मैनेजर पाण्डेय: भक्तिकाल की पुनर्व्याख्या की आवश्यकता: विनोद शाही

  

हिंदी आलोचना के केंद्र में इसकी शुरुआत से ही भक्त-कवि रहें हैं. ग्रियर्सन, मिश्र बन्धुओं, आचार्य रामचंद्र शुक्ल और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी से होते हुए रामविलास शर्मा, विजयदेव नारायण साही,मैनेजर पाण्डेय, विश्वनाथ त्रिपाठी और पुरुषोत्तम अग्रवाल आदि तक यह परम्परा विस्तृत होती गयी है. इधर बजरंग बिहारी तिवारी ने इस दिशा में रेखांकित करने योग्य कार्य किया है. समालोचन पर ही प्रकाशित उनके आलेख ‘भक्ति-कविता, किसानी और किसान आंदोलन’ ने इस क्षेत्र में शोध और व्याख्या के नये क्षेत्र का दरवाज़ा खोल दिया है.

जिन्हें हम भक्तिकाल के कवि कहते हैं उनकी व्याख्या इस तरह होती रही है कि उनकी सामाजिकता और क्रांतिधर्मिता को प्रत्यक्ष किया जा सके जिससे कि वह समाज और साहित्य को प्रेरणा और दिशा प्रदान कर सकें. ज़ाहिर है इसकी भी अपनी सीमा है.

आलोचक प्रो. मैनेजर पाण्डेय की भक्तिकाल की आलोचना दृष्टि पर यह आलेख प्रसिद्ध आलोचक विनोद शाही का है. उन्होंने गम्भीर सवाल खड़े किये हैं जो कि बड़े बहस को आमंत्रित करते हैं.

प्रस्तुत है. 

 

मैनेजर पाण्डेय: भक्तिकाल की पुनर्व्याख्या की आवश्यकता
विनोद शाही



 

साहित्य की समुचित व्याख्या के संदर्भ में समाजशास्त्रीय आलोचना पद्धति की अपर्याप्तता को महसूस करने के बावजूद मैनेजर पाण्डेय यदि उसे ही ग्राह्य मानते हैं, तो कोई तो वजह होनी चाहिये, वह एक हद तक साहित्येतर हो सकती है.

हम जानते हैं कि सूरदास का काव्य मुख्यतः प्रगीत शैली में लिखा गया है. प्रगीत में वैयक्तिकता की अभिव्यक्ति सर्वाधिक होती है. वहां लय की प्रधानता के कारण निजता का समावेश स्वतः होने लगता है. लय प्रगीत को बार-बार दौहराने या गुनगुनाने लायक बना देती है, इसलिये वहां बुद्धि व्यापार थोड़ा स्थगित हुआ सा रहता है. वहां 'सामाजिकता' व्यंजित रूप में अधिक रहती है, अतः 'सामाजिक आलोचना' के लिये अवकाश कम हो जाता है.

सामाजिकता और सामाजिक आलोचना के दरम्यान कोई विरोध नहीं होता. तथापि फर्क यह होता है कि सामाजिक आलोचना में बुद्धि पक्ष अधिक मुखर होता है, जबकि प्रगीत उस सामाजिकता को सहज रूप में आत्मसात करता है, जिसका संबंध समाज में बद्धमूल भाव संरचना से होता है. इसलिये वह प्रगीत, जो हमारे मध्यकाल में निर्गुण ज्ञानधारा के भीतर से सामने आया, वहां हमें ऐसी सामाजिकता दिखाई देती है, जो सामाजिक आलोचना के गर्भ से जन्म लेती है. इसकी तुलना में वह प्रगीत, जो सूरदास जैसे कवियों की सगुण भक्ति का आधार है, वहां सामाजिकता, समाज के रागात्मक संबंधों और वर्ण व्यवसाय मूलक संस्थाओं की भाव संरचनाओं की ज़मीन से अनिवार्यता बंधी रहती है.

इससे स्पष्ट होता है कि सगुण भक्तिकाव्य की सामाजिकता, यथास्थितिवादी अधिक होती है. यथार्थ के अंतर-विरोधों के पार जाने के लिये ऐसी सामाजिकता, अतीत के समरसता मूलक यथार्थ का उद्बोधन करती है. अतः वह अपनी मूल चेतना में खुद को पुनरुत्थानवादी होने से बचा पाने में बहुत समर्थ नहीं होती.

दूसरी ओर वह सामाजिकता, जो निर्गुण ज्ञानधारा के काव्य में बरास्ते सामाजिक आलोचना  आत्मसात करने लायक बनती है, वहां अतीत की जगह भविष्य एक संभावना की तरह खुलता है. वहां सामाजिक अंतरविरोधों से उबरने के लिये यथार्थ का भविष्योन्मुख रूपांतर ग्राह्य होता है.

इसलिये निर्गुण और सगुण धारा दोनों में, जिस यूटोपिये की बात यकसां नज़र आती है, वह अपनी प्रकृति में एक दूसरे से बहुत अलग होता है.

मैनेजर पाण्डेय ने पूरे भक्ति काव्य को इस यूटोपिये की मौजूदगी की वजह से एक ही तरह का माना है, जबकि वस्तुस्थिति इन दोनों धारणाओं को एक दूसरे से बहुत अलग साबित करती है.

मैनेजर पाण्डेय ने अपने भक्तिकाल संबंधी अध्ययनों में अपना ध्यान मुख्य रूप में सूरदास पर केंद्रित किया है. पर इस संदर्भ में वे जब समाजशास्त्रीय आलोचना पद्धति को आधार बनाते हैं, तो उसे लेकर वे खुद दिक्कत का अनुभव करते हैं. वे कहते हैं:

"कविता सचमुच समाजशास्त्रीय आलोचना के लिए टेढ़ी खीर है,... ख़ास तौर से जब प्रगीत की सामाजिकता की व्याख्या के नाम पर उसे कवि की सामाजिक दृष्टि का दृष्टांत मान  लिया जाता है या आलोचक की सामाजिक मान्यताओं को सिद्ध करने का साधन बना दिया जाता है, तब कविता के साथ अन्याय होता है.”

