प्रयाग शुक्ल हिंदी
के दुर्लभ कवि-लेखक हैं जिन्होंने बच्चों के लिए बहुत लिखा है. उनकी कविताओं में
ताज़गी और अकुंठ मनुष्योचित औदात्त आप पाते हैं. वह प्रकृति और परिवेश को शब्दों और
रंगों से लिखते हैं. इन कविताओं के साथ
प्रस्तुत चित्र भी प्रयाग शुक्ल द्वारा
ही बनाये गयें हैं. इसके साथ ही कला-समीक्षक राकेश श्रीमाल की एक टिप्पणी भी दी जा
रही है.
जाते
हम बार-बार, लौट उन्हीं के पास
राकेश
श्रीमाल
सीधे-सहज
शब्दों में कहा जाए तो इन कविताओं को पढ़ते हुए महज कविता का पाठ-रस ही नहीं मिलता,
यह भी जानने-समझने को मिलता है कि कविता का अपना भूगोल, उसकी प्रकृति और उसका होना हम सभी के इतना निकट और इतना सहचर है कि
एकबारगी हम थोड़ा ठहरकर विस्मित हो जाते हैं. यह कुछ देर का ठहरना, इन कविताओं का संगी-साथी बनना है. इनमें कोई वैचारिक उथल-पुथल नहीं हैं.
किसी किस्म की मानवीय खुशी या त्रासदी भी नहीं हैं. प्रकृति का जैसा जीवन है,
उसे सहज ही मानवीय जीवन की स्मृति से जोड़े जाने की अबोध चेष्टा भर
है. इनमें इतनी छूट है कि स्वयं कवि और इनके पाठक भी इसे फिर-फिर पढ़ते हुए इनकी
अनुभूतियों के वितान को इनकी शाब्दिक परिधि से बाहर ले जाकर उपस्थित कर सकें.
तेज
हवा, चंचल पत्तियाँ, पार्क की
बेंच और उड़तें केश.. या ऐसा ही अन्य बहुत कुछ. यहाँ कुछ स्थिर है, कुछ अस्थिर. इन्हीं के समानांतर 'देखना' है, 'सोचना' है, और है एक ऐसा जीवन, जो प्रायः उस तरह से नोटिस में
नहीं लिया जाता, जैसे कि प्रयाग शुक्ल की कविताएं लेती हैं.
इनमें कबूतर का सुस्ताना, एक तरह से स्मृतियों का सुस्ताना
बन जाता है. ये कविताएं भी 'देखे' और 'स्मृति' बन जाने के बीच कागज पर उतरकर सुस्ताती सी
लगती है. यह सुस्ताना उनके सौंदर्य में श्रीव्रद्धि करता है. चित्रकला की भाषा में
ये ऐसी 'स्टिल लाइफ' हैं, जिसमें दृश्य के पीछे भरापूरा सजीव-अदृश्य छिपा होता है. इनमें हल्की
हवाओं के साथ चमकती धूप भी है और एक सहज उत्कंठा भी है कि अंततः कौन है, यह कौन है.

इन कविताओं को पढ़ना हमें स्मृतियों में टहलना सीखाता है और यह भी कि कितना कुछ रहता है हमारे आसपास, हम ही हैं जो उसे देख नहीं पाते.
प्रयाग शुक्ल की कविताएँ
हवा
हवा.
थिर है हवा.
फिर है हवा.
तेज़ तेज़ –
चंचल हैं पत्तियाँ
स्मृतियां, तितलियाँ
सुगन्धियाँ.
आओ बैठो
उड़े केश कुछ.
सरसराए वस्त्र.
आओ !
बैठें, इस बेंच पर.
हवा, आओ
एक दृश्य अपूर्व
दृश्य यह, किसी धूप-छांही राह का,
दोपहर का :
छतरी लिए घर से
निकलती स्त्री कोई,
खरीदती घर के सामने सब्जी
या फिर कुछ और.
जाती बाज़ार.
मिलने किसी को पड़ोस में.
जाने कब से,
जाने कब से,
दिख जाता सामने तो
करते उस पर क्षण भर तो
गौर !
स्मृति में रहा आता.
गहराता.
संग में उड़तीं, कुछ बोलतीं
चिड़ियाँ भी !
कितना अपूर्व!
फूल
क्या है फूलों के पास?
जो कहीं और नहीं.
