सहजि सहजि गुन रमैं : संतोष चतुर्वेदी
















संतोष चतुर्वेदी : -११-१९७१, बलिया (उत्तर-प्रदेश)
कवि - संपादक
पहली बार  (कविता संग्रह २००९), भारतीय ज्ञानपीठ से  
भारतीय संस्कृति (२०११), लोक भारती से प्रकाशित    
अनहद का संपादन
असोसिएट प्रोफेसर (इतिहास)
ई-पता : santoshpoet@gmail.com


हिंदी कविता इधर शहराती हुई है. कभी वह बाहर निकलती भी है तो अपना फ्रेम लिए साथ निकलती है, जैसे उसे इल्म ही नहीं कि उसकी परम्परा में नागार्जुन और त्रिलोचन भी हुए हैं. देशज को देशज की शैली में कहना भी एक काव्य मूल्य है. त्रिलोचन की एक लम्बी कविता है - नगई महरा. बातचीत की भी एक लय होती और कथात्मकता का भी अपना एक काव्यत्व.
संतोष चतुर्वेदी ने सांप पकड़ने वाले मोछू नेटुआ को उसकी शब्दावली और धज के साथ अपनी कविता में आमंत्रित किया है. वह मंत्र ही नही बुदबुदाता है, उस तन्त्र को भी समझता है जिसमें उसकी स्थिति सांप की ही तरह है. 




                                लम्बी कविता
 मोछू नेटुआ
                         

हरखम दरखम गोने नाझा मारे फू
परेछेत केलस कोता जेनेमेजा घाते छू
अलकम बलकम बिल कतेरा नारे कू
मेरेस नाते घोर कराते छाड़े छू

अबूझ भाषा के इस
सांप पकड़ने वाले मऩ्त्र को बुदबुदाने के बाद
एक रसम जैसे वह किरिया खाता था
माई किरिया, बाप किरिया, बेटा किरिया
बेटी किरिया, दामाद किरिया

गाँव किरिया, सीवान किरिया
डीह किरिया, डिहवार किरिया...
और तब एक सधे अन्दाज में डण्डा नचाते
घुस जाता वह घर में सांप पकड़ने
सांप से बाहर निकलने की गुहार करते हुए
मान-मनुहार करते हुए
कि निकलि आओ जहां  भी छुपे बैठे हो वहां  से
निकलि आओ कोने से अंतरे से
धरनि से, सरदर से, कोरो से, मलिकथम से
निकलि आओ पटनी से, डेहर से, दियरखा से
खपरा से, नरिया से
बिल से, बिलवार से
निकलि आओ जहां कहीं छुपे हुए हो
वहीं से जल्दी से जल्दी

भरे गलमुच्छों वाले मोछू नेटुआ के करतब के स्थापत्य को
हम आश्चर्य के शिल्प की तरह निहारते
कुछ ही देर में हम तब वाकई
अपने पास ही मोछू नेटुआ के डण्डा फटकारने
और सांप के फुंफकार की आवाज साथ-साथ सुनते
और तब मोछू के हथेलियों के कसाव में
अपने फन को और चौड़ा करने की नाकाम कोशिश करते  
आंखें लाल-पीला करते विवश पडे सांप को पाते
जिसे ला कर रख देता वह सुरक्षित अपनी झॅपोली में
अपने वादे के मुताबिक जंगल में छोड़ने के लिए

उसी की जुबान से तमाम बातें
तभी जाने हमने साँपों के बारे में
मसलन यह कि गेहॅुवन का डॅंसा नहीं बच पाता कभी
कि अजगर तो लील लेता है हिरन तक को समूचा
कि नाग के जहर का कोई
तोड़ नहीं खोज पाया अभी तक आदमी
कि अपनी पर आ जाय तो
करैत भी कम खतरनाक नहीं होता
कि एक दोमॅुहा सांप भी होता है थुत्थुर
जो छह महीने एक तरफ से सांस लेता है
तो छह महीने दूसरी तरफ से
भारी भरकम विशेषणों से संवार कर
जितना बतलाता वह किसी सांप के बारे में
उतना ही डरावना नजर आता तब वह सांप हमें

