(पेंटिंग : रामकुमार) |
देवरिया (दो)
दिल्लीहा, बम्बइया बाबू लोग, सिगरेट और प्लेनेट डी
विवेक कुमार शुक्ल
हर साल गर्मियों की छुट्टियों याने मई जून के महीनों
में इस शहर में ऐसे लोग दिखायी देने लगते है जो यहाँ के नहीं लगते, कुछ कुछ टूरिस्टनुमा लोग. इन्हें दूर
से ही पहचाना जा सकता है;
ऐसा नही है कि ये लोग दूसरे ग्रह के
लोग लगते है पर फिर भी शहर के बाशिन्दे इन्हें देखते ही पूछ पड़ते है, “कहाँ रहेलSS बाबू ?”. कारण ये कि ये लोग अक्सर चेहरे पर दाढ़ी का छोटा सा मस्सा लगाये या
नये कटिंग के बालों के साथ दिखते है. इनकी कमीज बाकियों से कुछ ज़्यादा ही उजली
होती है, ये हर चार पाँच लाईन बोलने के बाद कुछ
अंग्रेजी में बोलते है और रिक्शा वाला
बाहरी समझकर किराया ज्यादा न माँग ले इसलिये उससे भोजपुरी में ही बतियाते है. ये
वो लोग है ATM मशीन के बाहर शरीफ़ाना ढ़ँग से लाईन
में खड़े रहते है और ATM मशीन के बूथ में अकेले जाना चाहते है, जब दूसरे पैसा निकाल रहे हो तो अपनी
गर्दन उचका कर “ हउ दबाईये, आज सलो बा, चलत त बा” जैसे जुमले नही उछालते . अपनी समझ में
ये खुद को मॉड समझते है, दुनिया के साथ चलने वाले, ये बात दीगर है कि शहर के बाशिन्दे
इन्हे “टीनहिया हीरो” कहते है क्योंकि ये मर्दों की
परम्परागत परिभाषा में फिट नही होते. ये रूपये के अवमूल्यन और मनमोहन सिंह के
आर्थिक उदारीकरण के बाद वाली पीढ़ी के लगते है. इन्हें देवरिया में हर चीज सस्ती
लगती है. हैण्डपम्प का पानी पीने से इनका पेट खराब हो जाता है और कमबख्त देवरिया में बिसलरी की बड़ी वाली बोतल मिलती भी
तो नही. ये गगन या हैवेन ड्यू रेस्टोरेंट
में कभी कभी ऐसी चीज की फ़रमाईश करते है जो वहाँ के बेयरे ने सुनी भी ना हो जैसे
कापुचिनो . ये अक्सर खा- पी कर उठते हुए “केतना
भईल हो !” की जगह “बिल प्लीज” कहते है. ये लोग भोजपुरी गाने नही
सुनते और अगर सुनते भी है तो तब जब इण्डियन ओशेन जैसा कोई बैण्ड गाये. देवरिया आकर
ये अकसर अतीत की जुगाली करते है, एक
ऐसा कोना ढ़ूंढ़ते है जहाँ स्मृतियों को बक्से से निकाल कर धूप दिखा सके. ये शहर
भर में घूमते है, पुराने चौराहों और अमर ज्योति टाकिज के
बाहर की डोसे की दुकान पर जाते है और अतीत में गुम अपनी निर्दोष हँसी के ठहाकों की
प्रतिध्वनियाँ तलाशते है. आठ – दस
पहले तक ये अपने घरों में चिंटू, बबलू, राजू, बिरजू थे आज ये दिल्लिहा बम्बईया बाबू लोग है.
उत्तर भारत के हर आम शहर की तरह देवरिया से भी लड़के लड़कियाँ बाहर
पढ़ने जाते रहे है . शहर में कोई यूनिवर्सिटी है नही, कुल जमा तीन कालेज है देवरिया में.
