हरि मृदुल के दोहे


 

दोहा ‘हिंदी’ का जातीय छंद है, जिस छंद में कबीर और बिहारी आदि महाकवि लिख चुके हों उसमें कुछ नया कहना और नये ढंग से कहना बहुत चुनौतीपूर्ण है. निदा फ़ाज़ली ने कुछ दोहे इधर लिखे थे. कवि हरि मृदुल भी दोहों पर कुछ कार्य कर रहें हैं. 

राकेश श्रीमाल की टिप्पणी और वांछा दीक्षित की कृतियों के साथ हरि मृदुल के कुछ दोहें आप देखें.   

 

 

हरि मृदुल के दोहे
राकेश श्रीमाल


     





स समय में, जिस-जिस तरह की और किस-किस वाद, प्रकार या स्कूल विशेष की कविताओं का वेग धड़धड़ाते और लगभग गर्जन जैसा शोर मचाते हुए हिंदी कविता के समंदर में प्रवाहित होकर उछाले मार रहा है, ऐसे में 'दोहे' जैसी भूली-बिसरी विधा अपनी ही निर्जनता भरे एकांत में अनपेक्षित उग आई रचना की तरह ही अलक्षित हो, तो इसमें आश्चर्य क्या ? समय बदल गया है. साहित्य पंडितों के गणना शास्त्र के मुताबिक साहित्य भी बदल गया है. लेकिन कोई यह तो बताएं कि दोहा क्या ऐसी विधा है, जो बदली जा सकती है. पंडित भीमसेन जोशी के गाए अभंग नहीं बदले. कबीर की उलटबांसियां नहीं बदली, तो भला दोहा क्यों बदले.       

यह समय कई तरह की हत्याओं का समय है. ऐसे में चाहे-अनचाहे, सायास या निप्रयास, आँखें बंद कर या खुली आँखों से 'दोहा' नामक विधा की ऐसी हत्या हो जाए, कि उसका चलन ही बंद हो जाए. साहित्य के उपवन से कोई सुंदर सा पौधा उसकी जड़ समेत खोदकर उखाड़ दिया जाए, तब क्या किया जा सकता है. दोहे के शब्द-बीज से ही फिर दोहे को पुनर्नवा किया जा सकता है और यह दुःसाहस से भरी रचनात्मकता हरि मृदुल कर रहे हैं.      

हिंदी की समकालीन कविता अपने विभिन्न रूप और परिधान में बेइंतहा साहित्य के मैदान में दौड़ रही है. कहीं वह गिर-गिरकर दौड़ रही है, कहीं हाँफने लगी है. वह इस भरम में भी है कि वह बिना थके और रुके दौड़ लगा रही है. कविताओं के कुछ झुंड तो बाकायदा झंडे लेकर दौड़ रहे हैं. कुछ मैदान में एक ही जगह खड़े हो अपने आत्म-चिंतन में दौड़ लगा रही हैं. किसी के पास आवाज है, किसी के पास चीख. कुछ पुरखों और स्मृतियों के गलियारे में खुसुर-पुसुर कर रही हैं. किसी में दर्शन है, किसी में अभाव-गाथा. कोई रूप और कला पक्ष से इकतरफा बतिया रही है. कुल मिलाकर अच्छा-खासा मिलाजुला कोलाहल है. ऐसे में हरि मृदुल के दोहे अपनी ही सीमा में और अपने ही मौन में वह सब कहने में सक्षम हैं, जो आज की कविता कह रही है. दोहे का शिल्प अलग जरूर है, लेकिन हरि के यहाँ दोहे भी एक भरी-पूरी कविता के बरक्स खड़े होकर वही सब व्यक्त करते हैं,  जो विभिन्न धाराओं की आज की कविता कह रही है. इसे हरि मृदुल के दोहों की विशिष्टता भी कहा जा सकता है. समकालीन तो वे हैं ही. हालांकि कविता से टक्कर लेना हरि मृदुल का उद्देश्य नहीं है. वे तो समय से हौड़ कर रहे हैं.             