डाक्यूमेन्ट्री फिल्मों से बाहर निकल कर
सरकारी दस्तावेजों से इतर
ठेठ अपनी जिन्दगी जीते हुए
गावों की गलियों की खाक छानते हुए
जोर-जोर से आवाज लगाता मोछू नेटुआ
कोवे जैसा महक रहा है मालिक इस घर में
कोवे की इस महक को सूंघ पाता केवल मोछू नेटुआ
जिसके बारे में वह इतराते हुए बतलाता 
कि जिसे साध पाते हैं
कठिनाइयों को झेलने वाले
केवल कुछ लोग ही इस दुनिया में
वही सूंघ पाते हैं कोवे की इस गंध को
कोवे की इस तथाकथित महक से घबराये घर वाले
कुछ कदम आगे बढ़ गये
मोछू नेटुआ को फौरन बुलाते फरमाते
मोछू नेटुआ तब किसी ज्योतिषी के अन्दाज में बतलाता
बहुत खतरनाक है बड़ा जहरीला
बाबूजी जान की बाजी लगा कर निकालना पड़ेगा
सौ रुपये और एक धोती से कम न लूँगा
मोल तोल के बाद आखिर मामला फिर
बीस कम सौ पर पट जाता
मोछू नेटुआ तब फौरन अपने काम पर जुट जाता

अपने सिर पर पगड़ी बांधते
कान में जड़ी खोसते
डण्डा फटकारते... अबूझ सा मन्त्र पढ़ते
तमाम संबंधों की कसमें खाते
वह घुस जाता तब किसी एक कमरे में
और निकाल लाता सचमुच
अपने हाथों की पकड़ में सांप
अक्सर जो उसके मुताबिक
पुराना और बहुत जहरीला हुआ करता 
तब सहज ही यकीन कर लिया करते थे लोग
मोछू नेटुआ की बातों और उसके इस करतब पर
घर के लोगों को पड़ती थी उस रात चैन की नींद
और ठीक उसी दिन
मोछू नेटुआ का घर भी जगमगाता
बहुत दिनों के बाद
उसका पूरा घर जी भर खाता-पीता-सोता

ठमक जाता  ठिठक जाता अक्सर भीड़ देख कर वह 
फिर घर की ओर जा कर बतलाता विशेषज्ञ मुद्रा में
भीड़ से बिदक कर
पास-पड़ोस में हवा खाने कहीं निकल गये नागराज
और इस तरह बढ़ जाता वह कन्नी काट कर आगे
किसी ऐसे घर की तलाष में
जहां कम से कम लोगों के बीच
अपना हुनर दिखा कर
कोई सांप पकड़ सके वह

वैसे कुछ जानकार लोग यह बतलाते
कि मोछू नेटुआ के कमाई-धमाई का जरिया है यह
और जहां  तक सांप की बात है
खोसे रहता है उसे वह अपनी कमर
या धोती के पोछिटे में पहले से ही
कुछ लोग सांप पकड़ने के इस उपक्रम को
जांचने-परखने के लिए
घर के  जंगलों-रोशनदानों से
ताक-झांक करने की तमाम कोशिशें करते
और फिर अपने अपने अनुभव सुनाते बतलाते
फिर भी रहस्य का एक पर्दा तना रहता
पूरी खामोशी के साथ अपनी जगह
जस का तस 

कुछ लोगों का यह भी कहना था
कि सांप के बहाने घरों में घुस कर
सामानों की थाह लेता फिरता है मोछू
और फिर रात-बिरात
अपने साथियों समेत सेंध मार कर
चुरा ले जाता है सारा मालो-असबाब

