हिंदी साहित्य में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी नाम से एक युग है,
ज़ाहिर सी बात है द्विवेदी जी का योगदान युगांतकारी है. उनके सम्मान में काशी नागरी
प्रचारिणी सभा ने १९३३ में 'आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ' का प्रकाशन किया था. जिसे वरिष्ठ आलोचक प्रो. मैनेजर पाण्डेय भारतीय साहित्य का विश्वकोश मानते हैं. इस
अप्राप्य, दुर्लभ और मूल्यवान ग्रन्थ का पुनर्प्रकाशन नेशनल बुक ट्स्ट, इंडिया ने किया
है. ज़ाहिर है यह भी एक महत्वपूर्ण कार्य हुआ है. पर हुआ यह भी है कि इस गन्थ की जो
भूमिका छपी है उसमें से एक पृष्ठ लुप्त
है. इस लुप्त पृष्ठ में नागरी के सभापति रामनारायण मिश्र ने इस ग्रन्थ के निर्माण
में श्री शिवपूजन सहाय के योगदान को रेखांकित किया था, इस असावधानी की ओर मंगलमूर्ति
जी ने ध्यान खींचा है जो श्री शिवपूजन सहाय के सुपुत्र और हिंदी- अंग्रेजी के
रचनाकार हैं.
‘द्विवेदी-अभिनन्दन-ग्रन्थ’ : एक पूरक टिप्पणी
मंगलमूर्ति
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सत्तरवें वर्ष-प्रवेश पर ९ मई, १९३३ को काशी
नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा उनको एक अभिनन्दन-ग्रन्थ भेंट किया गया था. पिछली जुलाई
में उस ऐतिहासिक ग्रन्थ के (२०१५) नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा पुनर्प्रकाशित नवीन
प्रतिकृति संस्करण में ‘परिचय’-शीर्षक डा. मेनेजर पाण्डेय का लेख यहाँ इसी स्तम्भ
में पुनर्प्रसारित हुआ था. इस संक्षिप्त टिपण्णी के द्वारा उसमें दी गयी
महत्वपूर्ण सूचनाओं में कुछ और आवश्यक सुचनाएं जोड़ना अभीष्ट है. पांडेयजी के लेख
की प्रमाण के साथ प्रस्तुत सबसे महत्वपूर्ण सूचना यह है कि छोटे १० पॉइंट टाइप में
छपी ९ पृष्ठों की ‘प्रस्तावना’ जिसके नीचे ‘श्यामसुंदर दास’ और राय ‘कृष्णदास’
के नाम छपे हैं, वह वास्तव में आचार्य नंददुलारे वाजपेयीजी की लिखी हुई है.
नंददुलारेजी के उस लम्बे लेख में द्विवेदी-वांग्मय का विस्तृत एवं सम्यक अनुशीलन
प्रस्तुत किया गया है. पांडेयजी के ‘परिचय’ में भी उस लेख पर विस्तार से विचार
किया गया है.’ अभिनन्दन-ग्रन्थ’ में प्रकाशित पूरी सामग्री का भी पांडेयजी ने अपने लेख में विश्लेषणात्मक ‘परिचय’
दिया है. यहाँ इस टिपण्णी में दी गयी सूचनाएं उसी ‘परिचय’ के पूरक के रूप
में प्रस्तुत हैं.
इसमें पहली सूचना विशेष चिंताजनक है. नेशनल बुक ट्रस्ट ने जिस मूल ग्रन्थ से
यह नवीन संस्करण फोटो-अनुकृति पद्धति से छापा है उसमें तीन पेज की ‘भूमिका’ का
अंतिम पेज गायब है. फलतः इस नवीन संस्करण में भी वह पेज नहीं है. यह ‘भूमिका’ काशी
नागरी प्रचारिणी सभा के सभापति श्रीरामनारायण मिश्र की लिखी हुई है. इस
गायब अंतिम पृष्ठ पर ‘भूमिका’ के अंत में उनका नाम छपा हुआ है और १९ वैशाख,
सं. १९९० (मई, १९३३) तिथि भी दी हुई है. यह एक गंभीर त्रुटि है जिसका नेशनल बुक
ट्रस्ट को अविलम्ब परिमार्जन करना चाहिए. ‘भूमिका’ के जो दो पृष्ठ छपे हैं, उनमें
शुरू में ही निम्नांकित पंक्तियाँ हैं जिनसे इंगित होता है कि अभिनन्दन-ग्रन्थ
भेंट करने का मूल प्रस्ताव श्री शिवपूजन सहाय का था और उससे एक साल पहले एक
अभिनन्दन पत्र जो द्विवेदीजी को दिया गया था उसे शिवपूजन सहाय ने ही लिखा और
छपवाया था जिससे इस ग्रन्थ-प्रकाशन और समर्पण की पूर्व-पीठिका बन चुकी थी.
