जननायक कृष्ण
वीरेन्द्र सारंग
राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.
१-बी नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज
नई दिल्ली - ११०००२
संस्करण : २०१९
मूल्य : २९९ (पेपरबैक)
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वीरेन्द्र
सारंग का यह नया उपन्यास इस मायने में महत्त्वपूर्ण है कि यह महाभारत काल और कृष्ण
से जुड़े मिथकों को एक नई दृष्टि से देखता है. इसका असली सार कृष्ण के उस जननायक
रूप का है जिसे बाकायदा राजनीति के तहत नन्द और वासुदेव समर्थकों ने उनके बचपन से
ही मिथकीय रूप दिया ताकि कंस के खिलाफ जनता को एकजुट किया जा सके.
कंस असुर है जो
देवताओं और आर्यों के चंगुल में फँसकर क्रूर और तानाशाह हो गया है. उग्रसेन
नाकाबिल और कमजोर राजा हैं जिन्हें हटाकर कंस राजा बनता है ताकि अपनी अनार्य
संस्कृति की रक्षा की जा सके, जो मूलत: गोपालक और कृषक जाति है. देवता आर्य
संस्कृति को बढ़ावा देना चाहते हैं जो मूलत: उपभोग की संस्कृति है.
इस उपन्यास की
खासियत यह है कि मिथकों में जिनको राक्षसों का रूप दिया जाता है, लेखक ने बहुत यथार्थवादी दृष्टि से
उनका मानवीकरण कर दिया है, उनके सुख-दु:ख का भी.
उपन्यास का
सबसे दिलचस्प हिस्सा कृष्ण के बुढ़ापे का है जब सब कुछ उनके हाथ से निकल जाता है.द्वारका में
अराजकता फैल चुकी है और कृष्ण बहुत अकेले पड़ गए हैं.वे अपनी झोली
लेकर द्वारका छोड़ देते हैं. उनकी मृत्यु का प्रसंग और भी दारुण है. क्या हर
क्रान्ति का यही हश्र होता है? शायद यह सत्ता का चरित्र है जो किसी
को भी निरंकुश बना देती है. जिस शान्ति के लिए कृष्ण द्वारका आए, वह अराजक हो गई. उनकी अपनी ही
सन्तानें उनके खिलाफ़.
कुल मिलाकर यह
उपन्यास कृष्ण-कथा का नया और दिलचस्प भाष्य प्रस्तुत करता है जो बेहद पठनीय है.
(फ्लैप से)
(फ्लैप से)
धरती युवाओं की है
वीरेन्द्र सारंग
सूर्य आग उगलता है जेठ में. कहीं भी चैन नहीं. शीतल छाँव हो, कूप का जल हो अभी का निकाला हुआ, माटी की दीवार वाला घर हो और हो कोई सुन्दरी बतकही के लिए, तो अनुभूति नहीं होती गर्मी की. फिर भी चढ़ते सूर्य की आँच भला किसे नहीं लगती. इसी गर्मी में वृंदावन अपने छूटे हुए कार्यों में व्यस्त है. गोपालों का एक ही कार्य- गौएँ चराना. नंद बाबा शिक्षा दे रहे हैं. समय-समय पर गर्ग भी आते हैं और अपना अचार्यत्व दिखा-बता कर गोपालों को शिक्षित करते हैं. कृष्ण और बलराम तीव्र बुद्धि के हैं लेकिन कृष्ण सबसे आगे--आधा ही कहना पड़ता है, और वे पूरा समझ जाते हैं. केलिनंद मल्ल, झल्ल, की शिक्षा दे रहें हैं. प्रतिदिन कबड्डी होती है, लपक डंडा और कन्दुक खेल खेलते गोपालों की दुपहरिया कब हो जाती है, पता नहीं.
लेकिन गर्मी है तो देवों के सिरपर. स्वेद की
बूँदें माथे पर स्थाई जगह बना ली हों जैसे. एक के बाद एक असुर वीरों की हत्या,
वह भी साधारण बालकों द्वारा! यह बात स्वीकार नहीं. यह सच भला देवों
को कैसे पचता कि किसी का भय समाप्त हो.
‘गोप भयमुक्त हो रहे हैं, किसी दिन सिर चढ़ आयेंगे हमारे भी’ यह बात देवों को गर्मी दे रही है जेठ में. नारद की बात सच नहीं लग रही है कि, ‘गोप और वृष्णि सब देव प्रभाव में हैं. सब के सब आर्य बन रहे हैं.’
