पंडित जसराज (१९३०-२०२०) की यह यात्रा भारतीय शास्त्रीय गायन की भी यात्रा है, इस बीच वह भारत से निकल कर पूरे विश्व में गूंज उठी. उसे पहचान मिली, मान मिला. यह अकारण नहीं है कि जो आलाप भारत के हिसार से उठा था वह अमेरिका के न्यू जर्सी में अनंत में लीन हो गया. यह संगीत की अपनी प्रकृति भी है कि उसका देस-काल नहीं होता.
रंजना मिश्रा शास्त्रीय संगीत में गति रखती हैं. पंडित जसराज पर उनकी लिखी कविताएँ आपने समालोचन पर पढ़ीं हैं. यह स्मरण लेख पंडित जसराज को सम्मान और स्नेह के साथ स्पर्श करता है. उनके गायन की तरह ही उदात्त है . उनके होने को आहिस्ता से प्रस्तुत करता हुआ.
गन्धर्व रसराज-जसराज
अमूर्तन का आ ला प
रंजना मिश्रा
कुछ
उपस्थितियाँ अपनी अनुपस्थिति में अधिक मुखर होती हैं.
कितने
बिम्ब, कितनी छवियाँ, कितने चित्र, कितने आलाप, कितना संगीत गूंजता छोड़ जसराज अनंत
की पगडंडियों में विलीन हो गए यह आनेवाले समय का संगीत महसूस करेगा.
पुणे के हलचल भरे दिनों में दिसम्बर की कुछ शामें अपने साथ जादू भरे संगीत का वादा लेकर आती हैं. उन शामों की प्रतीक्षा और स्मृतियाँ कई नीरस, रोज़मर्रा के उजाड़ दिनों को धो-पोंछ कर नया कर जाने की कूवत रखती हैं. सवाई गन्धर्व संगीत महोत्सव की ऐसी ही किसी शाम को उन्हें शिष्यों की भीड़ से घिरकर आहिस्ता-आहिस्ता चलते मंच की ओर जाते देखा था. मंच पर स्थिर होकर गाने की शुरुआत में उन्होंने काफी समय लिया, जैसे अपने ही घर शिष्यों के बीच घिरकर बैठे संगीत सिखाने वाले हों. उनका हाथ उठाकर ‘जय हो’ कहना जैसे उनके सचेत होने की उद्घोषणा थी, जैसे उन्हें हजारों की संख्या में उनका इंतज़ार करते श्रोताओं का ख़याल आया हो और अभिवादन की प्रतिध्वनि इस बार श्रोताओं की ओर से गूँज उठी.
ये शामें अब थोड़ी सूनी हो जाएंगी, इस शामों में गूंजता ‘विट्ठलम विट्ठलम’ का नाद अब मौन है. किसका जयघोष था वह, किस अमूर्त की अभ्यर्थना थी, किसके स्वर की अनूगूंज थी वह !
उस शाम की वह आखिरी प्रस्तुति थी और उसका आगाज़ और अंजाम सिर्फ कृष्ण कीर्तन था जिसकी शुरुआत उन्होंने मेवाती घराने के गायकों द्वारा गाए जाने वाले ‘ॐ श्री अनंत हरि नारायण’ के पारंपरिक आलाप से की थी. ‘ओम’ की शुरुआत की गहन गंभीर प्रतिध्वनि काफी थी पूरे वातावरण को शांत स्निग्ध और निर्मल बनाने के लिए और मंच पर सफ़ेद बालों और धवल धोती कुरते में बैठे एक योगी की उपस्थिति से सारा वातावरण जीवंत हो उठा था. क्या वह सिर्फ संगीत का जादू था या वह नाद से अध्यात्म तक की यात्रा का पहला चरण जिसमें समर्पण के कई पड़ाव अभी आने थे.
