सबद भेद : इरोम शर्मिला : राकेश श्रीमाल







इरोम शर्मिला के अन्न-जल त्याग की अवधि इस नवम्बर में ११ साल की होने जा रही है. अब वह राज्य की हिंसा के खिलाफ जन आंदोलनों की प्रतीक हैं. खुद कवयित्री हैं और उन पर विश्व भर से कविताएँ लिखी जा रही हैं.

राकेश श्रीमाल ने मणिपुर की संस्कृति के बीच इरोम को देखा है. सभ्यता के सातत्य में इरोम के लौह-संघर्ष को रख कर परखा है. गहरे जुड़ाव और तथ्यों के साथ इसे लिखा गया है. एक जरूरी पाठ. साथ में इरोम पर लिखी उनकी पांच कविताएँ भी दी जा रही हैं.


तुम्‍हें शर्मिन्‍दा नहीं होना है शांति की देवीशर्मिला                            
राकेश श्रीमाल 


देह को मैंने अपने इस जीवन में कई दृष्टिकोणों से देखा-समझा है. खुद की देह से अनुभूत होकर और दूसरे की देह के माध्‍यम से. मुझे अक्‍सर अपनी देह से कम, दूसरों की देह से अधिक बहुआयामी अनुभव-अर्थ मिले हैं. मुझे इसीलिए रूपंकर कला की अपेक्षा प्रदर्शनकारी कलाओं में गहरी रूचि रही है. कथक मेरा सबसे प्रिय नृत्‍य है. लखनऊ घराने के लच्‍छू महाराज (बिरजू महाराज के चाचा) के साथ तबला संगत करने वाले उस्‍ताद आफाक हुसैन की महफिलों में लखनऊ कथक घराने पर कई सारी शामें कथक की इसी दुनिया के वैचारिक भ्रमण पर गुजारी हैं. मेरी कविताओं में अगर कहीं सौन्‍दर्य होता है तो वह बेशक कथक के ही समय-असमय अनुभूत हुए प्रभाव-प्रवाह ही हैं. कथक की अपनी अमूर्तता की तरह कविता का अमूर्त भाव मुझे सबसे अधिक खींचता है. दमयंती जोशी और सितारा देवी मेरी अपनी मनपसंद देह-उपस्थिति रही हैं. इन दोनों वरिष्‍ठ नृत्‍यांगनाओं के साथ कई बैठकों में हुई लंबी-लंबी औपचारिक-अनौपचारिक बातचीत मेरे अनुभव संसार का दुर्लभ खजाना है.

देह को लेकर गरिमामय सम्‍मान सहित धैर्य हमेशा मेरा संगी रहा है. अस्‍ताद देबू की अमूर्त नृत्‍य-संरचनाओं से लेकर कोलकाता के पेन्‍टोमाइम आर्टिस्‍ट निरंजन गोस्‍वामी और चंद्रलेखा की देह-शोध पर आधारित नृत्‍य प्रस्‍तुतियों को देखना-समझना मेरे अपने जीवन का वैभव रहा है. सौभाग्‍य से इस मामले में मैंने अपने आप को कभी निर्धन नहीं समझा. ब.व.कारंत, फ्रिट्ज बेनेविट्स और अलखनंदन के रंग-निर्देशन में मुझे आंगिक पक्ष सबसे प्रिय रहा है. इस दुनिया का सारा वजूद, उसका इतिहास और उसकी समकालीन उपस्थिति मुझे इसी देह में बंधी दिखती है. विचारधाराओं, क्रांतियों और दौर-बदलाव को मैं इसी देह की उपज समझता हूं. अपने इसी यथार्थवादी भ्रम से मुझे सुख भी मिलता है.

मेरे लिए देह अपने आकार से अधिक निराकार में बसती है. यही देह मेरे लिए कभी शब्‍दों में ठिठकी खडी रहती है, कभी अपने आंगिक-वाचिक अभिनय में, तो कभी बेहद उल्‍लसित हो नृत्‍य-मुद्राओं में. तितली की देह तो मुझे जादू की तरह ही लगती रही है. किसी एक्‍वेरियम में मछलियों को देखते हुए मुझे देह की शास्‍त्रीय लयकारी से हर बार नया मृदुल परिचय मिलता रहा है. पूर्णिमा के बाद अपने ही आकार में मंथर गति से सकुचाती चंद्रमा की देह आज भी मेरे नितांत निजी अकेलेपन को अपने साथ बांटने में ना-नुकुर नहीं करती.

गांधी ने अपनी देह पर जितना प्रयोग किया है, क्‍या आज वैसा कोई करने का सोच सकता है.....मेरे अपने ही पास इसका उत्‍तर हाँमें है. इस 5 नवंबर 2011 को इस आत्‍म प्रयोग के लंबे 11 बरस पूरे हो रहे हैं. इरोम शर्मिला नामक वह अकेली देह अपने साथ जो प्रयोग कर रही है, वह अचम्भित कर देने वाला है. इरोम शर्मिला ने ये साबित कर दिया है कि एक अकेली देह किस तरह व्‍यापक जनसमाज की, उसकी संस्‍कृति की और उसकी अस्मिता की मूक अभिव्‍यक्ति बन सकती है. 21 वी सदी का यह समूचा शैशव अपने दिक्-काल की उस अविस्‍मरित कर देने वाली नृत्‍य-शिराओं को इरोम की देह में स्‍पंदित कर रहा है. इरोम की देह नैसर्गिक संपदा से भरी मणिपुर की जमीन बन गई है. उसी जमीन पर मणिपुर अपनी भोली-भाली और मातृभूमि से प्रेम करती जीवन की गति को बचाने में लगा हुआ है.

