मंगलाचार : राहुल द्विवेदी - कविता




राहुल द्विवेदी कविताएँ लिखते हैं. छिटपुट प्रकाशन भी हुआ है. अन्तराल के बाद फिर सक्रिय हुए हैं. यह कविता मुझे ठीक लगी. निरंतरता बनाएं रखें और संग्रह भी जल्दी आए इसी उम्मीद के साथ यह  कविता. 

आख़िर पुरुषों को रोने से रोका क्यों जाता है ? जबकि यह एक मानवीय सहज प्रक्रिया है. पुरुष बने रहने के लिए समाज उससे न जाने कौन कौन से  अ-मानवीय कार्य कराता है. 



कविता
चूंकि पुरुष रोते नहीं हैं !                            
राहुल द्विवेदी






(1)
याद आता है मुझे
कि बचपन में,
भाई के गुजर जाने पर ,
जब आँसू छलक ही आए थे
पिता की आंखों में ...
हौले से कंधे को दबाकर
रोक दिया था बाबा ने...
और कहा था
तुम पुरुष हो...
देखना है तुम्हें बहुत कुछ
संभालना है परिवार
और जंग लड़नी है तुम्हें
बनना है एक आदर्श.....
इसलिए  गांठ बांध लो तुम

पुरुष रोते नहीं हैं.


(2)
बाबा को निश्चित ही
परंपरा में  मिला रहा होगा
यह सबक....
पीढ़ी दर पीढ़ी
सतत...

शायद इसीलिए वो,
जूझते रहे ताउम्र......
अपने आपसे,
अपनी बेबसी से,
गरीबी से ….
चूंकि वह एक पुरुष थे,
(और पुरुष रोता नहीं है भले ही झुक जाएँ उसके कंधे)
वो हमेशा दिखते रहे एक चट्टान की तरह...

उनका चेहरा हमेशा रहा भावना शून्य
जबकि आजी,
कितनी ही  रातों को सिसकती रही
उस घटना के बाद ...
पर,
नामालूम  क्यों
मुझे आज भी रात के सन्नाटे में
सुनाई देती है एक हूक
अक्सर---
जैसे कि घोंट ली  हो
किसी ने अपनी आवाज ....

निश्चय ही वो हूक
मुझे लगता है
बाबा की है,
जो सुनाई देती है बदस्तूर
लमहा दर लमहा
साल दर साल
उनके चले जाने के बाद भी........



(3)
इधर जज़्ब हो गए
आँसू पिता के......
चूंकि उन्हे देखना था परिवार
संभालना था छोटे भाइयों को
बूढ़ी माँ को,
उस बाप को भी---
जो  कि था एक पुरुष....
और हाँ,
अपने परिवार को भी.......
सचमुच----
नहीं देखा मैंने कभी
रोते हुये अपने पिता को
जबकि,
ये महसूसा है मैंने
कि अचानक बूढ़े हो गए
उस दिन के बाद से वो.......

बेसाख्ता ठहाका  नहीं गूँजता अब घर में
कुछ कुछ कठोर से हो गए हैं
मेरे पिता....

गुमसुम गुमसुम से रहने लगे हैं वो
अब.....
ना जाने क्या क्या ढूंढते रहते  हैं
किताबों में,
कोई पुराने पन्ने
जिसमे छिपी हो कोई मुस्कान
शायद......

और फिर चुपके से
देख लेते हैं  सूनी निगाहों से
आसमान की तरफ.



(4)
बचपन में  मुझे भी
समझाया था उन्होनें  कितनी बार
नहीं  रोते इस तरह...
जब मैं मचल उठता था किसी बात पर
और चुप हो जाता था मैं
ये सुनकर कि,
पुरुष रोते नहीं हैं....

पर मालूम है- मेरे पिता !
तुमसे छिप कर,
न जाने कितनी - कितनी बार,
बाथरूम में  खुले नल के नीचे ,
गिरते पानी के धार  में
धुल गए हैं मेरे आँसू...
जब मैं हारता था
अपने आप से .

........और उस बार तो,
खूब रोया था सर रख कर
पत्नी के कंधों पर
जबकि वह थी बीमार
बहुत- बहुत  बीमार....

