सहजि सहजि गुन रमैं :: राकेश श्रीमाल














मुंबई में अपने चित्रकार मित्रों के साथ  राकेश श्रीमाल (left)
बुखार के एकांत से
राकेश श्रीमाल

पिछले समूचे वर्ष मेरी तबियत एकाधिक बार असहज हुई. बुखार से नहीं, अन्‍य कारणों से. मैं बुखार को बडी शिद्दत से याद करता रहा. मुझे लगता रहा है कि व्‍यक्ति जैसे-जैसे उम्रदराज होता जाता है, वह अपने व्‍यक्ति होने के अदिम अकेलेपन को व्‍यापक रूप से बुखार के एकांत में अनुभव करने लगता है. इसी अनुभव को अपने तईं गहरे से आत्‍मसात करने के लिए मैं पिछले वर्ष बुखार का इंतजार करता रहा. लेकिन जिद्दी और लगभग नखरेला बन बुखार मेरे पास नहीं आया. लेकिन जब नया वर्ष शुरू हुआ तो किसी बहुत पुराने मित्र की तरह नए वर्ष की बधाई देने बुखार अचानक आकर मेरे गले लग गया. मैं क्‍या करता..... मैंने उसका स्‍वागत किया. कुछ दिन वह मेरे साथ ही रहा. बुखार मेरी देह में वास करते हुए मुझसे बेरोक-टोक बतियाता रहा. उसी बतकही को उसी दौरान बीच-बीच में मैंने कागज पर उतार लिया. कविता के अनभे सांचे में ढले ये शब्‍द मुझे बुखार जैसा ही प्रीतीकर लग रहे हैं.  

 इतना सा बुखार 

एक
 
‘‘पता है
यह कविताओं का बुखार है
लिख लीजीए
उतर जाएगा’’

पर यह नहीं बताया तुमने
कितने तापमान की
कैसी और कितनी कविताएं

इत्र बनाने वाले एक दूर गांव में
गोलियॉं मिलती हैं बुखार की
लाल
पीली
हरी
यकीनन नीली भी

नब्‍ज टटोलकर बताता है वैद्य
कितनी खुराक लेना है
सुबह
दोपहर
और सोने से पहले
तब नींद में तो
अकेला हो जाता होगा बुखार भी

अपने सपने में बुखार
दूर से तुम्‍हें छूता होगा
दूर से ही सिहर जाती होगी तुम

रातरानी की खुशबू
बात करती होगी
नींद में खोए अकेले बुखार से

तुम्‍हारे लगाए सारे फूल
एकजुट हो जलते होंगे रातरानी से

अपने संगी साथियों से बेखबर
अपनी ही लय में रातरानी
घुलती रहती होगी बुखार में

कौन समझाए बूढ़े वैद्य को
अब कैसे जाएगा बुखार
देर रात तक बतकही करता रहता है
वह रातरानी से

अपनी सुध-बुध खो
रातरानी भी
सो जाती है बुखार की देह में
कभी ना उठने की इच्‍छा लिए

व्‍यर्थ हैं सारी दवाईयां
निरर्थक हैं कविताएं भी
अकेली देह के बुखार में
बस गया है जीवन का अनंत निराकार
एक दूसरे की फिक्र करते हुए
एक दूसरे का हाथ थामे हुए
कभी विलग ना होने की चाह लिए.

दो

किसी का नहीं होता बुखार
हमेशा हमेशा के लिए
जैसे पूर्णिमा
टिटहरी का बोलना
पानी की अपनी लयकारी

जब भी आता है वह
चला जाता है
प्रेम करके थोड़ा सा

थपथपाता है देह को
घूम लेता है पूरे शरीर में
अपने निकट ले आता है
अपने से ही

अपने संकोच में
गुम भी होता रहता है
बीच-बीच में

याद दिला देता है
मां के सिरहाने लेटने की
पिता के फिक्र की
मित्रों की मिजाज पूर्सी की

चला जाता है फिर 
बिना बताए
खाली हाथ लिए.