इतिहास बताता है कि लाइमा लाइस्‍ना ने अपने पूर्ववर्ती राजा-रानियों की तरह मणिपुर में अपना राज्‍य स्‍थापित किया था. लाइमा और उनके भाई चिंगखुंग पौइरेथौन अपने स्‍वजातीय समुदाय के साथ पूरब के एक भूमिगत इलाके से आये थे. यह पौइरेथौन मणिपुर में अपने साथ पहली बार अग्निलाए थे. वह अग्नि विषम परिस्थितियों में आज भी इंफाल घाटी के गांव आंद्रो में प्रज्‍जवलित है.

अग्नि के अपने चारित्रिक गुणों को चकमा देती इसी अग्नि की एक नन्‍हीं लौ इरोम शर्मिला की समूची देह में अपनी नीरवता के साथ उपस्थित है. अपने होने की तरफ ध्‍यान देने का विनम्र आग्रह करती हुई. अपनी बित्‍ते भर की रोशनी के चलते दुनिया-जहान को यह संदेश फैलाती हुई कि भरी-पूरी शांत जीवन शैली के साथ अमानवीयता हो रही है. भूमंडलीकरण में सिमट चुके ओर नित-नई तकनीकी से अपने आपको गर्वित करते समय में एक अकेली देह एक बडी लड़ाई लड रही है. उसकी देह में बसी जीभ की स्‍वाद ग्रंथि भी अपने कर्तव्‍य से निष्क्रिय होकर इस लड़ाई का दिशा-निर्देश कर रही है. उसकी देह की देखने की शक्ति ने तितलियों, हरी-भरी जलवायु और अपनी मातृभूमि के विशाल प्राकृतिक वैभव को देखे जाने की सहज इच्‍छा को फिलहाल बेरहमी से ठुकरा दिया है. ग्‍यारह वर्ष पहले का देखा हुआ संचित दृश्‍य-अनुभव ही उस देह की स्‍मृति में किसी बावली उपस्थिति बनकर वास करता है. स्‍त्री देह की प्रकृति का अपना मौसम, अपनी इच्‍छाएं और अपना ही नियंत्रण होता है. लेकिन उस अकेली देह में जिद से भरा एक तपस्‍या जैसा पवित्र नियंत्रण ही शेष बचा है. अपने जन-समाज की समवेत सहज जायज इच्‍छाओं को अपने में समेटे. इसे अन्‍ना हजारे के संक्षिप्‍त अनशन से तुलना करना नाइंसाफी होगा. अपने गहरे और गहन अर्थों में यह अन्‍न-जल त्‍याग का अनशन मात्र नहीं है. यह एक देह का आत्‍मीय उत्‍सर्ग है, अपनी इसी क्षणभंगुर देह के अध्‍यात्‍म के सहारे किया जा रहा पवित्र संघर्ष है. यह मणिपुर का समकालीन स्‍त्री युध्‍द है. स्‍त्री युध्‍द को मणिपुर में नूपीलोनकहा जाता है. वहां दो नूपीलोन बहुत प्रसिध्‍द हुए हैं. इसे संयोग ही कहा जाएगा कि मणिपुर के दूसरे नूपीलोन को वर्ष 1939 में शर्मिला की दादी ने देखा भी था. मणिपुरी महिलाओं के जुझारूपन पर मणिपुरी संस्‍कृति को भी गर्व है.

शर्मिला को सगेम पोम्‍बाबहुत पसंद रही है. यह एक खास किस्‍म का व्‍यंजन होता है जो पानी में पैदा होने वाले पौधों, उनकी जड़ों, सोयाबीन, फलियों ओर खमीर से बनाया जाता है. लेकिन जैसा कि शर्मिला ने अपनी एक कविता की पंक्ति में लिखा है- मेरा मन मेरे शरीर के प्रति लापरवाह है. समझा जा सकता है कि उस शरीर ने ही उस मन को लापरवाह बनाया है. 


'मैं केवल आत्‍मा नहीं हूं. मेरा भी अपना शरीर है और उसकी अपनी हलचल है'. इरोम

निश्चित तौर पर इरोम शर्मिला की देह उसकी आत्‍मा का सुरक्षा कवच नहीं है. अगर आत्‍मा कहीं होती है तो इरोम शर्मिला की आत्‍मा मणिपुर के समस्‍त फूलों, धान और शब्जियों के खेतों और दुब के हर एक तिनके में समाकर सहज-सरल जीवन जीते हुए सुरक्षित जीवन जीने की आकांक्षी है. कभी सना लाइबेक’ (स्‍वर्ण देश) कहा जाने वाला मणिपुर आज अपनी ही नाभि (यानी लांबा किला) से अपना ही गणतांत्रिक पुर्नजन्‍म लेने को अधीर है. मणिपुर की अधिकांश पहाड़ी जमीन पर ढलानों पर उतरती चढती हवाएं भी गोया अपना चैन सुकून पाने के लिए करबध्‍द प्रार्थना कर रही हैं.

अतीत की सिहरती हवाओं से पता चलता है कि 17 वी शताब्‍दी तक मणिपुर आत्‍मनिर्भर और सुदृढ राष्‍ट्र था. इतिहास की अनिवार्यता समझे जाने वाले युध्‍द तत्‍व का दंश भी इस देश ने सहा है. बर्मा के साथ इसके कई बार युध्‍द हुए. अठाहरवी सदी के पूर्वाध्‍द में इसके काफी बडे हिस्‍से पर बर्मा ने कब्‍जा कर लिया था. तब ईस्‍ट इंडिया कंपनी की मदद से महाराजा गंभीर सिंह ने घमासान लड़ाई लड़ते हुए अपने देश के हिस्‍से को बर्मा से छुडाया था. यहीं से ईस्‍ट इंडिया कंपनी की बुरी नजर इस पर लग गई. अंतत: 18 वीं शताब्‍दी के अंतिम दशक में एंग्‍लो-मणिपुर संग्राम में अंग्रेजों ने जीत हासिल कर ली. संक्षिप्‍त में यह जान लेना जरूरी है कि 19 अगस्‍त 1947 को गवर्नर-जनरल माउंटबेटन और तात्‍कालिक महाराज बोधचंद्र के दरमियांन स्‍टैंड-स्टिल एंग्रीमेंट हुआ जिसमें मणिपुर को डोमेनियन दर्जा दिया गया. भारत और पाकिस्‍तान के बटंवारे के साथ 15 अगस्‍त 1947 को मणिपुर एक स्‍वतंत्र देश घोषित कर दिया गया. तब बडे उत्‍साह के साथ कांग्‍ला फोर्ट में यूनियन जैक को हटाकर पाखांग्‍बा के चित्रवाला मणिपुरी ध्‍वज फहरा दिया गया.

