By Matteo Baroni |
‘हो चुकी जब ख़त्म अपनी जिंदगी की दास्ताँ
उनकी फ़रमाइश हुई है, इसको दोबारा कहें.’ (शमशेर)
प्रेम की तीव्रता, सघनता और गहन एन्द्रियता के मार्क्सवादी कवि शमशेर बहादुर सिंह की महत्वपूर्ण कविता ‘टूटी हुई, बिखरी हुई’ की एक व्याख्या- ‘शमशेर बहादुर सिंह का
काव्य- रहस्य और सौंदर्य के भयावह फूल’ (सविता सिंह) आपने कुछ दिन पहले ही समालोचन पर पढ़ी है. इस पाठ में
विचलित करने की क्षमता है और इसने इस कविता पर संवाद का सिलसिला शुरू कर दिया है.
इसी क्रम में कवि और व्याख्याकार सदाशिव
श्रोत्रिय का यह आलेख प्रस्तुत है. इसे उन्होंने ‘उर्दू-फ़ारसी कविता के प्रेम-लोक
की प्रकृति’ के सन्दर्भ में देखा है.
शमशेर की “टूटी हुई, बिखरी हुई”
सदाशिव श्रोत्रिय
साहित्य में प्रेम के रंगों की जितनी विविधता हमें देखने को मिलती है उस पर विचार करते हुए यह किंचित हास्यास्पद सा लगता है कि उसकी व्याख्या के लिए हम किसी एक या दूसरे ‘वाद’ का उपयोग करें और सब प्रेमी-प्रेमियों को एक ही नज़र से देखने की कोशिश करें. क्या हम दांते-बिएट्रिस के, देवदास-पारो-चन्द्रमुखी के, हेमलेट-ओफिलिया के, कृष्ण-राधा के और कृष्ण-मीरा के प्रेम को एक ही तराज़ू से तौल सकते हैं?
सच तो यह है कि इस दुनिया में जितने प्रेम करने वाले हो सकते हैं उतने ही प्रेम के अलग अलग रंग भी हो सकते हैं और इसीलिए एक प्रेमी-युगल की तुलना पूरी तरह किसी दूसरे प्रेमी-युगल से करना उचित नहीं लगता.
शमशेर जी की कविता “टूटी हुई, बिखरी हुई” और उसकी
विभिन्न व्याख्याओं को पढ़ते हुए मुझे बराबर यह लगता रहा कि इस कविता में जो प्रेम-लोक
का वर्णित है उसमें प्रवेश की चेष्टा शायद बहुत कम लोगों ने की है जबकि शमशेर, जो फ़ारसी-उर्दू
प्रेम–काव्य की सुदीर्घ परंपरा से भलीभांति परिचित थे, अपने इस प्रेम-लोक की
प्रकृति के बारे में काफ़ी निश्चित और स्पष्ट रहे होंगे.
इस परम्परा की कुछ विशेषताओं पर जब मैं विचार करता हूं तो मुझे लगता है इसमें कवि के लिए प्रेमिका देह-भोग की कोई वस्तु न होकर उस सौन्दर्य का प्रतीक होती है जिसमें कवियों को कुछ दिव्य और अलौकिक सा दिखाई देता है. उनके लिए उसका प्रमुख गुण उसका वह अव्याख्येय सौन्दर्य ही है जिसे कवि उसी तरह अनुभव करता है जिस तरह वह किसी कमल के, तितली के, चांद-तारों के, नदी-झरनों के, उषा के, किसी रागिनी, शिल्प या चित्र के सौन्दर्य को अनुभव करता है. यह कवि कोई ‘अर्बाब-ए-हवस’ नहीं है जो नारी देह को केवल भोग की वस्तु मानता हो. एक कवि को उस तरह देखना ठीक नहीं है :
ये
बाइस-ए–नौमीदी-ए–अर्बाब-ए-हवस है
ग़ालिब
को बुरा कहते हो अच्छा नहीं करते
कवि के लिए सौन्दर्य की यह स्वामिनी केवल एक अद्भुत
और अनूठा सृजन है जो अपनी झलक-मात्र से ही उसके लिए एक अलौकिक आनंद का द्वार खोल देता
है. इस रूपसी के विशेष अनुग्रह की दबी हुई अभिलाषा बेशक ऐसे कवि के मन में निरंतर
बनी रह सकती है जिसे वह विभिन्न प्रकार से अभिव्यक्त भी करता है :
मैं
बुलाता तो हूं उसको मगर ऐ जज़्बए-दिल
उसपे
बन जाये कुछ ऐसी कि बिन आये न बने
ऐसे कवि को यदि कभी इस सौन्दर्य-स्वामिनी के विशेष
अनुग्रह का तनिक सा भी प्रमाण मिल जाए तो वह शायद अपने आप को सातवें
आसमान पर महसूस करता है :
दिले-हर-क़तरा
है साज़े-अनल-बह्र
हम
उसके हैं
हमारा पूछना क्या
पर देह-भोग की कल्पना कवि के लिए इस जादुई हस्ती
को उस उच्चासन से खींच कर बिल्कुल नीचे गिरा देने जैसा है जिस पर कि वह उसे सदा बिठाए रखना चाहता है.
