भगवानदास मोरवाल से राकेश श्रीमाल की बातचीत और ख़ा न ज़ा दा


 

काला पहाड़(१९९९), बाबल तेरा देस में(२००४) तथा रेत(2008) से चर्चित उपन्यासकार भगवानदास मोरवाल (जन्म: २३ जनवरी, १९६०) इधर २०१४ से लगभग हर साल उपन्यास आदि लिख रहें हैं- नरक मसीहा(२०१४), हलाला(२०१६), पकी जेठ का गुलमोहर (२०१७), सुर बंजारन(२०१८), वंचना(२०१९), शकुंतिका(२०२०) तथा २०२१ के आरम्भ में ख़ानज़ादा. यह उपन्यास चौदहवीं सदी से लेकर सोलहवीं सदी के बीच मेवातियों के उत्पीड़न और संघर्ष  की कथा कहता है.

भगवानदास मोरवाल को जन्म दिन की बधाई. इस अवसर पर उनसे राकेश श्रीमाल की बातचीत और ख़ानज़ादा. का एक अंश आप यहाँ पढ़ेंगे.    




भगवानदास मोरवाल से राकेश श्रीमाल की बातचीत  

 

राकेश श्रीमाल


१.

राकेश श्रीमाल 

बचपन में ऐसा कब लगा कि कुछ लिखा हुआ भी महत्वपूर्ण हो सकता है ?

 

भगवानदास मोरवाल

अगर मैं अपने बचपन के बारे में बात करूँ तो मेरा बचपन इस देश के उन असंख्य वंचित, उपेक्षित और अभावों में पले-पढ़े बच्चों की तरह रहा है, जिनके लिए लिखना तो दूर की बात रही, सलीक़े से पढ़ना भी एक बीहड़ चुनौती रही है. पढ़ने से मेरा यहाँ तात्पर्य शिक्षा से और वह भी एक व्यवस्थित शिक्षा से रहा है. इस शिक्षा में सबसे बड़ी भूमिका हमारे सामाजिक और पारिवारिक परिवेश की होती है. शिक्षा के प्रति जो चेतना हमारे समाज में होनी चाहिए, उस तरह की चेतना उस दौर अर्थात सत्तर और अस्सी के दशक में कम-से-कम मेरे मेवात में नहीं थी. यह सुनकर भले ही आपको कुछ अटपटा लगे लेकिन यह सही है. इस चेतना के मूल में सबसे बड़ा कारक था आर्थिक पक्ष. इसलिए हमारे भारतीय समाज, विशेषकर गाँव-देहातों के आर्थिक रूप से विपिन्नपरिवारों में व्यक्ति को एक अर्जक के रूप में देखा जाता है. उसे मात्र कमाई करने वाली एक इकाई के रूप में देखा जाता है. इसीलिए उसे सबसे पहले ‘कमेरे’ के विशेषण से नवाज़ा गया है. उसकी पढ़ाई-लिखाई को भी इसी रूप में देखा जाता है. इसलिए हमारे यहाँ अक्षर-ज्ञान यानि साक्षरता को ही शिक्षित होने का पर्याय मान लिया गया है. स्त्री के लिए तो यह और भी विचित्र है. उनके लिए शिक्षित होने का अर्थ है केवल अपनी कुछ धार्मिक या मज़हबी पुस्तकों का पढ़ना या फिर ज़्यादा हुआ तो घरेलू कार्य में दक्ष होना.

 

ऐसे में आज के एक मुख्यधारा के उस लेखक से यह सवाल करना वाकई दिलचस्प है कि बचपन में ऐसा कब लगा कि कुछ लिखा हुआ भी महत्वपूर्ण हो सकता है. जहाँ तक मुझे याद है मैंने पहली बार किसी अख़बार को तेरह-चौदह बरस की उम्र में पढ़ा. पढ़ते हुए मुझे पहली बार यह एहसास हुआ कि आख़िर लोग अख़बारों को क्यों पढ़ते हैं. यह पहला अवसर था जब लगा कि हम एक छात्र के रूप में अपनी पाठ्य-पुस्तकों में जो पढ़ते हैं, उस पठन-पाठन की दुनिया कितनी व्यापक है. मुझे याद पड़ता है कि मैंने किसी बड़े लेखक की जो रचना पहली बार पढ़ी, वह अपने बचपन में शायद सातवीं कक्षा में पढ़ी और वह रचना प्रेमचंद की ‘बड़े घर की बेटी’.लेकिन इसी दौरान मैंने जिस बड़ी रचना को पढ़ा, वह था विलियम शेक्सपीयर के मशहूर नाटक ‘मैकबेथ’ का बालोपयोगी संस्करण. इसे पढ़ने की भी बड़ी दिलचस्प कहानी है और वो यह कि एक बार मैं अपने पड़ोस के ओमप्रकाश मेहता अर्थात ओमी मास्टर, जो पास के एक गाँव में प्राथमिक अध्यापक थे, गर्मियों में उनके साथ उनकी पाठशाला चला गया. आपको सुनकर हैरानी होगी कि उस समय यह पाठशाला किसी विधिवत् सरकारी भवन में नहीं, बल्कि एक पुराने मकबरे में चलती थी. इसी मकबरे के नीचे ख़ाली जगह में जहाँ एक तरफ़ इस गाँव के एक स्थानीय ग्वाले की भेड़-बकरियों का रेवड़ आराम करता था, वहीं पास में एक साफ़-सुथरी जगह में पाठशाला की कुछ बड़ी-बड़ी संदूकें रखी होतीं. इनमें से कुछ में पाठशाला का ज़रूरी सामान रखा होता, तो एक बड़े संदूक में बच्चों की किताबें रखी होती थीं. अगर इसे मैं यह कहूँ कि यह संदूक पाठशाला का पुस्तकालय था, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी.

 

ओमी मास्टर ने मेरे सामने अपने पाठशाला के उस पुस्तकालय को खोल दिया. इस पुस्तकालय से जो मैंने पहली किताब ऐसे ही छाँटी, वह ‘मैकबेथ’ थी. मैंने जब इसे पढ़ना शुरू किया तो यह मुझे इतनी रुचिकर लगी कि इसके बाद मैंने यहाँ से ‘हेमलेट’ और‘ऑथेलो’ ली. मगर जो मज़ा ‘मैकबेथ’ में आया इनमें नहीं. इसके बाद मुझे ऐसी पुस्तकों को पढ़ने का ऐसा चस्का लगा कि मैंने फिर अपने स्कूल राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के पुस्तकालय से ‘रॉबिन्सनक्रूसो’ औ र‘पोंड ऑफ़ फ्लेश’ का संक्षिप्त संस्करण ’वेनिस का सौदागर’ पढ़ा. इसी तरह मुझे याद आता है कि मैंने दूसरी बड़ी रचना, जब मैं ग्यारहवीं में था तब पढ़ी थी और वह थी जैनेंद्र की कहानी‘पाजेब’. इसके अलावा जो मुझे याद पड़ते हैं उनमें एक निबंध था ‘गूलर के फूल’, यशपाल की ‘परदा’ और मोहन राकेश का एक एकांकी ‘अंडे के छिलके’. इनके आलावा मुझे याद नहीं कि मैंने अपने बचपन या छात्र जीवन में किसी रचना को पढ़ा है.


शायद इन सबसे प्रेरित होकर ग्यारहवीं कक्षा के अंतिम दिनों जनवरी 1977 में मैंने पहली बार कुछ लिखने का प्रयास किया और वह थी एक कविता, जिसका शीर्षक था ‘मेरा स्वप्न’. इसलिए मैं आज कह सकता हूँ कि बचपन में मुझे पहली बार ऐसा लगा थाकिबचपन में कुछ लिखा हुआ भी महत्वपूर्ण हो सकता है.

 

2. 

राकेश श्रीमाल 

सबसे पहला आपने ऐसा क्या पढ़ा, जिसको पढ़कर लगा कि ऐसी चीज़ें पढ़नी चाहिए ?


भगवानदास मोरवाल

मुझे लगता है कि आपकी यह समझ कि किसी को पढ़कर यह तय कर पाना कि आपको क्या पढना चाहिए, इतनी ज़ल्दी नहीं बनती है. यह सही है कि संयोग से बचपन में जो पढ़ा वह आज की दृष्टि में साहित्यिक रचनाएँ ही हैं. लेकिन इन्हें इसलिए नहीं पढ़ा गया था कि इन्हें पढ़कर मैं यह तय कर पाता कि कि मुझे कैसी चीज़ें पढ़नी चाहिए. एक बात बताऊँ अपने शुरूआती दिनों में पढ़ने से ज़्यादा मैं लिखने लगा था. क्या लिखने लगा था यह मैं आज तक नहीं समझ पाया हूँ. यह इसलिए कि मैंने क्या नहीं लिखा. कविताओं के नाम पर जहाँ तथा कथित हास्य और गंभीर-सी तुकबंदियाँ कीं तो ग़ज़ल, जिन्हें मैं अक्सर गजल कहता हूँ उन्हें भी लिखने का प्रयास किया. कहानी के नाम पर ख़ुद को अभिव्यक्त किया, तो कुछ व्यंग्य भी लिखे. कहने का आशय यह है कि जिसमें लगा कि इससे नाम और शोहरत मिल सकती है, उसी में हाथ आजमाना शुरू कर दिया. इसका एक कारण था और वह यह कि मुझे शुरू में कभी कोई ऐसा साहित्यिक गुरू नहीं मिला, जो यह बताता कि लिखने से पहले पढ़ना क्यों ज़रूरी है. दरअसल, यह समझ समय के साथ-साथ अपने आप बनती चली गई कि कैसी चीज़ें पढ़नी चाहिए. वरना जब पढ़ने में रूचि जागने लगी, तब लोकप्रिय साहित्य से लेकर मनोहर कहानियाँ और इकबाल-राजन सीरीज़ को खूब पढ़ा.


