भक्ति - कविता, किसानी और किसान आंदोलन : बजरंग बिहारी तिवारी


भक्तिकाल के कवियों का समूह विरक्त लोगों का नहीं था, धर्म के राजनीतिक आशय को वे लोग ख़ूब समझते थे. वरिष्ठ आलोचक प्रो. मैनेजर पाण्डेय ने सूरदास के काव्य में किसान-जीवन की पड़ताल करते हुए लिखा है–“सूर के काव्य में तत्कालीन शासन-व्यवस्था की राजनीति के रूप और अभिप्राय की पहचान है और साथ में जनता के हित की राजनीति की चिंता भी है.”

किसान जीवन को बड़े फलक पर देखने की एक कोशिश आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी ने शोध और  समकालीन समझ के साथ यहाँ की है. इससे जहाँ किसानों के संघर्ष की लम्बी परम्परा का पता चलता है वहीं भक्तिकाल का एक धुंधला पक्ष सबल ढंग से सामने आता है.

ऐसे आलेख ऐतिहासिक महत्व रखते हैं और तीव्र संक्रमण के दौर में कभी-कभी ही संभव होते हैं. समालोचन की यह विशिष्ट प्रस्तुति ख़ास आपके लिए.  


भक्ति-कविता, किसानी और किसान आंदोलन
बजरंग बिहारी तिवारी   


दिल्ली की घेरेबंदी वाले किसान आंदोलन का एक महीना गुजर चुका है. राजधानी आने वाले कई रास्तों सिंघु बॉर्डर, टीकरी बॉर्डर, गाजीपुर बॉर्डर, नेशनल हाईवे आठ आदि पर लाखों किसान धरना दिए बैठे हुए हैं. वे यहाँ इसलिए बैठे हुए हैं क्योंकि उन्हें दिल्ली में आने से रोका गया है. पूर्णतया अहिंसक किसान आंदोलन पर आँसू गैस के गोले फेंके गए, वाटर कैनन चलाए गए. राष्ट्रीय राजमार्गों पर गड्ढे खोदकर, बड़े-बड़े अवरोधक खड़े करके, नुकीले-कटीले तार लगाकर किसानों को दिल्ली प्रवेश से रोका गया. इस कड़कती सर्दी में तीस से अधिक आंदोलनरत किसानों की जान जा चुकी है. इन मौतों के लिए कौन जिम्मेदार है? 

2014 में जब यह सरकार सत्ता में आयी थी तभी आशंकाओं के बादल घिर आए थे. शासन की बागडोर थामने के साथ यह सरकार दो अध्यादेश लाई थी- कॉर्पोरेट को जमीन आवंटित करने के लिए ग्राम सभा/ग्राम पंचायत की मंजूरी की शर्त हटाना और जीवनरक्षक दवाओं की कीमत को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करना. तभी लग गया था कि आने वाला समय कैसा होगा! नोटबंदी, जीएसटी, नागरिकता संशोधन क़ानून, कोरोना तालाबंदी इस सरकार के ऐसे ‘ऐतिहासिक’ निर्णय हैं जिनसे देश की आर्थिक, सामाजिक तबाही सुनिश्चित की गई है. कितने ही उद्योगपति बैंकों से प्रभूत धनराशि लेकर चम्पत हो चुके हैं. पीएम केयरफंड को लेकर जैसी शंका बलवती हुई है वह सरकार समर्थक लोगों को भी परेशान कर रही है. खरी बात लिखने वाले संत पलटू साहिब (1750-1815) की बानी है 1-

आगि लगो वहि देस में जहँवाँ राजा चोर ll
जहँवाँ राजा चोर प्रजा कैसे सुख पावै l
पाँच पचीस लगाय रैनि दिन सदा मुसावै ll

मूसना क्रिया चोरी करने, ठगने, उठा ले जाने के अर्थ में प्रयुक्त की जाती है. तीन नए कृषि विधेयकों के कानून बनते-बनते किसानों को यकीन हो चला था कि उन्हें बाकायदा मूसे जाने का पक्का बंदोबस्त सरकार ने कर दिया है. पिछले ढाई दशक में पाँच लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या का रास्ता चुन चुके हैं. दो बरस पहले तमिलनाडु के किसान अपने मरे हुए भाई-बंधुओं के कपाल और कंकाल लेकर दिल्ली आकर जंतर-मंतर तथा संसद भवन के सामने विफल गुहार लगा चुके हैं. मरहम लगाने की बजाए सरकार ने घाव को गहरा करते हुए राज्य-सूची में दखल दिया. लॉकडाउन पीरियड में जाने किस आपात स्थिति का अनुभव करते हुए तीन नए विधेयक प्रस्तुत किए गए. इन्हें लोकसभा में बहुमत के बल पर पास कराकर राज्यसभा में तिकड़म से पास करवा लिया गया. चौदह सितंबर को पेश हुए ये विधेयक राष्ट्रपति की तत्काल मंजूरी मिल जाने से सत्ताइस सितंबर को क़ानून में तब्दील कर दिए गए. 

इन तीनों कानूनों में पहला है ‘आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम 2020’. पहली बार भारत में आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 में लागू हुआ था. उपभोक्ताओं को जरूरी चीजें उचित कीमत पर मुहैया करवाने के लिए सरकार ने इनके उत्पादन, मूल्य निर्धारण और वितरण का नियंत्रण अपने हाथ में रखा था. नए क़ानून ने वह नियंत्रण समाप्त कर दिया है. अब अनाज, दलहन, तिलहन, प्याज, आलू, खाद्य-तेल की कालाबाजारी, जमाखोरी मान्यता प्राप्त है. इन वस्तुओं के व्यापार के लिए लाइसेंस लेना जरूरी नहीं रह गया है. भंडारण का फायदा बड़े व्यापारियों को मिलने जा रहा है, इसे समझने के लिए ‘शास्त्र’ पढ़ने की जरूरत नहीं है.

दूसरा क़ानून ‘कृषि उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सुविधा) 2020’ है. सरकार ने भारतीय खाद्य निगम (एफसीआइ) की स्थापना न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानों से उनकी फसल खरीदने के लिए की थी. एफसीआइ की सफलता का राज़ एपीएमसी एक्ट में निहित था. पिछली सदी के सातवें दशक में राज्य सरकारों ने किसानों का शोषण रोकने और उपज का उचित मूल्य सुनिश्चित करने के लिए ‘कृषि उपज विपणन समिति अधिनियम’ (एपीएमसी एक्ट) लागू किया था. इस अधिनियम का उद्देश्य किसानों का शोषण रोकना और उनकी उपज का वाजिब मूल्य तय करना था. इसके अनुसार किसानों की उपज अनिवार्य रूप से केवल सरकारी मंडियों के परिसर में खुली नीलामी के माध्यम से ही बेची जानी थी. किसानों की दुर्दशा को देखते हुए अपेक्षित यह था कि एपीएमसी एक्ट को बेहतर बनाया जाता. भारतीय खाद्य निगम को मजबूती दी जाती, उसका विस्तार किया जाता, उसके भंडारण गृहों की संख्या और गुणवत्ता बढ़ाई जाती. सरकारी मंडियों के परिसर में ही एफसीआइ कृषि उपज की खरीदारी न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर करती है. तब यह वांछित था कि सरकारी मंडियों का जाल सघन किया जाता. 

वहाँ तक आम किसानों की पहुँच आसान की जाती. अभी देश में कुल सात हज़ार मंडियां हैं. जरूरत बयालीस हज़ार मंडियों की है. एमएसपी निर्धारण को ज्यादा संवेदनशील एवं तर्कसंगत बनाते हुए यह सुनिश्चित किए जाने की आवश्यकता थी कि किसानी लाभ का उद्यम बन सके. कल्याणकारी राज्य की अवधारणा पर कुठाराघात करने वाली सरकार ने ‘कृषि उत्पाद व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सुविधा) अधिनियम 2020’ लाकर एपीएमसी एक्ट को ही अप्रभावी कर दिया. अब मंडी परिसर में कृषि उपज बेचने की अनिवार्यता समाप्त कर दी गई है. कोई भी ऐसा व्यक्ति जिसके पास पैन/आधार कार्ड है वह कहीं भी और कितनी भी उपज खरीद सकता है. उसका भण्डारण कर सकता है. फसल खरीद की दर तय करने में अब सरकार की कोई भूमिका नहीं होगी. मंडी से बाहर की गई खरीद पर कोई टैक्स भी देय नहीं होगा. बिडंबना देखिए कि एपीएमसी एक्ट को निरस्त करते समय केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों से मशविरा करने की जरूरत नहीं समझी. कृषि राज्य सरकार के क्षेत्र में आता है. तब राज्य सरकार से बात किए बिना एपीएमसी को निष्प्रभावी बनाना संविधान और संघीय ढाँचे का उल्लंघन समझा जाना चाहिए.

तीसरा क़ानून ‘कीमत आश्वासन एवं कृषि सेवाओं पर करार (सशक्तीकरण एवं संरक्षण) अधिनियम 2020’ है. यह ठेके पर खेती को वैधता देने वाला क़ानून है. किसान और खरीदार के बीच विवाद होने की स्थिति में कोई भी पक्ष पहले समाधान बोर्ड जाएगा. वहाँ मामला न सुलझे तो सबडिवीज़नल मजिस्ट्रेट के पास जाना होगा. तीसरे और अंतिम अपील के लिए कलक्टर तक जाया जा सकता है लेकिन अदालत (सिविल कोर्ट) जाने का प्रावधान नहीं है. एक औसत किसान साधनसंपन्न व्यापारी या बहुराष्ट्रीय कंपनी से विवाद की स्थिति में शायद ही पार पा सके. उसकी हालत तब और नाज़ुक होनी है जब स्वयं सरकार द्वारा सरकारी सुरक्षा कवच ध्वस्त कर दिया गया हो. बिहार पहला राज्य था जहाँ एपीएमसी की व्यवस्था 2006 में ख़तम कर दी गई थी. क्या वहाँ किसानों की हालत सुधरी? 

पंजाब, महाराष्ट्र और अन्य राज्यों में मजदूरी के लिए जाने वाले बिहारी श्रमिकों की संख्या देखकर उस राज्य की आर्थिक स्थिति का अंदाज़ लगाया जा सकता है. ठेके पर खेती दिए जाने की मंजूरी मिलने के बाद किसानों की हालत और बिगड़नी निश्चित है. किसानों को अपना भविष्य संकटपूर्ण दिख रहा है. वे इसीलिए संगठित होकर अपनी आवाज़ उठा रहे हैं और सरकार से तीनों कानूनों को रद्द किए जाने की मांग कर रहे हैं. किसानों का यह आंदोलन ऐतिहासिक है, अखिल भारतीय है; भले ही इसकी अगुआई पंजाब के किसान कर रहे हों. इस आंदोलन में किसानों के साथ कृषि मजदूर, मंडी श्रमिक भी शामिल हैं. समाज के प्रायः सभी वर्ग– विद्यार्थी, बुद्धिजीवी, रचनाकार, वकील, अध्यापक, मेडिकल सेवाओं के लोग अपना समर्थन दे रहे हैं.

किसानों का सबसे बड़ा जमावड़ा सिंघु बॉर्डर पर है. यहाँ मुख्यतः पंजाब से आए किसान हैं. इस एनएच-24 पर सात-आठ किलोमीटर तक ट्रैक्टर-ट्राली के साथ किसान डटे हुए हैं. रात-दिन लंगर चलता रहता है. लोग प्रसाद-भोजन करते रहते हैं. कथाकार टेकचंद ने एक फेसबुक पोस्ट में लिखा है कि इस हाइवे के दोनों तरफ कच्ची बस्तियाँ हैं. इनमें मजदूर और छोटे-मोटे धंधे करने वालों के परिवार रहते हैं. मार्च में लॉकडाउन लगने के बाद इन्हें काम मिलना बंद हो गया. भुखमरी की नौबत आ गई. किसानों के लंगर में इन परिवारों के सदस्य भी शामिल होते हैं. कई महीनों बाद उन्हें इस तरह का भोजन मिल रहा है. किसानों को असीसते हुए वे प्रसन्न हैं. संत दादूदयाल के शिष्य संत बाजीद (1548-1606, अनुमानित) का कहना था-

भूखो दुर्बल देखि नाहिं मुँह मोड़िये,
जो हरि सारी देय तो आधी तोड़िये I
दे आधी की आध अरध की कोर रे,
हरि हाँ, अन्न सरीखा पुन्य नाहिं कोइ और रे ll

गुरुमत में इसे सच्चा सौदा कहा जाता है. नानकदेव (1469-1539) के बचपन की घटना है जब उन्हें घर का सामान खरीदने बाज़ार भेजा गया था. उस पैसे से वे जरूरतमंदों, साधु-संतों को रोटी खिला आए थे. इसे उन्होंने ‘सच्चा सौदा’ कहा था. गुरु नानक ने अपने सत्तर वर्षीय जीवन के 22 वर्ष यात्राओं में बिताए थे. उन्होंने चार बड़ी यात्राएं की थीं. अपनी पहली यात्रा में उन्होंने एक रात लालो बढ़ई के यहाँ गुजारी थी. गाँव का जमींदार भागो चाहता था कि नानकदेव उसके यहाँ ठहरें और भोजन करें. गाँव से विदा होते नानक ने दोनों घरों की रोटियों का अंतर स्पष्ट किया. उन्होंने दिखाया कि जमींदार की रोटी में शोषण-उत्पीड़न का रक्त है जबकि काष्ठशिल्पी लालो की रोटी में श्रम-जल. 

