सहजि सहजि गुन रमैं : फरीद खाँ


फरीद खाँ की कुछ नई कविताएँ


गंगा मस्जिद

यह बचपन की बात है, पटना की.
गंगा किनारे वाली ‘गंगा मस्जिद’ की मीनार पर,
खड़े होकर घंटों गंगा को देखा करता था.

गंगा छेड़ते हुए मस्जिद को लात मारती,
कहती, “अबे मुसलमान, कभी मेरे पानी से नहा भी लिया कर”.
और कह कर बहुत तेज़ भागती दूसरी ओर हँसती हँसती.
मस्जिद भी उसे दूसरी छोर तक रगेदती हँसती हँसती.
परिन्दे ख़ूब कलरव करते.

इस हड़बोम में मुअज़्ज़िन की दोपहर की नीन्द टूटती,
और झट से मस्जिद किनारे आ लगती.
गंगा सट से बंगाल की ओर बढ़ जाती.
परिन्दे मुअज़्ज़िन पर मुँह दाब के हँसने लगते.

मीनार से बाल्टी लटका,
मुअज़्ज़िन खींचता रस्सी से गंगा जल.
वुज़ू करता.
आज़ान देता.

लोग भी आते,
खींचते गंगा जल,
वुज़ू करते, नमाज़ पढ़ते,
और चले जाते.

आज अट्ठारह साल बाद,
मैं फिर खड़ा हूँ उसी मीनार पर.
गंगा सहला रही है मस्जिद को आहिस्ते आहिस्ते.
सरकार ने अब वुज़ू के लिए
साफ़ पानी की सप्लाई करवा दी है.
मुअज़्ज़िन की दोपहर,
अब करवटों में गुज़रती है.

गंगा चूम चूम कर भीगो रही है मस्जिद को,
मस्जिद मुँह मोड़े चुपचाप खड़ी है.

गंगा मुझे देखती है,
और मैं गंगा को.
मस्जिद किसी और तरफ़ देख रही है. 

.06/12/2010

इरोम शर्मिला

यह कविता इरोम पर नहीं है.
उन लोगों पर है
जो गाँवों, क़स्बों, गलियों, मुहल्लों में
लोकप्रियता और ख़बरों से दूर,
गाँधी की लाठी लिए चुपचाप कर रहे हैं संघर्ष.

यह कविता इरोम पर नहीं है.
यह धमकी है उस लोकतंत्र को,
जो फ़ौजी बूट पहने खड़ा है.
जो बन्दूक की नोक पर इलाक़े में बना कर रखता है शांति.

पिछले दस सालों में जितने बच्चे पैदा हुए हिमालय की गोद में,
उन्होंने सिर्फ़ बन्दूक़ की गोली से निकली बारूद की गँध ही जाना है,
और दर्शनीय स्थलों की जगह देखी हैं फ़ौज.
जहाँ बर्फ़ सी ठंडी है कारतूस का भाव.

यह कविता इरोम पर नहीं है,
बल्कि उस बारूद की व्याख्या है,
जिसकी ढेर पर बैठा है पूर्वोत्तर.

मुम्बई

मुम्बई को कौन चला रहा है यह ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता.

लोकल का रेला आपको ट्रेन में कैसे चढ़ा देता है पता भी नहीं चलता.
बस की क़तारों में खड़े आप कब बस में चढ़ कर
अपने गंतव्य पर ठीक ठीक कैसे उतर जाते हैं, पता नहीं.

वह कब चलना शुरु करती है, कब सुस्ताती है, किसी ने कभी देखा नहीं.
वास्तव में कभी सोचा नहीं कि क्यों चलती भी है.

घर के बाहर आप अपनी गाड़ियाँ छोड़ सकते हैं,
फिर भी मुम्बई अपनी गति से चलती ही रहेगी, उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता.
दंगे, धमाके, मुठभेड़, हमले,
सब हो जायेंगे लेकिन औरों की तरह मुम्बई कभी रुकती नहीं.