ईमानदारी से कहूँ तो मुझे प्रेमचंद कौन है, इसके बारे में दिल्ली में ही आकर पता चला. और जब यह एहसास हुआ कि वास्तव में मुझे किस तरह का साहित्य पढ़ना चाहिए, तब भी मैंने प्रेमचंद को बहुत बाद में पढ़ा. इससे पहले मैंने फणीश्वरनाथ रेणु, राही मासूम रज़ा, शानी, अब्दुल बिस्मिल्लाह, श्रीलाल शुक्ल को पहले पढ़ लिया. मेरा अपना यह मानना है कि एक गल्पकार विशेषकर मुझ जैसे एक लेखकको साहित्येत्तर चीज़ें अधिकपढ़नी चाहिए. इसीलिए मेरी कोशिश रहती है कि मैं अधिक से अधिक समाजशास्त्रीय, ऐतिहासिक, धर्म और संस्कृति संबंधी चीज़ें पढूँ. इनको पढ़ने से मेरी समझ और दृष्टि न केवल व्यापक बनती है बल्कि अपने आपको भी इनसे समझने में आसानी रहती है. उदाहरण के लिए मैंने जब क़ुरान, मनुस्मृति और अन्य ऐसी पुस्तकों को पढ़ा, तब मुझे लगा कि एक लेखक को अपने समकालीन साहित्य को तो पढ़ना चाहिए ही बल्कि ऐसे साहित्य को भी पढ़ना चाहिए जिनसे हमारे लेखन के बहुत से महीन और बारीक  रेशे तैयार होते हैं. शायद यही कारण है कि अपने आसपास को देखने का नज़रिया मेरा बहुत स्पष्ट है. कभी-कभी यह नज़रिया पुस्तकों की अपेक्षा आपके उस वातारवरण से साफ़ होता है कि आप जिस दुनिया में रहते हैं, वह क्या है.

 

३.  

राकेश श्रीमाल 

कब उस पढ़े हुए पर ध्यान गया जब काला पानी कहे जानेवाले मेवात जैसे बेहद पिछड़े हुए इलाक़े के एक गाँव से, आए हुए एक युवा को एहसास हुआ कि लेखन भी जीवन में महत्वपूर्ण हो सकता है ?


भगवानदास मोरवाल 

यह बात नब्बे के दशक के एकदम शुरू की है. बीए करते ही रोज़गार की तलाश में मैं दिल्ली आ गया. दूसरे शब्दों में आप इसे पलायन भी कह सकते हैं. हालाँकि इस पलायन की मुख्य वजह शहर आकर किसी तरह का कैरियर बनाने की नहीं मेरी एक पारिवारिक वजह थी. जिस उम्र मैं आज के दौर में एक बीस-इक्कीस साला युवा अपने सपनो और आकांक्षाओं के खुले आकाश में कुलाँचें भरता है, उस उम्र में नब्बे के दशक में मेरी पारिवारिक जिम्मेदारियाँ दूसरी तरह की थीं. इस उम्र तक आते-आते मैं एक बच्चे का पिता बन चुका था. जैसाकि मैंने कहा था कि मेरा बचपन इस देश के उन असंख्य वंचित, उपेक्षित और अभावों में पले-पढ़े बच्चों की तरह रहा है, उसके साथ आप यह भी जोड़ सकते हैं कि आर्थिक विपन्नता ने युवावस्था में मुझे भी इस देश के उन असंख्य युवाओं की तरह पलायन पर विवश कर दिया. नब्बे के दशक के मध्य में जब मैंने दिल्ली के दिल कनाट प्लेस स्थित मोहन सिंह प्लेस के कॉफ़ी हाउस में जाना शुरू किया और यहाँ जब आने वाले लेखकों के बीच बहस-मुबाहिसों को सुनता, तब मुझे लगा कि पिछले कुछ वर्षों में मैंने जैसा भी कच्चा-पक्का लिखा और पढ़ा है, उसे विस्तार देना चाहिए. 


धीरे-धीरे अपनी ही कविताओं में परिपक्वता और सुघड़ता आने लगी. शुरूआती जो कहानियाँ कहानियों की मूल शर्तों को पूरा करने में असफल थीं, आने वाली कहानियों के सरोकार और व्यापक होने लगे. इन दिनों पहली बार इस पर ध्यान गया कि मैंने अपने स्कूली दिनों में अपने पड़ोसी ओमी मास्टर की पाठशाला और अपने क़स्बे के राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के पुस्तकालय से लेकर जो किताबें पढ़ीं, उनका महत्व अब समझ में आने लगा था किलेखन भी जीवन में महत्वपूर्ण हो सकता है.

 


4.  

राकेश श्रीमाल 

इस नब्बे के शुरूआती दशक में आप दिल्ली आए, और इन शुरूआती दिनों में जब धीरे-धीरे यहाँ के साहित्यिक परिवेश में घुलने-मिलने लगे, तो इस परिवेश में आप अपने आपको किस तरह महसूस करते थे ? कैसा लगता था उन दिनों ?


भगवानदास मोरवाल 

राकेश जी, दिल्ली का साहित्यिक परिवेश दरअसल हमेशा से कई परतों या कहिए कई रूपों में बंटा रहा है. ये परतें आज भी दिखाई दे जाएँगी. इसे उदहारण के रूप में इस तरह समझा जा  सकता है. आज की तरह इसका एक रूप तो वह था जो वैचारिक रूप से वामपंथी होने के कारण एक बड़ा लेखक वर्ग इसमें शामिल था. हमारे लेखक संघ जैसे जनवादी लेखक संघ और प्रगतिशील लेखक संघ भी उन दिनों बेहद सक्रिय थे. 


दूसरा रूप वह था जो किसी लेखक संघ में नहीं थे या जिनका आज की तरह यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि उनकी विचारधारा क्या है. इसके बावजूद ये दोनों तरह के लेखक आपस में खूब विचार-विमर्श करते. इनके अलावा दिल्ली के विभिन्न दिशाओं में कवि, कथाकारों के छोटे-छोटे समूह थे. यहाँ एक बात और बता दूँ लेखक संघों से जुड़े होने के बाद भी लेखकों के ऐसे कुनबे भी थे जो संगठित तरीके से काम करते. मसलन एक संगठन हुआ करता था राइटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया. इस संगठन की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि इसका कोई व्यक्ति भले ही वह लेखक ना हो, इसका सदस्य हो सकता था. इस संगठन के सर्वेसर्वा सालों तक हिंदुस्तान टाइम्स समूह की पत्रिका ‘कादम्बिनी’के संपादक राजेंद्र अवस्थी हुआ करते थे. 


बल्कि नब्बे के दशक में एक ऐसा ही एक और स्कूल था जिसकी चर्चा मैं यहाँ विशेष रूप से करना चाहूँगा, और यह स्कूल था डॉ. जीवन प्रकाश जोशी स्कूल. डॉ. जीवन प्रकाश जोशी ‘सन्धान’ नाम की एक संस्था के संस्थापक थे और त्रिशंकु प्रकाशन के अंतर्गत युवा कवियों को प्रोत्साहित करते थे. ‘सन्धान’ भी समय-समय पर साहित्यिक आयोजन किया करता था. इसी तरह एक और कुनबा था हमारे कवि-कथाकारों का जिससे जुड़े लेखकों को आईटीओ पुल कवि कहा जाता था. इस कुनबे के ज़्यादातर लेखक टाइम्स ऑफ़ इंडिया और इंडियन एक्सप्रेस समूहों की पत्र-पत्रिकाओं से जुड़े लेखक-पत्रकार हुआ करते थे. संयोग से मेरा थोड़ा-बहुत वास्ता इन सारे तरह के लेखकों से रहा है.


1981 के लगभग अंत में दिल्ली आने के बाद मेरा सबसे पहले वास्ता एकदम शौकिया लेखकों से पड़ा. उन दिनों छोटी-छोटी पत्रिकाओं को निकालने का बड़ा शौक था. चूँकि मैं दिल्ली लेखक बनने नहीं अपितु रोज़गार की तलाश में आया था इसलिए मैंने कभी न तो किसी लेखक की विचारधारा पर ध्यान दिया, न कभी इस पर कि वह कैसा लिखता है. मेरी नज़र में हर वह व्यक्ति लेखक था जो कुछ-न-कुछ लिख रहा है. मैं 1981 में मेवात से दिल्ली के नारायणा में अपने ही गाँव के लाला की जिस लोहे की चादर तपाने वाली फेक्ट्री में काम करता था, एक दिन पता चला यहाँ पास की एक प्रिंटिंग प्रेस में एक पत्रिका मुद्रित होती है. चूँकि मैं अपने गाँव से आए युवा मज़दूरों के साथ फेक्ट्री में रहता था इसलिए पत्रिका के कार्यालय को खोजने में दिक्कत नहीं हुई और इस तरह इस मासिक पत्रिका ‘मंजुली दर्पण’से मैं जुड़ गया. धीरे-धीरे मैं लेखकों से जुड़ता चला गया. इसी क्रम में 1986 या शायद 1987 में मैं हिंदी के एक कथाकार और सालों तक एक लघु पत्रिका निकालने वाले धर्मेंद्र गुप्त के साथ पहली बार दिल्ली के कनाट प्लेस स्थित मोहन सिंह प्लेस के कॉफ़ी हाउस गया.