कुरना नाले के पार शहर के सीमान्त पर बना हुआ है बाबा राघव दास पी.जी. कालेज जिसे
लोग प्यार से KNIT कुरना नाला इंस्टीच्यूट आफ टेक्नोलोजी
भी कहते रहे है. कालेज गेट के ठीक पहले एक रेलवे क्रासिंग है जिसका इस्तेमाल लड़के
चेन खींच कर ट्रेन रोकने,
किसी आन्दोलन में ट्रेनों का रास्ता
रोकने में करते रहे है . बाबा राघव दास पी.जी. कालेज उर्फ़ BRD
की
इमारत सरकारी इमारतों की तरह पीले रंग से रँगी हुई है. B.Sc
करने
के लिये यह शहर भर में एकलौता कालेज है. यहाँ बहुत सारे गुणी अध्यापक है. यहाँ के गणित के प्रोफ़ेसर को देवरिया के छात्र
गणित का भीष्म पितामह कहते है. यह बात और है कि भीष्म पितामह एक शादी शुदा, घर परिवार वाले व्यक्ति है. हनुमान
मंदिर के दाहिने ओर जाने वाली सड़क पर कुछ दूर आगे जाकर बन है महिला पी.जी. कालेज
. जाने क्यों यहाँ आज भी छात्राओं के लिये नीले रंग की यूनिफ़ार्म पहनना जरूरी है.
कालेज के गेट के ठीक पास एक स्टेशनरी की दुकान है, एक सौन्दर्य प्रसाधन नुमा दुकान
और एक फोटो स्टूडियो हैं. कालेज तक आने वाली सड़क के शुरु में ही एक पुलिस
बूथ बना है जहाँ अक्सर लड़के बैठे या गायें लेटी हुई मिलती है. शहर के न्यू कालोनी
मोहल्ले और खरजरवा की सीमा पर है संत विनोबा पी.जी कालेज जो देवरिया की कचहरी के
लिये हर साल थोक मात्रा में वकील सप्लाई करता है. BRD के छात्रों की उर्जा का एक बड़ा हिस्सा इस बात में खर्च हो जाता है
कि कैसे रोडवेज की बसों में बिना एक रुपया दिये कालेज तक पहुँचे . संत विनोबा
पी.जी. कालेज का प्रचलित नाम “संतबीनवा” है . महिला पी.जी. कालेज या महिला में
हाल फ़िलहाल तक हिन्दी और समाज शास्त्र विभाग में एक एक अध्यापक थे. हिन्दी विभाग
के अध्यापक एम.ए. में गोल्ड मेडलिस्ट थे, इस
बात की ताईद आज भी उनके घर पर लगे नेम प्लेट से की जा सकती है .
पर इन सबके बावजूद ये लड़के लड़कियाँ
पढ़ते है , यहाँ से बी.एच.यू. , जे.एन.यू. जाते है. देवरिया में रहकर
तैयारी करते है और बैंक पी.ओ. से लेकर लेक्चरर तक बनते है. हाँ आजकल विशिष्ट
बी.टी. सी. के द्वारा प्राईमरी का अध्यापक
बनना जरा फ़ैशन में है. सरकारी नौकरी पाने वाले यहाँ इज्जत से देखे जाते है.
इलाहाबाद के दारागंज, दिल्ली के नेहरु विहार में सालों
अँधेरी कोठरी में रहकर, खैनी चबा कर , दिन रात पढ़ कर जब यहाँ के लड़के कभी IAS PCS बनकर लौटते है तो भगवान सरीखे हो जाते
है. ये हर जानने वाले के घर जाकर आशीर्वाद लेते है, छोटों को मेहनत और लगन का उपदेश देते है, लोग अपने बच्चों को इनके जैसा बनने को
कहते है. अचानक शहर भर में कहानियाँ सुनायी देने लगती है कि फ़लाँ सब्ज़ी वाले या
पान वाले का लड़का PCS,
IAS हो गया. देवरिया भर के लोग आप को बता
सकते है कि कैसे ये लड़के खाली ब्रेड खा कर पढ़े, इतनी मेहनत किये कि गर्दन के नीचे की हड्डी में पाव भर चना रखने भर
की जगह हो गयी थी. कोई चाचा कहते है कि “बाबू
!जब ओकरा के देखनी पढ़ते देखनी”. राघव
नगर के तिराहे पर 302 किमाम का बीड़ा बँधवाते वकील साहब
कहते है, “ भाई मिश्रा जी ! सुकुलजीउवा का लड़का
बाज़ी मार लिया.” मिश्रा जी दाँत खोदते हुए जवाब देते है
वकील साहब ! देवरिया प्रतिभाओं की खान हो गया है.
देवरिया में हमेशा से इतने लोग बाहर
पढ़ने नही जाते थे. BRD के पास के पालिटेक्निक कालेज में पढ़ने से इंजीनीयर की नौकरी पक्की
हुआ करती थी , BRD में हिन्दी के लेक्चर में पाँव रखने को जगह नही होती थी, संतबीनवा कभी मॉड कालेज हुआ करता था.