आज जिन दुरूह आंतरिक परिस्‍थतियों से मणिपुर जूझ रहा है दरअसल इसकी शुरूआत 21 सितम्‍बर 1949 को मणिपुर महाराज और भारत सरकार के साथ मणिपुर विलय समझोते पर हुए परस्‍पर हस्‍ताक्षरों के पीछे अदृश्‍य पार्श्‍व भूमिकाओं के साथ शुरू हो गई थी. इसमें भारत में सम्मिलित होने के प्रस्‍ताव की मंजूरी थी. 15 अक्‍तूबर 1949 से यह समझोता लागू होना था. मणिपुर के जनामानस को इसमें षडयंत्र की बू नजर आई और यह विलय अपने होने के पहले से ही विवादस्‍पद हो गया. अपनी जमीन को अपना देश मानने वाली भावनाओं के साथ यह किसी खिलवाड से कम नहीं था. एक व्‍यापक जन भावना की लगभग अनदेखी करते हुए 26 जनवरी 1950 को मणिपुर भारत का प्रदेश घोषित कर दिया गया.

अपनी ही जमीन, अपना ही पर्यावरण और अपनी ही संस्‍कृति के साथ रहते हुए वहां के जन-मानस के लिए यह किसी निर्वासन से कम हादसा नहीं था. भारत राष्‍ट्र और मणिपुर प्रदेश को एक दूसरे को समझने में लंबा समय लगना ही था. जाहिर है एक बडा जन आक्रोश इन सबके साथ पनप रहा था, जो अपनी पूर्ण स्‍वतंत्रता चाहता था. दो विश्‍वयुध्‍द देख चुका विश्‍व को नक्‍शा अपने इस छोटे भौगोलिक अंश को यह समझाने में नाकाम था कि उसे भारत जैसे राष्‍ट्र की सुरक्षा मे अपना अस्तित्‍व बचाए रखना है. जन-मानस का अपनी ही जमीन के प्रति प्रेम एक अरसे बाद कितना विषाक्‍त हो सकता है यह मणिपुर के प्रदेश बनने के बाद के दशकों में खोजा जा सकता है.

यह एक निर्विवाद कटु सत्‍य है कि मणिपुर से आर्म्‍ड फोर्सेज स्‍पेशल पावर्स एक्‍ट को हटा लेना मात्र ही मणिपुर में शांति बहाल करने के लिए पर्याप्‍त नहीं है. तेजी से बदलते स्‍थानीय आंतरिक परिदृश्‍य ने प्रदेश बनने के चार दशकों में ही भूमिगत विद्रोहों की अच्‍छी-खासी संस्‍थागत श्रृंखलाओं की शुरूआत कर दी थी जो आज भी बदस्‍तूर जारी है. हालात इतने बदतर हैं कि सुरक्षाकर्मियों और विद्रोही भूमिगत संगठनों के आपसी घमासान में आम जन-मानस ही निशाने पर है. यह सुरक्षा प्रदान करने और स्‍वतंत्र होने की दबी इच्‍छा की इकलौती पतली झुलती रस्‍सी पर खेला जा रहा युध्‍द है जिसमें रक्‍त केवल और केवल मानवीयता का ही बह रहा है. शांति पाने की यह अदम्‍य इच्‍छा उस कस्‍तूरी मृग की तरह ही है जो कस्‍तूरी की चाह में इधर उधर कुलांचे मार रहा है, शायद यह जानते या नहीं जानते हुए कि वह तो उसकी नाभि में ही है.

बात केवल राज्‍य वर्सेस विद्रोही संगठन की ही नहीं, इसमें कई और मुश्किल गांठे लग चुकी हैं. मसलन जल और उर्जा संसाधनों का गलत बटवांरा, सरकार द्वारा सार्वजनिक हित में आम लोगो  की जमीन हड़पना और सबसे बढ़कर स्‍थानीय समुदायों के बीच का व्‍यापक एतिहासिक तनाव. इन सब ऊबड-खाबड विषम परिस्‍थतियों में इरोम शर्मिला की देह उस शांति की मांग कर रही है जो एक विस्‍तृत समाज विज्ञान की दूरबीन से देखने पर ही शायद दिखाई पड सकती है. पिछले तीन दशकों से दो दर्जन से अधिक विद्रोही भूमिगत संगठन इस जमीन पर अपना मोर्चा खोले हुए हैं. इनमें यू एन एल एफ सबसे बडा है. अन्‍य संगठनों में जौनी रिवल्‍यूशनरी आर्मी, कुकी लिबरेशन आर्मी, नेशलन सोशलिस्‍ट कांउसिल आफ नागालैंड (आई.एम.), नेशनल सोशलिस्‍ट कांउसिल आफ नागालैंड (के.), खांग्‍लाइपाक कम्‍युनिस्‍ट पार्टी, रिवल्‍यूशनरी पीपुल्‍स फ्रंट, पी एल ए, प्रीपाक, कुकी नेशनल आर्मी और कुकी लिबरेशन आर्गेनाइजेशन मौजूद हैं. एक बडी मांग स्‍वतंत्र नागालिम यानी ग्रेटर नागालैंड की भी है जिसके खिलाफ यूएनएलएफ सक्रिय है. उसका  मानना है कि इस मांग से मणिपुर का लगभग आधा हिस्‍सा नागालैंड में चला जाएगा. पिछली शताब्‍दी के अंतिम दशक से ही मणिपुर स्‍था‍नीय दंगों और त्रासद हिंसक वारदातों के बीच सांस ले रहा है. वहां अक्‍सर ही नागा-कुकी, कुकी-आओगी, कुकी-पाइले, मेइतेइ-पागांल और प्रोइतेइ-नागा संप्रदायों में आपसी मतभेद वहां की स्‍थानीय शांति को विध्‍वंस करते हुए रक्‍तरंजित साबित हुए हैं.