‘गोप भयमुक्त हो रहे हैं, किसी दिन सिर चढ़ आयेंगे हमारे भी’ यह बात देवों को गर्मी दे रही है जेठ में. नारद की बात सच नहीं लग रही है कि, ‘गोप और वृष्णि सब देव प्रभाव में हैं. सब के सब आर्य बन रहे हैं.’
‘फिर यह कैसे हो गया कि कृष्ण अभी किशोर ही हैं, उसे अगुआ घोषित कर दिया गया. क्या देव समाप्त हो गये हैं. यहाँ गोपों को किसी आर्यश्रेष्ठ या देव को नेता बनाना चाहिए था, जो विज्ञ हो, जिसे संस्कृति की समझ हो. हर नीति जानता हो. पता नहीं क्या है कृष्ण में! लेकिन नारद ने ही कृष्ण को प्रचारित किया है. कई देवगण मिलकर वेदव्यास की स्वीकृति से उसे अलौकिक शक्ति वाला व्यक्ति घोषित किया है. अपने पैर में टाँगी मारी गई है तो क्या करें.’
देव बतियाते रहते और क्रोध करते.
‘ये क्या हो रहा है नारद!’ देव-प्रमुख ने आश्चर्य से पूछा.
‘आप चिन्ता न करें देव! नारद बोले.
‘आप कैसी बात करते हैं. चिन्ता न करूँ! अरे उस बालक को सब शक्तिशाली मान
रहे हैं! कथाएँ गढ़ी जा रही हैं. पूतना, बक और अघ मारे जा
चुके हैं. इतने बलशाली असुर! और उनकी हत्या बालक कृष्ण के द्वारा!’ देव-प्रमुख के नयन फैल गये.
‘यह तो मेरी चाल है श्रेष्ठ.’ नारद विश्वास दिला रहे हैं-
‘वृष्णि और गोप मेरे हो चुके हैं. कृष्ण को शक्तिशाली घोषित कर असुर ही लड़ रहे हैं. हम सब बचे हैं. किसी आर्य को खरोंच तक नहीं आयी. गोप और वृष्णि गर्व से चूर-चूर हैं, उनका भी विनाश होगा यदि वे हमारी संस्कृति नहीं अपनाते. कंस की मृत्यु तय है. बस कुछ वर्ष का समय और दें श्रेष्ठ! कृष्ण ही मारेंगे कंस को. अपने ही कुलश्रेष्ठ की हत्या. अपना ही विनाश!’
‘आप सत्य कह रहे हैं, लेकिन समय बदल गया है. इस
परिवर्तन शील समय में हम सभी पुराने विचार में जी रहे हैं. मेरा यानि ब्रह्मा का,
विष्णु और अन्य कई श्रेष्ठ देवों का अस्तित्व तो समाप्त ही है. कोई
पूछने वाला नहीं है.’
‘सब पूछेंगे, मानेंगे. जब तक यह पृथ्वी रहेगी तब तक
हम रहेंगे, हमारी विधि रहेगी. लेकिन श्रेष्ठ! अब देवता कोई
नहीं रहेगा, सभी आर्य रहेंगे. कृष्ण को सभी स्वीकारेंगे और
हमसब बिना कुछ कार्य किये यशस्वी और समृद्धिशाली बने रहेंगे. हमारे रहने का ठाट
होगा, जियेंगे हम उच्च श्रेणी में. मैंने सोच लिया है और उसे
प्रचारित भी कर दिया हूँ कि अब देवपुरुष ब्रह्मपुरुष कहाएगा. इस प्रकार ब्रह्म नाम
रहेगा, आप रहेंगे. आपका अस्तित्व किसी न किसी रूप में लोगों
को भय में रखेगा. अच्छा हो या बुरा सब आपकी इच्छा से होगा. और यही शक्ति हम कृष्ण
को देना चाहते हैं- मूर्ख बनाने वाली शक्ति. भला किसी का
बुरा या अच्छा किसी की शब्द-इच्छा पर है! लेकिन अब शब्द-इच्छा प्रभावी होगी,
विश्वास से लोग स्वीकार करेंगे ब्रह्म-इच्छा. ब्रह्मपुरुष प्रतीक
होंगे आपके. उन्हें कोई अप्रसन्न नहीं करेगा, शाप का भय बना
रहेगा. हाँ, शाप! एक ऐसा शब्द जो भय में रखेगा प्रजा को.
