पेंटिग : bijay-biswal |
कविता के साथ लय का रिश्ता
पुराना है, अक्सर छंद च्युत कविताओं में भी आंतरिक संगति रहती है. हर कविता की
अपनी लय होती है.
संभव है संदीप तिवारी से यह
आपकी पहली मुलकात हो, अलग आस्वाद की इन कविताओं में वह ध्यान खींचते हैं.
संदीप तिवारी की कविताएँ
_____________________________________
हर जगह जले थे दीप
बचा था 'जाँत' अकेले खपरैले में,
जब वहाँ अँधेरा
अम्मा ने देखा होगा,
तब वे ज़रूर रोई होंगी
स्मृतियों में उलझी होंगी
खोयी होंगी.....
उनकी यादों में तब ज़रूर
आए होंगे ..वे बीते दिन
जब इसी जाँत को घुमा-घुमा
ढेरों अनाज पीसा होगा
खाया होगा,
उन लोक गीत,
उन लोक धुनों.
_____________________________________
पसिंजरनामा
काठ की सीट पर बैठ के जाना
वाह पसिन्जर जिंदाबाद
बिना टिकस के रायबरेली
बिना टिकस के फ़ैज़ाबाद
हम लोगों की चढ़ी ग़रीबी को सहलाना
वाह पसिन्जर जिंदाबाद.
वाह पसिन्जर जिंदाबाद
बिना टिकस के रायबरेली
बिना टिकस के फ़ैज़ाबाद
हम लोगों की चढ़ी ग़रीबी को सहलाना
वाह पसिन्जर जिंदाबाद.
हाथ में पपेरबैक किताब
हिला-हिलाकर चाय बुलाना
रगड़ -रगड़ के सुरती मलना
ठोंक -पीटकर खाते जाना
गंवई औरत के गंवारपन को निहारना
वाह पसिन्जर जिंदाबाद.
हिला-हिलाकर चाय बुलाना
रगड़ -रगड़ के सुरती मलना
ठोंक -पीटकर खाते जाना
गंवई औरत के गंवारपन को निहारना
वाह पसिन्जर जिंदाबाद.
तुम भी अपनी तरह ही धीरे
चलती जाती हाय पसिन्जर
लेट-लपेट भले हो कितना
पहुंचाती तो तुम्ही पसिन्जर
पता नहीं कितने जनकवि से
हमको तुम्हीं मिलाती हो
पता नहीं कितनों को जनकवि
तुम्हीं बनाते चली पसिन्जर
बुलेट उड़ी औ चली दुरन्तो
क्योंकि तुम हो खड़ी पसिन्जर
बढ़े टिकस के दाम तुम्हारा क्या कर लेगी ?
वाह पसिन्जर जिंदाबाद.
चलती जाती हाय पसिन्जर
लेट-लपेट भले हो कितना
पहुंचाती तो तुम्ही पसिन्जर
पता नहीं कितने जनकवि से
हमको तुम्हीं मिलाती हो
पता नहीं कितनों को जनकवि
तुम्हीं बनाते चली पसिन्जर
बुलेट उड़ी औ चली दुरन्तो
क्योंकि तुम हो खड़ी पसिन्जर
बढ़े टिकस के दाम तुम्हारा क्या कर लेगी ?
वाह पसिन्जर जिंदाबाद.
छोटे बड़े किसान सभी
साधू, संत और सन्यासी
एक ही सीट पे पंडित बाबा
उसी सीट पर चढ़े शराबी
चढ़े जुआड़ी और गजेंड़ी
पागल और भिखारी
सबको ढोते चली पसिन्जर
यार पसिन्जर तुम तो पूरा लोकतंत्र हो !!!!!
सही कहूँ ग़र तुम न होती
कैसे हम सब आते जाते
बिना किसी झिकझिक के सोचो
कैसे रोटी- सब्जी खाते
कौन ख़रीदे पैसा दे कर 'बिसलरी'
उतरे दादा लोटा लेकर
भर के लाये तजा पानी
वाह पसिन्जर ...................
