सहजि सहजि गुन रमैं : रामजी तिवारी























वैसे तो समकालीन हिंदी कविता ने छंद और तुक को अपनी दुनिया से लगभग बाहर ही कर दिया है, पर रामजी तिवारी जैसा सचेत कवि जब इस तुक को मध्यवर्गीय जीवन की पराजय से जोड़ता है तब कविता आलोकित हो उठती है, उसमें अर्थ और संप्रेषण के सहमिलन का  एक अलहदा काव्यास्वाद पैदा होता है. यह तुक बाज़ार के गान से नही मिलती, यह तमाम तरह की तुकबंदियों से इसलिए अलग है, और राहत है.

____

रामजी तिवारी की कवितायेँ


समतल की संभावना
           
              
बतौर सरकारी मुलाज़िम
रोज का परिचय है
हज़ार रुपये की नोट से,
फिर भी उसे देखता हूँ
हसरतों की ओट से.

परेशान रहता हूँ इतने में
घर की गाड़ी खींचते हुए,
जरूरतों के पपड़ाये होठों को सींचते हुए.

मुल्तवी होती रहती हैं
घर की उम्मीदें, आशाएं
माथे पर बल बनकर तैरती हैं
बच्चों के भविष्य की योजनायें.

हर महीने में लगता है
जैसे कुछ कम रह गया,
तमाम अधूरी हसरतों का
जैसे कुछ गम रह गया.

तो फिर मेरे आफिस का
दैनिक वेतनभोगी ‘लल्लन’
कैसे अपना घर चलाता है,
वह जो तीस दिन में
सिर्फ चार बड़ा गाँधी कमाता है.

क्या उसके माँ-बाप
बीमार नहीं पड़ते ...?
उसके बच्चे आखिर कहाँ हैं पढ़ते ...?
किस तहखाने में वह
जमा करता है सपनों को,
किस तरह समझाता है
वह अपनों को.

यहाँ मेरे तीस हज़ार तो
बीस तारीख को ही
बोलने लगते हैं सलाम,
फिर वह अपने चार हज़ार में
कितने दिन करता होगा आराम.

मैं सोचता हूँ उसके बारे में
कि चार हज़ार में
कैसे कटता होगा उसका महीना,
क्या वह भी सोचता होगा
कि तीस हजार में भी यह आदमी
क्यों रहता है पसीना-पसीना.

या कि जैसे मेरे महीने
जान गए हैं तीस की सवारी,
उसके महीनों को भी
चल गया है पता
कि यही है किस्मत हमारी.

क्या हम कभी आ सकेंगे
इस दुनिया में एक तल पर,
क्या पट सकेगा
हमारे बीच छब्बीस मंजिलों का 
भारी-भरकम अंतर ?
मैं तो मर ही जाऊँगा यह सोचकर
कि मुझे तेरह मंजिल उतरना है,
उसका क्या होगा यह सोचकर
कि उसे तेरह मंजिल चढ़ना है.

सुनता हूँ कि
जो इस देश में सबसे बड़ा है,
वह पचीस हजारवीं मंजिल पर खड़ा है .
तो क्या उसे भी
उतरना होगा इतना नीचे,
नहीं-नहीं
जो खड़े हैं पचासवीं
या सौंवी मंजिल पर
वे ही कहाँ तैयार हैं
एक भी कदम खींचने को पीछे.

क्यों गर्म हो रही है मेरी कनपटी
ऐसे तो मैं कहीं लड़ जाऊँ,
है तो यह कविता ही
लिखूँ .... और आगे बढ़ जाऊँ.

अरे ओ लल्लन ....!
जरा इधर तो आना,
कैशियर बाबू के यहाँ से
हजार रुपये का
फुटकर तो लाना. 




सोचिये न

जेब आपकी भरी हो
तो अटपटा लग सकता है
यह विचार,
परन्तु सोचिये न
कि जेब है खाली
और सामने भरा है बाज़ार.