निश्चित ही यह भयावह परिदृश्‍य है. सरकार सुरक्षा प्रदान करने की अपनी सरकारी पेशकश के साथ प्रस्‍तुत है जो यदा-कदा अमानवीय हो जाती है. एक तरह से सुरक्षा के नाम पर एक माफिया का जन्‍म विकराल रूप धारण कर चुका है. विद्रोही संगठन उस व्‍यवस्‍था से आर-पार की असफल लड़ाई लड रहे हैं. ऐसे में इरोम शर्मिला की अकेली देह चुपचाप पवित्र यज्ञ की आहुति की तरह इसी काल चक्र में विनम्रता के साथ उपस्थित है. क्‍या इक्‍कीसवीं सदी में इरोम शर्मिला की शांति पाने की शौरहीन आर्तनाद किसी को सुनाई दे रही है...या वह शांति पाने की इच्‍छा मणिपुर के अपने विशिष्‍ट फूलों, धान और सब्जियों के रूप-गंध मे समाहित होकर अपने तई इसे बचाए रखने का प्रयत्‍न कर रही है.

एक मणिपुरी लोककथा के मुताबिक डजीलो मोसीरो नाम की एक खूबसूरत स्‍त्री  पर ईश्‍वर बादल की तरह मंडराया और अपनी बदलियों से भरी छाया उसके साथ छोड़ गया. फलस्‍वरूप उसके दो पुत्र हुए ओमेई’ (देवता) और ओकेह’ (इंसान). उसी ओमेई के तीन बेटे हुए जो मेलेई, नागाओ और कोलाइर्म संप्रदायों में बटँकर आज आपस में ही लडाई कर रहे है. तब क्‍या मणिपुर की अशांति ईश्‍वर-प्रदत्‍त है.....

मणिपुर के अधिकांश देवी-देवता प्रकृति से जुडे हैं. वहां मानव शरीर के विभिन्‍न हिस्‍सों को लेकर मंदिर बने हुए हैं. मणिपुरी संस्‍कृति में नश्‍वर देह अपनी विशिष्‍ट अमरता के साथ लोक जीवन में व्‍याप्‍त है. सोराहेन वहां वर्षा के देवता है. थौंगरेन को मृत्‍युदेव माना जाता है. माइरांग को अग्निदेवता माना जाता है. फाउबी देवी ने मणिपुर में जगह-जगह घूमकर खेती की कला फैलाई थी. एक प्रचलित लोक मान्‍यता है कि वह जहॉं भी जाती थी, अपना एक पति बना लेती थी. फाउबी स्‍वंय अपनी मृत्‍यु के बाद धान का पौधा बन गई. तब से उसे धान की देवी कहा जाता है.

मणिपुर की शांति ओर सौहाद्रता चाहने वाले जन-मानस को अब यह समझ लेना चाहिए कि इरोम शर्मिला की देह अब शांति की देवी बन गई है. एक ऐसी शांति की देवी जो अपने को पूज्‍यनीय नहीं, केवल अपने माध्‍यम से सर्वत्र शांति को समझे जाने का निमित्‍त बनी हुई है. इरोम शर्मिला की देह में बसी उस शांति की देवी को राज्‍य, कानून, बुध्दिजीवी और समाज शास्त्रियों को संवेदनशील होकर समझना होगा. मणिपुर के लिए यह आंदोलन मात्र नहीं है, संस्‍कृति रक्षक आपात आवश्‍यकता है. इसे मणिपुर की स्‍थानीय आंख से ही देखा-समझा जाना चाहिए.

यह सुखद है कि राष्‍ट्रीय-अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर पर मानवाधिकारों को समर्पित संगठन इरोम शर्मिला के शांति-यज्ञ में शामिल हैं. संयुक्‍त राष्‍ट्र मानवाधिकार समिति, पीपुल्‍स युनियन फॉर सिविल लिबर्टीज, इंडिया सोशल एक्‍शन फोरम जैसी कई संस्‍थाएं इसका समाधान चाहती हैं. लेकिन तब तक मणिपुर का अपना समाज शास्‍त्र अपने साथ कई उथल-पुथल मचा चुका होगा. मणिपुर का सबसे लोकप्रिय पर्व निगोल चौकाबाअपनी अहमियत को ही अंगूठा दिखाने लगा है. यह राखी जैसा ही पर्व होता है. इसमें भाई अपनी बहनों को अपने घर निमंत्रित करते हैं और उन्‍हें यथसंभव सम्‍मान देते हैं. लेकिन अब वहां भाई ही उस कानून के खिलाफ खडे हो गए हैं जिसमें बहनों को भी पैतृक संपति का हिस्‍सेदार बनाए जाने का अधिकार है. यह काल के क्रूर पंजो से निकली विडम्‍बना नहीं तो और क्‍या है....

