सिनेमा का सौन्दर्य-शास्त्र: रिज़वानुल हक़



सिनेमा विश्व की आधुनिक और सबसे लोकप्रिय विधा है. उसमें लगभग सभी ललित कलाओं  का समावेश हो जाता है,   अभिनय, कथा, कविता, गायन, वादन, वासक-सज्जा, केश-सज्जा आदि आदि और वह अब एक बड़ा उद्योग भी है. यह उसके निर्देशक पर है कि वह इस  माध्यम का उपयोग कला सृजन के लिए करता है या मनोरंजन के रास्ते धन अर्जन के लिए.
इस आलेख में रिज़वानुल हक़ ने सिनेमा के दर्शन और विश्व सिनेमा में उसकी कला पर विचार किया है. 
कुछ महीने पहले ही उनके द्वारा शम्सुर्ररहमन फ़ारूकी के उपन्यास क़ब्ज़े ज़माँ का किया गया हिन्दी अनुवाद राजकमल से प्रकाशित हुआ है.
आलेख प्रस्तुत है


सिनेमा का सौन्दर्य-शास्त्र
रिज़वानुल हक़

 


यूँ तो अब भारत में सिनेमा के सौ साल पूरे हो चुके हैं, लेकिन सही अर्थों में सिनेमा की शुरूआत उस वक़्त से होती है जब सवाक सिनेमा का आरम्भ हुआ. इस तरह देखा जाए तो सिनेमा के सौ साल पूरे होने में अभी लगभग एक दहाई बाक़ी है. भारत में पहली बोलती फ़िल्म ‘आलम आरा’ 1931 में रिलीज़ हुई, जबकि वैश्विक स्तर पर इससे चार साल पहले बोलती फ़िल्में बननी शुरू हुयी थीं. अब जो एक नज़र हम इस काल के सिनेमा पर डालते हैं, तो हमारे दिमाग़ में कई सवाल उठते हैं. पहला सवाल ये है कि इन सालों में सिनेमा क्या वास्तव में इस योग्य हो गया है कि हम इस पर कोई गम्भीर बातचीत कर सकें? और इसके सौन्दर्य शास्त्र को तलाश कर सकें? क्योंकि सौन्दर्य शास्त्र की बात हम तभी कर सकते हैं, जबकि हम इसे ‘ललित कलाओं’ में शामिल मान लें, अगर फ़िल्में सिर्फ़ मनोरंजन हैं, तो मनोरंजन का स्तर अच्छा या बुरा हो सकता है, लेकिन मनोरंजन का सौन्दर्य शास्त्र तलाश करना अर्थहीन होगा.


एक सवाल ये भी कि सरकार ने फ़िल्मों को उद्योग का दर्जा दे रखा है और अगर फ़िल्में उद्योग हैं तो इसके सौन्दर्य की तलाश करना और मुश्किल होगा. लेकिन किसी भी कला को सिर्फ़ इसलिए नज़र अन्दाज़ नहीं कर सकते हैं कि उसमें उद्योग या व्यापार भी शामिल है. चित्र कला, संगीत, नृत्य से लेकर साहित्य तक हर कला में उद्योग न सही लेकिन व्यापार तो शामिल ही रहता है. लेकिन इन कलाओं को उनके ललित कला होने पर इसलिए कभी भी सवाल नहीं उठाए गए कि इनमें व्यापार शामिल है. सिनेमा को उद्योग का दर्जा इसलिए दिया गया था कि उन्हें बैंक क़ानूनी तौर पर कर्ज़ दे सकें. 

सिनेमा में दो विशेषताएं ऐसी हैं जिन की वजह से इसे उद्योग का दर्जा मिल सका है. पहली ये कि इसकी रचना में दूसरी कलाओं के मुक़ाबले में बहुत ज़्यादा लोग काम करते हैं. दूसरी विशेषता यह है कि दूसरी कलाओं के मुक़ाबले में सिनेमा की रचना में सबसे ज़्यादा पूँजी दरकार होती है. हर कला के अपनी ज़रूरतें और रचना प्रक्रिया होती है. अगर सिनेमा उन ज़रूरतों और रचना के पैमानों को पूरा करता है, तो इसे यक़ीनन ललित कला कह सकते हैं. कला के होने में इसके उद्योग होने या न होने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता.

दर्शन में किसी वस्तु में पाए जाने वाले सौन्दर्य को साबित करने के लिए दो शर्तें बतायी गयी हैं. पहली सुन्दरता और दूसरी उसका ललित कला होना. सुन्दरता बुनियादी तौर पर एक बाहरी वस्तु है जो इन्सानी इन्द्रियों को प्रभावित करती है. हालीवुड हो या बालीवुड, ज़्यादातर कामर्शियल फ़िल्मों में भी सुन्दरता शामिल होती है. ये फ़िल्में बाहरी या दिखने वाली सुन्दरता पर ज़्यादा ध्यान देती हैं. लेकिन उनका ललित कला होना ज़्यादा पेचीदा और आन्तरिक प्रक्रिया है. अगर ये समस्या हल हो जाए कि सिनेमा ललित कला की एक शाख़ है, तो उसके सौन्दर्य शास्त्र के भी पैमाने बनाए जा सकता हैं. मशहूर जर्मन दार्शनिक इमैनुअल काँट ने अपने सौन्दर्य शास्त्र के विचारों में सौन्दर्य के लिए दो बुनियादी शर्तें बताई हैं. उसने उदात्तता और सुन्दरता को सौंदर्य शास्त्र के लिए ज़रूरी क़रार दिया है. 

(सत्यजीत रे) 


सुन्दरता के बारे में काँट का ख़्याल है कि वह इनसान  में सुकून और इत्मिनान पैदा करती है. जबकि उदात्तता बेचैनी और हलचल पैदा करती है. सौन्दर्य शास्त्र का बुनियादी सम्बन्ध उदात्तता से है. सुन्दरता उसकी बाहरी शक्ल है. सत्यजीत रे की फ़िल्म पाथेर पंचाली (1955) आम तौर पर हिन्दुस्तान की बेहतरीन फ़िल्मों में शुमार की जाती है. अगर हम इसकी बाहरी सुन्दरता पर ग़ौर करें तो न इसमें ख़ूबसूरत रंग हैं, न ख़ूबसूरत चेहरे हैं और न ख़ूबसूरत प्राकृतिक सौन्दर्य है. फिर भी सौन्दर्य शास्त्र के एतबार से पाथेर पंचाली हिन्दुस्तान की बेहतरीन फ़िल्मों में से एक है, ऐसा कैसे मुमकिन है? इसका जवाब यही है कि यह फ़िल्म हम में हलचल और बेचैनी पैदा करती है और बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है. और आन्तरिक सौंदर्य का बोध कराती है.

फ़िल्म को ललित कला साबित करने के लिए हमें उन्हीं बुनियादी सवालों पर विमर्श करना होगा. जिसकी हम साहित्य, थिएटर और दूसरी ललित कलाएं, मिसाल के तौर पर चित्र कला, संगीत और नृत्य वगैरह से उम्मीद करते हैं. हमें समझना होगा कि ये कलाएँ करती क्या हैं? जिनकी बुनियाद पर हम उन्हें ललित कला कहते हैं. विकासशील समाजों के अध्ययन केन्द्र, नई दिल्ली में 28 फ़रवरी 2013 को ‘‘उर्दू, साहित्यिक परम्परा की सच्ची त्रिवेणी’’ विषय पर शमसुर्रहमान फ़ारूक़ी का एक व्याख्यान हुआ था. उसके आमंत्रण पत्र पर शमसुर्रहमान फ़ारूक़ी ने लिखा था. अगर साहित्य को कला के तौर पर देखें तो दुनिया की चार महान परम्पराओं में, सबके पास एक बुनियादी सवाल है.