मशहूर शायर निदा फ़ाज़ली ने लिखा है- 

"दोहा अद्भुत काव्य विधा है. इस विधा में अमीर खुसरो, कबीर, तुलसी, नानक, रहीम, दादू, मलूकदास और बिहारी जैसे हमारे पुरखे कवियों ने ऐसा कमाल लिखा कि आज भी हमारी जुबान में इनकी मौजूदगी है. चाहे वक्त की चाल हो, जमाने का बवाल हो, दिलों का हाल हो या फिर कोई मौजूं सवाल हो, इस विधा में सबकुछ समेटने की शक्ति है. खुद मैंने भी दोहा छंद में कहने की कोशिश की. ये दोहे दूर तक गए और आज के कई बड़े गायकों ने इन्हें अपनी आ‌वाज भी दी. इनका असर करामाती है. दरअसल यह विधा हमारी साहित्यिक विरासत का अटूट हिस्सा है. मैं बहुत चकित हूं और साथ ही खुश भी हूं कि हरि मृदुल जैसे सामर्थ्यवान समकालीन युवा कवि ने दोहे भी लिखे हैं. ऐसे दोहे लिखे हैं कि जो आज की कविता से अपने कथ्य और ट्रीटमेंट में कतई कमतर नहीं हैं, बल्कि इक्कीस ठहरते हैं. मैं उनसे अनुरोध करता हूं कि आगे भी वह इस छंद में लगातार कलम चलाएं.            

निदा फ़ाज़ली मानते हैं कि दोहे की विधा  हमारी साहित्यिक विरासत का अटूट हिस्सा है. वे हरि मृदुल के दोहों को इसलिए भी महत्व देते हैं कि वे सामर्थ्यवान समकालीन युवा कवि द्वारा लिखे गए हैं. यहाँ यह जानना थोड़ा दिलचस्प लगता है कि प्रायः इधर के सारे समकालीन कवि दोहे लिखने को शायद कमतर आंकते हैं और कवि होने के नाते इस विधा के प्रति न सिर्फ लापरवाह, बल्कि इसे अलक्ष्य भी करते रहे हैं. साहित्य की विरासत के वाद-विवाद में भी इसका जिक्र करना वे जरूरी नहीं समझते. 

हरि मृदुल के लिखे दोहों में हमारे आज के समय का प्रतिबिंब अधिक उजला, अनावर्त और स्पष्ट है. वैसे भी दोहे में इधर-उधर जाने की गुंजाइश कम ही होती है. मैं यहाँ उनके दोहों की समीक्षा नहीं कर रहा हूँ. इन दोहों के संकेत पाठक को ठीक वहीं ले जाते हैं, जहाँ जाने और सोचने के लिए वे लिखे गए हैं. ये दोहे कुछ छिपाते नहीं हैं, न ही कोई अबूझ रहस्य का आवरण लिए हुए हैं. एक विशिष्ट किस्म की अर्थ-पारदर्शिता इनमें उपस्थित है. किसी कविता की तरह वे भटकाते भी नहीं हैं. वे अपने ही मौन में वह सब कुछ कहते हैं, जिन्हें पढ़कर सरलता से समझा जा सकता है.        

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1.

सौ बातों की सोच

 

 

सौ बातों में उलझना, सौ बातों की सोच.

एक कदम ही तो चले, पांव आ गई मोच॥

 

कानों तक आकर खिंची, चौड़ी यह मुस्कान.

ऐसा भी क्या पा लिया, पल भर में श्रीमान॥

 

दिल से निकली बात को, दिल ही दिल में बांच.

एक धमक में ही सदा, छन से टूटे कांच॥

 

सडक़ों पर कारें चलें, पटरी-पटरी रेल.

क्या कीजे इस बैल का, जिसकी गाड़ी फेल॥

 

हारा जब भी रेस में, दौड़े बीच बजार.

घोड़ा डूबा सोच में, कैसा मूर्ख सवार॥

 

 

2.

शामिल सारे साज

 

जिन नैनों में थी कभी, एक डबाडब झील.

उन नैनों में ही दिखी, आज उतरती चील॥

 

गली-गली में गूंजती, यह किसकी आवाज.

जिसके हर इक बोल में, शामिल सारे साज॥

 

सबके सब ही मानते, बड़ी आपकी धाक.