प्रेमिका की अकल्पनीय उच्चता और अप्राप्यता को भी
शायद इस प्रेम-कविता की एक विशेषता के रूप में देखा जा सकता है. प्रेमिका की हर
चीज़ (उसकी साधारण और टेढ़ी-मेढ़ी लिखावट भी) ऐसे प्रेमी को
रोमांचक और विशिष्ट लग सकती है.
फ़ारसी-उर्दू शायरी के इस प्रेम-लोक में पाया जाने वाला एक सामान्य
पात्र वह ‘रक़ीब’ भी है जो कवि और इस
प्रेयसी के संबंधों की जासूसी कर उन्हें मनमाने
तरीके से व्याख्यायित करता रहता है. कवि
उसकी इन व्याख्याओं से सामान्यतः अप्रभावित रहता है क्योंकि उसका रास्ता इस रक़ीब के रास्ते से अलग है. इस शायरी की एक और
खासियत कवि का अपने आपको इस सुन्दरी के
मुक़ाबले बहुत कम रूपवान और धनवान समझना भी है. अपने काव्य –सृजन
की जो उपलब्धि कवि को निरंतर एक संतुष्टि
और आत्मगर्व से भरे रखती है उसका अक्सर इस सुन्दरी के लिए कोई अर्थ नहीं होता.
ग़ालिब की निम्नांकित पंक्तियां इस संबंध में उल्लेखनीय हैं:
है
ख़बर गर्म
उनके आने की
आज
ही घर में बोरिया न हुआ
गाफ़िल, इन मह-तलअतों के वास्ते
चाहने
वाला भी अच्छा चाहिए
चाहते हैं ख़ूबरूओं को ’असद’
आपकी
सूरत तो देखा चाहिए
गैर फिरता है लिए यूं तेरे खत को कि अगर
कोई
पूछे कि ये क्या है तो छिपाए न बने
बलाए-जां
है ’ग़ालिब’ उसकी हर बात
इबारत
क्या इशारत क्या अदा क्या
कुछ
तो पढ़िए कि लोग कहते हैं
आज
ग़ालिब गज़लसरा न हुआ
ये
न थी हमारी किस्मत कि विसाले–यार होता
अगर
और जीते रहते, यही इंतज़ार होता
मुझे इस बात का पूरा यकीन है कि शमशेर जी की
कविता “टूटी हुई, बिखरी हुई” में वर्णित प्रेम-लोक की प्रकृति इस उर्दू-फ़ारसी
कविता के प्रेम-लोक की प्रकृति से बहुत भिन्न नहीं है. इस कविता में प्रेम करने वालों की तस्वीर बहुत साफ़ है. प्रेमी एक अनुभवी,
गम्भीर और दार्शनिक किस्म का व्यक्ति है जिसकी इस रूपसी के प्रति प्रकट
पारिवारिक-सामाजिक भूमिका किसी अभिभावक की, किसी फ्रेंड–फिलोसफर-गाइड की है जबकि
यह प्रेमिका सद्य-यौवन-प्राप्ता कोई सुन्दर और आकर्षक युवती है. इसकी लम्बी, ज़मीन
तक आने वाली केश-राशि और उसका सुदृढ वक्ष उसके दैहिक आकर्षण का मुख्य भाग है और वह
शायद स्वयं भी यह मानती है कि प्रेम के
किसी भी क़िले को वह अपनी देह के इस विशिष्ट आकर्षण से फतेह करने में समर्थ है.