आज देवरिया में खुद को टीन-एजर कहने वाले लड़के शायद इस बात पर हँसे लेकिन 88-89 तक लोग यहीं रहना चाहते थे. लड़के, लड़कियाँ बारहवीं पास करते हुए सपने
देखते थे कि नई हीरो रेंजर साईकिल पर BRD या
संतबीनवा में पढ़ने जायेंगे और खूब सारे लेक्चर अटेण्ड करेंगे. उस समय तक अमूमन
होता भी यही था .लड़के दिन भर क्लास करते घर आते और शाम होते ही शहर भर के दोस्तों
के साथ घूमने निकल जाते थे . वे आमिर माधुरी की फ़िल्मे देखते और प्यार के रंगीन
सपने बुनते थे. शरतचंद्र की किताबे पढ़ते और उनसे लाईनें टीप कर प्रेम पत्र लिखते
थे. लड़के लड़कियाँ मिलकर देवरिया में नाटक आयोजित करते , एक दूसरे के घर आते जाते, Bio की क्लास में लड़के अपनी उँगली से खून
का कतरा निकाल कर लड़कियों की स्लाईड बनवाते थे. और इन सब के बीच अक्सर लड़के की
दादी या नानी बीमार पड़ जाया करती और उनकी इच्छा होती कि मरने के पहले बहू का
चेहरा देख ले. लड़का कुछ दिन तक चुपचाप रहता, दाढ़ी
नही बनाता और एक दिन बारात के साथ थ्री पीस सूट पहन कर पिता द्वारा तय की गयी शादी
कर लेता और बजाज चेतक स्कूटर और एक अदद बीबी लेकर घर चला आता. अब – तब में मरने वाली दादी / नानी अगले कई
सालों तक हँसी – खुशी रहती थी.
98-2000 के आस पास बारहवी पास करने वाली पीढ़ी
के सपने बड़े थे. देवरिया उनके लिये छोटा था, ये
आसमान छूना चाहते थे . ये लोग दूरदर्शन और ज़ी टी.वी. दोनो देखते थे. दूरदर्शन पर
सुबह सवेरे में शान का गाना “ आँखो
में सपने लिये घर से हम चल तो दिये ..” देखेते
हुये ये बाहर जाने का सपना बुनते थे . 2000 के आस पास देवरिया में एक अघोषित नियम सा बन
गया था बारहवीं पास कर इंजीनयरिग या मेडिकल की कोचिंग के लिये बनारस या कानपुर
जाने का. जो लोग बी.ए. करने वाले थे वे देवरिया में रह जाते या इनवर्स्टी में
पढ़ने गोरखपुर चले जाते. 98 और उसके पहले तक दिल्ली बम्बई वगैरह
देवरिया से बहुत दूर थे. वहाँ रहने वाले और वहाँ से आने वाले लोग देवरिया में VIP का दर्जा रखते थे. जब भी वे आते इन्हें
आस- पड़ोस में खाने पर बुलाया जाता था . दिल्ली में रहना उन दिनों सफल होने की
निशानी हुआ करती थी. दिल्ली, बम्बई
से आया आदमी शान से सूरज टाकीज के आगे के विजय आप्टीशियन की दुकान पर जाकर डेढ़
दर्जन चश्में देखकर बिना खरीदे आ सकता था और किसी
देवरिया वाले के ऐसा करने पर झिड़क कर , “ खाली
देखे अईल हवा, ले वे के बा नाही” कहने वाला दुकानदार दाँत चियार कर कहता
था
“ अरे भईया, अब दिल्ली बम्बई जैसा थोड़े न मिलेगा यहाँ, पैसा खरचा करना चाहते नही यहाँ लोग.”
