सहजि सहजि गुन रमैं : मृत्युंजय



















मृत्युंजय :: 
जन्म : ०४ जुलाई १९८१, आजमगढ़ (उत्तर-प्रदेश) 

कविताएँ, लेख और अनुवाद
हिन्दी आलोचना में कैनन निर्माण पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय से शोध-कार्य
हिन्दुस्तानी और कर्नाटक शास्त्रीय संगीत में रूचि
जन संस्कृति मंच से सम्बद्ध.

फिलहाल : आधा रोज़गार
ई पता- 
mrityubodh@gmail.com
 


यथार्थ की खुरदुरी और सख्त जमीन से कविता की यह धार वेग से फूटती है, इन कविताओं में त्वरा है. मृत्युंजय सामाजिक विरूपण, शोषण, अवमूल्यन और अवसरवाद को इस विलक्षणता से विन्यस्त करते हैं कि उनकी कविताएँ हमारे समय पर एक अभियोग की तरह सामने आती हैं. वर्तमान अराजक दृश्य-बंध के लिए वह अपनी शैली को पर्याप्त स्वाधीनता देते हैं. उनकी कविता उनके ही शब्दों में कहें तो ‘तलवों में बिंधा है बहेलिये का आधा बाण’ जैसी है. हिंदी युवा कविता का एक खर और खरा स्वर.


















कीमोथेरेपी*

मेरा शरीर एक देश है
सागर से अम्बर तक, पानी से पृथ्वी तक
अनुभव जठराग्नि के खेत में झुकी हुई गेहूं की बाली

मेरे हाथ, मेरा दिल, मेरी जुबान
मेरी आँखें, त्वचा और जांघें सब
अब इतनी हसरत से ताकते हैं मेरी ओर
क़ि जी भर आता है
इन्हीं में तुम्हारे निशान हैं सर्द-सख्त
इसी ठौर दिल है
लदा-फंदा दुःख और इच्छा से मोह से बिछोह से

सिर्फ साधन नहीं है मेरी देह,
न सिर्फ ओढ़ने की चादर
मुझे इससे बहुत, बहुत इश्क है

इसी घर के साये में
कोई बैठा है चुपचाप
अपना ही, लगाए घात
छोटा सा,
बामुलाहिजा अदब के साथ,
इंतज़ार करता हुआ वाजिब वक्त का
यहां सज सकती हैं अक्षौहिणी सेनायें
निरापद इश्क का यह अड्डा कब समरभूमि में बदल जाएगा
यह सिर्फ दुश्मन ही जानता है
दुश्मन ही जानता है
हमारे इस तंत्र की सबसे कमजोर कड़ी
और ठीक इसीलिये हमले का वक्त

यह एक समरभूमि है
यहां लाख नियम एक साथ चलते हैं
व्यूह भेद की लाख कलाएं
लाखों मोर्चे एक ही वक्त में एक ही जगह पर खुले रहते हैं
एक दूसरे से गुंथे
संगति में

असंगति के समय
दाहिने हाथ की बात नहीं सुनता बायां हाथ
पैर और सर आपस में जूझ जाते हैं
साँसें कलेजे से
आँखें अंदर ही उतरती चली जाती हैं
मांसपेशियां शिराओं से अलग हो जाती हैं
रात का शरीर एक विशाल कमल कोष है
जिससे छूट पड़ना चाहता है भौंरा

युद्धभूमि में सामने खड़े हो गए हैं लड़ाके
प्रतिशोध की आग धधक कर निर्धूम हो चुकी
साम-दाम और दंड-भेद से
जीते जा रहे हैं गढ़ एक के बाद एक
समर्पण हो रहे हैं
अंदर ही होती जाती है भारी उथल-पुथल

ईश्वर की स्मृति से लेकर समाधि तक के सारे
उपाय सब घिस कर
चमकाए जा चुके
आजमाए जा चुके

भरे हुए हाथों में थाम मुट्ठी भर दवाएं
बाहरी इमदाद के भरोसे
हूं हूं हूं
बजती हुई रणभेरी
देरी नहीं है अब
आते ही होंगे वे सर्ज़क/सर्जन