बॉर्डर पर बैठे किसानों को सरकार ने पाँच बार बातचीत के लिए बुलाया. किसानों ने एक बार भी सरकार की रोटी नहीं स्वीकारी.

नानक के पिता कालूचंद तलवंडी के पटवारी होने के साथ खेतिहर किसान भी थे. उन्होंने अपने बेटे को भी खेती के काम में लगाया था. किसानी के अनुभव नानक की वाणी (कविता) में निबद्ध हैं. भक्ति-साधना का रूपक बाँधते हुए उन्होंने कहा-

इहु तनु धरती बीजु करमा करो,
सलिल आपउ सारिंगपाणी l
मनु किरसाणु हरि रिदै जंमाइलै,
इउ पावसि पदु निरबाणी ll  

अपने मन को किसान बनाकर शरीर रूपी खेत में बीज रूपी कर्म बोओ. भक्ति-भाव के जल से उसे सींचो. इस प्रकार हृदय-भूमि में हरिभाव की फसल उगाओ. मुक्ति चेतना का सुख इस तरह हासिल करो.

किसानी को उदात्त कार्य बताते हुए नानकदेव ने कहा कि राजा को सयानापन दिखाने से बचना चाहिए. किसान के सामने यह भुलावा नहीं टिकेगा. किसान सत्य-रूप है. स्वयं परमात्मा सबसे बड़ा किसान है. सच्चा किसान वही है जो पहले धरती को कमाता है और फिर ध्यानपूर्वक उसमें सत्य नाम के दाने बोता है. नौ निधियों की फसल उपजती है. लहलहाती फसल इस कर्म-व्यापार का ध्वज (निशान) है-

आपु सुजाण न भुलई सचा वड किरसाणु l
पहिला धरती साधि कै सचु नामु दे दाणु ,
नउ निधि उपजै नामु एकु करमि पवै नीसाणु ll  

नानक साधकों, भक्तों से किसान बनकर ईमान की फसल उगाने की सलाह देते हैं-

अमलु करि धरती बीजु सबदो करि,
सच की आब नित देहि पाणी l
होइ किरसाणु ईमान जंमाइ लै,
भिसतु दोजकु मूड़े एव जाणी ll  

खेत को जोत-गोड़ (शोधन) कर उसमें शब्द-बीज डालकर सत्य-जल से सिंचाई करनी चाहिए. किसान बनकर ईमान की फसल उगानी चाहिए. इससे अलग स्वर्ग-नरक की बात मूर्ख-अज्ञानी करते हैं.

गुरुग्रंथ साहिब के पहले महले में गुरु नानक की बानियाँ हैं. ये बानियाँ कुल 31 रागों में हैं. यह बात गौर करने की है कि नानक श्रम और नैतिकता को महत्त्व देते हैं, किसानी को उदात्तता प्रदान करते हैं, साधु-संतों के सामने श्रद्धावनत रहते हैं लेकिन सुल्तान या राजसत्ता के समक्ष फटकार भरी भाषा का इस्तेमाल करते हैं.  पहले राग (‘सिरी राग’) के पहले ही सबद में उन्होंने मदांध राजा को इस तरह संबोधित किया है-

सुलतानु होवा मेलि लसकर तखति राखा पाउ l  
हुकुम हासलु करी बैठा नानका सभ वाउ  ll
                मतु देखि भूला वीसरै ll 

तू शासक-सुलतान हो गया है, सिंहासन पर बैठता है, बड़ी सेना तेरे पास है. लेकिन यह न भूल कि सब उसी परवरदिगार के हुक्म से ही हासिल हुआ है. तुम्हारी सारी हवा (प्रभाव, वायु) उसी की देन है.

इसी तरह महला-1 के चउपदे का पहला सबद है-

तू सुलतान कहा हउ मीआ तेरी कवन बड़ाई l
जो तू देहि सु कहा सुआमी मैं मूरख कहणु न जाई ll 

क्या हुआ जो तू सुलतान हो गया? मियाँ, इसमें तेरा क्या बड़प्पन है? तुम क्या देते या दे सकते हो. देने वाला तो वह स्वामी/परमात्मा है. मुझ अज्ञानी से उसकी महिमा कहते नहीं बन रही है. इसी ‘चउपदे’ के तीसरे सबद में नानक कहते हैं कि राजगद्दी हमेशा के लिए नहीं होती. राज्याधिकार का अभिमान झूठा है. इस मिथ्यात्व को राजा समझ नहीं पाता. सत्ता-भोग का चस्का लग जाए तो छूटता नहीं-

राजु रूप झूठा दिन चारि. नाम मिलै चानणु अंधियारि ll
चखि छोड़ी सहसा नहिं कोइ . बापु दिसै बेजाति न होइ ll  

कुछ लोग धर्म को व्यवसाय बना लेते हैं. धर्म का धंधा उनके स्वार्थों की पूर्ति भले ही करता हो, नानकदेव की निगाह में यह कृत्य धिक्कारयोग्य है. इसी की अगली पंक्ति में वे पीड़ित किसानों की सुध लेते हैं. ऐसे किसान जिनकी खेती उजड़ गई या उजाड़ दी गई है वे कहाँ जाएं? गुरु नानक कहते हैं कि उजड़ी खेती वाले किसान खलिहान क्योंकर जाएंगे! जब फसल ही न रही तब मड़ाई का प्रश्न नहीं उठता-

धृगु तिन्हा का जीविंआ जिं लिखि लिखि बेचहिं नाउ l
खेती   जिनकी   उजड़ै   खलवाड़े   किआ   थाउ ll 3

सवाल यह कि जिनकी खेती उजड़ रही है वे खलिहान न जाकर कहाँ जाएं? क्या ऐसे में उन्हें दुर्दिन के हेतु की पहचान नहीं करनी चाहिए? हमारे वक्त के किसानों ने यही किया. धर्म के धंधेबाजों को लगा होगा कि किसान तो धर्मप्राण हैं. इस आसन्न उजाड़ को वे नियति मानकर स्वीकार कर लेंगे. किसानों ने राजसत्ता की यह कामना पूरी नहीं की. उन्होंने उजाड़ के स्रोत की पहचान कर ली. कबीरदास ने लिखा है कि ठग तब तक सफल होते रहते हैं जब तक उनकी ठगी की पहचान नहीं होती. सच ज्ञात हो जाए तो ठगौरी पर विराम लग जाता है-

कहैं कबीर ठग सों मनमाना, गई ठगौरी ठग पहिचानां l 4 

संत-कवियों ने किसान को प्राण-वायु माना है. नाम-स्मरण के एक रूपक में संत रज्जब ने लिखा कि नाम अनाज है जो काया के हृदय रूपी घर में विद्यमान-गतिमान रहता है, प्राणरूप किसान प्राण (=पवन/ऑक्सीजन) का वहन करता है- ‘नावं नाज उर घर बहै, बाहै प्राण किसान’. दूसरे प्रसंग में रज्जब ने लिखा- 

मनिखा देही खेति खित, माहै प्रान किसान.’ यह शरीर मनका (माला) है, चित्त खेत है जिसमें साँसों का आना-जाना (=प्राणरूप) किसान है.5 

किसान प्राण-रूप है क्योंकि वह अन्न उपजाता है. कबीर अन्न स्मरण को नाम स्मरण जितना ही महत्त्व देते हैं- 

‘जपियै नाम जपियै अन्न.’6 

कबीर यह भी कहते हैं कि अन्न के बगैर अच्छा समय नहीं आता. अन्न त्याग के बाद भगवान नहीं मिलते-

‘अन्ने बिना न होइ सुकाल. तजियै अन्न न मिलै गुपाल..’7 

तुलसीदास कहते हैं कि राम के साक्षात दर्शन से जितना सुख मिलता है उतना आनंद एक भूखे व्यक्ति को अन्न ग्रहण करने से प्राप्त होता है- 

‘पियत नयन पुट रूप पियूषा. मुदित सुअसनु पाइ जिमि भूखा..8 

संत सुंदरदास (1596-1689) ने लिखा-

‘सब के आहिं अन्न मैं प्रांन. बात बनाइ कहौ कोऊ केती, नाचि कूदि कैं तूटत तांन.’9

सबके प्राण अन्न में बसते हैं. कोई कितनी भी ऊँची-ऊँची हाँक ले, आखिरकार पेट भरने के लिए अन्न की शरण में आना पड़ेगा. हरियाणा के संत गरीबदास (1717-1778) ने अन्न की दो आरतियां लिखीं- अन्नदेव की बड़ी आरती और अन्नदेवी की छोटी आरती. बड़ी आरती में 46 युग्मक (पंक्तियां) हैं तो छोटी आरती में 15 युग्मक. छोटी आरती में वे कहते हैं- ‘रोटी पूजा आतम देव. रोटी ही परमातम सेव.. दास गरीब कहै दरवेसा. रोटी बाँटो सदा हमेशा..’ बड़ी आरती की ये पंक्तियां देखिए- 

अन्न ही माता अन्न ही पिता l  अन्न ही मेटत है सब बिथा l
अन्न ही प्राण पुरुष आधारं l  अन्न से खूल्हें ब्रह्म द्वारं ll 10

अन्न उपजाने के लिए किसान हाड़-तोड़ मेहनत करता है. निरंतर काम में लगा रहता है. रज्जब अली की उद्भावना है कि अन्न उपजाने के इस काम में छः तत्व या प्राकृतिक शक्तियां (भी) मजदूर की तरह काम करती हैं- आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी के साथ चंद्रमा. परिश्रम न करने वाले आलसी, दरिद्र के पास अन्न कैसे पहुँच सकता है-

पाँचौ तत्त मयंक सौं, अन्नहि काज मजूर l
रज्जब सो दालिद्र मैं, आवै क्यों सु हुजूर ll 11  

संत रैदास ऐसे राज्य की, राज की कामना करते हैं जहाँ सबको अन्न मिले. कोई भूखा न रहे. छोटे-बड़े सब समान धरातल पर रहें-

ऐसा चाहूँ राज मैं, जहँ मिलै सबन को अन्न l
छोट-बड़ो सब सम बसैं, रैदास रहै प्रसन्न ll 12  

रैदास की मानें तो अन्न की उपलब्धता सुनिश्चित कराना राजसत्ता का दायित्व है. अन्न की उपलब्धता तब होगी जब किसान फसल उपजा रहे होंगे, किसानी उत्तम होगी और भूमि उर्वरा होगी. राग गौड़ी में निबद्ध उनके ख्यात पद ‘अब हम खूब वतन घर पाया’ में रैदास की यह कामना किंचित विस्तार से वर्णित है. यह पद थोड़े-थोड़े अंतर से चार-पाँच रूपों में मिलता है.13 बेगमपुरा रैदास का काम्य/यूटोपियन देस/वतन है. यहाँ सभी निवासी समृद्ध हैं. अपराध नहीं होते. लोग किसी चीज़ के लिए तरसते नहीं. किसानों को भूमिकर और व्यापारियों को मालकर की तश्वीश= त्रास, चिंता, घबराहट नहीं है. भूमि उपजाऊ है और बाज़ार-व्यवस्था नियंत्रण में है-

काइम दाइम सदा पतिसाही l
दोम न सोम एक सा आही ll

काइम, दाइम अरबी मूल से आए विशेषण-शब्द हैं. बेगमपुरा में बादशाहत हमेशा कायम/दृढ़ है. दोम फारसी का दोयम (दूसरा) है. सोम अरबी का सौम है. सौम का अर्थ है महंगा करके बेचना. यहाँ वस्तुओं के दाम एक-से रहते हैं. व्यापारी उनका भण्डारण करके, कृत्रिम अभाव की स्थिति रचकर महंगे में नहीं बेचते. हमेशा कायम रहने वाली बादशाहत से रैदास की क्या मुराद है? कोई मनुष्य राजा होगा तो वह जीवनांत को भी प्राप्त होगा. किसी की बादशाहत हमेशा कायम नहीं रह सकती! रैदास असल में राजा-रहित व्यवस्था की तरफ संकेत कर रहे हैं. वे श्रम/श्रमिक की बादशाहत चाहते हैं-

आवादाना रहम औजूद l
जहाँ गनी आप बसै माबूद ll

आवादान (फारसी) गुलजार-बसावट या उर्वरा भूमि है. यहाँ रहम/करुणा का वजूद है. सब संपन्न हैं क्योंकि यहाँ स्वयं ‘माबूद’ बसता है. मा’बूद (अरबी) का मानी है- जिसको पूजा जाए. ईश्वर को मा’बूद कहा जाता है. यहाँ ‘ईश्वर’ से रैदास का आशय है-

स्रम को ईसर जानि कै, जउ पूजै दिन रैन l
रविदास तिन्हहिं संसार मंह, सदा मिलै सुख चैन ll 14  

बेगमपुर श्रम के बल पर बनने वाली व्यवस्था है. गम (दुःख-अंदोह-शोक) का समापन मेहनतकश समाज ही कर सकता है. यहाँ श्रम ही सत्य है, श्रम ही ईश्वर है. संत-कवि राज्य में व्यवस्था तो चाहते हैं लेकिन राजा नहीं. सुव्यवस्था और बादशाह में कोई अनिवार्य संबंध नहीं है.  