कविता के पर्सोना और इस युवती ने रात संभवत: एक ही घर में
बिताई है. हुआ शायद यह है कि जैसे ही पर्सोना अपनी नींद से जागा है यह लड़की, जिसने कोई मोती वाला क्लिप हटा कर
अपनी ज़मीन तक लटकने वाली ज़ुल्फ़ों को मुक्त कर दिया है, इस पर्सोना को पीछे से
आलिंगनबद्ध कर लेती है और फिर अपने पंजों
पर उचक कर उसके होठों को चूमने के प्रयास जैसा कुछ करती है. कविता में यह
घटना जिस काव्यत्व के साथ व्यक्त हुई है वह देखने
लायक है :
एक
फूल उषा की खिलखिलाहट पहनकर
रात का गड़ता हुआ काला कम्बल उतारता हुआ
मुझसे लिपट गया.
उसमें काँटें नहीं थे - सिर्फ एक बहुत
काली, बहुत लम्बी जुल्फ थी जो जमीन तक
साया किये हुए थी... जहाँ मेरे पाँव
खो गये थे.
वह गुल मोतियों को चबाता हुआ सितारों को
अपनी कनखियों में घुलाता हुआ, मुझ पर
एक ज़िन्दा इत्रपाश बनकर बरस पड़ा -
और तब मैंने देखा कि मैं सिर्फ एक साँस हूँ जो उसकी
बूँदों में बस गयी है.
रात का गड़ता हुआ काला कम्बल उतारता हुआ
मुझसे लिपट गया.
उसमें काँटें नहीं थे - सिर्फ एक बहुत
काली, बहुत लम्बी जुल्फ थी जो जमीन तक
साया किये हुए थी... जहाँ मेरे पाँव
खो गये थे.
वह गुल मोतियों को चबाता हुआ सितारों को
अपनी कनखियों में घुलाता हुआ, मुझ पर
एक ज़िन्दा इत्रपाश बनकर बरस पड़ा -
और तब मैंने देखा कि मैं सिर्फ एक साँस हूँ जो उसकी
बूँदों में बस गयी है.
लड़की की इस
शरारत का कुछ और विवरण हमें इस कविता की पंक्तियों
में अन्यत्र भी मिलता है :
वह मुझ पर हँस रही है, जो मेरे होठों पर एक तलुए
के बल खड़ी है
मगर उसके बाल मेरी पीठ के नीचे दबे हुए हैं
और मेरी पीठ को समय के बारीक तारों की तरह
खुरच रहे हैं
उसके एक चुम्बन की स्पष्ट परछायीं मुहर बनकर उसके
तलुओं के ठप्पे से मेरे मुँह को कुचल चुकी है
उसका सीना मुझको पीसकर बराबर कर चुका है.
कविता का पर्सोना
इस युवती के सौन्दर्य के प्रति गहरा प्रशंसा भाव रखता है, पर उसके सौन्दर्य में वह
केवल उस अव्याख्येय सौन्दर्य की ही एक झलक देखता है जिसे वह गंगा की लहरों,
बांसुरी के सुरोंआदि में भी देखता है. वह एक अतिरिक्त संवेदनशील इंसान है और अपनी
विशिष्टताओं के साथ अपनी ख़ामियों से , तथा
अपनी साधारणता से भी भली-भांति परिचित है. यह देखना रोचक है कि वह अपने आपको अपनी किन शारीरिक अपूर्णताओं, किन वस्तुओं,किन
प्राणियों और किन परिस्थितियों से जोड़ कर देखता है :
बाल, झड़े हुए, मैल से रूखे, गिरे हुए,
गर्दन से फिर भी चिपके
... कुछ ऐसी मेरी खाल,
मुझसे अलग-सी, मिट्टी में
मिली-सी
दोपहर बाद की धूप-छाँह में खड़ी इंतजार की ठेलेगाड़ियाँ
जैसे मेरी पसलियाँ...
खाली बोरे सूजों से रफू किये जा रहे हैं...जो
मेरी आँखों का सूनापन हैं
ठंड भी एक मुसकराहट लिये हुए है
जो कि मेरी दोस्त है.