चीनः 
क्या साहित्यिक रचना इन्सानी है? मतलब ये है कि क्या साहित्यिक रचना की हर हाल में इन्सानी सरोकार हैं?

यूनान: 
क्या ये साहित्यिक रचना सत्य है? मतलब ये है कि क्या साहित्यिक रचना में सत्य का अमल है?

भारत: 
क्या साहित्यिक रचना प्रभाव पैदा करती है? मतलब ये है कि क्या ये साहित्यिक रचना शब्दों के ज़रिए कोई प्रभाव पैदा करने में कामयाब है?

अरब: 

क्या इसमें कोई अर्थ है? मतलब ये है कि क्या साहित्यिक रचना शब्दों के ज़रिए कुछ कहता है? या उसमें कोई अर्थ पैदा होता है?

 

ये सवाल इन संस्कृतियों में पुराने ज़माने में ज़रूर केन्द्रीय सवाल थे. लेकिन बाद में ये सवाल एक संस्कृति में सीमित न रहे. दूसरी संस्कृतियों में भी शामिल हो गए. इसका एक पहलू ये भी है कि इन संस्कृतियों की रचनाओं में दूसरी संस्कृतियों के सवाल चेतन या अवचेतन में पहले से भी शामिल थे. मुमकिन है आलोचना में उन बातों को उतनी अहमियत न दी गयी हो. क्या हम कह सकते हैं कि गैर अरबी रचनाओं में अर्थ नहीं होते थे? या ग़ैर यूनानी संस्कृतियों में सत्य का कोई अमल दखल नहीं होता था? क्या ग़ैर भारतीय रचनाएं प्रभावहीन थीं? और क्या गैर चीनी रचनाओं में इन्सानी सतह पर बात नहीं होती थी? मेरा ख़्याल है कि दुनिया की तमाम संस्कृतियों में दूसरी संस्कृतियों के बुनियादी सवाल किसी न किसी रूप में पहले से मौजूद थे. ये अलग बात है कि आलोचना ने किस बात पर ज़्यादा ध्यान दिया और केन्द्र में क्या था. वैसे आलोचना में भी दूसरी संस्कृतियों के मुख्य सवाल कहीं न कहीं मौजूद ही थे लेकिन केन्द्र में नहीं लाया गया था. 

भारतीय और यूनानी संस्कृतियों में साहित्यिक परम्परा और काव्य शास्त्र की बुनियाद थिएटर है. यूनानी काव्य शास्त्र की सबसे मुख्य किताब अरस्तू की ‘पोइटिक्स’ और भारतीय काव्य शास्त्र की सबसे बुनियादी किताब भरत मुनि की ‘नाट्य शास्त्र’ हैं. ये दोनों किताबें बुनियादी तौर पर थिएटर पर ही हैं लेकिन इनमें दूसरी ललित कलाओं पर कहीं कहीं रौशनी डाली गयी है. सिनेमा थिएटर की सबसे क़रीबी कला है. न सिर्फ कलात्मक व्यवहार के एतबार से बल्कि रचना प्रक्रिया के एतबार से भी. इसलिए थिएटर का सौन्दर्य शास्त्र किसी हद तक सिनेमा में भी काम आ सकता है.

किसी भी रचना में दो बुनियादी सवाल होते है? पहला क्या कहा गया है? दूसरा कैसे कहा गया है? जब क्या कहा गया है? पर ग़ौर करते हैं तो यह सवाल भी बहस में आते हैं कि उसका विषय वस्तु क्या है? और उसकी दार्शनिक या वैचारिक बुनियाद क्या है? हालांकि तकरीबन सभी कलाओं में बुनियादी बातें वही होती हैं बस उनको देखने का दृष्टिकोण और दिए गये विवरण बदल जाते हैं. जबकि कैसे कहा गया है? पर जब हम ग़ौर करते हैं, तो हमें उन सवालों पर भी ग़ौर करना पड़ता है कि उसकी अभिव्यक्ति के संसाधन क्या हैं? उसके माध्यम क्या हैं? उसकी भाषा कैसी है? उसका बयान करने का तरीक़ा कैसा है? और उसकी संरचना कैसी है? दरअसल हर कला के विशिष्ट गुण इन्हीं बुनियादी सवालों से क़ायम होते हैं. 

अगर हम पूछें सिनेमा में क्या कहा गया है? तो ये सवाल अपने आप में अर्थहीन है, ये सवाल किसी एक फ़िल्म के बारे में तो पूछा जा सकता है लेकिन पूरे सिनेमा के बारे में नहीं. दरअसल सिनेमा में दुनिया के किसी भी विचार, कल्पना या वस्तु को विषय बनाया जा सकता है. क्या कहा गया है? सवाल का जवाब तमाम कलाओं के संदर्भ में लगभग एक जैसा ही होगा. लेकिन जब कैसे कहा गया है? सवाल का जवाब तलाश करते हैं, तब सिनेमा काफ़ी हद तक थिएटर जैसा होते हुए भी कुछ मामलों में अलग हो जाता है. सिनेमा को ललित कला मानने के लिए और उसके सौन्दर्य शास्त्र को स्थापित करने के लिए सबसे पहले हमें इस बात पर चर्चा करनी होगी कि सिनेमा में सौन्दर्य से क्या मुराद है? इसकी बुनियाद या हक़ीक़त क्या है? इसके संदर्भ और माध्यम क्या हैं? इसकी संरचना क्या है? 

सिनेमा दरअसल थिएटर की विकसित (तकनीकी एतबार से) शक्ल है. सिनेमा में थिएटर की तरह ही साहित्य (फ़िक्शन और कविता दोनों), संगीत (गायकी और वाद्य दोनों), नृत्य चित्र कला और वास्तु कला वग़ैरह कलाएं इस्तेमाल होती हैं. सिनेमा में थिएटर के मुक़ाबले में चित्र कला और वास्तु कला के इस्तेमाल की ज़्यादा संभावनाएं होती हैं क्योंकि थिएटर में दृश्य बहुत कम होते हैं. सिनेमा आलोचना के बाबा आदम फ़ाँसीसी सिनेमा आलोचक आन्द्रे बाज़ाँ का विचार है कि थिएटर के केन्द्र में अभिनेता (अभिनेत्री भी) ही होते हैं, जबकि सिनेमा में इस बात की संभावना भी है कि वहाँ अभिनेता दृश्य के मुक़ाबले में हों. यानी सिनेमा में दृश्य अभिनेता के समानान्तर भी अहम हो सकते हैं. दृश्य में वस्तुएं, रंग, रौशनी और प्रकृति सभी शामिल हैं. यानी सिनेमा में अदाकार के साथ साथ दिखने वाली तमाम वस्तुएं भी शामिल हैं. थिएटर में सिनेमा की तरह तकनीकी एतबार से दृश्य इतनी जल्दी नहीं बदले जा सकते हैं, जैसे सिनेमा में बदलते हैं. थिएटर के संसाधन भी इसके ज़्यादा बदलने की इजाज़त नहीं देते. 