एक ही राजा प्रजा को परेशान करने के लिए पर्याप्त है और अगर दो राजा हुए तो प्रजा का दुख द्विगुणित होना अवश्यंभावी है. यह सामंती समय में सामंतवाद की आलोचना है. तुलसीदास की समझ से दुराज में प्रजा का दुःख दिन-दिन दूना होता जाता है- 

“दिन दिन दूनो देखि दारिद दुकाल दुख. दुरित दुराज, सुख सुकृत सकोचु है.” (‘कवितावली’, 7/81.) सिंधी-हिंदी संत कवि रोहल फ़कीर (1704-1783) कहते हैं- 

“दो राजा के राज में सुखी रहा न कोय.”15 रीतियुगीन कवि बिहारी (1595-1663) दो राजाओं के शासन को प्रजा के लिए असहनीय बताते हैं-

दुसह दुराज प्रजान को क्यों न बढ़ै दुख दंद l
अधिक अंधेरो जग करै मिलि मावस रवि चंद ll 16

बिहारी ने दिल्लीपति औरंगजेब और जयपुर नरेश जयसिंह के दुराज में दुखी प्रजा को देखा था जैसे आज के कवि राजसत्ता और कारपोरेट-सत्ता के दुहरे शासन में त्रस्त जनता को देख रहे हैं. लेकिन, थोड़ा ध्यान से देखा जाए तो अभी दो की जगह पाँच सत्ताएं शासन चला रही हैं-

 i) देशी कॉरपोरेट की सत्ता, 

ii) बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सत्ता, 

iii) संघ/हिंदुत्व की सत्ता, 

iv) मोशा की सत्ता, और 

v) पारंपरिक राजनीतिक/प्रशासनिक सत्ता. 

यह बेवजह नहीं है कि जनता इन दिनों कुछ अधिक ही संत्रस्त है. आगमजानी कवि पलटू साहिब ने कहा था-

रैयत एक पाँच ठकुराई, दस दिसि है मौआसा l
रजो तमो गुण खरे सिपाही, करहिं भवन में बासा ll
पाप पुन्य मिलि करहिं दिवानी, नगर अदल न होई l
दिवस चोर घर मूसन लागे, मालधनी गा सोई ll 17

पाँच शासकों से शासित प्रजा दस दिशाओं से मूसी=शोषित की जाती है. दसों दिशाओं में ठग सक्रिय हो जाते हैं. तामसिक-राजसिक सिपाही उन ठगों के पिछलग्गू बना दिए जाते हैं. राजभवन पर उनका कब्ज़ा हो जाता है. पाप पुण्य में मिल जाता है. दीवानी (=मुकदमों) में ये दोनों जुड़ जाते हैं, जोड़ दिए जाते हैं. सच और झूठ में इस तरह घालमेल होता है कि राज्य की न्याय-व्यवस्था ध्वस्त हो जाती है. नगर में अदल= न्याय होता ही नहीं. ऐसे में (भयमुक्त) चोर जनता को दिन में ही मूसने=लूटने लगते हैं. इस लूट को रोकने की बजाए मुखिया चादर तान सो जाता है.  तुलसीदास का हृदय पहरुए = चौकीदार को चोरी करते देख हाहाकार कर उठता है-

कलि की कुचालि देखि दिन दिन दूनी देव
पाहरुई चोर हेरि हिय हहरानु है l 18  

‘मन की बात’ समकाल का बड़ा प्रचलित मुहावरा है. संत-कवियों ने इस पर पर्याप्त विमर्श किया था. अंतःकरण चार हिस्सों से मिलकर बनता है- मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार. इन चारों के दो युग्म हैं- मन-अहंकार और बुद्धि-चित्त. पहला युग्म नकारात्मक है और दूसरा सकारात्मक. मनमुखी अहंकारी होते हैं जबकि चित्तमुखी विवेकी. अंतःकरण में मन की प्रबलता के दुष्परिणामों को दर्शाने के लिए संत-कवि रोहल ने ‘मन परबोध’ नामक ग्रंथ ही लिखा. संवाद-शैली में लिखे इस काव्य-ग्रंथ में कहा गया है कि मन और चित्त में टकराव होता रहता है. मन को एकाधिकार चाहिए. इसके लिए वह हर तरकीब अपनाता है. अपनी निरर्थक मुखरता के बल पर वह चित्त को चुप करा देता है-

चित को कह्यो न मन करे, मन को कह्यो न चित्त l
काया  नगरी   ग्राम   महं,  दोऊ  झगड़त  नित्य ll
चित्त चुपाता हो रह्या, देखा मन में जोर l
ताका बल लागे नहीं, बहुता भीरा जोर ll 19

विजयी मन राजा बन बैठता है. इस राजा के मंत्रियों में प्रमुख हैं- काम, क्रोध, लोभ, मोह, और अभिमान-

काम क्रोध बलवान हैं, लोभ मोह अभिमान l
मन राजा के मंतरी, पाँच भये परधान ll 20

देवेन्द्र और नरेन्द्र दोनों को मनमुखी बताते हुए संत रज्जब अली कहते हैं कि इनकी तृष्णा कभी शांत नहीं होती, भले ही इन्हें तीनों लोकों की संपत्ति मिल जाए-

तीनि लोक मन को मिलै, तृष्ना तृपति न होइ l
रज्जब भूखे  देखिये,  सुरपति  नरपति जोइ ll 21

ऐसे मनाधिकृत नृपति की विशेषताओं पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए रज्जब कहते हैं कि वे ऊपर से विरक्त (फ़कीर, योगी) का बाना धारण करते हैं लेकिन भीतर अनंत भूख भरी होती है. वे जूते-चप्पल त्यागने का दावा करते हैं परंतु समस्त लोकों की संपदा की प्यास अंतरतम में सुलग रही होती है. अपनी कपट कला से वे जनता को रिझा लेते हैं किंतु (जनता की) रोजी-रोटी के ठिकानों पर नित नए प्रहार करते रहते हैं. हितैषी का भेस धरे ठग (राजा को दूसरे लोग चाहे न पहचान पाएं लेकिन) संत जन इस लखैरे (आवारा) पाजी को पहचान जाते हैं-

विकृत  रूप  धर्यो  बप  बाहिर,  भीतर  भूख  अनंत बिराजी l
ऊपरि सौं पनही पुनि त्यागी जु, माहिं तृषा तिहुं लोक की साजी l
कपट कला करि लोग रिझायो हो, रोटी की ठौर करी देखो ताजी.
हो रज्जब रूप रच्यो ठग को जिय, साध लखे सब लाखिर पाजी ll 22 

इस मन को राजा से जोड़कर देखने के स्थान पर पलटू साहिब ने बनिया से जोड़कर देखा है. यह मन-बनिया अपनी आदत नहीं छोड़ता. डंडी मारता है. हमेशा घटतौली करता है. उसे सज-संवर कर घूमते रहने का बड़ा शौक है. मंहगी पोशाकें पहनता है. फिर ऐंठते-इतराते हुए चलता है. यह जनम-जनम का अपराधी है. महा लबार है. अव्वल दर्जे का झूठा है. उसके मुंह से कभी सच निकलता ही नहीं-

मन बनिया बान न छोड़ै ll
पूरा बांट तरे खिसकावै, घटिया को टकटौरे l
पसंगा माहै करि चतुराई, पूरा कबहुं न तौले ll

- - -

पाँच तत्त का  जामा  पहिरे,  ऐंठा  गुइंठा  डोलै l
जनम जनम का है अपराधी, कबहूँ साँच न बोलै ll 23  

संत पलटू स्वयं कांदू या कांदो बनिया थे. उन्होंने जिस तीव्रता से ब्राह्मण-आचार की बखिया उधेड़ी है उसी निर्ममता से वणिक-वृत्ति का भी अनावरण किया है. उनके कई छंदों में वणिक-बेईमानी की चर्चा है. वे इस स्वभाव को असामधेय मानते प्रतीत होते हैं-

बनिया बानि न छोड़ै पसंघा मारे जाय ll
पसंघा मारे जाय पूर को मरम न जानी l
निसु दिन तौलै घाटि खोय यह परी पुरानी ll 24

आदत को ‘खोय’ कहते हैं. संत सहजोबाई भी इसी जाति-समुदाय से थीं. वे मेवात के ढूसर बनिया परिवार में पैदा हुई थीं. उन्होंने काया-नगर से मन-बनिया के निष्कासन की मांग की है-

बाबा, काया नगर बसावौ ll
..पाप बनिया रहन न दीजै धरम बजार लगावौ ll 25

सामाजिक सद्भाव के हिमायती संत पलटू कृषि-चक्र के लिए यह रूपक चुनते हैं- 

“मुसलमान रब्बी मेरी हिन्दू भया खरीफ. हिन्दू भया खरीफ दोऊ है फसिल हमारी. इनको चाहे लेइ काटि कै बारी बारी.”26 

सभी घटक मिलकर समाज को पूर्णता देते हैं. मन इस पूर्णता को छिन्न-भिन्न करने में लगा रहता है. पलटू इसलिए बार-बार अनर्थकारी मन की तरफ ध्यान दिलाते हैं. अंतःकरण का संतुलन बिगाड़ देने वाले मन को वे अधम मानते हैं. यह मन चोरों का मुखिया है. अवगुणों की खान है. कुल मिलाकर, बड़ा क्रूर-कठोर है-

पलटू यह मन अधम है, चोरों से बड़ चोर l
गुन तजि औगुन गहतु है, तातें बड़ा कठोर ll 27  

जब हम किसी अर्थव्यवस्था को कृषि आधारित कहते हैं तो उसका अर्थ होता है कि व्यवस्था के अन्य अंग कृषि पर अवलंबित हैं. खेती में परिवर्तन से शेष प्रणाली में बदलाव हो जाएगा क्योंकि हर कड़ी एक-दूसरे से जुड़ी है. उस प्रणाली को ठप करना है तो किसानों से उनकी खेती छीन लेना पर्याप्त है. इस परस्परावलंबन को, कड़ी में टूट के परिणाम को तुलसीदास ने ‘कवितावली’ की इन पंक्तियों में दर्ज किया है-

खेती न किसान को भिखारी को न भीख बलि,
बनिक को बनिज न चाकर को चाकरी l
जीविका विहीन लोग सीद्यमान सोच-बस,
कहैं एक एकन सों “कहाँ जाई का करी?” ll 28

किसान से खेती अपहृत कर ली जाए तो पूरी व्यवस्था भरभरा पड़ेगी. भिखारी को भीख में अन्न नहीं मिलेगा. बनिए का वाणिज्य रुक जाएगा. नौकरियाँ मिलनी बंद हो जाएंगी. मिली नौकरियाँ छूट जाएंगी. छीजते हुए जीविका विहीन लोग एक-दूसरे से पूछेंगे कि कहाँ चला जाए, क्या किया जाए? यह भय और उचाट की मनःस्थिति है. 

तुलसीदास का भरोसा रामराज्य में है. यह भरोसा रामराज्य की प्राथमिकताओं से उपजा है. किसानी अगर जीवन किंवा अर्थव्यवस्था का मूलाधार है तो रामराज्य में उसे प्रथम वरीयता दी गई है-

खेती बनि बिद्या बनिज, सेवा सिलिप सुकाज l
तुलसी सुरतरु सरिस सब, सुफल राम के राज ll 29

वरीयता-क्रम में सातों क्षेत्र हैं– खेती, मजदूरी, (‘बनि’ खेतिहर मजदूरी के लिए प्रयुक्त होता है.), विद्या, वाणिज्य, सेवा (चिकित्सा, अभियांत्रिकी आदि क्षेत्र), शिल्पकारी-दस्तकारी, और राजकीय/सरकारी कामकाज. शासन-सत्ता की प्राथमिकताओं का यह क्रम-निर्धारण ध्यान देने योग्य है. मगर, इससे भी ज्यादा ध्यान देने योग्य बात दूसरी है. तुलसीदास उस ताकत की पहचान कराते हैं जो ऐसी प्राथमिकताओं वाले शासन में बाधक है. वे साफ-साफ़ कहते हैं कि देवसत्ता रामराज्य की, खुशहाल समाज की सबसे बड़ी शत्रु है. 