2004-05 तक दिल्ली वगैरहा देवरिया से उतने दूर
नही रह गये थे. लगभग हर परिवार का एक लड़का, लड़की
बाहर पढ़ाई या नौकरी कर रहा था. देवरिया अपनी रफ़्तार से चलता रहा, महिला की लड़कियाँ किताबें सीने से
लगाये, सर झुका कर रूपसिंगार निकेतन आती जाती
रही. 90
के बाद पैदा हुए लोगों ने बारहवीं तक के लिये देवरिया में रुकना ठीक नहीं
समझा. ये वो समय था NIIT और APTECH पुराने पड़ चुके थे, और
देवरिया के लोग भी हास्पिटालिटी मैनेजमेंट समझने लगे थे. ये रोडीज देखेने वाली
जेनेरेशन थी और देवरिया इनके लिये बहुत स्लो था. ये लोग रियलिटी शो में वोट करते
थे, हाईस्कूल में आते आते कैमरा, MP3
वाला मोबाईल रख कर चलते थे . देवरिया में इनके लिये कुछ नहीं था , फ़िल्म देखने इन्हें गोरखपुर जाना
पड़ता था . ये बाल कटाने किसी गुमटी में नही न्यू कालोनी के एक जेण्टस पार्लर जाते
थे और चेहरे के रोओं पर उस्तरा फिरवाकर मनों क्रीम लगवाकर मसाज कराते थे. ये लड़के
SplitsVilla देखते और बड़े भाईयों से पूछते , “ hey bro! Did you have a GF in
high school?” | कभी
कभी लगता था कि अचानक देवरिया भर के लड़के अंग्रेजी बोलने लगे हैं. कमलेश
वस्त्रालय इन दिनों सून-सान रहता था वहाँ बैठने वाला दर्जी आजकल सिर्फ़ पेटीकोट
सीता था और ये लोग अक्सर Cotton
County में
“Buy1 Get 3” करते पाये जाते थे. जवानों की पुरानी
पीढ़ी देवरिया में रही और रची- बसी थी, ये
नये लोग देवरिया में रहकर भी देवरिया में नहीं थे और इनके बीच 80 के आस पास पैदा होने और 2000
के इर्द गिर्द बारहवीं पास करने वालों की एक पूरी जमात थी जो देवरिया और
दिल्ली के बीच खुद की जगह तलाश रही थी.
बारहवीं के बाद देवरिया छोड़ने वाले ये
लोग दिल्ली, बम्बई, बैंगलोर वगैरह में पढ़ाई या नौकरी करते थे और साल में एकाध बार
देवरिया में पाये जाते थे. दिल्लिहा बम्बईया बाबू लोग सिगरेट के शौकीन थे. सिगरेट
देवरिया में क्रान्ति का प्रतीक है, गुटखा
पेटी बुर्जुआ और यूँ कह लीजिये पान सामंतवाद का. इन बाबू लोगो के लिये देवरिया में
बिना इज्जत गँवाये सिगरेट पीने का कोना खोजना कोल्म्बस की खोज यात्राओं से कम नही
था. देवरिया में आप ज्यो ही सिगरेट(पान) की दुकान
के आस पास दिखे , पीछे से एक चाचा, मामा नुमा आवाज आती है, “का हो बिरजू, कईहा अईला ?” या आप दुकान पर पहुँचे और एक अजनबी सा
आदमी आपसे पूछ पड़ता है,
“ तू त उमा नगर
वाले वकील साहब के छोटका लईका हवा ना ? कईहा
अईला ?” और जीन्स की जेब में डाले हाथ में फँसा
सिगरेट के लिये निकाले जाने वाला दस का नोट चुपचाप फिर से जीन्स की जेब में
सुस्ताने लगता है. देवरिया में सिगरेट पीना लफ़ंगेनुमा लोगो के लिये आरक्षित है , शरीफ़ लोग पान की दुकान पर “पंडिज्जी ! एक 302 किमाम” कहते मिलते है. ऐसे समय में बाबू लोग सिगरेट पीने सुबह शाम ओवर ब्रिज
के पास के सेवा समिति बनवारी लाल नाम के इंटर कालेज के मैदान में चले जाते और नज़र
लगाये रखते कि कोई परिचित तो नहीं आ रहा . ऐसा नही कि देवरिया में सिगरेट पीने
वाले लोग नही रहे, लोग शुरु से रहे है और ये भी माना जाता
रहा कि वे इस शहर में रूकेंगे नही . अंग्रेजी वाले मास्साब जिनके पैजामे का नाड़ा
हमेशा लटकता रहता था और जो जूलियस सीजर बहुत अच्छा पढ़ाते है एक कहानी सुनाते थे
कि उनका एक दोस्त था, बी.ए. में साथ पढ़ता था, सिगरेट पीता था, बाद में दिल्ली चला गया और आज गोआ में
लेक्चरर है . मोहल्ले दर मोहल्ले सिगरेट पीने का कोना तलाशने वाले इस लोगो के लिये
देवरिया में एक छोटा सा रेस्टोरेंट खुला,Time Out. सुनार गली की एक एक छोटी सी गली में था यह रेस्टोरेंट,
एक
दूसरे के इर्द गिर्द चार –
पाँच मेजे, दीवार पर कुछ पोस्टर, कोने में लगा एक्जास्ट फ़ैन और काउन्टर पर बैठे अंकल जी. ये
बाबू लोग हर सुबह ग्यारह बजे के आस पास
वही मिलते दस रूपये की काफ़ी और शहर भर में आठ रूपये में मिलने वाले आमलेट के बीस
रूपये देते और मुग्ध भाव से सिगरेट पीते . Time Out इन लोगों का रोमाटिंक सपना था जहाँ
अक्सर ’पुरानी जीन्स और गिटार’ जैसे गाने बजते रहते और ये Time Out को Aryans नाम के बैण्ड के म्यूजिक वीडियो में
दिखाया जाने वाला काफ़ी हाउस मान कर मगन रहते.