किसी ब्रह्मपुरुष ने शाप दे दिया तो उसका समर्थन समस्त देव करेंगे.’
नारद ने लम्बी साँस ली.
देव प्रमुख मुसकराये. कुछ भी हो नारद
श्रेष्ठ में कोई कमी नहीं है. यही कारण है कि नारद को कभी हानि नहीं हुई. कुछ देर
नारद के विषय में सोचते रहे देव प्रमुख फिर बोले-‘नारद जी! मुझे कृष्ण से मिलवाओ.
और जो देव मथुरा में कार्यरत हैं- अक्षतानंद, रणेन्द्र,
तरुणदेव. उन्हें भी बुलवाओ, घृत पीकर मोटे हो
रहे हैं. कृष्ण-जन्म के बाद क्या हमारी कोई योजना नहीं है!’
‘कृष्ण आयेंगे लेकिन वे अपने गोपों के साथ, गोपाल
मित्रों के साथ. और प्रभु, योजनाएँ तो बहुत हैं, बस आप आँख बंद कर देखते रहिए.’
‘आँख बन्द कर कैसे कोई देखेगा नारद श्रेष्ठ!’ देव प्रमुख हँसे.
और दस दिन के बाद.
गर्मी तो है लेकिन उमस भरी. हवा तो है लेकिन
पुरवाई और वह भी बन्द जैसी. देव तो है लेकिन चिन्ता से युक्त. गोप आ गये हैं कृष्ण
के साथ-उत्साह से भरे हुए. असुर श्रमजीवी तो हैं लेकिन आर्यों की चाल समझने में
असमर्थ, एक प्राकृतिक जीवन जीते हुए.
कृष्ण के साथ नंद,
केलिनंद, बलराम, माघी,
नौमी, उद्धव, जंगली,
जिवधन गोप आये हैं. और जब
बलराम हैं तो श्रीदामा, रुद्रसेन, पेंघा,
मधु, सुमंगल, उत्तम,
भद्र कब मानने वाले हैं. देव प्रमुख के आदेशानुसार सभी को उचित
स्थान पर ठहराया गया. नंद बाबा आश्वस्त हो उसी दिन लौट गये.
वृंदावन से उमस यहाँ कम है. सामने पर्वत
शृंखला, बहती हुई नदी. वृक्षों की
पंक्तियाँ, समतल भूमि. कुछ पालतू पशु कुछ जंगली हिरण,
खरहे, कुत्ते, शृगाल,
लोमड़ी. पक्षियों का कलरव, बहती धारा का कलकल,
सरसर झुरुकती हवा, कभी कभी भागते-दौड़ते बादल
देख कर मन प्रसन्न हो उठता. कृष्ण सोचते कि यहीं गोपों का निवास होता तो क्या सुख
है! बलराम के मन में आता कि यहाँ की भूमि भी अपने अधिकार में करना आवश्यक है, और आसान
भी.
दोपहर भाग रही है लेकिन अभी साँझ होने में देर है. वट और पीपल की छाँव का सुख लेते गोप कल की बतकही की कल्पना में वाद-विवाद का आनंद ले रहे हैं.
‘कल कोई देवता आयेगा. अपनी बात मनवाने.’
‘हम मानेंगे तब न!’
‘हम यहाँ खा-पीकर चलते बनेंगे. एव-देव को कपार पर नहीं चढ़ायेंगे.’
‘कहीं वे अपनी गाय न चराने को कह दें.’
‘कह कर तो देखे. सब गौएँ हाँक कर वृंदावन ले जायेंगे.’
‘और यह नौमी गोबर न पाथने लगे.’
नौमी लट्ठ लेकर खड़े हो गया-‘घुसेड़ दूँगा यह
पाँच हाथ का लग्घा. हँसी का खेल नहीं है नौमी से चाकरी कराना.’
‘बात करो लेकिन उत्तेजित मत होओ! अपनी उर्जा बचाकर रखो. पता नहीं कब काम पड़
जाय.’ केलिनंद गम्भीर होकर बोले.
‘आप सभी चिन्ता छोड़ें संवाद तो मुझसे होगा. देवों की चिन्ता तो कृष्ण ही है.
हो सकता है मेरी वंशी के विषय में पूछ दें देव प्रमुख!’
