सहजि सहजि गुन रमैं : अपर्णा मनोज


















अपर्णा मनोज :  १९६४, जयपुर,
कविताएँ, कहानियाँ और अनुवाद

मेरे क्षण कविता संग्रह प्रकाशित.
कत्थक, लोक नृत्य में विशेष योग्यता.
इधर ब्लागिंग में सक्रिय 
संपादन – आपका साथ साथ फूलों का

अहमदाबाद में रहती हैं.
ई-पता:  aparnashrey@gmail.com


अपर्णा के लिए कविताएँ जिजीविषा का पर्याय हैं. इनमें एक जिद्द है. विकट और असहनीय को भी बूझने और उससे जूझने का. उससे उबरने की कोशिश की प्रक्रिया में बनता – रचता भाषिक विन्यास.  यातना और उसकी पीड़ा का सारांश. इनमें एक स्त्री का बयाँ तो है, बयानबाजी नहीं. इन कविताओं के विस्तृत आकाश में बहुविध प्रसंग हैं.
तोड़ देने वाली लम्बी व्याधि से मुकाबला करती अपर्णा की कविताओं में जीवन-रस सांद्र और गम्भीर है.उम्मीद  का  इन्द्रधनुष अपने सात- रगों के साथ आलोकित.







वॉन गॉग

समय का कैमरा पता नहीं कब किसकी ओर क्या रुख ले ?
उसका शटर किसे अपने लैंस में समेटे
कितनी दूरी से वह आपको झांकें ?
कितने ज़ूम ?
कितना बड़ा फलक ?

वह आपको वॉन गॉग बना सकता है -
आप अपनी देह पर रंग मलेंगे
जोर से हसेंगे
जोर से रोयेंगे और रोते चले जायेंगे
तब तक जब तक बाहर एक सचेत स्त्री आपकी शिकायत न कर दे 
तब ?

समय आपको अभी इतिहास के मर्तबान में डालना चाहता है
मर्तबान में बंद कई तितलियाँ .
अपनी नश्वरता से परे अलग बुनावट लिए
कुलबुलाती हैं अमरत्व को

वॉन गॉग तुम कैनवास पर झुके हो
अपने दुःख का सबसे गहरा बैंगनी रंग उठाये
सैनीटोरियम की बीमार खिड़की से आने देते हो सितारों - भरी रात
तुम्हारे डील -डौल पर झुका है पूरा आसमान
और ज़मीन सरक रही है नीचे से 

कुछ लडकियां उतरती हैं तुम्हारी आत्मा के आलोक में
और खो भी जाती हैं रंगों की प्याली में
तुम घोलते हो रंग
अपने ब्रुश को कई बार जोर-जोर से घुमाते हो
उसके लिए ख़ास तौर से

जिसे तुम करते थे प्रेम
ये सूरजमुखी -
हाँ, उसके लिए था, पर उसकी पसंद नहीं थी ये  
वॉन गॉग तब ?

और तुम्हारी आत्मा ओलिव की तरह हरी होकर
तलाशने लगी थी सच, सच जो सच था ही नहीं .
पर तुम बने रहे उसके साथ
जैसे ओलिव के पीछे उग जाती हैं चट्टानें
झरने की आस में

वॉन गॉग ..
वॉन गॉग ..तुम सूरज की ओर जा रहे हो
सूरज पीछे खिसक रहा है .
फिर धमाका ..
तुम्हारे होने की आवाज़ !
दुनिया की देहर हिलती है
दिए की लौ ऊपर उठी
फिर  भक!
अब तुम समय के बाहर हो!
वॉन गॉग ..
कब्रगाह पर फैलने लगा है रंग - लाल .


लौटना


उस दिन मैंने देखा
कतारें सलेटी  कबूतरों की
उड़ती जा रही थीं
उनके पंख पूरे खुले थे
जितनी खुली थीं हवाएं आसमान की

उनके श्यामल शरीर पर काले गुदने गुदे थे
आदिम आकृतियाँ
न जाने किस अरण्य से विस्थापित देहें थीं

उनकी सलेटी चोंच चपटे मोतियों से मढ़ी थीं
जिन पर चिपकी थी एक नदी
जो किसी आवेग में कसमसा रही थी
पर पहाड़ों के ढलान गुम हो चुके थे
संकरी कंदराओं में
बहने को कोई जगह न थी

उनके पंजों में
एक पहाड़ तोड़ रहा था दम
रिसती हुई बरफ कातर
टप-टप बरस रही थी हरी मटमैली आँखों से

मैंने देखा उसकी शिराएं चू रही थीं मूसलधार 
और उनकी गंध मेरे रुधिर के गंध - सी थी
सौंधी, नम व तीखी
पर उसमें आशाओं का नमक न था
और विवशताएँ जमी थीं पथरीली.