ये लोग नियम कानून मानने वाले लोग थे.
ये सूरज टाकिज पर लाईन में लगकर टिकट लिया करते थे और पब्लिक प्लेस में सिगरेट
पीने से बचते थे. शुरु शुरु में ये Time Out में भी सिगरेट नहीं पीते थे. एक दिन वहाँ अंकल जी को सिगरेट जलाता
देख इनमें से किसी ने पूछा,
“हम यहाँ सिगरेट
पी सकते है ?” मूँछ रखने और न रखने की बार्डर लाईन पर खड़े अंकल जी मुस्कुराते हुए
बोले, “जब मैं यहाँ पी सकता हूँ तो तुम क्यों
नहीं”. काउंटर के पीछे बैठे अंकल जी अक्सर
विल्स नेवी कट पीया करते थे. नेवी कट सिगरेट जिसे देवरिया की पान की दुकानों पर “भील्स” के नाम से जाना जाता था. इन दुकानों पर नेवी कट माँगने पर दुकानदार
अक्सर ऐसा मुँह बनाता था जैसे हनुमान मंदिर चौराहे की चाय की दुकानों पर किसी ने
डीकैफ़ मोका माँग लिया हो ,
दुकान पर रखी डिब्बियों की ईशारा करने
पर दुकानदार कहता था, “सीधे कहSS भील्स चाही”.
Time Out में मोटे तौर पर तीन तरह के लोग आते
थे. एक ये बाबू लोग; दूसरे
कोट-टाई पहन कर शहर दर शहर ब्राम्ही आँवला केश तैल बेचने वाले लोग जिन्हें
अंग्रेज़ी में मार्केटिंग एक्जीक्यूटिव कहा जाता था; तीसरे वे लड़के लड़कियाँ जो अलग अलग आते, थोड़ी देर अलग अलग मेजों पर बैठकर एक
मेज पर बैठ जाया करते थे और 15
मिनट के अंतर पर अलग अलग निकलते थे. ये लड़के अक्सर कोक पीया करते ,लड़कियाँ बहुत कम हँसती थी और देर तक
स्प्रिंग रोल का टुकड़ा कुतरती रहती थी. इन बाबू लोगों की शिकायत थी कि देवरिया
में नेवी कट नकली मिलती थी और जिसे पीने पर मुँह कसैला हो जाया करता था. धीरे धीरे
इन बाबू लोग कि सुविधा के लिये Time Out में सिगरेट भी मिलनी शुरु हो गयी और ये
नेवी कट मुँह कसैला नही करती थी . बेयरा अब मेज पर काफ़ी के प्यालों के साथ दो
नेवी कट ,टेक्का छाप माचिस और ऐश ट्रे भी रख
जाया करता था. अंकल जी का बड़ा लड़का नोयेडा में किसी फ़ास्ट फूड चेन में
ऐक्जीक्यूटिव था . अंकल बताते कि ये काफ़ी मशीन वही लाया था और वो सोच रहे है कि
मेन्यू में कापुचिनों भी रखा जाये. उनके पास इन बाबू लोगों से बतियाने के लिये
बहुत कुछ था, दिल्ली नोयडा के बारें में, MBA की डिग्री की बढ़ती डिमांड के बारे में, और ये बाते सुनते – कहते बाबू लोग “एट होम” फ़ील करते थे.