सोचिये न
कि तीन हजार
और मोतियाबिंद की लड़ाई में
माँ की आँखें हार जाए,
और प्रति माह हजार रुपये की दवा
छः महीने खाने के बजाय
फेफड़ो का बलगम
बाबू को ही खा जाए .


सोचिये न
पांच सौ रुपये बचाने के लिए भाई
ट्रेन की पायदान पर झूलता हुआ
दिल्ली-मुंबई धाये,
और जिस बहन की उँगलियों में
चित्रों के जादू हों
मोहल्ले के बर्तन धोने में
वे घिस जाएं.


सोचिये न
प्रसवा पत्नी
जननी सुरक्षा योजना
की भेंट चढ़ जाए,
और अपनी दिन भर की कमाई से
कैफे-डे की एक काफी
लड़ जाए.


सोचिये न
अव्वल दिमाग वाली बेटी
पढाई की जगह
खिचड़ियाँ खाने लगे,
और कुत्ते के काटने पर
तराजू का पलड़ा
दो हजार की सुई के बजाय
बेटे को
सात कुएँ झंकवाने लगे.


सोचिये न
क्योंकि ऐसे अटपटे प्रश्नों की श्रृंखला
जब भी मन में चलती है,
सच मानिये
यह दुनिया
जरुर बदलती है.



पिता
                         
दुनिया का सबसे सुरक्षित कोना
पिता का होना था .
हम घुड़सवार बने
उनकी ही पीठ पर चढ़कर
उन्ही के कन्धों ने हमेशा रखा हमें
दुनिया से ऊपर .

उनकी उँगलियों ने
हमें सिर्फ चलना ही नहीं सिखाया,
कैसे बनेगा
इस दुनियावी रस्सी पर संतुलन
यह भी दिखाया .

मगर अफसोस .....
हम अभी ठीक से
हो भी नहीं पाए थे बड़े,
कि उन्हीं के सामने
तनी हुयी रस्सी पर
हो गए खड़े .

सुबह जल्दी उठने की पुकार,
स्कूल नहीं जाने पर हुंकार .
गृह-कार्य कौन करेगा,
क्या इसी आवारगी से पेट भरेगा ...?
पढोगे नहीं तो क्या करोगे,
संभल जाओ वरना
मेरे बाद रो-रो भरोगे .
कह रहा हूँ यह सब तुम्हारे लिए ही,
जैसे अनगिनत वाक्य बने थे दुनिया में
हमारे लिए ही .

यहाँ तक थोड़ी डांट थी, थोड़ा दुलार था,
थोड़ी हिदायतें, थोड़ा प्यार था .

कि इसी मोड़ पर
हमारे दौर के सारे पुत्र
अपने पिताओं से अलग हो गए,
उनके रिश्ते-नाते जैसे
किसी गहरी नींद में सो गए .

यदि वे कहीं बचे भी
तो धर्म में ईमान जितना ही,
बदलेगी एक दिन यह दुनिया
इस गुमान जितना ही .

अलबत्ता कुछ पुत्रों ने
जीवन की रफ़्तार धीमी कर
अपने पिताओं को अगले मोड़ पर पकड़ा,
कुछ ने दूसरे तीसरे चौथे
और कईयों ने तो उन्हें
बिलकुल आखिरी मोड़ पर उन्हें जकड़ा .

और जो चलते रहे
पिता के साथ बनकर साया, 
उन्होंने पिता में दोस्त ही नहीं
बेटा भी पाया .

देखा उन्होंने कांपती उँगलियों को
ढूंढते हुए सहारा,
मिल जाए हाथों को
इस भवसागर में
कंधे जैसा कोई किनारा .

कान लगाए रहते हैं
हर आहट की आस में,
आँखें चमक उठती हैं
होता है जब कोई पास में .

हर छोटी आहट पर
पूछते हैं कि क्या हुआ,
हर मदद पर उठाते हैं हाथ
देने के लिए दुआ .