उस
शाम शास्त्रीय संगीत की बारीकियां और कलात्मकता गौण थीं, जसराज उनके परे जा चुके
थे, वह नए कलाकारों के लिए छोड़ रखा था
उन्होंने, गायकी का प्रदर्शन उनका ध्येय नहीं था, उनका ध्येय था श्रोताओं की आत्मा
और मन को किसी और ऊंचाई पर ले जाना जहाँ पहुंचकर असीम सत्ता का अनुभव किया जा सके
जहाँ रोज़मर्रा का जीवन और इससे जुड़े सुख दुःख नेपथ्य में खो जाएं और एक लम्बी
अध्यात्मिक यात्रा के बाद श्रोता वापस लौटें. जाहिर है इसकी कूवत हर गायक के पास
नहीं होती. वह कठिन अभ्यास से पाई हुई सरलता का उद्घोष था जहाँ संगीत का व्याकरण
हार मान लेता है जहां वह सिर्फ कलाकार के हाथ की कठपुतली एक माध्यम भर रह जाता है और कलाकार कला की सत्ता के बल पर
सुरों को नए रंग रूप में व्याख्यायित करता है, एक जादू सा कुछ होता है और इसके
ख़त्म होते ही आप इसे फिर से पाने को बेचैन हो उठते हैं. वह एक कभी न ख़त्म होने
वाले प्रेम की शुरुआत हैं. वह एक अशरीरी गन्धर्व से प्रेम है जो इस जीवन में होते
हुए भी जीवनातीत, काल में होकर भी कालातीत है.
पंडित जसराज के संगीत और उसकी शुरुआत के विषय में काफी कहा सुना लिखा जा चुका है. संगतकार से संगीतकार में बदल जाना सिर्फ एक संयोग नहीं था यह आनेवाले समय ने सिद्ध किया, जब मेवाती घराने की गायकी को वे लगातार नई ऊँचाइयों तक ले जाते रहे, नए शिष्य तैयार करते और संगीत के क्षेत्र में नए प्रयोग करते रहे. भारतीय शास्त्रीय संगीत लम्बे समय तक अध्यात्म के कई मार्गों में से एक मार्ग रहा और उन्होंने इस धारा को अपने संगीत में जीवंत रखा पर यहीं सत्ता के कई प्रतिष्ठानों में उनकी आलोचना का कारण भी बनता रहा. अपनी आलोचनाओं का जवाब उन्होंने सिर्फ अपने संगीत से दिया और हर कलाकार यही कर सकता है. ठीक इसी तरह जब उन्होंने प्रेम किया तो पूरे समर्पण के साथ किया जिसकी कीमत उन्हें दिल के दौरे की शक्ल में मिली.
मशहूर
ओडिसी नृत्यांगना प्रोतिमा बेदी को कलात्मक ऊंचाई तक पहुंचाने में पंडित जी का
योगदान भले ही समय के पन्नों में दफन हो जाए पर प्रोतिमा ने इसे अपने जीवन का सबसे
अमूल्य और दुर्लभ अनुभव और धरोहर बताया. उन्हें कलात्मक अनुशासन, अध्यात्म, जीवन
पद्धति और सोच तक ले जाने में पंडित जी ने लगातार अपनी ऊर्जा लगाईं हालांकि यह
सम्बन्ध दोनों के लिए दुःख का कारण बना पर प्रोतिमा आजीवन उनसे प्रेम करती रहीं और
इसका उल्लेख उनकी आत्मकथा में मिलता है कि जसराज किस तरह उनके जीवन में लम्बे अरसे
तक महत्वपूर्ण बने रहे. यह एक कलाकार का दूसरे के प्रति सम्मान और प्रेम था. प्रेम
में इंसान के प्रति समर्पण को जसराज ने जैसी आध्यात्मिक ऊंचाई दी वह आनेवाले
वर्षों में उनके गायन में नज़र आया. वे प्रोतिमा से दूर होकर उस असीम सत्ता के अधिक
निकट आते गए जो उनकी गायकी में स्वर पाता रहा.
पंडित
जी सिर्फ इसलिए विशेष नहीं कि उन्होंने मेवाती घराने की सुमधुर, भक्ति परंपरा और लोक
से उपजी गायकी को कण और मींड से युक्त
सुन्दर शास्त्रीय गायकी में स्थापित किया जिसमें लोक, अध्यात्म भी उतना ही
प्रतिध्वनित थे जितना शास्त्र, वे इसलिए भी याद किये जाएंगे क्योंकि ‘मूर्छना’
जैसी कठिन सांगीतिक अवधारणा के बीज को उन्होंने ‘जसरंगी’ की शक्ल में ढाला जिसमें
स्त्री और पुरुष दोनों गायक एक साथ अपनी गायकी के जौहर और वह भी अलग अलग रागों को
एक साथ गाकर दिखा सकते हैं. (यहाँ यह जानना ज़रूरी है कि इस तरह रागों को गाने के
कुछ नियम होते हैं, हर राग में ऐसा समन्वय संभव नहीं) शास्त्र को संगीत में ढालकर
लोक तक ले आना उनकी बौद्धिक प्रतिभा का एक उदाहरण है. यह एक कठिन पर सफल प्रयोग था
क्योंकि स्त्री और पुरुष स्वर अपनी श्रुतियों में भिन्न होते हैं और साथ गाने के
लिए उनमें से किसी एक को अपनी जगह छोडनी होती है ताकि वे एक ही सुर में गा सकें.