मैंने देखा उनके पंखों पर ढोल बंधे थे
और गर्दन छलनी थी  मोटे घुंघरुओं से
उनके कंठ कच्चे बांस थे

और ज़ुबान पर एक आदिम संगीत प्रस्तर हो चुका था
एक बांसुरी खुदी थी उनके अधरों पर
लेकिन कोई हवा न थी जो उनके रंध्रों से गुज़रती

वे गाना चाहते थे अबाध
पर कोई भाषा फंस गई थी सीने में 
और शब्द अटके थे प्राणों में 
नामालूम विद्रोह की संभावनाएं आकाश थीं !

वे किसी परती के आकाश में धकेले गए थे
उनकी ज़मीन पर कोई भूरा टुकड़ा न था
जिन पर नीड़ के तिनके जमते


मैंने देखा कांपती अस्फुट आवाजों में
उनकी आकृतियों पर धूल को जमते
पगडंडियों को खोते


उनके घरों में किसी मौसम में चींटियाँ नहीं निकलीं
वे किसी और संस्कृति का हिस्सा हो चुकी थीं
वे भी तो तलाशती हैं आटे की लकीर !

मैंने देखा उड़ते-उड़ते वे स्त्री हो जाते थे
उनके काले केश फ़ैल जाते थे
सफ़ेद आकाश के कन्धों पर
उनके घाघरे रंगीन धागों की बुनावट में परतंत्र थे
और ओढ़ने उनकी स्वतंत्रता पर प्रश्न चिह्न !
उत्कोच में सौन्दर्य को मिले थे
प्रसाधनों के मौन.


उनके चेहरों पर संकोच था
वे सच कहना चाहते तो थे पर कोई सच बचा न था .
काले बादल कोख हो चुके थे
जिसमें हर बार खड़ी हो जाती थीं संततियां
नए संघर्ष के साथ
जो अपनी ही बिजलियों में कौंधती और खो जातीं अंधेरों में.

मैंने देखा आकाश उन्हें घसीट रहा था 
वे घिसटते चले गए उसकी गुफाओं में .. 
इस गुफा पर जड़ा था अवशताओं का भारी पत्थर
द्वार भीतर जाता था पर बाहर का रास्ता न था .
और दृश्य सफ़ेद  .
इनके लौटने की सम्भावना ?

सब नया चाहती हूँ


हम सब सो जाएँ एक लम्बी नींद
हमारी तितली-आँखें बंद हो जाएँ समय के गुलाब में
और कोई इतिहास बुनता हुआ भित्ति -चित्र
निस्तब्ध आँज ले हमारी सभ्यताएँ

हम सब सो जाएँ
तब तक के लिए -
जब तक प्रकृति उन्मुक्त अपने पेड़ों से लिपटने दे वल्लरियाँ

नदियाँ भीगती रहें अजस्र पत्थरों में छिपे सोतों से

समुद्र की तलछट पर रख दें लहरें -
मूंगे, शैवाल ,खोयी मछलियाँ

ध्रुवों पर बर्फ के रहस्य ढूंढने निकल पड़ें वॉलरस
पहाड़ अपने रास्तों पर रख दें पंक्तियाँ  -
चीड़, देवदार, बलूत, सनौबर  की

और सफ़ेद आकाश पर हर मौसम लिख जाए अपनी पहचान

चिड़ियाँ गुनगुनी धूप के तिनकों से बुन लें नीड़
पेड़ अजानबाहु फैला दे रहे हों आशीर्वाद
और मांगलिक हवाएं बजाने लगें संतूर

हम सब सोते रहें तब तक
जब तक भूल न जाएँ अपनी बनायीं भाषाएँ
जिन्होंने हमें काटकर नक़्शे पर रखा

तब तक जब तक हमारी चमड़ी के रंगों के अंतर न गल जाएँ
और हमारे मानव होने का अनुष्ठान एक नींद में तप कर
जन्म दे एक और मनु - श्रद्धा को
आदम - हौवा को

तब तक जब तक बांसों के झुरमुट बजाने लगें बांसुरी
और हम सहसा उठकर देखने लगें
स्वप्न के बाद का दृश्य 

एक शरुआत नए सिरे से
जिसमें गीतों के जिस्म
कविता की आत्मा
सृजन के अपरूप पत्थरों पर नयी लिपि गढ़ रहे हों
और एक बार फिर प्रेम अनावृत्त हो जी ले
प्राकृत पवित्रता को

इस स्निग्ध मुसकान में शिशु का जन्म हो असह्य पीड़ा से
असह्य कोख से

इस बार मैं पुनरावृत्ति नहीं
सब नया चाहती हूँ
उत्थान नहीं
सृजन चाहती हूँ
जो एक युग की नींद के बाद संभव होगा
क्योंकि हम सब भूल चुके होंगे
सोने से पहले के युग ...

 

मैं उन्हें जानती हूँ

मैं उन्हें जानती हूँ
उनकी विधवा देह पर
कई रजनीगंधा सरसराते हैं
अपनी सुरभि से लिखती हैं वे
सफ़ेद फूल
और रातभर कोई धूमिल अँधेरा
ढरकता है
चौखट पर जलता रहता है
देह का स्यापा .