कबूतरों ने एक गजल गुनगुनायी . . .
मैं समझ न सका, रदीफ-काफिये क्या थे,
इतना खफीफ, इतना हलका, इतना मीठा
उनका दर्द था.
अपने तीव्र
अनुराग और प्रशंसा भाव के अप्रत्याशित प्रतिदान का ऐसा प्रमाण मिलने के परिणाम-स्वरूप पर्सोना का मन यकायक अकल्पनीय रूप से तीव्र रूमानी संवेग से भर उठता है:
मुझको प्यास के पहाड़ों पर लिटा दो जहाँ मैं
एक झरने की तरह तड़प रहा हूँ.
मुझको सूरज की किरनों में जलने दो -
ताकि उसकी आँच और लपट में तुम
फौवारे की तरह नाचो.
मुझको जंगली फूलों की तरह ओस से टपकने दो,
ताकि उसकी दबी हुई खुशबू से अपने पलकों की
उनींदी जलन को तुम भिगो सको, मुमकिन है तो.
पर पर्सोना इस युवती की तुलना में
बहुत अधिक परिपक्व और अनुभवी है और वह उसकी नादानी को देखने में भी भली-भांति
समर्थ है. इस युवती के प्रति अपने नैतिक
दायित्व को भी वह बखूबी समझता है. वह यह भी महसूस करता है कि इस युवती ने जिस तरह
उसे अपना राज़दार बना लिया है उससे उनके बीच का व्यवहार अब पहले जितना सहज नहीं रह जाएगा. उसके
मन में मादक पदार्थों की तस्वीर उभरती है जिनका सेवन उनके विषैलेपन को जानने के
बावजूद वे लोग करते रहते हैं जिन्हें उनकी लत लग गई है और जिन्हें उनका ‘किक’ एक
खास तरह का आनंद देता है :
वह पैदा हुआ है जो मेरी मृत्यु को सँवारने वाला है.
वह दुकान मैंने खोली है जहाँ 'प्वाइजन' का लेबुल लिए हुए
दवाइयाँ हँसती हैं -
उनके इंजेक्शन की चिकोटियों में बड़ा प्रेम है.
अपनी अभिभावक वाली भूमिका के खयाल से
पर्सोना है इसे अनुचित मानता है कि उसके किसी गुप्त और अनैतिक आचरण से इस युवती की स्वतंत्रता और खुलापन किसी तरह बाधित हो. इसीलिए वह कहता है :
हाँ, तुम मुझसे बोलो, जैसे मेरे दरवाजे की शर्माती चूलें
सवाल करती हैं बार-बार... मेरे दिल के
अनगिनती कमरों से.
हाँ, तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मछलियाँ लहरों से करती हैं
...जिनमें वह फँसने नहीं आतीं,
जैसे हवाएँ मेरे सीने से करती हैं
जिसको वह गहराई तक दबा नहीं पातीं,
तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मैं तुमसे करता हूँ.
एक आईने का बिम्ब
, जिसमें देखने वाले की छवि के अतिरिक्त अपना कुछ नहीं होता, कवि को अपनी मनस्थिति
के लिए एक सार्थक बिम्ब लगता है :
आईनो, रोशनाई में घुल जाओ और आसमान में
मुझे लिखो और मुझे पढ़ो.
आईनो, मुसकराओ और मुझे मार डालो.
आईनो, मैं तुम्हारी जिंदगी हूँ.
अपने साधारणत्व,
अनाकर्षत्व और किसी मधुर स्वर से भीतर तक प्रभावित होने के बिम्ब एक बार फिर कवि
के मन में उभरते हैं :
आसमान में गंगा की रेत आईने की तरह हिल रही है.
मैं उसी में कीचड़ की तरह सो रहा हूँ
और चमक रहा हूँ कहीं...
न जाने कहाँ.
मेरी बाँसुरी है एक नाव की पतवार -
जिसके स्वर गीले हो गये हैं,
छप्-छप्-छप् मेरा हृदय कर रहा है...