सोडियम क्लोराइड के द्रव और
आक्सीजन गैस का दबाव बढाते
विशेषज्ञ आये
मलबे के बोझ से सिहर रहा है विचार तंत्र
लम्बी सिरिंजों पर लाभ का निशान चटख
डालीं गयीं लम्बी और पतली नलिकाएं
दुश्मनों के गढ़ तक पहुंचने की खातिर
घर में आहूत हुए भस्मासुर
नज़र तनिक फिरी नहीं क़ि गोली चली नहीं
मेरे भीतर मेरी ही लाशें भरी हैं
बावन अंगुल की बावन लाशें

इतने सब के बाद भी
फिर फिर पलट पड़ता है हत्यारा खेल
शरीर के भीतर ही बर्बर नरसंहार
दुश्मन से लड़ने के
आदिम सलीके से
पूरा-पूरा नगर ज़ला दिया
वानरों ने
पूरा वन-प्रांतर, गिरि-खोह सब कुछ उजाड़ दिया
अंकुवाई धरती भी वृक्षों संग जल मरी

लाख बेगुनाहों की कीमत पर
पकड़ा गया है संभावित गुनाहगार
तंत्रों से, यंत्रों से, अधुनातम मंत्रों से

आँखें मुंदी मुंदी ही हैं
फेफड़े तक कोई सांस, टूट-टूट आती है
छूट-छूट जाती है हर लम्हा एक बात
त्वचा में भर रही है, गाढ़ी और गहरी रात
बहुत बहुत धीरे धीरे बढ़ रहा हूं मैं
इस निर्मम जंगल से निकाल मुझे घर ले चलो मां !

कीमोथेरेपी की इस समर गाथा में
कटे-फटे टुकड़े मनुष्यता के
पूंजी की भव्य-दिव्य निर्ज़ल चट्टानों पर
यही कथा
रोज़ रोज़ दुहराई जाती है
साक्षी हूं मैं...

*(कीमोथेरेपी कैंसर के इलाज़ की एक विधि है. इसमें कैंसरग्रस्त कोशिकाओं को वाह्य दवाओं के जरिये मारा जाता है. इलाज़ की इस प्रक्रिया से शरीर पर काफी बुरे असर पड़ते हैं क्योंकि इससे प्रभावित कोशिकाओं के साथ सामान्य कोशिकाओं को भी क्षति पहुंचती है.)
  
बंद करो, बंद करो, बंद करो, यह विकास !

बस्तरिया मैना कंठ में उग आये कांटें
मस्त मगन अरना भैंसा थक कर के चूर हुआ
मैनपाट में ज़ल समाधि ले ली नदी ने
गहरी और छोटी वन मेखलाएँ जिनका अभी नाम भी नहीं पड़ा
पहली बार लादी गयीं नंगी कर रेलों में
सूर्य को देखे बिना बीत गयी जिनकी उमर
उन वन-वृक्षों की छालें उतारकर
रखी गयी गिरवी
घोटल समुदाय गृहों पर हुई नालिश
कैसी आयी है ऋतु अबकी बसंत में

अबकी वसंत में टेसू के लाल फूल
सुर्ख-सुर्ख रक्त चटख झन-झन कर बज उट्ठे
खून की होली जो खेली सरकार बेकरार ने

वृक्षों के पुरखों ने प्राणों की आहुति दी
प्रस्तर चट्टानों से शीश पटक धरती में दब गए
सब कुछ कुर्बान किया
मान दिया
निर्धन संततियों को दीं अपनी अस्थियां
लाखों बरस की इस संपदा की नीलामी होने को है अब

चतुर-चटुल पूंजीपति, पुरातत्ववेत्ता संग
दुनिया के नौवें धनी-मानी-अंबानी
वेदों के अंत के ठेकेदार, सब आये
छत्तिस सरदारों की बलिवेदी
आज तीर्थाटन की
बनी हुई पुण्यभूमि-पितृभूमि
आये सब कुशल-क्रूर, कर्मीं, कर्ता-धर्ता मुल्क के
अबकी वसंत में

लोकतंत्र की गाय के तोड़ दिए चारों पैर
नाक में नकेल डाल
उलट दिया
पथरीली धरती पर
कुहनियों से कोंचते हैं मंत्रीगण बार बार
बारी अब दुहने की आयी है
खौफ से भरी मां
कातर आवाज में बिन बछड़ा रंभाती रही
बां बां बां
सोचते हैं दूर तलक नज़र गाड़
चिदम्बरम, मनमोहन, मोंटेक, रमन सिंह
टेकेंगे कब घुटने वन-जंगल वासी ये
जैसे हो, जल्दी हो !