एक बार जब हमने पूछा मोछू से
उसके गाम-धाम के बारे में
तब उसने बताया कि हम खानाबदोष हैं बाबूजी
पीढ़ियों से हमारे पास नहीं कोई घर
नहीं एक भी धुर जगह जमीन कहीं कोई
जहां रूक गये वहीं बसेरा
जब जग गये तभी सबेरा
हमीं हैं असली रमता जोगी बहता पानी
कभी हमारे देश् को गुलाम बनाने वाल फिरंगियों ने
हम जैसी तमाम घुमन्तू जातियों को
घोषित कर दिया था अपराधी
और तब से यह लेबेल अपने चेहरे पर लगाये
मरते हुए जीने की कोशिशों में
लगातार लगे हुए हैं हम
एक समय तो आलम यह था कि
चाहें जहां चोरी-डकैती पड़े जिला-जवार में
हम ही पकड़ लिये जाते पूरे कुनबे समेत
तब पिछउॅड़ चढा कर बांध दिया जाता था हमें खंभे में
और बेरहमी से तब तक इतना मारा पीटा जाता 
जब तक बेसुध न हो जाते    
बेहोश न पड़ जाते हम मार से
मालिक सही बताऊं   आपको
मुझे तो लगता है कि
आज के समय में सबसे बड़ा अपराध है गरीबी
और तुलसी बाबा भी बहुत पहिलवे
केतना सही कह गये हैं मालिक
समरथ को नहीं दोष गोसाईं

और आज अपने जिस लोकतन्त्र पर
गर्व करते हम नहीं अघाते
उसी की पहरूआ अपनी यह सरकार भी
राई-रत्ती कम नहीं फिरंगियों से
बातचीत में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुए
जब यह कहा मैने मोछू से
तो लगा कि जैसे
उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो मैने
तब बेसाख्ता बोल पड़ा वह
हाँ मालिक यह ससुरी सरकार तो
कभी हमें आतंकवादी बताती है 
तो कभी घोषित कर देती है नक्सलवादी
पता नहीं कहाँ से
ढूढ लाती है एक से एक शब्द
अपनी भाषा में
हमें तो सूझी नहीं रहा कुछ
अब आपे बताइए मालिक
कि कैसे धोये हम
अपने माथे पर जबरिया लादा गया
बेमतलब का कलंक
दिक्कत की बात तो यह कि
कभी कोई समझ ही नहीं पाया हमें
अब देखिए न आपे हमारी नियति
कि पुराने जमाने का अछूत मैं
इस जमाने का अपराधी हो गया हूँ
होता रहा हमारे साथ
हमेशा बदतर सलूक
उठती रही बराबर मन में
एक अजीब सी हूक

छेड़ने के अन्दाज में
अपनी बात रखते हुए कहा मैने
हकीकत में अपराधी तो हैं
लाखों-करोड़
बिना किसी आवाज के घोट जाने वाले
हमारे नेता और अधिकारी
तमाम अपराधों के बावजूद बने रहते हैं
नेता और अधिकारी ही जो जीवनपर्यन्त
मेरा इतना कहना था कि
तिलमिलाते हुए बोल पड़ा मोछू नेटुआ
मुहँ देखी बात नहीं
आप बिल्कुल सांचे कह रहे हैं मालिक
कभी इनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं दिखायी पड़ता
लाज-शरम तो जैसे घोल कर पी गये हैं ये
दरअसल असली विषधर हैं ये समाज के
अमिट कलंक हैं ये हमारे आज के
जिन्हें बाहर नहीं निकाल पा रहा कोई तन्त्र-मन्त्र
इन मायावियों के सामने
सारे हरवा-हथियार पड़ते जा रहे हैं बेअसर
तन्त्र-मन्त्र पड़ते जा रहे हैं बांझ
और सरकार भी तो इन्हीं के पास गिरवी होती है
अब तो खोजना ही पड़ेगा हमीं लोगों को
इनसे निपटने के लिए
जमाने के मुताबिक कोई नया ब्रह्मास्त्र

