‘लो सँभालो अपनी दुनिया हम चले’: पंकज चौधरी


 

लोग अच्छे हैं बहुत दिल में उतर जाते हैं
इक बुराई है तो बस ये है कि मर जाते हैं.
रईस फ़रोग़ 

 इन्हें बचाया जा सकता था. इस धरती की प्राण-वायु आख़िर किसने चुरा ली है? किसने उसमें धुआं भर  दिया है.

कला, साहित्य, संस्कृति के बहुत से लोग चले गये. उन्हें मजबूरन जाना पड़ा. उन्हें जबरन भेजा गया. और त्रासदी यह है कि यह सिलसिला अभी जारी है.

यह स्मरण-पत्र कवि लेखक पंकज चौधरी ने लिखा है.

समालोचन की तरफ से असमय चले गये दिवंगत व्यक्तित्वों की स्मृति में यह प्रस्तुति.   

 

 

स्मरण पत्र 

‘लो सँभालो अपनी दुनिया हम चले’                                       
पंकज चौधरी

 

१.

शंख घोष
Picture  by Pradip Dutta

बांग्‍ला कवि शंख घोष का जन्‍म 06 फरवरी, 1932 को बांग्‍लादेश के चांदपुर में हुआ और मृत्यु 20 अप्रैल 2021 को कोलकाता में कोविड-19 से हुई. उनकी प्रमुख काव्य-कृतियां हैं- सामाजिक नाय, बाबारेर प्रार्थना, गंधर्ब कबितागुच्छा. उन्‍हें विविधनरसिंहदास पुरस्कार (1977), साहित्य अकादेमी पुरस्कार (1977), रबिन्द्र पुरस्कार (1989), सरस्वती सम्मान, ज्ञानपीठ पुरस्‍कार (2016) और अनुवाद के लिए भी साहित्य अकादेमी सम्मान मिला. शंख घोष के बारे में हिंदी कवि लेखक प्रयाग शुक्ल कहते हैं- 

‘‘शंख घोष प्रेसिडेंसी कॉलेज और कलकत्ता विश्वविद्यालय के छात्र रहे. कोलकाता के कॉलेजों में शुरू में पढ़ाने के बाद वह जादवपुर विश्वविद्यालय से जुड़ गए, दीर्घकाल तक वहीं बांग्ला साहित्य का अध्यापन किया और शिक्षक के नाते भी विपुल ख्याति अर्जित की. कोलकाता की गलियों-सडक़ों, ट्रामों-बसों में, उन्होंने जो और जैसा जीवन देखा-जिया समय-समय पर उससे कविता सहज भाव से बुनती-गुनती चली गई. जीवन-प्रसंगों से उन्होंने सिर्फ कोलकाता के जीवन की ऊर्जा-ऊष्मा अपनी कविता में नहीं उतारी बल्कि उन प्रसंगों से भी बटोरी-संजोई जो जीवन-मर्म और मनुष्य हृदय की अतल गहराइयों को स्पर्श करते हैं और हमें आध्यात्मिक प्रतीतियों की ऊंचाइयों पर ले जाते हैं. प्रकृति, उनके उपादान, कविता में सहज रचे-बसे हैं. उनकी कविता हिंदी समेत देश, विदेश की अन्य भाषाओं में भी पहुंची, सराही गई और ग्राह्य हुई.’’

 

२.

अरविंद कुमार

 

17 जनवरी 1930 को उत्तर प्रदेश के मेरठ के एक वैश्य परिवार में जन्में अरविंद कुमार अपनी पत्नी कुसुम कुमार के साथ हिन्दी के प्रथम समान्तर कोश (थिसारस) का निर्माण करने के लिए जाने जाते हैं. उन्होंने संसार का सबसे अद्वितीय द्विभाषी थिसारस तैयार किया. द पेंगुइन इंग्लिश-हिन्दी/हिन्दी-इंग्लिश थिसॉरस ऍण्ड डिक्शनरी अपनी तरह का एकमात्र और अद्भुत भाषाई संचयन है. गौरतलब है कि अरविंद कुमार आगरा की हिंदी लोक शब्दकोश परियोजना के अवैतनिक प्रधान संपादक भी रहे. 

अरविंद कुमार की प्रारम्भिक शिक्षा मेरठ के नगरपालिका विद्यालय में हुई. सन 1943 में उनका परिवार दिल्ली आ गया. उन्होंने अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. किया. 

उनकी ख्याति फिल्म पत्रिका माधुरी (1963-1978) और सर्वोत्तम (रीडर्स डाईजेस्ट का हिन्दी संस्करण) के रूप में भी रही है. पत्रकारिता में उनका प्रवेश दिल्ली प्रेस समूह की पत्रिका सरिता से हुआ. कई वर्ष इसी समूह की अंग्रेज़ी पत्रिका कारवां के सहायक संपादक भी रहे. कला, नाटक और फिल्म समीक्षाओं के अतिरिक्त उनकी अनेक कविताएं, लेख व कहानियां प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं. उनके काव्यानुवाद शेक्सपीयर के जूलियस सीजर का मंचन राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के लिए इब्राहिम अल्काजी और अरविंद गौड़ के निर्देशन में सैकड़ों बार हुआ. अरविंद कुमार ने सिंधु घाटी सभ्यता की पृष्ठभूमि में इसी नाटक का काव्य रूपान्तरण भी किया, जिसका नाम है- विक्रम सैंधव.

 

३.

मंजूर एहतेशाम

उस गली ने ये सुन के सब्र किया
जाने वाले यहाँ के थे ही नहीं.  
जौन एलिया 


प्रसिद्ध उपन्‍यासकार-कथाकार मंजूर एहतेशाम का जन्म 3 अप्रैल, 1948 को भोपाल में हुआ. स्नातक तक शिक्षा ग्रहण करने वाले मंजूर एहतेशाम ने इंजीनियरिंग की अधूरी शिक्षा के बाद दवाएं बेचीं. पिछले 25 वर्षों से फ़र्नीचर और इंटीरियर डेकोरेशन का अपना व्यवसाय संभाल रहे थे. 

उनकी पहली कहानी ‘‘रमज़ान में मौत’’ 1973 में प्रकाशित हुई. उनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं- कुछ दिन और, सूखा बरगद, दास्तान-ए-लापता, पहर ढलते, बशारत मंज़िल. उनके प्रमुख कहानी-संग्रह हैं- तसबीह, तमाशा तथा अन्य कहानियां. नाटक है  एक था बादशाह (सह-लेखक सत्येन कुमार). मंजूर एहतेशाम को सूखा बरगद के लिए श्रीकान्त वर्मा स्मृति सम्मान और भारतीय भाषा परिषद का पुरस्कार, दास्तान-ए-लापता (उपन्यास) पर वीरसिंह देव पुरस्कार, तसबीह (कथा-संग्रह) पर वागीश्वरी पुरस्कार तथा 1995 में समग्र लेखन पर पहल सम्मान, 2003 में राष्ट्रीय सम्मान पद्मश्रीसे भी अलंकृत किया गया. उन्होंने निराला सृजनपीठ, भोपाल की भी अध्यक्षता की.

 

४.