आज की राजनीतिक शब्दावली में देवसत्ता को दक्षिणपंथ कहेंगे. दक्षिणपंथ धर्म से वैधता हासिल करता है. अपने को देवताओं से जोड़ता है. स्वयं को प्रश्नातीत ठहराता है. इसकी कथनी और करनी में विलोम संबंध होता है. तुलसीदास ने ‘मानस’ के द्वीतीय सोपान में देवसत्ता का सविस्तार चित्रण किया है. राम को उत्तराधिकारी घोषित किया जाना है. अयोध्या की जनता परम प्रसन्न है. यह देवताओं को सहन नहीं. वे मलिन-मन के स्वार्थी लोग हैं. कुचक्र रचने में उन्हें महारत हासिल है- ‘तिन्हहिं सोहाय न अवध बधावा. चोरहिं चांदिनि राति न भावा..’ जैसे चोर अंधेरी रात में सहज महसूस करता है वैसे देवसत्ता भयाकुल-शोकाकुल जनसमाज में सुरक्षित अनुभव करती है. अपनी सत्ता को सुरक्षित बनाए रखने के लिए वह चार स्तरों पर कार्य करती है- वह जनता को भयग्रस्त रखती है, समाज को भ्रमित करती है, लोगों में अ-रति (नफरत/ दूरी/ विभाजन) फैलाती है और जनसामान्य में उचाट (निराशा/ अस्थिरता) भरती है-

सुर स्वार्थी मलीन मन, कीन्ह  कुमंत्र  कुठाटु l
रचि प्रपंच माया प्रबल भय भ्रम अरति उचाट ll 30

दक्षिणपंथी दावा यही करते हैं कि वे रामराज्य की स्थापना करेंगे. तुलसीदास चेताते हैं कि ये इतने क्रूर और कायर हैं कि मरे हुए को मारकर मंगल की कामना करते हैं-‘मुए मारि मंगल चहत.’ (मानस, 2/301) रामराज्य की स्थापना के सबसे बड़े विरोधी तथाकथित रामभक्त ही हैं-

बंचक भगत कहाइ राम के l
किंकर कंचन कोह काम के ll 31

अपने को रामभक्त कहने वाले ये ठग वास्तव में संपत्ति, हिंसा और काम-वासना के दास हैं. तुलसीदास इसीलिए कहते हैं रामराज्य में सबसे बड़ी बाधा यह देवसत्ता ही है-

राम राज बाधक बिबुध, कहब सगुन सति भाउ l
देखि देवकृत दोष दुख, कीजै उचित उपाउ ll 32    

ऐसी जनद्रोही सत्ता से कैसे निपटा जाए? तुलसीदास भरोसा देते हैं कि यह सत्ता अडिग-अपराजेय नहीं है. इसका अंत कौरवों जैसा होगा- 

“राज करत बिनु काज हीं, ठटहिं जे कूर कुठाट. तुलसी ते कुरुराज ज्यों, जइहैं बारह बाट..” (‘दोहावली’, दो.सं. 417). 

दुर्दिन लाने वाली सत्ता अपने-आप नहीं जाएगी. इस सत्ता को ‘बारह बाट’ भेजने के लिए संगठित प्रयत्न करने होंगे. सत्ताधारी को नरक का रास्ता दिखाना होगा-

जासु राज प्रिय  प्रजा  दुखारी l
सो नृप अवसि नरक अधिकारी ll33  

भय, भ्रम, अ-रति और उचाट की राजनीति इन दिनों उफान पर है. किसानों के आंदोलन को नष्ट-भ्रष्ट करने के लिए पुरज़ोर कोशिशें की जा रही हैं. किसानों को क्षेत्र, भाषा, वर्ग और धर्म के आधार पर बाँटकर आंदोलन को कमज़ोर करने का अभियान चल रहा है. इसमें सरकार को सफलता नहीं मिल रही है. मूल वजह कबीर ने पहचानी थी- ‘गई ठगौरी ठग पहिचाना.’ ठग की शिनाख्त कर ली जाए तो ठगी का जाल सिमटने लगता है. तब आसन्न उजाड़ के सम्मुख खड़े किसान खलिहान न जाकर बरबादी के स्रोत की घेराबंदी करते हैं. 

कॉर्पोरेट को असीमित भंडारण की छूट क्या किसानों और उपभोक्ताओं को राहत प्रदान करने के लिए है? कालाबाजारी को वैध बनाने से किसका भला होने जा रहा है? एपीएमसी एक्ट को निष्प्रभावी बना देने से किसान विशालकाय मगरमच्छों का ग्रास बनने से कैसे बच पाएंगे? मंडी व्यवस्था को सुधारने की बजाए समाप्त कर देने से क्या किसानों का सशक्तीकरण होगा? ठेके पर खेती आरंभ होने से क्या किसानी औपनिवेशिक दौर में नहीं पहुँच जाएगी? अन्नदाताओं को अनाज पैदा करने की बजाए लाभदायक कैश-क्रॉप (नगदी फसल जैसे तम्बाकू, नील, अफीम...) आदि उपजाने के लिए क्या मजबूर नहीं किया जाएगा? बहुराष्ट्रीय कंपनियां या कॉर्पोरेट प्लेयर्स दुर्भिक्ष के हालात पैदा करके कितना वसूलेंगे? दो शताब्दी  पहले के संत-कवि पलटू साहिब ने चौगुने दाम पर बेचे जाने का अनुमान लगाया था-

सस्ते मँहै अनाज खरीद के राखते l
महँगी में डारैं बेचि चौगुना चाहते ll 34  

संकट की विराटता, गहराई और भयावहता का अनुमान करके ही देश के किसान उद्वेलित हैं, संगठित हैं तथा संकल्पित हैं. किसानों की तबाही का असर जिन पर पड़ेगा वे तबके भी आंदोलन के हिस्सेदार हो रहे हैं. तबाही का प्रारूप तैयार करने, लागू करने वाले पाँचों शक्ति-केन्द्रों को अपने किए का हिसाब देना ही होगा. इसे न तो इतिहास भूलेगा, न भविष्य. यह परिघटना लोकचित्त में बनी रहने वाली है- 

“खोटे वणजिए मनु तनु खोटा होय.”35  

नए कृषि क़ानून खोटे= घटिया वाणिज्य को मजबूती देने के लिए लाए गए हैं. इसका असर पूरे सिस्टम पर पड़ेगा. यह मन और तन दोनों को विकृत करेगा. हिंसा में उछाल आएगा. हत्याओं-आत्महत्याओं का ग्राफ तेजी से बढ़ेगा. समाज के विभिन्न घटकों में पहले से चला आ रहा टकराव घातक शक्ल अख्तियार करेगा. दासता का वह विस्मृत दौर अधिक मजबूत होकर नए संस्करण में वापसी करेगा. आंदोलनकारी किसान इसे रोकना चाहते हैं. वे मोर्चे पर डटे हुए हैं. 

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संदर्भ सूची

1.    ‘पलटू साहिब की बानी’ भाग-1, (संस्करण 1993) पलटूदास, बेलवीडियर प्रिंटिंग वर्क्स, इलाहाबाद,  पृ. 108.
2.    ‘गुरु नानकदेव : वाणी और विचार’ (प्र.सं. 2003), रमेशचन्द्र मिश्र, संत साहित्य संस्थान, 3611, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली, पृ. 259-60. इस लेख में आए गुरु नानक के सभी उद्धरण इसी किताब से हैं.
3.    ‘संत सुधा सार’, (1969), वियोगी हरि, सस्ता साहित्य मण्डल, नई दिल्ली, पृ. 157.
4.    वही, पृ. 35.
5.    ‘रज्जब बानी’, (1963), सं. डॉ. ब्रजलाल वर्मा, उपमा प्रकाशन, प्रा. लि. कानपुर, पृ. 275.
6.    ‘संत साहित्य संदर्भ कोश’ (पहला भाग, 2015), रमेशचन्द्र मिश्र, संत साहित्य संस्थान, दरियागंज, नई दिल्ली, पृ. 261.
7.    वही, पृ. 261.
8.    ‘रामचरितमानस’, 2/111/6.
9.    ‘संत साहित्य संदर्भ कोश’ (चौथा भाग, 2015), रमेशचन्द्र मिश्र, संत साहित्य संस्थान, दरियागंज, नई दिल्ली. पृ. 1384.
10. ‘संत साहित्य संदर्भ कोश’ (पहला भाग), पृ. 261.
11. ‘रज्जब बानी’ पृ. 321.
12. ‘रैदास रचनावली’ (2006), सं. गोविंद रजनीश, अमरसत्य प्रकाशन, प्रीत विहार, दिल्ली-92, पृ. 138. 
13. वही, पृ. 91.
14. वही, पृ. 138.
15. ‘संत रोहल फ़कीर ग्रंथावली’ (2016), सं. डॉ. रमेशचन्द्र मिश्र, संत साहित्य संस्थान, दरियागंज, नई दिल्ली-2, पृ. 102.
16. ‘बिहारी सतसई संजीवनी’ (1998), रामदेव शुक्ल, भवदीय प्रकाशन, अयोध्या, फैजाबाद, दोहा संख्या- 357, पृ. 126.
17.  ‘पलटू साहिब की बानी’ भाग-3 (2001), बेलवीडियर प्रिंटिंग वर्क्स, इलाहाबाद, पृ. 67.
18.  ‘कवितावली’,7/80, तुलसी ग्रंथावली द्वितीय खंड, (सं.2031 वि), सं. रामचंद्र शुक्ल आदि, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, पृ. 180.
19. ‘संत रोहल फ़कीर ग्रंथावली’, ‘मन परबोध’ ग्रंथ, पृ.157.
20. वही, पृ. 153.
21. ‘संत रज्जब अली : वाणी और विचार’ (2002), डॉ. रमेशचन्द्र मिश्र, संत साहित्य संस्थान, दरियागंज, नई दिल्ली-02, पृ. 232.
22. वही, पृ. 204.
23. ‘पलटू साहिब की बानी’ भाग-3, पृ. 33.
24. वही, पृ. 83.
25. ‘संत सुधा सार’, पृ. 470.
26. ‘पलटू साहिब की बानी’ भाग-1, पृ. 108.
27. ‘पलटू साहिब की बानी’ भाग-3, पृ. 77.
28. ‘कवितावली’ 7/97, तुलसी ग्रंथावली द्वितीय खंड, पृ. 185-6.
29. ‘दोहावली’ (दोहा संख्या 184), और ‘रामाज्ञा-प्रश्न’ सप्तक-2, दोहा-7, तुलसी ग्रंथावली द्वितीय खंड, पृ. 99.
30. ‘रामचरितमानस’, गीताप्रेस गोरखपुर, 2/295.
31. वही, 1/12/3.
32. ‘रामाज्ञा-प्रश्न’ सप्तम सर्ग, सप्तक-2, दोहा-7, तुलसी ग्रंथावली द्वितीय खंड, पृ. 82.
33. ‘रामचरितमानस’, 2/71/6.
34. ‘पलटू साहिब की बानी’ भाग-2, (छठा रीप्रिंट, 1954) ‘भेष’, अरिल-29, पृ. 68; ‘संत साहित्य संदर्भ कोश’ (पहला भाग), पृ. 238.
35. ‘गुरु ग्रंथ साहिब, महला-1, सबद-23. ‘गुरु नानकदेव : वाणी और विचार’ पृ. 155. उद्धृत पंक्ति का भावार्थ है- ‘खोटे वाणिज्य कर्म से मन और देह दोनों खोटे होते हैं.’
इस आलेख में कृषि कानूनों से संबंधित अधिकांश जानकारियां प्रख्यात अर्थशास्त्री जया मेहता के हिंदी में अनूदित एक लेख से ली गई हैं. लेख यहाँ उपलब्ध है- https://www.infoway24.com/an-analytical-review-of-three-agriculture-acts-by-the-modi-government-by-dr-jaya-mehta

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बजरंग बिहारी तिवारी
bajrangbihari@gmail.com


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आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. बहुत महत्वपूर्ण , प्रासंगिक और चिंतनशील लेख।
    भक्ति काल की प्रासंगिकता को फिर से स्थापित करती है। इस पूरे आंदोलन को व्यापक परिप्रेक्ष्य में रखता है। बजरंग बिहारी जी से अनुमति ले कर इसका गुजराती में अनुवाद करूंगी। आज ऐसे लेख की आवश्यकता है। धन्यवाद बजरंग बिहारी जी और अरुण जी

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  2. स्वागतयोग्य। गुजराती में इसका ज़रूर अनुवाद होना चाहिए।

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  3. सुशील सुमन30 दिस॰ 2020, 10:50:00 am

    प्रो. बजरंग बिहारी तिवारी का यह आलेख भक्ति- कविता की जनपक्षधरता को बख़ूबी हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है। मौजूदा दौर में इसे पढ़ते हुए ऐसा महसूस होता है कि मानो पाँच- छह सौ वर्ष पूर्व की भक्तिकालीन काव्य- धारा, आज चल रहे किसान आंदोलन को सम्पूर्ण नैतिक समर्थन देती और आज की किसानद्रोही राजसत्ता का जबरदस्त प्रतिकार करती खड़ी हो।

    प्रो. तिवारी ने भक्ति- कविता और ख़ासकर सन्त काव्यधारा का बहुत ही सामयिक और प्रभावशाली विश्लेषण इस आलेख में प्रस्तुत किया है।

    नितान्त पठनीय आलेख।

    साझा किया।

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  4. दया शंकर शरण30 दिस॰ 2020, 11:02:00 am

    बजरंग बिहारी तिवारी ने अपने विस्तृत आलेख में किसान आंदोलन के अंतर्निहित कारणों की पड़ताल करते हुए उसकी संवेदना को पूरे भक्तिकाल के कवियों की कृषि-संवेदना से जोड़ दिया है। इससे अधिक कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं, इसे पढना-गुनना हीं बेहतर है । बजरंग जी एवं समालोचन को हृदय से साधुवाद !

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  5. बहुत महत्वपूर्ण और पठनीय आलेख. भक्तिकालीन साहित्य के विशेषज्ञ बजरंग जी ने भक्तिकालीन साहित्य की प्रासंगिकता को बेहतरीन ढंग से रेखांकित किया है. हार्दिक साधुवाद.