तुम्हरी सीटी बहुत मधुर है
सुन के अम्मा बर्तन मांजे
सुन के काका उठे सबेरे
इस छलिया युग में भी तुम
हम लोगों की घड़ी पसिन्जर
सच में अपनी छड़ी पसिन्जर
वाह पसिन्जर जिंदाबाद.
साधू, संत और सन्यासी
एक ही सीट पे पंडित बाबा
उसी सीट पर चढ़े शराबी
चढ़े जुआड़ी और गजेंड़ी
पागल और भिखारी
सबको ढोते चली पसिन्जर
यार पसिन्जर तुम तो पूरा लोकतंत्र हो !!!!!
सही कहूँ ग़र तुम न होती
कैसे हम सब आते जाते
बिना किसी झिकझिक के सोचो
कैसे रोटी- सब्जी खाते
कौन ख़रीदे पैसा दे कर 'बिसलरी'
उतरे दादा लोटा लेकर
भर के लाये तजा पानी
वाह पसिन्जर ...................
तुम्हरी सीटी बहुत मधुर है
सुन के अम्मा बर्तन मांजे
सुन के काका उठे सबेरे
इस छलिया युग में भी तुम
हम लोगों की घड़ी पसिन्जर
सच में अपनी छड़ी पसिन्जर
वाह पसिन्जर जिंदाबाद.
भले कहें सब रेलिया बैरनि
तुम तो अपनी जान पसिन्जर
हम जैसे चिरकुट लोगों का
तुम ही असली शान पसिन्जर
वाह पसिन्जर जिंदाबाद.
तुम तो अपनी जान पसिन्जर
हम जैसे चिरकुट लोगों का
तुम ही असली शान पसिन्जर
वाह पसिन्जर जिंदाबाद.
मकड़जाल
भिनसार हुआ, उससे पहले
दादा का सीताराम शुरू
कितने खेतों में कहाँ-कहाँ
गिनना वो सारा काम शुरू
'धानेपुर' में कितना ओझास,
पूरे खेतों में पसरी है
अनगिनत घास
है बहुत... काम,
दादा का सीताराम शुरू
कितने खेतों में कहाँ-कहाँ
गिनना वो सारा काम शुरू
'धानेपुर' में कितना ओझास,
पूरे खेतों में पसरी है
अनगिनत घास
है बहुत... काम,
हरमुनिया सा पत्थर पकड़े
सरगम जैसा वो पंहट रहे
फरुहा, कुदार, हंसिया, खुरपा
सब चमक गए
दादा अनमुन्है निकल पड़े
दाना-पानी, खाना-पीना
सब वहीं हुआ,
बैलों के माफ़िक जुटे रहे
दुपहरिया तक,
घर लौटे तो कुछ परेशान
सारी थकान.....
गुनगुनी धूप में सेंक लिए,
अगले पाली में कौन खेत
अगले पाली में कौन मेड़
सोते सोते ही सोच लिए
सरगम जैसा वो पंहट रहे
फरुहा, कुदार, हंसिया, खुरपा
सब चमक गए
दादा अनमुन्है निकल पड़े
दाना-पानी, खाना-पीना
सब वहीं हुआ,
बैलों के माफ़िक जुटे रहे
दुपहरिया तक,
घर लौटे तो कुछ परेशान
सारी थकान.....
गुनगुनी धूप में सेंक लिए,
अगले पाली में कौन खेत
अगले पाली में कौन मेड़
सोते सोते ही सोच लिए
खेती-बारी में जिसका देखो यही हाल
खटते रहते हैं, साल-साल
फिर भी बेहाल,
बचवा की फीस, रजाई भी
अम्मा का तेल, दवाई भी
जुट न पाया,
कट गई ज़िंदगी
दाल-भात तरकारी में...!
खटते रहते हैं, साल-साल
फिर भी बेहाल,
बचवा की फीस, रजाई भी
अम्मा का तेल, दवाई भी
जुट न पाया,
कट गई ज़िंदगी
दाल-भात तरकारी में...!
ये ढोल दूर से देख रहे हैं
लोग-बाग़,
नज़दीक पहुंचकर सूँघे तो
कुछ पता चले,
खुशियों का कितना है अकाल...