कान्ति कुमार जैन

ज़माना बड़े शौक़ से सुन रहा था
हमीं सो गए दास्ताँ कहते कहते
साक़िब लखनवी 



मशहूर संस्‍मरणकार कान्ति कुमार जैन का जन्म 9 सितम्बर
, 1932 को देवरीकलां, सागर, मध्य प्रदेश में हुआ. डॉ. जैन, हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर में हिन्दी विभाग के वर्षों तक अध्यक्ष रहें. वे माखनलाल चतुर्वेदी पीठ, मुक्तिबोध पीठ, बुंदेली शोध पीठ में अध्यक्ष के पद पर भी रहें. उन्होंने छत्तीसगढ़ की जनपदीय शब्दावलीपर विशेष शोध कार्य किया. डॉ. जैन की प्रसिद्धि में तब और वृद्धि हुई जब उन्होंने राजेंद्र यादव के संपादन में निकलने वाली पत्रिका हंस में लगातार भारत की मशहूर शख्सियतों पर खुलकर संस्मरण लिखा. उनके संस्‍मरणों की प्रमुख पुस्‍तकें हैं-जो कहूंगा, सच कहूंगा, बैकुंठपुर में बचपन, महागुरु मुक्तिबोध : जुम्मा टैंक की सीढ़ि‍यों पर, पप्पू खवास का कुनबा और लौट जाती है उधर को भी नज़र.
 

भाषा वैज्ञानिक और आलोचक राजेंद्र प्रसाद सिंह डॉ. जैन को याद करते हुए कहते हैं-

‘‘जब छत्तीसगढ़ नामक नया राज्य बना, तब उन्होंने छत्तीसगढ़ी बोली, व्याकरण और कोश का नया संस्करण प्रकाशित कराए. छायावाद की मैदानी और पहाड़ी शैलियां नामक उनकी पुस्तक छायावाद को नए सिरे से परिभाषित करती है. बड़े खुशमिजाज थे. हरिशंकर परसाई और मुक्तिबोध उनके मित्र थे, सो दोनों विभूतियों पर उन्होंने अलग-अलग किताबें लिखीं. आखिरी दिनों में वे संस्मरण खूब लिखे. परख की बड़ी पैनी दृष्टि थी. रेशे-रेशे को उभारने में सिद्धहस्त थे. विलक्षण संस्मरणकार थे. भाषा और साहित्य दोनों के मजे हुए विद्वान थे. बड़े प्रखर और खरे थे, जो भी कहा बिना लाग-लपेट के कहा.’’

 

५.

विजेंद्र

कितने पुर-उम्मीद कितने ख़ूबसूरत हैं ये लोग
क्या ये सब बाज़ू ये सब चेहरे फ़ना हो जाएँगे
अहमद मुश्ताक़ 


विजेंद्र पाल सिंह, जो कवि विजेंद्र के रूप में जाने गए का जन्‍म उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले के धर्मपुर में 1935 में और निधन 29 अप्रैल 2021 को गुड़गांव में हुआ. उनकी कुछ प्रमुख काव्‍य कृतियां हैं- त्रास (1966), ये आकृतियां तुम्हारी (1980), चैत की लाल टहनी (1982), धरती कामधेनु से प्यारी (1990), ऋतु का पहला फूल (1994), उदित क्षितिज पर (1996), घाना के पांखी (2000), पहले तुम्हारा खिलना (2004). इसके अतिरिक्‍त उन्‍होंने कविता और मेरा समय नाम से आलोचना पुस्‍तक और अग्निपुरुष एवं क्रौंच वध नाम से काव्‍य नाटक भी लिखें. उन्हें बिहारी पुरस्कार, मीरा पुरस्कार, राजस्थान साहित्य अकादमी का विशिष्ट साहित्यकार सम्मान और पहल सम्मान से भी सम्मानित किया गया. कृति ओरजैसी कविता और आलोचना केंद्रित पत्रिका के वे संपादक थे.

आलोचक ओम निश्चल विजेंद्र को याद करते हुए कहते हैं- 

“पैदा भले उत्तर प्रदेश में हुए, लेकिन उनका जीवन राजस्थान के विभिन्न शहरों में गुजरा. इस प्रदेश की कविता का अगर खाका खींचा जाए तो नंद चतुर्वेदी, ऋतुराज और विजेंद्र के बिना यह जुगराफिया पूरा नहीं होता. इन तीनों कवियों की अपनी दीप्ति है. यह विडंबना है कि न तो हिन्दी साहित्य के आलोचकों ने नंद चतुर्वेदी की परवाह की और न ही विजेंद्र और ऋतुराज की. विजेंद्र की यह खूबी है कि उनकी कविता में पेंटिंग भी उभर जाती है और अनुभूतियों की अभिव्यंजन भी. उनके भीतर आह्वान का सौंदर्य है. एक अलग तरह के काव्य सौंदर्य को जीने वाले विजेंद्र में एक बेलाग खरापन था.’’

 

 

६.

नरेंद्र कोहली  

हुए नामवर बे-निशाँ कैसे कैसे
ज़मीं खा गई आसमाँ कैसे कैसे
अमीर मीनाई 

 

डॉ. नरेन्द्र कोहली का जन्म 6 जनवरी 1940 को संयुक्त पंजाब के सियालकोट नगर, भारत मे हुआ था जो अब पाकिस्तान में है और निधन 17 अप्रैल 2021 को दिल्‍ली में हुआ. कोहली जी की प्रारम्भिक शिक्षा लाहौर मे आरम्भ हुई और भारत विभाजन के पश्चात परिवार के जमशेदपुर चले आने पर वहीं आगे बढ़ी. 

कोहली जी ने साहित्य की सभी प्रमुख विधाओं (यथा उपन्यास, व्यंग्य, नाटक, कहानी, संस्मरण, निबंध, पत्र और आलोचनात्मक साहित्य में अपनी लेखनी चलाई है. उन्होंने सैकड़ों ग्रंथों का सृजन किया है. हिन्दी साहित्य में 'महाकाव्यात्मक उपन्यास' की विधा को प्रारंभ करने का श्रेय नरेंद्र कोहली को ही जाता है. पौराणिक एवं ऐतिहासिक चरित्रों की गुत्थियों को सुलझाते हुए उनके माध्यम से आधुनिक समाज की समस्याओं एवं उनके समाधान को समाज के समक्ष प्रस्तुत करना कोहली की अन्यतम विशेषता है. कोहली जी को सांस्कृतिक राष्ट्रवादी साहित्यकार के रूप में जाना जाता है. उनके कुछ प्रमुख वृहदाकार उपन्‍यास हैं- दीक्षा’, ‘अवसर’, ‘संघर्ष की ओर’ ‘युद्ध और अभ्‍युदय.  जनवरी, 2017 में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया. इसके अलावा उन्‍हें व्यास सम्मान2012, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान पुरस्कार 1977-78, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान पुरस्कार 1979-80, शलाका सम्मान 1995-96, हिंदी अकादमी दिल्ली से भी नवाजा गया.

 

 

७.