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  6. विनोद शाही30 दिस॰ 2020, 11:48:00 am

    यह आलेख भक्ति साहित्य को हमारे समय में सीधे हस्तक्षेप करने लायक बनाता है। बहुत ही श्रम पूर्वक किया गया यह कार्य अनेक दृष्टिकोण से विचारणीय है। इसे पढ़कर जो पहला सवाल तो यही उठ कर खड़ा हो जाता है कि जिस साहित्य में इतना मजबूत सत्ता प्रतिरोधी विमर्श हो उसे हम भक्ति का साहित्य किस अर्थ में कहते हैं?
    दूसरी बात हमारे समय से ताल्लुक रखती है। किसान आंदोलन में मध्यकाल के अनेक रूपकों का उद्बोधन हुआ है। गुरु नानक और सिख परंपरा से जुड़े अनेक उत्सव सड़कों पर आ गए हैं, जिस से उनके सत्ता प्रतिरोधक रूप में मनाए जाने के संकेत स्पष्ट रूप में उभरे हैं। इस आलेख के आधार पर पूरे भक्ति साहित्य और अन्य सभी संतों की वाणियों के उद्बोधन की प्रासंगिक संभावनाएं हमारे सामने है। पूरे भारत को इस आंदोलन से जोड़ने के लिए इन सभी संतों की वाणियो का प्रभावपूर्ण इस्तेमाल किया जा सकता है।

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    1. बिल्कुल मिसनोमर है यह. सहमत हूँ सर

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    2. विनोद शाही और अजेय जी,
      हिंदी साहित्येतिहास की एक बिडंबना यह भी है कि जिस युग के साहित्य में जनपक्षधर कविता की जा रही है, सत्ता का मजबूत प्रतिरोध रचा जा रहा है उसे भक्तिकाल कहा जाता है!
      डॉ. रामविलास शर्मा ने शायद यही सोचकर इसे लोकजागरण का युग कहा था।

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  7. विनोद तिवारी30 दिस॰ 2020, 6:56:00 pm

    भक्ति-काव्य बजरंग जी का बहुत ही प्रिय क्षेत्र है । समसामयिक लेख । मध्ययुग को भी आधुनिक पाठ के साथ पढ़ा जा सकता है ।

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  8. संजीव कुमार30 दिस॰ 2020, 6:58:00 pm

    संग्रहणीय और वितरणीय लेख। इनमें से कितना कुछ हम आधुनिक साहित्य तक सिमटे लोगों को पता ही नहीं था। सबसे मजेदार तो वह हिस्सा लगा जहाँ बजरंग जी ने 'मन की बात' की छिलाई की है। परंपरा के रक्षक होने का दावा करने वाले आज के सत्ताधीशों को यह लेख पढ़वाना चाहिए।

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    उत्तर
    1. सत्तासीन इसे क्यों पढेगा और और फायदा भी क्या है उसे पढा कर. वितरण वाला मामला ठीक है.

      हटाएं
  9. अत्यंत सामयिक लेख के लिए बधाई. यह लेख भक्ति काव्यधारा के आलोक में भारतीय जनमानस और किसान की समस्या को समझाने में काफी हद तक सक्षम है. पुनः बधाई.

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  10. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 31.12.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा| आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी
    धन्यवाद

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  11. राजाराम भादू30 दिस॰ 2020, 8:25:00 pm

    बजरंग बिहारी तिवारी ने भक्ति काव्य का एक जरूरी प्रत्याख्यान प्रस्तुत किया है। यह मौजूदा किसान आन्दोलन को ऐतिहासिक नैतिक व बौद्धिक परिप्रेक्ष्य और संवेदनात्मक संबल प्रदान करता है। बजरंग का इस जन- संघर्ष में यह अपनी तरह का मूल्यवान विनियोग और समर्थन है। उन्हें और समालोचन को साधुवाद !

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  12. बहुत महत्त्वपूर्ण लेखा। इसे पढ़कर पूरे मध्यकालीन जनपक्षधर साहित्य का पाठान्तर होता है।

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  13. बहुत परिश्रम से किया गया शोध है जी, बजरंग जी को साधुवाद आभार समालोचन

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  14. ऐसी शोधदृष्टि विरल ही देखने काे मिलती है। आज के सारे मानवताविरोधी चेहरे संतसाहित्‍य के उद्धरणों से बेनक़ाब कर दिये बजरंग जी ने। इस ऐतिहासिक किसान आंदोलन को विफल करने के सारे हथकंडे फ़ासीवादी सांप्रदायिक सत्‍ता ने आजमा लिये, अब मुझे आशंका हो रही है कि कहीं चीन के साथ या पाकिस्‍तान के साथ छोटीमोटी झड़प करके और किसानों के ही कुछ बेटों की बलि चढ़ाकर वे अपने छद्म राष्‍ट्रवाद से इस आंदोलन को न कुचल दें। शेक्‍सपीयर के हेनरी चतुर्थ नाटक में मरणासन्‍न राजा ने अपने नाकारा बेटे को यही सलाह दी थी कि वह उसके मरने के बाद फ्रांस से युद्ध छेड़ दे तो महान राजा कहलायेगा। अंतरराष्‍ट्रीय वित्‍तीय पूंजी की गुलाम सत्‍ता के भीतर यह अमानवीय विकार मौजूद है, गुरु नानक ने कहा था, 'संची संपति भये विकारी'

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  15. डॉ उमाकांत द्विवेदी31 दिस॰ 2020, 4:46:00 pm

    बजरंग जी के लेख को दुबारा पढ़ने के बाद मध्यकाल से लेकर आजतक की कृषि और किसान की स्थितियों का एक सुस्पष्ट परिदृश्य सामने उभर कर आ गया ।

    उत्तम खेती मध्यम बान ।
    निषिध चाकरी भीख निदान ।।

    इस पद का आज जितना अर्थ समझ में आया , उतना पहले कभी नहीं । संतों और कवियों की बानी में किसानी एक उदात्त क्रिया थी , व्यवसाय तो बिल्कुल नहीं। किसान पूज्य था , क्योंकि सबका पेट भरता था । पेट भरना जीवन का उतना ही महत्वपूर्ण कार्य था जितना ईश्वर की पूजा । सूरदास ने सही कहा कि कितना भी कोई ऊंची बात करले लेकिन बिना भूख शांति किये कुछ भी बेकार है ।
    भूखे भजन न होइ गोपाला । किसान समाज के सबसे ऊपर पायदान का व्यक्ति है , संतों से भी । क्योंकि संतों की निर्भरता किसान पर है लेकिन किसान की निर्भरता संतों पर नही है।
    ऐसे किसान और किसानी की दुर्गति जो राजा करेगा उसका हश्र बुरा ही होगा ।
    बजरंग जी ने अतीत और वर्तमान को किसान के सूत में ऐसा बांधा है कि आज की सत्ता और वणिकों दोनो से दुराव लगने लगा । इस लेख को शेयर करने के लिए आपका बहुत - बहुत आभार ।

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  16. सत्यदेव त्रिपाठी31 दिस॰ 2020, 10:04:00 pm

    डॉ.बजरंग बिहारी तिवारी का आलेख हमेशा की तरह गहन शोध और पैनी दृष्टि का परिचायक है। समकालीन युग में भक्ति काव्य की प्रासंगिकता को विविध संदर्भों में वे रेखांकित करते रहे हैं...। इस बार बिल्कुल आज की किसान समस्या को लेकर जो सटीक जोड़ भक्ति काव्य से लेकर आये हैं, बेहद कारगर है -ज्वलंत बन गया है। जहाँ लोग भक्ति काव्य की बात करते हुए तीन-चार प्रतिनिधि कवियों में ही अटक जाते हैं, तिवारीजी तमाम अन्य कवियों की रचनाओं को सामने लाते हैं, जिससे आज के समय तीव्र आलोचना के साथ तब की काव्य-समृद्धि भी उजागर होती रहती है। इस कठिन श्रम-लगन व प्रदेय के लिए उन्हें हार्दिक बधाई...

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  17. MA में मैं एक विषय साहित्य सिद्धान्त और समालोचना पढ़ रहा हूँ जो साहित्यशास्त्र के अंतर्गत आता है।

    भक्तिकाल आज के समय में भी कितना प्रासंगिक है जो वर्तमान समय के समस्याओं को पर प्रकाश डाल सुलझाने का सामर्थ्य रखता है जरूरत है तो मेहनत कर समझने की।

    भक्तिकाल का आधुनिक युग (किसान)के संदर्भ में समालोचना कभी न देखा था न ठीक से समझ पाया था कि समालोचना क्या होता है। मैं विद्यार्थी के रूप में आपके परिश्रम पूर्ण समालोचना के लिये सत-सत प्रणाम करता हूँ।

    एक नागरिक और किसान पौत्र होने के नाते मैं जो आपके लेख के माध्यम से किसान आंदोलन के कारणों को समझा उसके लिए आपको हृदय से धन्यवाद।

    🌹🙏🌹

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  18. भक्त कवियों की कविताओं का यह व्यवस्थित, प्रासंगिक और नया पाठ है। हालांकि इससे पूर्व किसान जीवन के सन्दर्भ में भक्त कवियों की कविताओं के पाठ हुए हैं किन्तु आपके पाठ से बिल्कुल भिन्न हैं या यह भी कहा जा सकता है कि मैनेजर पाण्डेय जी के पाठ से यह बहुत आगे का पाठ है।

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  19. प्रो. अनिल राय2 जन॰ 2021, 8:45:00 am

    समालोचन पर आया आपका यह लेख एक सांस में पढ़ गया । शोधपूर्ण , सामयिक और ज़रूरी लेख है । कई लोगों की टिप्पणियां भी दिखीं । पता नहीं राजाराम भादू ने इसे किस अर्थ में भक्ति साहित्य का प्रत्याख्यान कह दिया है ? सत्यदेव त्रिपाठी भक्ति कविता के सामर्थ्य पर तो प्रमुदित हैं , लेकिन आज के किसान आंदोलन की अंतर्वस्तु और वर्तमान सत्ता के बीच के द्वंद्व के बारे में चुप लगा गए हैं ।

    आपके इस लेख में साहित्य और राजनीति के तत्व मिलकर हमारे इस समय के एक बड़े दारुण प्रसंग और उसके सच को सामने लाते हैं । उन भूली - बिसरी कविताओं को इस मुश्किल समय में याद करते हुए आपने उन्हें एक नया जीवन दे दिया है । रचने वाला तो महत्वपूर्ण होता ही है , अपने समय - संदर्भों में उस रचे हुए की प्रासंगिकता की ओर ध्यान आकृष्ट कर देने वाला आप जैसा अन्वेषक व्याख्याकार उससे कम महत्वपूर्ण नहीं होता ।

    इस नए साल के मेरे पहले दिन को आपने इस लेख के माध्यम से विचारपूर्ण बना दिया । आभारी हूं ।

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  20. बहुत ही महत्वपूर्ण , प्रासंगिक और चिंतनशील लेख।

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  21. कालेज समय में ऐसे हिंदी के अध्यापक मिलना मुश्किल है। पर मेरा सौभाग्य है कि 1 साल तक इनका छात्र रहा। यही मेरे लिए बहुत बड़ी बात है।

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  22. सचमुच पठनीय लेख है। कारण मेरे विचार से यह है कि यह हमारी हिंदी के बुद्धिजीवियों की बौद्धिक दरिद्रता को प्रकाशित करता है। बजरंग बिहारी तिवारी जी गंभीर लेखक माने जाते हैं, इसलिए इनका हल्कापन देख कर अफसोस होता है।
    लेखक महोदय शुरुआत में ही कहते हैं कि नये कृषि कानून राज्य-सूची में दखलंदाजी हैं। आगे भी ये दुहराते हैं कि उक्त कानून बना कर केंद्र सरकार ने राज्यों के अधिकार-क्षेत्र में दखल दिया है और संविधान का उल्लंघन किया है। अब इन्हें यह मोटी बात कौन समझाये कि खाद्य वस्तुओं का उत्पादन, वितरण, व्यापार सब कुछ राज्य सूची में नहीं बल्कि समवर्ती सूची में है, जिसके बारे में संवैधानिक व्यवस्था यह है कि इस सूची के विषयों पर राज्य और केंद्र दोनों विधि निर्माण कर सकते हैं। यह भी स्पष्ट किया गया है कि केंद्र और राज्य के विधानों में कोई विरोध होने की स्थिति में केंद्रीय विधान ही मान्य होंगे। मजे की बात यह कि ये आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 की भी चर्चा करते हैं लेकिन अपनी बातों का यह स्पष्ट अंतर्विरोध इन्हें नहीं दिखता कि यदि 1955 का वह अधिनियम असंवैधानिक नहीं था तो आज के उक्त कानून भला क्योंकर असंवैधानिक होंगे। ... क्रमशः...