एक साल गर्मियों में इन्होने पाया कि Time Out उस छोटी सी जगह से मेन सुनार गली में
शिफ़्ट हो गया है . जिन दिनों ये घटना हुई उन्हीं दिनों दिल्ली में अम्बुमणि
रामदौस फ़िल्मों में हीरो को सिगरेट पीता न दिखाये जाने की बात कह रहे थे, डायरेक्टर ये सोच रहे थे कि टेंशन में
घिरे हीरो और वैम्प को पर्दे पर कैसे दिखाये, दिल्ली
के बस स्टैंड पर सिगरेट पीने का जुर्माना दो सौ रूपये था,
रेस्टोरेंट
में सिगरेट के लिये अलग स्मोकिंग ज़ोन बनाना जरूरी था, दिल्ली में कुछ लड़के पब्लिक प्लेस की
परिभाषा और इस बात पर बहस कर रहे थे कि सड़क पर चलते हुए सिगरेट पीने से जुर्माना
होगा या नहीं. ऐसी ही गर्मियों में इन बाबू लोगों ने पाया कि Time Out की नयी जगह बड़ी तो थी लेकिन सड़क के
ठीक किनारे थी और Time
Out में अब सिगरेट
पीना मना हो गया था. कॉफ़ी वही थी लेकिन बिना सिगरेट बेमज़ा हो गयी थी. एक बेचारे
से चेहरे के साथ अंकल जी ने कहा भी, “जानते
ही हो वो स्मोकिंग ज़ोन वाला आर्डर, यहीं
दरवाजे के पास कुर्सी खींच कर पी लो”. पर
वह ये नहीं समझ पाये कि दरवाजे पर बैठने से पूरी सड़क उन्हें देख सकती थी और साथ
ही नये Time Out में छोटी जगह का एहसास भी नहीं था . ऐसी किसी दुपहर वहाँ से लौटते एक
बाबू ने कहा, “ Partner !
Deoria is no more.
Time Out के बाद ये बाबू लोग शाम का इंतजार करते
और लाईट कटते ही किसी अनजाने मोहल्लें में टहलते हुए या पोस्टमार्टम घर के पास
अंधेरे कोने में सिगरेट पीते. किसी भी गली या मोहल्लें में निरूद्देश्य घूमना
देवरिया में सामाजिक अपराध है और अगर आप कहीं रात दस बजे के बाद टहल रहे हो तो हो
सकता है कि पुलिस वाले आपको जीप में बिठाकर शहर से दस किलोमीटर दूर बैतालपुर छोड़
आये और बोले कि “अब टहलते हुए घर जाओ”. इन बाबू लोग में अक्सर इस बात पर भी
बहस होती कि कौन से मोहल्ले जाये क्योंकि हर मोहल्ले में किसी न किसी के परिचित
लोग थे. ओवर ब्रिज से आगे प्रेस्टिज ट्यूटोरियल के सामने की पान की गुमटी भी कुछ
दिनों तक ठिकाना रही पर मुसीबत यह थी गोरखपुर आने-जाने वाली बस इसी सड़क से गुजरती
थी और बस में बैठे लोग आपको आसानी से देख सकते थे और बस की गति के सापेक्ष गति से
जब तक आप सिगरेट फेंके या छिपाये तब तक आपका नाम लंफगों की लिस्ट में दर्ज हो चुका
होता था . ड्यूटी करने रोज़ गोरखपुर जाने वाले तिवारी जी, जो अक्सर “रंगीन रातें” जैसी फ़िल्में देखते गोरखपुर के कृष्णा
टाकिज में पाये जाते थे, घर लौटकर अपनी पत्नी से कहते , “सुनतहौ हो! माट्साब के लईकवा लखैरा हो गईल बा, देखनी आज ओवरब्रिजवा के लगे धुँआ
उड़ावत रहे”.