रमेश उपाध्याय

बिछड़ा कुछ इस अदा से कि रुत ही बदल गई
इक शख़्स सारे शहर को वीरान कर गया
ख़ालिद शरीफ़ 


कथाकार, संपादक रमेश उपाध्याय का जन्म उत्तर प्रदेश के एटा जिले के बढ़ारी बैस में 1 मार्च, 1942 को हुआ था. रमेश उपाध्याय के साहित्यिक जीवन का आरंभ 60 के दशक में अजमेर से प्रकाशित पत्रिका 'लहर' से हुआ. 

एक कथाकार, एक संपादक और एक अध्यापक के रूप में जीवन शुरू करने से पहले रमेश उपाध्‍याय ने राजस्‍थान वि‍श्‍वविद्यालय से एमए और दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय से पीएचडी की और दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेज ऑफ वोकेशनल स्टडीज में प्राध्यापक नियुक्त हुए जहां आगे तीन दशकों तक अध्यापन कार्य किया. रमेश लघु पत्रिका आंदोलन से भी गहरे रूप से जुड़े थे. स्वयं उनके द्वारा प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका 'कथन' कई दशकों तक हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिका के रूप में लोकप्रिय रही. रमेश के अब तक 15 से अधिक कहानी संग्रह, पांच उपन्यास, तीन नाटक, कई नुक्कड़ नाटक, आलोचना की कई पुस्तकें और अंग्रेजी व गुजराती में कई पुस्तकों के अनुवाद भी प्रकाशित हुए हैं. उनके कुछ प्रमुख कहानी संग्रह हैं-जमी हुई झील (1969), शेष इतिहास (1973), नदी के साथ (1976), चतुर्दिक (1980), बदलाव से पहले (1981), चर्चित कहानियां (1995), अर्थतंत्र तथा अन्य कहानियां (1996). लेखन के लिए उन्हें केंद्रीय हिंदी संस्थान द्वारा गणेश शंकर विद्यार्थी सम्मान, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान और हिंदी अकादमी, दिल्ली द्वारा भी पुरस्कृत किया गया था.

 

8.

कुमार नयन

 

गज़लगो के रूप में प्रसिद्ध कुमार नयन का जन्‍म 05 जनवरी 1955 को बिहार के बक्‍सर जिले के एक निम्‍नवर्णीय किसान परिवार में हुआ. उनकी प्रमुख साहित्यिक कृतियां हैं- सोचती हैं औरतें, पांव कटे बिम्ब (कविता संग्रह), आग बरसाते हैं शजर, एहसास, ख़याल-दर-ख़याल, दयारे-हयात में (ग़ज़ल संग्रह). उन्‍हें बिहारी भोजपुरी अकादमी सम्मान, निराला सम्मान, कथा हंस सम्मान, बिहार राजभाषा सम्मान आदि से सम्मानित किया गया. कुमार नयन को अदम गोंडवी और दुष्‍यंत कुमार के बाद की कड़ी का अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण गजलगो माना जाता है. उन्‍होंने हिंदी के कई वरिष्‍ठ कवियों की कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद भी किया. 

आलोचक देवेंद्र चौबे उनको श्रद्धांजलि देते हुए कहते हैं-

‘‘बक्सर शहर और प्रतिबद्ध सामाजिक लेखन की वे पहचान थे. उनके होने से 1764 के लिए मशहूर शहर बक्सर पूरा लगता था. उनके बिना इस शहर और बक्सर की राजनीतिक संस्कृति की पहचान अधूरी है. उनके होने से यह शहर अपना लगता था. बक्सर और अहिरौली में होने वाले क्रिएटिव हिस्ट्री के हर कार्यक्रम के वे सूत्रधार थे. कुमार नयन का जाना बक्सर के इतिहास, सामाजिकता और साहित्य की संस्कृति के लिए भी बहुत बड़ी क्षति है. वे हिंदी के जाने-माने शायर थे. दो वर्ष पहले राधाकृष्ण प्रकाशन से आया उनका काव्य संग्रह "सोचती हैं औरतें" काफी चर्चित हुआ था.’’  

 

 

९.

सागर सरहदी 

रहने को सदा दहर में आता नहीं कोई
तुम जैसे गए ऐसे भी जाता नहीं कोई
कैफ़ी आज़मी 



11 मई 1933 को पाकिस्‍तान के एबटाबाद में जन्में बॉलिवुड के लेखक-निर्माता-निदेशक सागर सरहदी ने अपने लंबे करियर में
'नूरी', 'बाजार', 'कभी कभी', 'सिलसिला', 'चांदनी', 'दीवाना' और 'कहो ना प्यार है' जैसी शानदार फिल्मों की पटकथा लिखी थी. सागर सरहदी का असली नाम गंगा सागर तलवार था. सागर सरहदी पहले थिएटर से जुड़े और बाद में इप्टा से.
 

गौरतलब है कि सागर सरहदी ने ही रंगमंच की दुनिया में फारूख शेख और शबाना आजमी जैसे कलाकारों को मौका दिया था. उन्‍हें महान पटकथाकार के रूप में जाना जाता है. उन्होंने स्मिता पाटिल, फारूख शेख और नसीरुद्दीन शाह के लीड किरदारों वाली फिल्म 'बाजार' का डायरेक्शन भी किया था. सागर सरहदी ने फिल्मों के अलावा कई कहानियां और नाटक भी लिखे थे. सागर सरहदी को बेस्‍ट स्‍क्रीनप्‍ले और बेस्‍ट डॉयलॉग के लिए फिल्‍मफेयर अवार्ड से नवाजा गया. उनका नॉमिनेशन बेस्‍ट स्‍टोरी और बेस्‍ट डायरेक्‍टर के लिए भी हुआ था. 

 

 

१०.

जहीर कुरैशी

लोग अच्छे हैं बहुत दिल में उतर जाते हैं
इक बुराई है तो बस ये है कि मर जाते हैं
रईस फ़रोग़ 

 



हिंदी-उर्दू के शब्दों को पिरोकर गजल लिखने वाले जहीर कुरैशी का मध्‍यप्रदेश के बुरहानपुर में 71 साल की उम्र में इंतिकाल हो गया. वह भोपाल में रहते थे,  लेकिन बीमारी के चलते अपने दामाद के यहां बुरहानपुर गए हुए थे. 

उनके प्रमुख गजल संग्रह हैं-लेखनी के स्वप्न, एक टुकड़ा धूप, चांदनी का दुख, समुंदर ब्याहने नहीं आया है, भीड़ में सबसे अलग, पेड़ तन कर भी नहीं टूटा. उनके संस्मरणों की पुस्तक भी बहुचर्चित रही. उन्‍हें मप्र साहित्य अकादमी के पुरस्कार से सम्मानित किया गया. शायर और मध्यप्रदेश उर्दू अकादमी की निदेशक डॉ. नुसरत मेहदी ने कहा कि वे बहुत ही प्यारे और अच्छे शायर तो थे ही, इंसान भी बहुत अच्छे थे. वे अन्य गजलकारों की भांति श्रृंगार से हटकर राष्ट्रीय चेतना, सामाजिक समस्याओं को अपनी गजलों के माध्यम से उठाते थे. वे मानवता और संस्कृतियों को जोड़ने वाले राष्ट्रवादी शायर थे. उनका अपना शिल्प संसार था, अपनी शैली थी. जहीर कुरैशी का एक शेर अर्ज है-‘‘वो हिम्मत करके पहले अपने अन्दर से निकलते हैं, बहुत कम लोग, घर को फूंक कर घर से निकलते हैं.’’