जो भी उसकी लय में आ गया,
वह हो गया...... मुम्बई का.
फिर वह ट्रेनों की तरह एक जगह से खुल कर दूसरी जगह
और फिर वापस उसी जगह, घूम सकता है.

कोई कुछ भी कहे.
कोई आये.
कोई जाये.
कोई कितना भी रोए.
कोई कितना भी हँसे. 
मुम्बई की गति नहीं रुकती.

अंबानी की सत्ताईसवीं मंज़िल से देखें
तो एक ऐसा खेत नज़र आता है,
जिसमें फूल गोभी से सुँदर सुँदर मॉल उगे हैं.
लहलहाती इमारतें उगी हैं.
और जहाँ ज़मीन या जंगल बचे हैं, वहाँ काम चालू आहे.

और मुम्बई चल रही है.

आपके पास हालांकि ढेरों सवाल हो सकते हैं, लेकिन
मुम्बई चुप्पी साधे बस चल रही है,
ब्रह्मांड की तरह.

पहले लगता था

पहले लगता था कि जो सरकार बनाते हैं,
वे ही चलाते हैं देश.
पहले लगता था कि संसद में जाते हैं
हमारे ही प्रतिनिधि.

पहले लगता था कि सबको एक जैसा अधिकार है.

पहले लगता था कि अदालतों में होता है इंसाफ़.
पहले लगता था कि अख़बारों में छपता है सच.
पहले लगता था कि कलाकार होता है स्वच्छ.

पहले लगता था कि ईश्वर ने बनाई है दुनिया,
पाप पुण्य का होगा एक दिन हिसाब.
पहले लगता था कि मज़हबी इंसान ईमानदार तो होता ही है.
पहले लगता था कि सच की होगी जीत एक दिन,
केवल आवाज़ उठाने से ही सुलझ जाता है सब.

अभी केवल इतना ही लगता है,
कि सूरज जिधर से निकलता है,
वह पूरब ही है,
और डूबता है वह पच्छिम में. बस.

पेंटिग   :  jai  zharotia
लकड़-सुंघवा

रात में भी लोगों में रहने लगा है अब,
लकड़-सुंघवा का डर.
(तपती दुपहरी में लकड़ी सुंघा कर बच्चे को बेहोश करके बोरे में भरकर ले जाने वाला.)

::

लू के मौसम में,
जब सुबह का स्कूल होता है,
दोपहर को माँ अपने बच्चे से कहती है,
“सो जा बेटा, नहीं तो लकड़-सुंघवा आ जाएगा”.
“माँ, लकड़-सुंघवा को पुलिस क्यों नहीं पकड़ लेती?”
“बेटा, वह पुलिस को तनख़्वाह देता है”.

शाम को जब बच्चा सो कर उठता,
तो मान लेता है कि लकड़-सुंघवा आया
और बिना बच्चा चुराये चला गया.

पर एक रोज़ बस्ती में सचमुच आ गया लकड़-सुंघवा. पर रात में.
पूरनमासी की रात थी, पत्तों की खड़ खड़ पर कुत्तें भौंक रहे थे.
बिल्ली सा वह आया दबे पाँव.

सोये हुए लोगों की छाती में समा गई उसकी लकड़ी की महक.
जो भाग सके वे अँधे, बहरे, लूले, लंगड़े हो गये,
लेकिन ज़्यादातर नीन्द में ही सोये रह गये.

और धीरे धीरे जमने लगी धूल बस्ती पर.
जैसे जमती है धूल यादों पर, अदालत की फ़ाईलों पर,
पुलिस थाने की शिकायत पुस्तिका पर.

एक दिन धूल जमी बस्ती, मिट्टी में दब गई गहरी.
समतल सपाट मैदान ही केवल उसका गवाह था.

::

ज़मीन के अन्दर दबी बस्ती उभर आई अचानक.
जैसे पुराना कोई दर्द उखड़ आया हो ठंड के मौसम में.