एक तरह से कॉफ़ी हाउस जाना मेरे लिए इस रूप में वरदान साबित हुआ कि मैं अब उन लेखकों से मिलने लगा, जिन्हें तब और आज भी ‘लेखक’ माना जाता है. भीष्म साहनी, विष्णु प्रभाकर, रमाकांत, पंकज बिष्ट और दूसरे ने लेखकों से मेरा यहीं परिचय हुआ. आपका सवाल है कि इन शुरूआती दिनों में जब धीरे-धीरे यहाँ के साहित्यिक परिवेश में घुलने-मिलने लगे, तो इस परिवेश में आप अपने आपको किस तरह महसूस करते थे ? कैसा लगता था उन दिनों ? सच कहूँ दिल्ली के जिस साहित्यिक परिवेश की हम कल्पना करते हैं, उस परिवेश से पहली बार मेरा सामना इसी कॉफ़ी हाउस में हुआ. मैं यहाँ बिना नागा हर शनिवार को आता और लेखकों के बीच होने वाली बहसों को चुपचाप सुनता रहता. हर शनिवार किसी-न-किसी नए विषय पर जम कर बहस होती और रात दस बजे ये बहसें तब खत्म होतीं, जब कॉफ़ी हाउस का बंद होने का समय होता. हर तरह के नए-पुराने लेखकों से यहाँ मिलना होता.  इनके बीच होनेवाली बहसों को सुनते एहसास हुआ कि मुझे क्या पढ़ना चाहिए. जब-जब मैं यहाँ भीष्म साहनी और विष्णु प्रभाकर को देखता, तोयही सोचत्ते हुए एक रोमांच से भर जाता कि मैंने हिंदी के इन बड़े लेखकों को बेहद करीब से देखा है. इसके बाद मेरे लेखन की जो दिशा बदली उसका सारा श्रेय मैं इसी कॉफ़ी हाउस को देता हूँ.


5.  

राकेश श्रीमाल 

अच्छा एक बात बताइए आपने जैसा कहा कि शुरूआत में आपने कविताएँ लिखीं. फिर कहानियों पर आए और अंतत: आपने उपन्यास की शरण में जाकर दम लिया. ऐसा क्या हुआ कि एक अच्छा-ख़ासा लेखक जिसमें कवि होने की भरपूर संभावनाएँ थीं वह कविता से विमुख हो गया अथवा उसका कविता से मोहभंग हो गया ?


भगवानदास मोरवाल

यह सही है कि मेरी भी अपने लेखन की शुरूआत बहुत से लेखकों की तरह ‘कविता’ के नाम पर लिखी गई कविताओं से हुई.  नब्बे के दशक में मेरी कविताएँ न केवल पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई, बल्कि 1990 में मेरा ‘दोपहरी चुप है’ शीर्षक से एक कविता संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है. इसी दशक में एक समय ऐसा था जब कादम्बिनी जैसी पत्रिका के दिसंबर 1986 के अंक में ‘प्रवेश’ स्तंभ के तहत मेरी चार कविताएँ प्रकाशित हुईं. मैं इस पत्रिका और इसके इस स्तंभ का इसलिए उल्लेख कर रहा हूँ कि इसके अंतर्गत संभावनाशील युवा कवियों की कविताएँ प्रकाशित होती थीं और उन दिनों मेरी एक पहचान ठीकठाक युवा कवि के रूप में बन चुकी थी. ये कविताएँ संपादक की इस टिप्पणी के साथ प्रकाशित हुईं – उनकी कविताएँ एक रहस्यात्मकता का आवरण लेकर चलते हुए विसंगतियों को पहचान कर उकेरने की कोशिश करती प्रतीत होती हैं.’

 


इसी तरह ‘दोपहरी चुप है’ जोकि मेरा एकमात्र कविता संग्रह है, आमुख में गीतकार और कवि विजय किशोर मानव लिखते हैं कि ‘भगवानदास मोरवाल जैसे युवा कवि से, जिनका पहला कविता संग्रह आपके हाथों में है, सारी उम्मीदें नहीं की जा सकतीं. पर इस नए कवि में एक बात आमतौर पर मिलाती है और वह है अनगढ़ता के बावजूद ऊर्जा का अत्यंत व्यापक और तेजस्वी संसार. पुराना होने के साथ-साथ कवि शिल्पगत चालाकियों से जुड़कर अपनी धार और अभिव्यक्ति की तीव्रता खोटा जाता है और विषय वस्तु का क्षेत्र सिमटता जाता है.’


यह छोटी-सी भूमिका मैंने इसलिए बनाई है कि मेरे लेखन की जो शुरूआत कविता के नाम पर तुकबंदियों से हुई थी, उसमें एक संभावनाशील कवि की पूरी गुंजाईश थी. अपनी अनगढ़ताओं के बावजूद इनमें ऊर्जा का व्यापक और तेजस्वी संसार मौजूद था. लेकिन धीरे-धीरे मैं क्यों कविता से विमुख होता गया उस पर आता हूँ. दरसअल, हर लेखक के लेखकीय जीवन में एक लंबा समय ऐसा होता है जब उसे सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने लेखन से होता है. एक तरह से उसे अपने प्रकाशन से इतना मोह और इसके प्रति वह इतना आग्रही होता है कि जो भी उसके मन में विचार आते हैं उसे वह अभिव्यक्त करता जाता है. उसकी विधागत रूचि और रुझान थोड़े-थोड़े समय पर बदलते रहते हैं. ऐसे में वह तय नहीं कर पाता है कि वास्तव में उसकी मेधा किसके अनुरूप है ? उसे अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम किस विधा को बनाना चाहिए ? कभी वह अपने आप को पद्य के माध्यम से अभिव्यक्त करने की कोशिश करता है, तो कभी गद्य के माध्यम से. दरअसल, मैं इसे लेखक की एक तरह से लेखकीय अभ्यास मानता हूँ जो आगे चलकर उसकी दिशा तय करता है कि वह अपने आपको साहित्य की सीमाओं और शर्तों की परिधि में रहते हुए किस में सहज पाता है.


हालाँकि इस कविता संग्रह के बाद भी मैंने कविताएँ लिखीं लेकिन जैसे-जैसे मेरा हाथ गद्य अर्थात कथा-लेखन में सधता गया, कविता मुझसे छूटती चली गई. एक बात और मैं बताऊँ कि बहुत ज़ल्दी मुझे यह एहसास हो गया कि मेरा जिस तरह का जीवन और समाज रहा है, उसके लिए कविता में मेरे लिए कोई विशेष स्पेस नहीं है. अपने अनुभवों को शब्द देने के लिए मुझे बाद में कहानी विधा में अपार संभावनाएँ नज़र आईं लेकिन कविता की तरह उसने भी मेरा या कहिए मैंने उसका साथ छोड़ दिया, औरबकौल आप अंतत: उपन्यासकी शरण में आ गया. शीघ्र ही मेरी यह समझ में आ गया कविता के लिए जो शिल्पगत मुलामियत और बारीकियाँ होनी चाहिए, वे मेरे पास नहीं हैं. अपने अनुभवों, प्राप्त तथ्यों को किस तरह कल्पना के सहारे उसे उपन्यास के माध्यम से विश्वसनीय और प्रामाणिक बनाया जाना चाहिए, शायद वह कला मुझसे सध गई है. इसलिए मैं अपने आपको सबसे ज़्यादा सहज उपन्यास में पाता हूँ. मुझसे कविता और कहानी छूटने का एक कारण यही हो सकता है.   

 


6. 

राकेश श्रीमाल

हिंदी साहित्य का गद्य लेखन इन दिनों किस तरफ़ जा रहा है ? क्या उसमें आपको गंभीरता दिखाई देती है ?


भगवानदास मोरवाल 

आपका यह सवाल थोड़ा असहज करने और एक हद तक चौंकाने वाला है कि हिंदी साहित्य का गद्य लेखन इन दिनों किस तरफ़ जा रहा है ? क्या उसमें आपको गंभीरता दिखाई देती है ? हिंदी गद्य की जब बात होती है तो मैं इसे दो हिस्सों में बाँट कर देखता हूँ. एक वह लेखन जिसे पत्रकारिता का गद्य कहा जाता है और दूसरा सर्जनात्मक लेखन, विशेषकर कथा साहित्य और कथेतर साहित्य का गद्य. पता नहीं क्यों इन दिनों जितनी बातें हिंदी साहित्य के गद्य लेखन की होने लगी हैं, उतनी कविता की नहीं होती है. मुझे इसका सबसे बड़ा कारण यह लगता है कि कविता से अधिक एक पाठक को गद्य लेखन से कई तरह की अपेक्षाएं रहती हैं. इधर एक बात और देखने में मिली है कि जिस तरह प्रकाशन की असीम संभावनाएँ और पुस्तक प्रकाशन के अवसर मिलने लगे उससे भी इस तरफ़ हमारा ध्यान गया.


जिस तरफ़ आपका इशारा है मैं समझता हूँ वह यह है कि आख़िर गद्य की भाषा कैसी होनी चाहिए. इधर हिंदी साहित्य के छोटे-बड़े पंडित बड़ी निराशा के साथ अक्सर यह कहते हुए पाए जाएँगे कि हिंदी के लेखक को अपने पाठक के अनुरूप भाषा का इस्तेमाल करना चाहिए. मेरा इनसे पलट कर यह सवाल है कि क्या भाषा सिर्फ़ एक पाठक की होती है, लेखक की अपनी कोई भाषा नहीं होती ? 


यह सवाल पिछले एकाध साल से और ज़्यादा उठने लगा है. कई पंडित तो यहाँ तक कहते-सुनते देखे जा सकते हैं कि गंभीर साहित्य का पाठक कम होता जा रहा है. मेरा मानना है कि पानी की तरह भाषा का भी अपना कोई रंग या रूप नहीं होता. भाषा की अपनी कोई जाति नहीं होती. हम जो अपने अनुभवों, भाषायी और लोक-संस्कारों से जो मुहावरा गढ़ते हैं, वही भाषा के स्वरूप को निखारती है. दुर्भाग्य से सबसे ज़्यादा हमारे पूर्वाग्रहों और दुराग्रहों का शिकार हमारी भाषा ही रही है. 