एक  पुच्छल तारा
करीब से निकलता है सूरज के
अपशकुन से सहमता
देखती हूँ
श्वेत रंग
कुहासे के मैल में
खो बैठा है अपनी मलमल

तब वे ..
वे मुझमें टहलती  हैं
और मेरे भीतर एक दूब
कुचल जाती है ..
पीली जड़ों से मैं झांकती हूँ
भीत कदमों से आहत
रजनीगन्धा की पांखें झर गयी हैं
भोर की हवाएं
अब भी हैं उन्मत्त .



चाहूँ,फिर चाहूँ

::
इस बार सोचा तुम्हे फिर से चाह कर देखूं
ऐसे जैसे मैं रही हूँ सोलह वर्ष
और तुम उससे एक ज्यादा ..

फिर चाहूँ
और दौडूँ तुम्हारे पीछे

भूल जाऊं बीच में ये
ठिठकी रुकूँ
और सिर ऊंचा कर देखूं बादलों की नक्काशी किये आसमान को
देखने लगूँ तितलियों के निस्पृह पंख
बीन लूँ हरसिंगार की झड़ी पत्तियाँ
लाल फ्रॉक में.

फिर झाड़ भी दूँ हरी दूब पर
तुम्हारी मुस्कान के पीछे दौड़ते हुए सब ..
बदली बरस जाती है
बीन कर नदी की धार ज्यों .

::
एक बार तुम भी फिर से चाहो मुझे
अपनी एटलस साईकल से
पीछे आते-आते
गुनगुनाते हुए फ़िल्मी धुन
और खट से उतर जाए
साईकिल की चेन..
तुम्हारी कनखियों पर लग जाए
वही समय की ग्रीज़
मैं रुकी रहूँ इस दृष्टि -पथ पर
अनंत कालों तक
इसी तरह तुम्हे चाहते हुए

लो पकड़ो तो
ये गिटार, तुम्हारा तो है
एक बार फिर से पकड़ो उँगलियों में गिटार -पिक
बजा दो दूरियां बनाये तारों को
एक गति से.

क्या भूल गए हो
हम भी इन्हीं तारों -से महसूस होते रहे थे
एक - दूसरे को
दिशाओं में गूंजती स्वर -लहरी से ...

इसी तरह तुम्हे चाहते हुए
चाहूँ, तुम भी चाहो अटकी हुई स्मृतियों की पतंगे
आओ दौड़ लें इनके पीछे
आसमान ने छोड़ दिए हैं धागे
इन्हें लौटाने के लिए ...

::
जाओ, देखो तो
क्या रख आई हूँ तुम्हारी स्टडी - टेबल पर
हल्दी की छींटवाला, एक खत चोरी-भरा

पढ़ लेना समय से
खुली रहती है खिड़की कमरे की
धूप, हवा, चिड़िया से

कहीं उड़ न जाएँ
हल्दी की छींट...ताज़ी .

आज तुम ही आना किचिन में
कॉफ़ी का मग लेने ..
हम्म ..
कई दिनों बाद उबाले हैं ढेर टेसू केसरिया
तुम्हें पुरानी फाग याद है न  ..
मैं कुछ भूल -सी गई हूँ ..
कई दिनों से कुछ गुनगुनाया ही नहीं
साफ़ करती रही शीशे घर के .

::
आओ देखो तो
आज जो तारीख काटी है
एक बहुत पुरानी होली की है
तुम्हारे हाथ भरे हैं
गुलाबी अबीर से
मुझे गुलाबी पसंद है
तुम्हें नीला  ..
शायद ये कलेंडर मैं फाड़ना भूल गई थी ..
काफी कुछ बचा रहा इस तरह तुम्हारे -मेरे बीच
एक बार फिर चाहूँ
इस बचे को उलटो-पलटो तुम .

::
तुम भी बुला लेना मुझे
बस यूँ ही ..

हॉस्टल के सबसे पीछे वाले कमरे की वह चोर खिड़की
जहां  अचानक आती थी मैट्रन
और पकड़ी जाती थी मैं बार-बार
हर बार  खड़े रहते थे बाहर  तुम
बिलकुल उस मोज़ार्ट की बांसुरी-से 
जिसका होना एक अर्वाचीन सिंदूर (बलूत) की शाखों में छिपा है
परी कथा -सा
जहां एक टेमीनो और पेमेना को रहना होता  है हरदम
इतना हरदम
कि अनंत युगों तक कोई बजाता रहे बांसुरी
और जिसके जादुई छिद्रों में
संगीत की तरह आबाद हो
मुक्त प्रेम
अनंत लड़ाइयों के बाद .