संगीत के कई ग्रंथों में मूर्छना का ज़िक्र है पर उसे अलग अलग स्वरों में गाकर अलग
रागों को एक साथ गाने का प्रयोग शायद पंडित जसराज के पहले किसी ने न किया और इसलिए
संगीत में उनका यह योगदान महत्वपूर्ण है.
उनके
मुख्य शिष्यों में से संजीव अभ्यंकर उल्लेखनीय हैं जिन्हें उन्होंने गुरु शिष्य
परंपरा के माध्यम से शिक्षित किया. संजीव १४ वर्षों तक उनके साथ उनके घर पर रहकर
संगीत को आत्मसात कर पाए और पंडित जसराज से अपने संबंधों पर वे कहते हैं
‘गुरु शिष्य परंपरा सिर्फ संगीत और उससे जुड़े शास्त्र की शिक्षा भर नहीं, यह उससे अधिक गूढ़ और जटिल है जिसमें शिष्य अपनी मौलिकता अक्षुण्ण रखते हुए गुरु को कई स्तरों पर आत्मसात कर रहा होता है और गुरु शिष्य की मौलिकता का ध्यान रखते हुए उसके संगीत को मांजता निखारता है. और यह गुरूजी ने मेरे साथ बड़ी खूबी से किया. मैं संजीव अभ्यंकर रहकर ही पंडित जसराज से सीखता रहा.”
गुरु
शिष्य परंपरा के इस पड़ाव पर जहाँ इसे लम्बे समय तक इसके मूल रूप में जीवित रख पाना
संभव नहीं, यह अपने आप में एक बड़ा व्यक्तव्य है.
कई
तस्वीरें हैं जिनमें एक युवा साधक चुपचाप अपनी शालीन संयमित शरीर भाषा और सौम्यता
के कारण अलग से पहचाना जाता है. भक्ति, भाषा, संगीत की परंपरा और शालीनता के प्रति
आग्रह मेवाती घराने की परंपरा का अंग है. कृष्ण पदों, सामगायन, ऋचाओं और मन्त्रों
के गायन में लोक संगीत का एक रंग मिलकर एक अद्भुत गायकी की रचना मेवाती घराने के
खासियत रही और संगीत के मध्य काल की ठुमरी और छोटा ख़याल के भाषाई विचलन से दूर
रहकर संगीत के जिस उद्दात स्वरुप की आराधना मेवाती घराने की परंपरा थी वे आजीवन
उसे गाते रहे.
प्रेमिका
के लिए अमीर खुसरो गाने वाले जसराज और जयदेव के ‘गीत गोविन्द’ के पद गाने वाले
जसराज जब ‘मेरो अल्लाह मेहरबान’ गाते थे तो कौन अभागा श्रोता समर्पण के स्वर को न समझने
की भूल कर सकता है ! अपनी लम्बी संगीत साधना के बाद के वर्षों में संगीत उनके लिए
अध्यात्मिक खोज और ऊंचाई तक पहुँचने का एक माध्यम रह गया था इसलिए कई बार उनका
संकीर्ण दृष्टि से मूल्यांकन करने की भी कोशिश की गई जबकि उनके संगीत में
बौद्धिकता, परंपरा, अध्यात्म और प्रयोग के कई उदाहरण हैं जिसके कारण उन्हें वैष्णव
गायन की परंपरा तक सीमित करके देखना बड़ी भूल होगी.