 

११.

कुंवर बेचैन

शुक्रिया ऐ क़ब्र तक पहुँचाने वालो शुक्रिया
अब अकेले ही चले जाएँगे इस मंज़िल से हम
क़मर जलालवी 


 

हिंदी ग़ज़ल व गीत के सशक्‍त हस्ताक्षर कुंवर बेचैन का वास्तविक नाम डॉ. कुंवर बहादुर सक्सेना था. कुंवर बेचैन का जन्म 1 जुलाई 1942 को उत्तर प्रदेश के उमरी गांव (ज़िला मुरादाबाद) में हुआ था. उनका बचपन चंदौसी में बीता. ग़ाज़ियाबाद के एमएमएच महाविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष के रूप में अध्यापन किया व रीडर भी रहे. 

कुंवर बेचैन ने अनेक विधाओं मे साहित्य-सृजन किया. उनकी पैंतीस से अधिक कृतियां हैं, जिनमें गीत, ग़ज़ल, कविता, हाइकू, उपन्यास व आलोचना विधा शामिल हैं. उनकी प्रमुख कृतियां हैं-पिन बहुत सारे, भीतर सांकल: बाहर सांकल, शामियाने कांच के, महावर इंतज़ारों का, रस्सियां पानी की, उर्वशी हो तुम, झुलसो मत मोरपंख, पत्थर की बांसुरी, दीवारों पर दस्तक, नाव बनता हुआ काग़ज़, आग पर कंदील, आठ सुरों की बांसुरी, आंगन की अलगनी, कोई आवाज़ देता है, दिन दिवंगत हुए आदि. 

उन्हें साहित्य सम्मान, उप्र हिंदी संस्थान का साहित्य भूषण, परिवार पुरस्कार सम्मान, मुंबई, राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह एवं डॉ. शंकरदयाल शर्मा द्वारा भी समय-समय पर सम्मानित किया गया. 

 

१२.

शमीम हनफ़ी

ऐ मिरे साथी ये तेरे छोड़ जाने की कसक
मुझ को दीमक की तरह अंदर ही अंदर खाएगी
शकील सरोश 

 

अग्रणी उर्दू आलोचक और भारतीय संस्कृति के विद्वान जाने-माने शायर और नाटककार शमीम हनफी का जन्म 17 मई, 1939 को उप्र के सुल्तानपुर में हुआ था. वे कॉलेज की शिक्षा के लिए आगे चलकर इलाहाबाद आ गए जहां वे फिराक गोरखपुरी के संपर्क में आए. जिन्होंने उनके मन पर गहरी छाप छोड़ी. हनफी ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ाया था. बाद में वह जामिया मिलिया इस्लामिया में एक मानद प्रोफेसर बन गए. 

उनकी साहित्यिक आलोचना की तीस से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. अनेक पुस्तकों के सम्पादन सहित उन्होंने चार नाटक, अनुवाद की चार पुस्तकों के अलावा बाल-साहित्य भी लिखा. कुछ सालों पहले उनकी कविताओं का एक संग्रह प्रकाशित हुआ था. चित्रकला और रूपंकर कलाओं में भी हनफ़ी गहरी रुचि रखते थे. उनकी उल्लेखनीय कृतियां हैं- जदीदियत की फलसफियाना असास, नई शेरी रवायत, उर्दू कल्‍चर और तकसीम की रवायत, मंटो हकीकत से अफसाने तक, गालिब की तखलीकी हिस्सियत, गजल का नया मंजरनामा आदि.

 

१३.

मुशर्रफ आलम ज़ौकी


हिंदी-उर्दू के अफसानानिगार मुशर्रफ आलम जौकी का जन्म 24 नवंबर 1963 को बिहार के आरा में हुआ था. इनके पिता मशकूर आलम एक चर्चित शायर थे. लेकिन मुशर्रफ साहब का शुरू से ही कहानी की तरफ झुकाव था. वे 90 के दशक में दिल्ली आए और यहीं बस गए.
 

बहुमुखी प्रतिभा के धनी मुशर्रफ आलम जौकी ने कहानी, उपन्यास, नाटक, समीक्षा, टीवी सीरियल समेत अन्य क्षेत्रों में अहम भूमिका निभाई. उनके प्रमुख उपन्‍यासों में नीलम घर, शहर चुप है, मुसलमान, जिबह, अकूब की आंखें, मुर्दाखाने आदि हैं. हिन्दी कथा संग्रहों में लैबोरेटरी, फरिश्ते भी मरते हैं, बाजार की एक रात, फिजिक्स, कमेस्टी, अलजेबरा, फ्रीज में औरत, इमाम बुखारी की नैपकीन, शाही गुलदान आदि प्रमुख हैं. उर्दू कहानी संग्रहों में भूखा इथोपिया, गुलाम बक्श, मंदी, सदी को अलविदा कहते हुए, लैंडस्कैप के घोड़े, एक अनजाने खौफ के रिहर्सल, नफरत के दिनों में आदि हैं.

मुशर्रफ आलम जौकी ने दूरदर्शन समेत अन्य चैनलों में भी अहम भूमिका निभाई. उन्‍होंने कई सीरियल के साथ पटकथा लिखी. टेली फिल्‍मों और डॉक्‍यूमेंट्री फिल्‍मों का निर्देशन किया. मुशर्रफ आलम जौकी को कृष्णचंद्र अवार्ड, कथा अवार्ड, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अवार्ड, मीलिनियम अवार्ड, सर सैयद नेशनल अवार्ड, उर्दू अकेडमी बुक अवार्ड आदि अवार्डों से भी नवाजा गया.  

 

१४.

वनराज भाटिया

कम से कम मौत से ऐसी मुझे उम्मीद नहीं
ज़िंदगी तू ने तो धोके पे दिया है धोका
फ़िराक़ गोरखपुरी 


 

कला फिल्‍मों में संगीत देने के लिए मशहूर हुए संगीत निदेशक वनराज भाटिया का 93 वर्ष की उम्र में मुम्‍बई में निधन हो गया. सत्तर और अस्सी के दशक में अंकुर’, ‘मंथन’, ‘भूमिका’, ‘जाने भी दो यारो’, ‘मोहन जोशी हाजिर होऔर 36 चौरंगी लेनजैसी फिल्मों के साथ ही टीवी शो वागले की दुनियाऔर बनेगी अपनी बातसे उन्हें पहचान मिली थी. वनराज भाटिया ने 1988 में गोविंद निहलानी की तमसमें अपने संगीत के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार जीता और 2012 में उन्हें पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया. 