यह सभी जानते हैं कि कृष्ण तर्क करने में
सबसे आगे हैं. कोई बतियाकर उनसे पार नहीं पा सकता. और इस समय तो उन्हें देखकर लगता
है कि वे पूरी तैयारी के साथ आये हैं.
कृष्ण शून्य बहुत सोचते. आकाश निहारा करते.
घड़ी भर गाय को सहलाते रहते. नदी के किनारे बहते जल से बतियाते तो लहलहाती खेती देख
कर गदराये अन्न से संवाद करते रहते. यह कोई विक्षिप्तता अवस्था नहीं है,
यह चिन्तन की प्रक्रिया है, जहाँ से मार्ग
निकलते हैं. और मिलती है विमर्श की उर्जा.
गोप देर रात तक बतियाते रहे. कोई अपनी
स्त्री से झगड़ा करने की बात करता, कोई अपने
बूढ़े पिता से दुखित होने की. गोपाल अपने खेल और जो हुई है घटनाएँ उसे याद कर रंजन
करते. अब रात जायेगी. भोर होगा, निवृत्त होने के बाद जलपान
होगा और छिड़ जायेगा वाक्-युद्ध. और बस कृष्ण होंगे आगे, सबकी
दृष्टि उन्हीं पर. देव प्रमुख को कष्ट है तो कृष्ण से. और यह भी सब जानते हैं कि
वे दुम दबाकर भागते दिखेंगे- नतमस्तक.
और प्रातःकाल!
और फिर स्वादिष्ट जलपान,
जो वृंदावन में मिलना सम्भव न हो. विभिन्न प्रकार के फल, दूध को औटा कर बहुत गाढ़ा किया हुआ जिसे बसौंधी कहा जाता, यह व्यंजन विशेष है गोपों के लिए. मीठे आम के कई प्रकार और आम्र-रस भी,
और खट्टा-मीठा पेय भी....
देव-प्रमुख ने आसन ग्रहण कर लिया है. उनके
साथ पाँच देव और बैठे हैं. व्यर्थ के हैं, चाटुकार
लगते हैं. मथुरा से आये देव एक ओर बैठे हैं- देव प्रमुख के दाहिने. वृंदावन के गोप
बाएँ. वाम दिशा चुनौतीपूर्ण होती है. लेकिन यही प्रतिकूलता हमें मार्ग दिखाती है.
आलोचना होनी चाहिए. वाम शिव को कहते हैं. शिव ने आलोचना की, सत्य
कहा और स्वीकार किया. कृष्ण बाएँ बैठते ही सोचने लगे, और यही
गुण उन्हें विशेष बनाता है कि वे क्षणभर वहाँ सोच लेते हैं जहाँ देर से भी कोई
नहीं पहुँच पाता. भूत को वर्तमान में और वर्तमान को भविष्य में कैसे देखें,
इस किशोर कृष्ण की विलक्षणता है.
‘आप सभी का स्वागत है इस देव-स्थान पर.’ देव प्रमुख ने हाथ उठाकर हथेली
दिखायी.
सभी एकटक देखते रहे देव-प्रमुख को.
‘ये हाथ क्यों दिखा रहे हैं.’ जिवधन ने पूछा.
‘दो-दो हाथ करना है, वे कह रहे हैं मैं तैयार हूँ.’
माघी ने उत्तर दिया.
‘आप सभी मुझसे बात कर सकते हैं. प्रश्न पूछ सकते हैं. आप जब तक चाहें यहाँ
रह सकते हैं.’
देव प्रमुख ने विश्वास दिलाया--‘आप हमारे संरक्षण में हैं, सुरक्षित! हाँ, आप में से कृष्ण महाशय कौन हैं?’
देव प्रमुख ने विश्वास दिलाया--‘आप हमारे संरक्षण में हैं, सुरक्षित! हाँ, आप में से कृष्ण महाशय कौन हैं?’
‘मैं कृष्ण हूँ.’ कृष्ण खड़े हो गये- ‘मेरा अभिवादन स्वीकारें.’
‘इतना छोटा उत्तर!’ देव प्रमुख पहले ही वाक्य में चित्त हो रहे
हैं--‘आशीष!’ देव प्रमुख भी एक शब्द के बाद चुप हो गये.
‘आपने हमें बुलाया है, कारण? और
आप प्रमुख हैं तो मुझ गोपों की आवश्यकता क्यों कर हुई. कारण उचित न हुआ तो हमारा
समय व्यर्थ ही गया न!’