कई बार हम सिनेमाई भाषा या साहित्य के नाम पर उस भाषा को भी उसी भाषा का पर्याय मान बैठते, जिनसे समाज को देखने की हमारी समझ विकसित होती है. भाषा का असल काम विचारों का निर्माण करना होता है. यह बात निर्मल वर्मा बहत पहले कह चुके थे. रही बात हिंदी साहित्य के गद्य लेखन की, सो उसमें भी एक रूप नागरीय गद्य का है, तो दूसरा रूप वह जो जीवन की जीवटता और उसके व्यावहारिक क्रिया-कलापों से निर्मित होती है. दूसरी बात यह कि भाषा, भाषा होती है. कोई नई या पुरानी नहीं. जिसे जो भाषा आती है, या जिसने जो भाषा सीखी है वह उसमें अपनी बात कहती है. हमें यह तो स्वीकारना पड़ेगा कि मनुष्य के दूसरे व्यावहारिक अनुशासनों की तरह भाषा का भी अपना एक एक अनुशासन होता है. यह अनुशासन हर लेखक का अपना होता है. नई या पुरानी भाषा के नाम परभाषायी अराजकता से, विशेषकर गद्य लेखन को कुछ हासिल होने वाला नहीं है. मुझे जो भाषा आती है मैं उसी में अपना गद्य रचूँगा. अब यह पाठक और उसकी भाषायी समझ और क्षमता पर निर्भर करता है कि वह इसे कैसे ग्रहण करता है.


जहाँ तक मौजूदा हिंदी साहित्य के गद्य लेखन की गंभीरता का प्रश्न है, इसे हमें इसके लेखकों पर ही छोड़ देना चाहिए. पाठक के नाम पर हमें निजी फतवों से बचना चाहिए. यह तो समय तय करेगा कि पाठक किस गद्य को स्वीकार करेगा. लेखक को अपने भाषायी संस्कारों से विमुख नहीं होना चाहिए. मज़े की बात यह है कि ऐसी फ़तवेबाज़ी सिर्फ़ और सिर्फ़ भारतीय भाषाओं में संभव हैं. किसी को आपने अंग्रेज़ी के बारे ऐसा कहते-सुनते नहीं देखा होगा. सच तो यह कि लेखक भाषा का पहेरुआ भी होता है. उसकी कुछ ज़िम्मेदारियाँ तय होती हैं. अब यह लेखक पर निर्भर करता है कि वह अपनी इन जिम्मेदारियों का कैसे और किस हद तक निर्वाह करता है. मैं अगर अपनी बात कहूँ तो मुझे हिंदी साहित्य में पूरी तरह गंभीरता नज़र आती है. मैं इसके प्रति पूरी तरह आश्वस्त हूँ.         

 


7.

राकेश श्रीमाल 

क्या कोई लेखक व्यक्तिगत जीवन से बाहर निकल कर वर्तमान दौर में लिख सकता है ?


भगवानदास मोरवाल 

राकेश जी, अगर मैं पूरी ईमानदारी के साथ कहूँ तो मेरा मानना है कि वर्तमान दौर लेखकों और संस्कृतिकर्मियों के लिए सबसे चुनौतीभरा दौर है. यह एक ऐसा दौर है कि बड़ी तेज़ी से हमारे प्रगतिशील वर्ग को हाशिए पर धकेलने की कोशिश हो रही है. कभी इसे पिछले सत्तर सालों के नाम पर धकेलने का प्रयास किया जा रहा है, तो कभी इसे विचारधारा के नाम पर. बहुसंख्यकवाद का जितना विकृत रूप आज हमें देखने को मिल रहा है शायद इससे पहले कभी नहीं था. विचारों की जिस तरह हत्या करने की कोशिश की जा रही है, ऐसी कोशिश कभी नहीं हुई. हमारी उदारता ने जिस निर्ममता के साथ हिंसात्मक रूप ले लिया है, वह अकल्पनीय है. सच तो यह यह समय हमारे सरोकारों की परीक्षा का है. वंचित, उपेक्षितों और हाशिए पर लाकर खड़े कर दिए वर्गों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता प्रदर्शित करने का है.


अब सवाल यह उठता है कि ऐसे दौर या कहिए निर्मम समय में कोई लेखक अपने व्यक्तिगत जीवन से बाहर निकल कर अपने सरोकारों और प्रतिबद्धता को प्रदर्शित कर सकता है. प्रदर्शित करना तो दूर रहा, क्या वह लिख कर अपनी बात इन वंचितों, उपेक्षितों और हाशिए पर धकेल दिए गए समुदायों के पक्ष में कह सकता है ? लगभग यही स्थिति संस्कृतिकर्मियों और सिनेमा से जुड़े कलाकारों की है. यह स्थिति तब और भयावह रूप ले लेती है, जब एक धर्म विशेष के लोग सेलेक्टिव तरीक़े से दूसरे समाज के लेखकों, संस्कृतिकर्मियों और कलाकारों को अपनी संकीर्णता का निशाना बनतेहै. धर्म की आड़ में जिस तरह अराजकता, लंपटता और फूहड़ता के साथ समाज को बाँटने की कोशिश हो रही है, एकप्रगतिशीलसोच के व्यक्ति का चाहे वह किसी भी धर्म या समुदाय संबंध रखता है, उसका दायित्व है वह इसका रचनात्मक तरीके से अपनी आवाज़ बुलंद करे. मगर दुर्भाग्य से बड़े ही सुनोयोजित तरीक़े से ऐसा नेरेटिव गढ़ने का प्रयास किया जा रहा, जैसे हमारे समाज को आज लेखकों, संस्कृतिकर्मियों और कलाकारों की ज़रूरत ही नहीं है. एक तरह से आज असहमति के नाम पर अभिव्यक्ति की आज़ादी पर मानो पहरा बैठा दिया गया है. एक लेखक को क्या कहना या लिखना है, उसकी अब ऐसे अराजक तत्वों से इजाज़त लेने के लिए कहा जा रहा है, जिनका ज्ञान से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं रह गया है. 


राजनीति का तो इस समय सबसे बुरा हाल है. प्रेमचंद का यह कथन कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है तो पूरी तरह भारतीय राजनीति से ग़ायब हो चुका है. सच तो यह है कि अब समाज सिर्फ़ दो ही चीज़ों से संचालित हो रहा है.ये हैं एक धर्म और दूसरा राजनीति. राजनीति में धर्म जिस तरह एक निर्णायक की भूमिका निभाने लगा है,उसने एक लेखक के सामने कई तरह की चुनौतियाँ खड़ी करती हैं. अभी तक लेखक अंधविश्वास, सांप्रदायिकता, धार्मिक कट्टरता, जातिवाद और अन्य सामाजिक व्याधियों के प्रति अपने नागरिक को जागृत करने का काम करता था, अब उसे धर्म में लिथड़ी उस राजनीति से भी जूझना पड़ रहा है जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी.


मेरा मानना है कि भारत जैसे सांस्कृतिक बहुलतावादी देश के लिए यह स्थिति कम ख़तरनाक नहीं है. सच तो यह है कि ग़लत को ग़लत न कहने के लिए जिस तरह लेखक पर दबाव बढ़ता जा रहा है, वह चिंतनीय है. लेकिन लेखक को ऐसेख़तरे तो उठाने पड़ेंगेही. बिगाड़ के डर से ईमान की बात ना कहने की भावना से अपने आपको बाहर लाना होगा.     

 


8. 

राकेश श्रीमाल

आपके जीवन में मानवीयता और प्रेम का वास्तविक अर्थ क्या है ?


भगवानदास मोरवाल 

आपका यह सवाल इतनी दार्शनिकता लिए हुए है कि इसका उस तरह जवाब देना कम-से-कम मुझ जैसे व्यक्ति के बस की बात नहीं है, जैसी आपकी अपेक्षा है. क्योंकि ये दोनों शब्द अपने आप में इतनी व्यापकता लिए हुए हैं कि इनकी परिभाषाकी व्याख्या करना आसान नहीं है. सच तो यह है कि मानवीयता और प्रेम की इतनी बारीक और महीन वटें व परतें हैं कि इन्हें चाहे जितना खोलते जाओ, इनका अंत नहीं होने वाला. मानवता के बारे में मेरी राय अगर पूछें तो मेरी नज़र में मोटा-मोटा मानवता का अर्थ है बिना किसी भेदभाव के, बिना ग़रीबी-अमीरी के, बिना किसी धर्म-मज़ह्ब  के आधार पर, बिना किसी लोभ-लालच अथवा स्वार्थ के नि:सहाय, निर्बल, वंचित, बेबस, लाचार, उपेक्षित और हाशिए के लोगों की मदद करना.मनुष्य होने के नाते एक-दूसरे के काम आना ही प्रत्येक व्यक्ति का प्रथम कर्तव्य है.  


अपने परिवार, समाज, धर्म ही नहीं अपितु समस्त मानव प्राणी के हित में कर्म करना ही मानवता है. इस धरती पर इंसान तो बहुत हैं,  मगर सही मायने में इंसान वही है जिसमें इंसानियत यानि मानवता है.  सच्चा इंसान वही है जो अपने स्वार्थ से परे होकर दूसरों के दु:खों को साझा करने का प्रयत्न करे.  दूसरे शब्दों में कहूँ तो मानवता एक ऐसा सद्गुण है जो मूल रूप से दूसरों के हित आधारित, अर्थात परहितवादी नैतिकता से संबंधित है। इसकी उत्पत्ति मानव अस्तित्व की मूलभूत दशाओं की समझ से होती है और इसमें एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य के प्रति करुणा और प्रेम की भावनाएँ निहित हैं. 


जबकि प्रेम जिसे हम कई नामों जैसे प्रणय, स्नेह, अनुरक्ति, अनुराग, प्यार आदिकई नामों से संबोधित करते हैं, वास्तव में एक एहसास है, एक अनुभूति है, एक भाव है ; जो दिमाग से नहीं दिल से होता है. यह एक मज़बूत आकर्षण और निजी संबंधों का आधार होता है जिसमें हवस या वासना की कोई जगह नहीं होती.  वास्तविक सच्चा प्रेम वह होता है जो सभी हालातों  में आपके सुख-दु:ख में काम आए.यह प्रेम ही है जो हमारे अंदर जीने की जिजीविषा पैदा करता है.