जवाहर लाल नेहरू लिखित और श्‍याम बेनेगल निर्देशित भारत एक खोज की वैदिक ऋचा सृष्टि के पहले कुछ नहीं थाके म्‍यूजिक कम्‍पोजर वनराज भाटिया ही थे. उन्‍हें वेस्‍टर्न क्‍लासिकल म्‍यूजिक के मर्मज्ञ के रूप में भी जाना जाता था. अभिनेता फरहान अख्तर उन्‍हें श्रद्धांजलि देते हुए लिखते हैं-

‘‘उनके द्वारा बनाए गए कई अन्य शानदार संगीत कार्यों के अलावा, मैं तमसकी थीम को विशेष रूप से याद करता हूं, जो पीड़ा से भरी चीख के साथ शुरू हुई. ये किसी को भी आराम पहुंचा सकती है और किसी का भी दिल तोड़ सकती है.” 

कवि आशुतोष दुबे कहते हैं -

"बहुत से सफल लोग कई बार बहुत से गुणी मगर दुनियावी अर्थ में असफल लोगों की कीमत पर सफल होते हैं. लेकिन अपने काम से कभी समझौता न करते हुए बहुत से गुणी लोग सफलता को बहुत कॉम्प्लेक्स सा भी दे देते हैं. वनराज भाटिया ऐसे ही संगीतकार थे.

 

१५.

राजन मिश्र

बहिश्त है कि नहीं है ये तू ही जानता है
तिरे फ़क़ीर ब-नाम-ए-यक़ीं चले गए हैं
शनावर इस्हाक़ 


 

बनारस घराने के प्रसिद्ध शास्‍त्रीय गायक पद्म भूषण राजन मिश्र का 70 वर्ष की उम्र में दिल्ली के एक अस्पताल में निधन हो गया. उन्होंने 1978 में श्रीलंका में अपना पहला संगीत कार्यक्रम दिया था और उसके बाद उन्होंने जर्मनी, फ्रांस, स्विट्जरलैंड, ऑस्ट्रिया, संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, नीदरलैंड, पूर्व सोवियत संघ, सिंगापुर, कतर, बांग्लादेश समेत दुनियाभर के कई देशों में प्रदर्शन किया. 

राजन और साजन मिश्र दोनों भाई थे और साथ में ही कला का प्रदर्शन करते थे. किशोरावस्था में 1978 में राजन-साजन जोड़ी ने श्रीलंका में अपना पहला विदेशी शो किया. ख्याल शैली में अतुलनीय गायन के लिए लोकप्रिय इन भाईयों की जोड़ी को 1971 में प्रधानमंत्री द्वारा संस्कृत अवार्ड मिला. 1994-95 में गंधर्व सम्मान और 2007 में पदम् भूषण से नवाज़ा गया. इनके दो दर्जन से अधिक एल्बम संगीत प्रेमियों के लिए उपलब्ध हैं. अभी हाल ही में उन्‍होंने लखनऊ के निर्देशक राकेश मंजुल की फिल्म-'तेरा देश, मेरा देश' के लिए संगीत निर्देशन की सहमति दी थी.

 

 

१६.

देबू चौधरी

कौन जीने के लिए मरता रहे
लो सँभालो अपनी दुनिया हम चले
अख़्तर सईद ख़ान 


 

सितारवादक देबू चौधरी (देवब्रत चौधरी) का 86 साल की उम्र में दिल्‍ली में निधन हो गया. उनका जन्‍म 1935 में बांग्‍लादेश के मायमेंसिंग में हुआ था. वे सितार वादक और संगीत शिक्षक के रूप में प्रसिद्ध हुए. उन्‍होंने सेनिआ संगीत घरानामैहर (मध्य प्रदेश) के श्री पंचू गोपाल दत्ता और संगीत आचार्य उस्ताद मुश्ताक अली खान से संगीत की शिक्षा ग्रहण की थी. उन्‍हें पद्मभूषण’, ‘पद्मश्रीऔर सगीत नाटक अकादेमी का विशेष योगदान पुरस्‍कार से भी सम्‍मानित किया गया था. 

पंडित देबू चौधरी संगीत से संबंधित कई पुस्तकों के लेखक, आठ नए संगीत रागों के जन्मदाता और बहुत से नए संगीत के धुनों के निर्माता भी रहें. उन्‍होंने 1963 से दुनियाभर में बहुत से स्टेज शो, रेडियो और टीवी कार्यक्रमों में अपने संगीत की प्रस्तुति दी. वे संगीत का शिक्षण कार्य करते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय के संगीत संकाय के डीन और विभागाध्यक्ष रहें. संगीत पर आधारित उनकी 3 पुस्‍तकें हैं- सितार एंड इट्स टेक्निक्स’, ‘म्यूजिक ऑफ इंडियाऔर ऑन इंडियन म्यूजिक.  

उन्‍हें इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालयखैरागढ़ (छत्तीसगढ़) द्वारा डी. लिट. की उपाधि से भी नवाजा गया.

 

 

१७.

नरेन

 

नरेंद्र कुमार प्रसाद जो हिंदी कहानी की दुनिया में नरेन के नाम से जाने गए, का जन्‍म 1 जनवरी, 1959 को बिहार के नालंदा जिले के एक निम्‍नवर्णीय मजदूर- किसान परिवार में हुआ था. आपका एकमात्र कहानी संग्रह चांदनी रात का जहरइतना चर्चित हुआ कि उसकी कहानियों को एक लम्‍बे अरसे तक याद रखा जाएगा. नरेन बहुमुखी प्रतिभा के मालिक थे. उन्‍होंने 200 से ज्‍यादा डॉक्‍यूमेंट्री और टेली फिल्‍मों की पटकथाएं लिखीं. स्‍वयं दो दर्जन से ज्‍यादा डॉक्‍यूमेंट्री फिल्‍मों का निर्माण किया. हार्वड फास्‍ट, मार्खेज, मोपासां, काफका, लू शून, चेखव, शोलोखोव, सत्‍यजीत रे, विमल मित्र और उत्‍पलेंदु चक्रवर्ती की 500 से ज्‍यादा अंग्रेजी और बांग्‍ला कहानियों का हिंदी अनुवाद किया. उत्‍पलेंदु चक्रवर्ती के निजी सहायक और असिस्‍टेंट डायरेक्‍टर के रूप में 10 वर्षों तक काम किया. नरेन मगही भाषा और साहित्‍य के उन्‍नायकों में से भी एक रहें. उन्‍होंने इसके लिए सारथि नाम की पत्रिका और संवेदना नाम की संस्‍था का निर्माण किया.

 

 

१८.

प्रभु जोशी

फूल से लोगों को मिट्टी में मिला कर आएगी
चल रही है जो हवा सब कुछ फ़ना कर जाएगी
शकील सरोश 


 

कहानीकार-चित्रकार प्रभु जोशी का जन्‍म 12 दिसम्बर 1950 को मध्‍य प्रदेश के देवास में हुआ था. अंग्रेज़ी की कविता स्ट्रक्चरल ग्रामर पर उनका विशेष अध्ययन था. उनके कहानी संग्रह हैं-किस हाथ से’, 'प्रभु जोशी की लंबी कहानियां' तथा उत्तम पुरुष'. बतौर चित्रकार वे तब चर्चा में आए जब उन्‍होंने हंस के औरत उत्‍तरकथा विशेषांक के दोनों खंडों के लिए न्‍यूडस बनाए. उनके न्‍यूड्स पर हिंदी के शुचितावादियों ने कोहराम मचा दिया था. प्रभु जोशी की ख्याति जलरंग चित्रकार के रूप में थी. 