देव प्रमुख का मुँह खुला रह गया. यह किशोर कृष्ण है! या कोई अन्य परिपक्व अनुभवी! या कोई नाटकीय जीव! या रटकर आया है कि मुझे यही बोलना है-
‘हमें सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि ब्रज में देव विरोधी गतिविधियाँ हो रही हैं. बिना हमारी आज्ञा के किसी असुर को मुक्त किया जा रहा तो किसी की हत्या. ऐसा क्यों?’
‘हमारी संस्कृति कृषक-संस्कृति है. हम खेती करते हैं, गाय पालते हैं. हमें जो बाधा देगा, हम उसका विरोध करेंगे, चाहे आप ही स्वयं क्यों न हों. दूसरी बात- हम आपका आदेश क्यों मानें. आप हैं कौन हमें आदेश देने वाले. आप प्रकृति हैं या मेरे माता-पिता, या आप मेरे गुरु हैं? आप देव-प्रमुख हैं, बने रहिए और अपने आलसी देवताओं को खरी-खोटी सुनाते रहिए.’
कृष्ण की स्पष्टता से सभी आश्चर्य में हैं.
‘यह भी सुना गया कि देवों को बंदी बनाने की धमकी दी जाती है. बात-बात पर क्षमा के लिए कहा जाता है.’
‘श्रेष्ठ! आप आदरणीय हैं, इसका अर्थ यह नहीं कि हम आपका हस्तक्षेप स्वीकार करते रहें. देव टाँग अड़ाते हैं. मैं किशोर भले हूँ, लेकिन सब समझता-जानता हूँ. देव पुरुष घूम रहे हैं गाँव-गाँव. माँग रहे हैं बिना किसी कर्म के. हम खेती करें, गाय पालें और वे बिना कुछ किये अन्न माँगें तो दे दें! दुधारू गाय उनके खूँटे में बाँध आयें! कोई तो देव समाज का सहायक होता. बाबा ने सरोवर खुदवाया, देव पहुँच आये कि एक मनही जौ, एक गाय और एक मनही तिल दो, तब पहली माटी निकालो सरोवर से. एक काम नहीं और जौ की माँग! क्या करते हैं देव? वृंदावन में पानी पीने के लिए बाबा ने कूप खुदवाया. गायों को चरने के लिए खेत छोड़ा गया. हमारे काका, भइया या कोई भी गोप दिनभर श्रम करते हैं. कोई पगहा बनाता है, कोई मटका गढ़ता है, कोई हल तो कोई कुदाल. गिरही बनाना भी हमें ही आता है. आप एक गाय तक दुह नहीं सकते. एक खर-पात हटा नहीं सकते. हम गाय चराते हैं, पशु-पक्षी प्रेम हमारा सब जानते है. पंखा, बरहा, ढेकुली, दौरी, नाव, द्रोण, कुण्ड, गोबरहिया, टोकरी, कठौता, पथरी, ढपनी, सूप क्या नहीं बनाते हम! और आप बैठे-बैठे भकोस रहे हैं, मोटे हो रहे हैं, उदर बढ़ाकर बेडौल हुए जा रहे हैं. हमारे गाँव में झुनुकिया काकी ताड़ के पत्ते से झुनझुना बनाती हैं. आपकी किसी देवी में यह गुण. एक भी कार्य बता दें कि आपकी देवियाँ करती हैं. क्या धान कूट सकती हैं, गोबर पाथ सकती हैं. बकरी तक तो दुहना कठिन होता होगा उनके लिए. देवियों को बस नृत्य आता है. भोजन करना शयन करना ही उनका मुख्य कार्य है. दिन में कईबार केश ठीक करती हैं.’
कृष्ण थोड़ा रुके.
‘आप इतना कुछ कैसे जानते हैं?’ देव-प्रमुख ने आश्चर्य
से पूछा.
‘देखता हूँ, सुनता हूँ, करता
हूँ. बाबा तो प्रतिदिन बातें करते हैं. काका भी छेड़े रहते हैं. मैं अपनी बात निकाल
कर स्मृति में रख लेता हूँ. आचार्य गर्ग सिखाते हैं. केलिनंद काका यहीं बैठे हैं.
वे हमें मल्ल और युद्ध सिखाते हैं. कई अखाड़े चल रहे हैं काका के. जनता लाभ ले रही
है. आपके देव कितने लोगों को देव-विद्या सिखाये हैं?’