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  23. ...... किसानों की दशा सुधारने का बड़ा नायाब तरीका इन्होंने बताया है जो सुनने में तो अच्छा लगता है लेकिन ठोस जमीनी हकीकत देखें तो इसे शेखचिल्लीपन से इतर कुछ और उपयुक्त संज्ञा नहीं दी जा सकती। इनका कहना है कि सरकारी मंडियों की संख्या बढ़ा कर किसानों की सारी उपज एमएसपी पर खरीदने की व्यवस्था की जाय। अब वस्तुस्थिति यह है कि वर्तमान में जिन कृषि उत्पादों पर एमएसपी घोषित है, उनके कुल उत्पादन का 26% ही हमारी सरकारें खरीद पाती हैं। यदि संपूर्ण कृषि उपज की बात की जाय तो उसके कुल बाजार मूल्य का महज 7% ही सरकारी खरीद होती है। इस 7% को 100% पर पहुँचा दें, ऐसे आर्थिक और प्रशासनिक संसाधन हैं क्या हमारी केंद्र और राज्य सरकारों के पास ? मूर्खों के स्वर्ग में रहने वाले हमारे बुद्धिजीवी देवताओं के अलावा और कोई इसका जवाब हाँ में नहीं देगा। वैसे इस लाइन पर सोचने वालों को चाहिए कि पूंजापतियों के इशारे पर चलने वाली केंद्र और कुछ राज्य सरकारों से पहले किसानों और मजदूरों वाली केरल सरकार को, जिसने एपीएमसी ऐक्ट लागू ही नहीं किया था, इस बात पर राजी कर लें कि वह अपने राज्य के सारे कृषि उत्पादों की सरकारी खरीद करे। इस प्रसंग में मनोरंजक वाकया तेलंगाना का है। वहाँ के मुख्यमंत्री और टीआरएस पार्टी के सुप्रीमो के सी राव साहब ने पहले नये कृषि कानूनों का पुरजोर विरोध किया। संसद में खिलाफत की, भारत बंद को सफल बनाने में पूरी ताकत लगायी, कोई कसर बाकी नहीं रखी। उन्होंने अपने राज्य की कुछ फसलों की शत प्रतिशत सरकारी खरीद का वादा किया और राज्य भर में छह हजार सरकारी क्रय केंद्र बना कर बड़ी मात्रा में खरीद की। लेकिन ताजा खबर यह है कि अब उनके छक्के छूट गये हैं और उन्होंने घोषणा कर दी है कि अगले वर्ष से ये क्रय केंद्र काम नहीं करेंगे। अब उन्होंने नये कानूनों का समर्थन करते हुए कहा है कि इन्हें परखने के लिए समय दिया जाना चाहिए। वास्तव में व्यावहारिक और विवेकसम्मत नीति यही है कि जब देश के अधिकांश किसानों को बाजार के भरोसे ही रहना है तो बेहतर होगा कि बाजार में उन्हें विकल्प दिये जायँ और इस अनियमित क्षेत्र को नियमित किया जाय। ...... क्रमशः....

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  24. ...... ताजा कृषि कानूनों के अन्य विरोधियों की तरह लेखक महोदय ने इस झूठ को बार-बार दुहराया है कि अब खाद्य पदार्थों पर सरकारी नियंत्रण पूरी तरह समाप्त हो गया है, कोई भी मनमर्जी से इनका जितना चाहे भंडारण कर सकेगा, किसानों को मजबूर किया जायेगा, उपभोक्ताओं से मनमानी कीमतें वसूल कर उन्हें लूटा जायेगा ; जैसा अनर्गल प्रलाप। शायद लेखक महोदय ने उक्त कानूनों को पढ़ने की जहमत नहीं उठायी। असलियत यह है कि सरकार का नियंत्रण सीमित अवश्य हुआ है, समाप्त नहीं हुआ है। आवश्यक वस्तु संशोधन अधिनियम 2020 में स्पष्ट है कि प्राकृतिक आपदाओं, युद्ध और साथ ही अधिक मूल्यवृद्धि की स्थिति में अभी भी सरकार को हस्तक्षेप का कानूनी अधिकार होगा। मूल्यवृद्धि की उक्त स्थिति को परिभाषित भी किया गया है कि साल भर के अंदर सब्जियों और फलों जैसी चीजों के दाम यदि 100% या अधिक और अनाज जैसी वस्तुओं के 50% या अधिक बढ़ गये तो मूल्य-नियंत्रण हेतु सरकार को हस्तक्षेप का अधिकार होगा। मतलब आलू की औसत कीमत यदि साल भर पहले 20 रु थी और आज 40 हो गयी या दाल साल भर पहले यदि 80 में थी और आज 120 में हो गयी तो सरकार दखल दे सकेगी। .... क्रमशः...

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  25. ....... इसके अलावा, कोई भी, कितना भी भंडारण कर सकेगा वाली बात भी बकवास है। कृषक सशक्तिकरण और संरक्षण अधिनियम के सेक्शन 7(2) में प्रावधान किया गया है कि स्टाक लिमिट से छूट उसी स्टाक पर मान्य होगी जिसे इस अधिनियम के तहत किसानों से कृषि समझौते के जरिए खरीदा गया है। आवश्यक वस्तु संशोधन अधिनियम में यह भी स्पष्ट किया गया है कि फूड प्रासेसिंग में लगी कंपनी को उसकी निर्धारित प्रासेसिंग क्षमता और निर्यातक को उसके एक्सपोर्ट आर्डर जितने भंडारण की छूट होगी। मतलब भंडारण की छूट स्पष्ट शर्तों के अधीन है। इसके अलावा भंडारण सीमा में दी गयी वर्तमान ढील का विरोध वही करेगा जिसे या तो भारतीय कृषि के हालात का कोई ज्ञान नहीं है, या जो तयशुदा एजेंडे के तहत भ्रम फैलाने में लगा है। वास्तव में सभी कृषि विशेषज्ञ और अर्थशास्त्री इस बात पर एकमत हैं कि भारतीय कृषि और कृषकों की दशा सुधारने के लिए इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर पूंजी निवेश की दरकार है। वर्तमान सरकार भी यही मानती है और इससे पहले जो सत्ता में थे, वे आज राजनीतिक धूर्ततावश भले ही विरोध कर रहे हों, सत्ता में रहने के दौरान वे भी इससे सहमत थे। अब सवाल यह है कि उक्त निवेश कहाँ से आयेगा ? हमारे किसान जो ज्यादातर छोटी जोत वाले लघु या सीमांत किसान हैं, स्वयं इसमें अक्षम हैं। सरकारें भी सक्षम नहीं हैं। यह चंदा करके तो आयेगा नहीं। यह आवश्यक निवेश करने की क्षमता पूंजीपति या कारपोरेट के पास है, जिनका उद्यम बड़े पैमाने पर होगा और उसके लिए आवश्यक छूट उन्हें देनी पड़ेगी। दरअसल आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 के अंतर्गत भंडारण सीमा का कड़ाई से निर्धारण उस समय की परिस्थितियों के लिए ठीक था जब हमारा खाद्य उत्पादन हमारी आवश्यकता से कहीं कम था और थोड़े भी अतिरिक्त भंडारण से किल्लत और कालाबाजारी की स्थिति बन जाती थी। आज परिस्थिति बदल चुकी है जब हम अपनी जरूरत से पर्याप्त अधिक पैदा कर रहे हैं। हजारों टन अनाज तो हर साल उचित रख-रखाव के अभाव में सड़ जा रहा है। ...... क्रमशः ....

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  26. ...... इस प्रसंग में एक और सरकारी नियंत्रित रही आवश्यक वस्तु का उदाहरण देखना दिलचस्प होगा। यह कोई खाद्य पदार्थ तो नहीं है लेकिन अर्थव्यवस्था के लिए बड़ा ज़रूरी आइटम है - सीमेंट। कभी इसका उत्पादन, वितरण, भंडारण सब सरकारी नियंत्रण में था। जब तक ऐसा रहा, हम सीमेंट उत्पादन में आत्मनिर्भर नहीं हो सके और इस अति आवश्यक वस्तु का आयात किया करते थे। हमारी पिछली पीढ़ी के लोगों ने वह दौर देखा है जब सीमेंट की थोड़ी मात्रा पाने के लिए भी बड़े पापड़ बेलने पड़ते थे। इसकी किल्लत और कालाबाजारी आम थी और भ्रष्ट नेता और अधिकारी इसमें मालामाल हो गये थे। 1989 के बाद जब इसे डीरेगुलेट किया गया और इसे निजी क्षेत्र के लिए खोला गया तो देखते ही देखते कमी और कालाबाजारी का खात्मा हो गया और आज हम दुनिया के दूसरे बड़े सीमेंट उत्पादक और निर्यातक हैं।
    एक बिंदु पर लेखक से सहमत होते हुए प्रश्नचिह्न लगाया जा सकता है और वह है नयी व्यवस्था में विवादों के कानूनी निपटारे का मेकेनिज्म। यहाँ सिविल कोर्ट को बाहर करके केवल प्रशासनिक स्तर पर न्याय का प्रावधान उचित नहीं प्रतीत होता। यद्यपि उसके पीछे भी तर्क है कि किसानों को स्थानीय स्तर पर और त्वरित न्याय की दरकार होगी और पहले से ही मुकदमों के बोझ तले दबी हमारी न्याय-प्रणाली के चक्कर में उन्हें डालना ठीक नहीं होगा। लेकिन हमारे देश के प्रशासन और प्रशासनिक अधिकारियों की जैसी 'रेपुटेशन' है, वह भरोसा नहीं जगाती। खबरें आई थीं कि इस मुद्दे पर सरकार संशोधन के लिए तैयार है और यह ठीक भी है। विवादों के निपटारे के लिए त्वरित और विश्वसनीय न्याय-प्रणाली को सुनिश्चित किया जाना चाहिए।.... क्रमशः....

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  27. ...... बेसिरपैर की आशंकाओं को हवा देने के क्रम में अंत में तो लेखक ने कलम ही तोड़ दी है। इन्हें इलहाम हुआ है कि भविष्य में किसानों को खाद्य फसलें छोड़ कर कैश क्रॉप उगाने को मजबूर किया जायेगा। कैसे मजबूर किया जायेगा, इसका कोई तर्कसंगत कारण बताने की आवश्यकता नहीं समझी गयी। वैसे भी, इलहाम के स्पष्टीकरण की मांग तो ईशनिंदा है। इनके हिसाब से देश में अभी भी उपनिवेशवादी शासन है और हमारी भारतीय कंपनियाँँ सब ईस्ट इंडिया कंपनी जैसी हैं। खैर, इस कोटि का 'पैरानोइया' तर्क-वितर्क और प्रमाणों की पहुँच के परे होता है। कौन सी कैश क्रॉप्स ? लेखक के अनुसार जैसे तंबाकू, नील और अफीम। नील की स्थिति यह है कि इसकी खेती भारत में अंंग्रेजों के जमाने में ही बंद हो गयी थी जब इसके रासायनिक विकल्प खोज लिये गये थे। इधर पर्यावरण के प्रति जागरूकता के चलते प्राकृतिक रंगों का प्रयोग बढ़ा है तो भारत में कहीं-कहीं नील की खेती फिर से शुरू हुई है, लेकिन यह जान कर इन्हें निराशा होगी कि अंग्रेजी राज वाले निलहे साहबों की तरह इसे जबरन और बिना कीमत चुकाये नहीं उत्पादित कराया जा रहा है बल्कि किसान अपनी मर्जी से उगा कर अच्छा लाभ कमा रहे हैं। यहाँ अफीम को इन्होंने क्यों घुसेड़ दिया, समझ के परे है। अफीम जैसे नार्कोटिक सब्सटेंस का इन कानूनों से कोई लेना-देना नहीं है। भारत में चिकित्सकीय उपयोग हेतु अफीम की खेती का नियमन एनडीपीएस ऐक्ट के द्वारा होता है। नार्कोटिक ब्यूरो इसके लिए लाइसेंस जारी करता है और निगरानी करता है। खैर ये प्रगतिशील बुद्धिजीवी हैं, जो मर्जी हो कर सकते हैं। 'कुकुरमुत्ता' की ये पंक्तियाँ ऐसों के सम्मान में ही लिखी गयी हैं -
    ज्यादा देखने को आँख दबा कर
    शाम को किसी ने जैसे देखा तारा।
    जैसे प्रोग्रेसिव का कलम लेते ही
    रोका नहीं रुकता जोश का पारा।
    ....... क्रमशः....

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  28. ...... लेखक ने अपनी बातों की पुष्टि भक्त कवियों के साहित्य से उद्धरण दे कर करनी चाही है। मतलब, उनका समय कब था, उस समय की परिस्थितियाँँ क्या थीं ; यह सारा विवेक ताक पर रख कर आज इक्कीसवीं सदी की आर्थिक नीतियों का निर्धारण कबीर, रैदास और तुलसी की कविताओं के आधार पर किया जायेगा। नमन है ऐसी सोच को। एक जगह लेखक ने हुंकार भरी है कि कानून के प्रभाव को समझने के लिए उन्हें कोई शास्त्र पढ़ने की आवश्यकता नहीं है। नहीं हुजूर ! पच्चीस-छब्बीस पृष्ठ में आ जाने वाले नये कानून तो पढ़ कर समझने का कष्ट आपसे उठाया नहीं गया, अर्थशास्त्र और संवैधानिक विधि जैसे शास्त्रों को आपसे पढ़वाये, भला किसकी औकात है ! आखिर कबीर तो कह ही गये हैं कि सारे शास्त्र झूठे हैं।
    वास्तव में वामपंथ की खोखली और अव्यावहारिक आर्थिक नीतियाँ पूरी दुनिया में असफल हुई हैं और ठुकरायी जा चुकी हैं ; यहाँ तक कि घोषित कम्युनिस्ट देश चीन ने भी बहुत पहले इनसे पिंड छुड़ा लिया और उसके सुपरिणामस्वरूप आज वह विश्व की अग्रणी महाशक्ति बन गया है, लेकिन हमारे प्रोग्रेसिव बौद्धिक उसी अफीम की पिनक मे आज भी ऐसे नैरेटिव गढ़ने में लगे हैं कि देश पिछड़ेपन के गढ्ढे में ही गिरा रहे। बड़ी राहत की बात है कि इनका तिलिस्म अब प्रायः टूट चुका है।