तब अचानक खिड़की के बाहर
बहुत ज्यादा उग आती थी घास
कुछ ज्यादा गिरती थी ओस
जहां बादल का टुकड़ा रुका रहता था घंटों
बेतरतीब से बरसता था पानी
सांकल पर चढ़ा होता था इन्द्रधनुष फाल्गुनी
जहां नदी बह जाती थी मेरे पैरों से
और तुम पुल पर औचक थमे रहते थे
इन सबके बीच

आज चाहूँ, तुम बुला लो मुझे
निस्तब्ध क्षणों पर टिकी
हमारी पुरानी पुरानी बरगद - पहचान को
जड़ों तक भीगी पहचान
जो घर की खिड़की पर बैठी गौरैया को
आने देगी भीतर
और बहुत लड़ाइयों के बाद भी
रोशनदान पर रख देगी
तिनके नए ...
रंग भी तो तिनकों  जैसे होते हैं
बुनते रहते हैं नीड़ प्रेम के ..


प्रेम

::
ये उसकी खिड़की है
जहां से झाँकने देती है नीली आँखों वाले समंदर को
टिकाने देती है सूरज को अपनी लाल कोहनी
और अपनी नींद को बिठा देती है चिड़िया के मखमली परों पर
क्षितिज के ध्रुव तारे से कह लेती है बात
कि वह प्रेम करती है
और सहसा दूब हंसने लगती है कौतुक से.

::
इतना आसान नहीं प्रेम
हंसों का जोड़ा बतियाता है
और सामने लगा पेड़ रंगने लगता है पत्तों पर  तस्वीर नल-दमयंती की
रेत में दुबका पीवणा डस लेता है मारू को
भंवर में झूल रहे होते हैं सोनी- महिवाल
किसी हाट में सच की बोलियों पर बिक रही होती है तारामति
हरिश्चंद्र का मौन
क्रंदन पर रख देता है उँगलियाँ
कितना पहचाना -अपना है
परस प्रेम का.

::
कितना रहस्यमय है प्रेम
जतिंगा की उन हरी पहाड़ियों सा
जो खींचती हैं असंख्य चिड़ियों को
अपने कोहरे की सघन छाह में
चन्द्र विहीन रात पसर जाती है पंखों पर
और क़त्ल हो जाती हैं कई उड़ाने एक साथ
घाटी निस्पृह भीगती रहती है
पूरे अगस्त -सितम्बर तक
रहस्यमयी हवाएं बदल लेती हैं रुख उत्तर से दक्षिण को ...
एक ठगा स्पर्श बस !


::
कितना विचित्र है प्रेम
जिसमें रुकना होता है समय को
रचने के लिए नया युग

समय सुनता है छैनियों की नरम देह की आवाजें
जिनमें तराशने के संस्कार पीट रहे होते हैं हथौड़ियाँ ...अनगढ़ पत्थरों पर
वल्लरियों के गुल्म चढ़ने लगते हैं मंदिर की पीली लाटों पर
और बुद्ध की आँखें अचरज से देख रही होती हैं अपने चारों ओर लिपटे वलय को
सुजाता ले आती है खीर
प्रेम बोधि हो जाता है.

:::::

37/Post a Comment/Comments

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  1. पुरुषोत्तम अग्रवाल29 अप्रैल 2011, 8:35:00 am

    कितना विचित्र है प्रेम
    जिसमें रुकना होता है समय को
    रचने के लिए नया युग

    समय सुनता है छैनियों की नरम देह की आवाजें
    ...जिनमें तराशने के संस्कार पीट रहे होते हैं हथौड़ियाँ ...अनगढ़ पत्थरों पर
    वल्लरियों के गुल्म चढ़ने लगते हैं मंदिर की पीली लाटों पर
    और बुद्ध की आँखें अचरज से देख रही होती हैं अपने चारों ओर लिपटे वलय को
    सुजाता ले आती है खीर
    प्रेम बोधि हो जाता है। " -बहुत मार्मिक है यह अंश, बधाई।

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  2. अपर्णा जी की परिष्कृत सौन्दर्य - चेतना की साक्ष्य हैं ये सुन्दर ,चित्रमयी कवितायें ,मानो , अर्थों पर बहती भाषा की झीनी जलधारा !

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  3. अपर्णा जी की कविताओं में रंगों के सुन्दर बिंबों ने आकर्षित किया ......... बहुत दिनों बाद कवितओं में रग- बिंब देखने मिले... अपर्णा जी आप नरेंद जैन का ताजा संगह "काला सफेद में प्रविष्ठ होता है " अवशय पढना उनकी कविताएँ पसंद आएगी.... वॉंन गॉग पर हिन्दी में मैने पहली बार कविता पढी....वह भी श्रेष्ठ कविता .....
    एक बार तुम भी फिर से चाहो मुझे
    अपनी एटलस साईकल से
    पीछे आते-आते
    गुनगुनाते हुए फ़िल्मी धुन
    और खट से उतर जाए
    साईकिल की चेन..
    तुम्हारी कनखियों पर लग जाए
    वही समय की ग्रीज़
    मैं रुकी रहूँ इस दृष्टि -पथ पर
    अनंत कालों तक
    इसी तरह तुम्हे चाहते हुए .............इस कविता के लिये आपको विशेष अभिवादन . सुन्दर कविता है ......

