सहजि सहजि गुन रमैं : रंजना जायसवाल

क्यों लिखती हूँ मैं              
रंजना जायसवाल

हर रचनाकार की एक आकांक्षा होती है. सामान्य लोगों की तरह दुनियावी आकांक्षा नहीं. वह आकांक्षा है - रेगिस्तान में फूल खिलाने की ...एक ऐसे घर की, जिसमें अब तक कोई नहीं रहा ...एक आदर्श की, जो कभी तृप्त नहीं होती .उसी आकांक्षा को रचनाकार अपनी रचना में अपनी अनुभूतियों और संवेदनाओं के सहारे साकार करना चाहता है. उसकी यात्रा अनवरत जारी रहती है. वह कभी संतुष्ट नहीं होता, निश्चिन्त नहीं होता क्योंकि उसकी आकांक्षा पूरी होती नजर नहीं आती. सच कहूँ तो पूरा जीवन वह एक ही रचना को पूर्ण करने में गुजार देता है और गुजर कर भी पूरा नहीं कर पाता.

रचनाकारों में भिन्नता अनुभूति व सम्वेदना के स्तर को लेकर हो सकती है,पर आकांक्षा के स्तर पर उनमें कोई भेद नहीं होता. आदिकवि वाल्मीकि से लेकर आज तक का रचनाकार उसी आकांक्षा की एक कड़ी है. मैं भी.

कविता मेरे लिए जीवन-तत्व है. हथियार है. संसार में व्याप्त असमानता, विभेद, नफरत व राजतन्त्र के खिलाफ लड़ने का एकमात्र हथियार. शोषण-मुक्त समाज-संसार बनाने हेतु मैं भी लड़ रही हूँ. मैं जान-बूझकर सरल कविताएँ लिखती हूँ. कठिन जीवन को सरल बनाने के लिए सरल कविताएँ जरूरी हैं. मेरी कविता का उद्देश्य लोगों में मर रही संवेदना को जीवन प्रदान करना है, उसे झकझोर कर जगाना है. ना कि कठिन शब्दों व प्रतीकों के जाल में फंसाकर मात्र कुछ बुद्धजीवियों को बौद्धिक-विलास मात्र करवाना. आम-जन की कविताएँ उन्हीं की सरल भाषा में उन तक पहुंचानी चाहती हूँ क्योंकि मैं भी उन्हीं में से एक हूँ.

यह सच है कि स्त्री मेरी कविताओं का मुख्य विषय है क्योंकि सदियों से इतिहास के हजारों अन्याय सहने वाली स्त्री आज भी महज तीसरी दुनिया है. आज भी उसको दोयम दर्जे का समझा जाता है. साहित्य-संस्कृति में उसके विचारों को या तो उधार का माना जाता है या फिर बकवास. पुरूष-सत्ता आज भी स्त्री को देह से ऊपर नहीं देख पा रही है. स्त्री की बुद्धि पर भरोसा बड़े-बड़े नामवर लेखकों तक को नहीं है. उसके लेखन को भी संदेह की नजर से देखा जाता है.

ऐसे में स्त्री होने के नाते स्त्रियों की आवाज बनना जरूरी लगता है मुझे. आखिर कब तक 'स्त्री की चाहत' की पुरूष मनमानी व्याख्याएं करते रहेंगे? जिस दिन स्त्री को पुरूष-सत्ता अपने समान मानवीय अधिकार दे देगी, उसदिन स्त्री-विमर्शकी जरूरत नहीं रहेगी. वैसे भी स्त्री विमर्श को मानवीय-विमर्शकहना मुझे ज्यादा उपयुक्त लगता है.

पेंटिंग :  सनातन साहा



अजीब


जब मैंने तुम्हें पिता कहा
हँस पड़े तुम
मजाक मानकर
जबकि यह सच था
तब से आज तक का सच 

जब पहली बार मिले थे हम 
तुम्हारा कद ..चेहरा
बोली –बानी
रहन –सहन
सब कुछ अलग था पिता से
फिर भी जाने क्यों
तुम्हारी दृष्टि
हँसी
स्पर्श
और चिंता में
पिता दिखे मुझे

मेले में तुम्हारी अंगुली पकड़े
निश्चिन्त घूमती रही मैं
पूरी करवाती रही अपनी जिद
मचलती-रूठती
तुरत मान जाती रही
तुम निहाल भाव से
मुझे देखते और मुस्कराते रहे

मैंने यह कभी नहीं सोचा
कि क्या सोचते हो तुम मेरे बारे में
तुमने भी नहीं चाहा जानना
कि किस भाव से इतनी करीब हूँ मैं
आज जब तुमने कहा मुझे ‘प्रिया’
मैंने झटक दिया तुम्हारा हाथ
कि कैसे कर सकता है पिता
अपनी ही पुत्री से प्यार !