इसके बाद सिलसिला शुरु हुआ देवरिया में
चाय की ऐसी दुकाने तलाशने का जहाँ ग्राहक अक्सर गायब रहते हो. जहाँ दुकान पर
बजरंगी स्वीट्स जैसा कोई बोर्ड न टंगा हो और मिठाई के नाम पर पत्थरनुमा लड्डू हो
हो क्योंकि देवरिया में दुकान पर बोर्ड होना इस बात का सूचक है कि दुकान ठीक ठाक
चल रही है . ऐसी दुकानों पर अक्सर एक बूढ़ा आदमी बाँस के पंखे या बेना से मक्खियाँ
मार रहा होता, दुकान के आगे कोयले के टुकड़े बिखरे
होते, पानी फैला होता , मेजे मैल में लिपटी होती और 3-4
चाय की बिक्री के लालच में दुकानदार दुकान के भीतर सिगरेट पीने से मना नहीं
करता . पर देवरिया जैसे खाते- पीते शहर में ऐसी बहुत दुकानें नहीं थी और फिर ये
बाबू लोग दुकान की फर्श पर राख झाड़ते हुए ग्लानि और अपराधबोध के बीच की कोई चीज
महसूस करते थे. एक दिन इस बाबू मंडली के किसी कोलम्बस ने विजय टाकिज के आगे वाली
रिक्शा खटाल के सामने की चाय की दुकान के बारें में बताया . यह एक छोटी सी दुकान
थी जिसका अगला हिस्सा सड़क पर तोंद की तरह फैला था. दुकान थी सड़क के किनारे लेकिन
मिठाई वाली काउन्टर के पीछे की मेजे सड़क से नहीं दिखती पर समस्या यह थी कि यहाँ
चाय तो बिकती थी लेकिन सिगरेट नहीं. इसलिये ये लोग अक्सर विजय टाकिज और बंद पड़े
अमर ज्योति टाकिज के तिराहे पर साजन साईकिल रिपेयरिंग सेंटर के सामने एक किराने की
दुकान से सिगरेट खरीदते और नमकीन देने के लिये फाड़े गये अख़बार के चौकोर टुकड़ों
को ऐश ट्रे की जगह रख कर चाय की दुकान में बैठे बैठे तीन चार चाय पी जाते. पर यह जरूर था कि Time Out की तरह इस दुकान में बैठे बैठे वे खुद
को आर्यन्स के म्यूजिक वीडियो का शाहिद कपूर या तन्हा दिल गाने वाला शान नही समझ
पाते थे . यह दुकानदार चीकट गमछा लपेटे एक तोंदियल था जो बहुत कम बोलता था और
दाँये हाथ से जाँघ खुजाते हुए बाँये हाथ से चाय उड़ेला करता था . यहाँ शाम को
अक्सर सामने की खटाल से रिक्शेवाले चाय पीने आ जाते और दुकान में धुँआ देखकर बोलते, “ का हो, तू लोग त पूरा धुँअहरा क देले बाड़SS”.
इन बाबू लोगों के हाथ से देवरिया छूट
रहा था. शायद देवरिया वहीं था और ये देवरिया से छूट रहे थे. कोई देवरिया से इन्हे
फोन करता और बातो- बातों में चहकता हुआ बताता कि, “देवरिया अब दिल्ली से कम नाही बा, हनुमान
मंदिरवा पर बड़का हैलोजन लाईट लगल ह” और
ये लोग मन ही मन उसकी नादानी पर हँसते . ये धीरे धीरे वो व्याकरण भूलने लगे थे
जिसमें खुशी शब्द का अर्थ बारह घंटे लाईट रहना ,शाम को हनुमान मंदिर चौराहे पर सुभाष का आमलेट या समोसा खाना और
ओवरब्रिज पर उगता सूरज देखना था. आलू पचास पैसे किलो सस्ता पाने के लिये आदमी आठ
रूपया रिक्शा को देकर सब्ज़ी मंडी जाये, जॉली
स्टार ट्रेक का शटर वाला पुराना ब्लैक एंड व्हाईट टीवी आदमी हर महिने बनवायें ,बिज़ली का बिल ज़्यादा न आये इसलिये
जाड़े में फ़्रिज बंद कर देने जैसी बाते इन्हें दूसरे ग्रह की लगने लगी थी. “घर जा रहा हूँ” कि जगह ये बाबू लोग अब “यू.पी. जा रहा हूँ” कहने लगे थे. कभी वैशाली या कुशीनगर
एक्स्प्रेस से आते हुए ये जब ट्रेन कुरना नाला पर बने रेलवे पुल पर पहुँचती तो भाग
कर ट्रेन के दरवाजे पर आ ओवरब्रिज को देखते हुए नथुनों में देवरिया की महक खींच कर
धीमे से मुस्कुराने वाले ये बाबू लोग अब प्लेट्फार्म पर गाड़ी लगने तक अपने एसी
डिब्बों में सफ़ेद चादर में लिपटे रहते और दिल्ली, बंबई या बंगलौर में किसी देवरिया वाले दोस्त के मोबाईल पर एस. एम.