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  4. बरसों पहले विन्‍सेंट वॉन गॉग के जीवन पर लिखी किताब 'लस्‍ट फॉर लाइफ' पढते हुए मैं सिहर गया था, अपर्णा की कविता 'वॉन गॉग' उस अहसास को और सघन कर देती है। वॉन गॉग अपनी अद्वितीय जिद्दी जि‍जीविषा के साथ उस विपरीत समय के सामने न केवल चुनौती की तरह... तने रहे, बल्कि अपनी देह और आत्‍मा को रंगों में घोलकर अपनी कलाकृतियों में अमर हो गये - यह कविता उन स्‍मृति-रंगों को और गहरा बना देती है।
    इसी तरह 'लौटना' हमारे समय में विकास के नाम पर अपनी जमीन से बेदखल कर दिये गये उन आदिम मानव समूहों की पीड़ा को सलेटी कबूतरों की समूह-इमेज में बांधकर एक रोमांचकारी अनुभव रचती है - "उनमें आशाओं का नमक न था/और विवशताएं जमीं थी पथरीली" और उनकी जीवन-क्षमता को दर्शाती ये पंक्तियां - "उनके पंजों में/ पहाड़ तोड़ रहा था दम" इसके बावजूद "वे गाना चाहते थे अबाध पर कोई भाषा फंस गई थी सीने में" अद्भुत कविता है। इसी तरह बाकी कविताओं के माध्‍यम से अपर्णा ने मानवीय अनुभव की ऐसी विराट और विलक्षण छवियां उकेरी हैं, जो इन कविताओं को स्‍मरणीय बना देती हैं। बधाई

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  5. अपर्णा की कवितायेँ मुझे प्रथम परिचय से ही आकृष्ट करती हैं. उनके बेहद मानीखेज बिम्ब...सहज उतार-चढ़ाव और वह जीवट जिसकी आपने चर्चा की है...वह हिन्दी कविता में उनके लिए एक अलग जगह बनाता है...लौटना कविता पढते हुए मुझे लोसा की स्टोरीटेलर की छवियाँ दिखाई दीं ...

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  6. "आप वह सब कुछ करें, जिसमे आप रमें और वो रचे"
    शुभ कामनाएं स्वीकारें दीदी...

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  7. अपर्णा जी की एक साथ इतनी कविताएं पहली बार पढ़ीं। इन कविताओं में एक तरह का आवेग है। बिम्ब नए हैं और आकर्षक भी। उनकी कविताओं में प्रकृति अपनी पूरी अस्मिता के साथ झंकृत हो रही है। प्रेम की कविताएं भी अच्छी हैं। बहुत अच्छी कविताओं के लिए मेरी ढेर सारी बधाइयां....

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  8. वाह वाह .......में आज सुबह सुबह इन शब्दों के साथ रोमांचित हुआ ....मैं बालक रूपी इन्सान ,जेसे मंदिर में प्रवेश कर ...जिन मूर्ति रूपी पक्तियों और शब्दों से जब सामना हुआ तो मनो सब कुछ वेसा ही अनुभूति से रूबरू करीब हुआ जेसा उन पत्थोरों की मूर्तियाँ का मुझ से आत्मासाथ हुआ है कुछ वेसा की ...सब वो नाद जो जीवन को हर पल नकारत्मक या परिस्थियों से विपरीत -ता की और धकेलता है पर खुद में लड़ने का अटल साहस उन मूर्तियों से अनुभूति के रूप मैं होता है कही ..... मानो पाताल से उस सरिता को निकलना ही है .....शब्द का भागीरती तपस्या से रूबरू करना ...उस गहरी सोच से में स्तब्ध और अभिभूत हुआ ...सब कवितों का एक साथ वेश्लेषण करना ...मेरे वश का नहीं ..एक एक से रूबरू खुद को करुना ...अभी सहज निकली अभिव्यक्ति है ये जाह्न में रुका पड़ा.हूँ .लिखते ही रहो एक -एक शब्द का अहसास .
    पहली कविता वॉन गॉग की कल्क्रती से
    समय आपको अभी इतिहास के मर्तबान में डालना चाहता है
    मर्तबान में बंद कई तितलियाँ .
    अपनी नश्वरता से परे अलग बुनावट लिए
    कुलबुलाती हैं अमरत्व को.........सही सही अमरत्व को प्राप्त करते शब्द ....बहुत सुदर

    लौटना
    उनके पंख पूरे खुले थे
    जितनी खुली थीं हवाएं आसमान की.....!!!!!!!!!
    उनके पंजों में
    एक पहाड़ तोड़ रहा था दम
    रिसती हुई बरफ कातर
    टप-टप बरस रही थी हरी मटमैली आँखों से.........
    इस गुफा पर जड़ा था अवशताओं का भारी पत्थर
    द्वार भीतर जाता था पर बाहर का रास्ता न था .
    और दृश्य सफ़ेद .
    इनके लौटने की सम्भावना ?..............अद्भुद शब्दों को जीवट करती अनुभूति !!!!!!!!!!!

