फराओ और बुद्ध : दीपक जायसवाल




गौतम का जन्म ६२३ ईसा पूर्व, लुम्बिनी में माना जाता है(धर्मानंद कोसम्बी). आज से लगभग २६४३ वर्ष पूर्व. जबकि मिस्र के फराहों का समय ईसा से लगभग तीन हजार साल पुराना है. यानि गौतम के जन्म से भी ढाई हज़ार साल पहले. दोनों शासक वर्ग से थे. फराओं तो राजा की तरह जिए और दफनाये गये. गौतम संत की तरह जिए हालाँकि उनके मत को राजाश्रय मिला और मृत्यु के लिए भी उन्होंने मल्लों जैसे तबके प्रभावशाली राजाओं के संरक्षण में कुशीनगर का चयन किया.

एक ने हिंसा, युद्ध और ऐश्वर्य का त्याग करके संयम, मिताहार और शांति का मार्ग पकड़ा तो दूसरे ने मृत्यु के बाद भी ऐश्वर्य को सुनिश्चित करने के लिए महान पिरामिडो के निर्माण किये. एक जीते जी अमर होना चाहते थे तो एक मरकर आज अमर है.


युवा कवि दीपक जायसवाल की लम्बी कविता ‘फराओ और बुद्ध’ इतिहास के इसी लम्बे कालखंड की यात्रा करती है. इसी शीर्षक से उनका पहला कविता संग्रह भी प्रकाशित हो रहा है. अग्रिम बधाई के साथ यह लम्बी कविता. 


फराओ और बुद्ध                                  
दीपक जायसवाल



मिस्र के फराओ
अपने ऐश्वर्य को बनाए रखने के लिए
मृत्यु के बाद की
दुनिया के लिए भी
सोने चाँदी अपने क़ब्रों में साथ ले गए
दफ़नाए गये हज़ारों-हजार ग़ुलाम
जीते-जी
कि राजा जब अपनी कब्र में हो
कि जब कभी इक रोज़
फिर जी उठे तो
उसके पैर धूल-धूसरित न हों.


ईसा पूर्व में ही
कपिलवस्तु में भी एक राजा का राजपाट था
इक रोज़ अकूत धन राजपाट बीच जवानी में छोड़
वह साधु हो गया
बरसों-बरस भूखा-प्यासा भटकता रहा
इस आस में कि
दुनिया के लिए वह इक रोज़
मुक्ति का रास्ता खोज निकालेगा
कन्दराओं,गुफा-गेहों,नदी-पहाड़ों
जंगल-आश्रम-मठों में धूल फाँकता रहा
हर एक ज्ञान के सोते में
उसने अपने ज्ञान चक्षु डुबोए
कि इक रोज़ दुनिया के अनंत हृदयों के
असीम दुःख-पीड़ाओं को
वह हर लेगा.


उसने वीणा के तारों को कसा
उसके मेरुदण्ड
वीणा के तार हो गए
पीपल के पेड़ के नीचे तप में बैठा सिद्धार्थ
उसकी सोरों के साथ पाताल गया
शाखाओं फुनगियों के साथ आसमान
वह महान देवताओं से पूछना चाहता था
दुनिया आपके रहते इतनी दुःखी
दुःखों से भरी क्यों है?
कि महान पिताओं के हृदय किस मिट्टी के बने हैं?
बरसों-बरस देवताओं ने उसे खाली हाथ लौटाया
अंत में थक-हार
अपनी सोरों-शाखाएँ आसमान-पाताल से समेट
अपने अवचेतन मन में उतरता गया गहरे और गहरे
उसे लगा पाताल की गहराइयों से भी
गहरी जगह उसका मन है
ज्यों-ज्यों गहरे उतरा सेमल का फूल होता गया
बादल होता गया
खुद को खाली करता गया
उसकी चेतना ब्रह्मांड के हर
तारे-ग्रह-उल्कापिंड का गुरुत्व
महसूस कर सकती थी
उसने अपना शरीर उन्हें सौंप दिया
सारा भार तज दिया
उसे लगा कि उसके भीतर
किसी दिये की रोशनी छन रही है
हल्की बारिश हो रही है
छींटे उसके भीतर तक पहुँच रहे हैं
पीपल के पत्तों की ही तरह थोड़ी सी भी
हवा से हिल जाने वाला उसका मन
धीर-गम्भीर-शांत पर्वत हो चला है
वह हाथी-बरगद-चींटी-तेंदुआ-मछली
सबकी चेतना के अविच्छिन्न प्रवाह में उतर सकता है
कि उसकी धमनी-शिराओं में
दुनिया का सारा दुःख-दर्द भरने-उतरने लगा
कराह उठे बुद्ध अनंत हृदयों की पीड़ा से.