ये मकड़जाल,
जिसमें फंसकर सब नाच रहे
चाँदनी रात को दिन समझे
कितने किसान.....
करते प्रयास
फ़िर भी निराश
ऐसी खेती में लगे आग!
लोग-बाग़,
नज़दीक पहुंचकर सूँघे तो
कुछ पता चले,
खुशियों का कितना है अकाल...
ये मकड़जाल,
जिसमें फंसकर सब नाच रहे
चाँदनी रात को दिन समझे
कितने किसान.....
करते प्रयास
फ़िर भी निराश
ऐसी खेती में लगे आग!
भूखे मरते थे पहले भी
भूखे मरते हैं सभी आज
क्या और कहूँ ?
भूखे मरते हैं सभी आज
क्या और कहूँ ?
समय का मारा
बुरे समय में रोये कोयल
कौवा छेड़े तान
बुरे समय में बोए गेहूँ
निकले बढियाँ धान
बुरे समय में छोड़ दिए हैं आना-जाना
उसके सब मेहमान
बुरे समय में क्यों लगता है, बुरा ही बुरा
उसको सकल जहान
बुरे समय में खो जाती है
रात-रात की नींद
औ बुरे समय में बच जाती है
थोड़ी सी उम्मीद
उम्मीदों की पूँछ पकड़कर 'समय का मारा'
चलता जाए
उम्मीदों को गले लगाकर
लड़ता जाए बढ़ता जाए
बुरे समय में बहुत कुछ नया
गढ़ता जाए,
उम्मीदों का दिया जलाए
पर्वत चोटी व पहाड़ पर चढ़ता जाए.......
कौवा छेड़े तान
बुरे समय में बोए गेहूँ
निकले बढियाँ धान
बुरे समय में छोड़ दिए हैं आना-जाना
उसके सब मेहमान
बुरे समय में क्यों लगता है, बुरा ही बुरा
उसको सकल जहान
बुरे समय में खो जाती है
रात-रात की नींद
औ बुरे समय में बच जाती है
थोड़ी सी उम्मीद
उम्मीदों की पूँछ पकड़कर 'समय का मारा'
चलता जाए
उम्मीदों को गले लगाकर
लड़ता जाए बढ़ता जाए
बुरे समय में बहुत कुछ नया
गढ़ता जाए,
उम्मीदों का दिया जलाए
पर्वत चोटी व पहाड़ पर चढ़ता जाए.......
माँगना आसान नहीं होता ....
'माँगना' कितना
भयानक शब्द है
कि माँगने से पहले का डर
माँगने से मना करता है,
लेकिन न माँगना भी
मुश्किलों का हल नहीं होता,
जो लोग माँगने के नुस्खों से परिचित हैं,
जरा उनसे पूछिए कि
मांगने से पहले
उनका हाथ कलेजे पर नहीं रहता ..?
पूछिए कि
उनका मुंह किस गति से काँपता है..?
पूछिए कि
अपनी ही नज़रों में कितना धंसते हैं..?
पूछिए कि
रोते हैं या फ़िर हँसते हैं ...?
बस इतना समझिये कि
यहाँ एक आग है,
जो भभककर जलती रहती है
और देने वाले के इनकार के बाद भी
बुझती नहीं है
सुलगती रहती है ...................
और इस सुलगती आग से निकले धुएं,
यह लिखा करते हैं कि
न माँगना बड़े लोगों की बात है
न माँगना चोरों की जात है
लेकिन ये माँगने वाले
अलग दुनिया के होते हैं,
मुंहफट, मुंहजोर...
जो लगभग हर दरवाजे पर दुरदुराए जाते हैं
फ़िर भी माँगते हैं ,
मुंह खोल के माँगते हैं
निगाहें मोड़ के माँगते हैं
हथेली जोड़ के माँगते हैं
माँगना इतना आसान भी नहीं
है कि नहीं !
कि माँगने से पहले का डर
माँगने से मना करता है,
लेकिन न माँगना भी
मुश्किलों का हल नहीं होता,
जो लोग माँगने के नुस्खों से परिचित हैं,
जरा उनसे पूछिए कि
मांगने से पहले
उनका हाथ कलेजे पर नहीं रहता ..?