उन्‍हें बर्लिन में संपन्न जनसंचार के अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा में आफ्टर आल हाऊ लांग रेडियो कार्यक्रम को जूरी का विशेष पुरस्कार और धूमिल, मुक्तिबोध, सल्वाडोर डाली, पिकासो, कुमार गंधर्व तथा उस्ताद अमीर खां पर केंद्रित रेडियो कार्यक्रमों के लिए आकाशवाणी के राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्‍मानित किया गया. उनके 'इम्पैक्ट ऑफ इलेक्ट्रानिक मीडिया ऑन ट्रायबल सोसायटी' विषय पर किए गए अध्ययन को 'आडियंस रिसर्च विंग' का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला. लिंसिस्टोन तथा हरबर्ट में और आस्ट्रेलिया के त्रिनाले में चित्र प्रदर्शित हुए. गैलरी फॉर केलिफोर्निया (यूएसए) का जलरंग हेतु थामस मोरान अवार्ड. भारत भवन का चित्रकला तथा मप्र साहित्य परिषद का कथा-कहानी के लिए अखिल भारतीय सम्मान. साहित्य के लिए मप्र संस्कृति विभाग द्वारा गजानन माधव मुक्तिबोध फेलोशिप.

 

१९.

सुनीता बुद्धिराजा

 

कवयित्री और संगीत मर्मज्ञ सुनीता बुद्धिराजा का जन्म 17 नवंबर 1954 को नई दिल्ली में हुआ था. कविता के साथ-साथ उन्‍होंने संगीत और उसके दिग्‍गजों पर भी काम किया. उनकी 11 से अधिक किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. उनके कविता संग्रह हैं-'आधी धूप' और 'अनुत्तर'. पंडित जसराज की गायन परंपरा की गहरी समझ रखने वाली सुनीता बुद्धिराजा को अमर उजाला शब्द सम्मान से भी सम्मानित किया गया था. साल 2018 के शब्द सम्मान में कथेतर वर्ग का छाप सम्मान सुनीता बुद्धिराजा की कृति 'रसराज-पंडित जसराज' को दिया गया था. उन्होंने पंडित जसराज के अलावा भारत के अन्य दिग्गज संगीतकारों में से उस्ताद बिस्मिल्लाह खान, पंडित किशन महाराज, डॉ. एम बालमुरली कृष्ण, पं. शिव कुमार शर्मा, पं. बिरजू महाराज और पं. हरिप्रसाद चौरसिया पर भी विशेष काम किया था.  

 

20.

मनोज दास

 

ओडिया और अंग्रेजी के विख्‍यात कथाकार मनोज दास का जन्म 27 फरवरी,  1934 को ओडिशा के बालेश्‍वर जिले के शंखारी नामक गांव में हुआ था. साहित्यिक जीवन की शुरुआत उन्‍होंने काव्‍य लेखन से की लेकिन जल्‍द ही कहानी लेखन की ओर मुड़ गए. सन् 1971 में प्रकाशित कहानी संग्रह मनोज दासंक कथा ओ. कहानीसे उन्‍हें विशिष्‍ट पहचान मिली. उनके अन्‍य प्रमुख कहानी संग्रह हैं-लक्ष्मीर अभिसार’, ‘आबू पुरुष’, ‘धूमाभ दिगन्तआदि. 

मनोज दास ओडिया तथा अंग्रेजी दोनों भाषाओं में समान रूप से कहानियां लिखते हैं. एक अंग्रेजी लेखक के रूप में उन्‍हें अंतर्राष्ट्रीय स्‍तर पर प्रतिष्ठा हासिल है. उनकी अंग्रेजी कहानियों को पढ़कर ग्राहम ग्रीन ने उन्‍हें आरके नारायण के समक्ष रखा, तो किसी अन्य ने थॉमस हार्डी, साकी तथा ओ हेनरी के साथ उनकी तुलना की. अंग्रेजी के प्राध्यापक होते हुए उनकी कहानी में जिस परम्परा का विकास देखने को मिलता है, वह है संस्कृत तथा ओडिया की लोककथा, वेद, उपनिषद की भारतीय सांस्कृतिक धारा और आधुनिक ओडिया गद्य साहित्य के प्रवर्तक फकीर मोहन सेनापति. उन्हें ओडिशा साहित्य अकादमी पुरस्कार, केंद्रीय साहित्य अकादेमी पुरस्कार, सरस्वती सम्मान और पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया था.

 

२१.

शांति जैन

 

लोक गायिका, बिहार गान की रचयिता साहित्यकार पद्मश्री डॉ. शांति जैन का जन्म बिहार के भोजपुर जिले के आरा में 4 जुलाई 1946 को हुआ था. वे पटना और आरा के कॉलेजों में संस्‍कृत की प्राध्‍यापक और विभागाध्‍यक्ष रहीं. साहित्‍य की विभिन्‍न विधाओं में उन्‍होंने 40 से अधिक किताबें लिखीं. उनकी पुस्‍तकों में वेणीसंहार की शास्त्रीय समीक्षा, एक वृत्त के चारों ओर, छलकती आंखें, पिया की हवेली, हथेली का आदमी, धूप में पानी की लकीरें, समय के स्वर प्रमुख हैं. शांति जैन को संगीत नाटक अकादमी सम्मान, देवी अहिल्या सम्मान, केके बिड़ला फाउंडेशन का शंकर पुरस्कार, बिहार कलाकार सम्मान, चैती पुस्तक के लिए बिहार सरकार का राजभाषा पुरस्कार से सम्मानित किया गया. 

 

२२.

महेंद्र गगन


कवि-संपादक महेंद्र गगन का जन्‍म मध्‍य प्रदेश के उज्जैन में 4 अक्टूबर 1953 को हुआ था. महेंद्र गगन तीन दशक से अधिक समय से संस्‍कृति पर केंद्रित पाक्षिक पत्र 'पहले-पहल' का संपादन-प्रकाशन कर रहे थे. उनके दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं, जिसमें मिट्टी जो कम पड़ गईउल्लेखनीय है. पत्रकारिता और कविता के लिए वे पुरस्कृत भी किए गए थे. साहित्य और संगीत में गहरी दिलचस्पी रखने वाले महेंद्र गगन की विविध राजनीतिक विचारों वाले लोगों से नजदीकी दोस्ती थी और वे यारबाश किस्‍म के लेखक-पत्रकार थे.  

 

२३.

विक्रम सिंह

मौत उस की है करे जिस का ज़माना अफ़्सोस
यूँ तो दुनिया में सभी आए हैं मरने के लिए
महमूद रामपुरी 


 कहानीकार विक्रम सिंह लिखने में विश्‍वास करते थे. चर्चा-परिचर्चा कराने से कोसो दूर रहते थे. दिल्‍ली के देशबंधु कॉलेज में हिंदी की प्रोफेसरी  करते हुए उन्होंने पांच कहानी संग्रह प्रकाशित कराए. उनके प्रमुख कहानी संग्रह हैं-जलुआ, मुकदमा और अन्‍य कहानियां, आचार्य का नेटवर्क आदि. आलोचक संजीव कुमार विक्रम सिंह को श्रद्धांजलि देते हुए लिखते हैं— 

‘‘अच्छे शिक्षक, ऐक्टिविस्ट, वक्ता और रचनाकार थे. तीन-चार साल पहले 'हंस' में छपी उनकी कहानी 'जलुआ' को काफी पसंद किया गया था. उसी के थोड़े समय बाद उनके पांच कहानी-संग्रह एक साथ प्रकाशित हुए. पकड़ऊआ विवाह पर उनकी 'बंद किवाड़ों के पीछेबहुत ही मार्मिक और परिपक्व कहानी है.’’  