‘मैं भी कुछ कहना चाहता हूँ देव श्रेष्ठ!’ माघी कुछ कहना चाहता है-
‘कृष्ण हमारे नेता हैं, यह बार-बार कहने की आवश्यकता नहीं है, वे हैं तो हैं, इसमें दो मत नहीं. हम प्रसन्न हैं, खेलते हैं हमारे गोपाल सुग्गा से मोर से गाय-बछड़ों से. कृष्ण सबके लिए हैं चाहे गोप-गोपाल हों या गोपियाँ. अभी आपने कृष्ण का प्रेम नहीं देखा है. वे खेत-खलिहान से भी प्रेम करते हैं. अघ और बक के मरने का हमें दुख है, वे अपने ही थे. हम प्रयास करेंगे कि असुर एक हो लेकिन गोप की तरह किसान बनकर. आप विश्वास कीजिए कृष्ण का सम्मान बच्चे, बूढ़े, युवा सभी कर रहे हैं. आप इसे सह नहीं सकते, हमें पता है. आपकी सत्ता जा रही है. अब आप नतमस्तक हो जाइए!’
‘गाय हमारी प्रगति का सूचक है.’ बलराम यहाँ पहली बार अपनी बात रख रहे हैं.
सबकी आँख उनकी ओर है--‘स्त्री हमारे लिए सब कुछ है. आप सम्भवतः अनभिज्ञ है कि
गोपियों ने एक संस्था बना ली है. कोई बलात्कार नहीं कर सकता. हमारी गोपियाँ पानी
ही नहीं भरतीं वे लोकगीत भी गाती हैं, लट्ठ भी चलाती हैं.
आपके यहाँ की कोई देवी लोकगीत गा तो दे! कटि पर गागर रखकर कटि मटका तो दें! हमें
भी पता है इन्द्र का छापामार युद्ध. अब नाग हमारे मित्र हैं. देवपुरुष कहते हैं कि,
‘धन नश्वर है तो फिर माँगते क्यों हैं गाय? हमारी
काकी गाँव की साग-भाजी बेचती है, फल पहुँचाती है घर-घर. आपके
यहाँ की कोई स्त्री यह कार्य कर सकती है.’
‘यहाँ जो बैठे हैं तीन-चार देव आपके दाहिने, आते हैं
वृंदावन में, कहते हैं कुछ बड़बड़ाते हुए कि मंत्र फूंक दिया
हूँ सब कार्य सफल हो जायेगा. हम हल जोते और तुम बस बड़बडा दो. तुम्हारे कहने से हल
चलेगा. कार्य करने से होता है, कहने से नहीं. शब्द से शक्ति
नहीं आयेगी बैल में. उसे हरा चारा, पानी, भूसा चाहिए. किसान श्रम के बल से जीवन जीता है, शब्द
से नहीं.’
‘और इनकी तो भाषा-बोली भी समझ में नहीं आती.’ माघी बोला--‘और हम बंधुआ
श्रमिक नहीं हैं आपके. वे सभी वस्तुएँ जानेंगे-समझेंगे जो हमें चाहिए. आप कौन होते
हैं रोकने वाले कि यह देवों की वस्तु है, यह असुरों की.’
‘श्रेष्ठ! मिट्टी विश्व का रूप है, यह मिट्टी ही जीवन
है हमारा. हम भूमि पर निवास करते हैं. हम भूमि वाले हैं. हमारा जीवन गोबर-माटी,
दूध-अन में बीतता है.’ कृष्ण की बात से देव प्रमुख फूले न समाये. भय
और प्रसन्नता के बीच में उन्हें यह नहीं सूझ रहा था कि कहें तो क्या करें तो क्या!
‘अरे ये कृष्ण बड़े नटखट हैं श्रेष्ठ! उसको अभिनय भी आता है.’ बलराम बोले.
‘बातें बताओ कृष्ण! कुछ अभिनय का रूप विधान ही बताओ.’ देव प्रमुख कुछ और सुनना चाहते हैं.