    कितना विचित्र है प्रेम
    जिसमें रुकना होता है समय को
    रचने के लिए नया युग

    समय सुनता है छैनियों की नरम देह की आवाजें
    जिनमें तराशने के संस्कार पीट रहे होते हैं हथौड़ियाँ ...अनगढ़ पत्थरों पर
    वल्लरियों के गुल्म चढ़ने लगते हैं मंदिर की पीली लाटों पर
    और बुद्ध की आँखें अचरज से देख रही होती हैं अपने चारों ओर लिपटे वलय को
    सुजाता ले आती है खीर
    प्रेम बोधि हो जाता है ....................अब इन शब्दों खुद को लपेटा हुआ .....निशब्द होता हुआ ....एक एक कविता को खुद के साथ जीने की प्रबल इच्छा होती जब इस तरह की तस्वीर सामने हुआ करती है ....अरुण जी बहुत बहुत सुक्रिया आप का ...इस जीवन की अनुभूति को सहज उपलब्ध करने का ....में बार बार इस ब्लॉग को उस माउस के पाइये से ऊपर निचे करता ...एक एक कविता को कई कई बार पढ़ गया ....लगभग ४५ मिनट होने आए पर इसी में रचा हूँ .....nirmal Paneri

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  9. भाव आर बिम्ब के स्तर पर विशेष रूप से आपकी रचनाएं आकृष्ट करती हैं...
    जिनमें विचारों की प्रधानता है....पहले भी इसमें से कई पढ़ चुकी हूँ....और पसंद भी की हैं...

    अर्पणा जी...आप बधाई स्वीकारे...


    सस्नेह
    गीता

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  10. bhut sundar kavitaye hai. qatra mein samunder hai . aparna ji badhi arun aapko vi.

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  11. अपर्णा, सशक्‍त कवि‍ताओं के लि‍ए बधाई। सच, इन कवि‍ताओं में जि‍जीवि‍षा का उत्‍कट नाद है। मैं अभी बहुत कुछ लि‍खने की मन:स्‍थि‍ति‍ में नहीं.....ये कवि‍ताएं मन-प्राण को साथ लेकर यात्रा पर नि‍कल चुकी हैं।.....

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  12. ''और ज़ुबान पर एक आदिम संगीत प्रस्तर हो चुका था
    एक बांसुरी खुदी थी उनके अधरों पर
    लेकिन कोई हवा न थी जो उनके रंध्रों से गुज़रती''
    !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
    अपर्णा जी ! बहुत बहुत बधाई !!!!!!!!!

    जवाब देंहटाएं
  13. विभिन्न रंगों की सभी कविताएं सुंदर बिम्ब और भाव पक्ष का अध्भुत उदाहरण हैं। यूं भी लगता है जैसे आपका संग कविता के साथ सखी-सहेली सा है। शुभकामनाएं।

    जवाब देंहटाएं
  14. सभी कविताएँ बहुत अच्छी हैं, मुझे वान गाग और लौटना ख़ास तौर पर पसंद आईं. अपर्णा जी को बधाई !

    जवाब देंहटाएं
  15. बहुत अच्छी कवितायेँ अपर्णा जी ...वॉन गॉग बहुत अच्छी लगी!
    मैंने देखा उड़ते-उड़ते वे स्त्री हो जाते थे
    उनके काले केश फ़ैल जाते थे
    सफ़ेद आकाश के कन्धों पर.!बहुत खूब ...लौटना और प्रेम भी लाज़वाब!ढेर सारी शुभकामनाये इस उम्मीद के साथ कि आपको पढ़ने का लुत्फ़ निरंतर उठाते रहें :)
    वंदना

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  16. अपर्णा जी, बहुत खूबसूरत और बेहद उम्दा!! वाकई कई दिनों बाद कविता पढ़ने का वास्तविक सुख...आज ही आप के ब्लाग पर सिद्धेश्वर जी को भी पढ़ा, यहाँ आप को. अच्छा लगा..

    जवाब देंहटाएं
  17. सभी कवितायेँ बहुत सुन्दर हैं. खासकर वॉन गॉग...

    जवाब देंहटाएं
  18. बहुत सुंदर कविताएँ। अपर्णा जी एक साथ इतनी समर्थ और संवेदनशील कवयित्री हैं - मुझे मालूम नहीं था। हाँ! इसके पक्ष में एक साक्ष्य मिला था जब हाल ही में उन्होंने "आपका साथ.....साथ फूलों का......." नाम से कविता को समर्पित ब्लॉग लांच किया। ब्लॉग कितना खूबसूरत है!!!

    वास्तव में अपर्णा जी की कविताएँ अपने आप में संपूर्ण कविताएँ हैं। वे जीवन के प्रति प्रेम और गहरी आश्वस्ति की कविताएँ हैं। अपर्णा जी की प्रेमप्रधान कविताओं का रंग अलग है, अनुभूतियों की मसृणता अलग। लाजवाब.... अपर्णा जी का काव्य- वैभव। बधाई अपर्णा ....अरुण जी ))))((((((

    जवाब देंहटाएं
  19. अरुण और अपने सभी मित्रों का आभार .