 

राकेश श्रीमाल 

यह समय आपको किस तरफ़ ले जा रहा है और आप किस तरफ़ जाना चाह रहे हैं ?


भगवानदास मोरवाल 

सच कहूँ तो यह बेहद अनिश्चितताओं से भरा समय है. इसकी अतलता कान तो किसी को कोईगुमान है, न अनुमान. किसी को नहीं पता कि वह जाना किस तरफ़ चाहता है और वह जा किस तरफ़ रहा है. इसका एक बड़ा कारण शायद यह है कि आज समय की नकेल निरंकुश, अराजक औरसत्ता के आवारा अश्वों के हाथों में आ गई है. हम जिस तरफ़ जाना चाह रहे हैं, उस तरफ़ जाने से हमें रोका जा रहा है. यह समय वास्तव में अराजक दुरभिसंधियों का चाकर बन कर रह गया है. भय और अदृश्य आशंकाओं के बीच हमारी ज़्यादातर कल्याणकारी और मानवतावादी सोच एक ऐसे घटाटोप में भटक कर गई है, जहाँ से लौटने में लंबा वक़्त लग जाए. मुझे तो लगता है कि इसमें बेचारे इस समय का कोई दोष नहीं हैं. सच तो यह है कि समय किसी को किसी तरफ़ नहीं ले जा रहा है. बल्कि हम समय को अपनी सुविधा और इच्छा से हाँकने का प्रयास कर रहे हैं. शायद हम ऐसे ही अराजक समय के लायक हैं और हम ख़ुद ही उस तरफ़ जाना चाहते हैं, जहाँ हमें नहीं जाना चाहिए. नियति और समय के मानो हमने विवेक को गिरवी रख दिया है. बावजूद इसके मैंअपनी बात कहूँ तो जाना मुझे उसी तरफ़ है जिस तरफ़ मैंने तय किया हुआ है. भले ही समय की सान से उठती चिंगारियाँ कितनी ही मेरी आँखों में घुसें. फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने शायद ही ऐसे समय के लिए कहा था कि-

 

            हम देखेंगे
            लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
            वो दिन
            कि जिसका वादा है
            जो लौहे-अज़ल में लिखा है
            जब ज़ुल्मो-सितम के कोहे गरां
            रुई की तरह उड़ जाएँगे. 
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(सहयोग डॉ. आलोक कुमार सिंह )




ख़ा न ज़ा दा
भगवानदास मोरवाल 


सुल्तान सिकंदर शाह लोदी की 21 नवंबर, 1517 ईस्वी में मृत्यु हो गई.  उसकी मौत के बाद सुल्तान सिकंदर शाह लोदी के अमीर-उमरा और ओहदेदारों ने मिल कर उसके पुत्र इब्राहीम खाँ को उसके भाइयों जलाल खाँ, इस्माइल खाँ, महमूद खाँ, हुसैन खाँ और आज़म खाँ की मौजूदगी में देहली का सुल्तान बना दिया.  हालाँकि इब्राहीम खाँ और जलाल खाँ दोनों माँजाए थे, मगर इब्राहीम खाँ अपनी बहादुरी, साहस और क़ाबिलियत के चलते, जलाल खाँ और दूसरे भाइयों पर भारी पड़ा.  क्योंकि वह अपने वालिद सुल्तान सिकंदर शाह लोदी की अनुपस्थिति और समय-समय पर उसके मददग़ार के रूप में शासन की ज़िम्मेदारियों सँभाल चुका था.  हालाँकि अफ़ग़ानों के एक दल ने जलाल खाँ का पक्ष लिया.  इसलिए इससे पहले कि दोनों भाइयों के बीच सत्ता-संघर्ष की नौबत आती, यह फ़ैसला किया गया कि इब्राहीम खाँ देहली की गद्दी सँभाल कर जौनपुर की सीमाओं तक हुकूमत करेगा, और छोटा भाई जलाल खाँ कालपी और चंदेरी से लेकर जौनपुर पर शासन करेगा.  देहली की तरह जौनपुर उसकी राजधानी होगी.  यूँ तो इब्राहीम खाँ इस बँटवारे से ख़ुश नहीं था, क्योंकि सल्तनत का बँटवारा होने के कारण उसकी हुकूमत का इलाक़ा कम हो गया, जिसके चलते आमदनी भी कम हो गई.  मगर इसके अलावा उसके सामने कोई रास्ता भी नहीं बचा.  अमीर-उमरा भी आपस में बँट गए, इसीलिए उसकी ताक़त और अधिकार कम हो गए.  इस बँटवारे से इब्राहीम खाँ और जलाल खाँ के बीच पैदा हुए मन-मुटाव का नतीजा यह हुआ कि अमीर-उमरा को अपनी ताक़त बढ़ाने का मौक़ा मिल गया. 

सल्तनत के बँटवारे के बाद जलाल खाँ जौनपुर चला गया.  जलाल खाँ के जाने के बाद इब्राहिम खाँ ने अपना राज्याभिषेक करवा लिया.  इस बँटवारे की ख़बर जैसे ही रापड़ी के अमीर ख़ान जहान को मिली, वह तुरंत आगरा आया.  आते ही उसने उन अमीरों को बहुत फटकारा जिन्होंने इस बँटवारे का सुझाव दिया था.

“ऐ ख़ुदावंद अमीरों ! अब भी वक़्त है कि इस बँटवारे को रद्द कर हम सबको वली अहद इब्राहिम खाँ की मदद करनी चाहिए और हमें उनका साथ देना चाहिए !”

“जनाब ख़ान जहान, आप दुरुस्त फ़रमा रहे हैं.  हमें वली अहद इब्राहिम खाँ का ही साथ देना चाहिए. ” एक अमीर ख़ान जहान से सहमत होते हुए बोला. 

“हाँ-हाँ हमें उन्हीं का साथ देना चाहिए. ” अमीर के इतना कहते ही एक स्वर में दूसरे अमीर बोले.

इधर जैसे ही आगरा के अमीरों ने इब्राहिम खाँ का साथ देने का ऐलान किया, उसने अपने एक अमीर हैबत खाँ गुर्ग अंदाज़ को अपने भाई जलाल खाँ के पास इस फ़रमान के साथ भेज दिया कि वह तुरंत आगरा आ जाए, ताकि सल्तनत के बँटवारे पर सारे अमीर एक बार फिर से विचार कर लें.  मगर इब्राहिम खाँ का भाई जलाल खाँ इसके लिए तैयार नहीं हुआ.  उसे कुछ संदेह हुआ इसलिए उसने आगरा आने से मना कर दिया.  जलाल खाँ के मना करने के बावजूद इब्राहिम खाँ ने हार नहीं मानी.  बिहार, ग़ाज़ीपुर, अवध और लखनऊ के अमीरों को घोड़े, ख़िलअत, जड़ाऊ करौली और दूसरे उपहारों का लालच देकर, वह उन्हें अपने अधीन करने में कामयाब हो गया.  ये सब अब जलाल खाँ के ख़िलाफ़ हो गए.  इब्राहिम खाँ ने अपने छोटे भाइयों इस्माइल खाँ, महमूद खाँ और हुसैन खाँ को गिरफ़्तार करवा कर क़ैदख़ाने में डलवा दिया.  कालपी को छोड़ कर इब्राहिम खाँ के हाथों में अब पूरा उत्तर भारत आ गया.  अपने उमरा और हिंदुस्तान की आवाम को यह दिखाने के लिए कि वही उनका एकमात्र शासक है, उसने एक महीने बाद अपना दूसरा राज्याभिषेक करवाया.

उधर, इब्राहिम खाँ के छोटे भाई जलाल खाँ ने अपने आपको सुल्तान घोषित कर कालपी में जलालुद्दीन की पदवी धारण कर, अपने नाम का ख़ुतबा पढ़वाया और फ़तह खाँ शेरवानी को अपना वज़ीर नियुक्त कर दिया.  साथ ही अपने बड़े भाई इब्राहिम खाँ लोदी के पक्के इरादों को देखते हुए जलाल खाँ अर्थात जलालुद्दीन ने कालपी और आसपास के ज़मींदारों और राजाओं को अपनी तरफ़ मिला लिया.  इसके बावजूद जलालुदीन शाही सेनाओं के सामने ज़्यादा दिनों तक नहीं टिक पाया और हार कर उसे मालवा में जाकर शरण लेनी पड़ी.  इस तरह इब्राहीम लोदी न सिर्फ़ अपने ही भाई के विद्रोह को कुचलने में कामयाब हो गया बल्कि ग्वालियर क़िले को जीत कर लोदी सल्तनत का विस्तार भी कर लिया.

 

सुल्तान इब्राहिम शाह लोदी ने एक दिन ख़ानज़ादा हसन खाँ मेवाती को दरबार में बुलवाया.

“सुल्तान, आपने याद फ़रमाया ?”

“हाँ हसन.  आइए, इधर बैठिए हमारे पास !”

“कोई ख़ास बात सुल्तान जो...”

“आप बैठिए तो सही.” इब्राहिम लोदी मुस्कराते हुए हसन खाँ मेवाती के वाक्य को बीच में काटते हुए बोला. 

हसन खाँ मेवाती ने इसके बाद कोई प्रश्न नहीं किया और चुपचाप इब्राहिम लोदी के बग़ल में बैठ गया.

“हसन, यह तो हमें एक-दूसरे को बताने की ज़रूरत नहीं है कि हमारी और आपकी वालिदा दोनों सगी बहनें हैं.  इसलिए हम दोनों मौसेरे भाई हुए. ”

“जी सुल्तान. ”

“इसलिए एक भाई होने के नाते मेरा यह फ़र्ज़ बनता है कि हमारे दादा जान से जाने-अनजाने जो एक छोटी-सी गफ़लत हो गई थी, उसे मैं सुधार लूँ. ”

“मैं कुछ समझा नहीं सुल्तान ? आपके दादा जान जनाब सुल्तान बहलोल लोदी से ऐसी कौन-सी गफ़लत हो गई थी, जिसे आप आज इतने सालों के बाद अब सुधारना चाहते हैं ?” हसन खाँ मेवाती ने हैरान होते हुए पूछा.