‘यह तो मेरे मन की बात है. मैंने आचार्य से सीखा है लेकिन गोपियों के साथ
रहकर भी जाना है. मुझे अभिनय में आनंद आता है. वास्तव में हम सभी अभिनेता ही हैं,
आप भी मैं भी और गोपाल भी. जैसे--रौद्र रूप में तीखी दृष्टि,
तनी हुई भौहें, नीचे की पलकों में कम्पन,
सिकुड़े ओठ. वीररस- भँवे उठी, वीर मुसकान. भय- सिकुड़ी-फैली
पलके, तीव्र चलती पुतलियाँ. वीभत्स--सिकुड़े नेत्र, फूलते नथुने, मन में घृणा का भाव. अद्भुत--विस्मय
मुख, फैलते नेत्र, खिलती मुसकान,
ऊपर तनी भौंहे. शांत--स्वाभाविक मुख मुद्रा, शांत
का भाव. श्रृंगार- कपोलों में चंचलता, हल्की मुसकान, भौंहें चंचल, कटाक्ष दृष्टि. हास्य- भौंहें और नेत्र
सिकुड़े, उपहास का भाव, हल्की हँसी.
करुण- पलकें गिरी हुई, करुणा का भाव, आँसू
से भरे नेत्र नाक के अग्रभाग पर टिके हुए, ओठ-नाक में कम्पन.
मुझे पता चल गया है श्रेष्ठ! कि मैं वृष्णि हूँ. मेरे जन्म देने वाले माता-पिता देवकी-वसुदेव हैं. हम वृष्णि ऐतिहासिक हैं, पहले से है यहाँ, इस धरती पर. देव बाबा को अच्छे होंगे, यशोदा मैया को भी अच्छे, लेकिन मुझे नहीं. हमारी अपनी सत्ता है- कृषक सत्ता. किसी देव को नहीं देखा कि वह झाँपी लेकर मछली मारे. लेकिन हमारे जंगली भैया मारते हैं मछली. आप हाँ कहिये कि आपका हस्तक्षेप अब नहीं होगा.’
देव प्रमुख अचम्भित, नेत्र फैल गये. वे कैसे कहें कि वे हस्तक्षेप नहीं करेंगे. यही तो उनकी शक्ति है--ब्राह्मण शक्ति. इसी में शब्दों की शक्ति छिपी है--मंत्र शक्ति. जहाँ कुछ लेना-देना नहीं है.
‘आपका मौन आपकी स्वीकृति है श्रेष्ठ!’ उद्धव बोले-
‘हम प्रसन्न हैं कि आपने हमें स्वीकार किया. श्रेष्ठ! परिवर्तन की एक लहर चल रही है. हमारा अनुरोध है कि आप भी अपने देव समाज के साथ हमसे मिल जाइए. थोड़ा श्रम, थोड़ा कार्य, थोड़ा ज्ञान बाँट लीजिए. मैं ज्वार की पत्ती से पिपिहरी बजाकर आपको सुनाऊँगा.’
‘दुखहरन की माँ दूध भरा पात्र लेकर खड़ी रहती है कि पुत्र को पिलाकर दूध उसको मोटा कर दे. और दुखहरना है कि दूध को भैंस के गोबर में डाल देता है. मूर्ख है. तो है कोई देव जो ऐसी मूर्खता कर दे.’
जिवधन ने हँसी बिखेर दी.
‘आप भी चाहे तो आधा पक्ष रहकर यहाँ का सुख भोग सकते हैं. देव प्रमुख ने आसन छोड़ दिया.
अक्षतानंद, रणेन्द्र, तरुण कोई नहीं बोला. चुप. मूर्ख की तरह बैठे रहे. भला वे कहाँ टिक पाते. नारद कईबार उठकर जाने को हुए लेकिन देव-प्रमुख ने उन्हें जाने नहीं दिया. वैसे भी वे देर से आये थे.
आज
देव-प्रमुख पराजित हो गये हैं. और गोप प्रसन्न हैं.
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(जन्म
: 12 जनवरी,
1959, उत्तर प्रदेश के जमानियाँ, गाजीपुर में.)
प्रकाशित
कृतियाँ :
'कोण से कटे हुए’, 'हवाओ! लौट जाओ’, 'अपने पास होना’ (कविता-संग्रह).
'तीसरा बच्चा’, 'हाता रहीम', आर्यगाथा',
'जननायक कृष्ण' (उपन्यास).
सम्मान
:
'महावीर प्रसाद द्विवेदी सम्मान', 'विजयदेव नारायण
साही पुरस्कार', 'भोजपुरी शिरोमणि अलंकरण', 'प्रेमचन्द स्मृति सम्मान' आदि.
लखनऊ
में रहते हैं.
virendrasarang@gmail.com
virendrasarang@gmail.com
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