हरियाणा
के मेवात के पीली मंदोरी गाँव में जन्मे पंडित जसराज को पिता पंडित मोतीराम ने ३
वर्ष की उम्र से संगीत सिखाना शुरू किया था जब वे गाँव छोड़कर पिता के पास वर्धा
चले आए. पिता की असामयिक मृत्यु ने घर की आर्थिक स्थिति ख़राब कर दी पर चूँकि घर
में दो गाने वाले थे पंडित मणिराम और पंडित प्रतापनारायण तो भाइयों में सबसे छोटे
पंडित जसराज को तबले की तालीम दी जाने लगी ताकि संगत के लिए घर पर ही संगतकार उपलब्ध
हो और तबलावादक को दिए जानेवाले पैसे बचें. उन्हीं दिनों बेगम अख्तर की गाई एक ग़ज़ल
‘दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे/ वर्ना
कहीं तक़दीर तमाशा न बना दे’ ने पंडित जी की दुनिया को छुआ और वह उनके जीवन
में परिवर्तन का, संगतकार से संगीतकार के सफ़र की यात्रा का पहला पड़ाव बनी. समय समय
पर मिले अपमान के दंश ने इस जिद पर और सान चढ़ाई और उन्होंने तबला बजाने से इनकार
कर दिया. इसपर काफी चर्चा हो चुकी हैं. १९४६ से १९५२ तक बाल न काटने का प्रण जब तक
बतौर कलाकार उन्हें पहचान न मिले भी कलाकार के आत्मसम्मान और पहचान के संघर्ष का
उदाहरण है.
बड़े
गुलाम अली खान उन दिनों बीमार थे जब पंडित जसराज उनसे मिलने गए और खान साहब
जिन्हें प्यार से ‘चचाजान’ पुकारा जाता था, ने कहा– ‘जसराज मेरे शागिर्द बन जाओ’
जिसके जवाब में पंडित जी ने इनकार करते हुए कहा था– ‘मुझे अपने पिता को जिंदा करना
है, मैं आपसे संगीत नहीं सीख सकता’.
बड़े गुलाम अली खां ने उन्हें दुआ दी कि तेरी इच्छा पूरी हो. यह ऐसे उदाहरण हैं जो अच्छे कलाकार होने की जितनी अहर्ताएं हैं उन्हें पूरा करते पंडित जसराज के चरित्र का उदाहरण हैं. गौरतलब है, बड़े गुलाम अली खान उन दिनों देश के मूर्धन्य गायकों की श्रेणी में थे और उनसे सीखना सम्मान की बात थी. बाद के वर्षों में भी शास्त्रीय संगीत के प्रति उनके कई किस्से हैं, जिनमें से एक वी शांताराम जो उनके श्वसुर भी थे की फिल्म ‘गीत गाया पत्थरों ने’ से जुड़ा है. वी शांताराम से उनसे उस फिल्म के संगीत में अपना योगदान देने को कहा जिसके संगीत निर्देशन वसंत देसाई कर रहे थे पर उन्होंने नम्रता से इनकार करते हुए कहा–
‘मैंने निश्चय किया है कि अगर मैं शास्त्रीय संगीत गा पाया तो उसके सिवा और कुछ नहीं करूँगा, अब चूँकि मैं गाने लगा हूँ, मेरा जीवन शास्त्रीय संगीत को ही समर्पित रहेगा’.
हालांकि
बाद में उन्होंने कुछ गीत गाए फिल्मों के लिए पर उसे कभी शास्त्रीय संगीत का
पर्याय नहीं बनाया.
हर बड़ा कलाकार अपने समय में ही एक मिथक में बदल जाता है. इसमें उसकी कला की श्रेष्ठता और उसके व्यक्तित्व का मिला जुला हिस्सा होता है जिसमें एक अबूझ रहस्यमयता थोड़ी अगम्यता भी होती है और पंडितजी के व्यक्तित्व में ये नज़र आते हैं. तार्किकता और बौद्धिकता इसे नकारती है पर कलाकार अपने व्यक्तित्व में इतना सुगम सरल कब होता है! जसराज इसका अपवाद न थे. जिद्दु कृष्णामूर्ति बेहद कम बोलते और लोगों से मिलना उन्हें विशेष पसंद न था पर उन्होंने जसराज को सन्देश भिजवाया कि वे उन्हें सुनना चाहते हैं और चुपचाप खड़े होकर उन्हें सुनते रहे. बाद में उनकी संक्षिप्त मुलाक़ात भी हुई. यह शायद पहली और आखिरी घटना है जिसमें जे कृष्णामूर्ति किसी कलाकार से मिले.
मुझे महाराष्ट्र के परभनी से पंडित जसराज का गायन सुनने आए वे वृद्ध ग्रामीण याद आते हैं जो सिर्फ उनकी वजह से सवाई गन्धर्व समारोह हर वर्ष सुनने आते हैं! क्या है ऐसा उस गायकी में जो एक सरल अपढ़ ग्रामीण और एक दार्शनिक के एक ही तरह से छूता है, चमत्कृत करता है !