बिलानागा देते हैं सलाह
गाड़ी संभलकर चलाना,
जब तक घर न पहुँचे
लगाए रहते हैं टकटकी
ढूँढकर कोई बहाना .

अब किससे कहें कि
बेटा चलना सीखता है
पकड़कर पिता की उँगलियाँ,
वह दृश्य आधा ही भरता है उस फ्रेम को
जिसे सबसे सुन्दर मानती है यह दुनिया .

आधा फ्रेम तो
उस दृश्य से भरता है
जिसमें एक बेटा
अपने पिता की टेक बनता है .

अरे हाय ....!
पिता भी होते हैं पुत्र
हमने देखा ही नहीं यह मंजर,
इस पिता से तो
यह पीढ़ी ही हो गयी बंजर .

तुम कैसे जानोगे
कि पिता केवल ‘हिटलर’ ही नहीं होते
तनी हुयी रस्सी पर खड़े,
केवल डर भय
दुःख क्षोभ और अवसाद में 
डूबे हुए बूढ़े-बड़े .

उनमें तो छिपी होती है
पिता के साथ
भाई दोस्त और बेटे की कहानी भी,
वीरान और बंजर स्मृतियों में
जीवन और रवानी भी .

(पेंटिंग - मकबूल फिदा हुसैन)
______________________________


रामजी तिवारी
02-05-1971,बलिया , उ.प्र.
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख , कहानियां ,कवितायें , संस्मरण और समीक्षाएं प्रकाशित
पुस्तक प्रकाशन - आस्कर अवार्ड्स – ‘यह कठपुतली कौन नचावे’
‘सिताब-दियारा’ नामक ब्लाग का सञ्चालन
भारतीय जीवन बीमा निगम में कार्यरत
मो.न. – 09450546312

19/Post a Comment/Comments

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. सोचिये न
    पांच सौ रुपये बचाने के लिए भाई
    ट्रेन की पायदान पर झूलता हुआ
    दिल्ली-मुंबई धाये,
    और जिस बहन की उँगलियों में
    चित्रों के जादू हों
    मोहल्ले के बर्तन धोने में
    वे घिस जाएं. ..हमारे आस पास की कविता . हमारे अपने जीवन के कबाड़खानों से आती हुई ..

    जवाब देंहटाएं
  2. अरुण चवाई23 नव॰ 2014, 3:37:00 pm

    लडूँ तो किससे लडूँ ,कहूँ तो किससे कहूँ .....हमारे होने की सार्थकता पर ही प्रश्नचिन्ह लग गया है .

    जवाब देंहटाएं
  3. मै तो मर ही जाऊँगा यह सोचकर
    कि मुझे तेरह मंजिल उतरना है,
    उसका क्या होगा यह सोचकर
    कि उसे तेरह मंजिल चढ़ना है.

    जहाँ सभी अपनी परेशानियों से ही जूझने में व्यस्त हैं, उसी मीमांसा के बीच अन्य मर्म को भी पकड़ना आधुनिक कविता की सर्वश्रेस्ठ कला है, और उसके साथ ही साथ कविता का Traditional स्वरुप सहज, प्रवाहमयी.. बेहतरीन।

    जवाब देंहटाएं
  4. अच्छी कविताएँ !बधाई रामजी तिवारी जी !समालोचन और अरूण देव को भी बधाई !

    जवाब देंहटाएं
  5. Ramji bhai bahut achchhi va sachchi kavitain...Dhanyavaad va badhai aapko!!