मैं आहत थी उस बच्ची की तरह
जिसने पढ़ लिया हो
पिता की आँखों में कुविचार
नाराज हो तुम भी
कि समवयस्क कैसे हो सकता है पिता
कर सकता है इतना प्यार
एक कल्पित रिश्ते को
निभा सकता है आजीवन
तुम जा रहे हो मुझसे दूर
मैं दुखी हूँ
तुम्हारा जाना पिता का जाना है
जैसे आना
पिता का आना था .

चाची

ब्याह के आईं तो लाल गुलाब थीं
जल्द ही पीला कनेर हो गयीं चाची
घर भर को पसंद था
उनके हाथ का सुस्वाद भोजन
कड़ाई –बुनाई –सिलाई
सलीका –तरीका
बोली –बानी
बात –व्यवहार

नापसंद कि दहेज कम लाई थी चाची
जाड़े की रात में ठंडे पानी से नहातीं
झीनी साड़ी पहनतीं
गूंज रहे होते जब कमरे में
चाचा के खर्राटे
बेचैनी से बरामदे में टहलतीं
जाने किस आग में जलतीं थीं चाची

चाचा जब गए विदेश
एक हरा आदमी उनसे मिलने आया
"बचपन का साथी है" _कहकर जब वे मुस्कुराईं
मुझे बिहारी की नायिका नजर आईं चाची
उस दिन से चाची हरी होती गयीं
दोनों सुग्गा-सुग्गी बन गए

पर जिस दिन लौटे चाचा
नीली नजर आईं चाची
सोचती हूँ _काश ,मैं दे सकती पंख
खोल सकती खिड़की-दरवाजे
उड़ा सकती सुग्गी को सुग्गे के पास


मेरा मरद
  
र्मैं फसल उगाती हूँ
वह  खा जाता है 
चुनती हूँ लकड़ियाँ
वह ताप लेता है
मैं तिनका तिनका बनाती हूँ घर
वह गृह स्वामी कहलाता है


उसे चाहिए बिना श्रम किये सब कुछ

मैं सहती जाती हूँ
जानती हूँ
ऐसे समाज में रहती हूँ
जहाँ अकेली स्त्री को
बदचलन साबित करना
सबसे आसान काम है
और यह बात मेरा मरद
अच्छी तरह जानता है .

साईनबोर्ड

मूछें आगे हैं
घूंघट पीछे
प्रधानी चुनाव के लिए
दाखिले का दिन है
मूंछें प्रचार कर रहीं हैं
हाथ जोड़े खड़ा है घूंघट
हर गाँव में यही हाल है

परम्परावादी हैरान
घर की इज्जत यूं चौपाल पर
प्रगतिशील परेशान
ऐसी प्रगति अचानक!
मूंछें तो वही हैं सदियों पुरानी
मर्दों की आन-बान-शान
छीन रखा है जिन्होंनें
औरत का चेहरा घूंघट के नाम

मूंछें बदलीं नहीं हैं
समय के हिसाब से बदल लिया है बस
आकार-प्रकार
आचार-विचार
बोली-व्यवहार
काबिज रहने का यह नया तरीका है

घूंघट इस बात से अनजान है
मूंछें नाच रहीं हैं
जीता है घूंघट
उत्सव का माहौल है
बंट रही हैं मिठाईयां
ले-देकर घूंघट भी खुश है
घूंघट घर में चूल्हा जला रहा है
मूंछें चौपाल में जश्न मना रहीं हैं
सामने खुली पड़ी हैं बोतलें
देर रात डगमगातीं घर लौटी हैं मूछें
घूंघट को सोता देख चिल्लाईं हैं
थरथराता घूंघट अब जमीन पर है
सीने पर सवार हैं मूंछें
बाहर साइनबोर्डों पर
घूँघट सवार है .

महरी

भयंकर सर्दी है
छाया है कुहासा
अँधेरा है
पसरा है सन्नाटा चारों ओर
हो चुकी है सुबह जाने कब की
झल्ला रही है गृहिणी
नहीं आई अभी तक महरी
करना पड़ेगा उठकर
इस ठंडी में काम
मनबढ़ हो गए हैं ये छोटे लोग
चढ़ गया है बहुत दिमाग
जब से मिला है आरक्षण


सो रही होगी पियक्कड़ मर्द के साथ गरमाकर
तभी तो बियाती है हर साल .’
कालोनी के हर घर में
वही झल्लाहट है ..कोसना है
जहाँ-जहाँ करती है महरी काम