“हुई थी, और वह यह थी कि हमारे दादा जान ने आपके पड़दादा गुल गोरख यानि अहमद खाँ की जागीर के सात परगने उनसे छीन कर अलग कर दिए थे.”

“यह सब आपको आज भी याद है सुल्तान ?”

“हसन, जंग में हुई शिकस्त और अपने दुश्मन से लूटी या छीनी गई जागीर कोई भी सुल्तान या बादशाह कभी नहीं भूलता है.”

“सुल्तान, फिर अब आप क्या करना चाहते हैं ?”

“हम चाहते हैं कि उन परगनों को आपको वापिस लौटा दिया जाए.  अपने पुरखे के गुनाह के बोझ को मैं अपने सर से उतार देना चाहता हूँ हसन.”

“यह तो आपकी दरियादिली और बड़प्पन है सुल्तान.”

“और एक बात, चूँकि ख़ानज़ादों ने कभी बादशाह देहली की ग़ुलामी क़बूल नहीं की, इसलिए हम आपको शाहे-मेवात के ख़िताब से भी नवाज़ते हैं.  इसलिए आज से आप हमारी तरफ़ से शाहे-मेवात के रूप में आज़ाद हुक्मरान की तरह मेवात पर हुकूमत करने के लिए आज़ाद हैं.”

“सुल्तान, आपका बहुत-बहुत शुक्रिया.  आपके इस एहसान का मैं ता-उम्र फ़रामोश रहूँगा सुल्तान इब्राहिम शाह. ” अपनी जगह से खड़े होकर हसन खाँ मेवाती ने पूरी विनम्रता के साथ कोर्निश करते हुए कहा.      

शाहे-मेवात ख़ानज़ादा हसन खाँ मेवाती के पड़दादा गुल गोरख यानि अहमद खाँ की जागीर से सुल्तान इब्राहिम खाँ लोदी के दादा सुल्तान बहलोल लोदी ने, जो सात परगने अलग कर दिए थे, उन्हें इब्राहिम खाँ लोदी ने अलावल खाँ के पुत्र अर्थात अपने मौसेरे भाई हसन खाँ मेवाती को वापिस कर दिए.

इब्राहिम लोदी के इस ऐलान के बाद शाहे-मेवात हसन खाँ मेवाती अलवर लौट आया.  अलवर आने के बाद हसन खाँ के पिता ख़ानज़ादा अलावल खाँ ने अरावली पर स्थित जिस क़िले को निकुम्भों से पुन: मुक्त कराया था, हसन खाँ ने इसकी फिर से नींव डाली.  तीन मील लंबे और एक मील चौड़े क़िले के चारों तरफ़ अट्ठारह हाथ ऊँची अभेद्य दीवार के साथ; इसके भीतर एक शाही महल, चार कुंड, एक तालाब, बावड़ी और कई कुएँ बनवाए.  क़िले के अंदर पश्चिमी दिशा के ढलान में पूरब की तरफ़ दुश्मन से बचने के लिए अँधेरी दरवाज़ा बनवाया.  पथरीली सतह पर बनने वाले इस क़िले के चारों तरफ़ बड़ी-बड़ी खाइयाँ खोदी गईं, ताकि ख़तरे के वक़्त ये दुश्मन को आने से रोक सकें.  क़िला बनने के बाद नीचे ज़मीन से सात सौ सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद जब चार विशाल दरवाज़ों, पच्चीस बुर्जों और लगभग साढ़े तीन हज़ार मोखियों वाले इस बाला क़िले को जब-जब हसन खाँ निरखता, तो शिराओं में ठिठका लहू तेज़ी से दौड़ने लगता. 

कहते हैं कि ताक़त बढ़ने के साथ-साथ आदमी के भीतर असुरक्षाभाव और शक भी बढ़ता जाता है.  इसी असुरक्षाभाव और शक के चलते इब्राहिम लोदी ने मियाँ बुहा को यह सोच कर क़ैदख़ाने में डाल दिया कि इसकी पंजाब के वज़ीर दौलत खाँ से मिली-भगत है.  इतना ही नहीं इब्राहिम लोदी ने दूसरे अमीरों को भी क़ैदख़ाने में डलवा दिया.  इससे इब्राहिम लोदी और उसके अमीरों में ठन गई.

इससे पहले कि इब्राहिम लोदी अपने विरोधियों का दमन कर पाता, उसके विरुद्ध दूसरी क्षेत्रीय ताक़तों ने सर उठाना शुरू कर दिया.  इसका नतीजा यह हुआ कि उसे खटौली के युद्ध में राणा संग्राम सिंह से हार का सामना करना पड़ा.  मगर इब्राहिम लोदी ने हिम्मत नहीं हारी और अगले साल मालवा को जीतने के चक्कर में शाही फ़ौजें उस तरफ़ भेज दीं परंतु उसकी सेना को राजपूत सेनाओं ने बुरी तरह हरा दिया.  इस जीत से राजस्थान में राणा संग्राम सिंह की ताक़त और ख्याति बढ़ती चली गई और इब्राहिम लोदी की ताक़त कम हो गई.

 

क़ासिद मुल्ला मुर्शिद ने आगरा जाकर बाबर का पैग़ाम जैसे ही इब्राहिम लोदी के शाही दरबार में पहुँचाया, और उसे जैसे ही उसे पढ़ कर सुनाया गया, सुनते ही इब्राहिम लोदी की आँखों में जैसे ख़ून उतर आया.  बादलगढ़ क़िले के बारादरी महल के दीवान ख़ाने में अपने अमीरों की मौजूदगी में इब्राहिम लोदी ने बाबर के राजदूत मुल्ला मुर्शिद को जिस तरह ऊपर से नीचे तक देखा, मारे भय के मुल्ला मुर्शिद का रोआँ-रोआँ काँप उठा.  पलभर के लिए उसे लगा जैसे उसका सर अब क़लम  हुआ, तब क़लम  हुआ.  इससे पहले कि मुल्ला मुर्शिद आगे की कल्पना करता, रत्न जड़ित तख़्त के सोने के हत्थे पर इब्राहिम लोदी की पकड़ मज़बूत होती चली गई और आवाज़ दीवान महल की दीवारों से टकराते हुए गूँजी-

“ऐ मेरे अमीरों देखा ! एक चंगेज़ी के जाए बाबर ने पैग़ाम भेजा है कि उसके पुरखे अमीर तैमूर लंग के क़ब्ज़े में कभी जो इलाक़े थे, उन्हें वह हमसे यानि एक अफ़ग़ान हुक्मराँ और लोदी वंश के सुल्तान इब्राहिम खाँ से वापिस देने को कह रहा है. ”

“मगर सुल्तान यह कैसे मुमकिन है ?” एक सरदार ने आश्चर्य प्रकट करते हुए पूछा.

“यही तो हैरानी कि बात है कि यहाँ से कोसों दूर भेरा में बैठा वह शख़्स, हमसे सैंकड़ों साल पहले अपने पुरखे के इलाक़ों को माँग रहा है.  उसे क्या लग रहा है कि वह कह देगा और हिंदुस्तान का यह अज़ीम सुल्तान इब्राहिम खाँ लोदी उन्हें वापिस कर देगा. ” कहते-कहते इब्राहिम लोदी के होंठ वक्र होते चले गए.  

अपने सुल्तान के मज़बूत इरादों को देख किसी ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की.

बाबर द्वारा क़ासिद मुल्ला मुर्शीद के हाथों भेजे गए पैग़ाम के बाद, इब्राहिम लोदी ने अपने मौसेरे भाई और शाहे-मेवात हसन खाँ मेवाती को अलवर से तुरंत आगरा बुलवाया.  ख़बर मिलते ही हसन खाँ मेवाती बिना देरी किए आगरा के लिए रवाना हो गया.

“सुल्तान, ऐसी क्या बात हो गई जो तुरंत हाज़िर होने का पैग़ाम भेजना पड़ गया ?” आगरा पहुँचने पर हसन खाँ मेवाती ने अपने मौसेरे भाई इब्राहिम लोदी से पूछा.

इब्राहिम लोदी ने कोई जवाब नहीं दिया बल्कि हसन खाँ मेवाती के सामने बाबर का भेजा गया पैग़ाम रख दिया.  हसन खाँ ने उसे ध्यान से पढ़ा, और कुछ पल सोचने के बाद बोला,” सुल्तान, मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि भेरा में बैठे बाबर की आख़िर मंशा क्या है ?”

“हसन, इसकी तो हमारे पास बराबर ख़बरें आ रही हैं कि उज़बेगों के खदेड़ने के बाद बाबर काबुल की तरफ़ बढ़ा आ रहा है.  मगर अचानक अमीर तैमूर के क़ब्ज़े वाले इलाक़ों को वापिस माँगने का राज़ हमारी भी समझ में नहीं आ रहा है ?” इब्राहिम लोदी की पेशानी के धोरे गहरे होते चले गए.

“सुल्तान, हमें अपने इस नए बैरी से सावधान रहने की ज़रूरत है.  अगर इसने हिंदुस्तान की तरफ़ रुख़ किया, तो यह अमीर तैमूर के क़ब्ज़े वाले इलाक़ों को ज़रूर माँगेगा.  वैसे आपको बता दूँ कि अमीर तैमूर हमारे ख़ानदान के ख़ानज़ादा मल्लू खाँ उर्फ़ इक़बाल खाँ के वक़्त हिंदुस्तान आया था.  कहते हैं कि अमीर तैमूर ने देहली में उस वक़्त बड़ी लूटपाट मचाई थी.

“आप सही कह रहे हैं हसन.  हमें सावधान रहने की ज़रूरत है. ” हसन खाँ मेवाती की सलाह के बाद इब्राहिम लोदी का मन जैसे हल्का हो गया.

