बहुत पहिले हमरे मेल में चफनाये रहे, तब्बे क पढल हई.....लूट लेला महराज.

    बेनामी भई, कथा जिस लोकेल में घटित हो रही है, उस हिसाब से विमल नें बहुत कम गालियों का इस्तमाल किया है, यानि वे एक सेल्फ-सेंसरशिप की रचना कर रहे हैं. हिन्दी कहानी का जो दौर चल रहा है, उसमें यह कहानी फालतू के दिखावे से तो बहुत ऊपर है. इसे उत्सव-गत करना चाहिए.

    विमल भाई...शुभकामनाएं.

    जवाब देंहटाएं
  5. राजेश ओझा5 अप्रैल 2012, 8:47:00 pm

    फाड़ कर रख दिया गुरू तुमने...पढ़ कर मन हरियरा गया...बहुत लंबे इंतज़ार के बाद इतना बढ़िया रिफ्रेशमेंट...मज़ा आ गया...

    जवाब देंहटाएं
  6. सचमुच कहानी जीवंत माहौल रचती है. क्या यह आज की कहानी है? इसे पढ़कर मुझे चालीस साल पहले धूमिल और काशीनाथ के साथ अस्सी में की गयी मस्ती याद आ गयी. एकदम इसी तरह का अंदाज़ हुआ करता था धूमिल की बातों में. बाद में यह अपने ढंग से आगे बढ़ा ज्ञान रंजन और वीरेन डंगवाल में. मैं उम्मीद कर रहा था, यह कहानी उन लोगों का विस्तार होगी. कहानी अच्छी है, मुझे लगता है, इस सन्दर्भ में 'समालोचक' में ही हाल में छपी प्रभात रंजन की उस बेहतरीन कहानी को पढ़ा जाना चाहिए जो एक पत्रकार के संघर्ष पर ही केन्द्रित है और अपनी बात पूरे प्रभाव के साथ कहती है.

    जवाब देंहटाएं
  7. एक पुरे समय और समाज को रचती है यह कहानी ...| ..भाषा और कहने का अंदाज एकदम अनूठा .....बधाई मित्र आपको ..

    जवाब देंहटाएं
  8. Vimal ji , kahani achchhi lagi. samalochan sahity jagat se jodne ka kaam kar raha hai. pathakon ko achchhi samgri milti rahe . is sashakt kahani ke liye kathakar aur Arun ko badhai!

    जवाब देंहटाएं
  9. सभी मित्रों का बहुत शुक्रिया, बेनामी जी, जिस अंचल और माहौल की ये कहानी है वहाँ मैंने बहुत कंजूसी से काम चलाया है, आप लमही के कहानी विशेषांक में आने वाली मेरी कहानी देखिएगा अगर मौका मिले तो आपकी शिकायत शायद दूर हो जाए, वहाँ गालियों की ज़रूरत नहीं थी और एक भी गाली नहीं आई है, सबका आभार

    जवाब देंहटाएं
  10. क्या बात है भाई जी ..यादैं ताजा है गयी। संयोग से इसमे से कई घटनाओं का चश्मदीद रहने का मौका हमें भी मिला है..

    जवाब देंहटाएं
  11. Vimal Congrats for your story.... Es kahani me Anuj ki Jiwatta aur writer ka dard ka jabardast Ahsas hota hai...

    जवाब देंहटाएं
  12. विमल, बनारसी ज़िंदगी के कुछ नायब पलों को बड़ी सादगी से, बिलकुल बनारसी ढंग में पेश करने की बधाई. एक आम मध्यमवर्गीय नवयुवक की असुरक्षा..... बहुत अच्छी लगी. मैं इसे पढते हुए सोच रहा था कि अगर इसे सेल्युलोयेड पर उतरा जाये तो कैसा लगे!!!! बहुत सुन्दर......

    जवाब देंहटाएं
  13. विमल तुम्हारे पास ग़जब के अनुभव हैं...परिवेश है और बहुत रचनात्मक भाषा है. भाषा भी वो जो विपथगा नदी सी...जो तट छुआ वहीं की.....

    जवाब देंहटाएं
  14. सबका बहुत शुक्रिया. अमृत सर सेल्युलाइड के लिए तो नहीं सोचा क्योंकि बहुत देसी है :-) मनीषा जी: शुक्रिया, जानती हैं मैं हमेशा से चाहता था की लिखते हुए कभी मेरी ना कोई शैली तय हो और ना कोई भाषा जिसे पढ़ के कोई बता सके कि ये मेरी भाषा है, जैसी कहानी वैसी भाषा

    जवाब देंहटाएं
  15. विमल जी बहुत ही अच्छी कहानी लिखी है। जिस दोस्त की सहजता और साधारणता पर हम शुरू से मजे ले रहे थे अंत में पता चलता है कि इस दुनियादारी वाले समय में वही एक सच्चा मित्र बनकर उभरता है। और रही बात समझदार दोस्तों की तो वे हर जगह अपनी समझदारी ही दिखाते रह जाते है। दूसरों की भावनाओं से उन्हें रत्तीभर भी लेना देना नहीं होता है। बाबा की तरह ही एक शख्स को मैं भी जानती हूं। आज जब सभी लोग अपनी-अपनी दुनिया में रम गए हैं तो वे ही हमेशा सबका हाल बताते हैं।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.