“जनवरी १९३२ में पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी २४ घंटे के
लिए काशी पधारे थे. उस समय काशी नागरी प्रचारिणी सभा की ओर से उन्हें एक
अभिनन्दन-पत्र दिया गया था. उनके चले जाने के कई दिन बाद श्री शिवपूजन सहाय ने सभा
के मंत्री से चर्चा की कि सभा को केवल मानपत्र देकर ही न रह जाना चाहिए, आचार्य के
अभिनंदनार्थ एक सुन्दर ग्रन्थ भी निकलना चाहिए...इस समुचित प्रस्ताव का सभा ने सहर्ष
और सादर स्वागत किया और इसे कार्य-रूप में परिणत करने का आयोजन प्रारम्भ कर दिया.”
फिर अंत का जो पृष्ठ अनुपस्थित है उसके अंत में
भी रामनारायण जी ने लिखा है.
“श्री शिवपूजन सहाय जी ने जो बीज बोया, उसे पल्लवित करने में
उनका बहुत बड़ा हाथ रहा है. लेखों के संपादन में उन्होंने पूरी सहायता दी है और इस
थोड़े समय के अन्दर ही जहाँ तक बन पड़ा है,
उन्होंने प्रूफ भी बड़ी सतर्कता और सतत परिश्रम से देखा है.”
वस्तुतः इस ग्रन्थ का बहुलांश सम्पादन-कार्य - लेखकों को पत्र लिख कर सामग्री
मंगाना, उनका सम्पादन-संशोधन करना, जनवरी से अप्रैल, १९३३ के तीन महीनों में
हफ्ते-हफ्ते बनारस से प्रयाग जा-जा कर वहां इंडियन प्रेस में रहते हुए पूरे ग्रन्थ
का प्रेस-सम्पादन करना, एक-एक तफसील पर गौर रखना – यह सारा काम शिवपूजन सहाय
ने किया था जिसका केवल संक्षिप्त उल्लेख रामनारायण मिश्र की ‘भूमिका’ में
हुआ है. पहली बार जब जनवरी, १९३२ में द्विवेदीजी को जल्दी-जल्दी में अभिनन्दन-पत्र
दिया गया था उस प्रसंग में शिवजी अपने संस्मरण में लिखते हैं –
“अचानक, कुछ घंटों के लिए वे काशी आ गए थे. काशी की नागरी
प्रचारिणी सभा में केवल एक बार मैं आचार्य द्विवेदीजी के आराध्य चरणों का स्पर्श
कर कृत-कृत्य हुआ था. काशी के सहृदय कलाविद राय कृष्णदास जी के आदेश से बड़ी
शीघ्रता में एक अभिनन्दन पत्र लिखा गया (शिवजी ने ही लिखा). श्री प्रवासीलाल
वर्मा के सहयोग से, प्रेमचंदजी के ‘सरस्वती प्रेस’ में, दो घंटे के
अन्दर ही, उसे मैं छपवा लाया. तुरंत वह पढ़ा गया. द्विवेदीजी तांगे पर सवार हुए.
मैंने साहित्यिक-ऋषि के चरण रेणु का अमृतांजन आँखों में लगाया...
द्विवेदीजी सम्मान और अभिनन्दन से सदा दूर रहते थे. लेकिन काशी नागरी
प्रचारिणी सभा से उनका बहुत आत्मीय लगाव था इसीलिए उन्होंने इस अभिनन्दन पत्र को
स्वीकार किया होगा. शिवजी उन दिनों कविवर ‘प्रसाद’ की मंडली के सदस्य थे और
काशी में ही सभा के बिलकुल पास कालभैरव मोहल्ले में ही सपरिवार निवास करते थे. एक वर्ष बाद फ़रवरी,
१९३२ में ‘प्रसाद-मंडली’ की ओर से काशी से ही शिवजी के संपादन में शुद्ध
साहित्यिक-पाक्षिक ‘जागरण’ का प्रकाशन हुआ. इसके दूसरे ही अंक में शिवजी ने
द्विवेदीजी की आगामी जयंती के अवसर पर काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा एक
‘अभिनन्दन-ग्रन्थ’ द्विवेदीजी को भेंट करने का विचार सर्वप्रथम प्रस्तावित किया.