“सुल्तान, मुझे इजाज़त दीजिए.  जाते-जाते ख़ाला जान से भी मिल लेता हूँ.  ख़ुदा हाफ़िज़ !” हसन खाँ मेवाती का ख़ाला से आशय इब्राहिम लोदी की माँ अर्थात अपनी मौसी सुल्ताना बैदा से था.

 

भेरा में बैठ कर बाबर अपने दूत मुल्ला मुर्शिद का बेसब्री से इंतज़ार करता रहा.  कई महीनों बाद मुल्ला मुर्शिद काबुल लौटा.

“क्या जवाब लाए हो मुल्ला मुर्शिद ?” अपने क़ासिद के आते ही बाबर ने उत्सुकतावश पूछा.

“सुल्तान, जनाब दौलत खाँ ने जवाब देना तो दूर रहा, उसने मुझसे मिलना तक मुनासिब नहीं समझा. ” मुल्ला मुर्शिद ने सर झुकाते हुए जवाब दिया.

“मिलना तक मुनासिब नहीं समझा...मतलब ?” कहते हुए बाबर के जबड़े खिंच आए.

“जी सुल्तान.  बल्कि उसने मुझे सुल्तान इब्राहिम खाँ लोदी के पास भी नहीं जाने दिया.  बोला कि मुझे दे जाओ अपना पैग़ाम.  मैं सुल्तान को पहुँचा दूँगा.  वो तो मैंने उसकी सलाह पर ध्यान नहीं दिया और आगरा चला गया.” 

“आपके कहने का मतलब है कि न तो इब्राहीम लोदी ने कोई जवाब दिया और न ही दौलत खाँ लोदी ने ?” इब्राहिम लोदी और दौलत खाँ की उपेक्षा से तिलमिलाते हुए बाबर बोला.

“जी सुल्तान बल्कि...” इसके बाद क़ासिद मुल्ला मुर्शिद ने इब्राहिम लोदी के दरबार का पूरा वाक़या दोहरा दिया. 

”देखा ख़ुदावंद बेगों, ये अफ़ग़ान कितने कम-अक़्ल और दिमाग़ से ख़ाली होते हैं, जो नेक सलाह को भी क़बूल नहीं कर पाते हैं.  न तो इनमें आगे बढ़ कर दुश्मन से सामना करने की हिम्मत होती है, और न ही ये दोस्ती के क़ायदे-क़ानून जानते हैं. ”

दरअसल, बाबर को पूरी उम्मीद थी कि इब्राहीम लोदी और दौलत खाँ लोदी के पास उसके पूर्वज अमीर तैमूर के जो इलाक़े हैं, वे उसे लौटाने के लिए मान जाएँगे.  मगर यहाँ लौटाना तो दूर रहा, इन दोनों ने पूरे पाँच महीने गुज़रने के बाद भी कोई जवाब नहीं दिया.  इन दोनों की यह ना-फ़रमानी बाबर के सीने में एक ज़ंग लगी कील की तरह धँस कर रह गई.  इसी कसक के साथ उसने भेरा से काबुल की ओर प्रस्थान किया.  इस बीच रास्ते में उसे बेटे हिंदाल के पैदा होने की ख़बर मिली.  बेटे की ख़ुशी में वह उस कसक को थोड़े दिनों के लिए भूल गया और कई दिनों तक शराब की महफ़िलें जमती रहीं. 

उसने एक बार फिर से अपना सफ़र शुरू किया और 30 मार्च, 1519 ईस्वी को वह काबुल पहुँच गया.

काबुल आने के बाद बाबर ने मध्य एशिया की राजनीति को समझने की कोशिश की, तो उसने पाया कि यहाँ ईरानी और उज़बेग आपस में ही उलझ रहे हैं.  इसी का फ़ायदा उठाते हुए उसने कमान अपने हाथों में ले ली और तेज़ी से लाहौर की तरफ़ बढ़ने लगा.  मगर तभी उसे ख़बर मिली कि काबुल पर हमला हो गया है.  बाबर लाहौर से वापिस काबुल लौट गया.  पिछले कई सालों की तरह यहाँ से भी बीच-बीच में वह अपने गुप्तचर हिंदुस्तान भेजता रहा.  इन गुप्तचरों ने हिंदुस्तान में बहुत से सरदारों और राजाओं के बीच अपनी अच्छी-ख़ासी पैठ बना ली और इनकी बड़ी संख्या तैयार कर ली.  काबुल में बाबर के पास आकर कई मुसलमान शासकों और हिंदू राजाओं के दूत उससे सम्पर्क स्थापित कर चुके हैं.  इनमें सबसे ज़्यादा वे थे जो देहली के सुल्तान इब्राहीम लोदी की ज़्यादतियों और उसकी बढ़ती ताक़त से परेशान थे. 

सबसे ज़्यादा हैरानी बाबर को उस दिन हुई जब राजस्थान के एक हिंदू राजा का दूत उसके पास आया.  दूत ने जैसे ही अपने राजा का पैग़ाम बाबर को सौंपा, पढ़ने के बाद उसकी आँखें मारे ख़ुशी के फैलने-सिकुड़ने लगीं.  मारे ख़ुशी के वह चहकते हुए बोला, ख़ुदावंद हिंदू बेग इंदर, अब वह दिन दूर नहीं जब इस जहीरुद्दीन मोहम्मद मिर्ज़ा बाबर को आप देहली की गद्दी पर बैठा हुआ देखेंगे. ”

“हुज़ूरे आली, मैंने तो पहले ही कहा था कि हिंदुस्तान की आवाम आपके इस्तक़बाल के लिए पलक-पाँवड़े बिछाए बैठी है.  पहले दौलत ख़ान द्वारा अपने बेटे दिलावर ख़ान को आपकी पनाह में भेजना.  इसके बाद ख़ुद सुल्तान इब्राहिम लोदी के ख़ास अमीरों द्वारा आलम खाँ लोदी के हाथों हमारे फ़तहयाब के पास यह गुज़ारिश भिजवाना, कि आप सुल्तान इब्राहिम लोदी के ज़ुल्मो-सितम से हिंदुस्तान को आज़ाद कराएँ; यह सब इसी की तरफ़ इशारा करते हैं कि हिंदुस्तान की राह आपके लिए कितनी आसान होने जा रही है. ”

“हिंदू बेग, दौलत ख़ान और आलम खाँ लोदी की बात तो समझ में आती है, मगर मेवाड़ के राजा राणा संग्राम सिंह की इस गुज़ारिश भरी पेशकश का माजरा समझ से परे है ?”

“हुज़ूर, इस पेशकश में साफ़ लिखा है कि आप लाहौर की तरफ़ से, और राजा राणा संग्राम सिंह आगरा की तरफ़ से हमला कर, लोदी हुकूमत को नेस्तनाबूद कर सकते हैं.  फ़तह के बाद राणा संग्राम सिंह के हिस्से में आगरा और उसके पूरब के इलाक़ों पर हक़ होगा.  कहने का मतलब यह है कि राजा राणा संग्राम सिंह के हिस्से वाली हुकूमत की हद आगरा के मग़रिबी इलाक़ों तक होगी, और उसके बाद देहली और उससे आगे के इलाक़ों पर मुग़लों का क़ब्ज़ा होगा.” हिंदू बेग इंदर ने बाबर को बड़े विस्तार से राणा संग्राम सिंह के दूत द्वारा लाए गए पैग़ाम में की गई पेशकश को बेहद सरल भाषा में समझाया.

बाबर ने राणा संग्राम सिंह अर्थात राणा सांगा द्वारा भेजे गए इस प्रस्ताव पर एक बार से फिर शांत चित्त के साथ मनन किया.  देर तक वह इस प्रस्ताव के मंज़ूर करने के बाद, उसके सेना पर पड़ने वाले असर और भविष्य में इससे होने वाले नफ़ा-नुक़सान के बारे में सोचता रहा.

“हुज़ूरे आली, किस सोच में पड़ गए ?” हिंदू बेग इंदर ने चिंतामग्न बाबर को दुविधाओं और द्वंद्वों में उलझा देख पूछा.

“हिंदू बेग, आपकी क्या राय है ? क्या हमें मेवाड़ के राजा राणा संग्राम सिंह की इस पेशकश को मंज़ूर कर लेना चाहिए ?” बाबर ने उलटा हिंदू बेग इंदर से पूछा.        

“मुझे इसमें कोई बुराई नहीं लगती है हुज़ूरे आली. ”

“आप सही फ़रमा रहे हैं हिंदू बेग.  लगता है अल्लाहताला ने ख़ुद हमारे पास हमारी कामयाबी की चाबी भेजी है.  सबसे बड़ी बात तो यह है बेग कि इससे पहले हिंदुस्तान के किसी राजा-महाराजा ने हमारे सामने ऐसी तजवीज़ पेश नहीं की.  अगर हम मेवाड़ के राजा राणा संग्राम सिंह की इस पेशकश को क़बूल कर लेते हैं, तो मेरी नज़र में हमें इसके दो फ़ायदे होंगे.  पहला यह कि हमें एक ताक़तवर हिंदुस्तानी राजा की मदद मिल जाएगी, और दूसरा यह कि वह हमें हिंदुस्तानी आवाम की तरफ़ से मिलने वाली मदद में हमारी मदद करेगा.  ...और, सबसे बड़ा फ़ायदा यह होगा हिंदू बेग कि हमारे हुकूमत का रक़बा भी बढ़ जाएगा.  हमारे क़ब्ज़े में पंजाब के वे इलाक़े भी आ जाएँगे, जिनमें अच्छी पैदावार होती है.  अगर यह तरतीब कामयाब हो जाती है, तो हमारी माली हालत और दूसरी मुश्किलात दूर हो जाएँगी. ”

“आपका अंदाज़ा एकदम सही है हुज़ूरे आली. ”

“और क्या पता यह भी हो जाए है कि राणा सांगा के साथ मिलने से, अफ़ग़ानियों के साथ बिना जंग किए पूरा हिंदुस्तान हमारे क़ब्ज़े में आ जाए.  हिंदू बेग, मुझे भी आपकी तरह इस पेशकश को क़बूल करने में कोई हर्ज़ नहीं दीखता है.  मेवाड़ के राजा की यह पेशकश हर तरह से हमारे माकूल है. ”

“आप दुरुस्त फ़रमा रहे हैं हुज़ूरे आली. ”

“तो फिर ठीक है मेवाड़ के राजा राणा संग्राम सिंह के सफ़ीर को हमारी तरफ़ से जवाब लिखवा दीजिए कि हमें उनकी यह पेशकश मंज़ूर है. ”

“जी हुज़ूरे आली. ” इतना कह हिंदू बेग इंदर जवाब लिखवाने के लिए चल पड़ा.