छप् छप् छप्प
इस कविता के ‘रक़ीब’ के वर्णन के ब्यौरे को भी आसानी से समझा जा सकता है. यह स्पष्ट है कि कविता की निम्नलिखित पंक्तियों में जहां प्रेमिका के लिए ‘उसकी’ विशेषण का प्रयोग हुआ है वहीं इस रक़ीब के लिए ‘तुम्हारे’ का प्रयोग किया गया है :
और तब मैंने देखा कि मैं सिर्फ एक साँस हूँ जो उसकी
बूँदों में बस गयी है.
जो तुम्हारे सीनों में फाँस की तरह खाब में
अटकती होगी, बुरी तरह खटकती होगी.
इस
रक़ीब के लिए पर्सोना से अधिक महत्वपूर्ण किसी ऐसे प्रमाण को ढूंढ लेना है जिससे वह
पर्सोना और इस ‘प्रेमिका’ के बीच किसी नाजायज संबंध का होना साबित कर सके :
जब
तुम मुझे मिले, एक खुला
फटा हुआ लिफाफा
तुम्हारे हाथ आया.
बहुत उसे उलटा-पलटा - उसमें कुछ न था -
तुमने उसे फेंक दिया : तभी जाकर मैं नीचे
पड़ा हुआ तुम्हें 'मैं' लगा. तुम उसे
उठाने के लिए झुके भी, पर फिर कुछ सोचकर
मुझे वहीं छोड़ दिया. मैं तुमसे
यों ही मिल लिया था.
तुम्हारे हाथ आया.
बहुत उसे उलटा-पलटा - उसमें कुछ न था -
तुमने उसे फेंक दिया : तभी जाकर मैं नीचे
पड़ा हुआ तुम्हें 'मैं' लगा. तुम उसे
उठाने के लिए झुके भी, पर फिर कुछ सोचकर
मुझे वहीं छोड़ दिया. मैं तुमसे
यों ही मिल लिया था.
फिर
यह रक़ीब इधर-उधर की बातें करने लगता है. वह शिकायत करता है कि पर्सोना तो उसे याद
ही नहीं करता. और फिर अपनी ऊपरी और अनात्मीयतापूर्ण बातें करते हुए वह उसका सारा
दिन खराब कर देता है. उसकी कविता सुन कर वह जो दाद देता है उसमें भी कोई व्यंग
छिपा हुआ है. जाते जाते वह पूछता है कि वे अब कब मिलेंगे.‘ अगले जनम में’ और ‘शाम
के पानी में डूबते पहाड़’ के बिम्बों को इस तरह ज़्यादा आसानी से समझा जा सकता है.
उस प्रकार का रूमानी प्रेम जो महज दैहिक नहीं होता पहले भारतीय समाज के लिए अधिक सुपरिचित था. उसका मूल सामान्यत: उन सामाजिक वर्जनाओं में निहित था जो पहले हमारे यहां आम थीं. ये वर्जनाएं जिनके मूल में सामाजिक-आर्थिक असमानता, कठोर पारिवारिक नैतिकता और पारलौकिकता का भाव रहता था किसी सुंदर और आकर्षक प्रेमिका को किसी अप्राप्य वस्तु में बदल देती थी. एक सौन्दर्योपासक कवि तब इस सुंदर प्रेमिका को किसी उपास्य देवी के रूप में ही देखता था . वह उसे एक हाड़-मांस से बनी इंसान न लग कर कोई अलौकिक प्राणी लगती थी जिसमें किसी प्रकार की त्रुटि या अपूर्णता उसे बर्दाश्त से बाहर लगती थी. इस कविता की निम्नलिखित पंक्तियां वस्तुत: इसी विचार की रोशनी में पढ़ी जानी चाहिए :
आह, तुम्हारे दाँतों से जो दूब के तिनके की नोक
उस पिकनिक में चिपकी रह गयी थी,
आज तक मेरी नींद में गड़ती है.
इस कविता का पर्सोना जो किसी पिकनिक में कभी इस प्रेमिका के साथ गया होगा शायद उसे यह कहने का कोई अवसर नहीं ढूंढ पाया कि उसके दांतों से चिपकी तिनके की नोक उसकी दंत-पंक्ति की सुन्दरता को कम कर रही है और उसे तुरंत हटा दिया जाना चाहिए. उस दिन अपनी प्रेमिका को उस असुन्दरता और अपूर्णता में ही जाने देने की कसक इस सौन्दर्योपासक प्रेमी को सोते हुए आज भी एक पश्चाताप से भर देती है.