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    1. बक्कालों के प्रवक्ता बक्काल ही हो सकते हैं। fci का अडानी के चलते दिवाला निकलने वाला है। इस चक्कर में स्माल सेविंग फंड के लाखों करोड़ डूबने वाले हैं। और जब किसानों को बाजार भरोसे ही रहना है तो उन्हें बाजार के हवाले कर दिया जाए जैसे कुतर्कों का क्या मतलब है? ऐसे तो कहा जा सकता है कि जब बकरी को कसाई के पास ही जाना है तो क्यों न कसाई को ही मसीहा घोषित कर दिया जाए। एक सवाल यह है कि अगर संघियों की नीयत साफ थी तो इस पर चर्चा कराते। संसद और संविधान के राज का यही तो तकाजा है न। लेकिन बिना किसी बहस, चर्चा, सलाह-मशविरे के यह सब क्यों किया गया? नीयत में वह कौन सी खोट थी। ये काले कानून बेईमानी और बहुमत की नंगई से जिस तरह से पास किए गए उसे सारे देश ने देखा है। जाहिर है संघी फासिस्ट ने जब संसद और संविधान पर मत्था टेका तभी यह तय हो गया था कि अब इनका विनाश होगा। शेर की खाल में गधे के रामराज की यही खासियत है। उद्धरण देता हूं - जननी जन्म भूमि को स्वर्ग से सुंदर बताते हो और फिर वीर भोग्या वसुंधरा का उद्घोष करते हो (यह तुम्हारा नए तरीके का राष्ट्रवादी ईडिपस कॉम्लेक्स है)। वध और विनाश ही तुम्हारी नीति है। आज से नहीं बहुत पहले से आप लोग ब्रितानी साम्राज्यवाद और अमेरिकी साम्राज्यवाद के पिट्ठू रहे हैं। स्वदेशी जागरण मंच की तेल पेरने वाली मशीन स्वदेशी, विदेशी 'अंडानियों' की सेवा के लिए है। उदाहरण देखना है अवतारी का पुराना बयान सुन लीजिए! सरकार ने खुद ही मान लिया है कमियां हैं। अपनी असफलताओं और बेईमानियों को ढंकने के लिए केरल और कांग्रेस की माला कब तक जपते रहेंगे आप लोग? कांग्रेस यह कानून लाना चाहती थी - यह आप लोगों का तर्क है। फिर आपमें और कांग्रेस में अंतर? जमाखोरी में विशेष परिस्थितियों का जो कैप लगाया गया है वह सब फिजूल बात है। उसमें यह बात भी है कारपोरेट द्वारा विकसित भंडारण क्षमता के अनुसार कारपोरेट उस समय भी भंडारण कर सकेंगे - 'जब चाहा मर्यादा को उसने अपने पक्ष में बदल लिया।' बहुत दिनों से मेरी ख्वाहिश थी कि निराला की कविता 'कुकुरमुत्ता' की कुछ पंक्तियां किसी राष्ट्रवादी को पेश करूं! आपने मौका दिया। शुक्रिया!
      "...सुन बे, गुलाब,
      भूल मत जो पायी खुशबु, रंग-ओ-आब,
      खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
      डाल पर इतरा रहा है केपीटलिस्ट!
      कितनों को तूने बनाया है गुलाम,
      माली कर रक्खा, सहाया जाड़ा-घाम,
      हाथ जिसके तू लगा,
      पैर सर रखकर वो पीछे को भागा
      औरत की जानिब मैदान यह छोड़कर,
      तबेले को टट्टू जैसे तोड़कर,
      शाहों, राजों, अमीरों का रहा प्यारा
      तभी साधारणों से तू रहा न्यारा।
      वरना क्या तेरी हस्ती है, पोच तू
      कांटो ही से भरा है यह सोच तू
      कली जो चटकी अभी
      सूखकर कांटा हुई होती कभी।
      रोज पड़ता रहा पानी,
      तू हरामी खानदानी।"

      विशेष : फूलहिं फलहिं न बेंत, जदपि सुधा बरसहिं जलद...
      नोट : इस बात के लिए आपकी तारीफ करता हूं कि आप लोग नमक हराम नहीं हैं क्योंकि जिसके हवाई जहाज में चढ़ कर आप शपथ लेने आए थे उनका हक तो आप अदा ही कर रहे हैं।

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    2. मेरी टिप्पणियों पर यह प्रतिक्रिया बिल्कुल मेरी उम्मीद के मुताबिक ही थी। राष्ट्रवादी और संघी संबोधित होकर और ब्रिटिश साम्राज्यवाद और अमेरिकी साम्राज्यवाद का पिट्ठू टाइप रटे-रटाये लांछन सुनकर बड़ी हँसी आयी। 'पालावादी' या 'बाड़ावादी' बुद्धिजीविता का यह नमूना है कि अगला मेरे बाड़े के विरोध में बोल रहा है तो निश्चित ही फलाँँ बाड़े का सदस्य होगा। बुद्धिजीवी इस बाड़ाबंदी से अलग हो सकता है और उसे होना चाहिए जैसी समझ इस किस्म की बौद्धिकता की क्षमता से परे है। वैसे यह देखना रोचक है कि हमारे साम्यवादी जिन्होंने खुद सन् 42 के भारत छोड़ो आंदोलन से सोवियत संघ के इशारे पर बड़ी घृणित किस्म की दगाबाजी करते हुए ब्रिटिश साम्राज्यवाद का पूरा सहयोग किया था, औरों पर उनका पिठ्ठू होने का आरोप कितने आत्मविश्वास से लगाते हैं। रूस और चीन की यह गुलामी और टुकड़खोरी आगे भी चलती रही। अमेरिका के चमचों की पहचान करने में तो थोड़ा दिमाग लगाना पड़ेगा लेकिन इनकी चमचागीरी तो एकदम नग्न रूप में सामने रही है। एक ज्वलंत उदाहरण तो हाल ही में दिखाई दिया जब सीमा पर भारत और चीन की सेनाओं की झड़प के बाद हमारे शीर्षस्थ साम्यवादी नेता प्रायः मौन साधे हुए थे। भारत सरकार की आलोचना चाहकर भी कैसे करें ? अपने आका चीन के खिलाफ भी कुछ न कुछ बोलना पड़ जायेगा। लेकिन कुछ दिन बाद जब भारत और अमेरिका के बीच टू प्लस टू वार्ता हुई और कई रणनीतिक समझौते हुए तो ये अपने-अपने बिलों से निकल कर शोर मचाने लगे कि भारत को अमेरिका के जाल में नहीं फँसना चाहिए। ये मूर्ख अब भी यह सपना देखते हैं कि चीन भारत पर कब्जा कर ले और यहाँ का जागीरदार हमें बना दे। खैर ! यह तो विषयांतर हो रहा है, मुझे किसी बाड़े की रक्षा और दूसरे का ध्वंस नहीं करना है। आबाद रहें बाड़े और उनकी भेंड़ें ! मुद्दे की बात पर आते हैं। आपने अपने आर्थिक ज्ञान के जो मोती बिखेरे हैं, उन्हें चुनने का प्रयास करता हूँ।
      फरमाया कि अडानी के चलते एफसीआई का दीवाला निकलने वाला है। यह भी इलहाम वाली श्रेणी का ही निष्कर्ष है। अडानी ने अपनी पूंजी लगा कर आधुनिक भंडारगृह बनाये हैं जिनमें एफसीआई अनाज का भंडारण करता है और इसका किराया अडानी ग्रुप को अदा करता है। यह बात जानकर आपको धक्का लगेगा कि इस प्रोजेक्ट को वैश्विक नीलामी में सबसे बेहतर बोली लगा कर अडानी ने 2005 में हासिल किया था। शायद इनके जन्मजात सेवक मोदी ने अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री में परकाया प्रवेश करके अडानी को यह ठेका दिलवा दिया था। जरा अपनी बात का अर्थशास्त्र समझाइए कि कितना वसूल लिया अडानी ने कि उसी के चलते एफसीआई बरबाद हो रहा है ? उल्टा इससे एफसीआई का बहुत सा अनाज खराब होने से बच रहा है। नहीं साहब, हजार टन सड़ता हो तो लाख टन सड़ जाय, अडानी की काली छाया हमारे पवित्र अन्न पर न पड़े! आगे की आकाशवाणी या भविष्यवाणी तो और जोरदार है कि स्माल सेविंग्स फंड के लाखों करोड़ रुपये डूबने वाले हैं। वैसे कई अर्थशास्त्रियों ने स्माल सेविंग्स फंड से एफसीआई, एयर इंडिया, राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण वगैरह को कर्ज देने को वित्तीय घाटा कम करने के लिए अपनायी गयी गलत प्रैक्टिस बताया है लेकिन जहाँ तक डूबने की बात है तो यह मोटी बात लोगों को मालूम होनी चाहिए कि ये बचत योजनाएं कोई पोंजी स्कीम नहीं हैं कि पैसा डूब जायेगा या कोई लेकर भाग जायेगा। इनकी गारंटर भारत सरकार होती है और सरकार ही डूब जाय, इसके सिवा पैसा डूबने की कोई और सूरत नहीं है। ऐसी नौबत सन् 90 में आयी थी जब दशकों की मूर्खतापूर्ण समाजवादी आर्थिक नीतियों के चलते भारत सरकार की आर्थिक स्थिति चौपट हो गयी थी और उसके डिफॉल्टर होने की स्थिति आ गयी थी। उसके बाद मजबूरी में ही सही, आर्थिक सुधारों की शुरुआत हुई तो यह नौबत कभी नहीं आयी, न अब वैसा कोई लक्षण है। सो मैं तो स्माल सेविंग्स फंड वाली योजनाओं में पहले की तरह निवेश करता रहूंगा। अंधकारमय भविष्य के द्रष्टाओं को चाहिए कि यहाँ निवेश बंद कर दें और पिछली जमा राशि भी निकाल कर चैन की नींद सोएँ। अंबानी और अडानी तो हमारे क्रांतिकारियों के लिए आराध्य देव का दर्जा रखते हैं। जैसे राम का नाम लिखने से पत्थर तैर जाते थे, वैसे ही इन्हें विश्वास है कि अंबानी और अडानी का नाम ले कर ये कुछ भी अल्लम-गल्लम लोगों के गले उतार सकते हैं। यह बात और है कि यह सारी क्रांतिकारिता या कहें भ्रांतिकारिता अंबानी के मार्केट में उतरने के बाद सस्ते हुए मोबाइल फोन पर और उसके इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर के रूप में सामने आने के बाद सस्ते हुए डाटा के जरिए आयोजित होती है। कोई बात नहीं। अभी तो अडानी द्वारा घर-घर बिछायी जा रही कुकिंग गैस की पाइपलाइन से क्रांति की खिचड़ी पकायी जायेगी।