तीन

‘‘मुझे भी बुखार हो गया’’ 
तुमने जब बताया
मैंने यही सोचा
यह मिलीभगत है
वे रहना चाहते हैं साथ
मैंने कहा -  रहने दो

अंतत:
बुखार का भी होता होगा मन
दूर-दूर रहते हुए
साथ-साथ होने का.

चार

बुखार में रहते हुए
देखी तुमने बारिश
यहाँ भीग गया मेरा बुखार

कहने लगा मुझसे
‘‘बुखार में बारिश देखोगे’’ 
मैंने कहा- बारिश देख रही हैं जो आँखें
मुझे उन आँखों को देखने दो.

पांच

बुखार आता है
मूंग दाल की खिचडी के साथ
थोडा स्‍वाद लेने हरी मिर्ची का

शयन करता है चुपचाप
हमारी अपनी नींद के साथ

हमारे सपने से अलग
देखता है अपना अलग सपना भी
जान जाता है
कैसा होगा
आने वाला कल हमारा

चुहलबाजी करता रहता है
हमारी अपनी इच्‍छाओं से

हिम्‍मत भी बंधाता है
यह कहते हुए
 ‘‘सचमुच कोई प्रेम करता है हमें’’

छह

पसीने से निकलती रहती है शरीर की गंध
कपड़े भी नम हो जाते हैं
वैसे ही
जैसे लगातार चंद्रमा देखने पर
नम हो जाती हैं तुम्‍हारी आँखें

तब थोड़ी देर के लिए
तुम चंद्रमा से आँखों का बुखार लिए
चंद्रमा से प्रेम करने लगती हो

इतनी दूर अपने बुखार में लेटा हुआ
मैं चंद्रमा से कहता हूं
‘‘तुम्‍हारे पास ही रहा करे’’

सात

जाते-जाते
यह कभी नहीं बताता बुखार
कब आएगा वह वापस

दूर खड़े रहकर
अपनी मुस्‍कराहट में
यही सोचता है केवल
‘‘मैं तो तुम्‍हारा प्रेम तुम्‍हें देने आया था
हो सके तो, संभालकर रखना इसे’’ 


राकेश श्रीमाल की कुछ कविताएँ यहाँ भी हैं.

7/Post a Comment/Comments

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  1. "अपने सपने में बुखार/ दूर से तुम्‍हें छूता होगा/ दूर से ही सिहर जाती होगी तुम" इस उक्ति ने देर तक बांधे रखा, यों सभी काव्‍य-बंध अच्‍छे हैं, चकित हूं - बुखार इतना काव्‍यमय भी बना देता है। फिर भी दुआ करता हूं कि आपको या किसी को भी बुखार के संग न रहना पड़े।

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  2. Didn't know being ill could be so poetic :) !

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  3. बुखार पर भी कोई कविता हो सकती है या बुखार को भी इतना सहजता से लेकर उसमें भी कविता घटीत हो सकती है क्‍या बात है ......

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  4. श्रीकांत वर्मा की एक कविता का शीर्षक ही है -'बुखार में कविता'...! यह पोस्ट भी कविता-सा है ..!

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  5. इन कविताओं को पढ़कर तो कोई भी बुखार का स्वागत करेगा ..
    सुंदर कविताएँ हैं ..सहज बुखार की सहज कविताएँ ..

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  6. शरीर का विकार बुखार लाता है, मन का विकार लेखन!

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  7. जाते-जाते
    यह कभी नहीं बताता बुखार
    कब आएगा वह वापस

    दूर खड़े रहकर
    अपनी मुस्‍कराहट में
    यही सोचता है केवल
    ‘‘मैं तो तुम्‍हारा प्रेम तुम्‍हें देने आया था
    हो सके तो, संभालकर रखना इसे’’

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