इस मत को ध्यानपूर्वक देखें. यहां तीन तरह की सामाजिकता की बात हुई है. पहली, 'प्रगीत की सामाजिकता'. दूसरी, 'कवि की सामाजिक दृष्टि'. और तीसरी, आलोचक की सामाजिक मान्यताएं'. मैनेजर पाण्डेय यहां आलोचना का लक्ष्य यह मानते हैं कि सामाजिकता की बात कुछ इस तरह की होनी चाहिये कि 'कविता के साथ अन्याय न हो.' यह सवाल सैद्धांतिक है, इसलिये गंभीर विवेचन की मांग करता है.

जब हम प्रगीत की सामाजिकता का सवाल उठाते हैं, तो हमारे लिये ज़रूरी हो जाता है कि हम सामाजिकता के स्वरूप पर विचार करें.

प्रगीत में अंतरंगता, निजता, वैयक्तिकता, लयबद्धता और भाव संकुलता के प्राधान्य की वजह से, सामाजिकता वहीं संभव है, जहां वह, 'निजात्म के सर्व से संबंध' की बजाय, 'आराध्य या प्रिय के प्रति निज के आत्म निवेदन' की तरह उपलब्ध हो सके.

इस लिहाज से कबीर जैसे निर्गुण संत बेहतर स्थिति में नज़र आते हैं. वे 'समुंद समाना बुंद में', की तर्ज़ पर, सामाजिक संबंधों की विराटता के साथ रिश्ता बना पाते हैं. 'हम घर आव राजा राम भरतार' जैसी पंक्तियां अपनी व्यंजना में, सत्ता तंत्र, ब्रह्म भाव और सामान्य दांपत्य संबंधों तक फैल जाती हैं. परंतु इस तरह की 'सामाजिक निजता' को सगुण भक्त कभी आसानी से उपलब्ध नहीं हो सकता.

सगुण भक्त की दुनिया का निजी क्षेत्र, विनय, दास्य या प्रेम का क्षेत्र बना रहता है. सामाजिकता पृष्ठभूमि से झांकती हुई, माधव या राम के प्रसाद या करुणा का लीला क्षेत्र भर बनी रहती है. सामाजिक क्षेत्र के अंतर-विरोधों से उपजने वाली पीड़ा, वहां विनय भक्ति या माधव की कृपा को पाने की पुकार में बदल जाती है. भक्त के अपने कर्मठ हस्तक्षेप के लिये वहां कोई खास गुंजाइश पैदा नहीं होती.

इसलिये ऐसी निजता में सामाजिकता की खोज, जैसा मैनेजर पाण्डेय ने स्वीकार किया, सिवाय 'काव्य से अन्याय' करने के और कही नहीं पहुंचाती.

इसे उनकी आलोचना की उलटबासी ही कहा जा सकता है कि वे एक असंभव क्षेत्र में प्रवेश करते हुए, एक तरफ सूरदास के काव्य में सामाजिकता को खोज निकालते हैं और दूसरी तरफ ऐसी आलोचना दृष्टि को अपना आदर्श मानते हैं, जो साहित्य का लक्ष्य, 'रूपांतरकारी सामाजिकता' में देखती है. 

आलोचना में समाजशास्त्रीय पद्धति का सूत्रपात करने का श्रेय कैनेथ बर्क को दिया जाता है, हालांकि इस संदर्भ में सम्यक भूमिका बनाने का काम, बर्क से बहुत पहले से ही मार्क्सवादी आलोचना पद्धति ने करना आरंभ कर दिया था.

इन दोनों पद्धतियों में पर्याप्त समानता है. तथापि फर्क यह है कि मार्क्सवादी आलोचना पद्धति केंद्र में समाज की व्याख्या का आधार वर्ग विभाजन होता है और 'सामाजिकता' की व्याख्या उत्पादन पद्धतियों के अंतर-विकास के आधार पर प्रकट होने वाली सभ्यता-मूलक तबदीलियों की तरह की जाती है. समाजशास्त्रीय पद्धति उसे सामाजिकता की व्याख्या का एक खास रूप भर मानती है और अन्य प्रकार की व्याख्याओं के लिये खुली रहती है. इसलिये बर्क, हैरिंगटन और मौरेती जैसे समाजशास्त्रीय आलोचक, मार्क्सवाद से संबंधित फ्रैंकफर्ट स्कूल के आलोचकों से कुछ भिन्न नतीजों तक पहुंचते हैं.

इस कड़ी में अब जो स्त्राीवादी और दलित वादी आलोचना सामने आ रही है, वह भी मुख्यतः साहित्य की सामाजिक अंतर्वस्तु की बात करती है.

तब सवाल उठता है कि इनमें से वह कौन सी पद्धति है, जिसे 'कविता के साथ अन्याय करने', या न करने का ज़िम्मेवार माना जा सकता है?

यहां इस बात को रेखांकित करना ज़रूरी लगता है कि जब हम इस पद्धति का इस्तेमाल करते हुए, साहित्य, की सामाजिकता का उद्घाटन कर रहे होते हैं, तो हमें साहित्य की व्याख्या समाज के 'वैकल्पिक यथार्थ और इतिहास' की अभिव्यक्ति करने वाली रचनाशीलता की तरह आरती पड़ती है. जो लोग साहित्य को 'समाज के आईने' की तरह देखने के आदी हैं, उनके सामने दिक्कत यह होती है कि वे साहित्य और समाजशास्त्र के बीच फर्क करने के लिये कोई अर्थपूर्ण दलील नहीं दे पाते. पर जब हम साहित्य  में 'समाज और इतिहास के विकल्प' को देखने की बात की ओर रुख करते हैं, तो हम उस रचनाशीलता की मौजूदगी के लिये जगह बना पाते हैं, जो साहित्य को साहित्य बनाती है.

जहां तक मैनेजर पाण्डेय का सवाल है, वे स्वयं को जिस तरह की समाजशास्त्रीय आलोचना पद्धति के अधिक करीब पाते हैं, वह मार्क्सवादी पद्धति है. इस संदर्भ में वे अपने लिये जो आलोचनात्मक प्रतिमान बनाते हैं, यहां उन पर भी एक नज़र डाल लेना सम्यक होगा,

"बुनियादी तौर पर वह (मार्क्सवाद) समाज को समझने का एक सिद्धांत है. दूसरे स्तर पर वह समाज को बदलने का सिद्धांत है. और तीसरे स्तर पर वह केवल समाज ही नहीं, बल्कि संपूर्ण संसार को बदलने का दृष्टिकोण है...जिन रचनाकारों के यहाँ मार्क्सवाद सजग और सचेत दृष्टि के रूप में सक्रिय है, उनकी प्रगतिशीलता अधिक सुनिश्चित और सुविकसित हो सकती है."