फिर भी छूकर देखिए, अपनी वाली नाक॥ 

 

कपड़ों में क्या दीखती, गैंडे जैसी खाल.

वो तो हमने भांप ली, ढुलमुल ढुलमुल चाल॥

 

एक मिनट, आधा मिनट, आधे का भी आध.

जरा ठहर कर सोचियो, मेरी भी कुछ साध॥

 

 


3.

बहुत दिनों के बाद

 

 

घर के बाहर मैं गया, बहुत दिनों के बाद.

खोजा मैक्डॉनल्ड में, घर के जैसा स्वाद॥

 

लाखों कारों का किया, जमकर कारोबार.

अब करने की सोचते, सडक़ों का व्यापार॥

 

अब तो मुंह में दीखती, बगुलों जैसी पांत.

कहां खो गया सेठ जी, सोने वाला दांत॥

 

पके पकाए फल मिलें, उगा उगाया अन्न.

हर इक के हाथों बसी, सिक्कों वाली खन्न॥

 

करतूतों के दौर में, तुम ही असली वीर.

बिना धनुष के ही सदा, लगा निशाने तीर॥

 

 

 

4.

पीठ फिराते रात

 

सचमुच मेरे यार में, कुछ ऐसी है बात.

सम्मुख बैठे दिन उगे, पीठ फिराते रात॥

 

बादल से बूंदें गिरीं, नैना भर-भर आंय.

पानी से पानी मिले, और कहा क्या जाय॥

 

बूझ सको तो बूझ लो, बहकी सी है बात.

क्यों कर उजले चंद्र की, इतनी महकी रात..

 

नैनों से नैना मिले, नाचा मन में मोर.

दो नैनों में रतजगा, दो नैनों में भोर॥

 

कान्हा के मुंह बांसुरी, राधा का मुंह लाल.

द्वापर युग के प्रेम पर, करना नहीं सवाल॥

 

 


5.

बजी देर तक थाल

 

चींटी इक तन पर चढ़ी, कहने अपनी बात.

भला किसलिए रौंदते, छोटी सी हम जात॥

 

घर के कोने-अंतरे, करने ही थे साफ.

तुम उजड़ी इस काम में, मकड़ी करना माफ॥

 

लंबा सा इक फासला, छोटे अपने पैर.

आप बड़ों के बीच हम, नहीं बाप रे खैर॥

 

हाथों से ज्यूं ही गिरी, बजी देर तक थाल.

खड़ा रहा बस देखता, मैं गुस्से से लाल॥                                        

 

स्वाद शहद का लें सभी, राजा हो या रंक.

उसका क्या जिसने चखा, मधुमक्खी का डंक॥

 

 

 

6.

चीजों पर चश्मे चढ़े

 

दुनियाभर में ढूंढ़ कर, मिलता कैसे चैन.

चीजों पर चश्मे चढ़े, नंगे सारे नैन॥

 

उग आया इक पौध यह, तुलसी गमले बीच.

कर्णफूल सा खिल गया, देखो आंखें मींच॥

 

पानी का तन देखकर, बर्तन हुए उदास.

कैसे रंग बदल गए, सारे रिश्ते खास॥

 

खिसक रही है पैंट क्यों, बैल्ट कमर में बांध.

सिसक रही बिटिया अभी, डोली को दे कांध॥              

 


            घर में दसियों आ गए, चलते-फिरते फोन.
            भीतर तो संवाद में, पसर चुका है मौन॥


harimridul@gmail.com

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वांछा दीक्षित लखनऊ कॉलेज ऑफ़ आर्ट्स से चित्रकला की तालीम लेने के बाद इन दिनों कला-अध्यापन से बचे समय में चित्र बनाती हैं. कई समूह प्रदर्शनी में शिरकत कर चुकी हैं. फोटोग्राफी करना उनकी एक अलग रचनात्मकता है.