सारी कलाओं के केन्द्र में एक विचार या दर्शन बुनियाद की तरह होता है. जिस बुनियाद पर ये तमाम कलाएं एक सरंचना में ढल के रचना को जन्म देती हैं. चूँकि थिएटर हमेशा से ललित कलाओं के केन्द्र में रहा है, बल्कि सबसे ज़्यादा कलाओं का सम्मिलन इसी कला में होता है और थिएटर की तमाम सम्भावनाएं सिनेमा में मौजूद हैं. इस तरह से सिनेमा का भी सौन्दर्य शास्त्र न सिर्फ़ मुमकिन है बल्कि वही सौंदर्य शास्त्र काम करता है जो थिएटर का सौन्दर्य शास्त्र है. सिनेमा में थिएटर के तमाम जौहर मुककिन हैं. यह बात महज़ इसलिए नहीं कही जा रही है कि जब हिन्दुस्तान में फ़िल्में बननी शुरू हुयीं तो पारसी थिएटर से बहुत ज़्यादा प्रभावित थीं, उस ज़माने में पारसी थिएटर की बहुत सी शख़्सियतें सिनेमा में आ गयी थीं और उन लोगों ने ही सिनेमा को परवान चढ़ाया. दरअसल सिनेमा थिएटर का विस्तार इसलिए है क्योंकि सिनेमा में वह तमाम कलाएं शामिल हैं, जिनका थिएटर में इस्तेमाल होता है. फ़र्क यह है कि थिएटर में हम सीधे स्टेज पर होते हुए देखते हैं, जबकि सिनेमा में उन्हीं चीज़ों को कैमरे की आँख से रिकार्ड कर लेते हैं, फिर उन्हें एक नई तरतीब व संयोजन करके, उसकी बहुत सी कापियाँ बनाकर एक साथ कई जगहों पर सिनेमा हाल में देखते हैं. 

सिनेमा और थिएटर में एक बुनियादी फ़र्क़ ये है कि थिएटर में चीज़ें या अभिनेता हमेशा अपने क़द के बराबर ही दिखती हैं न छोटी न बड़ी. जबकि सिनेमा में लोग और वस्तुएं अपने क़द से ज़रूरत के मुताबिक़ छोटी या बड़ी भी दिखाई जा सकती हैं. इस तरह सिनेमा थिएटर के मुक़ाबले में ज़्यादा सुर रिएलिस्टक कला है. हालांकि सिनेमा अपने मिज़ाज के एतबार से ज़्यादा सच्चाई पसन्द कला है, क्योंकि सिनेमा में छोटी से छोटी चीज़ भी साफ़ नज़र आ जाती है, साथ ही सिनेमा सच्चाई को दिखाने के लिए दुनिया के किसी भी कोने में जा सकता है. जबकि थिएटर में हर चीज़ को स्टेज पर लाना होता है, और हर चीज़ को स्टेज पर लाना मुमकिन नहीं होता है. यह बात अलग है कि सिनेमा में कल्पना की संभावनाएं भी थिएटर के मुक़ाबले ज़्यादा हैं. अब यह बात फ़िल्मकार पर निर्भर है कि वह सच्चाई को किस तरह दिखाता है? इस तरह दोनों में कई तकनीकी अन्तर तो हैं, लेकिन इन सबके बावजूद कलात्मक एतबार से दोनों एक ही हैं. इससे यह बात साबित होती है कि सिनेमा में ललित कला बनने की पूरी सम्भावनाएं मौजूद हैं. 

यह बात अलग है कि हमारी फ़िल्में कितना ललित कला बन पायी हैं, और कितना मनोरंजन. वैसे थिएटर भी कभी कभी सिर्फ़ मनोरंजन बन कर रह जाता है. लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि थिएटर ख़ुद ललित कला नहीं रहा, यही बात सिनेमा के बारे में कही जा सकती है, अगर कुछ फ़िल्में सिर्फ़ मनोरंजन है तो इसका मतलब यह नहीं है कि सिनेमा ललित कला नहीं रहा. इस तरह हम कह सकते हैं कि सिनेमा थिएटर की तरह ललित कला होने की तमाम सम्भावनाएं मौजूद हैं. लेकिन क्या सिनेमा वास्तव में ललित कला बन सका है? यह समझने के लिए हमें सिनेमा का मूल्यांकन करना होगा. सिनेमा में मौजूद सौन्दर्य शास्त्र को समझने के लिए हम यहाँ कुछ फ़िल्मों का विस्तार से समझना होगा और कुछ दूसरी फ़िल्मों का भी ज़िक्र आएगा. 

(अकिरा कुरुसावा)


विश्वस्तर पर बेशुमार ऐसी फ़िल्में हैं, जिन्हें ललित कला न मानने का अब कोई कारण नहीं रह गया है. इन फ़िल्मकारों ने इस कला में उसी तरह अभिव्यक्ति की है, जिस तरह कोई कलाकार साहित्य और थिएटर में करता है. इस सिलसिले में जिस फ़िल्म ने सबसे पहले और सबसे गहराई तक पूरी दुनिया को प्रभावित किया, वह फ़िल्म थी अकिरा कुरुसावा की ‘रोशोमन’ जिसे उन्होंने 1950 में बनाई थी. हालाँकि इससे पहले वह ग्यारह फ़िल्में बना चुके थे, उनके अलावा भी कई ऐसी फ़िल्में दुनिया के मुख़्तलिफ़ हिस्सों में बन चुकी थीं जिन्हें दुनिया भर में बड़ी गम्भीरता से देखा जाता था. ख़ास तौर से चार्ली चैपलिन, अल्फ़े्रड हिचकाक और राबर्टो रोसोलिनी की कई फ़िल्में पूरी दुनिया के ऐसे दर्शकों को प्रभावित कर चुकी थीं जो फ़िल्म को कला के तौर पर देखते थे. लेकिन जिस फ़िल्म ने न सिर्फ़ कुरुसावा बल्कि ख़ुद फ़िल्मों का इतिहास बदल दिया वह फ़िल्म रोशोमन ही थी. 

इस फ़िल्म में एक मध्य कालीन कहानी बयान की गयी है. जिसमें एक नया शादी शुदा जोड़ा जंगल से गुज़र रहा होता है, रास्ते में डाकू उन पर हमला करके लड़के का क़त्ल कर देते हैं और लड़की के साथ बलात्कार करते हैं. मामला उस ज़माने की अदालत में पहुँचता है. पहले डकैत घटनास्थल का पूरा क़िस्सा बयान करता है, फिर लड़की अपने नज़रिये से उसी वाकये को बयान करती है, उसके बाद उस लड़के का भूत आता है और वह भी पूरा वाकया कह सुनाता है. इत्तेफ़ाक़ से उस वक़्त जंगल में एक लकड़हारा भी होता है, जो छुप कर पूरा वाकया देख रहा होता है, वह भी गवाही देने आता है और पूरा वाकया कह सुनाता है. ख़ास बात ये है कि सभी अपने अपने तौर पर सच बयान कर रहे होते हैं, जान बूझ कर कोई झूठ नहीं बोलता है, लेकिन सबके बयान अंतर-विरोधी हैं. इसके बाद जो तनाव फ़िल्म में क़ायम होता है, वह बहुत हैरान करने वाला है. 