पूछिए कि
उनका मुंह किस गति से काँपता है..?
पूछिए कि
अपनी ही नज़रों में कितना धंसते हैं..?
पूछिए कि
रोते हैं या फ़िर हँसते हैं ...?
बस इतना समझिये कि
यहाँ एक आग है,
जो भभककर जलती रहती है
और देने वाले के इनकार के बाद भी
बुझती नहीं है
सुलगती रहती है ...................
और इस सुलगती आग से निकले धुएं,
यह लिखा करते हैं कि
न माँगना बड़े लोगों की बात है
न माँगना चोरों की जात है
लेकिन ये माँगने वाले
अलग दुनिया के होते हैं,
मुंहफट, मुंहजोर...
जो लगभग हर दरवाजे पर दुरदुराए जाते हैं
फ़िर भी माँगते हैं ,
मुंह खोल के माँगते हैं
निगाहें मोड़ के माँगते हैं
हथेली जोड़ के माँगते हैं
माँगना इतना आसान भी नहीं
है कि नहीं !
जाँत और दीपावली
हर जगह जले थे दीप
बचा था 'जाँत' अकेले खपरैले में,
जब वहाँ अँधेरा
अम्मा ने देखा होगा,
तब वे ज़रूर रोई होंगी
स्मृतियों में उलझी होंगी
खोयी होंगी.....
उनकी यादों में तब ज़रूर
आए होंगे ..वे बीते दिन
जब इसी जाँत को घुमा-घुमा
ढेरों अनाज पीसा होगा
खाया होगा,
उन लोक गीत,
उन लोक धुनों.
जिनको अम्मा ने उठते ही
धीरे-धीरे गाया होगा,
उनका अब कोई एक सिरा
खपरैले के अँधेरे में
अपने करीब पाया होगा,
धीरे-धीरे गाया होगा,
उनका अब कोई एक सिरा
खपरैले के अँधेरे में
अपने करीब पाया होगा,
भीगी आँखों की कोरों को
पल्लू से अपने पोंछ-पोंछ
अम्मा धीरे से बोली थीं........
भइया! एक दिया उधर रख दो,
उस चकिया पर....!
पल्लू से अपने पोंछ-पोंछ
अम्मा धीरे से बोली थीं........
भइया! एक दिया उधर रख दो,
उस चकिया पर....!
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संदीप तिवारी
कक्ष संख्या- १२७, अमरनाथ झा छात्रावास
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद- २११००२
मो.न. 9026107672
sandeepmuir93@gmail.com
लोक धुन लोक राग
जवाब देंहटाएंआनंदम्।
सहज संगति,अंतरानुभूति की चमक खूब है।
जवाब देंहटाएंअच्छी कविताएँ।
बहुत बधाई।
पसिंजरनामा पसिंजरों की अपनी भाषा बोलती है. कविताओं का प्रवाह एक नैसर्गिक सुख देता है ऐसा जैसे वही पहुँच गये हैं जहाँ की बात हो रही है. दीपावली वाली कविता भी बेहतरीन है.संदीप को बधाई.
जवाब देंहटाएंबिजय बिस्वाल के चित्र एक जादू बिखेरते हैं, उन्हें देखकर गाडी में बैठकर दुनिया घूमने का मन हो आता है.
संदीप जी आप वास्तव में एक मर्मस्पर्शी कवि हैं.भावनाओं को समझते हैं.पैसिंजरनामा,समय का मारा,मांगना आसान नहीं सभी में कविता की गुणवत्ता काबिले तारीफ़ है.
जवाब देंहटाएंआप सब का बहुत बहुत आभार। आपका प्रोत्साहन हमारे लिखने का प्रेरणास्रोत है। आपकी प्रतिक्रिया पढ़ता हूँ तो लगता है लिखना सार्थक हुआ।
जवाब देंहटाएंपसिंजरनामा पांच भागों में लिखी गयी है, यदि आप लोगों को अच्छी लग रही है तो मैं संपादक महोदय से कविता का अगला भाग प्रकाशित करने का आग्रह करूंगा ...........
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