पचीस सालों की खुदाई के बाद निकले कुछ खंडहर, कंकाल, साँप, बिच्छू.
कंकालों ने तत्काल खोल दीं आँखें,
खुदाई करने वाले सिहर उठे और फिर से उन पर मिट्टी डाल दी.

पुरातत्ववेत्ताओं ने दुनिया को बताया,
कि बस्ती प्राकृतिक आपदा से दब गई थी नीचे.

अब किसको इसकी सज़ा दें और किसको पकड़ें धरें.

इतिहास लिखने वालों ने अंततः वही लिखा,
जो पुरातत्ववेत्ताओं ने बताया. 
खुदाई पूरी होने के इंतज़ार में खड़े लोग,
खड़े रह गये.

उन्होंने उतरना चाहा हालांकि अन्दर,
कि तभी शोर उठा,
लकड़-सुंघवा आया, लकड़-सुंघवा आया !!!!
लकड़-सुंघवा आया, लकड़-सुंघवा आया !!!!

जीना और सीना

रोज़ सुबह उठ कर वह सबसे पहले,
अपनी पत्थरीली हो चुकी हथेली को देखती है,
और आँखों से लगा कर चूम लेती है.
वह रोज़ उस शिलालेख में पढ़ना चाहती है अपना भविष्य.

रोज़ प्राचीन होती जाती है वह, और इतिहास भी.

उसका वर्तमान,
जीना है और सीना है.

वह अपना हिसाब मांगेगा

जिसे पता ही नहीं कि उसे बेच दिया गया है,
और एक दिन राह चलते अचानक ही उसे किसी ग़ैर से पता चले
कि उसे बेच दिया गया है.
तो आज नहीं तो कल,
वह अपना हिसाब मांगेगा ही.

पानी अपना हिसाब मांगेगा एक दिन.
लौट कर आयेगा पूरे वेग से,
वापस मांगने अपनी ज़मीन.

सोने की खान

एक कलाकार ने बड़ी साधना और लगन से यह गुर सीखा
कि जिस पर हाथ रख दे, वह सोना हो जाये.

उसकी हर कलाकृति सोना बनने लगी,
और हर बार दर्शक ख़ूब तालियाँ बजाते.
और हर बार सोना बनाने की उसकी ताक़त ख़ूब बढ़ती जाती.

उसने अपने आस पास की चीज़ों पर हाथ रखना शुरु कर दिया.
हर चीज़ सोना बनती गई.
उसकी कुर्सी, उसकी मेज़, उसके बर्तन.
उसके घर वालों ने ख़ूब तालियाँ बजाईं.
उसकी दीवारें, दरवाज़ें, खिड़कियाँ सब सोने की बन गई.

हर चीज़ जब बन गई सोना,
उसने माँ बाप को छुआ, बच्चों को छुआ.
उसकी बीवी जान बचा कर भागी.
उसने माथे पर हाथ रखा,
और उसका घर सोने की खान बन चुका था.

वह पहला कलाकार था,
जिसके घर से इतना सोना निकला.

डाकिया

चिलकती धूप में एक डाकिया एक घर की चौखट पर बैठा सुस्ता रहा था.
यह दृश्य उससे बिल्कुल अलग था,
कहानियों, कविताओं में जो पढ़ा था या सुना था.

अन्दर से पानी का एक लोटा आया.
उसने चेहरे पर पानी मार कर कुछ पिया.
उसके बाद भी वह बैठा रहा काफ़ी देर.

काफ़ी देर बाद मैं फिर गुज़रा उधर से.
तो वह जा चुका था.
हालांकि वह उसके बैठने की जगह नहीं थी,
फिर भी लग रहा है,
कि वह अपनी ही जगह से उठ कर गया है.
उस ख़ाली हुई जगह में डाकिया ही दिख रहा था.
ऐसा नहीं होता शायद, अगर उस घर का कोई फ़र्द
या कोई और राहगीर उस चौखट पर आकर बैठ जाता.