 

 

२४.

निर्मल मिंज

 झारखंड के अग्रणी बुद्धिजीवी, रांची के मशहूर गोसनेर कॉलेज के संस्थापक प्राचार्य, साहित्य अकादमी भाषा सम्मान से सम्मानित निर्मल मिंज का जन्‍म गुमला के छोटे से गांव में 11 फरवरी 1927 को हुआ था. उन्‍होंने पटना विश्वविद्यालय एवं श्रीरामपुर कॉलेज से शिक्षा ग्रहण करने के बाद अमेरिका के मिनेसोटा विश्वविद्यालय और शिकागो विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त की. रांची में 1971 में उन्‍होंने  जिस गोसनेर कॉलेज की स्थापना की, वह दो कारणों से महत्त्वपूर्ण रहा है-आदिवासी भाषाओं के अध्ययन की व्यवस्था और शुरू में केवल थर्ड डिवीज़न वालों को एडमिशन. कॉलेज में आदिवासी भाषा माध्यम में भी शिक्षा की व्यवस्था की गई. डॉ. मिंज ने झारखंड आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई. वे संयुक्त राष्ट्र के आदिवासी अधिकारों के लिए कार्यरत समूह के भी सदस्य रहे. वे कुंडुख भाषा के लिए स्वीकृत लिपि तोलोंग सिकि को लिखना-सीखनेवाले सबसे अधिक उम्र के व्यक्ति थे. कुंड़ख में उन्‍होंने कई किताबें लिखी हैं और अच्छे अनुवादक भी थे. 

 

२५.

शांति स्वरूप बौद्ध


 भारतीय बौद्ध महासभा के स्तम्भ, प्रखर वक्ता, चित्रकार और सफल प्रकाशक उद्यमी शांति स्वरूप बौद्ध का जन्‍म पुरानी दिल्‍ली में 2 अक्‍टूबर, 1949 को हुआ था. उनके बचपन का नाम गुलाब सिंह था, जिसको डॉ. आम्‍बेडकर ने बदल दिया और उन्‍हें शांति स्वरूप नाम दिया. शांति स्वरूप बौद्ध आंबेडकरी साहित्य प्रकाशन की एक बड़ी शख्सियत थे, जिन्‍होंने सम्‍यक प्रकाशन की नींव रखीं. उन्‍होंने सम्यक प्रकाशन के जरिए देश के कोने-कोने तक बुद्ध, कबीर, फुले-आंबेडकर का विचार फैलाया. उनकी प्रमुख पुस्‍तकें हैं- धम्‍मपद गाथा और कथा, डॉ. बाबा साहेब आम्‍बेडक‍र की संघर्षयात्रा और संदेश. दलित चिंतक चन्‍द्रभान प्रसाद उन्‍हें श्रद्धांजलि देते हुए कहते हैं-

‘‘क्या 50 सांसद भी एक साथ मिलकर शांति स्वरूप बौद्ध के मुक़ाबले खड़ा हो सकते थे? बौद्ध जी दलितों के अशोक स्तम्भ थे. वह जब संबोधित करते थे तो उनके मस्तक पर बाबा साहेब का चित्र उभरता प्रतीत होता था.’’  

 

 

२६.

डॉ. (प्रो.) विमलकीर्ति

उठ गई हैं सामने से कैसी कैसी सूरतें
रोइए किस के लिए किस किस का मातम कीजिए
हैदर अली आतिश 



वरिष्ठ बौद्ध साहित्यकार और चिंतक डॉ. (प्रो.) विमलकीर्ति का जन्‍म 5 फरवरी, 1949 को हुआ था. वे नागपुर विश्‍वविद्यालय में पालि और बौद्ध विभाग के प्रोफेसर थे. बौद्ध धर्म दर्शन और पालि भाषा पर उनकी अद्भुत पकड़ थी. पालि भाषा शब्दकोष पर उन्होंने काम किया. साथ ही सामाजिक विषयों पर भी काम किया. गौरतलब है कि महात्‍मा जोतिबा फुले के साहित्य का हिन्दी में पहली बार उन्होंने ही अनुवाद किया और प्रकाशित करवाया. जिससे उत्तर भारत के हिन्दी क्षेत्रों में लाखों-करोड़ों लोग जोतिबा फुले के सामाजिक योगदान से परिचित हो सकें. उनकी मशहूर पुस्तक है ब्राह्मण संस्कृति बनाम श्रमण संस्कृति.

 

२७.

संजय नवले

 

आलोचक, संपादक, अनुवादक और हिंदी के प्रोफेसर संजय नवले का जन्‍म महाराष्‍ट्र में 1966 में हुआ था. संजय नवले हिंदी और मराठी साहित्य को जोड़ने वाली कड़ी थे. उन्‍होंने हिंदी के कई वरिष्‍ठ रचनाकारों की रचनाओं का मराठी में अनुवाद प्रस्‍तुत किया. मधुकर सिंह, संजीव, शिवमूर्ति, जयप्रकाश कर्दम के उपन्‍यासों और कहानियों का उन्‍होंने न केवल मराठी अनुवाद प्रस्‍तुत किया बल्कि उन पर स्‍वतंत्र रूप से पुस्‍तकें भी लिखीं. उन्होंने मधुकर सिंह के साथ मिलकर मराठी दलित कहानियांका संपादन भी किया. हिंदी पत्रिकाओं में वे नियमित रूप से लिखते थे. डॉ संजय नवले हिंदी विभाग, डॉ बाबा साहब अंबेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय, औरंगाबाद, महाराष्ट्र में प्रोफेसर थे. वे हिंदी विभाग के अध्यक्ष भी रहें.

 

२८.

धीरूभाई शेठ

मौत कहते हैं जिस को ऐ 'साग़र'
ज़िंदगी की कोई कड़ी होगी
साग़र सिद्दीक़ी 



प्रख्‍यात राजनीतिक समाजशास्‍त्री धीरूभाई शेठ का जन्‍म गुजरात के बड़ौदा में हुआ था. 83 वर्ष का जीवन जीने वाले धीरूभाई शेठ ने अल्‍पसंख्‍यक राजनीति और  लोकतंत्रनामक आला दर्जें की पुस्‍तकें लिखीं हैं. वहीं उनके महत्‍वपूर्ण आलेखों का हिंदी में संपादन और प्रस्‍तुति राजनीतिक विश्‍लेषक अभय कुमार दुबे ने सत्‍ता और समाजके नाम से किया है. गौरतलब है कि इस संपादित पुस्‍तक को वाणी प्रकाशन ने प्रकाशित किया है. इसके अलावा उनके सैकड़ों आलेख पत्र-पत्रिकाओं में बिखरे पड़े हैं. यहां यह भी उल्लेखनीय है कि साठ के दशक में रजनी कोठारी ने धीरूभाई शेठ को सेंटर फॉर द स्‍टडी ऑफ डिवलपिंग सोसायटीज (सीएसडीएस) से जोड़ा और जीवन के अंत तक वे उससे जुड़े रहें. 