(मेरे साक्षात्कार, 92)

मार्क्सवाद को 'सजग रूप में' अपनाने की जो सलाह उन्होंने रचनाकारों को दी है, वह स्पष्टतः समकालीन रचना परिदृश्य पर ही लागू हो सकती है. भक्तिकाल, और उसमें उनके प्रिय कवि सूरदास की व्याख्या के लिये हमें, मार्क्सवाद को एक 'आलोचना दृष्टि' की आधार भूमि तक सीमित रखना होगा और उसका वह जो लक्ष्य है, समाज और संसार को बदलने का, उसके बारे में पुनर्विचार करना होगा.

ऐसा नहीं है कि भक्ति काव्य और उसके तहत सूरदास के प्रगीत, समाज और संसार को बदलते नहीं हैं. वे समाज और संसार के नवनिर्माण के अपनी तरह के प्रारूप हमारे सामने रखते हैं. परंतु हमें उनकी सामाजिक अंतर्वस्तु की व्याख्या भिन्न तरीके से करने की ज़रूरत पड़ती है. भिन्न तरीके से, यानी वहां हमें 'वास्तविक सामाजिक यथार्थ' की अभिव्यक्ति पर केंद्रित न होकर, उस विकल्प बोध पर ध्यान देना पड़ता है, जो रूपांतर की वजह हो सकता हो.

कोई भी काव्य, जो अपने समय की सीमाओं को लांघ कर परवर्ती कालों के लिये विवेचनीय बना रहता है, उसे तत्कालीन सामाजिक अंतर्वस्तु से संबद्ध ऐसे जीवनानुभवों की उपज माना जाना चाहिये, जो किसी भिन्न अर्थ बोध के कारण भिन्न हालात में भी पाठक को संवेदित कर पाते हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि किसी काव्य की तत्कालीन सामाजिक अंतर्वस्तु का अध्ययन हमें किस नज़रिये से करना चाहिये?

अगर हम मैनेजर पाण्डेय की स्थापनाओं से सहमत हैं, तो हमें भक्ति काव्य और उसमें सूरदास जैसे कवियों की सामाजिक अंतर्वस्तु का अध्ययन इस नुक्ते-निगाह से करना चाहिये कि वह काव्य तत्कालीन समाज और संसार को 'बदलने' में क्या भूमिका निभा रहा था? और क्या उस तरह का बदलाव हमें समकालीन समाज और संसार को बदलने के लिये कोई प्रासंगिक ज़मीन प्रदान करता है या नहीं ? इन सवालों के जवाब खोजते हुए जब हम मैनेजर पाण्डेय के पास जाते हैं, तो पाते हैं कि वहां एक खास तरह की परिवर्तनकारी दृष्टि के साथ भक्त कवि अपनी-अपनी तरह का यूटोपिया रचते हैं. वह उनकी परिवर्तनकामिता के सार की तरह उनके काव्य का मुख्य प्रयोजन हो जाता है. इस संदर्भ में मैनेजर पाण्डेय की कतिपय मान्यताएं इस प्रकार हैं,

"सूरसागर में लोक-चिंता काव्यानुभूति के प्रवाह में अंतर्धारा की तरह है."

"सूरदास की कविता ऐसे समाज की रचना करती है जिसमें लोक और शास्त्र के बंधनों से स्वतंत्र मानवीय भावों और मानवीय संबंधों का सहज स्वाभाविक विकास संभव हुआ है."

"जायसी का 'सिंहलद्वीप' और तुलसी का 'रामराज्य' कल्पना लोक ही है. सूर का वृंदावन जायसी के सिंहलद्वीप और तुलसी के रामराज्य की तुलना में उस काल के सामंती समाज की सीमाओं से अधिक स्वतंत्र है."

हालांकि इस दृष्टि से विचार करेंगे, तो पायेंगे कि कबीर जब इस दुनिया को ससुराल और उस दुनियां को 'बाबुल का देस' कहते हैं या रैदास जिसे इस दुनियां की ऊंच नीच, भेदभाव और अन्यायपूर्ण स्थितियों से मुक्त 'बेगमपुरा' कहते हैं, तो वे जिस तरह के यूटोपिये का निर्माण करते हैं, वह आमूलचूल परिवर्तन लाने वाला प्रतीत होने की वजह से कहीं अधिक क्रांतिकारी और प्रगतिशील मालूम होता है.

इस फर्क को नजरंदाज करते हुए मैनेजर पाण्डेय निर्गुनियों, प्रेमाख्यानकार सूफियों और सगुण भक्तों  को एक ही लाठी से हांकते हैं और सभी के 'वैकल्पिक समाज के यूटोपिये' को मूलतः एक ही तरह का मानते दिखाई देते हैं. हालांकि इन सभी का तुलनात्मक विश्लेषण करते हुए वे इन कवियों के बीच मौजूद फर्क की सम्यक शिनाख्त भी करते हैं, जो इस प्रकार है,

"सूरदास न कबीर की तरह समाज-सुधारक हैं और न तुलसी की तरह उपदेशक. उनके काव्य में कबीर के समान उस समय के समाज की कड़ी आलोचना नहीं है और न , तुलसी के समान समाज की व्यवस्था तथा मर्यादा की रक्षा का आग्रह. वे प्रेम और सौंदर्य के अनंत अनुभवों के अनुपम शब्द-शिल्पी हैं."

यहां सवाल पैदा होता है कि वैकल्पिक समाज की कल्पना पर आश्रित पुनर्रचना, क्या समाज की गहन सघन 'आलोचना के अभाव में मुमकिन है?