ख़ाली हुई जगह पर दिखता रहा डाकिया,
जब तक मैं देखता रहा उस जगह को.

जिस रास्ते से वह गया,
(एक ही रास्ता है यहाँ जाने के लिए)
उस ख़ाली और सुनसान रास्ते पर भी वही दिख रहा था और कोई नहीं.
चिलकती धूप, कच्ची सड़क, गर्म धूल और वह.

अब तक न जाने कितने लोग बैठ गये उस चौखट पर,
लेकिन मेरे लिए वह चौखट डाकिये की स्मृति की वजह बन गई.
घाव के निशान कभी नहीं मिटते हैं जैसे, भर जाते हैं लेकिन.


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पटना के रहने वाले हैं .मुंबई में फिल्मों और टीवी के लिए रचनात्मक लेखन करते हैं.




फरीद खां की कुछ कविताएँ यहाँ पढ़ी जा सकती हैं 

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  1. गंगा अपने प्यार को व्यक्त करते हुये यूँ ही बहती रहेगी।

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  2. फरीद की कविताओं में हिन्दुस्तान दीखता है . एक सम्यक आदमी की निगाह दिखती है . समाज यहाँ वेष्टित होते हुए अपने दर्द का परिमार्जन करता है . कितने सरोकारों को लिए हैं ये कविताएँ . बधाई ! फरीद ..

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  3. विवधता भरी, किंतु फिर भी एक अदृश्य धागे में पिरोई हुई ये कविताएं साधारण नहीं हैं. कवि के सरोकार बड़े हैं. संसदीय लोकतंत्र, पुरातत्व और इतिहास, धार्मिक विद्वेष, हाशिए पर पड़े समाज एवं उसके नायक - सब कुछ ही तो इनके रचनात्मक सरोकारों की ओर इंगित करता है. दिन की अच्छी शुरुआत हुई है इन कविताओं को पढ़ कर.

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  4. बारूद की व्याख्या करती कविता... गंगाजल सी पवित्र कविता... कभी न रुकने वाली मुंबई की गाथा... लोकतान्त्रिक सरोकारों की बात उठाती कविता... पुलिस को तनख्वाह देने वाले लकड़ सुंघवा का खौफ़ लिखती कविता... पथरीली हथेलियों की छवि और पथरीली आँखों का सच कहने वाली कविता... अपनी ज़मीन पर वापस आने की कविता... मात्र छू कर सोने सा मूल्यवान बनाने वाली कविता... घाव के निशान सी कभी न भरने कभी न मरने वाली कविता... वस्तुतः विविधताओं के आकाश पर उन्मुक्त विचरने वाली सुन्दर कविताओं को एक स्थान पर यूँ प्रस्तुत करने के लिए समालोचन को बधाई!

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  5. छिन्न भिन्न होते आदर्श और खुद को भी अकेला छोड़ कर सिमटते - फैलते इंसान , तमाम गत्यात्मकता के बावजूद शहरोँ मेँ या यूँ कहेँ कि देश आ चुकी वैचारिक जड़ता ,नियॉन बल्बोँ से जगमगाते शहरोँ मे सेंध लगा चुके अंधेरे को पकड़ कर...उसको जग ज़ाहिर करती ये कविताएँ ... एक जीवंतता का बोध कराती हैँ ...इसके लिए फरीद भाई को बधाई और धन्यवाद ...क्योंकि कुछ ताज़ी हवा बही है... और समालोचन के सम्पादक अरुण जी का आभार ....

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  6. Barkhurdar sari kavitaein umda hi nahi balki behtareen nagine hein. Zindagi ko itne kareeb se dekhne aur uski barikiyon ko ukarne ke liye jis saral bhasha ka istemal tum karte ho...wo qabile tareef hai. Ummeed karta hoon aapka kavita sanklan jald hi Hindustani sahitya ki anmol dharohar banega aur ye silsila zari bhi rahna chahiye. Likhte raho aur likhte hi raho...

