राजविन्दर मीर की कविताएँ (पंजाबी) : अनुवाद : रुस्तम सिंह

पेंटिग : SHEETAL GATTANI

राजविन्दर मीर की इन पंजाबी कविताओं के रुस्तम सिंह के इस हिंदी अनुवाद को पढ़ते हुए पहले तो इस बात का दुःख हुआ कि मुझे पंजाबी क्यों नहीं आती है. फिर संतोष हुआ कि हिंदी में रुस्तम सिंह जैसा कवि है जो इन कविताओं को लगभग पूर्णता में अनूदित कर सकता है.

अच्छी कविताओं से अच्छा सचमुच कुछ नहीं, ख़ासकर जब आप एक संपादक के नाते बहुत ही बेतुकी, बचकानी और ठस कविताओं को पढ़ने के लिए लगभग विवश हों और उस बीच आपको  राजविन्दर मीर की कविताएँ मिल जाए.

राजविन्दर मीर ने एक कविता मरहूम विष्णु खरे की ‘आलैन कुरदी’ पर लिखी कविता पर भी  लिखी है जिसमें ये पंक्तियाँ आती हैं –

‘लेकिन यह बूढ़ा कवि ज़िद्द करता है
मरे हुए आलैन को ज़िन्दा कर लेता है
पालता-पोसता है अपनी कविताओं में
बड़ा करता है
दुबारा फिर फेंक आता है सागर के किनारे

दुनिया को भूलने नहीं देता
कि आलैन मर चुका है

वो मेरे मस्तिष्क के तन्तुओं में
घुस जाता है
मुझे साथ लेकर
भूल जाने के खिलाफ़
बेरहम, लम्बा युद्ध लड़ता है’

रुस्तम सिंह के प्रति अत्यंत आभार के साथ ये कविताएँ समालोचन प्रस्तुत करता है.





पंजाबी
राजविन्दर मीर की कविताएँ                             
पंजाबी से अनुवाद : रुस्तम सिंह




तेरा ख़याल
मैं तुझे उदास कर देना चाहता हूँ
तेरी हरेक तह में
हरेक कोने में
पतझड़ के पत्तों-सा
बिखर जाना चाहता हूँ
तू पत्ता-पत्ता समेटती
हवा पे खीझ रही है
हवा हरेक पत्ते को बिखेरती
तुझे चिढ़ा रही है

तुझे ज़रा भी पता नहीं चलता  
कोई तुझे ज़िन्दा रख रहा है
कोई जी रहा है





कामरेड रुलदू
कामरेड रुलदू
जब पार्टी में आया
तो दोस्तों ने कहा
ज़िन्दगी की भी दलील होती है आख़िर
ऐसे कैसे जी सकता है कोई
किसी आदर्श की ख़ातिर
कामरेड रुलदू ने
पार्टी में पैंतीस वर्ष काम किया
उम्र के सत्तरवें वर्ष
जब काम छोड़ा
तो दोस्तों ने कहा     
ज़िन्दगी की भी दलील होती है आख़िर
ऐसे कैसे जी सकता है कोई
किसी आदर्श की ख़ातिर
कामरेड रुलदू
पार्टी में पैंतीस वर्ष काम करके
उम्र के इकहत्तरवें वर्ष
जब मरा
तो दोस्तों ने कहा  
ऐसे कैसे जी सकता है कोई
किसी आदर्श की ख़ातिर
ज़िन्दगी की भी
अपनी दलील होती है आख़िर




मज़दूर
दिहाड़ी करके वापिस आते
अक्सर अँधेरा हो जाता है
अँधेरे में डर लगता है
गली में
किसी ठोकर से बचने के लिए
मैं दीवार का सहारा लेकर चलता हूँ
दीवार से हाथ छूते ही
एक झनझनाहट
पूरे जिस्म में फैल गयी
दीवार मेरा हाथ सहला रही है
याद दिला रही है
कि इस जगह पर लगे  
सीमेन्ट का बट्ठल
मैंने ही उठाया था





आप एक कविता पढ़ेंगे
आप एक कविता पढ़ रहे हैं
पढ़ रहे हैं  
हाथ मिलाने की आवाज़ें
सूँघ रहे हैं नये रिश्तों की सुगन्ध
फिर दुबारा पढ़ रहे हैं
सीख रहे हैं
इक-दूजे पर भरोसा करना
आप एक कविता पढ़ रहे हैं
इस कविता में जो कुछ भी है
मैंने आपसे सीखा है