यह कितना दुखदायी है कि मई 2007 में दक्षिण कोरिया के क्‍वांकतू शहर के नागरिकों ने जब इरोम शर्मिला को प्रतिष्ठित मानवाधिकार पुरस्‍कार दिया तब भारत सरकार ने शर्मिला को खुद वहां जाकर यह पुरस्‍कार स्‍वीकार करने की अनुमति नहीं दी. यह उल्‍लेखनीय है कि यह दक्षिण एशिया का सबसे प्रतिष्ठित मानवाधिकार पुरस्‍कार है. जो इरोम शर्मिला के पूर्व अफगानिस्‍तान की मलालाई जोया, एशियन हयूमन राइट्स कमीशन हागकांग के बेसिल फर्नाडों, श्रीलंका के मान्‍यूमेंट फार दि डिस्‍अपीयर्ड की डांदेनिया गमागे जयंती, इंडोनेशिया के अर्बन पुअर कंसोशिर्यम के वर्दाह हफीदज, पूर्वी तिमोर के क्‍सानाना गुस्‍माओं और म्‍यांमार की आंग सा सू की को मिल चुका है. यह पुरस्‍कार शर्मिला के भाई सिंहजीत ने साहसी मायरा पाइबी के कार्यकर्ताओं और मणिपुर की संघर्षरत जनता के नाम शर्मिला की तरफ से प्राप्‍त किया.

यह अच्‍छी पहल है कि श्रीनगर से इंफाल तक शर्मिला के लिए जनकारवां पिछले दिनों निकाला गया. 10 राज्‍यों को पार करता यह 4500 किलोमीटर यात्रा का कारवां था, जो श्रीनगर से चलकर लुधियाना, पानीपत, करनाल, दिल्‍ली, पटना लखनऊ, कानपुर, गौहाटी होते हुए इंफाल पहुंचा. अपने पडावों पर रूकते हुए इस कारवां ने स्‍थानीय संगठनों के साथ सेमिनार आयोजित किए और शांति की इस पहल को बढाया.

अदूरदर्शी नीति-निर्धारकों और विध्‍वंसकारी ताकतों को समझ लेना चाहिए कि इरोम शर्मिला अब अकेली नहीं है. इरोम शर्मिला की देह की पृथ्‍वी ने अपने होने की उपस्थिति को व्‍यापक संवेदनशील जनमानस तक विस्‍तारित कर दिया है. केंद्र की राजनीति करने वाले और राज्‍य-विशेष तक सीमित क्षेत्रीय दलगत राजनीति  को इसे गंभीरता से लेना होगा. यह उनके लिए केवल मुद्दा मात्र बनकर नहीं रह जाए. इस पर विशेष सजगता की आवश्‍यकता है. ऐसे में जब मानवाधिकार हनन के खिलाफ मणिपुर में चल रहा यह आंदोलन दुनिया के कई हिस्‍सों में फैल चुका है, हमारे राजनीतिक दलों की चुप्‍पी हमें ही शर्मिन्‍दा कर रही है. लेकिन इरोम शर्मिला को हम सब अपनी गीली आंखों लेकिन प्रतिदिन मणिपुर की पहाडियों पर उदय होते सूरज के दृढ विश्‍वास के साथ यह यकीन दिलाते हैं कि तुम्‍हें शर्मिन्‍दा नहीं होना पड़ेगा. तुम्‍हारी देह की प्रत्‍येक शिराओं में हम सबकी ही आवाज प्रवाहित हो रही है. तुम्‍हारी देह की मांस-मज्‍जा और उसके रोम-रोम के स्‍पंदन में शांति की देवी शांति को आहुत करने के लिए प्रतिबध्‍द है. हम सब उसी निराकार शांति की देवी की स्‍तुति में अपने अपने तईं प्रयासरत हैं. आखिरकार इस दुनिया को अब उतने विकास और उतने विज्ञान की आवश्‍यकता नहीं है जितनी शांति की.
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और अब कुछ कविताएं 
(यह जानते हुए भी कि शब्‍दों की कविता शब्‍दों से बाहर निरर्थक है)




इरोम:एक

कौन है
जो सुन रहा है
इस पृथ्‍वी पर
अकेला मौन तुम्‍हारा
अकेली चीख तुम्‍हारी.



इरोम:दो

यह हतप्रभ वितान
सुनता है तुम्‍हारी आंखों से कहे जा रहे
उन तमाम दृश्‍य कथाओं को
जो घट रहे हैं उसी के समक्ष
मानवता को शर्मनाक कलंक में बदलते

सुनो इरोम
सब देख सुन रहे हैं
     अपनी क्रूर आंखों और प्रमुदित कानों से
कोई असम्‍मानित कर रहा है अपनी मुस्‍कराहट
कोई जान रहा है केवल समाचार

तुम्‍हारे साथ ही खडे हैं ये समस्‍त शब्‍द
     भाषा और लिपि की वेशभूषा से बाहर
अपने होने की एकमात्र सार्थकता लिए हुए

इसलिए
और इसीलिए
शब्‍दों का सुरक्षा कवच बन गया है यह ब्रम्‍हाण्‍ड
और हम सबके हाथ
पयार्वरण बन अडिग तैनात हैं तुम्‍हारे पास

तुम हो
और केवल तुम ही रहोगी
अनवरत
हम सबकी आर्तनाद करती अबोध आवाज




इरोम: तीन

ग्रह और राशियॉं भी
डरते होंगे तुम्‍हारी देह के निकट आने को
नजर को खुद नजर लग चुकी होगी
     मौसम का चक्र भी खूब समझता होगा
तुम्‍हारी देह के लिए नहीं है बदलना उसका

तुम जहॉं हो
वहाँ तुम्‍हें देखने के लिए
प्रतिबंध लगा होगा तारों पर भी
बिना तुम्‍हारे पुर्णिमा
खुद ही ढ़ल जाती होगी अमावस्‍या में

कितनी चिडियाओं ने बनाए होंगे घर
कि तुम देखोगी एक मर्तबा उन्‍हें
     खेतों में उगी धान की बालियॉं
होड लगाती होंगी अपनी चुहल में
तुम्‍हारी देह में समाहित होने के लिए