रंग हजारों में, सुगन्धियाँ बहारों में.
तितलियाँ, चिड़िया भी इतनी.
कहीं और नहीं !
क्या है फूलों के पास ?
संकेत प्रेम के.
कुशल क्षेम के.
ढेर उपमाओं के
सज्जा शरीरों की,
कोमलतम अंगों की-
उनसे बढ़कर कहीं और नहीं.
जो है फूलों के पास,
कहीं और नहीं!
जाते हम बार-बार
लौट उन्हीं के पास.
पास में उनके जो,
कहीं और नहीं!
पलाश के फूल
पलाश के वे लाल लाल,
बहुत लाल फूल !
दहकते, प्लेटफार्म के एक छोर पर,
डिब्बे से थोड़ा सा आगे-
एक दोपहर के.
गर्मियों की बिल्कुल शुरुआत के.
आते याद.
आते याद,
जाने किस बात के!
गया नहीं उन्हें भूल !
फूल पलाश के,
लाल लाल फूल !!
फूल हरसिंगार के
झर रहें हैं फूल,
फूल हरसिंगार के.
रहे झरते रात भर वे
झर रहें हैं प्रात भर वे-
झर रहें हैं फूल,
बे आवाज़.
झर रहे रह रह
हवा में बह बह
झर रहे हैं फूल-
हरसिंगार के !
उठी सुंदर बहुत भीनी महक
चार चिड़ियाँ भी रहीं हैं चहक
झर रहें हैं फूल
फूल शिउली के !
फूल हरसिंगार के !!
झर रहें हैं.
(शिउली : असम, बंगाल में उनका यही नाम है.)
कबूतर
बहुमंजिली इमारतों के परिसर में-
एक से दूसरी के बीच,
दिन भर में,
कई बार वह आता-जाता
उड़न-रेखा बनाता है.
फर फर की ध्वनियां हैं
कुछ देर गूंजती.
वह उदग्र ग्रीवा से
सब कुछ निहारता-
सुबह से शाम तक,
कभी इधर
कभी उधर डोलता,
थोड़ा सुस्ताता है.
स्मृतियां उड़तीं हमारी भी,
सुस्तातीं!
दोनों के बीच,
कुछ अदृश्य, एक नाता है.
कुछ पीपल पल
एक बहुत पुराने परिचित पीपल वृक्ष के नीचे एक दोपहर
कुछ पीपल पल हैं ये,
दौड़ रहीं उन पर गिलहरियाँ.
कुछ पीपल पल हैं ये !
हवा बहुत हल्की है
चमक रही धूप में,
चमक रही हैं उसमें
कितनी दुपहरियां-
अपने ही रूप में!
घना तना, सघन, लिए
भार कई डालों का.
स्थिर है, मौन!
कानों में गूंजा, पर,
“कौन, यह कौन?”
मुग्ध चकित चित्त .
पल हैं ये,
कुछ पीपल पल हैं ये .
चिड़िया
जब भी खोली आंखें,
वह बोली
नहीं भी बोली तो
लगा बोली !
यह जाना आज
जब, खोलने के साथ ही दरवाज़ा
बोली वह !
वर्षा
आती वह बिजली चमकाती,
हहराती पेड़ों को, देती झकझोर.
बजते हैं बाजों से खिड़की दरवाज़े,
आती जब, छाती घनघोर
जितना बरसती है बाहर वह,
भीतर भी कभी-कभी उतना ही
उठता है शोर।
थम जाता, फिर उठता,
कैसी तो जल-बूंदें तेज तेज,
लगता है सूप लिये,
रहीं कुछ पद्दोर!
एक वृद्धा का बयान
टटोलती हूँ, पा लेती हूं,
स्मृति में अटकी, ताक पर रखी कोई,
अपनी वह चीज !
थोड़ा भटकती, अटकती जरूर हूं,
पर, यह गई हूं जान
धुर पृथ्वी आकाश यह जो कुछ है,
उससे है मेरी कुछ तो पहचान!
फिर भी, भूल जाती हूं ना मौसमों-ऋतुओं
के भी
आते वे लाते फल-फूल कुछ,
कुछ आते, मुझ तक भी.
चखती हूं, हूँ बुदबुदाती कुछ
कुछ को सुन पाती हूं,
कुछ को नहीं पाती हूं सुन!