अबकी वसंत में
अपने ही शस्त्रों से अस्त्रों से
हत्या की इतनी पुरानी इबारत
जंगल की छाती पर कुरेद रही पुलिस-फौज
मीठी मुस्कान पगे पुलिस पति
मंत्री संग फोटो उतरवाने लगे

वृक्षों के चरणों को सीने से भींचकर
नदियों के बालू से अंतरतम सींचकर
कबीर वहीं बैठा है
तलवों में बिंधा है बहेलिये का आधा बाण
पीर की कोई आवाज ही नहीं आती
सहमा बारहसिंहा
बड़ी बड़ी आँखों में कातर अवरोह लिए ताक रहा.

नाश से डरे हुए जंगल ने उनके भीतर
रोप दीं अपनी सारी वनस्पतियां
आग न लग जाए कहीं, वन्ध्या न हो जाए धरती की कोख
सो, अकुलाई धरती ने शर्मो-हया का लिबास फेंक
जिस्म पर उकेरा खजाने का नक्शा
आँखों में लिख दिया पहाड़ों ने
अपनी हर परत के नीचे गड़ा गुप्त ज्ञान
कुबेर के कभी न भरने वाले रथ पर सवार हो
आये वे उन्मत्त आये
अबकी वसंत में
उतार रहे गर्दन.

अबकी वसंत में
हड़पी गयी ज़मीनों की मृत आत्माएं
छत्तिस सरदारों के कंधे पर हैं सवार
दम-साध
गोल बाँध
कदमताल करते अभुवाते हैं
छत्तिस सरदार
अपने जल जंगल जमीन बीच
नाचते बवंडर से
दिल्ली से रायपुर राजधानी एक्सप्रेस
के चक्कों को कंधा भिड़ा रोक रोक देते हैं
नोक गाड़ देते हैं, सर्वग्रासी विकास की छाती में

पर जीने की यही कला
दूर तलक काम नहीं आती है
सहम-सहम जाती है
रक्त सनी लाल लाल मट्टी
अबकी वसंत में
गोली के छर्रे संग बिखर गयी आत्मा
छत्तिस सरदारों की

छत्तिस कबीलों के छत्तिस हज़ार
महिलायें और पुरुष सब
एक दूसरे से टिकाये पीठ, भिडाये कंधा
हाथों में धनुष धार एकलव्य के वंशज
फंदा बनाते हैं पगलाए नागर-पशु-समुदाय की खातिर
मरना और मरना ही धंधा है इस नगरी
ठठरी की प्रत्यंचा देह पर चढाते हैं
बदले की आंच में हवा को सिंझाते हैं
दिल्ली तक

बंद करो !
बंद करो !
बंद करो !
यह विकास. 

कुछ तो है

का करूं, का भरूं
शोर की शराब में ही, डूब गया बीस साल
समय बना काल
हीं हीं हीं हिन् हिन् हिन्
दुलकी थी चाल
आजम-गढ़ की मट्टी
रीढ़ के सवाल

सुनते हैं देश ये बिराना हुआ नहीं
कहते हैं होंगें यहीं बिखरे
गुणसूत्र
यहीं जहां पसरा है दिव्य लवण मूत्र

सत्रह से तेईस, चैवालीस-तिहत्तर
बढ़ती जातीं हुई
चौडाई टी वी की
मायापति अमरीका
लीला की भूमि हुआ भरत खंड
अंड बंड संड

तो लघु से महत् महत्तम तक
माया जी महाठगिनी बैठीं
कौन भेद ले आएगा
सिद्ध, मुनी, बैरागी सब तो चले गए है फारेन-वारेन