एस. आता, “Just reached
Planet D”
शानदार लेख है। लगता है, मेरी ही कहानी है गो मैं सिग्रेट तो नहीं पीता हूँ (मेरा मतलब है कभी-कभी तो पी ही है, लेकिन सिग्रेट पीने वालों में से नहीं हूँ।) लेकिन अपने कुछ दोस्तों के लिये ऐसे कोनों की तलाश मैंने भी की है,कसया (देवरियाँ का पड़ोसी शहर)में। मैं जब भी कसया जाता हूँ वहाँ के लोगों के लिये मैं और मेरे लिये वहाँ के लोग ठीक वैसे ही होते हैं जैसे कि इस लेख में बताया गया। विवेक को बहुत बहुत बधाई!
जवाब देंहटाएंसईद अय्यूब
sayeedayub@gmail.com
मैं देवरिया 1991 तक रहा…गोरखपुर रहते हुए भी 1997 तक देवरिया में भी रहा…बहुत सारी यादें हैं…अब तक वहां जा-जा के समेटता रहता हूं…क्या कहूं नास्टैल्जिक हो रहा हूं…शायद कुछ लिख ही डालूं कभी…
जवाब देंहटाएंदेवरिया की स्थिति शहर और कस्बे के बीच आज भी किसी त्रिशंकु जैसी है। इसका दामन छोड़कर देश-प्रदेश के किसी कोने-आंतर में एक प्रक्षिप्त और बेगानी ज़िदगी बसर कर रहे लोगों को इस शहरनुमा कस्ब़े या वाइस वर्सा की याद शिद्दत से आती है। अब अपनी खस्ताहाल सड़कों,ठंडी जिलेबी-इमरतियों,लकठा-गुड़धनियों से निर्मित शहर की एक ख़ास एथनिक पहचान में चिकन-बिरयानी के ठेले एक नया आयाम जोड़ रहे हैं। मुन्नी या शीला टाइप बॉलीवुडियन आइटम नम्बरों को मांस-मदिरा के सम्मिलन-उत्सव पर संगीत के रूप में सुनता-सुनाता अपना Planet D भी खाना-खजाना संस्कृति के नए यूटोपिया रच रहा है।
जवाब देंहटाएंशाबाश!!! विवेक... जियो...
@ सईद
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सईद!
@ अशोक जी
बहुत धन्यवाद!
@ सुशील जी
धन्यवाद भईया!
pata nahin kyun... vivek tum ek saath humesha do sambhavnaon ke beej daalte ho.
जवाब देंहटाएंkabhe lagta hai bahut talented ho kabhee lagta hai bahut aalsi ho....
aur dono batein barabar sahi.....
rachnasheelta ko banaye rakho.....
kuch log hain jo tumhe bar bar lagatar padhna chahte hain
sunder sunder ati sunder......................kya khooon mere pass tere liye sabd nhi hai......ese padne k baad maan bada azib sa ho gya...mai kafi der tk khoya rha deoria k un bite hue palo m........mera aapse anurodh aur sadar aagrah hai ki aap apni lekhni pr viram na lagaye........
जवाब देंहटाएंसंसमरण अच्छा बन पड़ा है पर इस बार निराशा का पुट ज्यादा पड़ा.
जवाब देंहटाएंपढ़ते हुए लगातार लगता रहा की देवरिया बहुत बड़ा 'बभनान' है या बभनान बहुत छोटा देवरिया.. पर विवेक बाबू सिगरेट देवरिया हो या पूर्वांचल की कोई भी और जगह क्रांति नहीं लफंगई का प्रतीक है.. बाकी तो बस आप Bang On hain..
जवाब देंहटाएंbahute badhiyan likhale bad bhaiya, jug jug jiya, sahitya ke samajh auri satire ke baht achha prayog bhail ba, dhanybad etna manoranjak rachna ke khati
जवाब देंहटाएंanand k tripathi
ek deoria niwasi
किस शहर की याद दिला दिया यार मै ऊप्र के अनेक शहरो मे रहा हु लेकिन देवरिया की गंघ ही अलग है
जवाब देंहटाएंअपने आप मे जाना पहचाना शहर }जैसे कि मै यहा पैदा हुआ हु वे कौन से तार है जिससे मै जुडा हुं
वहां के छोटेछोटे कस्बों में बहता हुंआ जीवन है वहां बेचैन करने वाली चीजें हैं बशर्ते आप उनसे दिल लगाये
स्वप्निल श्रीवास्तव
फैज़ाबाद 09415332326
विवेक कुमार शुक्ल जी आपको प्रणाम। आज से मैं आपका पक्का पाठक। - प्रदीप मिश्र, इन्दौर
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