मार्क्सवाद, 'समाज आलोचना दृष्टि' को इतना अधिक महत्व देता है कि उसके द्वारा विकसित एक साहित्यालोचन पद्धति 'आलोचनात्मक यथार्थवाद' (क्रिटिकल रियलिज़्म) कहलाती है. तो, समाज की आलोचना करते हुए भक्तिकालीन साहित्य, समाज के वर्ण-जातिगत विभेदों के पार जता है; और जब वह, वर्गहीन-जातिहीन समाज की परिकल्पना तक पहुंचता है, तब ही उसमें ऐसा यूटोपिये को देखा जा सकता है, जिसे मानवजाति के साम्यवादी भविष्य के रूप में रेखांकित किया जा सकता हो. अन्यथा वह काव्यगत 'कल्पनालोक' मात्र होकर रह जाने वाली वस्तु भर होता है, जिसकी प्रासंगिकता पर परवर्ती समाज की स्थितियां प्रश्न चिह्न लगा देती हैं.

इस लिहाज से देखा जाये, तो आज हम तुलसी के रामराज्य की जिस हकीकत को बेपरदा होता देख रहे हैं, वह इस बात को साबित करने के लिये पर्याप्त है, कि भक्तिकाल के एक लंबे कालखंड की रचनाशीलता के बदलते रूपों को एक ही लाठी से हांकना कितना भ्रामक हो सकता है?

और जो सवाल आज तुलसी के रामराज्य की बाबत पूछने लायक हो गये हैं, उनकी छाया से सूरदास का वृंदावन सर्वथा मुक्त हो, ऐसा कतई नहीं है.

मैनेजर पाण्डेय के मुताबिक सूरदास के काव्य में 'सामाजिकता', एक तरह की 'लोकचिंता' है, जो उनके यहां 'प्रेम और सौंदर्य के अनंत अनुभवों' के प्रवाह की 'अंतर्धारा' की शक्ल ले लेती है. अब यहां खोज करने लायक बात यह है कि क्या ये प्रेम और सौंदर्य के अनुभव, तत्कालीन समाज की किन्हीं असंगतियों की आलोचना से उपजी लोकचिंता के अनुभव हैं या कुछ और?

मैनेजर पाण्डेय इस सवाल से बचते नहीं. वे बड़े मनोयोग से खोज करते हुए 'सूरसागर से उन पदों तक पहुंच जाते हैं, जहां गोपियां का तत्कालीन समाज उन विभाजनकारी रूपों पर व्यंग्य करती हैं, जिनकी आलोचना करके वे अपने 'सच' की रक्षा करती हैं. 'भ्रमरगीत' प्रसंग, इस लिहाज से अधिक अर्थपूर्ण दिखायी देता है. गोपियों का 'वृंदावन', यहां उद्धव की 'मथुरा' के विरोध में प्रस्तुत है. इसे मैनेजर पाण्डेय गांव और नगर के अंतर्विरोध की तरह देखते हैं. नागर सभ्यता का संबंध सत्ता पक्ष है, इसलिये मथुरा गोपियों को 'काजर की कोठरी जैसी लगती है, जिस में घुसकर सभी काले हो जाते हैं. कुछ पद अर्थतंत्र से भी ताल्लुक रखते हैं, जहां सूदखोर मूल से अधिक ब्याज बटोरना, चाहते हैं. जब कि वे अपने माधव रूपी मूलधन को बचाना चाहती हैं. सत्ता और अर्थतंत्र  के अलावा गोपियां. सांस्कृतिक पक्ष से भी नगर की आलोचना करती हैं, जहां वे उद्धव को योग का दर्शन बेचने वाले प्रचारक की तरह देखती हैं, और वृंदावन को भक्ति को निर्मल धारा बहाने वाले गांव की तरह बचाना चाहती हैं. इस भक्तिधारा वाले गोपियों के प्रतिपक्ष का जो सामाजिक सार है, वह 'गोचारण' की तरह सामने आता है.

मैनेजर पाण्डेय ने गोचारण के महत्व की सविस्तार चर्चा की है. इसे वे 'चरवाहा संस्कृति के अवशेष' की तरह देखते हैं. पश्चिम में भी 'पैस्टोरल' परंपरा के साहित्य को बहुत महत्व मिला है. हालांकि इन दोनों में काफी अंतर है. यूरोप के अनेक देशों में आज भी बहुत बड़े भूभाग पर वन बचे हुए हैं, जिस वजह से कुछ देशों के आर्थिक विकास की रीढ़ डेयरी उत्पाद हैं. वहां पशुपालन, साहस और कर्मठता के मूल्यों से जुड़ रोमांस की आधारभूमि को, नागर विकास के बरक्स रचनात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करता है. वह शहरी जीवन की कृत्रिमता और औपचारिकता के विरोध में जीवन को उन्मुक्त व निर्कुंठ भाव से जीने की संभावनाओं को खोलने की वजह से अलग तरह की विद्रोही भंगिमा से युक्त साहित्य है. इसलिये सूरदास के काव्य में गोचारण का जो मिथकीय व भावात्मक रूप सामने आता है, उसे भारतीय परिवेश से जन्म लेने वाली अलग तरह की प्रवृत्ति की तरह देखना उचित होगा.

मैनेजर पाण्डेय सूरदास के काव्य में मौजूद गोचारण को जब, उस दौर की सामाजिकता के सार की तरह देखते हैं और उसे एक यूटोपिये की तरह व्याख्यायित करते हैं, तो उनका मत कुछ इस रूप में हमारे सामने आता है.

"कृषि और व्यापार की व्यवस्थाओं से उपजी जटिलताओं से निकलकर प्रकृति के स्वच्छंद वातावरण में विचरने की मानवीय आकांक्षा की अभिव्यक्ति का एक माध्यम है गोचारण-काव्य."

कहने की ज़रूरत नहीं है कि मैनेजर पाण्डेय की यह धारणा, पश्चिम के पेस्टोरल साहित्य की मूल प्रवृत्ति को सूरदास के काव्य में खोजने का प्रयास अधिक है, बनिस्बत इसके कि वे यह देखते दिखाते कि हमारा काव्य गोचारण को इस रूप में प्रस्तुत करता है, जैसे कि वह 'गोलोक का 'भूलोक में अवतरण' हो.