जसराज का कृष्ण प्रेम सर्वविदित है पर कोलकाता के कालीघाट के प्रति उनके अनुराग और समर्पण का एक युग था जिसमें वे और प्रोतिमा बेदी दोनों ने गहरे प्रेम और अध्यात्मिक उंचाई का अनुभव किया जिसके विषय में प्रोतिमा बेदी ने विस्तार से अपनी आत्मकथा में लिखा है. काली जो क्रोध विनाश और विध्वंस का प्रतीक है कला में उतनी ही जगह रखती हैं जितना नित नूतन निर्माण में रत प्रेममय कृष्ण, इसे कलाकार की दृष्टि भला कैसे अनदेखा कर सकती थी ! ये ऐसी घटनाएं हैं जो उनके गूढ़ और जटिल कलाकार व्यक्तित्व की ओर इशारा करती हैं जिसे बौद्धिकता की आड़ में नकारा नहीं जा सकता और ऐसे ही उदाहरण जसराज को अपने समय में मिथक की तरह स्थापित करते हैं. इसपर विश्वास न करना एक चुनाव हो सकता है पर इससे उनके व्यक्तित्व के आस पास छाई धुंध और रहस्यमयता कम नहीं होती.
अपनी कला का श्रेय न लेना भी उनके इसी व्यक्तित्व का हिस्सा था. वे अक्सर कहते मैं सुरों को ढूंढते ढूंढते कहीं और निकल जाता हूँ. अपने भाई और गुरु को अपनी उपलब्धियों का श्रेय देना, खुद को संगीत का माध्यम कहना ये सारे उसी गूढ़ और जटिल कलाकार व्यक्तित्व का हिस्सा रहे जो कभी सहज परिभाषित नहीं रहा.
उन्हें
मिले पुरस्कारों और सम्मानों का ज़िक्र मैं जानबूझकर छोड़ रही हूँ वे महज जानकारियाँ
हैं और जसराज जैसे कलाकार की संगीत यात्रा का बेहद छोटा हिस्सा. इन पुरस्कारों ने
जसराज के व्यक्तित्व और कला में क्या जोड़ा यह बता पाना कठिन हैं अलबत्ता जसराज ने
इन पुरस्कारों को मायने दिए.
अपने
अंतिम दिनों तक स्काईप पर संगीत सिखाने वाले जसराज के शिष्यों का एक बड़ा समूह है
जो उनकी उपस्थिति से वंचित होगा, दुनिया भर में हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के
प्रेमी हैं जिनके लिए अब वे कभी नहीं गाएंगे पर कहते हैं ध्वनि कभी नहीं मरती, नाद
एक बार आयु पाकर गूंजता ही रहता है अनादि अनंत का हिस्सा होकर. पंडित जसराज की
आवाज़ भी उसी अपरिमीत अनादि और अनंत से उभरकर हमेशा के लिए गूंजती रहेगी. राग भैरवी
में अल्लाह और ॐ की एकात्मकता में रची बसी बंदिश ‘मेरो अल्लाह मेहरबान’ हर संगीत
प्रेमी के भीतर गूंजेगी और सौरमंडल में मंगल और वृहस्पति की कक्षा के बीच जसराज
नाम का छोटा सा ग्रह उस शून्याकाश को अपनी ध्वनि और उपस्थिति से समृद्ध करता
होगा..
जय हो ..... उन्हें और उनके संगीत से प्रेम करने वालों के भीतर सुखद नाद सा प्रतिध्वनित होगा, उनकी उपस्थिति का आभास देता..
(पंडित जसराज पर रंजना मिश्रा की लिखीं कविताएँ यहाँ पढ़ें)
___________________
रंजना मिश्रा
शिक्षा वाणिज्य और शास्त्रीय संगीत में.
आकाशवाणी, पुणे से संबद्ध.