आई छिपकली दीवार पर,
लग जाते कुछ को हटाने-भगाने में
मैं उसको देखती, चलती दीवार पर,
इधर फिर उधर!
झुकी हुई डालें
झुकी हुईं डालें झुक आतीं और
नीचे को, देतीं छाया सघन !
चाहें तो बना लें उन्हें झूला.
नीचे, इतना
नीचे,झुक आतीं,
चाहे तो अपना बना ले उन्हें,
कोई राह भूला.
कर ले स्पर्श छाँह उनकी.
झुक आतीं,पत्तियां, टहनियाँ कुछ,
आतीं उतर नीचे ज़मीन पर,
चीटियाँ, गिलहरियाँ,पत्ते कुछ सूखे हुए,
छू लेते उनको !
झुकी हुईं डालें
झुक आतीं
देती झलका
फूले फल फूल.
देखो,प्रसन्न कितनी,
रहीं हैं हवा में
वे झूल !
सिर्फ़
सिर्फ़ सूर्य ही जानता है,
कि कितने वर्षों तक लगती रही है मुझे धूप.
सिर्फ नदी ही जानती है कि कि
कितने वर्षों तक सका हूँ तैर उसमें.
सिर्फ़ पहाड़ ही जानता है, कि
कब तक चढ़ना उसमें संभव हुआ
मेरे लिए !
(या देखना उसे ऊपर, तलहटी से.)
सिर्फ वृक्ष ही जानता है, कि
किन
किन बारिशों में, कब, मैंने
ली उसकी छाया.
सिर्फ़ धरती ही जानती है ,
कि कब तक संभाली उसने मेरी पदचाप!
सिर्फ वायु ही जानती है कि
कब तक बही उसमें मेरी भी श्वांस
सिर्फ आकाश ही जानता है,
कि कब तक उसे देखा मैंने,
जैसे कोई देखता है,
सुबह शाम दोपहर,
आकाश!!
‘कवि, कथाकार, निबंधकार, कला समीक्षक और अनुवादक प्रयाग शुक्ल का जन्म 1940 में कोलकाता में हुआ था. उनके 'यह जो हरा है', 'इस पृष्ठ पर', 'सुनयना फिर न कहना' समेत दस कविता संग्रह प्रकाशित हैं. उनके तीन उपन्यास, पाँच कहानी संग्रह और यात्रा-वर्णनों की कई पुस्तकें भी हैं. कला पुस्तकों में 'आज की कला', 'हेलेन गैनली की नोटबुक' और 'कला की दुनिया में' उल्लेखनीय हैं. उनकी यात्रा पुस्तकों में 'सम पर सूर्यास्त', 'सुरगांव बंजारी' और 'ग्लोब और गुब्बारे' महत्वपूर्ण हैं.
उन्होंने बांग्ला से कई अनुवाद किए हैं. जिनमें रवींद्रनाथ ठाकुर की 'गीतांजलि' सहित जीवनानन्द दास, शंख घोष और तसलीमा नसरीन की कविताएं शामिल हैं. बंकिमचंद्र के प्रतिनिधि निबन्धों के अनुवाद पर साहित्य अकादमी का अनुवाद पुरस्कार प्राप्त हुआ. उनकी अन्य पुस्तकों में 'अर्धविराम' (आलोचना) और 'हाट और समाज' (निबंध संकलन) हैं. 'कल्पना: काशी अंक', 'कविता नदी', 'कला और कविता', 'रंग तेंदुलकर' और 'अंकयात्रा' उनकी संपादित पुस्तकें हैं.
उन्होंने बच्चों के लिए रुचि लेकर बहुत लिखा है. 'हक्का बक्का', 'धम्मक धम्मक', 'उड़ना आसमान में उड़ना', 'धूप खिली है हवा चली है', 'ऊंट चला भाई ऊंट चला' और 'कहां नाव के पांव' चर्चित बाल कविता संग्रह हैं. साहित्यिक और सांस्कृतिक आयोजनों के सिलसिले में उन्होंने देश-विदेश की बहुतेरी यात्राएं की हैं. वे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की पत्रिका 'रंग प्रसंग' और संगीत नाटक अकादमी की 'संगना' के संपादक रह चुके हैं.’