इस सच्चाई को दरकिनार करने के लिये उनके पास अपने तर्क हैं. वे इस गोलोकवादी व्याख्या को सूरदास के काव्य पर, परवर्ती आलोचकों के द्वारा किया गया, वल्लभ के पुष्टि मार्ग का आरोपण मानते है. उनका कहना है कि इसे एक ओर हटा कर ही हम उसके वास्तविक सामाजिक सार तक पहुंच सकते हैं.

"उनकी कविता पर वल्लभ संप्रदाय की छाप लगाने और सूरसागर को भागवत का अनुवर्ती बनाने का काम बाद में संप्रदाय के सेवकों ने किया है."

अपनी इस धारणा के कारण मैनेजर पाण्डेय हमें सूरदास में पुष्टि मार्ग से ताल्लुक रखने वाले दर्शन की मौजूदगी को न देख कर, उस 'प्रकृति को सीधे देखने के लिये कहते हैं, जिसमें "स्वच्छंद भाव से घूमने के लिये गोप जीवन में सर्वाधिक अवकाश है."

इसकी तुलना में, उनके मुताबिक, "कृषि, व्यापार और हस्त शिल्प जैसे व्यवसायों की जटिल प्रकृति के कारण" वह स्वच्छंदता बाधित रहती है. निर्गुण धारा का संबंध, चूकि मुख्यतः इन व्यवसायों से है, इसलिये वे वहां उतने उन्मुक्त भाव वाले विकल्प के प्रकट होने की संभावना के प्रकट होने के लिये अवकाश नहीं देखते हैं. इन धारणाओं पर आलोचनात्मक दृष्टि से विचार करना ज़रूरी है. 

मार्क्सवादी दृष्टि से भी विचार करें, तो जिसे हम यूटोपिया या 'विकास की समन्वयात्मक मंज़िल' कहते हैं, वह तब प्रकट होती है, जब सामाजिक अंतर्विरोध अपने चरम पर पहुंच कर विकल्प की खोज को ज़रूरी बनाते हैं. वर्ग संघर्ष का तीखा होना, पक्ष और प्रतिपक्ष को नव समन्वय की तलाश की ओर धकेलता है. दूसरी बात, वहां अतीत की वर्गविहीन स्थितियों की उन्मुक्तता के लौटने की संभावना तो प्रकट होती है, परंतु वह अतीत की तुलना में अधिक परिष्कृत और जटिल अर्थबोध से युक्त उन्मुक्तता होती है. दूसरे लफ़्ज़ों में वह जटिलता का नयी तरह की सरलता और सहजता को उपलब्ध करना होता है.

इस कसौटी पर कस कर देखेंगे, तो इस बात को समझने में दिक्कत नहीं होगी कि निर्गुण साहित्य नागर जीवन की जटिलताओं के बरक्स अधिक गहन सामाजिक आलोचना की ओर प्रवृत्त हुआ था, जब कि सूर और तुलसी जैसे सगुण भक्त उतनी व्यापक और निर्मम सामाजिक आलोचना करने में असमर्थ होने की वजह से, जिस वृंदावन और रामराज्य की पुनर्रचना करते हैं, वह तत्कालीन सामाजिक अंतर्विरोधों का समन्वय करने वाला यूटोपिया न हो कर, अतीत का पुनरुत्थान हो जाता है.

इसलिये गोचारण, भविष्योन्मुख अतीत में लौटना न होकर, गोलोक के मनोलोक में लौट कर रास रचाने के रूपक गढ़ता है. और रामराज्य तो और भी अधिक अतीतग्रस्त होकर, 'वेद निरत निज वर्ण धर्म' पालन को ही तत्कालीन समाज के समन्वय की संभावना बताने लगता है. इन दोनों के काव्य का मूल स्वर 'भक्ति है, जिस बात की कोई भी अनदेखी नहीं कर सकता.

आप भक्ति की मनमानी व्याख्या के लिये गुंजाइश तभी पैदा कर सकते हैं, जब हम यह कह सकें कि सूरदास पर पुष्टिमार्ग का और तुलसीदास पर रामानंदी संप्रदाय का प्रभाव, उनके काव्य का मूल स्वर न होकर, उस पर एक आरोप की तरह है.

अब देखें, सूरदास क्या करते हैं? वे कृष्ण के भेजे हुए उद्धव को गोपियों की आड़ में अपशब्द कहते हैं, पर कृष्ण को बचाये रखते हैं. क्या कृष्ण का उस सत्ता तंत्र, अर्थ तंत्र और ज्ञान-संस्कृति मूलक वर्चस्वी रूपों की मौजूदगी में कोई हाथ नहीं, जिसका प्रतिनिधित्व उद्धव करते हैं? कृष्ण को बचा लेने के पीछे मूल तर्क क्या है? यही न कि वे तो स्वयं ब्रह्म हैं. इसलिये वे सामाजिक अंतर्विरोधों से संबद्ध किसी तरह की पतनशीलता का हिस्सा नहीं हैं, कि वे सब तरह का कूटनीतिक व्यवहार करते हुए, अपने तमाम कर्मों से बंधे हुए नहीं हैं. इसलिये उनकी कूटनीति में न छल है, न कोई महत्वाकांक्षा. आप जब तक इस भक्ति मूलक पक्ष को अपने सामने नहीं रखेंगे, सूरदास और तुलसीदास के काव्य की एक पंक्ति के अर्थ में भी आपका प्रवेश संभव नहीं.

सवाल ये है कि मैनेजर पाण्डेय राम और कृष्ण को ब्रह्म का अवतार बनाने और मानने की अनदेखी करके, वहां जिस तरह की 'ब्रह्म-निरपेक्ष सामाजिकता' को खोजना चाहते हैं, क्या वह वहां है भी या नहीं?

यहां जो बात सर्वाधिक हैरान करने वाली है, वह यह है कि सूरदास और तुलसीदास की इस तरह की भक्तिवादी दृष्टि की अनदेखी करके हमारे आलोचक वहां सामाजिकता के विविध रूपों को खोजा करते हैं और निर्गुण संतों में, जहां इस तरह के भक्तिवाद का सिरे से विरोध दिखाई देता है, उनकी सामाजिकता का सहारा लेकर पूरे भक्ति साहित्य को प्रगतिशील सिद्ध करने का प्रयास जोशो-खरोश से किया करते हैं. जहां अतीत का पुनरुत्थान है, वहां सामाजिकता के अधिक मुखर और विश्वसनीय होने की बात की जाती है और जहां वास्तव में सामाजिकता है, उसे वायवीय, अमूर्त, सुधारवादी (यानी गैर-क्रांतिकारी) और सांप्रदायिक तक मान लिया जाता है.