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    3. आगे आपकी तर्क-पद्धति देख कर चमत्कृत होना पड़ता है। बाजार के हवाले तो अधिकांश किसान, विशेषतः छोटे किसान पहले से ही हैं। बाजार के नियमन का मतलब उनकी बलि चढ़ाना नहीं हुआ। अर्थव्यवस्था की बहुत मामूली समझ रखने वाला भी जानता है कि कुछ भी बेचने वाले को बाजार में जितने ज्यादा विकल्प उपलब्ध होते हैं और जितनी दूर तक बाजार में उसकी पहुँच होती है, उसकी मोलभाव की क्षमता, मतलब अच्छी कीमत मिलने की संभावना उतनी ही अधिक होती है। फिर इस समय तो हमारी कृषि और कृषकों की दशा सुधारने के लिए यही एक विकल्प भी है, सो सरकारों और समाज के जागरूक लोगों, दोनों का यह दायित्व है कि इस व्यवस्था का किसानों के अधिकतम हित में प्रयुक्त होना सुनिश्चित करें और इसकी सतर्क निगरानी करते रहें। इस यथार्थ से सामना करा देने पर अपने को यथार्थवादी कहने वाले किस कदर बौखला उठते हैं, बड़ा अजीब और हास्यास्पद है। इनका महातर्क और सुतर्क यह है कि बाजार कसाई है और उत्पादक तथा उपभोक्ता बकरी हैं। जैसा मैंने पहले कहा कि इस विकृत सोच से कम्युनिस्ट चीन और वियतनाम तक ने पिंड छुड़ा लिया और इसका भरपूर लाभ भी उन्हें मिला, लेकिन हमारे यहाँ के साम्यवादी बौद्धिक हैं कि इसी मूढ़ता के दलदल में खुद भी फँसे हुए हैं और बाकी देश को भी फँसा कर रखना चाहते हैं। इस प्रसंग में आपकी उद्धृत तुलसी की पंक्ति बड़ी मौजूँ है। सचमुच - ' फूलहिं फलहिं न बेंत, जदपि सुधा बरसहिं जलद'। ये बेंत चाहते हैं कि बाकी वनस्पतियाँ भी उनकी तरह बन जायँ, पर ऐसा होगा नहीं। बेंत बेंत रहेंगे लेकिन फलने-फूलने वाले फलेंगे फूलेंगे।
      एक बात सुधार लीजिए कि विशेष परिस्थिति में कारपोरेट भंडारण क्षमता के अनुसार नहीं बल्कि प्रॉसेसिंग या वैल्यू चेन पार्टिसिपेशन की क्षमता के अनुसार भंडारण कर सकेंगे। मुझे लगता है कि आपको तिवारी जी के इस आलेख में कही गयी इस बेतुकी बात से तो असहमत होना ही चाहिए कि जिसके पास भी आधार और पैन कार्ड होगा वह जब जहाँ जितना चाहे स्टॉक इकट्ठा कर सकेगा। इसके अलावा भंडारण और जमाखोरी में फर्क को समझने की ज़रूरत है। हर तरह के भंडारण का परिणाम जमाखोरी और कालाबाजारी नहीं होते। जैसे मैंने ऊपर सीमेंट का उदाहरण दिया है। इससे जुड़े बीते जमाने वाले रेगुलेशंस और स्टॉक लिमिट आज लागू कर दिये जायँ तो कितने व्यापारी और उद्योगपति जेल चले जायँ। लेकिन उसका कोई तुक नहीं है क्योंकि भंडारण के बावजूद सीमेंट की कोई किल्लत या कालाबाजारी की स्थिति नहीं है। आपको जितनी ज़रूरत हो, सहज उपलब्ध हो जायेगा। वास्तव में 1955 से आज जब परिस्थिति में अंतर आ चुका है तोअब के हिसाब से उसमें संशोधन होना ही चाहिए। आज के समय की मांग को अनसुना करके उसी पुराने कानून से चिपके रहना विवेकहीनता है।
      मुझे लगता है कि नये कृषि कानूनों का विरोध करने वालों को पंजाब और हरियाणा के किसानों को भड़का कर उनकी दुर्गति कराने की कोई ज़रूरत नहीं है। जब ये कह रहे हैं कि सभी किसान इनके विरोधी हैं, तो इन कानूनों को निष्प्रभावी कर देने में कोई कठिनाई नहीं है। इन्हें किसानों को समझाना चाहिए कि आप लोग इस कानून के तहत किसी कंपनी से कोई समझौता मत करिए और प्राइवेट मंडियों तथा ई प्लेटफॉर्मम्स का भी बहिष्कार कर दीजिए। कानून खुद ब खुद निष्क्रिय हो जायेगा। लेकिन नहीं, असली लक्ष्य तो अव्यवस्था और अराजकता की स्थिति पैदा करके राजनीतिक उल्लू सीधा करना है। नक्सलवाद के पुराने गढ़ रहे तेलंगाना में तो हमारे क्रांतिकारी बौद्धिकों को किसानों को साथ में लेकर वहाँ के मुख्यमंत्री को मुर्गा बना देना चाहिए जिसने इस कदर धृष्टता की.है कि पहले इन विधेयकों का विरोध किया, किसानों से व्यापक सरकारी खरीद का वादा किया, लेकिन अब यू टर्न लेकर नये कानूनों का समर्थक हो गया है और किसानों से किया वादा तोड़ चुका है। पर नहीं, हमारे देवतुल्य क्रांतिकारियों को जमीन पर उतरने को कोई न कहे।
      अंत में 'कुकुरमुत्ता' कविता के प्रारंभिक अंश का उद्धरण आपको बड़े उल्लास और विजेता भाव से देते हुए पा कर बहुत हँसी आयी और उससे कहीं ज्यादा तरस भी आया। वास्तव में इस कविता को जिसने भी ध्यान से पढ़ा और विश्लेषित किया है, उसे समझने में चूक नहीं होगी कि कविता का कुकुरमुत्ता कोई क्रांतिदूत नहीं है। कुकुरमुत्ता जिस तरह पहले गाली-गलौज करता है और फिर अपने बारे में बिलकुल बेपर की शेखियाँ बघारता है, उससे साफ है कि कवि ने उसे हास्यास्पद और विद्रूप बना कर दरअसल उसे व्यंग्य का निशाना बनाया है। यह निराला का तीखा व्यंग्य प्रहार है कुकुरमुत्ता मतलब लुंपेन प्रोलेटेरियट और उन्हें बढ़ावा देने वाले जड़ विवेकशून्य प्रगतिवादियों पर। यह न समझ कर उथले प्रोग्रेसिव जोश में उक्त उद्धरण देना, जैसे पिटने के बाद चोट के निशानों को सौंदर्य प्रसाधन बता कर उनका प्रदर्शन करना। खैर! इतिहास के कूड़ेदान से चीत्कार करते हुए कुकुरमुत्ता ब्रांड क्रांतिकारियों को श्रद्धांजलि !


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  29. विलक्षण और सुचिंतित आलेख। आलेख की सार्थकता इसी में है कि किसान विरोधी 'भक्तों' को आलेख से बहुत असुविधा हो रही है। उनकी बेचैनी का कारण यह है कि बजरंग जी ने भक्ति कवियों की चिंता और सरोकार को आज के कृषि संकट से जोड़ दिया है। घड़ी-घण्टाल वाले देवसत्ता समर्थक भक्त न तो कवियों की इस चेतना को समझने का प्रयास कर सकते हैं न ही वर्तमान सत्ता का कारपोरेट के साथ हो रही दुरभिसंधि को।

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  30. भक्तिकाल के सभी पहलुओं को समेटता हुआ लेख अत्यंत महत्व रखता हैं। मेरा सौभाग्य रहा हैं कि मुझे सर से #विमर्श पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ।

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  31. सर लेख बहुत अच्छा और ज्ञानवर्धक है। खासतौर पर भक्तिकाव्य को जिस तरह से किसानी और किसान आंदोलन से जोड़ा गया है लगता है कि भक्त कवियों दृष्टि काफी दूर दृष्टि थी क्योंकि अपने समय में वे आज का सच भी कह गए हैं। यह लेख भक्तिकाव्य को नए ढंग से पढ़ने का एक नजरिया भी प्रदान कर रहा है। ऐसा पक्ष आपने लेख में उजागर किया है जिसे आपके अलावा शायद कोई इतनी बारीकी से नहीं कह पाता। इतने अच्छे और ज्ञानवर्धक लेख के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई💐💐💐🙏🏽

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  32. आदरणीय श्री बजरंग जी को सादर प्रणाम, भक्तिकाल और रीति के बिहारी से से उद्धरण देकर इस बात को पक्का किया गया है कि किसान की हालत और हालात सर्वयुगीन व्यथात्मक रही है।आधुनिक काल मे भी सारी गाज उन्ही के ऊपर!!
    समालोचन और लेखक ,दोनो को साधुवाद इस सारगर्भित आलेख के लिए जो समीचीन है और प्रासंगिक भी

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  33. दीपिका वर्मा5 जन॰ 2021, 8:06:00 pm

    "भक्ति कविता, किसानी और किसान आंदोलन" लेख से मैं पूरी तरह से सहमत हूं। जहां बात किसान की आती है तो हमें भूलना नहीं चाहिए, कि किसी भी देश में किसान एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, उसे देश का सैनिक ही माना जाता हैं। अगर सीमा पर सैनिक नहीं होगा तो दुश्मन देश के ऊपर हमला कर सकते है, ठीक उसी प्रकार देश में अगर किसान नहीं होगा तो खेती नहीं होगी और देश भूखा रह जाएगा। किसान हमारे समाज की रीड़ की हड्डी है, देश की प्रगति और खुशहाली है।भक्तिकाल और उससे भी पहले से किसान हमारी जीवन शैली का आधार थे, हैं और आज भी बने हुए है। उनको विस्मृत करके समाज में, प्रशासन में कोई भी कार्य सफलतापूर्वक नहीं किया जा सकता। कृषि प्रधान देश में कृषकों की ऐसी विकट स्थिति बरदाश से बाहर है। जिन किसानों का देश की अर्थव्यवस्था की प्रगति में 17 प्रतिशत तक का योगदान है आज उन्ही की प्रगति खतरे में हैं। संत गुरु नानदेव जी भी किसानों के पक्षधर थे। वे लिखते हैं-
    'इह तन धरती बीज करमा करो
    सलिल आपाऊ सारिंगपानी।।
    मन किरसान हरि रिदे जमाइ ले
    इउ पावस पद निरबानी।'

    किसान केवल हमारा पेट ही नहीं भरता, बल्कि हमें जीवन में कैसे जीना है उसके बारे में भी सबक देता है। गुरू पातशाह खुद भी खेती करते रहे हैं और उन्होंने गुरबाणी में किसान को रब से जोड़ा है।
    आज इस किसान को देश की सरकार अपने बनाए असंगत कानूनों के जरिए परेशान कर रही है, आज हम सबको किसानों के साथ खड़े होने की जरूरत है,ताकि उनको उनका हक मिल सकें। आज सिक्ख धर्म में किसानों के मुक्तिदाता के रूप में विख्यात गुरु बंदा सिंह बहादुर की याद हो आई है जो हमेशा किसानों के लिए लड़े। हमें याद रखना चाहिए यदि किसान नहीं तो इंसान नहीं।

    डॉ. दीपिका वर्मा

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  34. डॉ सुमित्रा6 जन॰ 2021, 10:50:00 am

    प्रस्तुत लेख में ना केवल कृषि कानूनों का नीर क्षीर 'सांगोपांग, सम्यक विश्लेषण डॉ बजरंग बिहारी तिवारी द्वारा प्रस्तुत किया गया है बल्कि युगीन परिस्थितियों को भक्ति काव्य से जोड़कर साहित्य की प्रासंगिकता को भी सिद्ध करने की कोशिश की गई है! इस श्रम साध्य विश्लेषण परक आलेख के लिए बजरंग जी को साधुवाद..... डॉ सुमित्रा महरौल

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  35. विजय रंजन10 जन॰ 2021, 9:11:00 am

    आप का आलेख आपके गंम्भीर श्रम एवं गहन अध्ययन का द्योतक तो है लेकिन कथित वर्तमान किसान आंदोलन का परिप्रेक्ष्य वह नहीं है जिससे आप का आलेख वस्तुनिष्ठतः सम्बद्ध है या आप जिससे जोड़ना चाहते हैं।किसान समस्या से अधिक कथित आंदोलन राजनैतिक कारणों से खींचा जा रहा है।छल-छद्म का समर्थन. उचित नहीं है।

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  36. अमिय किशोर कानूनगो10 जन॰ 2021, 3:38:00 pm

    बदला हुआ हर परिवेश आज की तारीख में विसंगति पूर्ण है, एक तटस्थ चिंतक के लिए जिसकी सोच में भारतीय जीवनदर्शन है, फिर चाहे वो, पारिवारिक हो, शैक्षणिक हो, सामाजिक हो या राजनीतिक, कहा नही जा सकता कब कहां कैसे कोई अपनी रोटी सेकने को कौन सी मानसिकता अपना रखा है, अब तक निज को सुरक्षा कवच पर सुरक्षित रखते हुए, एक पहल और प्रयोग ही हो रहा है, वो मूल सिद्धांत जो हर क्षेत्र के लिए लगभग निर्धारित से थे,कंही लुप्त हो चुका है ---किसान अपवाद स्वरूप क्षेत्र, या किसान को यदि छोड़ दिया जाए, हर दिन का एक विचित्र सा व्यवसायी या उधमी है,जो औसत पेट चला लेने की संम्पन्नता से आगे नही बढ़ पाया कभी, और रही, बात सम्मिलित स्वर की, वो अल्पावधि के लिए कहीं संगठित सा हुआ लगा रहा है,----इस विषय पर लेख कहीं आगे लिखा जा सकता है, किन्तु---इतना अवश्य है, की सरकार चाहे किसी की रही हो, उन्होंने किसान पर कोई गम्भीर चिंतन नहीं किया है,और किसान पर तरस खाने की नॉटंकी कर बख्शीश दिया है---शेष फिर|
    -अमिय किशोर कानूनगो

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  37. गुरूवर ,
    इस पूरे आलेख को पढ़ते हुए जगह जगह ऐसा प्रतीत हुआ कि आपने वास्तव में सत्ताधीशों को खींच खींच कर लाफा मारा है।
    और वो पिटाई लगाई है कि
    'बरनी ना जाए'
    मेरी समझ से ये आपकी कलम की आवाज उस
    सिंधु बार्डर पर बैठे लाखों आंदोलनरत किसानों की आवाज से कई ज्यादा है।

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  38. प्रतिभा16 जन॰ 2021, 9:06:00 am

    आपने इस समालोचन में..
    जितनी भी बात रखी उन सब बातों से सहमत हूं.......
    ग़रीबी कम होने की बजाए और बढ़ गई है.... इस काल ने हमें उन बीते हुए काल की झलक दिखा दी जो हम आज तक किताबों में पढ़ते थे...(छुआ छूत)...... सरकार का चुनाव हम इसलिए करते हैं जिससे हमारा, हमारे साथ हमारे देश का हित हो.... अगर हमारे देश भारत को कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है तो इसमें किसकी गलती है...... ???? सरकार का चुनाव करने वाले की या सरकार की......

    आज हमारे देश के किसानों को देख लीजिए जिनकी वजह से हमारा पेट भरता है आज वो हड़ताल पर बैठे हुए हैं....... उनके पेट पर लात मारी जा रही है........

    अगर किसान हमें अनाज ना दे तो भुखमरी का सामना करना पड़ेगा..........
    मैं बहुत आभारी हूं आपका कि आपने हम सब के दिल की आवाज को इतने अच्छे से व्यक्त किया है.........��

    - प्रतिभा

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  39. आज तक चले इस किसान आन्दोलन का यदि हम मूल्यांकन करें तो संभवतः यह इतिहास का सबसे शान्त, सुनियोजित,बड़ा और लंबा चलने वाला अपनी तरह का अद्वितीय आन्दोलन है और अपना व्यापक प्रभाव छोड़ चुका है. ठीक इसी तरह बजरंग बिहारी तिवारी का यह लेख भक्ति आंदोलन को आज के किसान आन्दोलन के संदर्भ में प्रासंगिक बनाता हुआ और किसान आन्दोलन की जरुरत और उसके महत्व को रेखांकित करने वाला अद्वितीय आलेख है. बजरंग बिहारी तिवारी को हार्दिक बधाई.

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