तुम्‍हारी देह भी सोचती होगी
     सहेलियों फूलों और बरसात के प्रति
निष्‍ठुरता तुम्‍हारी
चुप हो जाती होगी फिर
तुम्‍हारे अपने बनाए मौसम का साम्राज्‍य देखकर

तुम समय में नहीं जी रही हो इरोम
समय तुम में जी रहा है
अपनी बेबस गिड़गिड़ाहट के साथ
हम सब देख पा रहे हैं
कंपकपाते समय के समक्ष
तुम्‍हारी निश्‍छल अबोध मुस्‍कराहट




     इरोम:चार

     कितना कुछ शेष है अभी
     भला-भला और खूबसूरत सा

     किसी गिलहरी की चपलता जैसा
     गुम हो जाना है समय की क्रूरता

     तर-बतर होना है तुम्‍हें
     खांगलेई की बरसात में
     बचपन की सहेलियों के साथ

     हवाओं की सरपट बहती इच्‍छाओं में
     शामिल हो जाना है तुम्‍हें
     तराइयों में टहलने के लिए
     कांग्‍ला फोर्ट में बैठकर
     पुनर्जन्‍म लेना है
     मणिपुर की शाश्‍वत नाभि से

     इसी जन्‍म में
     गले मिलना है बहुत देर तक
     अपनी माँ से
     सुबकती हुई खुशी के साथ

     बहुत कुछ शेष है अभी
     अशेष हो जाने के लिए



     इरोम:पांच

     एक इरोम शर्मिला है
     एक और मीरा है

     एक मणिपुर है
     एक और कृष्‍ण है

     एक समय है
     एक और बाँसुरी है
     एक विष का प्‍याला है
     एक और साजिश है

     एक कविता है
     केवल यही थोड़े से शब्‍द हैं.
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राकेश श्रीमाल 
कवि,कहानीकार,संपादक और संस्कृतिकर्मी


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  1. इरोम पर जानकारी देते हुए लेख के साथ एकसाथ बहुत सुन्दर बुनी कविताएँ ...कवि और अरुण को बधाई ! छोट-छोटी ये कविताएँ गहरे उतरती हैं .. इरोम से सीधे जोड़ती हैं . मणिपुर की संस्कृति से जुड़ते हुए आप इरोम को अपने करीब पाते हैं .

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  2. गज़ब ! बहुत अच्छा लिखा है, एक दम नए ढंग से. कविताओं ने न जाने कितने चाँद और सूरज टांक दिए हैं इस आलेख में ! इरोम के समर्थक, हम लोग काफ़ी समय से जो कुछ लिख-बोल रहे हैं, इरोम और उनके ऐतिहासिक महत्त्व के संघर्ष के बारे में, उन सबको भी यह आलेख एक नई दृष्टि देता है. राकेश श्रीमाल का यह आलेख किसी भी पढ़ने वाले को उनका मुरीद बना लेगा.मैं तो बन गया.

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  3. देह की
    देह में आहुति
    ये कैसा होम है
    इरोम शर्मिला

    बिखरी पड़ी हैं
    अनगिन सूखी समिधायें
    हवि होने
    पर जाने
    किस पल को ताकती
    टोहती

    बेबस हो
    एक मूक बेचारगी
    दिशाओं में फैली
    जाने काल की किस
    शुभ घड़ी की प्रतीक्षा

    तुमसे एक विनती
    मेरी सखी!!

    अपनी देह में प्रज्ज्वलित
    अग्नि नद की
    सुर्ख़ धार
    के रास्ते खोल दो
    बरसों से ठंडे पड़े
    अपनी गौरवगाथा में लीन
    अनगिन नदी-नालो के लिये.......

    मन को मथता पाठ....
    राकेश जी और अरूण जी को आभार!!!!!

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  4. अरुणजी, इन कविताओं और लेख को पढना सुखद नहीं है मेरे लिए, जब भी इरोम के बारे में कुछ पढ़ती, जानती हूँ हर बार एक विवशता का एहसास होता है, श्रीमालजी ने आज फिर मुझे अपनी संवेदनाओं से भरी अभिव्यक्ति द्वारा भावुक कर दिया......
    एक बेहद अँधेरे कमरे में
    बंद घुटन
    जब रौशनी की मांग करती है,
    जब मौन मुखर हो
    सारे बांध तोड़ने की जिद करे
    तब भावनाएं उदात्त होकर
    उड़ान भरना चाहती हैं,
    एक कसक जुडी हैं
    इनके साथ
    कुछ न कर पाने की कसक,
    जब समस्त शक्ति लगाकर भी
    बंधन न टूट पायें
    तब भी प्रयत्न करते रहने की
    एक अटूट जिद,
    तंत्र की असंवेदनशीलता पर
    विवश न होकर
    पूरी शिद्दत से लड़ने का हौंसला ......
    यही तो हैं इरोम......
    नमन करती हूँ उम्हे, और श्रीमाल जी का आभार......

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  5. अग्नि के अपने चारित्रिक गुणों को चकमा देती इसी अग्नि की एक नन्‍हीं लौ इरोम शर्मिला की समूची देह में अपनी नीरवता के साथ उपस्थित है.
    एक इरोम शर्मिला है
    एक और मीरा है

    एक मणिपुर
    एक और कृष्‍ण है

    एक समय है
    एक और बाँसुरी है

    एक विष का प्‍याला है
    एक और साजिश है

    एक कविता है
    केवल यही थोड़े से शब्‍द हैं....बहुत आत्मिक लेख को शब्दों की सुंदरा माला से शुशोभित कर दिया राकेश जी ने.. .बधाई राकेश जी को ..और आभार अरुण जी को !!!!!!!Nirmal paneri

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  6. वर्तमान समय और समाज का क्रूर और संवेदनहीनता का हतप्रभ करनेवाला और झिंझोड़कर कर रख देनेवाला संघर्ष है इरोम शर्मिला। आपने बहुत ही गहराई और सूक्ष्मता से व्यक्त किया है श्रीमाल जी! इरोम की इस लड़ाई और संघर्ष को शत-शत नमन!