किसी के मन नहीं आ रहा
कि महरी भी है हाड़-मांस की इन्सान
उसके भी होंगे कुछ अरमान
मन भाया होगा देर तक रजाई में लेटना
सर्दी से मन जरा अलसाया होगा


हो सकता है आ गया हो उसे बुखार
या किसी बच्चे की हो तबियत खराब


गृहणियों को अपनी – अपनी पड़ी है
काम के डर से उनकी नानी मरी है


निश्चिन्त हूँ कि नहीं आती मेरे घर कोई महरी
घर की महरी खुद हूँ
हालाँकि इस वजह से पड़ोसिनों से
थोड़ी छोटी है मेरी नाक
सोचती हूँ कई बार

वल्दियत

इन बच्चियों की वल्दियत क्या है ?
आखिर इन बच्चियों की वल्दियत क्या है?
जो रेलवे प्लेटफार्म के किन्हीं अँधेरे कोनों में
पैदा होती हैं
और किशोर होने से पहले ही
औरत बना दी जाती हैं .
जो दिन भर कचरा बीनती हैं
और शाम को नुक्कड़ों...चौराहों के
अंधरे कोनों में ग्राहकों का
इंतजार करती हैं .
जो पूरी तरह युवा होने से पहले ही
अपनी माँ की तरह
यतीम औलादें पैदा करती हैं .
जो समय से पहले ही असाध्य रोगों से
ग्रस्त हो एड़ियाँ रगड़कर मर जाती हैं
कोई तो बता दे मुझे
इन बच्चियों की वल्दियत क्या है ?
  
मेरा बेटा

मेरा बेटा
जो कुछ दिन पूर्व ही
उछला करता था
गर्भ में मेरे
और मैं मोज़े के साथ
सपने बुना करता थी

मेरा बेटा
जब पहली बार माँ बोला था
मैं जा पहुंची थी
कुछ क्षण ईश्वर के समकक्ष

मेरा बेटा
जब पहली बार घुटनों चला था
मैंने जतन से बचाए रूपये
बाँट दिए थे ग़रीबों में

मेरा बेटा
जब पार्क की हरी घास पर
बैठकर मुस्कुराता था
मुझे दीखते थे
मंदिर ..मस्जिद ..गुरुद्वारे

मेरा बेटा
जब पहली बार स्कूल गया
उसके लौटने तक
मैं खड़ी रही
भूखी-प्यासी द्वार पर

मेरा बेटा
जब दूल्हा बना
सौंप दिया स्वामित्व मैनें
उसकी दुल्हन के हाथ

मेरा बेटा
जब पिता बना
पा लिया उसका बचपन
एक बार फिर मैनें

और आज
मेरा वही बेटा
झल्लाता है
चिल्लाता है


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  1. ओह!! कितनी सच्चाई है इन सीधी-सादी कविताओं में ! अगर कविता का कोई प्रभावी स्वर है तो वह यही होना चाहिए ! रंजना जी को दिल से बधाई और अरुण जी का आभार !

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  2. रंजना जी की कविताएँ जीवन की कविताएँ हैं .. रोजमर्रा को कहती .. भाषा की सादगी आकर्षित करती है . आपको बधाई .

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  3. बढ़िया कविता. रंजना जी को पढना एक अनुभव है क्योंकि इनकी कवितायें जीवन से जुडी होती हैं....

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  4. साधारण बातों की असाधारण कविताएं।
    रंजना जी को बधाई और अरुण जी का आभार।

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  5. लगा अपने ही जीवन के आस-पास के पन्ने पलट रही हूँ. छूत,शोषण, गन्दी राजनीति से ग्रस्त पुरुष-प्रधान समाज, घर घर की अनकही कहानी को पृष्ठभूमि पर लाती हुई अपनी-सी कवितायें. रंजना जी को बधाई

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  6. कवयित्री रंजना जायसवाल जी.,
    मैने आपकी "अजीब" से लेकर सारी प्रकाशित कविताये देखी ,एक दम सरल और सहज शब्दो मे धर्म पिता, मुछो वाला,...जैसे माँ, बेटा इ्त्यादि इत्यादि
    जैसे चरित्रो से समाज मे व्याप्त सम्बन्धो व मानवीय, कुत्सित यौन विकॄतियो को अत्यंत कौशल, एवं प्रभाव कारी बिम्बो से चित्रित किया है ,आपकी कविता मे मन को गुदगुदाने वाले आकर्षक भाव है ,जो पाठक की सुरुचि ,पुर्ण कविता पढने को विवश कर देती है ।धन्यवाद ,आप और अच्छा लिखे ,।

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  7. सभी मित्रों को टिप्पड़ी के लिए शुक्रिया

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