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  7. फरीद खाँ जी की कविता में चीजें उनकी मानवीय संवेदना के विभिन्न रूपों में ढल कर आती हैं | हर रूप एक स्वतंत्र इकाई है, पर हर रूप का दूसरे रूप से एक लयात्मक संबंध है | इतिहास और भविष्य भी कवि-संवेदना की निजी संरचना में उपस्थित होते हैं, वे स्वतंत्र चीजें नहीं हैं | इसलिए अनुभूति की तत्क्षणता का बहुत ज्यादा महत्व है | फरीद खाँ जी के लिए अर्थ चीज़ों में नहीं, उनकी जिजीविषा में है |

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  8. फरीद जी की कविताएं पढना गहरी अनुभूतियों से गुजरना है । गंगा कविता दिल को छू लेने वाली है ।

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  9. अद्भुत और बेमिसाल कवितायेँ हैं .....
    रचनायें पढने के बाद पाठक को निश्चित तौर पे रचनाकार के बारे जानने की इच्छा होती है .... फरीद जी का परिचय भी देते तो अच्छा था ....

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  10. गंगा चूम चूम कर भीगो रही है मस्जिद को,मस्जिद मुँह मोड़े चुपचाप खड़ी है.
    bhai fareed aap ka jawab nahi..aap ki saari kavitaon ko baar baar padhne ka jee karta hai.
    sari rachnaon me tazghi hai, nayapan hai.
    bahot khoob.

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  11. are lakadsundhe ka khauf to ladakpan me hi hume satata tha jab ap sab ghar k badhe hum bachho ko dhoop me bahar jane se rokte the ,....

    masjid aur ganga ki kavya rachna vilakshan hai .... aapke lekhan me nitya hi ek naya ras sanchit hota jata hai bhaiya .... lajawab ....

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  12. dada mubaaraq ho......sari kavitae maine padhi ....sab umda hain ... is bhaagate aur pakad me naa aate shahar me ... kuchh apani jaisi baat kahatee hain kavitaayen ....

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  13. सहेज कर रख लेता हूँ। लकड़सुंघवा ...से लेकर सारी कविताएँ बार-बार पढने लायक हैं।

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  14. Farid ji, aapki kavitayen padhi achchi lagi khas kar Ganga Masjid, yaise hi likhaten rahe meri shubh kamnayen
    Seema Azmi

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  15. farid,saari kavitaayen prasnsniya hain,vishesh roop se DAKIYA jo dil ko chu gaye,badhai.

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  16. फ़रीदजी की सभी कवितायेँ बहुत सुंदर हैं..! लकड़ सुंघवा ने और गंगा मस्जिद कविता ने ख़ासा प्रभावित किया! ... अरुणजी ने समय समय पर समालोचन के ज़रिये हमें बहुत ही अच्छी पठनीय और उपयोगी सामग्री दी है.. चाहे वेह लेख हों, कविता हो, साहसिक आलोचनात्मक विश्लेषात्मक आलेख, अथवा कोई अन्य विवेचना! आपका कार्य अत्यंत सराहनीय है! बहुत प्रभावशाली..! फ़रीद भाई, अरुणजी, और समालोचन को बधाई और हार्दिक शुभकामनाएं!

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  17. bahut hi achi kavitayeim hain farid bhai. shubkamnayeim

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  18. बार बार पढ़ने लायक ....धन्यवाद इस पोस्ट के लिए

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  19. गहरा दर्द.. सुन्दर अभिव्यक्ति.. साधुवाद!

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  20. गहरा दर्द.. सुन्दर अभिव्यक्ति.. साधुवाद!

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  21. कौमी एकता की सुन्दर कविता.गंगा सबकी साझी धरोहर है.सभी कवितायेँ गहरे मानवीय सरोकार वाली हैं.

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