पर आश्चर्य है !
वह बन गई थी एक पुरुष उस क्षण......
उसके कमजोर कंधे हो गए थे बलिष्ठ----
उसने ही,
हाँ सचमुच उसने ही
पोछे थे मेरे आँसू---
ये कहते हुये एक फीकी हंसी के साथ
कि कुछ नहीं होगा मुझे......



(5)
क्षमा करना मेरे पुरखों  !
मैं रोक न सका अपने आँसू
और अक्सर ही------
मैं नहीं दे पाता सांत्वना
अपनी पत्नी को,
या फिर किसी भी स्त्री को
जब वह रोती है
तब मैं नहीं बन पाता पुरुष
छलक ही जाते हैं मेरे आँसू
उनके आंसुओं के साथ...।

हे पूर्वजों ,
फिर से क्षमा करना मुझे !
कि नहीं रोक पाता मैं  बेटे को
जब रोता है वह, तब......
नहीं बताता मैं उसे
कि पुरुष हो तुम
और पुरुष रोते नहीं हैं
(जिसकी आड़ मे खो गए हैं युवा इस अहंकार के साथ कि वो एक पुरुष हैं ....)
जी हाँ ,
नहीं चाहता मैं कि उसका पुरुषोचित दंभ
हावी हो उस पर....
वो भी रात के अंधेरे में निकले जब,
तो सहम जाय
जैसे कि बेटियाँ........

{बेटियाँ असुरक्षित हैं}

______________________

राहुल द्विवेदी
05/10/1974
एम.एससी. (रासयानिक शास्त्र), इलाहाबाद विश्वविद्यालय

सम्पर्क :
अवर सचिव , भारत सरकार

कमरा नंबर : सी 1, 1009, संचार भवन , नई दिल्ली
 rdwivedi574@gmail.com

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  1. नहीं चाहता मैं कि उसका पुरुषोचित दंभ
    हावी हो उस पर....
    वो भी रात के अंधेरे में निकले जब,
    तो सहम जाय
    जैसे कि बेटियाँ....
    अपनी सहजता और सरलता में बाँधती हुई कविताएँ..

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  2. पुरूष का पितृ रूप में दुख पी जाने की बहुत भावुक अिभव्यक्ति...पुरूष अन्य प्रकार भी आहत होता है
    मन ही मन रोता है
    क्योंकि वह भी परित्यक्त होता है निर्वासित
    निष्कासित
    और
    देहरियों
    दरवाज़ों से बाहर कर दिया जाता है

    जवाब देंहटाएं
  3. अच्छी कविताएं
    पुरुष हो या स्त्री ,स्वाभाविकताएं अवरुद्ध हो कर कुछ अनर्थ भी कर जाती हैं।

    जवाब देंहटाएं
  4. नहीं चाहता मैं कि उसका पुरुषोचित दंभ
    हावी हो उस पर....
    वो भी रात के अंधेरे में निकले जब,
    तो सहम जाय
    जैसे कि बेटियाँ........