सभा ने प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकृत किया और अगले वर्ष की जयंती (९ मई, १९३३) के
अवसर पर भेंट के लिए यह ग्रन्थ प्रयाग के इंडियन प्रेस में छप कर तैयार हुआ.
ग्रन्थ के प्रकाशन की तैयारी तो फ़रवरी, १९३२ के प्रस्ताव के बाद ही शुरू हो गयी
थी. मई, १९३२ के ‘जागरण’ में इसकी योजना के विषय में शिवजी ने पुनः लिखा –
“काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा ने अगले साल (१९३३में) आचार्य
द्विवेदीजी को सत्तरवें वर्ष में प्रवेश करने पर जो अभिनन्दन-ग्रन्थ समर्पित करने
का निश्चय किया है., उसमें रायल अठ्पेजी साइज के करीब साढ़े पांच सौ पृष्ठ होंगे.
तिरंगे और एकरंगे चित्रों की संख्या लगभग तीस होगी. उसके प्रत्येक पृष्ठ से
मुद्रण-कला का विलक्षण चमत्कार प्रकट होगा. हिंदी के गण्य-मान्य लेखकों, कवियों,
संपादकों और हितैषियों की सुन्दर रचनाएं और भारत-प्रसिद्द चित्रकारों के बनाए
चित्र उसे अलंकृत करेंगे. इस प्रकार उस ग्रन्थ के प्रकाशन में हज़ारों रुपये व्यय
होंगे... धनी-मानी हिंदी-प्रेमियों को अपनी उदारता और हिंदी-प्रेम दिखाने का यह
अच्छा अवसर मिला है”.
अभिनन्दन-ग्रन्थ अंततः लगभग सवा साल बाद- जनवरी से अप्रैल, १९३३ के तीन महीनों
में - छप कर तैयार हो गया और ९ मई, १९३३ को नागरी प्रचारिणी सभा में आयोजित एक
विशेष समारोह में ओरछा-नरेश के हाथों द्विवेदीजी को समर्पित किया गया.
शिवजी ने अपने संस्मरणों और सम्पादकीय टिप्पणियों में द्विवेदीजी से सम्बद्ध अनेक
महत्वपूर्ण सूचनाएं दी हैं जिन सब को, या उनमें से अधिकांश को भी यहाँ दुहराना
संभव नहीं. उनके एक संस्मरण का एक अंश यहाँ विशेष प्रासंगिक है. शिवजी लिखते हैं –
जनवरी, १९३२ में उपर्युक्त अभिनन्दन पत्र लेकर जब
द्विवेदीजी चले गए तब राय कृष्णदास जी से मैंने निवेदन किया की सभा की ओर से
द्विवेदीजी को एक सर्वांग-सुन्दर अभिनन्दन ग्रन्थ दिया जाना चाहिए. राय साहब ने
भगीरथ प्रयत्न किया. उनके उद्योग-रथ में मेरे दुर्बल कंधे भी भिड़े. वह कई महीनों
के लगातार परिश्रम की लम्बी कहानी है. मैं महीनों इंडियन प्रेस में बैठ कर
अभिनन्दन-ग्रन्थ तैयार करता रहा; पर जब उसके समर्पण का समय आया तब मेरे पांच वर्ष
के पुत्र आनंदमूर्ति पर शीतला भवानी का भयंकर आक्रमण हुआ. काशी से तार पाते
ही मैंने प्रेस से प्रस्थान किया. उस दिन से एक-डेढ़ महीने तक दरवाजे से बाहर न
निकला. काशी में अभिनन्दन समारोह हो रहा था और मैं व्यग्र बच्चे की सुश्रूषा में
व्याकुल था. वर्तमान ‘सरस्वती’-सम्पादक श्री देवीदत्त शुक्लजी मेरा
बक्स-बिस्तर प्रेस से लाकर दे गए... उत्सव का केंद्र सभा-भवन मेरे मकान से सौ गज
से अधिक दूर न था. पर मैं तो दूसरी ही दुनियां में था. महीनों से पूजा के फूल
संजोता रहा, पर पूजा के समय ‘देवता’ के दर्शन से भी वंचित रहा. उस समय का कोई भी
आनंद मेरे भाग्य के बांटे का नहीं था.