तेज़ और लम्बे समय तक चलने वाली बारिश और भूत की काँपती हुई आवाज़ इनसानी अस्तित्व को उस मक़ाम तक पहुँचा देते हैं, जहाँ सिनेमा अब तक नहीं पहुँच सका था. कुरुसावा ने इस फ़िल्म को जिस तरह फ़िल्माया है वह एहसास करा देते हैं कि ये कहानी इससे बेहतर तरीक़े से किसी भी दूसरी कला में नहीं बयान की जा सकती थी. फ़िल्म आलोचक इस बात पर सर धुनते रहे कि ऐसा कैसे मुमकिन है कि एक ही वाकये को चार लोग बयान करें, सबके बयान अन्तर-विरोधी हों और सभी सच बोल रहे हों. कुरुसावा के सहायक निदेशक भी कहानी सुनकर हैरान रह गये थे, उन्होंने जब इसकी व्याख्या चाही तो कुरुसावा ने लिखा था.

‘‘ये बात हैरान करने वाली लग सकती है, लेकिन ये सच है कि इनसान ख़ुद अपने बारे में भी, अपने साथ भी ईमानदार नहीं रह सकता, वह बग़ैर अतिशयोक्ति के अपने साथ भी नहीं रह सकते ...... यहाँ तक कि जो शख़्स मर चुका है, वह भी झूठ को पूरी तरह नहीं छोड़ पाता है.’’

दरअसल सच में भी देखने वाले का नज़रिया और बयानिया की ज़रूरी अतिशयोक्ति कहीं न कहीं शामिल रहती है, यह फ़िल्म इसी बात को अभिव्यक्ति करती है. इस तरह ये फ़िल्म यूनान के बुनियादी सवाल यानी सच को केन्द्र में रखकर बनायी गयी है. 

रोशोमन के बाद कुरुसावा की अगली फ़िल्म ‘‘ईडियट’’ थी, जो दुनिया दुनिया के महानतम उपन्यास फ़्योदोर दोस्तोफ़स्की के ‘‘ईडियट’’ पर आधारित थी. इस उपन्यास पर बहुत सी फ़िल्में बन चुकी हैं लेकिन फ़िल्म आलोचकों का आम तौर पर मानना है कि इस उपन्यास पर सबसे अच्छी फ़िल्म कुरुसावा ने ही बनायी है. इसके बाद कुरुसावा की दो फ़िल्में अकीरो 1952 और सेवेन समुराई 1954 रिलीज़ हुयीं, यह दोनों फ़िल्में भी कुरुसावा की बेहतरीन फ़िल्मों में शुमार की जाती हैं. हिन्दुस्तान की सुपर हिट फ़िल्म ‘शोले‘‘ सेवेन समुराई से ही प्रभावित होकर बनायी गयी थी. ‘शोले’ ने बाक्स आफ़िस पर झण्डे ज़रूर गाड़ दिए, लेकिन कलात्मकता का जहाँ तक सवाल है ‘शोले’ सेवेन समुराई से कोसों दूर है. कुरूसावा फ़िल्म तकनीक में ग़ैर मामूली महारत रखते थे. ख़ास तौर से कैमरे के इस्तेमाल और एडिटिंग में वह साबित कर देते थे कि उन्होंने क़िस्सा बयान करने के लिए फ़िल्म का ही माध्यम क्यों चुना?

जंग या तनाव  भरे मंज़र को फ़िल्माने में वह जादू ही कर देते थे, ऐसे दृश्य को शूट करने के लिए वह कई बार आठ दस कैमरे हर कोण से लगा देते थे जिससे ज़िन्दगी का कोई कोण बचने न पाए. वह दृश्य उस कोण से कैसे दिखता है इस तरह शूट की गयी फ़िल्म को एडिट करना एक सर दर्द हो जाता है लेकिन कुरुसावा इस मंज़िल से भी सुर्खरू होकर निकलते थे. यूँ तो कुरुसावा ने लगभग तीस फ़िल्में बनायी हैं लेकिन पाँच सालों में बनायी गयी ये चार फ़िल्में कुरुसावा की ज़िन्दगी की सबसे बड़ी पूँजी हैं. उस ज़माने में उनकी रचनात्मकता अपने चरम पर थी. उन्होंने फ़िल्मों का सौन्दर्य शास्त्र को निर्धारित करने में बहुत अहम किरदार अदा किया. और अपनी फ़िल्मों से साबित कर दिया कि सिनेमा की कला कुछ मामलों में थिएटर से अलग हो सकती है लेकिन उससे कमतर हरगिज़ नहीं है. सिनेमा कलाओं के संदर्भ में थिएटर की तरह ही महान है. 

(इंगमार बर्गमैन)


रोशोमन के बाद मैं स्वीडिश  फ़िल्मकार इंगमार बर्गमैन (सही उच्चारण बोरीमान है लेकिन आम तौर पर हिन्दी में बर्गमैन ही लिखा जाता है.) की फ़िल्म रूदन और सरगोशियाँ क्राईज़ एण्ड व्हिस्पर्स का ज़िक्र करना चाहुँगा. लेकिन फ़िल्म के बारे में बात करने से पहले एक वाकया बयान करना चाहूँगा. जब मैं मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी में था तो एक शाम मेरी मुलाक़ात जन संचार विभाग के सहायक प्राध्यापक अब्बास हुसैन से हुई, वह फ़िल्म अध्ययन में पीएच. डी. कर रहे थे. उन्होंने मिलते ही मुझसे कहा कल रात एक बजे मैं आपको फ़ोन करने वाला था. लेकिन फिर रुक गया कि शायद आप सो गए होंगे. मैंने पूछा कोई ख़ास बात? अगर फ़ोन करना चाहते थे तो कर ही लेते. लेकिन हुआ क्या था? इस पर उन्होंने बताया कि कल रात वह एक फ़िल्म देख रहे थे और रात एक बजे जब फ़िल्म ख़त्म हुयी तो वह बहुत डरे हुए थे, इससे पहले कि मैं ये पूछूँ कि डर कैसा था, उन्होंने ख़ुद व्याख्या करते हुए कहा, डर का मतलब ये नहीं कि मैं डरावना सीन देख कर डर गया, दरअसल जब फ़िल्म ख़त्म हुयी तो, फ़िल्म से जो सवाल उठ रहे थे, उनको सोच-सोच कर मैं एक तेज़ अवसाद में घिर गया था. अपने अन्दर इतना ख़ालीपन और मायूसी मैंने ज़िन्दगी में कभी नहीं महसूस की थी. उस वक़्त ख़्याल आया कि आपसे बात करूँ तो मुमकिन है कुछ सहारा मिले. मैंने पूछा फ़िल्म कौन सी थी? तो मालूम हुआ इंगमार बोरीमान की फ़िल्म रुदन और सरगोशियाँ (Cries and Whispers) थी. ज़ाहिर है जब मैंने उस वक़्त तक फ़िल्म नहीं देखी थी, तो उन्हें क्या तसल्ली दे सकता था? फिर उन्होंने मुझे भी वह फ़िल्म देखने की दावत दी. और उस रात मैंने भी कम्पयूटर पर वह फ़िल्म देखी. 