    जवाब देंहटाएं
  20. वॉन गॉग तुम कैनवास पर झुके हो
    अपने दुःख का सबसे गहरा बैंगनी रंग उठाये
    सैनीटोरियम की बीमार खिड़की से आने देते हो सितारों - भरी रात

    हम सब सोते रहें तब तक
    जब तक भूल न जाएँ अपनी बनायीं भाषाएँ

    सुन्दर कवितायें , अपर्णा जी को बधाई अरुण देव जी का आभार .

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  21. अपर्णा दी बधाई एवं शुभकामनाएं ,, आपकी कविताओं के बिम्ब चित्रण हमेशा आकर्षित करते है ,,अब जल्द ही आपके संग्रह का इंतज़ार रहेगा ,,,
    सादर

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  22. वाह अपर्णा जी !
    शानदार ब्लोग !
    जानदार कविताएं !

    सभी कविताएं अच्छी हैं !
    अपर्णा जी को बधाई हो !

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  23. भाषा, भाव के लिहाज से ये कवितायेँ सुकून देती हैं.

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  24. वॉन गाग की ये पंक्तियां समय आपको अभी इतिहास के मर्तबान में डालना चाहता है, मर्तबान में बंद कई तितलियाँ. अपनी नश्वरता से परे अलग बुनावट लिए, कुलबुलाती हैं अमरत्व को...
    और मैं उन्हे जानती हूं कि ये लाइनें...
    मैं उन्हें जानती हूँ, उनकी विधवा देह पर, कई रजनीगंधा सरसराते हैं, अपनी सुरभि से लिखती हैं वे
    सफ़ेद फूल. और रातभर कोई धूमिल अँधेरा ढरकता है, चौखट पर जलता रहता है देह का स्यापा...
    ...यूं तो सारी कविताएं एक से एक हैं, लेकिन ये लाइनें अद्भुत हैं..

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  25. "तुम्हारी कनखियों पर लग जाए
    वही समय की ग्रीज़
    मैं रुकी रहूँ इस दृष्टि -पथ पर
    अनंत कालों तक
    इसी तरह तुम्हे चाहते हुए
    * * * *

    शायद ये कलेंडर मैं फाड़ना भूल गई थी ..
    काफी कुछ बचा रहा इस तरह तुम्हारे -मेरे बीच
    एक बार फिर चाहूँ
    इस बचे को उलटो-पलटो तुम .
    * * * *
    जहां नदी बह जाती थी मेरे पैरों से
    और तुम पुल पर औचक थमे रहते थे
    इन सबके बीच......""

    Mann ko chhu gayin ye panktiyaan !
    Sunder laga apko padhna !
    -- Sunil Amar journalist 09235728753
    nayamorcha.blogspot.com

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  26. अतिसुन्दर ! अपर्णाजी को बधाई । अरूणजी को इस प्रस्तुति के लिए धन्यवाद ।

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  27. वे गाना चाहते थे अबाध
    पर कोई भाषा फंस गई थी सीने में
    और शब्द अटके थे प्राणों में
    नामालूम विद्रोह की संभावनाएं आकाश थीं !

    ******
    इस बार मैं पुनरावृत्ति नहीं
    सब नया चाहती हूँ
    उत्थान नहीं
    सृजन चाहती हूँ
    जो एक युग की नींद के बाद संभव होगा
    क्योंकि हम सब भूल चुके होंगे
    सोने से पहले के युग ...
    अति सुंदर!

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  28. di, van gogh kavita mein unke olive grove se lekar sunflowers tak sab kuchh nazar aya....aur nazar aayi woh imaandari jo unki paintings mein saaf dikhti hai.

    jaya

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  29. ये उसकी खिड़की है
    जहां से झाँकने देती है नीली आँखों वाले समंदर को
    टिकाने देती है सूरज को अपनी लाल कोहनी
    और अपनी नींद को बिठा देती है चिड़िया के मखमली परों पर
    क्षितिज के ध्रुव तारे से कह लेती है बात
    कि वह प्रेम करती है
    और सहसा दूब हंसने लगती है कौतुक से.

    is se badhkar kya ho sakti hai komlata? bahut sundar chitra hain sab ke sab...bilkul sateek....chahey van gogh ki starry nights ka zikra ho ya prem ka.