मिस्र के फराओ खुफु ने जीते जी
बीस बरस तक
खुद की कब्र बनवाई
गिजा के पिरामिड
चाबुक से
हज़ारों-लाखों ग़ुलामों से
उनके खून से
बीसों लाख ढाई हाथी वज़नी पत्थरों से.
ये महान पिरामिड ऐसी जगह बनाई गयी
कि इन्हें इजराइल के पहाड़ों से
सुदूर चाँद की ज़मीन से भी देखा जा सकता था
पिरामिड के बाहर पाषाण खंडों को
इतनी कुशलता से तराशा और फिट किया गया
कि जोड़ों में एक ब्लेड भी नहीं घुसायी जा सकती.
सदियों तक बनी रही
दुनिया के इन सबसे ऊँची इमारतों से
फराहो खुद को देवता घोषित करते रहे
नील नदी में अपना वीर्य विसर्जित करते रहे

वे इतने शक्तिशाली थे कि
लाखों ग़ुलामों की गर्दन उनके पैरों तले रहती थी
लेकिन दयालु राजा इसे दबाते कम थे
फराओ जब राजपथ पर निकलते
हज़ारों सैनिक साथ चलते
ग़ुलाम घुटनों पर झुक जाते उनकी आँखे और भी
दुनिया के सबसे सुंदर क़ीमती वस्त्रों को
धारण करने वाले फराओ
निर्वस्त्र ग़ुलामों पर शहद का लेप लगवाते
मधुमक्खियाँ जब टूटती उनकी देह पर
मंत्रमुग्ध हो उठते महान फराओ.

जीने की भूख इतनी बढ़ती गयी
प्यास इतनी गहरी होती गयी
कि उनकी असीम तृष्णा ने
मासूम बच्चों तक का खून चखा
उनकी अतड़ियों में दाँत उग आए थे
यदि वे इतना असंयमित भोजन नहीं करते
तो सम्भव था कि वे खुद की बनवायी गयी
सुंदर-सुडौल मूर्तियों की तरह थोड़ा-बहुत दिखते

इसी देह को बचाए रखने के लिए
फराओ ने अपनी पूरी ताक़त झोंक दी
एक ऐसे लेप की खोज में
जो उनकी लाशों को हज़ारों सालों तक
सड़ने से बचा सके
अपने अंगों को उन्होंने
दुनिया के सबसे सुंदर मजबूत जारों में रखवाया
ताकि जब पुनर्जन्म हो वह अपनी देह पा लें
वह अपनी आत्मा की अमरता की कामना में
उसे सूरज की किरणों के साथ
रा और ओसिरिस देवताओं को
सौंप देना चाहते थे
देवता सिर्फ़ उनके थे मंदिर सिर्फ़ उनका था
चेहरे पर नकली दाढ़ी चिपका
वे देवत्व को धारण करते थे

हज़ारों-हज़ार पत्नियों के स्वामी
अपनी वासनाओं से कभी अघाते नहीं थे
तुच्छ मार्सुपियल चूहे महान फराओ से
कम से कम एक गुण में समानता ज़रूर रखते थे
प्रेम में डूबी स्त्रियों को ज़िंदा जलवा देते
व्यभिचार में आकंठ डूबे महान फराओ.



सिद्धार्थ की आँखें डबडबा आई थीं
कषाय धारण करते हुए सिद्धार्थ
कषाय को कस के बांधे जा रहे थे
मन था कि खुला जा रहा था
हृदय था कि भीगा जा रहा था
कषाय खोल दुबारा बांधते सिद्धार्थ
आँखों में बाँध बांधते सिद्धार्थ
आँसू बहा कि संकल्प टूटा
बूढ़े पिता-राजा थे जिनके कंधे थक रहे थे
डूबती हुई रोशनी में अपने पुत्र को देखे जा रहे थे
माँ थी जिनका कलेजा छिला जा रहा था
पत्नी थी जिसका हृदय फटा जा रहा था
जिस जतन से माने सिद्धार्थ
वह जतन करने को तैयार खड़ी थी यशोधरा
इच्छा थी पाँव पकड़ ले रोए-धोए जाने न दे
लेकिन निस्सहाय अपलक खड़ी थी यशोधरा
पुत्र था जो सिद्धार्थ की उँगलियाँ
अब भी थामे हुए था
कपिलवस्तु था जिसके लिए सिद्धार्थ का जाना
बीच समुंदर में नाव से पतवार का
पानी में अचानक गिर जाना था
तूफ़ान में किसी छाँव देने वाले
भारी दरख़्त का गिरना था
जो अब तक धरती को
अपनी सोरों से पकड़े हुए था
सिद्धार्थ थे कि जो उखड़ने के बावजूद भी
अपनी सोरों में मिट्टी थामे हुए जा रहे थे
सबकुछ छोड़े कहाँ जा रहे थे ?
क्यों जा रहे थे सिद्धार्थ?