लगभग सभी प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित
लगभग सभी प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित
कथादेश में यात्रा संस्मरण, इंडिया मैग, बिंदी बॉटम (अँग्रेज़ी) में निबंध/रचनाएँ प्रकाशित, प्रतिलिपि कविता सम्मान (समीक्षकों की पसंद) २०१७.
ranjanamisra4 @gmail.com
ranjanamisra4
इस प्रस्तुति के लिए अद्भुत भी छोटा शब्द है।अब इसके बाद सिर्फ पण्डित जसराज को सुना ही जा सकता है।
जवाब देंहटाएंपढ़ा। बहुत सुंदर आलेख है। प्रिय रंजना बधाई और आशीर्वाद। तुम्हारे इस बेहतरीन आलेख को पढ़कर गौरवान्वित महसूस कर रही हूँ।
जवाब देंहटाएंगर्व हो रहा है ये लेख पढ़कर। दिवंगत आत्मा को सादर नमन। दूसरा कोई जसराज पैदा होगा, ये नामुमकिन है। 🙏🙏🙏
जवाब देंहटाएंरंजना जी तेजस्वी कवि हैं, साथ ही उनमें संगीत की गहरी समझ भी है। उन्होंने संगीत सीखा भी है। इसीलिए यह बेहद खूबसूरत आलेख रंजना जी लिख पायी हैं। कल हमने पण्डित जसराज जी पर केन्द्रित उनकी कविताएँ भी पढ़ी हैं, पूर्वग्रह में हमने उनकी कविताएँ प्रकाशित भी की हैं और उनकी कविताओं को खूब सराहा भी गया है। सुविचारित और सुगठित आलेख। अरुण देव एक मिशन हैं हमारे समय की रचनाशीलता के। मैं समालोचन, रंजना जी और अरुण जी को इस बेहतरीन काम के लिए बधाई देता हूँ
जवाब देंहटाएंहिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के शिखर पुरुष के महाप्रयाण पर यह अद्भुत रवानगी से भरा आलेख है. एक-एक पंक्ति पर सघन गूँज. जैसे उन्हें ही सुन रहे. पंडित जी को सच्ची प्रणति देता संग्रहणीय दस्तावेज. रंजना जी को पुनः आभार और आपको भी ����
जवाब देंहटाएंइधर जब भारतीय शास्त्रीय संगीत पर हिंदी में बेहतर, आत्मीय और सुंदर लिखने वाले लगभग अनुपस्थित जैसे ही लगते हैं, वहीं रंजना जी बहुत उम्मीद के साथ ढाढस बंधाती अपनी प्रज्ञा से परिपूर्ण उपस्थिति दर्ज कराती हैं। लंबे अरसे बाद मैंने किसी मूर्धन्य गायक की स्मृति में रसिकता की आत्मा को छू लेने वाली शब्द-श्रद्धांजलि पढ़ी है। अभिभूत हूँ और रंजना जी से अनुरोध करना चाहता हूँ कि वे संगीत के प्रति अपनी इस विलक्षण दृष्टि-बोध और शब्द-वैभव से सांगीतिक-दस्तावेज को विस्तारित करने के लिए नियमित लेखन कर इस मामले में हिंदी की दरिद्रता को दूर करेंगी। मुकुंद लाठ जैसे शुद्ध संगीत-चिंतक की परंपरा को रंजना जी जैसी विदुषी ही सहज शब्द-सम्वाद में आगे बढ़ा सकती हैं। अरुण देव जी दृश्य और प्रदर्शनकारी कलाओं पर जिस तरह की मूल्यवान सामग्री पाठकों को उपलब्ध करा रहे हैं, वह आने वाले समय में किसी धरोहर से कम नहीं है। इसके लिए उन्हें बधाई देना, तात्कालिक हो जाना होगा।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब लेख . समृद्ध हुआ इसे पढ़ कर . पंडित जसराज को जो बिलकुल नहीं जानते , उनके लिए भी यह लेख उपयोगी है . कहा जाना चाहिए , गागर में सागर है . रंजना मिश्र जी को बधाई .