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  1. यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि समकालीन हिन्दी कविता ने अपनी परम्परा और अपने छन्द-शिल्प को न केवल छोड़ दिया है बल्कि उसे हिकारत से भी देखा । नागार्जुन ने दोहा छन्द का बहुत मारक प्रयोग किया राजनीतिक कविता के लिए - बाल न बांका कर सकी शासन की बंदूक ! हरि मृदुल के विभिन्न जीवन प्रसंगों के ये दोहे बहुत सुंदर हैं । यह ग़ज़ल की तरह ज़बान पर चढ़ जाने वाली विधा है । उर्दू कवियों आली से लेकर निदा से लेकर अब तक बहुत कवि दोहे लिख/कह रहे हैं ।

    दोहा बोला ग़ज़ल से
    आजा मेरी जान
    तू आई है अरब से
    मैं हूँ हिन्दुस्तान ! - कविता-रहस्य से.

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  2. सुबह उठते ही समालोचन की पोस्ट का इंतजार रहता है । समालोचन का मैन्यू कार्ड इतना बड़ा है कि हर दिन कुछ नया परोसा जाता हैं । आज के मैन्यू में दोहा छंद परोसा गया है। राकेश श्रीमाल की शानदार टिप्पणी और हरि मृदुल के खूबसूरत दोहों ने आज की सुबह बहुत खूबसूरत बना दि है। दोहा मेरा प्रिय छंद है । यह एक मुश्किल विधा है क्योंकि इसमें दो पंक्तियों में ही गागर में सागर भरना होता है । हमारे राजस्थान में कई लोग दोहा छंद लगातार लिख रहे हैं । कृष्ण कल्पित जी के अलावा कुमार शिव, बनज कुमार बनज और कल्याण सिंह शेखावत बहुत अच्छे दोहे लिख रहे हैं।

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  3. दयाशंकर शरण27 अक्तू॰ 2020, 9:41:00 am

    देखन में छोटन लगे घाव करे गंभीर,हरि मृदुल के दोहों में वह सबकुछ है जो समकालीनता के यथार्थ की कसौटी पर खरा उतरता है। इतने कम शब्दों में सागर सी गहराई लिये ये दोहे हिन्दी काव्य-विधा की समृद्ध परंपरा की याद ताज़ा कर जाते हैं। इसपर राकेश श्रीमाल जी की टिप्पणी भी अच्छी लगी और वांक्षा दीक्षित की फोटोग्राफी भी।अप सभी को बधाईयाँ !

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  4. विनोद पदरज27 अक्तू॰ 2020, 11:53:00 am

    दोहा हमारी भाषा का जातीय छंद है और बहुत मारक
    अच्छे दोहे लिखना कठिन है
    जैसे अच्छी ग़ज़ल कह पाना कठिन है
    इसकी लंबी परम्परा में आपको अपनी जगह बनानी होती है -जली शाख पर बैठकर गई कोकिला कूक
    बाल न बांका कर सकी शासन की बंदूक
    जैसे दोहे नागार्जुन जैसे समर्थ कवि ने लिखे हैं
    हमारे यहां एक समय में कृष्ण कल्पित जी ने शानदार दोहे लिखे थे
    राजस्थानी में तो और भी दीर्घ परम्परा है
    आपको और हरि मृदुल जी को बधाई

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  5. वाह. आनंद आ गया. बहुत बहुत बधाई हरि भाई को.

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  6. हरि मृदुल समकालीन कविता के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनकी रचनाएं देश भर में सराहना पाती रही हैं। लेकिन वह पारंपरिक दोहा छंद में भी कविताएं करते हैं, और वह भी सबसे हटकर, यह देखकर अच्छा भी लगा और हैरानी भी हुई।
    दोहा हिंदी का सबसे पुराना और प्रचलित छंद है। इतना लोकप्रिय कि एक समय था जब हिंदी भूभाग का हर कवि दोहे से ही अपनी काव्य प्रतिभा का इजहार करता था। सशक्त इतना
    कि दोहे में कबीर, तुलसी जैसे असाधारण कवियों ने कालजयी रच डाला।
    खड़ी बोली और इसी के साथ उर्दू का उद्भव होने पर ग़ज़ल का प्रादुर्भाव हुआ और ग़ज़ल ने अलौकिक लोकप्रियता भी पायी, लेकिन दोहा अडिग बना रहा। मजबूर होकर उर्दू वालों ने दोहे को अपनाया। दोहा और ग़ज़ल भारतीय कविता की गंगा जमुना तब भी थीं और आज भी हैं, यह बात हरि मृदुल के दोहों ने एक बार फिर सिद्ध कर दी है। उन्होंने जो दोहे कहे हैं, वे सचमुच समकालीन दोहे हैं। उनकी भाषा में भी नयापन है और कंटेंट भी आम दोहों से अलग और अनूठा है। वह जीवन के अनेक अनछुए पहलुओं को ऐसी अनूठी उपमाओं के जरिए सामने लाते हैं कि काव्य सौंदर्य देखते ही बनता है। उनके दोहे हिंदी की समकालीन कविता को विस्तार देते दिखाई देते हैं।
    -- राकेश शर्मा