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‘कवि, कथाकार, निबंधकार, कला समीक्षक और अनुवादक प्रयाग शुक्ल का जन्म 1940 में कोलकाता में हुआ था. उनके 'यह जो हरा है', 'इस पृष्ठ पर', 'सुनयना फिर न कहना' समेत दस कविता संग्रह प्रकाशित हैं. उनके तीन उपन्यास, पाँच कहानी संग्रह और यात्रा-वर्णनों की कई पुस्तकें भी हैं. कला पुस्तकों में 'आज की कला', 'हेलेन गैनली की नोटबुक' और 'कला की दुनिया में' उल्लेखनीय हैं. उनकी यात्रा पुस्तकों में 'सम पर सूर्यास्त', 'सुरगांव बंजारी' और 'ग्लोब और गुब्बारे' महत्वपूर्ण हैं.
उन्होंने बांग्ला से कई अनुवाद किए हैं. जिनमें रवींद्रनाथ ठाकुर की 'गीतांजलि' सहित जीवनानन्द दास, शंख घोष और तसलीमा नसरीन की कविताएं शामिल हैं. बंकिमचंद्र के प्रतिनिधि निबन्धों के अनुवाद पर साहित्य अकादमी का अनुवाद पुरस्कार प्राप्त हुआ. उनकी अन्य पुस्तकों में 'अर्धविराम' (आलोचना) और 'हाट और समाज' (निबंध संकलन) हैं. 'कल्पना: काशी अंक', 'कविता नदी', 'कला और कविता', 'रंग तेंदुलकर' और 'अंकयात्रा' उनकी संपादित पुस्तकें हैं.
उन्होंने बच्चों के लिए रुचि लेकर बहुत लिखा है. 'हक्का बक्का', 'धम्मक धम्मक', 'उड़ना आसमान में उड़ना', 'धूप खिली है हवा चली है', 'ऊंट चला भाई ऊंट चला' और 'कहां नाव के पांव' चर्चित बाल कविता संग्रह हैं. साहित्यिक और सांस्कृतिक आयोजनों के सिलसिले में उन्होंने देश-विदेश की बहुतेरी यात्राएं की हैं. वे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की पत्रिका 'रंग प्रसंग' और संगीत नाटक अकादमी की 'संगना' के संपादक रह चुके हैं.’
prayagshukla2018@gmail.com
बहुत अच्छी कविताएं ,प्रचलित के घटाटोप के बाहर ,क्या रचाव है कितनी मितव्ययिता शब्दों की ,क्या लय कैसी ध्वनियाँ ,देखन में
जवाब देंहटाएंबाहर की कविताएं, भीतर ले जाती हुई
बधाई आपको और प्रयाग जी को
बहुत अच्छी कविताएँ.. प्रयाग सर की कविताएँ शिकायतों से मुक्त हैं।
जवाब देंहटाएंप्रयाग जी कम शब्दों में बड़ी बात कहनेवाले कवि हैं । उन्होंने कई विधाओं में एक साथ काम किया ।
जवाब देंहटाएंमैं 89 में फतेहपुर में पदस्थापित था , एक दिन वे मेरे दफ्तर आ गए । उन्होंने बताया कि वह इस जनपद के एक गांव के रहनेवाले है , उनके साथ उनके बाल सखा थे , वे एकदम गवई थे लेकिन दोनों के बीच अपार प्यार था । जब भी प्रयाग जी की याद आती है , वह दृश्य सामने आ जाता है । दिल्ली में रहते हुए इस सहजता को बनाये रखना कठिन काम है । वह स्वस्थ और सक्रिय रहे , यही कामना है ।
प्रयाग जी की कविताएं तो बहुत ध्यातव्य हैं ही, उनकी कलाकृतियां व कला समीक्षाएं भी बहुत आकर्षित करती हैं।
जवाब देंहटाएंबहु प्रतीक्षित वर्षा की बौछार-सी प्रयाग शुक्ल जी की कविताएं पढ़ कर मन ताज़ा हो गया।
जवाब देंहटाएं.
जवाब देंहटाएंसिर्फ़ धरती ही जानती है ,
कि कब तक संभाली उसने मेरी पदचाप!