जवाब देंहटाएंसंगीत का ककहरा भी न जानने वाले के लिए यह आलेख समृद्धिप्रद है। इसके लिए रंजना जी और अरुण देव बधाई के पात्र हैं ।--हरिमोहन शर्मा
जवाब देंहटाएंबहुत बेहतर आलेख। डूब कर लिखा हुआ तटस्थ लेख। रंजनाजी को बधाई। अरुणजी को धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंयह भी गद्य का एक सुरीला आलाप ही है। सचेत और आत्मीय गद्य, अपने को अमूर्तन से बचाता हुआ लेकिन इसे पढ़कर जो रस मिला है, वह मन में कई अमूर्तन बनाता है। मैंने इसे इस तरह पढ़ा जैसे सुना जाता है। यह जसरंगी गद्य बताता है कि बिना आडंबर के संगीत पर कितना सरस लिखा जा सकता है। इसमें भी संगीत की तरह एक चैनदारी है, कहने दीजिए यह दानेदार गद्य है, जो पंडित जसराज के प्रति अकथनीय प्रेम-भाव को कुछ उजाले में देखता-दिखाता है। इसमें आलाप ही नहीं, बहुत सुंदर बढ़त भी है। रंजना जी और आपके प्रति कृतज्ञ हूं कि यह सुबह का आलाप मेरे रोज़मर्रा की दरिद्रता में फंसे जीवन को अपने वैभव से आलोकित कर गया।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर आलेख। अद्भुत प्रस्तुति विस्तृत प्रज्ञा के साथ।
जवाब देंहटाएंविह्वल करता हुआ विकल आलेख. शुक्रिया, रंजना -जी. मैं हालांकि पंडित जसराज को कम पसंद कर पाया, उनकी शुरू की चीज़ें ही दिल-दिमाग को छूती रहीं..बार-बार लगता था कि उनकी तानें तो उड़ान भर रही हैं, लेकिन आवाज़ ज़मीन पर ही चल रही है. अब आपकी टिप्पणी के उजाले में उन्हें फिर से सुनूंगा.
जवाब देंहटाएंएक सुखद अनुभूति है। संगीत के प्रेमिल भाव को बहुत ही सुंदरता से जतन से गद्य का रूप दिया गया है।
जवाब देंहटाएंरंजना जी को मैं ठहर कर पढ़ती हूँ। कल ही तो कविताऐं पढ़ी थी आज ये आलेख तो जैसे सोने पे सुहागा।
मैं अरूण देव जी को और समालोचन को बार बार धन्यवाद कहना चाहती हूँ।
एक एक शब्द पिरो कर ये सुंदर माला बनी है।
यह महत्वपूर्ण आलेख है। अपनी कला की मूर्तता से परे पंडित जी के कला साधक-समर्पक और उनके अन्य मानवीय पक्षों को उद्घाटित करता हुआ। किसी भी कलाकार की कला के समग्र विश्लेषण के लिए ऐसे दृष्टिसम्पन्न आलेखों की भिन्न प्रासंगिकता है। इस अर्थ में यह संग्रहणीय भी है।
जवाब देंहटाएंबहुत पहले वाणी प्रकाशन से छपी 'गिरिजा' पुस्तक पढ़ने के बाद यतीन्द्र मिश्र से मिलने की तीव्र इच्छा जगी थी जो कालांतर में पूरी हुई।उसके बाद बिस्मिल्ला खान, सोनल मानसिंह जैसे विख्यात कलाकारों पर उनके लेखन से गुजरते हुए संगीत की वैचारिकी को जानने-समझने का सौभाग्य मिला।
जवाब देंहटाएंआज पंडित जसराज पर केंद्रित रंजना मिश्र जी के इस आलेख को पढ़ते हुए अनजाने ही कोरोना काल में मन पर लगातार पड़ते गर्द साफ हो गए और प्रफुल्लता का अनुभव हुआ।वे स्वस्थ-प्रसन्न रहें और कविताओं के साथ ही इसी तरह हमलोगों की संगीत की समझ में इज़ाफ़ा करती रहें।
उन्हें साधुवाद और इस दुर्लभ आलेख को सामने लाने के लिए अरुण जी को धन्यवाद।
भावुक कर देने वाला पुण्य स्मरण लिखा आपने रंजना जी...संगीत की बारीकियों से अनभिज्ञ पाठक भी आपके एक एक शब्द की ध्वनि से एकात्म कर पाता है।एक बहुत बड़े गायक से इंसानी तौर पर आपने परिचित कराया,उनके स्वाभिमान के उदाहरण दिए।
जवाब देंहटाएंहिंदी में ऐसा रस पूर्ण लेखन विरल होता गया था,आप उसे पकड़ कर मेन स्ट्रीम में ले आयीं।
पं जसराज को सादर नमन,आपको साधुवाद और समालोचन का शुक्रिया।
यादवेन्द्र
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 20.8.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर आलेख
जवाब देंहटाएंखूबसूरत
जवाब देंहटाएंभक्ति संगीत को शास्त्रीयता में पगाने और भारतीय संगीत परंपरा को दादरा ठुमरी की श्रृंगारिक बंदिशों और सुरों से आगे विस्तार देने में बड़ा योगदान किया।
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
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