कबीर और तुलसी से सूरदास की तुलना करते हुए मैनेजर पाण्डेय कहते हैं,

"सूरदास न कबीर की तरह समाज-सुधारक हैं और न तुलसी की तरह उपदेशक. उनके काव्य में कबीर के समान उस समय के समाज की कड़ी आलोचना नहीं है और न , तुलसी के समान समाज की व्यवस्था तथा मर्यादा की रक्षा का आग्रह."

समाज की कड़ी आलोचना करने वाले व्यक्ति को सुधारवादी कह कर खारिज करने की बात, सूरदास को क्रांतिकारी सिद्ध करने के लिहाज से एक खाली कारतूस से ज़्यादा क्या अहमियत रखती है, इसे समझना कठिन नहीं है.

ये बातें यहां इसलिये कही गयी हैं, ताकि प्रेम और सौंदर्य के गीत गाने वाले सूरदास को ऐसा कवि सिद्ध किया जा सके, जो सामाजिकता की व्यंजना करता है. वे सूरदास की तारीफ करते हुए कहते हैं कि वे समाज की लोकचिंता को अपने काव्य की अंतर्धारा की तरह परोक्ष रूप में अभिव्यक्त करते हैं. और चूंकि रामचंद्र शुक्ल और रामविलास शर्मा की आलोचना तुलसीदास को, लोकमंगल की अभिव्यक्ति के लिहाज से, भक्ति काव्य के शिखर पर आसीन करती है, इसलिये वे सूरदास को महत्वपूर्ण बनाने के आग्रह से तुलसीदास की बाबत इस सच पर उंगली रख देते हैं कि वे उपदेशक कवि हैं.

उपदेशक, यानी वह जो अतीत का पुनरुत्थान करता है. उपदेशक होने का संबंध तत्कालीन सांस्कृतिक राजनीति से होता है. वह गहरे में यथास्थितिवादी होने की वजह से, सत्ता को मानवीय रूप में प्रस्तुत करके बचाया करता है.

तथापि यहां मैनेजर पाण्डेय जो सच तुलसीदास के बारे में बोल गये हैं, ठीक वही सच उन के अपने प्रिय कवि को भी कटघरे में खड़ा करने के लिये पर्याप्त है, इसे वे क्यों देख नहीं पाते?

सगुण भक्ति के अवतारवाद से ताल्लुक रखने वाली विचारधारा ही गहरे में सूरदास और तुलसीदास दोनों के काव्य को उपदेशक और प्रचारक की भूमिका में ले जा कर खड़ा कर देने के लिये पर्याप्त है. उपदेशात्मक पुनरुत्थान के भाव बोध से युक्त कवि, अपने इस पक्ष को छिपाने के लिये जब, सौंदर्य, प्रबंध कौशल और कलात्मक भाषा संसार जैसे काव्योचित उपकरणों का  सहारा लेता है, तो मार्क्सवादी नुक्ते-निगाह से उसे 'कलाकारी' कहा जाता है. दूसरी तरफ समाज की कड़ी आलोचना करने वाले कबीर को अगर अपनी भाषा तक के अनगढ़ रह जाने की चिन्ता नहीं है, तो वहां हम उस सामाजिकता की तलाश अवश्य कर सकते है, जो वास्तविक अर्थ में रूपांतरकारी या क्रांतिकारी हो.

सूरदास और तुलसीदास का काव्य हमारे सामने जिस समाज या 'संसार को लाता है, वह वास्तविक न होकर, अवतरित ब्रह्म की 'लीलामात्र होता है. लीला भाव, सूरदास और तुलसीदास दास के काव्य की असल 'विश्व दृष्टि' है. इसलिये संसार की सारी पीड़ा, सारे अंतर्विरोध, वहां केवल इस प्रयोजन से चित्रित होते हैं, ताकि हम, यानी सामान्य जन समाज, भक्ति भाव से युक्त हो कर 'विनय' कर सकें और अवतारी ब्रह्म हम पर कृपा कर के हमारा उद्धार कर सके.

भक्ति का यह जो बुनियादी दर्शन है, उस पर पर्दा डाल कर अगर कोई किसी अन्य बात का, जो अपने तईं महत्वपूर्ण हो सकती है, महिमामंडन करता है, तो वह साहित्य के मूल भाव और प्रयोजन से 'आलोचनात्मक छल' करता है. इसके परिणाम समाज-सांस्कृतिक रूपांतर के लिये घातक होते हैं. इसका भाजन समाज ही नहीं, साहित्य भी होता है. इससे हमारे सामने अपने साहित्य के शक्ति स्रोतों से अजनबी होने का खतरा पैदा होता है. ऐसा समाज परवर्ती कालों में धीरे-धीरे महान साहित्य की रचना करने में असमर्थ होता जाता है.

भक्ति काल की साहित्य की भ्रामक व्याख्याओं ने आधुनिक काल की रचनाशीलता के अंतर-विकास में बड़ी रुकावटें पैदा की हैं. उनका प्रत्याख्यान ज़रूरी हो गया है.

