मुक्तिबोधीय फैंटेसी में वास्तविक का पुनरागमन : अनूप बाली



अनूप बाली ‘स्कूल ऑफ़ कल्चर एंड क्रिएटिव एक्सप्रेशन’ अम्बेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली के शोध छात्र हैं. मुक्तिबोध के फैंटेसी के मनोविश्लेषण पक्ष पर यह उनका संजीदा शोध लेख है.   


मुक्तिबोधीय फैंटेसी में वास्तविक का पुनरागमन: ख़ल्के-ख़ुदा की भविष्य-धारा
अनूप बाली

यशंकर प्रसाद की प्रसिद्ध कृति कामायनी पर अपने आलोचनात्मक ग्रंथ, कामायनी: एक पुनर्विचार, में मुक्तिबोध साहित्यिक विधा के रूप में फैंटेसी के वैशिष्ट्य का यथेष्ट विश्लेषण करते हैं. मुक्तिबोध के अनुसार फैंटेसी में “वास्तविकता प्रतीकों द्वारा प्रस्तुत होती है.” (मुक्तिबोध रचनावली 4 198) 

उनके अनुसार प्रतीकों के विधान की इस प्रक्रिया में कलाकार अपने भावों और दृष्टियों का पात्र-चरित्रों पर आरोपण करता है. फैंटेसी की आत्मपरक शैली में आरोपण के कारण उत्पन्न हुई यह आंतरिक असंगतियाँ स्पष्ट रूप से सामने नहीं आ पातीं. यहाँ सवाल उठता है कि फैंटेसी में कलाकार द्वारा अपने भावों और दृष्टियों के आरोपण का बुनियादी कारण क्या है? फैंटेसी में कलाकार के भावों और दृष्टियों का प्रवेश होना क्या उसकी इच्छाओं-आकांक्षाओं का प्रक्षेपण भी है? इस तरह, क्या इच्छाओं-आकांक्षाओं का प्रक्षेपण ही फैंटेसी की आत्मपरक शैली का मूलभूत कारण नहीं है? गौरतलब है कि कामायनी के संदर्भ में मुक्तिबोध फैंटेसी के वैशिष्ट्य को रेखांकित करते हुए लिखते हैं, 

“फैंटेसी में मन की निगूढ़ वृत्तियों का, अनुभूत जीवन-समस्याओं का, इच्छित विश्वासों का और इच्छित जीवन-स्थितियों का प्रक्षेप होता है.” (वही 194)

इसी दिशा में मुक्तिबोध इस ओर भी ध्यान दिलाते हैं कि


“... फैंटेसी में कलाकार का व्यक्तित्व प्राथमिक है. फैंटेसी में इच्छित विश्वासों का सन्निवेश हो जाता है, और व्यक्तित्व की मूलभूत कमजोरियों या कमियों की भी मनोवैज्ञानिक-मानसिक पूर्ति हो जाती है.” 


(वही 199) इस सवाल पर गौर करना सार्थक हो सकता है कि व्यक्तित्व कि यह मूलभूत कमज़ोरियाँ या कमियाँ क्या हैं? क्या इन कमियों और कमजोरियों का चरित्र मात्र वैयक्तिक है या इनका कोई सामाजिक-ऐतिहासिक पहलू भी है? यह गौरतलब है कि मुक्तिबोध बाह्य और आभ्यंतर के मिथ्या द्वैत को प्रश्नांकित करते हैं. बाह्य की प्रक्रियात्मकता ही आभ्यंतर को निर्धारित और नियंत्रित करती है. बाह्य की प्रक्रियात्मकता में ही कर्ता सामाजिक नियम-क़ानूनों और निषेधों को आत्मसात करता चलता है. नियम-क़ानूनों और निषेधों को आत्मसात करने के इस क्रम में सुपर-ईगो के विधान द्वारा उसके अवचेतन का निर्माण होता है. ब्रिटिश मनोविश्लेषक ज्यूलिएट मिचेल इस प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए लिखतीं हैं कि


“जिस तरह हम विचारों को मानव समाज के अनिवार्य नियमों की तरह जीते हैं वह इतना चेतन नहीं है जितना अवचेतन – मनोविश्लेषण का विशिष्ट कार्यभार इस सवाल की गूढ़ार्थना है कि किस तरह अपने अवचेतन मन में हम मानव समाज के क़ानूनों और अपनी वैचारिक विरासत को अर्जित करते हैं या इसको यों कहें, अवचेतन मन वह तरीका है जिससे हम इन क़ानूनों को अर्जित करते हैं.” 