दीवालों पर लटक रहे हैं रंग अनंत आभाषी
शुरू हुए काले-सफेद से
लाल-हरे-काले से बढ़ते-बढ़ते
हुए मैजेंटा, स्यान, पीत और काले
नाले प्रवहित चारो ओर
दूर दूर तक ओर न छोर

गणित में लिखे गए हैं रंग
नोट चले हैं तिरछी चाल
हरे हरे टेढ़े से ब्याल

पर मुआफ करिए साहेबान!
दुई है इन सब के भी बीच
पक्की टुच्चई है
और पक्का है बवेला
लंबा चौड़ा सा झमेला

यहां अभी तक प्रेम कर रहे लोग
हाड़-मांस के साथ
हाथ हैं जिनसे छूना होता है प्यारी माटी को
अलग अलग भी प्यारी को माटी को

गणित रंग को मार दरेरा, एच वन एन वन को रंदा दे
बादल को रंगने निकले हैं
आठ भुजाओं वाले श्री अठभुजा शुक्ल
  
मुद्राओं से हो सकता है सबकुछ भाई
पर अब भी, हां यहीं कहीं पर
देना-लेना-पाना-खोना-रोना-सोना-हंसना सबकुछ
बिन मुद्रा के भी करते हैं लोग
ऐसा इनका रोग

अच्छे दागों वाली दुनिया में
चौंक रहे श्रीमंत-संत-घोंघाबसंत
सफाई पर हैं भौंक रहे
नाक की टेढ़ी चितवन
वाह रे श्रीमान

पर नहीं
बसेरा इधर नहीं है
कि फेरा पूरा करके लौट चलो खलिहान
कि मां तो अब भी उपले थाप रही है
कि अब भी उसके अन्तरमन से झलक रही है नफरत
कि अब भी हर संभव हथियार बनाते लोग
कि अब भी भर देती है धान-पान की खूशबू
कि अब भी बदल सकेगी दुनिया
अब भी रकत के आंसू, मांस की लेई 
से ही बनता घर.

तुमसे क्या-क्या छुपा पाऊंगा

आठो रास्तों से चलकर आया है दुःख
सुख को बांधे आया है घसीट कर
और अब
पटक देगा उसे तुम्हारी पूरी देह पर
तब कैसे क्या क्या छुपाउंगा तुमसे
कायनात समाई होगी जब तुममे

किन किन चीजों से बचकर रहना है तुम्हें
इसकी लिस्ट है मेरे पास
इसकी भी लिस्ट है कि तुम्हें क्या अच्छा नहीं लगता
मेरे पास ढ़ेरों लिस्टें हैं
और गिनतियां मुझे पूरी आती हैं

दुख के सहानुभूति के और प्यार के खोल में
कई बार लिपटे लिथड़े
ख्यालों की रंगीन बुनाई
तुम्हें हैरान कर देती होगी अपने नंगेपन में
कई कई बार

तुम भी मुझसे कैसे कैसे क्या क्या छुपाती हो
रोजमर्रा की चीजें बताती हैं कभी-कभी
तुम नहीं
कैसे चलती है गृहस्थी की दुनिया
कैसे उबलती है छुपी हुई दुनिया
अगर पतीली के उपर झांकोगे तो मुंह तुम्हारा ही जलेगा
मैंने मैं से कहा
ढक्कन बंद कर दो बे!

मैं छुपाने निकलता हूं
जिस तरह कोई अहेरी निकलता है
हांके के साथ बाजे के साथ
 तुम्हारे छुपाए को कुचलता चल निकलता हूं
तुम छुपाई खेलते हुए बता देती हो छुपने का पता
पर सिर्फ पता पता होने से यह तय नहीं हो जाता कि वहां पहुंचा भी जा सकता है

चलो एक चेहरा बनाएं
जहां छुपाना छुपा न हो
क्या इस पेंटिंग की नियति है खराब होना
नियति?
कैसी बातें कर रहे हो तुम
छोटे बच्चे जैसा चेहरा बना सकते हो एकदम पारदर्शी साफ-सफ्फाक
क्या हम प्यार करते हुए समय को रोक लेंगे
अभी मर जाएं तो?
तुमने कहा