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  7. सामाजिक संगठनों आगे आना चाहिए इस मामले में, इरोम के अनशन को खत्म कराने की पहल होनी चाहिए। ये काम टीम अन्ना कर सकती है, लेकिन समझ में नहीं आ रहा है कि वो सभी क्यों चुप्पी साधे हुए हैं। इतना लंबा समय हो गया है, अब तो सरकार से कोई उम्मीद ही नहीं है कि उसे जनभावनाओं से कोई लेना देना है।

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  8. सूचना ,विचार और भावना का अद्भुत फ्यूजन है लेख में और कवितायेँ सितारों की तरह अपनी चमक के साथ ! इरोम के संघर्ष से लोग तेज़ी से जुडते जा रहे हैं और इसमें प्रतिबद्ध रचनाकारों की महती भूमिका रही है ! इस् लेख ने इरोम को हमारे समक्ष उपस्थित -सा कर दिया है ! अरुणदेव जी का आभार ! राकेश श्रीमाल के कार्यों की जितनी सराहना की जाए ,कम है !

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  9. श्रीमाल जी आपने इस आलेख के माध्‍यम से इरोम के संघर्ष को एक नयी आवाज दी है। आपने उनके बारे में जो तथ्‍य उजागर किये है, उन तथ्‍यों को लेकर लोगों में एक नया संदेश पहुंचने में मदद मिलेगी।
    -बी एस मिरगे

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  10. ऐसे सशक्त आलेख इरोम के हौसलों को और उड़ान देंगे उसमे तो कोई दो राय है ही नहीं, इरोम की कविता इरोम का आंतरिक भाव से सीधे साक्षात्कार करवाती हुई सी लगीं ..........आभार !

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  11. इरोम शर्मिला को हम सब अपनी गीली आंखों लेकिन प्रतिदिन मणिपुर की पहाडियों पर उदय होते सूरज के दृढ विश्‍वास के साथ यह यकीन दिलाते हैं कि तुम्‍हें शर्मिन्‍दा नहीं होना पड़ेगा. तुम्‍हारी देह की प्रत्‍येक शिराओं में हम सबकी ही आवाज प्रवाहित हो रही है. तुम्‍हारी देह की मांस-मज्‍जा और उसके रोम-रोम के स्‍पंदन में शांति की देवी शांति को आहुत करने के लिए प्रतिबध्‍द है. हम सब उसी निराकार शांति की देवी की स्‍तुति में अपने अपने तईं प्रयासरत हैं. आखिरकार इस दुनिया को अब उतने विकास और उतने विज्ञान की आवश्‍यकता नहीं है जितनी शांति की. bahut accha lekh

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  12. १. समालोचन के अंतर्गत छपे इरोम के अनशन को लेकर 'सबद भेद' शीर्षक से छपे सांस्कृतिक बोध और काव्यात्मक शैली से भरपूर ब्लॉग के लिए राकेश श्रीमाल लो हार्दिक बधाई.
    २. इरोम की कवितायें मन को गहराई से छूती हैं .
    ३. इरोम के अनशन के साथ गहरी संवेदनशीलता से युक्त मानवीय पक्छ जुड़ा है . नई दिल्ली के शासक वर्ग के लिए मणिपुर भूमि का का एक छोटा सा टुकड़ा मात्र है और यह दिल्ली से दूर है. वहां की समस्या को अनसुलझी बना देने में सत्ता तक सीमित राज नेताओं और स्वकेंद्रित अफसरशाही की बड़ी भूमिका है. हर विवेकशील नागरिक की इरोम की इस आत्मोसर्ग की भावना के साथ अंतरतम से सहानुभूति है. यह लेख इस भावना को अभिव्यक्त करता है, अतः राकेश साधुवाद के पात्र हैं.
    ४. इस लेख में इतिहास से जुडी घटनाओं को लेकर अनेक गलतियाँ हैं जो गलत राजनीतिक निष्कर्षों की ओर ले जाती हैं. प्रदेश के नाम , लिपि , आस्था , मिथक , पुराण , प्रवास के आधार पर मणिपुर सदियों से भारत के साथ जुड़ा रहा है . मणिपुर का भारत में वैसे ही विलय हुआ जैसे गंगा -यमुना के हृदयप्रदेश माने जाने वाले बनारस, रामपुर और रीवा रियासतों का १५ अगस्त , १९४७ के बाद हुआ था.
    ५. बर्मा (मान ) ने न केवल मणिपुर बल्कि आसाम सहित पूर्वोत्तर भारत के बड़े भाग पर १८१८-१८२६ के बीच हमला कर कब्जा कर लिया था. बाद में हांर कर उन्हें इस भूभाग को छोड़ना पडा था.
    ६. आज मणिपुर में ४० से ऊपर विदेशी उकसावे पर आधारित बनी आधुनिक हथियारों से लैस गिरोह हैं. मेतेई-नागा ; नगा-कूकी, कूकी-मेतेई और दूसरे अन्य जनजातीय समूहों के घोषित युद्ध में हजारों लोग मारे जा चुके हैं. सेना के द्वारा मारे जाने वालों की तादाद इसकी तुलना में बहुत न्यून है ( हालाकि आदर्श स्थिति में एक भी व्यक्ति का जान से हाथ धोना गर्हित है).
    ७. सेना द्वारा हुए गलत कामों के विरुद्ध मजबूती से आवाज़ उठाने की ज़रुरत है लेकिन इसके चलते पारस्परिक नरसंहार, लूट, अपहरण,बलात्कार , जनजातीय जंग और भारत को तोड़ने की साज़िश करने वाली ताकतों को प्रोत्साहन मिलता है तो उसका भी डट कर विरोध ज़रूरी है.