कविता के अंतिम
पदों में से कुछ रक़ीब/ रक़ीबों को संबोधित लगते हैं और कुछ प्रेमिका को जो शायद उस
पर ईर्ष्या का आक्षेप लगाती है क्योंकि वह उसके प्रेम की गुणवत्ता की कल्पना ठीक
से कर पाने में असमर्थ है.
वह दरअसल एक बदलते हुए समय की, एक संक्रमण-काल की बोल्ड और भौतिकतावादी प्रतिनिधि है. पर पर्सोना के लिए वह जो है वह पर्सोना को अमरत्व देने के लिए काफ़ी है :
वह दरअसल एक बदलते हुए समय की, एक संक्रमण-काल की बोल्ड और भौतिकतावादी प्रतिनिधि है. पर पर्सोना के लिए वह जो है वह पर्सोना को अमरत्व देने के लिए काफ़ी है :
अगर मुझे किसी से ईर्ष्या होती तो मैं
दूसरा जन्म बार-बार हर घंटे लेता जाता
पर मैं तो जैसे इसी शरीर से अमर हूँ -
तुम्हारी बरकत !
कविता का अंतिम पद (जो संभवत: प्रेमिका को ही संबोधित है) उस उदासी-रंगीनी-तृप्ति-अतृप्ति-प्राप्ति-अप्राप्ति के मिले–जुले भाव की समृद्धि को पुन: रेखांकित कर देता है जो इस कविता को एक उत्कृष्ट और विशिष्ट प्रेम-कविता बनाता है :
बहुत-से तीर बहुत-सी नावें, बहुत-से पर इधर
उड़ते हुए आये, घूमते हुए गुजर
गये
मुझको लिये, सबके सब. तुमने
समझा
कि उनमें तुम थे. नहीं, नहीं, नहीं.
उसमें कोई न था. सिर्फ बीती हुई
अनहोनी और होनी की उदास
रंगीनियाँ थीं. फकत.
इस कविता में
शमशेर जी द्वारा प्रयुक्त दो बिम्ब मुझे अत्यंत प्रभावशाली लगे. एक तो दरवाज़े की
शर्माती चूलों के अनगिनती कमरों से बार-बार सवाल करने का बिम्ब और दूसरा पीठ के
नीचे दबे बालों के पीठ को समय के बारीक तारों की तरह खुरचने का बिम्ब.
हाँ, तुम मुझसे बोलो, जैसे मेरे दरवाजे की शर्माती चूलें
सवाल
करती हैं बार-बार... मेरे दिल के
अनगिनती
कमरों से.
मगर
उसके बाल मेरी पीठ के नीचे दबे हुए हैं
और
मेरी पीठ को समय के बारीक तारों की तरह
खुरच
रहे हैं
प्रेम में पड़े
लोगों की सबसे बड़ी ख़्वाहिश अंतरंग बातचीत करने और अपने सवालों द्वारा एक-दूजे के निजत्व में भागीदारी करने की रहती है चाहे उन सवालों का मतलब कुछ न हो. अपनी
चूलों पर टिके हुए पुराने दरवाज़े जब घूमते
हैं तब जो आवाज़ होती है वह ऐसी लगती है जैसे वे कमरों से बात कर रहे हों. कवि का
एक परोक्ष आशय यह बताना भी हो सकता है कि
इस संवाद के दौरान दरवाज़े अपनी
धुरी पर टिके रहते हैं. वे अपनी मर्यादा नहीं तोड़ते. वे अपनी चूलों से छिटक कर
कमरों के पास नहीं पहुंच जाते.
दूसरे बिम्ब के संबंध में यह कहा जा सकता है कि इस तरह के बिम्बों का सृजन
करते समय शमशेर जी की कल्पना की आवाजाही आश्चर्यजनक रूप से निरंतर मूर्त और अमूर्त के बीच होती रहती है. प्रेमी
की पीठ पर प्रेमिका की ज़ुल्फ के बालों का स्पर्श बराबर अपना स्थान और दबाव बदल रहा
है. इस अनुभूति के लिए बालों की तुलना ‘समय
के बारीक तारों’ से करना अपने आप में एक अत्यंत मौलिक और सृजनात्मक काव्य-अभिव्यक्ति लगती है !