सिद्धार्थ सन्यासी हो गए
केश काट डाले जो ज्ञान
इस संसार के दुखों को कम नहीं करता
दया और करुणा नहीं भरता
उसको ढोकर आख़िर क्या करते सिद्धार्थ?

धूप-बारीश-ठंड-भूख सहते हुए
दुनिया की सारी पीड़ाओं के उत्तर तलाशते
सिद्धार्थ ने खुद का होना छोड़ दिया
तृष्णाओं को विसर्जित किया
निरंजना नदी में
उस वक्त जलवाष्प संघनित हुए
बादल धरती छूने लगे
कमलदल सीताफल अरबी बालसम
के पत्तों पर ठहरी जल-बूँदे
सूरज की रोशनी में
चाँदी मोती होकर चमक रही थीं
आकाशगंगाओं के असंख्य तारों
का प्रकाश भरने लगा सिद्धार्थ में
सिद्धार्थ हुए तथागत हुए बुद्ध-बोधिसत्व
सबके निर्वाण-मंगल के निमित्त

भंते कहते ही फूट पड़े आँसू अंगुलिमाल के
घृणा-हिंसा को जयी किया बुद्ध ने
प्रेम-करुणा से
इस धरती की सारी हवा पानी आग
हिरण कछुए जंगल का पत्ता-पत्ता
उनके प्रेम में थे
तथागत की आँखें उनके गुरुत्व में
अर्धोन्मीलित हो गयी

बुद्ध ताउम्र सोखते रहे इस दुनिया का
सारा दुःख-अंधेरा
फैलाते रहें प्रकाश
सिखाते रहे प्रेम करुणा दया
शांति संयम अहिंसा
दुनिया की सारी नदियाँ
बोधिसत्व को जानती थीं
वह उनके समीप इतनी सहज थीं
कि बता सकती थी उनके हृदय से
अपने हृदय का एक-एक दुःख.

पुरातत्ववेत्ता अचरज में है कि
फराओ ने कैसे बनवाया होगा 
इतना बड़ा पिरामिड इतने बरस पहले?
हालाँकि इतने जतन के बाद भी
कोई फराओ नहीं हुए दुबारा ज़िंदा
ज़िंदा रहे बुद्ध अमर रही
उनकी अर्धोन्मीलित करुणामयी आर्द्र आँखें.

_________________________

दीपक जायसवाल
(जन्म : ७ मई १९९१, कुशीनगर)

दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में गोल्डमेडलिस्ट हैं(परास्नातक) और वहीं से शोध कार्य (पीएच. डी) भी.

उनकी दो किताबें  प्रकाशित हैं– ‘कविता में उतरते हुए’ और ‘हिंदी गद्य की परम्परा और परिदृश्य’.
सम्प्रति : असिस्टेंट कमिश्नर वाणिज्यकर के पद पर कार्यरत
deepakkumarj07@gmail.com

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  1. रमाशंकर सिंह13 अग॰ 2020, 9:49:00 am

    अच्छा लिखा है । इस कविता को पढ़ते हुए लगा कि इसका कवि इसी कविता को और अच्छा लिख सकता था।

    दो अलग कालखंडों और जीवन मूल्यों को जिस प्रकार से जोड़ा गया है, वह काबिले तारीफ है। ��

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  2. ऐसी कविताएँ सालों की जद्दोजहद और निष्ठा का फल होती हैं। बुद्ध तक पहुंचने के लिए बुद्ध होना होता है इस और कविता की एक एक पंक्ति कवि के बुद्ध हो जाने की यात्रा है। शुभकामनाएं 🌸

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  3. दो विभिन्न जीवनदर्शनों को बखूबी बहुत बारीकी से दिखाने वाली कविता।भाषा की सहजता इसे हमारे जैसे इंजीनियर लोगों को भी सुगम्य बना दिया है बहुत ज्ञानवर्धक संवेदनशील प्रेरणास्पद।शुभकामनाएँ दीपक जी

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  4. विचारोद्दीपक...अति सुंदर.....����

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  5. शैलेश चन्द्र सिंह13 अग॰ 2020, 12:31:00 pm

    शानदार कविता बहुत सहज सम्प्रेषणीय कविता।भौतिकवाद की आंधी में भाग रहे इस दुनिया को राह दिखाती कविता l