एक बात बताये मालिक
अच्छा जाने दीजिए छोड़िए
यह कह कर अचानक
चुप्पी के समन्दर में डूब गया मोछू नेटुआ
मैंने फिर बहुत कुरेदा उसे
तब हमारे बीच पसरी हुई खामोशी को
चीरते हुए बोल पड़ा वह
दरअसल अपने समय की हॅसमुख दुनिया का ही 
एक उदास चेहरा हैं हम
अपनी उदासी के लिए जैसे हमेशा से अभिशप्त
अब देखिए ना कि
तरह तरह की तरकीबों से
नहीं जुटा पा रहे हम आज भी
तमाम लोगों की ही तरह दूसरे टैम का भोजन
कपड़ा लत्ता भी मुश्किलें से चढ़ पाता है तन पर
हमारे बाल-बच्चे जान नहीं पाये कि
जीवन का कोई अनुभव होता है बचपन
अपनी फांकाकशी में भटकते-फिरते हम
सोच ही नहीं पाते कोई फितूर 
और होते रहते हैं लगातार दर-बदर
घूमते फिरते हैं रोज इधर उधर
यही देख समझ कर आखिर एक दिन
अपना कांवर अपनी झॅंपोली फेक-फांक कर
भाग गये हमारे दोनो बेटुए
बाहर कहीं मेहनत मजूरी करने
बाबूजी अब तो दोनो हो गये एकदमे से बहरवांसू
मोछू नेटुआ फख्र से बतलाते
चलो अच्छे से गुजर-बसर तो हो जाती है न उनकी
ठीक ही तो किया उन दोनो ने
दर-दर भटकना तो नहीं पड़ेगा उन्हें हमारी तरह
दो जून की रोटी जुटाने के लिए
और हम बूढ़ा-बूढ़ी की जिनगी ही कितनी बची है
कट ही जायेगी जैसे-तैसे

फिर मोछू की आँखों में एक चमक दिखायी पड़ी
बोल उठा वह अपने पर गर्व करते हुए जैसे
तमाम तंगहाली के बावजूद भी
मालिक हमरा एक पक्का उसूल है
आज भी जिस सांप को पकड़ते हैं हम अपने हाथों
बुलाते-बझाते हैं जिन्हें पुचकार कर
अपने सगे-संबंधियों की किरिया खा-खा कर
उन्हें छोड़ आते हैं दूर जंगल में
अपने वादे के मुताबिक
कि मालिक एक जगह कहीं सुना हमने कि
खतम होते जा रहे हैं बड़ी तेजी से सांप भी
अब तो नहीं रहे वे सांप
ना ही रहे वो सॅपधरवे
प्रश्न की शक्ल में पूछे गये
जिओ-खाओ  घूमो-फिरो आजाद हो कर
जंगल की इस दुनिया में नागराजा
किसी को डॅंसने-मारने से बहुत बेहतर है
जिनगी जीने का यह सलीका

उसकी बात को बीच में ही काटते हुए बोल पड़ा मैं
जानते हो अब तो
एक मशीन ईजाद हो गयी है सांप पकड़ने की
जो बड़ी आसानी से खोज लेती है
सांपों को दूरदराज से ही
हाँ मालिक हमने भी सुना है कहीं कि
साँपों को पकड़ कर
बड़ी बेरहमी से निकाल लिया जाता है उसका जहर
सुना है कि उस जहर से बनायी जाती हैं
एक से बढ़ कर एक महॅगी दवाइयां
फिर वे अपने कहर के जहर से मार डालते हैं सांप को
महज उसकी खाल के लिए
सुना है जिससे तैयार होते हैं कारखानों में
महॅगे-महॅगे कोट
महॅगे-महॅगे बैग
बाजारों में बेचने के लिए

जैसे खूंटों से एक-एक कर गायब होते गये बैल
गायों से खाली होते गये दुआर
अपनी सख्त कवच के बावजूद
कछुए नहीं बचा पाये खुद को
और हमारे देखते-देखते गायब होते गये
दूर तक नजर रखने वाले गिद्ध
ठीक उसी तरीके से गायब होते जा रहे हैं सांप
दुनिया जहान से एक-एक कर
मेरी इस बात को पूरा करते हुए बोल पड़ा वह
देखिए ना अब तो हालत यह है कि
किसी गाँव घर से
एक अरसे से
नहीं हो रही कोई बुलाहट
और मेरी परेशानी है कि
बढ़ती ही जा रही है दिन-ब-दिन
और अब वे जंगल भी तो नहीं रहे अब
जिसमे बिना किसी डर भय के आजादी से
विचरते फिरते थे सांप अपने संगी साथियों के साथ
और जहां  हम भी अपने वादे के मुताबिक
छोड़ आते थे पकड़े गये सांपोंप को