श्री मैथिलीशरणजी और राय साहब द्विवेदीजी का लिखा हुआ एक श्लोक मुझे दे गए और कह गए कि आचार्य का ह्रदय सहानुभूति से विह्वल है; पर अस्वस्थ हो जाने से यहाँ तक आने में असमर्थ हैं – बच्चे को यह आशीर्वाद दिया है. उस श्लोक में बच्चे के आरोग्य-लाभ के लिए जगदम्बा से प्रार्थना थी. ‘रंक की निधि’ की तरह उसे जुगा कर रख लिया, शिवजी के संस्मरणों में द्विवेदीजी से सम्बद्ध अनगिनत अत्यंत महत्वपूर्ण सूचनाएं भरी पड़ी हैं.
‘द्विवेदी-अभिनन्दन-ग्रन्थ’ के सम्पादन-क्रम में शिवजी एक हाथ की सिली नोटबुक में राय साहब और श्यामसुंदर दासजी के सम्पादन-सम्बन्धी निर्देश नोट किया करते थे. वह नोटबुक शिवजी के अपने संग्रह में है जिसके पन्नों की प्रतिकृतियाँ ‘शिवपूजन सहाय साहित्य-समग्र’ में देखी जा सकती हैं. द्विवेदीजी को यह अभिनन्दन-ग्रन्थ उनके ६९ वें जन्मदिन पर ९ मई, १९३३ को भेंट किया जाना था जिस दिन वे अपने जीवन के सत्तरवें वर्ष में प्रवेश कर रहे थे. नोटबुक में एक निर्देश यह है कि कविताओं, श्रद्धांजलियों को छोड़ कर केवल लेखों की संख्या ६९ ही रखी जाय. इस कारण कई लेखों को शामिल नहीं किया जा सका. एक जगह यह भी निर्दिष्ट है की शब्दों के हिज्जे में कैसी एकरूपता रखी जाय, जैसे ‘अंग्रेजी’ की जगह ‘अंगरेजी’ हिज्जे ही रहे. इस नोटबुक को देखने से पता लगता है की दिनानुदिन ग्रन्थ संपादन का काम कैसे चल रहा था. शिवजी को जो खर्च-बर्च सभा से मिलता था उसका भी पाई-पाई का हिसाब उसमें अंकित है. यह नोटबुक वास्तव में ग्रन्थ सम्पादन की एक मुकम्मल दैनन्दिनी ही है. शिवजी का सम्पूर्ण साहित्यिक संग्रह जिसमे उनका विशाल पत्र संग्रह, उनकी डायरियां, पत्र-पत्रिकाएं, पुस्तकें आदि विभिन्न सामग्री हैं, अब नेहरु मेमोरियल लाइब्रेरी में सुरक्षित है.
श्री मैथिलीशरणजी और राय साहब द्विवेदीजी का लिखा हुआ एक श्लोक मुझे दे गए और कह गए कि आचार्य का ह्रदय सहानुभूति से विह्वल है; पर अस्वस्थ हो जाने से यहाँ तक आने में असमर्थ हैं – बच्चे को यह आशीर्वाद दिया है. उस श्लोक में बच्चे के आरोग्य-लाभ के लिए जगदम्बा से प्रार्थना थी. ‘रंक की निधि’ की तरह उसे जुगा कर रख लिया, शिवजी के संस्मरणों में द्विवेदीजी से सम्बद्ध अनगिनत अत्यंत महत्वपूर्ण सूचनाएं भरी पड़ी हैं.