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सदाशिव श्रोत्रिय
5/126 गो वि हा बो कोलोनी,
सेक्टर 14,उदयपुर -313001, राजस्थान.
मोबाइल -8290479063
टूटी हुई बिखरी हुई आकर्षित करती है। इसके कई कारण हैं। हर एक के अपने कारण हैं। कविता तो कविता होती है। इसे चाहे गुपचुप बातचीत समझो या सनसनी। श्रोत्रीय जी ने गुपचुप बातचीत की तरह कविता को देखा। यह देखना भी कई तरह का होता है। उर्दू कविता की परंपरा का तो शमशेरजी पर ख़ासा प्रभाव रहा है। इस कविता पर भी है। आपने सही कहा है श्रोत्रीय जी। एक लंबे समय बाद मुझे भी फिर से देखने की इच्छा हो रही है।
जवाब देंहटाएंआप जैसे विद्वान इस कविता को निश्चय ही अधिक बोधगम्य बना सकते हैं |
हटाएंसुंदर मीमांसा । टूटी हुई बिखरी हुई पर जितने भी पाठ हैं अपूर्ण हैं । हर नया भाष्य शमशेर की इस वासनामय प्रेम कविता की विलक्षणता की और इशारा करता है । जितनी टूटी हुई बिखरी हुई थी वह शमशेर ने ठहरा दी थी यह कविता एक अभंग है । इसे अब भग्न नहीं किया जा सकता । इस कविता के कितने स्तर आयाम अर्थ हो सकते हैं यह इन व्याख्याओं में दर्ज हो रहा है । टूटी हुई बिखरी हुई एक मुकम्मिल पेंटिंग है । एक चित्रकार की कविता । मुक्तिबोध शमशेर को एक पदच्युत चित्रकार कहते थे । यह सिलसिला जारी रहे । सदशिवजी को और समालोचन का आभार ।
जवाब देंहटाएंकविता का अप्रतिम पाठ एवं विश्लेषण।हिंदी के "गिशस" में शमशेर की कविता भाव एवं शिल्प की दृष्टि से अतुल्य है।
जवाब देंहटाएं"गिशस" मेरे लिए नया शब्द है और अर्थ की मांग करता है |
हटाएंइस सार्थक समीक्षा के लिए सदाशिव जी को धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंकविता की अंतर्वस्तु में पैंठते हुए सदाशिव जी ने जिस आत्मीय सहानुभूति से इस कविता का विश्लेषण किया है वह दाद का हक़दार है।जो लोग अपनी कुंठाओं को कविताओं में घुसेड़ कर अर्थ का अनर्थ करने के अभ्यासी हैं-वे अक्सर चूकते हैं।
जवाब देंहटाएंसदाशिव जी कविता के गंभीर पाठक और उससे भी ज़्यादा गंभीर भाष्यकार हैं। एकदम नए कोण से देखा है उन्होंने शमशेरजी की इस कविता को। उर्दू-फ़ारसी के वृहत संसार में सतत आवा-जाही ने कविता की एक-एक पंक्ति के अर्थ-रहस्य खोले हैं। पर उसके लिए इस आलेख के पाठक को भी काफ़ी मशक्कत करनी पड़ी है।
जवाब देंहटाएंआपको पढ़ के अच्छा लगा।जो बातें समझ से परे थी वो अधिक बोधगम्य हुईं।
जवाब देंहटाएंशमशेर के भवन में जाने से डर लगता है , क्योंकि उनके द्वारा बनाए गए भवन के भीतर काफ़ी हलचलें हैं । उन दरवाजों को खोलने से भी डर लगता है जो उन्होंने स्वयं निर्मित किया है लेकिन फिर भी हम उन दरवाजों को खोलने का प्रयास करते हैं । यह लेख एक तरह से उन दरवाजों को खोलने के लिए लिखा गया है । काफी विचारोत्तेजक और सारगर्भित लेख है।
जवाब देंहटाएंशमशेर बहादुर सिंह कृत रचित " टूटी हुई बिखरी हुई "कविता पर यह लेख एक तरह से अंधेरे में एक दीये का प्रकाशमान होने जैसा है ।
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