छुपाने को विकसित किया तुमने कला में
मैंने हिंसा की राह ली
अब मैं हिंसा को कला कहूंगा
हिंसा जब छुप जाएगी कला के पीछे
तब सही वक्त होगा
आसमान से छटपटाहट बरसने लगेगी
तुमने है कहा
मैंने होने के बारे में बात की
तुमने रजिया सुल्ताना की कसम दिलाई थी मुझे

तुमने फिर कहा
अभी मर जाएं हम ?
क्या हम प्यार करते हुए समय को रोक नहीं पाएंगे ?
तब मेरी बारी थी
और मुझे फोन की घंटियां सुनाई देने लगीं
ठीक तभी.

यही होता है हमेशा
हमेशा यही होता है
तुम्हारे बारे में सोचते-सोचते
मैं अपनी बातें सोचने लगता हूं
तुम्हारे बारे में सोचना
आज तक नहीं आया मुझे

डर लगता है 

मैं रंग-बिरंगे सपनों के
नीले दर्पण में
लाल-हरे मस्तूलों वाली
मटमैली सी नाव संभाले
याद तुम्हारी झिलमिल करती श्याम देह
केसर क़ी आभा से
गीला है घर बार
मार कर मन बैठा हूँ
ख़ाली मन की ख़ाली बातें
रातें हैं बिलकुल खामोश
डर लगता है.


17/Post a Comment/Comments

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  1. ''आठो रास्तों से चलकर आया है दुःख
    सुख को बांधे आया है घसीट कर
    और अब
    पटक देगा उसे तुम्हारी पूरी देह पर
    तब कैसे क्या क्या छुपाउंगा तुमसे
    कायनात समाई होगी जब तुममे ''

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  2. मृत्युंजय भाई आप की कविताएं अपने समय के ताप को झलती है....ये बहुत अच्छी है ... केवल एक बात है ध्यान देना यदि पसंद आए तो इनमें हल्के- से कहीं कुछ संपादन की ज़रूरत महसूस होती है दोएक जगह केवल .....पर कीमियोथेरेपी कविता की सवेदना पर, अपनी भाषा में, इस जोड की अन्य कोई कविता नही है ...आपको बधाई

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  3. ये कविताएँ जैसा अरुण ने कहा अभियोग की तरह सामने आती हैं . ये आपसे जिरह नहीं करतीं बल्कि अदालत में एक सच को अनावृत करने को उद्दत हैं . इनमें हम अपने समय को देखते हैं .. उस भीषण समय को जिसमें आस्थाएँ विवशताओं में बदल रही हैं .. कोई ऐसा सेतु नहीं जिसे राम बाँध सके ..
    कवि समय की यंत्रणा से गुज़रते हुए कह उठता है ..
    वृक्षों के चरणों को सीने से भींचकर
    नदियों के बालू से अंतरतम सींचकर
    कबीर वहीं बैठा है
    तलवों में बिंधा है बहेलिये का आधा बाण
    पीर की कोई आवाज ही नहीं आती...

    इस दर्द में पीर की कोई आवाज़ नहीं .. आपको विचलित करती है . ये कविताएँ यथार्थ की भूमि से भावों की ओर संतरण कर रही हैं . बड़ी बारीकी से बुना गया इनका कलेवर आपको अलग दुनिया में ला खडा करता है . ये गीत न होकर भी गीत की सद्य हुंकार -सी हैं . बहुत अच्छी कविताएँ हैं. बधाई कवि ओर अरुण को इस सार्थक पोस्ट के लिए .

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  4. लोकतंत्र की गाय के तोड़ दिए चारों पैर
    नाक में नकेल डाल
    उलट दिया
    पथरीली धरती पर
    कुहनियों से कोंचते हैं मंत्रीगण बार बार
    बारी अब दुहने की आयी है
    खौफ से भरी मां
    कातर आवाज में बिन बछड़ा रंभाती रही
    बां बां बां
    सोचते हैं दूर तलक नज़र गाड़
    चिदम्बरम, मनमोहन, मोंटेक, रमन सिंह
    टेकेंगे कब घुटने वन-जंगल वासी ये
    जैसे हो, जल्दी हो !