कंघी करती औरत
दर्पण के सामने
ज़रा-सा झुककर
दाहिने हाथ की उँगली से
बालों का जूड़ा खोला
सरसराते बाल काले
कमर से नीचे तक
झूलने लगे
नवयुवक बेटे की मौत के
कई दिन बाद
चेहरा देखा
आँखों के नीचे वाली चमड़ी
फटी-फटी उजाड़-सी लगी
हाथ से छूकर देखा
ये झुर्रियाँ नहीं थीं
कई दिन से आते लोग
आज फिर आयेंगे
छोटी-छोटी बाते होंगी
छोटे-छोटे स्पर्श
हाथों पर सरसरायेंगे
बर्फ़ के टुकड़े की तरह
क्षण-भर की ठण्डक देंगे
पिघल जायेंगे
कई दिन से आते लोग
आज भी आयेंगे
कंघी कर लूँ थोड़ी-बहुत
फिटकरी से मुँह धो लूँ ज़रा-सा





माँ के हाथ
आग लेने आयी पड़ोसिन
माँ ने
ढक्कन भर आग दी
तो मन किया
चूम लूँ
माँ के हाथ
शाम जब आँखों में उतरने लगी
तो माँ ने दीया जलाया
और दोनों हाथ जोड़कर
किया नमस्कार
लौ को
फिर तो मैंने
चूम ही लिए
माँ के हाथ
हाथों से


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लोर्का के कातिल
वह चुप-सा कवि
जिसकी कविता बिल्कुल भी चुप नहीं थी  
कभी मरना नहीं चाहता था
उन्होंने उसे
गोलियों से छलनी करके
चौक में घसीटा
टुकड़े-टुकड़े किया
और जला दिया
शेष बची हड्डियों समेत
राख को इकट्ठा करके
एक नदी में फेंक दिया
और नदी को
एक बहुत बड़े पहाड़ के नीचे दबा दिया
फिर वे आँखें मींच
कानों पर हाथ रख
एक अँधेरे कमरे में जा छिपे
जिसके चारों तरफ़ सिपाहियों का पहरा था
फिर कंटीली बाड़
फिर सिपाही
फिर बाड़
फिर सिपाही
फिर बाड़.....





मैं नहीं हूँ
सदी की यह सहज शाम
मुझे असहज कर रही है
यह धमाके के साथ फट रही है अभी
और इसमें से
गन्दे बिच्छू
उछल-उछ्लकर बाहर आ रहे हैं
सड़ी हुई चिन्दियाँ
और सड़ चुकी ज़मीन की बू
बालज़ाक की कहर-भरी नज़रों वाली
नंगी तोंदल देह
मुझसे क्या पूछती है
मैं तो इस शाम का
एक अभागा दर्शक हूँ
कोई फुलटाइम कम्यूनिस्ट नहीं





यंत्रणा
जिस्म को तोड़ा पीटा 
और तबाह किया गया
गाँठ बांधकर शिकंजे में टांगा गया
जिस्म के सफ़र की लम्बी दास्तान है
जिस का हर कदम
एक सदी जितना है
यंत्रणा के यात्री इस जिस्म में से
एक चीख़ टपकती है
जो पानी की बूँदों की तरह जमकर
बर्फ़ बन जाती है
मुझे इस चीख़ के लरज़ने पर
प्यार आता है
मुझे इस चीख़ की उम्र को लेकर
उलझन है
मुझे इस चीख़ की पवित्रता की
फ़िक्र है
फूचिक* की टूट रही उँगलियों की आवाज़
मेरी सम्पत्ति है
उसके बाद उसकी लम्बी चीख़
मेरी सम्पत्ति
यंत्रणा देने वाला
अपनी चीख़ रोकने के लिए
पूरा हाथ अपने मुँह में डाल लेता है
----------------------------------------
*जूलियस फूचिक (1903—1943) चेकोस्लोवाकिया के पत्रकार, आलोचक तथा लेखक थे. वे नात्सी-विरोधी आन्दोलन में सक्रिय थे. 