‘द्विवेदी-अभिनन्दन-ग्रन्थ’ के सम्पादन-क्रम में शिवजी एक हाथ की सिली नोटबुक में राय साहब और श्यामसुंदर दासजी के सम्पादन-सम्बन्धी निर्देश नोट किया करते थे. वह नोटबुक शिवजी के अपने संग्रह में है जिसके पन्नों की प्रतिकृतियाँ ‘शिवपूजन सहाय साहित्य-समग्र’ में देखी जा सकती हैं. द्विवेदीजी को यह अभिनन्दन-ग्रन्थ उनके ६९ वें जन्मदिन पर ९ मई, १९३३ को भेंट किया जाना था जिस दिन वे अपने जीवन के सत्तरवें वर्ष में प्रवेश कर रहे थे. नोटबुक में एक निर्देश यह है कि कविताओं, श्रद्धांजलियों को छोड़ कर केवल लेखों की संख्या ६९ ही रखी जाय. इस कारण कई लेखों को शामिल नहीं किया जा सका. एक जगह यह भी निर्दिष्ट है की शब्दों के हिज्जे में कैसी एकरूपता रखी जाय, जैसे ‘अंग्रेजी’ की जगह ‘अंगरेजी’ हिज्जे ही रहे. इस नोटबुक को देखने से पता लगता है की दिनानुदिन ग्रन्थ संपादन का काम कैसे चल रहा था. शिवजी को जो खर्च-बर्च सभा से मिलता था उसका भी पाई-पाई का हिसाब उसमें अंकित है. यह नोटबुक वास्तव में ग्रन्थ सम्पादन की एक मुकम्मल दैनन्दिनी ही है. शिवजी का सम्पूर्ण साहित्यिक संग्रह जिसमे उनका विशाल पत्र संग्रह, उनकी डायरियां, पत्र-पत्रिकाएं, पुस्तकें आदि विभिन्न सामग्री हैं, अब नेहरु मेमोरियल लाइब्रेरी में सुरक्षित है.
‘समग्र’ में प्रकाशित शिवपूजन सहाय के संस्मरणों और द्विवेदीजी के पत्रों में
अनेक महत्वपूर्ण सूचनाएं मिलती हैं. जैसे ‘अभिनन्दन-ग्रन्थ’ के
सम्पादन-क्रम में शिवजी ने नागरी-प्रचारिणी सभा के पुस्तकालय में, जहां द्विवेदीजी
ने अपने सारे ग्रन्थ-संग्रह और ‘सरस्वती’ के सभी संपादित अंकों की मूल
पांडुलिपियों को सुरक्षित रखवा दिया था, उन सबको देखा-खंगाला था और उसका विस्तृत
विवरण उन्होंने अपने उस लम्बे संस्मरण में दिया है जो १९३३ में ‘हंस’ के दो अंकों
में प्रकाशित हुआ था. उनके विषय में शिवजी ने लिखा है –
“आचार्य द्विवेदीजी ने अपने अठारह वर्षों के सम्पादन-काल में
‘सरस्वती’ के लिए जितने लेखों और कविताओं का संशोधन किया था. सबकी असली कापी प्रेस
से मंगा कर सिलसिलेवार रखते गए थे. फिर अंत में उन्हें अलग-अलग बंडलों में बाँध कर
काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा को दे दिया था. उन बंडलों में हिंदी भाषा के विकास का
इतिहास छिपा हुआ था. वे बण्डल हिंदी साहित्य-भंडार के लिए अशर्फियों के गगरे
थे...द्विवेदीजी ने लेखों की कापियों में जो करेक्शन किये हैं, उन्हें देख कर सिर
चकरा जाता था...अनेक लेखों को उन्होंने खुद दुबारा लिखा था. कई लेखों के आधे अंश
का पर्याप्त संशोधन किया था और आधा स्वयं नए सिरे से लिखा था. एक लेख में उन्होंने
दोनों तरफ कागज़ चिपका कर संशोधन और संवर्धन किया था...
शिवजी का यह संस्मरण द्विवेदीजी के पूरे वांग्मय पर सर्वाधिक प्रमाणिक सूचनाओं
से भरा हुआ है और द्विवेदी-साहित्य के हर अध्येता के लिए विशेष महत्वपूर्ण है. नव-प्रकाशित
यह ‘द्विवेदी- अभिनन्दन-ग्रन्थ’ अपने आप में हिंदी की एक ‘रत्न-मंजूषा’ है. इसके
पुनर्प्रकाशन द्वारा अपनी साहित्यिक परंपरा के समादर का यह स्तुत्य प्रयास स्वयं
में अभिनंदनीय है.
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श्री मंगलमूर्ति
मंगल मूर्त्ति जी ने आवश्यक सूचनाएँ दे कर अच्छा काम किया । आख़िर शिव पूजन सहाय जी के दाय को रेखांकित करना आवश्यक है ।
जवाब देंहटाएंरोचक ध्यानाकर्षण |
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (06-11-2015) को "अब भगवान भी दौरे पर" (चर्चा अंक 2152) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
मूल्यवान पोस्ट.. आभार..
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