खांसते-खखारते
देह का ही अब अंग बन गये अपने दर्द से कराहते
बूढ़े हो चले मोछू नेटुआ
अब पूछते फिरते हैं एक ही सवाल
पागलपन की हद तक जा कर
गायब करते-करते सारे जीवों को   वनस्पतियों को
क्या कायम रख पायेगा आदमी
धरती के अपने इस ठिकाने पर खुद को सही सलामत
कहीं से नहीं मिलता उसे कोई जवाब
कोई जहमत नहीं उठाता अब
इस मुददे पर कुछ भी सोचने की विचारने की
सब जगह दिखायी पड़ता है उसे
मरघट सा सन्नाटा

पीढ़ियों से धन्धा करते आये मोछू नेटुआ
चिन्तित है अब इस बात पर
कि बेअसर पड़ता जा रहा है सांप का जहर
और लगातार जहरीला हो़ता जा रहा है आदमी
मोछू खुद भी तस्दीक करते हैं इस बात की
कि सापों को तो आसानी से चीन्ह लेते थे हम
कि कौन गेहुवन है कौन करैत
लेकिन आदमी को आदमी की भीड़ से बीन कर
जहरीले तौर पर अलगा पाना
एकदमे से असंभव है मालिक

और सबसे दिक्कत तलब यह कि
अभी तक के सारे तन्त्र-मन्त्रों को धता बताता
कांइयां किस्म का आदमी ऊपर से कुछ और
अन्दर से कुछ और हुआ जा रहा है
अब मोछू किसका खाये किसका गाये
का ले के परदेस जाये
बदलती हुई परिस्थितियों में
उसकी समस्या अब यह है कि
लगातार जहरीली होती जा रही इस दुनिया में से
कुछ बेजहर लोगों को वह कैसे सामने लाये
कैसे इन्हें बचा कर सुरक्षित रखे छोड़े कहीं
किस तरह अपना वचन निभाये
कैसे वह अपनी चाहत का कुछ रंग जुटा कर
अपने समय की
एक सुखद तस्वीर बनाये.

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  1. अच्छी लए बद्द कहानी कविता के रूप में ...इंसानी फितरतों कर्मों का प्रकृति के साथ या प्रकृति के श्रंगारों के साथ क्रूर बर्ताव ...इन्सान का इन्सान के साथ रिश्ता ..जीव के साथ रिश्ता ...फिर उसका आज के राजनीती के दो मुहें रिश्तों का भी बढ़िया पटापेक्स्य किया है कही..इन्सान ज़हर से केसे निडर सा होता हुआ कही ..जंगलों के जीवों के मकनातो में इंसानी प्रवेश ...कुल मिला कर आज के हालातों का ज़बरदस्त आलेख कही ...सुन्दर संतोष जी ...धन्यवाद अरुण जी !!!!!!Nirmal Paneri

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  2. कविता की शुरुआत आकर्षित करती है लेकिन बीच-बीच में कभी हमारे देश् को गुलाम बनाने वाल फिरंगियों ने/हम जैसी तमाम घुमन्तू जातियों को/घोषित कर दिया था अपराधी/और तब से यह लेबेल अपने चेहरे पर लगाये
    मरते हुए जीने की कोशिशों में/लगातार लगे हुए हैं हम…जैसी पंक्तियों में कवि का विचारक हावी हो जाता है…लेकिन कुल मिलाकर एक अच्छी और सार्थक कविता। आप दोनों को बहुत बधाई

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  3. thori si sampadit ho jai to kavita behatar ho jayegi.taaham ye ek achhi kavita hai,ek anchue andaz me.
    viren dangwal

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  4. साँप और समाज के तंत्र-मंत्र के वर्णन में कविता का तंत्र (मंत्र तो चलता नहीं कविता में, या चलता है?) कहीं भटक सा गया है। शुरुआत बहुत सधा हुआ है किंतु बस शुरुआत ही, उसके बाद कविता की समाजशास्त्रीय भाषा में यदि कहूँ तो विचारधारा (यहाँ केवल विचार पढ़िये) कविता के ऊपर ऊपर तैर रही है और कविता की गहनता को "डाइल्यूट" कर रही है। भाव और भावना अच्छी है किंतु भंगिमा (कविता की) पाठक (या केवल मुझे) को अाकर्षित नहीं कर पाती। बीच-बीच में कुछ पंक्तियाँ चौंकाती अवश्य हैं, किंतु मोछू की विद्धता हैरान भी करती है और परेशान भी।