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  6. दया शंकर शरण13 अग॰ 2020, 12:33:00 pm

    फराओ और बुद्ध/दीपक जायसवाल की गद्य के शिल्प में लिखी गई एक लंबी कविता है । फराओ के अमरत्व की लालसा मिस्र के पिरामिडों के भीतर ताबूत में रखी ममी के फिर से जाग उठने की त्रासद कथा तो है हीं, यह तत्कालीन निरंकुश राजसत्ता के रक्तरंजित हिंस्त्र चरित्र की कथा भी है । बुद्ध के अमरत्व की खोज जीवन के शाश्वत सत्य ,उसके प्रश्नों और उत्तर की खोज है जिसके केन्द्र में अपनी समस्त वासनाओं का त्याग , इन्द्रियों का निग्रह और भौतिक आकर्षणों से बचते हुए जीवन जीने की दार्शनिकता है । आज से हजारों साल पहले पृथ्वी की दो सभ्यताओं के बीच की सांस्कृतिक भिन्नता इतनी विषम है कि हमें चकित कर देती है । कविता अपनी सहजता में भी इतनी अप्रतिम है कि हमें अपने आकर्षण में खींच लेती है । सच में सरल होना ज्यादा कठिन है ।

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  7. आलोकधन्वा13 अग॰ 2020, 7:42:00 pm

    मेरी हार्दिक बधाई दीपक जी को
    और शुभकामनाएँ

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  8. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार १४ अगस्त २०२० के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  9. प्रिय दीपक की कविताएं शब्द-बा-शब्द पढीं। बुद्ध और फराओ दोनों राजा कुल के थे।एक भारत के गौतम बुद्ध और दूसरे मिश्र के फराओ।निश्चित रूप से दोनों का अध्ययन वो भी तुलना में एक कठिन कार्य ही नहीं श्रमसाध्य कार्य भी है।दोनों इस शरीर के नष्ट हो जाने के दु:ख और नश्वरता का उपाय खोज रहे थे।एक को इस हेतु ज्ञान की तलाश थी वो भी विचार के स्तर पर तो दूसरे को स्वयं इस नश्वरता का उपाय का उपाय खोजना था जीवन और प्रकृति के विरूद्ध जाकर।बुद्ध ने जीवन के चार आर्यसत्य में इसको खोजा और पाया कि प्रकृति का परिवर्तन स्वरूप ही शाश्वत सत्य है।कुछ भी अजर अमर नहीं है ।आत्मा दीपक की लौ की तरह प्रतिपल परिवर्तित है।जल धारा की भान्ति निरंतर प्रवाहमान है। तो आखिर इसके क्षरण से दुख क्यों, मोह क्यों?हमें तो मुक्ति की तरफ अग्रसर होना चाहिये और इसका मार्ग है"अष्टांग मार्ग"।दूसरी तरफ इस नाशवान शरीर को कभी न मरने देने के लिये अपने अत्याचारों के बल से अपने ही गुलामों के खून से पिरामिड और ममी बनवाकर जीवित होना रहना चाहता है ताकि शरीर नष्ट न हो तो दुख भी न होगा।एक भोग में लिप्त रहकर प्रकृतिवाद के विरुद्ध जाकर शाश्वत नियम बनाना चाहता है तो दूसरे बुद्ध उसकी समस्या के समाधान में तत्वमीमांसा और ज्ञानमीमांसा के स्तर पर जाकर अनुसन्धान करते हैं, और "परिवर्तनवाद का शाश्वत नियम " स्थापित करते हैं। यही प्रकृतिवाद और विकास का सामान्य नियम भी है।बुद्ध के दर्शन आज जनता को राह दिखाते पूरे विश्व में फैल गये हैं ।मुक्ति का मार्ग सुझाते हैं और मनुष्य को सीमित मनुष्य के रूप में स्थापित करते हैं ।जबकि फराओ इस नियम के विरुद्ध जाकर स्वयं जगत का आमिट शाश्वत सत्य बनना चाहता है।वह मनुष्य की सीमाओं में प्रयास करके असीमित ईश्वर बनना चाहता है इसके लिये अपनी देह को भी अमर्त्य बनाने की जिद पर अड़ा है।उसकी ममी तो अभी भी है उसकी लेकिन वो कभी उसमें जीवित नहीँ हो सका। बुद्ध के परिवर्तनवाद की लौ के नीचे उसे आना ही पड़ा ��

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  10. सुंदर अभिव्यक्ति । अति सुंदर बधाई ।

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  11. सुन्दर आलेखन, बुद्ध की सहज अमरता का बोध।

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  12. अनावश्यक रूप से लंबी है कविता।

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