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (24-11-2014) को "शुभ प्रभात-समाजवादी बग्घी पे आ रहा है " (चर्चा मंच 1807) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच के सभी पाठकों को
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं
  7. अच्छी कविताएं हैं रामजी. लोगों को कविताओं से कहानियों की तरफ जाते देखा है. आप उल्टी गंगा..बढ़िया है

    जवाब देंहटाएं
  8. सबसे अच्छी कविता 'पिता' है मानो हम सबके पिता के लिए लिखी गयी हो. सामाजिक सरोकार की वाली कविता सोचने को विवश करती है. तीस या लाख का वेतन हो तो जिन्दगी आरामदायक हो जाती है और तीन हजार से भी गरीब गुजारा कर लेता है. साथ वाले घर में खाना बनाने वाली बेबी गर्व से कह रही थी-'12 हजार कमाती हूं जिसमें से 5 हजार हर महीने कमेटी में डालती हूं.'

    जवाब देंहटाएं
  9. रामजी तिवारी जी की कविताएँ हैं तो फ्रेम पूरी होती है. बधाई इन सार्थक कविताओं के लिए.

    जवाब देंहटाएं
  10. मुझे बहुत पसंद आई रामजी भाई की कवितायें....इन कविताओं में निम्नवर्गीय संवेदना और सरोकार अपने चरम पर हैं और इनकी लयात्मकता इन्हे विशिष्ट बनाती है....रामजी भाई को बधाई और समालोचन का शुक्रिया

    जवाब देंहटाएं
  11. कोई भी कविता उतनी ही सुन्दर हो सकती है जितना उस कवि के विचार, उतनी ही व्याप्ति समेटे हो सकती है जितनीव्यापक कवि कीदृष्टि और उतनी ही मार्मिक हो सकती है जितनी सघन रचनाकार की संवेदना .....इस कवि को व्यक्तिगत रूप से जानने के कारण सहजही यह कह सकता हूँ कि कवितायेँ , कवि की सुन्दर संवेदनशील और पैनी सामाजिक दृष्टि को बखूबी संप्रेषित करती हैं...बधाई !! इसविश्वास व उम्मीद के साथ कि ऐसी और भी अनेकों कवितायेँ आप के जरिये हमें पढने कोमिलेंगी

    जवाब देंहटाएं
  12. ये कविताएँ जिनका आधार ,गर गौर से देखा जाए तो प्रश्न है। खुद से सभी से। यह जीवन की तुलना नही बल्कि जीवन के चलने और उसके न रुकने पर इस पूंजीवादी दौर की पड़ताल है ,जिसमे सपने,पिता ,ललन और खुद कवि पिस रहा है। कविताओं को थोडा सा और गहरे में उतरना चाहिए था।

    जवाब देंहटाएं
  13. अच्छी कविताएँ! Ramji Tiwari भईया! आपकी समाजिकता का दबाव कविताओं पर साफ दिखता है!

    जवाब देंहटाएं
  14. कविताओँ की संवेदनात्मक पकड इसकी जीवन्तता का प्रमाण है । बधाई राम जी भाई

    जवाब देंहटाएं
  15. Kamal Jeet Choudhary24 नव॰ 2014, 8:25:00 am

    Bahut shaandaar kavitain...Bhai Ramji hardik badhai!

    जवाब देंहटाएं
  16. कठिन दौर की साहसिक और संवेदनशील कवितायेँ।
    -नित्यानंद गायेन।

    जवाब देंहटाएं
  17. मणि मोहन जी की कविताओं के बाद अबकी रामजी तिवारी जी की कविताएँ पूरी पढ़ा ले गईं।
    ये और ऐसी कविताएँ उनके लिए नजीर हैं जो कविता में लद्धड़ गद्य घोल-घोल के, फेंट-फेंट के कविता का ही गला घोंट देने पर आमादा रहते हैं! ऊपर से थोथी पंडितई और कुढ़मगजी बतकुच्चन कविता को कठिन कर देती है, सो अलग! रामजी भाई को बधाई और शुभकामनाएँ।

    - राहुल राजेश, अहमदाबाद।

    जवाब देंहटाएं
  18. संजीवकुमारजैन24 नव॰ 2014, 9:16:00 pm

    शब्द और संसार का वास्तविक संबंध समझे बिना कविता न तो कभी लिखी जा सकती है और न पढी जा सकती है

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.