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  7. बचपन से दोहे पढ़ते आ रहे हैं। दोहों ने सदैव आकर्षित किया है। बचपन में पढे दोहे आज भी स्मृति की गहराई में बंद हैं। क्योंकि दोहों को याद रखना भी सहज है। कबीर, तुलसी, बिहीरी आदि महाकवियों से होते हुए दोहे निदा फ़ाज़ली की कलम की नोक तक आए। आज के परिप्रेक्ष्य में इनका कथ्य बदला है जो स्वाभाविक भी है। हरि मृदुल के दोहे निदा फ़ाज़ली से भी आगे बढ़कर मुझे इसलिए लगे क्योंकि इनमें आधुनिक विसंगतियों को शब्दों में एक सुंदर गजरे की भांति पिरोया गया है। भाषा गंगोत्री की किसी ढलवां चट्टान पर बहते गंगा जल की तरह बहुत मिठी है। हरि मृदुल को हार्दिक बधाई।
    वैसे मैं कविता का आदमी नहीं हूं। मैंने बस पूर्वोत्तर भारत पर हिंदी में कुछ यात्रा कथाएं और असम के दो महापुरुषों की जीवनियां भर लिखी हैं। इसलिए संभव है कि मंजे हुए कवि हरि मृदुल के दोहों पर की गई टिप्पणी कदाचित आप लोगों जैसी सार्थक न भी हो।
    डॉ साँवरमल सांगानेरिया
    गुवाहाटी असम

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  8. कबीर,सूर, तुलसी और रहीम के दोहों को स्कूल जीवन में पढ़ा था । कुछ तो आज भी ज़बान पर हैं। विज्ञान और तकनीक के विकास के साथ इनकी महत्ता और बढ़ गई है क्योंकि संगीतबद्ध ये दोहे आज मोबाइल पर टिक टिक करके पलक झपकते ही सुनने को मिल जाते है ‌।मधुर आवाजों में कर्ण प्रिय, मनमोहक और मनभावन ये दोहे आज भी अपने संदेश से लोगों को प्रभावित करते रहते हैं। ऐसे समय में हरि मृदुल के दोहे कुछ नयेपन के साथ रोचकता लेकर हमारे बीच आएं हैं। साहित्य के दृष्टिकोण से इन पर चाहे जो भी टिप्पणी की जाय लेकिन पाठक और श्रोता की हैसियत से ये दोहे मुझे अच्छे लगे क्योंकि फ्री वर्स के समय में शायद इस तरह की रचनाओं के लिए जिस साधना और साधक की जरूरत होती है उसे पूरा करने से साहित्यकार व रचनाकार कतराते हैं। हरी मृदुल यदि छंद साध रहे हैं तो वे बधाई के पात्र हैं और उनके दोहे श्रोताओं की ज़बान चढ़ जांय तो साधना सफल हो सकती है जिसके लिए संगीतबद्ध करके मधुर स्वर में उन्हें प्रस्तुत करने की जरूरत है।इससे ये श्रोताओं की पहुंच के दायरे में भी आ जाएंगी, ऐसा मेरा मानना है। अपने बीच से एक कवि इस तरह की रचना लेकर आता है तो उसे सुनने का आनंद ही कुछ और होता है। उदाहरण के लिए हर्ष व्यास ने राकेश शर्मा की एक ग़ज़ल को जब प्रस्तुत किया तो उसे खूब पसंद किया गया।

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  9. आदरणीय हरि मृदुल जी, बहुत सुंदर और सटीक दोहे। साधुवाद!--ब्रजेन्द्रनाथ

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