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  30. एक अलग तरह का सुक़ून देती हैं अपर्णा की कविताएं.. 'वॉन गॉग' ने तो कमाल ही कर दिया...
    अरुण जी का आभार।

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  31. अपर्णा दी ..एक अजीब रहस्यवाद है आपकी कविताओं में.. बहुत सुन्दर लगी सभी .. वोन गोग की जीवनी पर भी आपने अपने मनोभावों से समय के केमरे का शटर ओन कर एक बड़ी जबरदस्त कविता लिखी है... और कई रंग घोल दिए है ... पहली तीन कवितायें जीवन से थोड़ी दूर ले जाती हैं ... किन्तु हर पंक्ति के भाव बिम्ब अलग अलग .और मन के अंतर को हिला देता है... एक बात कहूँ .. हां वो भी तलाशती है आटे की लकीर - इस पंक्ति को पढ़ कर याद आया कि चीटियाँ आटे की लकीर से सदा डरती है दूर रहती है .. इसी लिए वह तलाशती है आटे की लकीर ताकि उससे दूरी रखी जाए .. कभी कभी किसी से दूरी रखने के लिए उसकी नजदीकी का भी पता हो .. बचपन में हम चीटियों की पंक्ति को रोकने के लिए आटे की लकीर खींचते थे ..आपने बचपन भी याद दिला दिया ..
    मैं उन्हें जानती हूँ ..एक दर्द विधवा का ..बेहद बारीकी से कोमलता से उकेरा गया है आपकी कविता में .
    मैं उन्हें जानती हूँ
    उनकी विधवा देह पर
    कई रजनीगंधा सरसराते हैं
    अपनी सुरभि से लिखती हैं वे
    सफ़ेद फूल
    और रातभर कोई धूमिल अँधेरा
    ढरकता है
    चौखट पर जलता रहता है
    देह का स्यापा .
    चाहूँ फिर उन्हें चाहूँ - बहुत बहुत सुन्दर ..स्मृतिपटल से उतारी स्मृतियों की चाहत को कितना ही सुन्दर रूप मिला है आपकी कविता में ...पढ़ कर दिल गदगद सा हो उठा ...
    प्रेम... इसको परिभाषित करती हुवी कविता के कई बिम्ब मन को छु गए कुछ इस तरह कि ठगी से रह गयी..कुछ कहते नहीं बन पड़ रहा है.. बेहद सुन्दर रचनाएं ... दीदी शुभकामनायें आप यूँ ही सुन्दर सुन्दर लिखती रहे .. और आपका आभार इन रचनाओं के लिए ..

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  32. अब तक कई बार पढ़ने के बाद और अपने अनेकों दोस्तों को पढ़वाने के बाद टिप्पणी करने आया हूँ। बहुत भावपूर्ण और अर्थपूर्ण कविताएँ हैं। अपर्णा जी को बधाई और अरुण भाई का आभार।

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  33. अपर्णादी के ब्लॉग ’मौलश्री’ का नियमित पाठक हूं और इनमें से कुछ कविताएं वहाँ पढ़ी थीं. समालोचना पर भी उन्हें पढ़ना बहुत ही सुखद रहा. उनकी कविताएं अपने खूबसूरत बिंबों से जीवन के अनेक पहलुओं को छूती हैं. कभी-कभी उनकी कविताओं में उपजे भाव से असहमत भी हुआ मगर उनकी कविताएं हमेशा मन-मस्तिष्क पर देर तक बसेरा करती ही हैं - उनसे बेअसर नहीं रहा जा सकता. उनकी-सी कविताएं लिखने के लिये संवेदना का एक इतना बड़ा संसार चाहिये जो किसी एक व्यक्ति में देखना आश्चर्यचकित करता है. प्रकृति, प्रेम और स्त्रीमन की इतनी गहन अभिव्यक्तियाँ तो सचमुच अनोखी हैं. उन्हें बहुत बधाई और जल्द पूर्ण स्वस्थ हो कर लगातार रचते रहने के लिये ढेरों शुभकामनाएं.. अरूणजी को धन्यवाद.

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  34. आपकी कहन एकदम अलग है अपर्णा जी...
    'वॉन गॉग ..
    वॉन गॉग ..तुम सूरज की ओर जा रहे हो
    सूरज पीछे खिसक रहा है .
    फिर धमाका ..
    तुम्हारे होने की आवाज़ !
    दुनिया की देहर हिलती है
    दिए की लौ ऊपर उठी
    फिर भक!
    अब तुम समय के बाहर हो!
    वॉन गॉग ..
    कब्रगाह पर फैलने लगा है रंग - लाल...'
    आपकी कविताओं का आकाश कुदरत के तमाम रंगों से लदा है... बधाई आपको, अरुण जी शुक्रिया...

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  35. अपर्णा जी,

    आपकी कविताओं पर इतने 'कमेन्ट' हैं की अगर मैं कुछ लिखूँ तो वह 'नक्कारखाने में तूती की आवाज़' जैसा लगेगा, इसलिए सिर्फ़ इतना ही की बेहद अच्छी कवितायें हैं. बहुत बहुत बधाई!

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  36. इस बार मैं पुनरावृत्ति नहीं
    सब नया चाहती हूँ
    उत्थान नहीं
    सृजन चाहती हूँ
    वाह!
    बेहद सुन्दर कवितायेँ!

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  37. बहुत सुन्दर भावपूर्ण कविताएँ .. बहुत बधाई अपर्णा दी !

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