प्रयाग जी, ऐसा केवल आप ही लिख सकते हैं।
बहुत सुंदर कविताएँ। आपके भोपाल आगमन की प्रतीक्षा रहेगी।
कुछ अविस्मरणीय शामें और जुड़ेंगी।
बहुत अच्छी कविताएं
जवाब देंहटाएंअपने परिवेश में गहरी आत्मीयता के साथ रहने वाला कवि ही ऐसी कविताएं लिख सकता है |
जवाब देंहटाएं- सदाशिव श्रोत्रिय
प्रयाग जी का कला, साहित्य आदि क्षेत्रों में काम तो उल्लेखनीय है ही साथ ही वे बहुत अच्छे मनुष्य हैं।उनके लिए बहुत शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह बहुत सुन्दर, स्वच्छ कविताएँ। इन्हें प्रयागजी से सुनने का एक अलग ही मज़ा होता है। ऐसा अवसर कई बार मिला है। मुझे याद है मैंने पहली बार पिछली सदी के अस्सी के दशक में प्रयागजी की कविताएँ सुनी थीं जब वे चंडीगढ़ में एक कविता पाठ में शामिल हुए थे जहाँ मैं पीएच.डी. कर रहा था और जिसे सत्यापाल सहगल ने आयोजित किया था। उस पाठ में तेजी ग्रोवर, मैं, लालटू, असद ज़ैदी तथा गिरधर राठी भी शामिल थे। बाद में कई बार भोपाल वाले उनके घर में भी उनसे कविताएँ सुनीं, जहाँ वे हमारी कविताएँ भी सुनते रहे हैं। कविताएँ सुनना भी उन्हें आता है और यह कला एक विशेष रूप में उनके पास है। जब भी हम उनके घर जाते रहे हैं, वे कहते थे कि अपनी कविताएँ लेकर आना। एक बार जब तेजी और मैं नॉर्वे में अपनी कविताएँ पढ़ रहे थे तो वे अचानक आकर श्रोताओं में बैठ गये। वे अब भी उस घटना को याद करते हैं और कहते हैं कि हिन्दी के माहौल के बाहर दो हिन्दी कवियों को सुनना एक अनूठा अनुभव था। शान्त स्वभाव, मृदुभाषी, संयमित, दूसरे की बात सुनते हुए धीरे-धीरे अपनी बात कहना --- उनके व्यक्तित्व के ये गुण, जिनका मैं कायल हूँ, आजकल बहुत कम दिखाई देते हैं।
जवाब देंहटाएंवाह , प्रयाग जी के रचना कर्म को नमन !
जवाब देंहटाएंहरसिंगार-सी निःशब्द झरती स्मृतियों के शब्द चित्र, पीपर-पातों में हौले-हौले झूम रहे अनगिन पल-से।
जवाब देंहटाएंप्रयाग जी ये कविताएं एक बार यह बहुत शांत और संयम ढंग से यह बताती हैं कि उनका अपने कवि-कर्म में कितना गहरा यक़ीन है। वे समकालीन कविता के किसी भी तरह के दबाव में अपनी कविता राह से कभी अलग नहीं हुए। यह बहुत विरल है कि बहुत से कवियों में अलग-अलग राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक दौर में बहुत विचलन और बदलाव आएं तब इनके बीच प्रयाग जी कि कविताएं अपने स्वभाव को नहीं छोड़तीं। यह हांफते समय के बरक्स बहुत धीरज की कविता है।
जवाब देंहटाएंप्रयागजी पुराने कवि हैं । समकालीन कविता के हाहाकार के बीच वे प्रकृति और जीवन का धीमा गान रचते हैं । उनका लहज़ा अलग पर मानवीय है । इन कविताओं को उसी धीरज से पढ़ने की ज़रूरत है जिस तसल्ली से ये लिखी गईं हैं । प्रयाग शुक्लजी और समालोचन का आभार ।
जवाब देंहटाएंप्रयाग जी का धैर्य भरा स्वभाव एक प्रेरणा की तरह है. बहुत धीमे से मन पर उनकी कविताएं उतरती हैं और इतनी स्पष्ट कि जैसे अपनी ही ध्वनि हो.
जवाब देंहटाएंकम शब्दों में मन की बात कहती बड़ी कविताएँ। प्रयाग जी को नमन। प्रस्तुत करने का धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंवर्तमान के विचारोत्तेजक दौर में प्रकृति के कोमल पक्ष को मानवीकरण करने वाली बेहतरीन कविताएं। इन कविताओं में स्पर्श सा भाव है। छूकर महसूस कराने वाली कविताएं।
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