कोहकाफ़ से ख़त
कोहकाफ़ से
कोई कवि
मुझे लिखा ख़त लेकर आया
यह ख़त
अजीबोगरीब भाषा में लिखा हुआ था
(पर तब भी
मैंने यह ख़त पढ़ लिया
इस बात को अभी राज़ ही रखना
कि दुनिया के सारे कवियों की
एक छुपी हुई साझा भाषा होती है
जिसमें वे बीती रात
सपनों की घाटी में मिलकर
बातें करते हैं
और अपने-अपने लोगों के लिए
हज़ार रंगों वाली कविता गढ़ते हैं)
ख़त में लिखा था
कि यहाँ सेनाएँ तन गयी हैं
दुनिया के हुक्मरानों को
पृथ्वी की गतियाँ पसन्द नहीं
वो पृथ्वी की एक गति रोकना चाहते हैं
जिससे मौसम बदलते हैं
ऋतुएँ बदलती हैं
यदि ऐसा हुआ तो
पतझड़ कैसे आयेगा
दरख़्त कैसे सूखेंगे
कैसे जलेगी हमारे घरों में आग
यदि ऐसा हुआ तो
कैसे खिलेंगे
तेरी कलाई पर अमलतास के फूल
दूधिया मक्का कैसे पकेगा
यदि ऐसा हुआ तो
क्या होगा
मुझे नहीं पता
मैंने अमेज़न नदी के पार बसे
कवि को ख़त लिखा है
यदि ऐसा हुआ तो
कोई कैसे पढ़ेगा
प्रेम की बीस कविताएँ*
कैसे आयेगी
माचू-पीचू पर बहार
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*यहाँ पाबलो नेरुदा के पहले कविता संग्रह की तरफ़ इशारा है जिसमें बीस प्रेम कविताएँ थीं.

कृति :  Khaled Yeslam




आलैन कुरदी*

विष्णु खरे नाम का कवि
कविता लिखता है
जब मैं शान्त-चित्त सोने की कोशिश करता हूँ
वो खीझा हुआ
मेरी नींद में खट-खट करता है
शराब के गिलास में से खींचता हूँ जब सुकून
वो साज़िशी
मेरे अन्दर दहशत भरता है
मेरी नौकरीशुदा पत्नी के दुनियादार स्वर्ग को
विचलित करता है
वो सागर तट पर मरे पड़े
आलैन कुरदी पर कविता लिखता है
कहता है, “आ तेरे जूतों से रेत निकाल दूँ।“
वो सफ़र के लिए तैयार होते
आलैन के माता-पिता की सुहानी तस्वीर खींचता है
शब्दों का ऐसा मृगछ्ल बनाता है
जैसे कि आलैन ज़िन्दा हो
वो पागल कवि
आलैन कुरदी मर चुका है
“और मरे हुए बच्चे कभी बड़े नहीं होते”
लेकिन यह बूढ़ा कवि ज़िद्द करता है
मरे हुए आलैन को ज़िन्दा कर लेता है
पालता-पोसता है अपनी कविताओं में
बड़ा करता है
दुबारा फिर फेंक आता है सागर के किनारे
दुनिया को भूलने नहीं देता
कि आलैन मर चुका है
वो मेरे मस्तिष्क के तन्तुओं में
घुस जाता है
मुझे साथ लेकर
भूल जाने के खिलाफ़
बेरहम, लम्बा युद्ध लड़ता है
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*आलैन कुरदी सीरिया का वह बच्चा था जो कुछ वर्ष पहले तुर्की के समुद्र तट पर औंधे मुँह मरा हुआ पाया गया था.


राजविन्दर मीर पेशे से अध्यापक हैं.
उनका जन्म 1980 में पंजाब के मानसा ज़िले के गाँव कोट लल्लू में हुआ.
उनके तीन कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं :
काले फुल (2008), लाल परिन्दे (2014) तथा सौवीं सदी दे गीत (2017).

उन्हें 2017 का रत्न सिंह बागी यादगार पुरस्कार प्राप्त हुआ है. 




वि और दार्शनिक, रुस्तम के पाँच कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं, जिनमें से एक संग्रह में किशोरों के लिए लिखी गयी कविताएँ हैं. उनकी कविताएँ अंग्रेज़ी, तेलुगु, मराठी, मल्याली, पंजाबी, स्वीडी, नौर्वीजी तथा एस्टोनी भाषाओं में अनूदित हुई हैं. रुस्तम सिंह नाम से अंग्रेज़ी में भी उनकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हैं. इसी नाम से अंग्रेज़ी में उनके पर्चे राष्ट्रीय व् अन्तरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं.
rustamsingh1@gmail.com 

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  1. सभी कविताएँ सुंदर है।अनुवाद के लिए आभार।समालोचन का भी आभार।

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  2. बहुत ठोस और मार्मिक अनुभव की कविताएँ हैं. ��

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  3. राजविंदर जी की इन कविताओं ने कुछ नये आत्मीय और व्यग्र तरीकों से घेर लिया है। वाह!
    रुस्तम जी ने अनुवाद संभव किए, धन्यवाद।

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  4. मंगलेश डबराल28 जुल॰ 2020, 10:49:00 am

    गहरी, सघन और विचलित करती कवितायें. अनुवाद भी उतने जी सुन्दर. राजविंदर मीर को हिंदी में लाने के लिए रुस्तम का शुक्रिया.