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  13. "मैं केवल आत्‍मा नहीं हूं. मेरा भी अपना शरीर है और उसकी अपनी हलचल है." – इरोम

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  14. एक सार्थक आलेख और मन को उद्वेलित कर देने वाली रचनाएं..शर्मिला इरोम नाम पहले से ही सिहरन का कारण था लेकिन इन दोनों को पढते-पढते बारम्बार सिहरन हुई...राकेश श्रीमाल जी को हृदय से बधाई ..और अरुण जी का आभार ...

    मैं साभार "हम और हमारी लेखनी" .. ब्लॉग जो स्त्रियों पर ही है .. पर इस आलेख को शेयर करना चाहती हूँ ...ताकि अधिक से अधिक लोगों तक ये पुकार पँहुच सके.... शुभ कामनाएँ..

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  15. Irom ki tareef mein kahi har bar choti lagne lagti hai, ab bahaduri aur himmat waghaira lafz Irom ke liye chote pad gai hain, kai bar ji chaha ke kuch Irom ke bare mein likhoon lafzon ke sare mubalghe bhi sachchai se kamtar ho jate hain. bas meer sahab ka ek misra gunguna kar khamosh ho jata hoon, Kya junoon kar gai shaoor se woh, Rakesh srimal ko mubarak ke un ka qalam Irom ke bare mein bat kar sakta hai.

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  16. मानव जीवन का संघर्ष कितना विराट हो सकता है और मानवता कितनी विवस और क्रूर हो सकती है इसकी प्रत्यक्ष गवाह हैं - इरोम शर्मीला ! पूरा आलेख और कविता मानव मन की कितनी ही दहलीजो के भीतर इरोम शर्मीला को प्रविस्थ कराती है राकेश जी इसके लिए बधाई के पात्र है ! राकेश भईया बड़ी सुन्दर विवस व्यंजना है - सुन्दर इस द्रिस्तिकों से की शब्द जिवंत है भाषा सजीव हो उठी है , विवस इसलिए की मै पढ़कर भी केवल सुस्क आह और ठंडी स्वासों को जरिये अपनी कायरता व्यक्त कर रही हु ! समालोचन एवं राकेश जी को हमें इस वास्तविकता से रूबरू कराने हेतु धन्यवाद !!!

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  17. Tum samay me nahin ji rahi ho Irom / samay tum me ji raha hai. Bahut sundar pankatiyan hain,Rakesh Shrimal ko badhaee in kavitaon ke liye.

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  18. yah kavita likhna nahi hai,shabdon me khud ko rachana hai /apnee kaya ke bahar khade hokar apna hona dekhna hai /jeevan aur kavita aapas me mil gaye hain/jeevan ki sachchaiyan aur sapne kavita me bebaki se prastut hai
    Dr saroj mishra bilaspur

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  19. Irom hum tumahre saath hain halanki tumhara sangharsh bahut aage ka pratirodh hai

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  20. irom hamare samay ka aisa satya hai,jo sadiyon tak manavta ko yaad dilata rahega ek athak manviya sangharsh ki kahani.

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  21. बहुत अर्से के बाद इरोम पर इतना अच्छा, वह भी हिंदी में, गहरी संबद्धता, मार्मिकता और पारदर्शी ईमानदारी के साथ लिखा गया आलेख पढ़ने को मिला. मैं मणिपुर में दो वर्ष रह चुका हूं. वहां की स्थितियां और वहां की जन-भावनाओं को तत्काल समझने और उन्हें समर्थन देने की ज़रूरत है. मैं आपके ब्लाग को साझा कर रहा हूं...उम्मीद है अनुमति देंगे.

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  22. 'तुम समय में नहीं जी रही हो इरोम
    समय तुम में जी रहा है
    अपनी बेबस गिड़गिड़ाहट के साथ
    हम सब देख पा रहे हैं
    कंपकपाते समय के समक्ष
    तुम्‍हारी निश्‍छल अबोध मुस्‍कराहट'...!

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  23. "santi ki devi" ke saath hum 5 november, 2000 se hi hai. par mai nahi samajh pa raha hoon ki koi bhi karayavaahi abhi tak nahi ho pa rahi hai.. khair..........

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  24. राकेश भाई ने बहुत बढ़िया लिखा है, शुरूआत ही गज़ब है, और इरोम की कविताएं लाजबाब. मै "उदय प्रकाश" जी का आभारी हूं जिनके कारण इस ब्लाग तक पहुंचा.

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  25. इरोम के लिए इन पंक्तियोंको लिखने वाले राकेश श्रीमाल को धन्यवाद ! शुभ कामनाएं !

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  26. विभा ठाकुर19 नव॰ 2011, 4:02:00 pm

    इस लेख की जितनी प्रशंसा की जाए वह कम है . मणिपुर के इतिहास और इरोम के संघर्ष की गाथा बेहद मर्मस्पशी लगी .

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  27. राकेश, तुम्‍हारी अभी तक की सर्जना से काफी अलग, गहरी सामाजिकता और आंदोलनधर्मिता के पक्ष में होकर इस लिखने ने तुम्‍हें एक नयी आभा और मुझे आशा से भर दिया है। इसी को हम प्रतिबद्ध लेखन कहते हैं और एक लेखक का सार्थक हस्‍तक्षेप। यह राह तुम्‍हें और सार्थक बना सकेगी, ऐसा मुझे लगता है।

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  28. बहुत अच्छा लेख है। पठनीय और संग्रहणीय भी। समालोचन को बधाइयाँ और लेखक श्री राकेश श्रीमाल जी को भी।, सादर

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