The way we live as ‘ideas’ the necessary laws of human society is not so much conscious as unconscious — the particular task of psychoanalysis is to decipher how we acquire our heritage of the ideas and laws of human society within the unconscious mind, or, to put it another way, the unconscious mind is the way in which we acquire these laws.” [जैकसन में उद्धृत] (Jackson 3) 

इस तरह यह कहा जा सकता है कि अन्य पाठों की तरह फैंटेसिक पाठ भी सामाजिक संदर्भों के भीतर और उसके द्वारा ही उत्पन्न और निर्धारित होता है. अत: रोज़मेरी जैकसन का यह कहना सटीक जान पड़ता है कि “साहित्यिक फैंटेसिक कभी स्वायत्त नहीं होता है.” (2) फैंटेसिक कृति का युग या समय से काटकर स्वायत्त निरूपण दरअसल रहस्यवादी निरूपण है.



मुक्तिबोधीय फैंटेसी का वैशिष्ट्य

मुक्तिबोधीय फैंटेसी के संदर्भ में यह उजागर करने की ज़रूरत है कि मुक्तिबोध के लिए इस रहस्यवाद से उलट फैंटेसी की साहित्यिक विधा सत्य की साधना है जिसके माध्यम से वे अपने देश-काल के मूलभूत सवालों को प्रस्तुत करते हैं.  फैंटेसी की साहित्यिक विधा पर केन्द्रित अपनी महत्त्वपूर्ण पुस्तक फैंटेसी: दी लिटरेचर ऑफ सब्वरर्ज़न में रोज़मेरी जैकसन रेखांकित करतीं हैं कि फैंटेसिक साहित्य इच्छाओं-आकांक्षाओं का साहित्य है जोकि उसे खोजता है जिसकी उपस्थिती केवल कमी या खोये हुए (loss) की अनुभूति के रूप में शेष रह गयी है. (वही) कमी या खोने (loss) की यह अनुभूति सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया में मनुष्य के रचनात्मक-आत्म के प्रतिबंधन द्वारा संघटित होती है. कर्ता अपने जीवन कर्म में इसी कमी को अन्य में तलाशता हुआ गतिमय होता है. इसी तलाश को मनोविश्लेषक जैक लकां अन्य की इच्छा (desire of the Other) के रूप में प्रकट करते हैं. उनके अनुसार इच्छा और कमी जटिल रूप से सहबद्ध होते है. लकां के लिए इच्छा, संतुष्टि का मांग से व्यवकलन है.

इच्छा न तो संतुष्टि की भूख है, न ही प्यार की मांग बल्कि यह वह अंतर है जो पहले को दूसरे में से घटाने का परिणाम है, उनके विच्छेदन की परिघटना है.”

“Thus desire is neither the appetite for satisfaction, nor the demand for love, but the difference that results from the subtraction of the first from the second, the phenomenon of their splitting (Spaltung).” (Ecrits: A Selection 219)

कर्ता अपनी इस बुनियादी कमी को ढकने या अर्थ देने के लिए सतत् एक अन्य की तलाश में होता है. इसीलिए लकां के अनुसार इच्छा हमेशा अन्य के लिए या अन्य की इच्छा होती है[i]. लकांवादी-मार्क्सीय दार्शनिक स्लावोज़ ज़िज़ेक फैंटेसी को अन्य की इच्छा के प्रक्षेपण पटल के रूप में देखते हैं. (Žižek, The Sublime Object of Ideology 132) फैंटेसी में मनुष्य अन्य की इच्छा का फैंटेसी-पटल पर प्रक्षेपण करता है. इस तरह वे अपने आत्म की मूलभूत कमी को फैंटेसी से ढक देता है. इस तरह फैंटेसी उसकी इच्छा को रूप देती है तथा उसको अभिलाषी कर्ता (desiring subject) बनाती है. अत: ज़िज़ेक का यह कहना सही जान पड़ता है कि फैंटेसी के माध्यम से ही हम इच्छा करना सीखते हैं.