फ़िल्म देखकर मेरी भी लगभग वही हालत थी जो एक रात पहले उनकी थी. मुझे लगा कि इस फ़िल्म ने जो सबसे पहला और बुनियादी काम किया है, वह यह है कि मेरे पास जो कुछ भी था, फ़िल्म ने सबकुछ छीन लिया है. इस सब कुछ में भौतिक वस्तुएं शामिल नहीं थीं. यानी मेरे पास ज़िन्दगी जीने के जितने भी सहारे, विश्वास, सिद्धांत, ज्ञान, दर्शन, तर्क, जज़्बात और रिश्ते थे. यह फ़िल्म उन सब पर सवाल खड़े कर देती है, और सारे सहारों को रौंदती चली जाती है, यह फ़िल्म एक झटके में भक् से ...... सब कुछ उड़ा देती है. 

अगर कोई फ़िल्म दो बहनों के आपसी रिश्ते से यक़ीन उठा दे, पति-पत्नी के बीच के विश्वास को डगमगा दे, ख़ुदा के होने पर शक होने लगे, और अगर है भी तो इन्साफ़ करने वाला क़तई नहीं है. एक पवित्र पादरी की शख़्सियत से यक़ीन उठ जाए, इनसान और उसके भूत का भेद ख़त्म हो जाए और देखने वाले को पता ही न चले की सामने दिखने वाला शख़्स ख़ुद सचमुच का इनसान  है या उसकी आत्मा है? या उसका भूत? कोई शख़्स आपकी मुहब्बत में आया है? या क़त्ल करने के लिए? यह फ़िल्म हमें ऐसी ही न जाने कितनी एहसासात से गुज़ारती है. यहाँ यह सवाल उठाया जा सकता है कि ऐसी नकारात्मक फ़िल्म देखने से क्या फ़ायदा? इसका एक ही जवाब है कि फ़िल्म न देख कर कुछ लम्हों के लिए हम दुनिया के सवालों से भाग तो सकते हैं, लेकिन ज़िन्दगी की सच्चाइयों से कब तक भागेंगे? ऐसे हालात हम सबकी ज़िन्दगी में आते ही हैं, या नहीं आए हैं तो कभी भी आ सकते हैं. 

इस फ़िल्म को देखने के बाद हमने इंगमार बोरीमान की दूसरी फ़िल्में तलाश करनी शुरू कीं. और एक-एक करके इंगमार की लगभग 20 फ़िल्मे हम दोनों ने देख लीं. और यह भी मालूम हुआ कि उन्होंने लगभग 60 फ़िल्में बनायी हैं. जिनमें से ज़्यादातर के वह लेखक, निर्देशक और निर्माता भी हैं. ज़ाहिर है कि किसी भी रचनाकार की सारी रचनाएं एक स्तर या एक तरह की नहीं हो सकती हैं, लेकिन इन सभी फ़िल्मों में ज़िन्दगी का एक अलग और भिन्न तजुर्बा ज़रूर होता है. रुदन और सरगोशियाँ के अलावा जिन फ़िल्मों ने सबसे ज़्यादा प्रभावित किया वह फ़िल्में हैं Persona, The Seventh Seal, The Wild Strawberries and The Virgin Spring वग़ैरह. इन फ़िल्मों को जब हमने देखा तो ऐसा महसूस हो रहा था जैसे हमने एक नयी कला और एक नये कलाकार का आविष्कार किया है. ऐसे में जिज्ञासा हुई कि अब हमें यह भी जानना चाहिए कि इंगमार बोरीमान में बारे में लोगों की क्या राय है? इसी तलाश में हमें मशहूर फ़िल्मकार क्रिस्तोफ़ किस्लोस्की का एक बयान मिला. उन्होंने इंगमार बोरीमान के बारे में लिखा है,

‘‘ये शख़्स कुछ फ़िल्म निर्देशकों में से एक है, बल्कि दुनिया में अकेला शख़्स है जिसने इनसानी फ़ितरत के बारे में उतना कहा है जितना दस्तोफ़िस्की और कामू ने कहा है.’’

मैं समझता हूँ दस्तोफ़िस्की, कामू और मिलान कुन्डेरा हमें इन्सानी ज़िन्दगी के जिन अनुभवों से साहित्य के ज़रिए परिचय कराते हैं, इंगमार बोरीमान वही काम फ़िल्मों के ज़रिए करते हैं. 

(आन्द्रेई तारकोव्सकी)


1972 में ही एक और महान फ़िल्म ‘सोलारिस’ आई, जिसके रचनाकार आन्द्रेई तारकोव्सकी (1932.-86) हैं. तारकोव्सकी ने ज़्यादा फ़िल्में नहीं बनायीं सिर्फ 7 फ़िल्में है वह जिनके निर्देशक हैं. इसके अलावा उन्होंने दूसरे निर्देशकों के लिए भी स्क्रिप्ट लिखी हैं. लेकिन यह सात फ़िल्में भी उनके महान फ़िल्मकार होने के लिए काफ़ी हैं. तारकोव्सकी को अक्सर कवि फ़िल्मकार कहा जाता है. तारकोव्सकी उन फ़िल्मकारों में से हैं जिनकी फ़िल्में सबसे कम बोलती हैं, अक्सर यादों में खोयी रहती है, और जब बोलती हैं तो वह नहीं बोलती हैं जो दृश्य में दिखता है बल्कि अक्सर उस दृश्य को विस्तार देने वाला कोई जुमला किरदार बोलता है. जब फ़िल्म कम बोलती है तो वह दर्शकों को इस बात का अवसर देती है कि वह उसके बारे में सोच सकें और उसमें अपने मानी भर सकें. फ़िल्माने का यह शिल्प पहली बार तारकोव्सकी ने गढ़ा था बाद में इसे अब्बास कियारुस्तमी ने और विस्तार दिया. लम्बे लम्बे पैन शाट जो किसी किरदार के अपने दृष्टिकोण से दुनिया और प्रकृति को देखते हैं, पैन शाट बाएं से दाएं या दाएं से बाएं को दिखाते हुए शाट होते हैं. 

सोलारिस को अक्सर उनकी बेहतरीन फ़िल्म कहा गया है लेकिन इवान का बचपन, स्टाकर, दि मिरर, और नास्टेल्जिया वग़ैरा फ़िल्में भी उनकी बहुत अच्छी फ़िल्में हैं कुछ लोगों ने तो सोलारिस पर भी इनमें से किसी एक फ़िल्म को तरजीह दी है. ख़ुद मुझे जब मैंने स्टाकर और सोलारिस फ़िल्मों को पहली बार देखा था तो स्टाकर सोलारिस से ज़्यादा अच्छी लगी थी. लेकिन वक़्त के साथ साथ सोलारिस के मानी खुलते गये और सोलारिस को उनकी बेहतरीन फ़िल्म मानने पर मजबूर हुआ. यह फ़िल्म 1961 में लिखे साइंस फ़िक्शन उपन्यास ‘सोलारिस’ पर आधारित है. यह फ़िल्म विज्ञान, दर्शन और कल्पनाशीलता का अद्भुत बयानिया है. सोलारिस के सन्नाटे और ख़ाली जगह का अन्दाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि फ़िल्म की शुरूआत और आखि़र में लगभग पाँच मिनट तक एक भी डायलाग नहीं है. 