    {बेटियाँ असुरक्षित हैं}
    बेटियाँ असुरक्षित हैं और जैसे कि बेटियाँ ने एक कंट्रोवर्सी को जैसे जन्म दे दिया ........नहीं चाहता पुरुषोचित दंभ तक तो बात समझ आ रही थी और जम भी रही थी लेकिन वहीँ आगे की पंक्तियाँ एक दम विपरीत अर्थ दे रही हैं और पुरखों की बात को भी प्रमाणित कर रही हैं कि जैसे कवि कहना चाहता हो वो सही है ........दो अर्थ समेटे है कविता .....वहीँ अंतिम पंक्ति बेटियाँ असुरक्षित हैं भी एक अलग ही अर्थ में जा रही है ........पुरुष का रोना माना उसकी कमजोरी गिना गया और इस तरह उसे भावनात्मक से एक व्यावहारिक इंसान बनाया गया लेकिन पुरुष के पास भी भावनाएं होती हैं बिलकुल स्त्रियों की तरह तो उन भावनाओं का बहना भी जरूरी है ये कविता सन्देश दे रही है लेकिन बेटियां असुरक्षित हैं से क्या तात्पर्य है कवि का ? क्या ये कहना चाहता है जो व्यावहारिक होते हैं अर्थात रोते नहीं , उनमें भावनाएं मर जाती हैं और इसी कारण उनमे से कुछ पुरुषों के लिए स्त्री भोग्या हो जाती है इसलिए बेटियां असुरक्षित हो जाती हैं क्योंकि कहीं भी उनका बलात्कार हो सकता है?
    वो भी रात के अंधेरे में निकले जब,
    तो सहम जाय
    जैसे कि बेटियाँ...
    यानि यहाँ भी कवि यही कहना चाह रहा है जैसे वो चाहता है पुरुषोचित दंभ कायम रहे ........द्विअर्थी कविता है ये .....जहाँ कवि खुद समझ नहीं पा रहा या कहो दो पलड़ों में सवार है जहाँ उसके मन में द्वन्द है एक तरफ वो चाहता है आने वाली पीढ़ी का पुरुष भावनाओं से लबरेज भी रहे तो दूसरी तरफ अपना पुरुषोचित दंभ भी न छोड़े .......स्त्री या बेटी महज बिम्ब हैं जिनसे वो अपनी कविता में मानो एक नैतिकता परोसना चाह रहा है लेकिन वहीँ पुरुष का पुरुषपन भी नहीं छोड़ पा रहा ......अपने ही द्वन्द में घिरा कवि जैसे कविता में स्त्री या बेटी का प्रयोग कर एक चमत्कार पैदा करना चाहता है क्योंकि आज का सबसे लोकप्रिय विषय है या फिर उसकी संवेदना हैं तो सही स्त्री के साथ लेकिन अपना पुरुष भी उससे दायें नहीं रखा जा रहा ...........कविता शुरू से आखिर तक अपने प्रवाह में बहुत पुष्ट थी लेकिन अंतिम पैरा में आकर उत्पन्न किये गए द्वन्द ने उसमे से जैसे कलात्मकता को ख़त्म कर दिया और कवि की सोच पर प्रश्न उठा दिया ......शायद कुछ पाठकों तक पहुँच जाए जो कविता कहना चाहती है लेकिन मुझ तक तो ऐसे ही पहुंची.

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  5. बहुत सुन्दर रचना,दिल को छू गई

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  6. स्वागत है आपकी इन टिप्पणियों का भी वंदना जी ... पर द्विअर्थी कह कर आपने कविता की ही अर्थी निकाल दी ...,आभार !!

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  7. @rahul dwivedi ji इस द्विअर्थी का अर्थ वो नहीं है और उसे मैंने कमेंट में क्लियर भी किया है ......दो अर्थ जब निकल रहे हों तो उसे क्या कहा जायेगा? द्विअर्थी न .......अब सब जगह द्विअर्थी का अर्थ वो नहीं होता ........बस जैसे मुझ तक पहुंची मैंने कहा यदि इसका कोई और अर्थ भी है जो मुझ तक नहीं पहुंचा तो जानना जरूर चाहूंगी . इसके लिए नाराज नहीं होना चाहिए कवि को बल्कि कोशिश करनी चाहिए सामने वाले को अपनी कविता का वास्तविक अर्थ समझाने की .....आपको बुरा लगा हो तो माफ़ी .

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  8. राहुल द्विवेदी4 सित॰ 2017, 2:30:00 pm

    पुरुषोचित दंभ न छोड़े ..इसका बल आपको कहाँ दिखाई देता है। वंदना जी! वस्तुतः ये पूरी कविता चार पीढ़ियों के ट्रांसफार्मेशन की कविता है ,कोई संशय या भ्रम नही । हाँ ये जरूर है कि कविता एक बिंदु पर अचानक खत्म होती है और यह सायास है । बाकी आप आलोचकों की समालोचनाएँ सर आंखों पर ..कविता कई गूढ़ तत्व को लिए हुए है (और माफ कीजियेगा इसका विश्लेषण आप को करना है ..)
    बुरा लगने की कोई बात नहीं मैंने तो तब भी आभार जाहिर किया था और उपरोक्त कथन पर भी बहुत बहुत आभार ..

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  9. Vandana ji, Rahul theek Kah rahey hain ..Antim ansh mein hi to Jaan hai Kavita ki ..

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