Adeela Suleman |
अनिल त्रिपाठी सहजता से
सामाजिक – राजनीतिक विद्रूपता को अपना काव्य – मूल्य बनाते हैं. उनकी कविताओं मे
वैचारिक चेतना लगातार सक्रिय रहती है. जोर-शोर से कहे जाते रहे काव्य-रीति के बदले
वह अंतर्वेदना को पकड़ना मुनासिब समझते हैं. भाषा में अवधी की ताकत है और शब्दों को
बरतने का तरीका भी उन्हें सलीके से आता है.
जब से गुजरा हूँ इन बातों से
वह औरत जो
सुहागिन
बनी रहने के लिए
करती है लाख जतन
टोना-टोटका से
मंदिर में पूजा तक
अपने पति से कह
रही है-
तुम कारगिल में
काम आये होते तो
पन्द्रह लाख मिलते
अब मैं तुम्हारा
क्या करूँ
जीते जी तुम
मकान नहीं बना
सकते.
कह रहे हैं
हमदर्द
साठ साल के पिता
की बीमारी के बाद
वे चले गये होते
तो
अच्छा होतेा,
उनकी जगह
उनका बेटा लग
जाता.
बैरागी का वह
हुनरवान लड़का
जो चारों में
अव्वल है
बाप से लड़ रहा
है
मैं तुम्हारे यहाँ
क्यों पैदा हुआ.
कालेज में एडमीशन
के समय
कैटेगरी पूछे
जाने पर
एक लड़की दे रही
है जवाब
मैं उस जाति से
हूँ
जिसे अब कोई नहीं
पूछता.
मित्रों जब से
गुजरा हूँ इन बातों से
तब से लगता है
मेरी कनपटी पर
एक कील गड़ी है
आपको भी गड़े
इसके पहले
कोई उपाय सुझाइये
जल्दी कीजिए
दर्द बेतहाशा
बढ़ता जा रहा है.
उम्मींद
बस, बात कुछ बनी नहीं
कह कर चल दिया
सुदूर पूरब की ओर
मेरे गाँव का
गवैया.
उसे विश्वास है
कि
अपने सरगम का
आठवाँ स्वर
वह जरूर ढूंढ
निकालेगा
पश्चिम की बजाय
पूरब से.
वह सुन रहा है
एक अस्पष्ट सी
आवाज
नालन्दा के
खण्डहरां में या
फिर वहीं कहीं
जहाँ
लटका है चेथरिया
पीर.
धुंध के बीच समय
को आँकता
ठीक अपने सिर के
ऊपर
आधे चाँद की टोपी
पहनकर
अब वह ‘नि’ के बाद ‘शा’
देख रहा है
और उसकी चेतना
अंकन रही है ‘सहर’
जहाँ उसे मिल
सकेगा
वह आठवाँ स्वर.
गोया कर रहा हो साफ
वह दस बरस का है
जोड़ रहा है पंचर
जबकि यह उसके
स्कूल जाने का
समय है.
नियति की तरह
खड़ी छोटी से गिमटी
जिसमें औजारों का
एक छोटा बक्सा ही
कुल जमा पूंजी है
परिवार का पेट
भरने के लिए.
पैदल किसी स्कूटर
या साइकिल को आते
देख
खिल जाती है उसकी
बाँछें
दौड़ पड़ता वह ‘आइये बाबू जी’.
ठोकर लगी है या
कील
कच्चा जोड़ या
पक्का जोड़
या महज कंटी है
छुछ्छी
सब एक ही दृष्टि
में
जान लेता वह.
रेती से कुरेद कर
लगाता है सलूशन
गोया कर रहा हो
साफ
लोकतंत्र पर जमी
मैल को.
फिर चिपकाता है
उस पर
ट्यूब का एक
टुकड़ा
फिर ठोक पीट कर
करता है उसे पोढ़.
सन्देह होने पर
पूरे विश्वास के
साथ कहता
बाबू जी कहीं और
से
निकल सकती है हवा
पर यहाँ से तो
बिल्कुल नहीं.
कौन तुम
त्रयोदशी के चाँद
सा
तुम्हारे जीवन
में मैं
संयोग की तरह
घटित हुआ.
और समझ सका
कि अंकों के विषम
अवकाश के बीच
भाषा के सीमान्त
पर
फूल खिलाने का
समय
आ गया है.
खिलेगा तो देखोगे
कहने को तो वह
आचार्य है
स्थानीय शिशु
मन्दिर का
लेकिन इस
आचार्यत्व को
स्वेच्छा से नही
बरा है उसने
यहाँ सवाल रोजी
रोटी का
विचारधारा पर
भारी है.
इधर चुनावी मौसम
है
और अधिकांश
क्षेत्रों में
चढ़ गया है
पारा तापमान का
छाँहों चाहत छाँह
के दुस्तर समय में
वह जुटा है
जन सम्पर्क
अभियान में
फूल का झंडा
लगाये साइकिल पर.
उसे उम्मीद है कि
वह खरा उतर
जायेगा
और अपनी कर्मठता
का
दे सकेगा सबूत
उनके सामने.
आखिर स्कूल के
प्रबंध तंत्र का
यही तो आदेश है
और साथ में
आश्वासन भी
कि ‘खिलेगा तो देखोगे’.
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अनिल त्रिपाठी : १ मार्च, १९७१ (सुल्तानपुर) उप्र
इलाहबाद विश्वविद्यालय और जे.एन.यू से उच्च शिक्षा
एक स्त्री का रोजनामचा , सहसा कुछ नहीं होता (कविता संग्रह)
नई कविता और विजयदेवनारायण साही (आलोचना)
२००७ का देवीशंकर अवस्थी स्मृति सम्मान
सम्प्रति : सहायक प्रोफेसर जे.एन.कालेज लखनऊ
मोब. 9412569594
'जब से..' और 'गोया कर रहा...' कविताएँ बहुत अच्छी लगी. बहुत सरलता से कही गयी गंभीर बातें हैं इन कविताओं में.
जवाब देंहटाएंWaah! Umas bhari dopahri mey, sheetal bayaar ki tarah kavita
जवाब देंहटाएंसार्थक कविताएँ
जवाब देंहटाएंसभी कवितायें पसंद आई विशेष रूप से 'जब से गुजरा हूँ इन बातों से ' व 'गोया कर रहा हो साफ '।
जवाब देंहटाएंखिलेगा तो देखोगे में सब मर्म छुपा है। राजनीति को कहने का एक असरदार तरीका ऐसा भी है। अनिल को इस दोस्त की याद और मुबारकबाद।
जवाब देंहटाएंउनसे कहिये ''अब 'नि' के बाद ''शा '' को सा कर दें |
जवाब देंहटाएंprabhavi kavitaen. kvi ko badhai. shukriya samalochan.
जवाब देंहटाएंvandanaji sha ka prayog janbujhakar kiya hai nisha rat ke liye hai sahar yani subah ke sath aathva sur kibat nayi srijanatamakta ke liye hai . apne kavita padha achcha laga dhanyavad.
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