केल्विन क्रिस एक मनोवैज्ञानिक है और सोलारिस नाम के एक काल्पनिक गृह पर भेजा जाने वाला है, इस गृह पर सिर्फ समुद्र है और अभी ज़िन्दगी बनने की प्रक्रिया में है. 10 साल पहले वहाँ एक अभियान भेजा गया था और वह लोग अभी भी वहीं स्पेस स्टेशन पर हैं. वहाँ से आने वाली सूचनाओं से ज़ाहिर है कि उन लोगों की मन: स्थिति अच्छी नहीं है. जिस दिन केल्विन को सोलारिस जाना है उससे एक दिन पहले बर्टन वहाँ आता है जो दस साल पहले उस मिशन पर गया था, वह सोलारिस के ख़तरनाक मौसम और समुद्र के बारे में बताता है, जो हर वक़्त ख़तरनाक तरीक़े से बदलता रहता है, साथ ही यह भी बताता है कि वहाँ उसने एक नया पैदा हुआ बच्चा देखा जो 12 फ़ुट लम्बा था, लेकिन था बिलकुल इनसानों की तरह, बल्कि केल्विन की तरह. केल्विन के स्पेस स्टेशन पहुँचने पर मालूम होता है कि वह जिन तीन लोगों की मदद करने आया था उनमें आपस में कोई संवाद नहीं बल्कि उनमें से एक आत्महत्या भी कर चुका है. फ़िल्म का सबसे प्रमुख क्षण तब आता है जब 10 साल पहले मर चुकी उसकी पत्नी हरि उसके पास आ जाती है, वह अपनी पत्नी को धोखे से राकेट से पृथ्वी पर भेज देता है लेकिन उससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है वह फिर आ जाती है.

स्पेस स्टेशन के बाक़ी दो लोग उसे समझाते हैं कि वह आपके अंतश्चेतना से निर्मित है, वह सचमुच में नहीं है लेकिन वह है, जिसे महसूस किया जा सकता है, देखा जा सकता है और छुआ भी जा सकता है. फिर कुछ ऐसे हालात बनते चले जाते हैं कि अब सबसे मुख्य सवाल उसके होने या न होने का बन जाता है. केल्विन को लगता है, कि उसकी पत्नी उसके लिए सबसे महत्वपूर्ण है वह उससे प्यार करता है. लेकिन उसके साथी समझाते हैं कि हम इन्सानियत के लिए एक महान अभियान पर आए हैं, हमें उस पर ध्यान लगाना चाहिए. स्नाउट जो इस अभियान का प्रमुख है. कहता है, हमें दूसरी दुनियाएं नहीं चाहिए हमें सिर्फ़ एक गृह चाहिए जो हमारी पृथ्वी का आईना हो. ख़ुद उसकी पत्नी हरि के लिए अब अस्तित्व के अनेकों सवाल हैं, वह क्या है? वह क्यों है? उसकी होने का क्या मतलब है? वहाँ होने वाली हर घटना में समुद्र का कोई न कोई रोल है. और दूसरे वैज्ञानिक बताते है कि हरि का होना इसी गृह पर मुमकिन है, पृथ्वी पर नहीं. आखि़र में जब केल्विन एक दिन अपनी दूसरी पत्नी को ख़्वाब में देखता है, तो हरि उसके नाम एक ख़त छोड़कर हमेशा के लिए उससे दूर जा चुकी होती है. फिर वहाँ का मिशन पूरा हो जाता है और केल्विन वापस पृथ्वी पर आ जाता है. 

(अब्बास कियारुस्तमी) 


ईरान में सिनेमा तो काफ़ी पहले से आ चुका था लेकिन 1969 में दार यूश मेहरजोई ने एक फ़िल्म ‘गाय’ बनाई, इस फ़िल्म ने ईरान में सिनेमा के विकास में उसी तरह किरदार अदा किया. जैसे निकोलई गोगोल के ‘ओवर कोट’ के बारे में कहा जाता है कि रूस का महान फ़िक्शन गोगोल के ओवर कोट से निकलता है. इस फ़िल्म के बाद ही ईरानी सिनेमा विश्व पटल पर के केन्द्र में आ गया था. जिसमें फ़रोग फ़र्रूख़ज़ाद, बहराम बेज़ाई, अब्बास कियरुस्तमी, मोहसिन मख़मलबफ़, माजिद मजीदी, जाफ़र पनाही, रख़्शाँबानी एतमाद, समीरा मख़मलबफ़ और असग़र फ़रहादी वगै़रा ने बहुत महत्वपूर्ण रोल अदा किया है. 

अब्बास कियारुस्तमी  के बारे में महान फ्रेंच फ़िल्मकार गोदार ने कहा था

‘‘फ़िल्में डी डब्ल्यू ग्रिफ़िथ के साथ शुरु हुई थीं और अब्बास कियरुस्तमी के साथ ख़त्म होती हैं.’’

अब्बास दुनिया के महानतम फ़िल्म निर्देशकों में माने जाते हैं. उन्होंने लगभग चालीस फ़िल्में (जिनमें कई शार्ट और डोक्यूमेन्ट्री फ़िल्में भी शामिल हैं.) बनायी हैं. इन्सानी मिज़ाज की समझ, सच और कल्पना के बीच में एक बेहतरीन संयोजन, फ़ीचर फ़िल्मों और डाक्यूमेण्टरी फ़िल्मों का भेद मिटा देना, फ़िल्म देखते वक़्त इनसान  पर पड़ने वाले प्रभाव वगै़रा उनकी फ़िल्मों के बुनियादी विषय हैं. उनकी एक फ़िल्म ‘शीरीं’ 2008 में रिलीज़ हुयी. यह फ़िल्म हकीम निज़ामी गंजवी के महाकाव्य के मशहूर क़िस्से ‘शीरीं फ़रहाद’ पर आधारित है. इस फ़िल्म की पहली और स्पष्ट पहचान यह है कि इस फ़िल्म के दर्शक दो तरह के हैं. पहले वह दर्शक हैं, जो दूसरी फ़िल्मों की तरह हम आप हैं. दूसरे दर्शक वह हैं जो एक सिनेमा हाल में बैठे शीरीं फ़िल्म देख रहे हैं, इन दर्शकों पर लाइट डाल दी गयी है, और उनको कवर करते हुए कैमरे लगा दिये गये हैं. 

आम फ़िल्मों की परिभाषा में दरअसल वह अभिनेता हैं. लेकिन सच्चाई ये है कि वह अभिनेता नहीं हैं, वह दर्शक ही हैं और वह सिलवर स्क्रीन पर फ़िल्म को देख रहे हैं, अब हम दर्शक जब फ़िल्म देखते हैं. तो सुनते तो शीरीं फ़रहाद के क़िस्से को हैं, लेकिन देखते उन दूसरे दर्शकों को हैं जो दर्शक शीरीं फ़रहाद के क़िस्से को देख रहे हैं. यह फ़िल्म हम दर्शकों को शीरीं के क़िस्से को नहीं दिखाती है, बल्कि एक सिनेमा हाल में फ़िल्म देख रहे दर्शकों पर फ़िल्म देखते वक़्त जो भाव और प्रभाव उभरते हैं उन्हें दिखाती है. यानी पूरी फ़िल्म में बस फ़िल्म के दर्शक नज़र आते हैं. अस्ल क़िस्सा सिर्फ़ आवाज़ के तौर पर सुनाई देता है. इस फ़िल्म को देखने वाले लगभग एक सौ पंद्रह दर्शकों को पर्दे पर दिखाया जाता है, जो शीरीं फ़रहाद फ़िल्म को पर्दे पर देख रहे हैं. ख़ास बात यह है फ़िल्म देखने वालों के केन्द्र में सिर्फ़ औरते हैं हालांकि कुछ मर्द भी बैक ग्राउंड में नज़र आते हैं. असल क़िस्से की मुख्य वाचक एक औरत शीरीं है. फ़िल्म का बयानिया इस डायलाग से शुरू होता है. -‘‘मेरी बहनों! मुझे सुनो, अब यह वक़्त मेरे क़िस्से का है . . . ’’