इस भ्रम को जन्म देने वाली बुनियादी बात का संबंध नाथ, सिद्ध और निर्गुण धारा के साहित्य को भक्ति साहित्य कहने से संबंध रखता है. मैनेजर पाण्डेय भक्ति की प्रवृत्तियों की शिनाख्त करते हुए पीछे दसवीं शती तक चले जाते है. जब कि सिद्ध, नाथ और निर्गुण संत जिस तरह के साहित्य की रचना करते हैं, वह किसी ब्रह्म की 'भक्ति करने के उलट, मनुष्य के भीतर मौजूद ब्रह्म को 'खोजने' की दिशा में आगे बढ़ता है. वहां अगर खींच खांच कर भक्ति को देखने की ज़िद ही पकड़ ली जाये, तो कह सकते हैं कि वह 'आत्म भक्ति' जैसी कोई प्रवृत्ति है. वह भीतर मौजूद प्रेम और आनंद के स्रोत में छलांग लगाने के लिए, 'जगत की कड़ी आलोचना' करने की बात है, ताकि जगत के मोह से मुक्त हो कर, उसके प्रति निर्मम वस्तु निष्ठता वाली उच्चतर चेतना को पाया जा सके और स्वयं को सत्य की खोज में प्रवृत्त किया जा सके. ऐसे साहित्य को जो लोग केवल इसलिये भक्ति काव्य कहते हैं कि वहां भी ब्रह्म की चर्चा दिखाई देती है, वे ब्रह्म के अर्थ को ग्रहण न करते हुए, उस शब्द का वैसा इस्तेमाल करते हैं, जैसा कर्मकांडी तोतारामों के यहां प्रचलित दिखाई देता है. इनकी बाबत कबीर कहते हैं‘मनुआ तो दस दिसि फिरे, यह तो सुमिरन नाहीं'. इसके विपरीत सूर और तुलसी नाम लेने भर को पर्याप्त बनाने वाली भक्ति के प्रचारक हैं. उनके यहां ऐसे दृष्टांत भरे पड़े हैं, जहां कोई व्यक्ति मरते हुए भूल से ही राम या माधव कह भर देता है तो गोलोक का अधिकारी मान लिया जाता है.

सगुण भक्ति का महत्व अकबर के शासनकाल से बढ़ना आरंभ होता है. इस काल में केंद्रीय राजसत्ता और देशी राजाओं के आपसी गठजोड़ वाले हालात सामने आते हैं. भक्ति का संस्थानीकरण इस काल की देन है. निर्गुण संतों को भक्त कवियों में शुमार करने का काम, इसी दौर में पहली दफा नाभादास के द्वारा किया जाता है. जबकि इससे पहले खुद सूरदास और तुलसी अपने काव्य में कबीर और रैदास जैसे लोगों का विरोध ही नहीं, उनकी निंदा करते हुए उन्हें अपशब्द तक कहते हैं. उद्धव के बहाने से गोपियां जिन योगियों की खबर लेते हुए उन्हें शालीन गलियां तक देती है, वे और कोई नहीं निर्गुण संत ही हैं. तुलसी उन्हें 'नीच' कहकर उन पर 'राम नाम का मरम है आना’ जैसे संगीन आरोप लगाते हैं. पर लोगों में संतों की मकबूलियत को देखते हुए बाद में ज़रूरी हो गया कि उन्हें भी लोगों के बीच भक्तों की तरह प्रचारित करके, भक्तिवाद को स्थापित किया जाता.

भक्ति का यह जो कुलीन संस्कृति के द्वारा किया गया इस्तेमाल है, वह  दो संगीन अपराध करता है. एक यह कि जो भक्त नहीं हैं, उन्हें भक्त बना कर उनके साहित्य में मौजूद उस समाज रूपांतर की संभावनाओं को कुंद करता है. और दूसरा यह कि अपने भीतर मौजूद पुनरुत्थानवादी प्रचारक  की असलियत को छिपा कर, अपनी छद्म सामाजिकता के बारे में भ्रम फैलाता है.

इस बात को समझने की के लिये हम अडोर्नो के प्रगीत संबंधी उन विवेचनों को देख सकते हैं, जहां वह संगीत के बाज़ार को मुख्यधारा की संस्कृति के क्रांति विरोधी रूप को समझने के लिये आधार बनाता है. वह कहता है कि संस्कृति का बाज़ार, संगीत की मदद से प्रगीतों के प्रगतिशील तत्वों को भी बाज़ार के द्वारा आत्मसात किये जाने लायक बना कर शक्तिहीन कर देता है. इसे वह नकारात्मक द्वंद्वात्मकता (नेगेटिव डायलेक्टिक्स) कहता है. उच्च या कुलीन संस्कृति, लोगों में अधिक प्रचलित साहित्य को अपने 'उत्पाद' में बदलने के लिये विविध कलाओं से उसका संयोजन करती है. यही वजह है कि सूरदास और तुलसीदास के भक्तिवादी साहित्य का इस्तेमाल, कुलीन ब्राह्मणों के द्वारा धर्म प्रचार के लिये होने लगता है और उसमें संगीत मंडलियों का भजन गायन और नृत्य मंडलियों के रास उत्सव, सहयोगी की भूमिका निभाने लगते है. मंदिरों में जिन कवियों का प्रवेश सहज रूप में होता है, वे सूरदास और तुलसीदास हैं.

कबीर रैदास आदि के पद गाने वाले लोग निचले तबकों के पंथों में गठित होने वाले लोग होते हैं. उन्हें भक्त बना कर अपने साथ मिलाने का काम नाभादास के बाद के दौर में व्यापारी तबकों के द्वारा होता है. वह तत्कालीन श्रम संपदा को भक्तिवादी बना कर उनका अधिकाधिक लाभ उठाने के उद्देश्य से होता है. इसे समझने के लिये हमें रीतिकालीन हालात पर निगाह डालनी होगी.

रीतिकाल में दो तरह का साहित्य है. एक तो दरबारी साहित्य है. वह सूरदास के 'प्रेम और  सौंदर्य के अनंत अनुभवों से निकली भक्ति की अंतर्धारा' के दरबारीकरण से प्रकट हुआ काव्य है. वहां राधा कृष्ण की भक्ति के बहाने शृंगारिकता की खुल कर अभिव्यक्ति होती है. सवाल यह है कि क्या उसकी भूमिका उस कृष्णभक्ति काव्य के द्वारा निर्मित नहीं होती, जिस की प्रशंसा मैनेजर पाण्डेय ने 'सूर की गोचारण संस्कृति की उन्मुक्त उड़ान' की तरह की है. उसे वह सामंतीय संस्कारों से और सभ्यता की कृत्रिमता के बंधनों से मुक्ति की तरह देखते हैं. और देखिये, उनके ये दरबारी रीतिकालीन वारिस, उसी काव्य को सामंतीय विलासिता और कामुकता की उन्मुक्त अभिव्यक्ति बना डालते हैं.  क्या यहां कार्य कारण संबंध के लिये कोई आधार खोजना गलत होगा? क्या बीज से ही वृक्ष अंकुरित होकर नहीं फलते-फूलते?