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  5. Outstanding poems, मीर और रुस्तम जी को इन कविताओं को पड़ाने के लिए शुक्रिया । मीर जब political subject पर भी कवितालिखते है तो कविता नही छोड़ते,पोलिटिकल होना चाहे छोड़ दे। इन कविताओं का संगीत और ठहराव हिंदी में आने से और भी गहरा हो गया है।

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  6. बेहद संवेदनशील कविताएं।हिंदी के पाठक की सुरुचि के दायरे को बड़ा करती पंजाबी कविताएं।साझा करने के लिए धन्यवाद।

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  7. अभिनव सिंह28 जुल॰ 2020, 1:19:00 pm

    इन कविताओं की प्रस्तुति भी किसी कविता जैसी है। कुछ कवि भी इसलिए लिखते रहते हैं कि कभी समालोचन पर छप सकें। सर जी तू सी ग्रेट हो।

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  8. भारतीय कविता में नया मीर आया लगता है । सच्ची भारतीय कविताएँ । मिट्टी की सौंधी गन्ध से पगी । समकालीन हिन्दी कविता नाहक ही अंतरराष्ट्रीय हुई जा रही है पहले उसे सही मायनों में स्थानीय होना पड़ेगा । मीर की कविताओं में हिंदुस्तान की धूल उड़ती दिखाई पड़ती है । संवेदनाओं के गारे से पगी इन कविताओं के लिए कवि को अनुवादक को और समालोचन का बहुत आभार । इन कविताओं को पढ़कर लगा जैसे अपने गाँव से लौटकर आया हूँ !

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  9. बड़ा कवि, ठंडी आग सी कविताएँ!

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  10. वाकई अच्छी कविताएँ। जीवन से ऊपजी। जीवन में पगी। तेरा ख्याल, मजदूर, कंघी करती औरत और माँ के हाथ बहुत गहरी कविताएँ लगीं।

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  11. मंजुला बिष्ट28 जुल॰ 2020, 7:44:00 pm

    सुबह से यह चित्र बेचैन कर रहा था..आलेख सेव किया था।
    अभी इस चित्र व आलैन कुर्दी के बीच संम्बध पाकर चुप लग गयी..यह कविता अब अधिक बेचैन कर गयी
    मजदूर,माँ के हाथ.. व अन्य कविताएँ पढ़कर मूल कविताओं का ख्याल ही नहीं आया।
    हम पाठकों को महत्वपूर्ण कविताओं के सहज व सुन्दर अनुवाद उपलब्ध कराने के लिए समालोचन का बहुत शुक्रिया।
    कवि व अनुवादक को बधाई व शुभकामनाएं!��

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  12. बहुत मार्मिक और बैचैन करने वाली सुंदर कविताएँ। अच्छा अनुवाद.

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  13. नरेश गोस्वामी29 जुल॰ 2020, 12:25:00 pm

    जैसे तलघर से निकल कर खुली हवा और ठोस ज़मीन पर आ गए हों... शिल्प के सर्वसत्तावाद और कृत्रिमता के अत्याचार के बरअक्स बड़ी बात कहती और लम्बी लकीर खींचती कविताएँ. ��

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  14. इस बात को अभी राज़ ही रखना
    कि दुनिया के सारे कवियों की
    एक छुपी हुई साझा भाषा होती है
    जिसमें वे बीती रात
    सपनों की घाटी में मिलकर
    बातें करते हैं
    और अपने-अपने लोगों के लिए
    हज़ार रंगों वाली कविता गढ़ते हैं

    भीतर तक ले जाने वाली कविताएं। असल में संवेदना का एक ऐसा विश्व खुल गया कि पढ़ कर लगता है कवि होना कितना कठिन है। अनुवाद तो मूल जैसे ही लगते हैं। कवि, अनुवादक और संपादक तीनों का शुक्रिया।

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  15. बहुत सुंदर कविताएँ।

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  16. कविता ऐसी होती है ।कविता को ऐसा होना चाहिए।
    वर्तमान को इतिहास और इतिहास को वर्तमान की ओर मोड़ती हुई।

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