    अरूण जी, मैं आपसे बिल्कुल सहमत हूँ कि हिंदी कविता इधर शहराती हो गई है और "देशज को देशज की शैली में कहना भी एक काव्य मूल्य है" परंतु अफ़सोस की बात है कि संतोष जी इसमें सफल नहीं हो पाये हैं। संतोष जी ने देशज का प्रयोग तो किया है लेकिन ऐसा लगता है कि कुछ डरते या सकुचाते हुए। कुछ शब्दों को छोड़ कर उनकी कविता भाषा पर शहराती प्रभाव आसानी से लक्ष्य किया जा सकता है।
    यह कवि की एक कविता के बारे में मेरे विचार हैं कवि के बारे में नहीं।

    सईद अय्यूब

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  5. सुशील कृष्ण गोरे31 जन॰ 2011, 2:58:00 pm

    संतोष आपकी कविता अपने ढंग की कविता है। ज़रूरी नहीं कि कविता जिंदग़ी की स्थितियां बयां करने के लिए पहले तथाकथित समीक्षकीय आग्रहों पर पुष्प-पत्र अर्पित करे ही। मोछू नेटुआ की दूसरे टैम के अनिश्चित भोजन की तलाश में भटकती खनाब़दोश ज़िंदगी के समानांतर यदि व्यवस्था पर भी एक बहस चलती रही है कविता में तो इसमें बुरा ही क्या है-मुझे समझ में नहीं आता। कविता को तो सभ्यता विमर्श कहा गया है। आखिर हम कविता में कोई रेनेसां क्यों नहीं मंज़ूर करते। विचार क्यों नहीं आ सकता कविता के आयतन में? नदी एक चिरंतन सुंदर नाम है। एक बार-बार श्रव्य पदावली। लेकिन क्या उसके आधार पर, उसकी छवियों, उसकी स्मृतियों की किनारी पर रचित कविवर कृष्ण मोहन झा की छ: विचारवान कविताएँ अभी कुछ ही रोज पहले इसी ब्लॉग पर हम सभी ने नहीं पढ़ी? संतोष जी की कविता कहीं से डाइलूट-वाइलूट नहीं हुई है...यह सब संतोष की कविता पर खाली-फोकट समीक्षा-संतोषी वक्तव्य हैं। लिखते रहिए संतोष भाई... हमहुँ तोहरा बगल में देउरिया के ही मनई हइं... जरको मत डरिह SSSS अरुण जी तहरे साथे बाड़न SSSS

    तहार इ लाइन नीक लागल... एकरा में का डाइल्यूट हो गइल बा? या तो सच्चो हमार समझ हेरा गइल बा या कविता-भावन-शक्ति ठंडा गइल बा....

    ===मोछू खुद भी तस्दीक करते हैं इस बात की
    कि सापों को तो आसानी से चीन्ह लेते थे हम
    कि कौन गेहुवन है कौन करैत
    लेकिन आदमी को आदमी की भीड़ से बीन कर
    जहरीले तौर पर अलगा पाना
    एकदमे से असंभव है मालिक===

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  6. कविता पढ़कर मुझे अपना गांव याद आ गया। संतोष जी ने भोजपुरी शब्दों का बहुत ही सार्थक इस्तेमाल किया है इस कविता में। कविता मुझे बहुत अच्छी लगी। ज्ञानोदय में इसे पहले पढ़ चुका हूं..यहां दुबारा पढ़ने का अवसर देने के लिए अरूण भाई का आभार....

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  7. मोछू नेटुआ संभवतः संतोषजी की सबसे उम्दा कविताओं में से एक है.

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  8. अच्छी कविता पढवाने के लिये कवि व संपादक को बहुत बहुत बधाई।

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  9. संतोष जी के दूसरे संग्रह की मेरी प्रिय कविता .......

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  10. इस अलग सी कविता पढ़ते हुए फार्म के स्तर पर कवि मान बहादुर सिंह याद आए।इसमें
    कुछ संपादन मुझेे भी आवश्यक लगा है।
    कविता में यह अछूता संसार लाने कवि को हार्दिक बधाई!

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