“और हाँ, राजा राणा संग्राम सिंह के सफ़ीर को अच्छे से विदा करना !” पीछे से बाबर ने हिंदू बेग इंदर को टोकते हुए कहा.

“आप बे-फ़िक्र रहें हुज़ूर.  मुझे इसका पूरा ख़याल है. ” 

 

सुनहरी मस्त लहरों पर हिलौरें खाती आठ डाँड़ों व चंदवेवाली शाही नाव पर, बाबर अपने दरबारियों के साथ प्यालों से छलकती अपनी मनपसंद शराब का लुत्फ़ उठा रहा है.  मग़रिब की नमाज़ से कुछ देर पहले शाही नाव से उतर कर वह महल में आ गया.  न जाने क्यों आज बाबर को रह-रह कर अपने मावराउन्नहर की याद आ रही है.  जब-जब मावराउन्नहर की सुनहरी यादें उसकी पलकों पर आकर बैठतीं, तब-तब वह और उदास हो जाता.  महल में आने के बाद उसने ताली बजा कर ख़िदमतगार को बुलाया और उससे मैनाब लाने का हुक्म दिया. 

माहम बेगम ने देखा, तो उसने पति को उलाहना भरे स्वर में रोकने की कोशिश की,“मेरे हुज़ूर, आज आप सुबह से शराब पीए जा रहे हैं.  अब बस भी करिए !”

बाबर ने भारी होती पलकों को उठा कर माहम की तरफ़ देखा.  फिर मुस्कराते हुए बोला,”बेगम, हम देख रहे हैं कि इससे पहले आपने कभी हमें शराब पीने से नहीं रोका.  आज आपको यह क्या हो गया है ?”

“बीवी हूँ आपकी...और फिर आप यह ग़ज़नी की अंगूरी शराब के साथ, कुंदूज़ की मैनाब को मत पीया करें.  जब-जब आप इन दोनों को एकसाथ पीते हैं, रातभर न जाने क्या-क्या बड़बड़ाते रहते हैं. ”

“बेगम, अगर ख़ाली यह वजह है तो आप मुझे पीने से मत रोकिए और अगsssर...” बाबर जान-बूझ कर जैसे कहते-कहते रुक गया.  

“कैसे बताऊँ मेरे हुज़ूर.  माँ हूँ बताए बिना रुका भी तो नहीं जाता है. ”

“समझ गया आप क्या कहना चाहती हैं.  कहींsss आप अपने बेटे हुमायूँ को लेकर तो परेशान नहीं हैं ?” बाबर ने जैसे पत्नी माहम बेगम के मन की बात बाँच ली. 

“परेशान ना होऊँ तो क्या करूँ.  एक हमारी देवरानी गुलरुख़ बेगम है जिसकी आँखों के सामने हर वक़्त उसके दोनों बेटों रहते हैं...और एक बदनसीब माँ मैं हूँ कि पिछले सालभर से अपने बेटे हुमायूँ का मुँह  तक नहीं देखा.  मुझे तो रात-दिन यही फ़िक्र खाए रहती है, कि कहीं वह ज़ालिम शैबानी खाँ मेरे बेटे पर हमला न कर दे. ”

“आप बे-वजह घबराती हैं.  उसे कुछ नहीं होने वाला.  वह अपनी तीन हज़ार चुनिंदा फ़ौज के साथ पूरी तरह महफ़ूज है...और फिर आपको क्या लगता है मैं हिंदुस्तान बिना किसी तैयारी के जा रहा हूँ.  पिछले दस सालों से मैं एक के बाद एक अपने भेदिए वहाँ भेजता आ रहा हूँ.  इतना ही नहीं हिंदुस्तान के मुसलमान हुक्मरानों और हिंदू राजाओं के एलची मेरे पास एक बार नहीं पूरे छह बार आ चुके हैं.  वे बताते हैं कि वहाँ के हुक्मरानों और राजाओं की आपसी लड़ाई ने हिंदुस्तान को तबाह कर दिया है.  वहाँ से आए इन लोगों का कहना है कि उस मुल्क को एक ऐसी ताक़त और नाम की ज़रूरत है, जिसके लिए पूरा मुल्क एक होकर उठ सके.  आप जानती हैं कि उनकी नज़र में वह शख़्स  कौन है ? वह शख़्स  है यह जहीरुद्दीन मोहम्मद मिर्ज़ा बाबर.  आपको क्या बताऊँ, मेवाड़ का एक ताक़तवर राजा तक सुल्तान इब्राहिम लोदी के ख़िलाफ़ मेरे पास अपना एलची भेज चुका है. ”

माहम बेगम कुछ नहीं बोली. 

“आप यक़ीन करें बेगम, मैं हिंदुस्तान दौलत लूटने के इरादे से नहीं जा रहा हूँ.  बल्कि हमेशा से मेरी एक ख़्वाहिश रही है कि हिंदुस्तान में एक ताक़तवर बादशाही क़ायम कर सकूँ.  मेरा जो ख़्वाब मावराउन्नहर में पूरा नहीं हो पाया था, मैं चाहता हूँ कि वह हिंदुस्तान में पूरा हो जाए.  इसीलिए मेवाड़ के हिंदू राजा राणा संग्राम सिंह और पंजाब के हाकिम दौलत खाँ के साथ मिल कर, सुल्तान इब्राहिम लोदी के ख़िलाफ़ हम तीनों में मुहिम चलाने की सुलह हुई है. ”बाबर ने माहम बेगम को समझाने की कोशिश की.

इस बीच सोने के ख़ाली हो चुके प्याले को बाबर ने तर्जनी से जैसे ही बजाया, परदे की ओट से ख़िदमतगार लपक कर बाहर आया.  माहम बेगम ने हाथ के इशारे से ख़िदमतगार को वहीं रोक दिया.

 “मगर मेरे हुज़ूर ! फ़न, इल्म और जंग के बीच बहुत बड़ा फ़ासला होता है.” इस बार ख़िदमतगार की जगह माहम बेगम ख़ुद पतली गर्दन वाली चाँदी की काशग़री सुराही से, ख़ाली प्याले में सुनहली शराब डालते हुए बोली.

“बेगम, जंग में फ़ासलों के कोई मायने नहीं होते.”

“ऐसा आपको लगता है क्योंकि आप एक मर्द हैं.  जंग के जख़्म क्या होते हैं, यह उन हज़ारों माँओं, बेवाओं और यतीमों से पूछो जिनके ख़्वाब इन जंगों में उनके ख़ाविंद, भाई, वालिद और बेटों के शहीद होने पर दफ़न हो जाते हैं.  जो ता-उम्र इनकी सुनहरी यादों के अकेलेपन से लिपट-लिपट कर सिसकती हैं. ” माहम बेगम  ने एक गहरी साँस लेते हुए कहा,”लीजिए, मेरे हुज़ूर ! आपकी उम्र दराज़ हो !” शराब के प्याले को बाबर की तरफ़ बढ़ा दिया. 

बाबर ने माहम से प्याला लिया और यह कहते हुए अपनी जगह से खड़ा हो गया,”और क़िस्मत की कटार से मैंने जो घाव झेले हैं, उनका क्या ?” फिर एक पल सोचने के बाद गहरा और लंबा सांस लेते हुए बोला,”लगता है बेगम लंबी पुरसुकून ज़िंदगी मेरे नसीब में है ही नहीं.”

“ऐसा न सोचें मेरे हुज़ूर.  एक दिन आपका यह ख़्वाब ज़रूर पूरा होगा.”

“कब पूरा होगा बेगम ?

मैं रोज़-रोज़ होने वाली इन जंगों से तंग आ चुका हूँ. ” इतना कह बाबर ने एक लंबा घूँट भरा और प्याले को एक तरफ़ रख दिया.  फिर कुछ पल सोचने के बाद उसने माहम बेगम की तरफ़ देखा,”मगर यह भी सच है कि हुकूमत का नशा, ऐसा नशा है कि अगर वह एक बार चढ़ जाए, तो आदमी को वह उसकी सर्दमिज़ाज़ी से दूर कर देता है.  बेरहमी और दूसरों की मुसीबतों में उसे मज़ा आने लगता है.  शायद इसीलिए मैं इस नशे को चाह कर भी नहीं छोड़ सकता, क्योंकि मैं हुकूमत का आदी हो चुका हूँ.  हुकूमत में मुझे मज़ा आने लगा है. ” इतना कह बाबर ने शराब का प्याला उठाया और एक झटके में उसे हलक़ से नीचे उतार गया. 

नशे ने बाबर को अब पूरी तरह अपनी गिरफ़्त में ले लिया.  कमरे में जलते चिराग़ों की रोशनी से कभी वह दीवार पर बनी अपनी परछाइयों से अठखेलियाँ करने लगता, तो कभी अपने पास बैठी पत्नी माहम बेगम को एकटक देखने लगता.  इस बीच वह कब बिस्तर पर लुढ़क गया, उसे पता ही नहीं चला.  माहम बेगम  ने बाबर के कपड़े और बिस्तर ठीक किए और चिराग़ों की रोशनी को धीमा कर अपने कमरे में आ गई.

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'ख़ानज़ादा' राजकमल प्रकाशन से इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है. 

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