सभी उसका ज़ुबानी बयानिया सुनते हैं. जो बहुत प्रभावी है, अब हम फ़िल्म देखने वालों पर इस फ़िल्म को देखते हुए क्या प्रभाव पड़ता है? उसे देखते हैं. इस फ़िल्म ने फ़िल्मों की सम्भावनाओं पर जिस तरह का तजुर्बा किया है, वह इससे पहले कभी नहीं किया गया था. फ़िल्मों के बारे में आम तौर पर कहा जाता है कि फ़िल्में दृश्यात्मक कल्पना की सारी सम्भावनाएं ख़त्म कर देती हैं क्योंकि जब पर्दे पर कोई दृश्य उभर आता है, तो दर्शकों की कल्पना के लिए इसमें कोई गुँजाइश नहीं रहती है, दर्शक सिर्फ़ वही देखते हैं, जो पर्दे पर दिखाया जाता है. यह फ़िल्म दर्शकों को दृश्यात्मक कल्पनाओं के लिए पूरा मौक़ा देती है और हर दर्शक अपनी कल्पना शक्ति के मुताबिक़ उसमें रंग भरता है.

इस फ़िल्म को देखते हुए दर्शक को दिल ओ दिमाग़ का जितना इस्तेमाल करना पड़ता है, शायद इससे पहले फ़िल्म के दर्शकों को फ़िल्म देखते हुए कभी भी इतना सोच विचार नहीं करना पड़ा था. संस्कृत काव्य शास्त्र के बारे में ऊपर ज़िक्र किया जा चुका है कि उसका बुनियादी सवाल यह है कि एक साहित्यिक रचना में जिन शब्दों का इस्तेमाल हुआ है, क्या वह कोई प्रभाव पैदा कर रहे हैं? यह पूरी फ़िल्म इसी प्रभाव की रचना और तलाश करती है. दर अस्ल रस के सिद्धांत के मूल में यह प्रभाव ही है. फ़िल्म किसी ख़़ास प्रभाव के बग़ैर शुरू होती है और अगर सँस्कृत काव्य शास्त्र की भाषा में बात करें तो सभी नौ रसों का सफ़र कराती हुई ख़त्म होती है, और यह सारे रस दर्शकों के चेहरों पर ज़ाहिर होते हुए दिखते हैं.

1951, 1972, और 2008 की चार फ़िल्मों का विस्तार के साथ विश्लेषण करने के बाद मैं समझता हूँ कि इस नतीजे पर पहुँचने में कोई दिक़्क़त नहीं होनी चाहिए कि विश्व स्तर पर सिनेमा एक बड़ी कला के तौर पर क़ायम हो चुका है. और उसके ललित कला होने पर अब कोई सवाल बाक़ी नहीं रहा है. यह फ़िल्में उन तमाम सवालों पर विचार विमर्श करने पर मजबूर करती हैं, जिन सवालों की हम किसी बड़ी साहित्यिक रचना से उम्मीद करते हैं. इन फ़िल्मों की रचनात्मक अभिव्यक्ति में अपनी तरह की प्रयोगधर्मिता और ज़िन्दगी की सम्भावनाओं को तलाश करने की क्षमता है. जिसकी हम साहित्य और थिएटर से उम्मीद करते हैं. 

इन फ़िल्मों के ज़रिए बार-बार वह सवाल भी उठाए गये जो दर्शन के केन्द्र में होते हैं, मिसाल के तौर पर इनसान  का अस्तित्व क्या है? ज़िन्दगी किस व्यवस्था से चल रही है? इनसानी ज़िन्दगी की सच्चाई क्या है? और इसमें कल्पना का क्या स्थान है? इस तरह के बहुत से सवाल जिनकी हम साहित्य और थिएटर से उम्मीद करते हैं. वह सारे सवाल इन फ़िल्मों में मौजूद हैं. अगर सिनेमा इस तरह के विचार विमर्श को अपने पाठ में जगह दे रहा है, तो ज़ाहिर है उनकी बुनियाद सौन्दर्य शास्त्र पर है न कि मनोरंजन पर. सिनेमा के सौन्दर्य शास्त्र के बुनियादी सिद्धांत वही हैं जो थिएटर के थे लेकिन इसमें दृश्यात्म रूपकों का विस्तार हो जाता है और कल्पना के लिए थोड़ी सी जगह और मुमकिन हो पाती है. हालांकि दोनों की रचना प्रक्रिया और तरीक़ा अलग है लेकिन बुनियादी सवाल एक ही हैं.

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रिज़वानुल हक़
15 जून ,1971, सीतापुर (उत्तर-प्रदेश)

बाज़ार में तालिब (कहानी संग्रह)
क़ब्ज़े ज़मा (शम्सुर्ररहमन फ़ारूकी) का हिन्दी अनुवाद 
नाटक : गुरुदेव (टैगोर),आदमीनामा (नज़ीर अकबराबादी), इन्सान निकलता है (मीर) आदि प्रकाशित.
उपन्यास 'ख़ुदकुशी नामा' शीघ्र प्रकाश्य. उर्दू कहानियों और सिनेमा पर शोध कार्य
rizvanul@yahoo.com

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  1. भाई, इस लेख ने मुझे एक फ़िल्म के समझदार और दीवाने का पता दिया है। आलेख कई मायनों में अच्छा लगा, ख़ासकर सिनेमा देखने के तरीक़ों की जिज्ञासा और आकांक्षा को लेकर।

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  2. सुदीप सोहनी16 मार्च 2021, 5:44:00 pm

    रिज़वान भाई, माफ़ी के साथ आलेख से बहुत सारी असहमतियां हैं। शायद मंतव्य को साधने की कोशिश में आप सुविधाजनक तर्क रख रहे। अव्वल तो यह कि सिनेमा को हिंदुस्तान में 125 साल होने को आए हैं। और 1931 में आलमआरा के तुरंत बाद सवाक फिल्में बनने लग गई हों ऐसा भी नहीं। आपने मूक फिल्मों के एक बड़े इतिहास को सुविधाजनक ढंग से खारिज कर दिया। दूसरा हॉलीवुड और बॉलीवुड, उद्योग, व्यवसाय आदि के शुरुआती इशारों और ललित कला बनाम सौन्दर्य के पहले पड़ाव पर पाथेर पांचाली का ज़िक्र शायद विषय से भटकाव की ओर ले गया। निश्चित रूप से कुरोसावा, बर्गमान, तारकोव्स्की और कियारोस्तामी सिनेमा के हर मोड पर मानक की तरह हैं। मगर सौन्दर्य की बहस के बरक्स आप केवल कुछ फिल्मों की कथात्मक व्याख्या कर रहे और तकनीक को छोड़ रहे। सिनेमा का कलात्मक विकास शुरुआती समय के दौरान हुआ और कई नाम हैं जिन्होंने तकनीक को साधा, उसका प्रभाव क्या हो इसकी बात की। पेंटिंग की तरह बहुत सारे वाद मसलन सोवियत मोंताज, जर्मन एक्स्प्रेशनिज़्म, पोएटिक रियलिज़्म, सरियलिस्म, एब्स्ट्रैक्ट, निओ रियलिज़्म, न्यू वेव जैसे पड़ाव रहे जिनमें फ़िल्मकारों ने कलात्मक काम किया। और सिनेमा की कला को समृद्ध किया। हालांकि बहस लंबी जा सकती है। मुझे लगा कि कुछ जल्दबाज़ी का शिकार हुआ यह आलेख। और कुछ आउट ऑफ फोकस भी। उम्मीद है आपसे जल्द मुलाक़ात होगी और बैठ कर आपसे इस पर विस्तार से चर्चा भी।