अभय कुमार दुबे धीरूभाई के बारे में कहते हैं-

‘‘वे एक ऐसे बौद्धिक मानस का प्रतिनिधित्व करते थे जिनके केंद्रीय स्वर में एक अस्वीकार की ध्वनि है. समाज विज्ञान और सामाजिक यथार्थ के प्रचलित रिश्तों को गहराई से प्रश्‍नांकित करने वाला यह अस्वीकार अपने मूल में सकारात्मक रहा. अपनी इसी खूबी के कारण इसके गर्भ से समाज और उसकी पद्धति की रचनात्मक आलोचना निकलती है. इस आलोचना का दायरा बहुत बड़ा है जिसके एक सिरे पर अगर हमारी राजनीतिक आधुनिकता और जातिप्रथा के बीच के लेन-देन का अध्ययन है, तो उसके दूसरे सिरे पर उदारवादी लोकतंत्र और भूमंडलीकरण के अंत:संबंधों की निष्पत्तियों का खुलासा है. इस अनूठे रचना-संसार को एक सूत्र में बांधने की भूमिका खामोशी से की गई उस आजीवन विकल्प साधना ने निभाई है जिसके आधार में धीरूभाई की शख्सियत रही.’’

 

२९.

अरुण पांडेय

जाने क्यूँ इक ख़याल सा आया
मैं न हूँगा तो क्या कमी होगी
ख़लील-उर-रहमान आज़मी 


 

वरिष्ठ पत्रकार अरुण पांडेय का जन्‍म उत्‍तर प्रदेश के बलिया जिला में हुआ था. राष्ट्रीय सहारा के बहुचर्चित परिशिष्‍ट हस्‍तक्षेप के लंबे समय तक वे इंचार्ज रहे और मुद्दा आधारित बहस चलाते रहे. राष्‍ट्रीय सहारा के बाद वे इंडिया टीवी चैनल से जुड़े लेकिन वहां उनका जल्‍दी ही मोहभंग हो गया और वे पुन: सहारा आ गए. वे धुर वामपंथी धारा के पत्रकार थे. राजकमल प्रकाशन के लिए उन्होंने पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्‍योति बसु पर मोनोग्राफ भी लिखा. उन्होंने बिड़ला फाउंडेशन की फेलोशिप के तहत सूचना के अधिकार पर रिसर्च किया और इस विषय पर हिंदी में उनकी पहली पुस्तक आई. दिल्‍ली की सीमाओं पर चल रहे किसान आंदोलन की भी वे खोज-खबर लेते रहे. जीवन के अंतिम दिनों में वे अपने अखबार राष्ट्रीय सहारा के लिए पश्चिम बंगाल का चुनाव कवरेज कर रहे थे.

________________________

पंकज चौधरी
सितंबर, 1976 कर्णपुरसुपौल (बिहार

प्रकाशन : कविता संग्रह 'उस देश की कथा' तथा  पिछड़ा वर्ग और आंबेडकर का न्याय दर्शन (संपादित)
बिहार राष्ट्रंभाषा परिषद का 'युवा साहित्यकार सम्मान'पटना पुस्तक मेला का 'विद्यापति सम्मान' और प्रगतिशील लेखक संघ का 'कवि कन्हैोया स्मृति सम्मान'.


कुछ कविताएं गुजराती,अंग्रेजी आदि  में अनूदित

pkjchaudhary@gmail.com


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  1. मोहन सिंह12 मई 2021, 9:04:00 am

    यह काम समालोचन ही कर सकता था. सब बहुत याद आते हैं. नमन.

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  2. An unfortunately continuing tragedy.We lost some masters.Sabhi ko sadar naman

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  3. सराहनीय कार्य के लिए बधाई।

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  4. हवाएं कुछ ऐसी चलीं कि हम ख़िराजे अक़ीदत भी पेश न कर सके  तेरे जाने के ग़म का सियापा भी ना कर सके -  

    मन का सुन्न हो जाना सुनते थे, इस दौरान इतने अज़ीज़ों को हम सभी ने खोया है कि मन बिलकुल बधिर हो चला है. 
    हम सभी की इस अवस्था को पंकजजी ने जुबां दी है  

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  5. बहुत दुखद। यह विचलित करता है। नमन!

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  6. जब जब याद आएँगे, आंखें नम होती रहेंगी.

    .. पंकज चौधरी जी, अरुण जी यादों को ऐसे संजोने के लिए धन्यवाद.
    धन्यवाद

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  7. Daya Shanker Sharan13 मई 2021, 7:42:00 am

    मरना तो वैसे एकदिन सबको है,लेकिन जिस तरह लोग पटपटाकर असमय मर रहे हैं और व्यवस्था चुप्पी साधे हाथ-पे-हाथ धरे बैठी है या दृश्य से गैरजिम्मेदाराना ढंग से लापता है,यह सब देखकर मन विक्षोभ और आक्रोश से भर उठता है। सचमुच,हमें बहुत शक्तिशाली और महान नहीं, एक संवेदनशील सरकार चाहिए। लेकिन एक सवाल आत्मा में रह-रहकर कचोटता है कि जो बदइंतजामी के कारण अपनी जिंदगी से हाथ धो बैठे, कल अगर स्थिति सुधर भी जाय तो क्या वे लौटकर फिर आयेंगे ? ग़ालिब का एक शेर है-हमने माना कि तगाफुल न करोगे लेकिन, खाक हो जायेंगे हम तुमको ख़बर होने तक।

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  8. इन्हें पढते हुए क्षति की भयावहता का अहसास होता है। स्मरणांजलि !

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  9. समालोचन और पंकज जी ने हमारे हिंदी समाज का एक अमूल्य ऐतिहासिक दस्तावेज तैयार किया है - हालांकि इसकी दरकार न पड़ती तो बेहतर होता।सभी को सादर नमन।
    यादवेन्द्र

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  10. महेश दर्पण14 मई 2021, 8:24:00 pm

    इतने रचनाकार, कलाकार औऱ संस्कृतिकर्मी इस कोरोना काल में चल बसे, इसे आपने ज़रूरी तरीके से पत्रिका में प्रस्तुत किया। सच है कि इन्हें बचाये जाने की कोशिश होनी ही चाहिए थी।अब तक इस महामारी ने हम से बहुत सारी रोशनी चीन ली है।

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  11. शोक! शब्दातीत !
    कला पत्रिका 'क' के संपादक,कवि और संस्कृतिकर्मी विजय शंकर और पत्रकार-कवि
    सुकांत नागार्जुन भी नहीं रहे.श्रद्धांजलि!

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  12. हम सबके प्रिय रचनाकारों ,कलाकारों की स्‍मृतियों को दर्ज करने क लिए बहुत बहुत शुक्रिया .

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