और सूर के काव्य का वह जो भक्ति वाला पक्ष है, उसका क्या होता है? वह मंदिरों के प्रांगण में रास रचाने वालों के हाथ का खिलौना हो जाता है.

अब तुलसीदास पर आइये. उन्होंने जो लिखा, वह धर्म की वस्तु हो गया. दरबारीकरण उसका भी हुआ. जिन्हें हम उस दौर के राष्ट्रीय चेतना वाले कवि कहते है, वे घुमा फिरा कर अपने आश्रयदाताओं को राम का अवतार सिद्ध करते दिखाई देते हैं. सब को मर्यादा और धर्म के रक्षकों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है.

इसकी तुलना में निर्गुण संतों का जो भक्तिकरण होता है, वह निचले तबकों को शासक के प्रति स्वामीभक्त बनाये रखने में परोक्ष रूप में सहयोगी होता है. फिर भी उस काव्य में जो प्रगतिशील और रूपांतरकारी तत्व है, वे पूरी तरह नष्ट नहीं होते. यही वजह है कि अपने भक्तिकरण के बावजूद और बावजूद इसके कि कबीर के नाम से अनेकानेक भक्तिवादी पद प्रक्षिप्त रूप में वहां दाखिल करा दिये गये हैं, तथापि वे ऐसे कवि हैं, जो आज भी सर्वाधिक आधुनिक चेतना वाले कवि प्रतीत होते हैं.

क्या अब ज़रूरी नहीं हो गया है कि हम कबीर आदि निर्गुण संतों को मुख्यधारा के संस्कृति उत्पाद होने की स्थिति से उबारें और उन्हें भक्ति के मुलम्मे से निजात दिलाएं, ताकि उन्हें ज्ञानधारा के कवियों की तरह देखना आरंभ हो सके? सूरदास और तुलसीदास के काव्य की महानता से मुग्ध हुए रहने की स्थिति को छोड़े बिना यह संभव नहीं है कि हम भक्तिकाल की सम्यक पुनर्व्याख्या कर सकें. जब तक हम यही तय नहीं कर पाते कि हमारी रचनाशीलता की जड़ें किस मिट्टी पानी में है, हमारा सम्यक पल्लवन मुमकिन नहीं.

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संपर्क:
विनोद शाही 
ए 563 पालम विहार, गुरूग्राम-122017 
मो. 9814658098

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  1. रवि रंजन10 फ़र॰ 2021, 3:43:00 pm

    इस रोचक और पठनीय आलेख में अनेक बहसतलब बिंदु हैं।
    इसमें एक बार फिर सगुण के बरअक्स निर्गुण भक्ति को रखकर अपनी क्रांतिकारी दृष्टि को साबित करने के लिए आलेख के अंत तक आते -आते सूर और तुलसी की कविता का एक हद तक अवमूल्यन करने की असफल कोशिश की गई है।
    यह युक्ति हिंदी आलोचना में बहुत पहले पिट चुकी है।
    कबीर से तुलसीदास तक पहुंचने पर ही भक्ति का वृत्त पूरा होता है।इनमें किसी एक को बड़ा बताने के लिए दूसरे को छोटा दिखाना ज़रूरी नहीं है।

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  2. दया शंकर शरण10 फ़र॰ 2021, 3:45:00 pm

    मैनेजर पाण्डेय की स्थापनाओं को केंद्र में रखकर विनोद शाही का यह आलेख एक तरह से उस काल का पुनर्मूल्यांकन है। निर्गुण धारा की उपेक्षा कुछ बड़े आलोचकों ने यह कहकर की कि इसमें अनगढ़पन है, इसलिए कवित्त कम है और सामाजिक विषमताओं को लेकर उनकी दृष्टि और चेतना इतनी उग्र और प्रहारक है कि वे कवि से ज्यादा समाज सुधारक लगते हैं। इन सारी स्थापनाओं में मुझे हजारी प्र. द्विवेदी की दृष्टि ज्यादा सही लगती है । निस्संदेह गुमनामी के अंधेरे से निकालकर कबीर को साहित्य में सही जगह दिलाने और प्रतिष्ठित करने में उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता । कबीर इसलिए ज्यादा प्रासंगिक हैं कि उनमें धार्मिक पाखण्ड और सामाजिक विषमताओं के प्रति एक आग उगलती भाषा है। इस तरह की भाषा और उसके शब्द अनगढ़,अपभ्रंश और भदेस ही हो सकते हैं । लेकिन इससे सूर और तूलसी का महत्व भी कम नहीं होता। उनमें केवल पुनरुत्थानवाद एवं पुरातन मूल्यों को हीं नहीं बल्कि उनकी लोक चिंता और चेतना की सघनता एवं व्यापकता को भी देखना होगा। पाण्डेय जी की आलोचना दृष्टि के आलोक में यह आलेख काफी महत्वपूर्ण एवं पठनीय है।

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  3. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 10.02.2021 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा| आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी
    धन्यवाद

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  4. विनोद शाही का यह आलेख भक्ति काल की समग्र कविता को एक ही समन्वित स्वर में घटाने की आलोचनात्मक प्रवृत्तियों की समस्याओं की सही शिनाख्त करता है.
    उस काव्य -समृद्ध काल में सम्वेदनात्मक ज्ञान के अनेक शक्ति-केंद्र हैं. उन में परस्पर विरोध भी है, अन्तरविरोध भी है, आत्मसंघर्ष भी है.
    इन अंतरविरोधो और तनावों की अनदेखी करने से अंततः उस काल के प्रतिक्रियावादी पाठ को मजबूती मिलती है.

    सूरदास पर मार्क्सवादी चिन्तक प्रोफ़ेसर मैनेजर पाण्डेय का काम सूर -साहित्य को भौतिकवादी मानवतावादी दृष्टि से देखते हुए उसकी अनेक मूल्यवान अंतर्दृष्टियों को हम तक पहुंचाता है. लेकिन उसके सिद्धांतीकरण की दिशा में गंभीर बहस की पर्याप्त गुंजाइश है. विनोद शाही के इस लेख से उस बहस की शुरुआत हो सकती है.

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