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  3. अमरेंद्र कुमार शर्मा16 मार्च 2021, 8:38:00 pm

    यह लेख हमारी सिनेमाई समझ के दायरे के परिसर को विस्तारित करता है । वैश्विक सिनेमा की बुनियादी तौर पर प्रभावित करने वाले फिल्मकारों, मसलन , कुरोसावा, बर्गमैन , तारतोवस्की आदि की माइलस्टोन फिल्मों का उल्लेख , इस लेख का प्राण तत्व है । यदि इस लेख में त्रुफो , फेलिनी और गोदार की सिनेमाई दुनिया का जिक्र होता , तो सिनेमा पर पढ़ने का शायद मुक्कमल सुख मिलता । वावजूद इसके , अंतरदृष्टि से भरे इस लेख के लिए रिजवानउल हक़ जी को ख़ूब बधाई और समालोचन पर उपलब्ध कराने के लिए अरुण देव भाई का शुक्रिया ।

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  4. रिज़वानुल हक़17 मार्च 2021, 9:47:00 am

    सबसे पहले उन सभी पाठकों का आभार जिन्होंने इस आलेख का पूरा या आंशिक रूप से पढ़ा, वह लोग विशेष आभार के अधिकारी बन जाते हैं जिन्होंने अपनी प्रतिक्रिया भी दी। इसलिए मैं निर्मला भुराड़िया, सूरज सिंह कालहंस, एम पी सिंह, अमरेन्द्र कुमार शर्मा जी, कुमार अम्बुज और सुदीप सोहनी को धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ। कुमार अम्बुज जी से बस इतना कहना चाहुँगा कि मैं भोपाल में पिछले ग्यारह साल से था और अब जबकि मैं दिल्ली में बस चुका हूँ तब आपको फिल्म के इस दीवाने का पता मिला। खै़र, देर आयद दुरुस्त आयद। वैसे मैं आपको बहुत पहले से जानता हूँ, कुछ एक बार भोपाल में आपसे मिला भी लेकिन आप मुझसे नहीं मिल सके।
    सुदीप जी से कुछ बातें ख़ास तौर से करनी हैं। सुदीप सोहनी उन लोगों में हैं जिन्होंने फ़िल्म स्टडी पर सुव्यस्थित रूप से काम किया है और लगातार गम्भीर लेखन कर रहे हैं। वह मेरे उस वक़्त से दोस्त है जब उन्होनें फ़िल्मों पर लेखन शुरू भी नही किया था। असहमति के लिए माफ़ी की बिलकुल ज़रूरत नहीं है, मुझे ख़ुशी है कि आपने मेरे आलेख को पूरा पढ़ा और उस पर अपनी प्रतिक्रिया ज़ाहिर की। पहली बात जो सुदीप जी ने कही कि मैंने मंतब्य को साधने के लिए सुविधा जनक तर्क रखे। इसके पहले हिस्से से मैं बिलकुल इत्तेफ़ाक़ करता हूँ कि मेरे सामने मंतव्य बहुत स्पष्ट था, वह मंतव्य था सिनेमा के सौंदर्य शास्त्र को समझना - समझाना, और मैंने सौंदर्य शास्त्र को स्थापित करने के लिए ही सारे तर्क रखे हैं। सुदीप के असहमतियों से ऐसा लगता है कि उन्होंने मेरे इस आलेख को सिनेमा के सौदर्य शास्त्र की बजाए सिनेमा के इतिहास के तौर पर पढ़ा है, मिसाल के तौर पर वह कहते हैं सिनेमा को हिन्दुस्तान में 125 साल होने को आए हैं। यह सही है कि ल्यूमियर भाई 125 साल पहले सिनेमा को लेकर हिन्दुस्तान आए थे। लेकिन वह सब 50 सेकेण्ड या उससे भी कम समय की मूक फ़िल्में थी, उनका सौंदर्य शास्त्र से क्या लेना देना था? जो मैं उनका ज़िक्र करता। मूक फ़िल्में सिनेमा के विकास यात्रा का एक पड़ाव ज़रूर था, लेकिन उनके पास भी सौन्दर्य शास्त्र जैसी कोई चीज़ न थी। और सिनेमा का जो सौंदर्य शास्त्र अब है, उसमें उन फिल्मों के लिए कोई जगह नहीं है। 1931 के बाद लगभग सभी फ़िल्में सवाक ही बनी हैं अलबत्ता कुछ फ़िल्में जो पहले से ख़ामोश बन रही थीं वह रिलीज़ हुयीं। या किसी ख़ास मक़सद के लिए बाद में एक आध मूक फ़िल्में बनायी गयीें। लेकिन 1931 के बाद के ज़माने को सवाक फ़िल्मों के नाम से ही जाना जाता है। वैसे मैंने ऐसी कोई बात कही भी नहीं कि उसके बाद ख़ामोश फ़िल्में नहीं बनीं।
    आपकी सभी असहमतियों पर जब ग़ौर किया तो ऐसा लगा आपने इस आलेख को सिनेमा के इतिहास के तौर पर ही पढ़ा है। जबकि मैंने यह आलेख सिनेमा के सौंदर्य पर लिखा है। आपने लिखा है पहले पड़ाव पर पाथेर पांचाली का ज़िक्र किया। मैंने जानबूझ कर ऐसा किया क्योंकि सौन्दर्य शास्त्र के लिहाज़ से पहला बड़ा पड़ाव हिन्दुस्तान में वही था, और मैं विषय से भटका नहीं हँू। बल्कि अगर तकनीकी तरक़्क़ी और हालीवुड, बालीवुड वग़ैरा ले आता तो यक़ीनन यह विषय से भटकाव होता। सुदीप भाई सच्चाई यह है कि मैंने सिनेमा के सौंदर्य शास्त्र का भी इतिहास लिखने की कोशिश नहीं की है, सिर्फ़ चार लोगों की एक एक फ़िल्म को उदाहरण के तौर पर इसलिए चुना कि बात थोड़ी विस्तार से की जा सके और गहराई तक जाकर उनके सौन्दर्य को समझा जा सके। नहीं तो मैं भी यह कर सकता था कि बहुत सारे आन्दोलनों और बहुत सारे फ़िल्म मेकर्स के नाम और योगदान का ज़िक्र कर सकता था। उससे लोग नाम और इतिहास ज़रूर जान जाते लेकिन सिनेमा के सौन्दर्य को नहीं समझ सकते जिसे मैने इस आलेख में समझने की कोशिश की है।

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