    मृत्युन्जय की इन कविताओं पर तत्काल कुछ कह पाना संभव नहीं ,बस इतना कि किसी को भी थर्रा देने वाली कवितायेँ हैं ! ये नश्तर भी हैं और औजार भी !

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  5. mritunjai bhai kavitai achchee lagi khaskar atho raston se chlkar aiya hai dukh jaise pangtiyon se apane prem ke jeevan ko bahut dheere se chhua hai, mari badhai le.

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  6. apne samay ke chehre ki shinakht karti,uski visangatiyo ko lalkaarti in kavitaon me jo aakrosh h vo thoda sa sanyamit ho to aur accha ho...bhasha ne prabhavit kiya..arun ji aap saarthak kaam lagatar kar rahe hain..kavi ka badhai

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  7. Extremely powerful, extremely honest. These could also be for the rain forests of South America or forests in general of China and Africa and Russia.....And thanks for bringing this gem to our notice

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  8. Lambe arse baad tumhaari kavitaayen padhi... banglore ko dhanywaad ki tumse apne aaghosh main rakhkar itni umdaa kavitaayen lkhaa paayaa ..... Sachmuch umdaa Kavitaayen... bahut-bahut yaad.....

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  9. असंगति के समय दाहिने हाथ की बात नहीं सुनता बायां हाथ पैर और सर आपस में जूझ जाते हैं साँसें कलेजे से आँखें अंदर ही उतरती चली जाती हैं मांसपेशियां शिराओं से अलग हो जाती हैं रात का शरीर एक विशाल कमल कोष है जिससे छूट पड़ना चाहता है भौंरा गहरे यथार्थ और द्वंद्व का प्रतिबिम्बित मुक्तिबोध की तरह की छटपटाहट का अह्सास दिलाती कविताएँ

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  10. मृत्युंजय की कविताएँ समय और चिरकुट किस्म की राजनीति से लड़ने के लिए तलवार नहीं, पूरी तोप का काम करती हैं. हमारे समय के सबसे ज्वलनशील मुद्दों पर अपना पक्ष रखती ये कविताएँ, मिट्टी के संगीत के माफ़िक लगती हैं.
    एक बात मैं "Naresh chandrkar" से कहना चाह रहा था कि एक कवि अपना सबसे बड़ा संपादक होता है, दूसरों को उनकी कविताओं में संपादन की इच्छा नहीं रखनी चाहिए.

    अरुण जी को धन्यवाद.

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  11. bhai, kuch bola-leekha hee nahi ja raha hai.deemag aur dil pehle se haal maiN aaye to kuch kahooNga.

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  12. प्रभावी भाषा, दम-खम की बात, जन-पक्ष की प्रबल अभिव्यक्ति, इन कविताओं में बहुत कुछ है।

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  13. हिन्‍दी कवि‍ता का नया चेहरा... बहुत जीवंत रचनाएं... बधाई...

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  14. मृत्युंजय भाई की कविता उन्हीं की तरह है, जिसमें सत्य उबाल मारता है। सत्य अपने ही सत्य से बाहर आता है और कविता के जरिए उद्घोष करता है..सत्यं वद्

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  15. तलवों में बिंधा है बहेलिये का आधा बाण
    पीर की कोई आवाज ही नहीं आती
    ......mritunjai ki kavita ki taakat in do panktiyon se hi jaahir hai..ve hamare samay ki vidambana aur visangtiyon ko kitne behtar tareeke se pakadte hai...wahi unki kavitayon ki khasiyat hai....kavi ko aisa hi hona chahiye...jo apne waqt ko samajhe...aur usme dhakal de.......badhai..

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  16. यह एक समरभूमि है
    यहां लाख नियम एक साथ चलते हैं
    व्यूह भेद की लाख कलाएं
    लाखों मोर्चे एक ही वक्त में एक ही जगह पर खुले रहते हैं
    एक दूसरे से गुंथे
    संगति में bhut khub
    मृत्युंजय . aapke vicaro ki tarah aapki kavitaye khubsurat hai

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  17. दमदार कविताएं ....... बधाई मृत्युंजय भाई

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