“फैंटेसी की आम परिभाषा (एक काल्पनिक परिदृश्य जोकि इच्छा के परिपूर्ण होने को प्रस्तुत करता है)  लिहाजा किंचित भ्रामक, या कम से कम अस्पष्ट  है: फैंटेसी-दृश्य में इच्छा परिपूर्ण या संतुष्ट नहीं होती बल्कि गठित होती है – फैंटेसी के माध्यम से, हम इच्छा करना सीखते हैं.”(वही 132) 

The usual definition of fantasy (‘an imagined scenario representing the realization of desire’) is therefore somewhat misleading, or at least ambiguous: in the fantasy-scene the desire is not fulfilled, ‘satisfied’, but constituted (given its objects, and so on) – through fantasy, we ‘learn how to desire’. 

साहित्यिक या कलात्मक फैंटेसी केवल कमी या खोने की अनुभूति का मात्र विश्लेषण ही नहीं करती बल्कि विश्लेषण और उसी विश्लेषण के क्रम में उत्खनन की प्रक्रिया के दौरान उस खोये हुए के पुनरागमन से भी टकरा जाती है. फ्रायडीय मनोविश्लेषण में इसी टकराहट को दमित का पुनरागमन (Return of the repressed) कहा जाता है.  इस पुनरागमन के केवल मनोवैज्ञानिक निहितार्थ ही नहीं है बल्कि इसका एक सामाजिक-राजनीतिक आशय भी है जहां फैंटेसी बुर्जुआ यथार्थ के प्रतीकात्मक ऑर्डर का विध्वंस कर देती है. (Bould and Vint 102) फैंटेसी इच्छा की अभिव्यक्ति है. इस अर्थ में वह इच्छा की कूटबद्ध (coded) भाषा है. इच्छा को अभिव्यक्त करते हुए फैंटेसी दो तरीकों से कार्य करती है. एक तो वह इच्छा को बताती है, सामने लाती और प्रस्तुत करती है या कर सकती है. दूसरा, वह इच्छा को निष्काषित करते हुए सांस्कृतिक ऑर्डर और उसकी निरंतरता को भंग भी कर सकती है. 

आधुनिक फैंटेसिक साहित्य इन दोनों ही कार्यों को बखूबी निभाता है. अपने इन दोनों तरीकों के वैशिष्ट्य द्वारा ही फैंटेसी वैध/अवैध के द्विभाजन को तोड़ते हुए अवैध को सांस्कृतिक ऑर्डर की वैधानिक गिरफ्त से मुक्त करती है. जहां एक ओर इच्छा को अभिव्यक्ति देने के लिए वह प्रभावशील संस्कृति की भाषा को ही काम में लाती है तों वहीं दूसरी ओर इच्छा के निष्कासन द्वारा वह सांस्कृतिक ऑर्डर का ही विसर्जन कर देती है. निश्चित रूप से मुक्तिबोधीय फैंटेसी यही फैंटेसी है. मुक्तिबोध फैंटेसी के उन आयामों का बारीक मुआयना करते हैं जोकि जीवन-जगत के दबे-छिपे पहलुओं को फैंटेसिक-पटल में प्रक्षेपित करने में सहायक बनते हैं. जीवन-जगत के यह दमित और छिपे हुए विविध पहलू शासकवर्गीय ज्ञान-मीमांसा के चलते अलक्षित रह जाते हैं. (अवधेश त्रिपाठी 101) 

अत: यह फैंटेसी की साहित्यिक विधा की क्षमता ही है जोकि उन सामाजिक-राजनीतिक पक्षों को उद्घाटित कर देती है जोकि पूंजी के विचारधारात्मक वर्चस्व के चलते अगोचर और अदृश्य रह जाते हैं. इसके साथ ही तत्त्व को अधिक से अधिक चित्रात्मक एवं महीन रूप से विकसित करने के लिए फैंटेसी का शिल्प कवि को विविध विकल्प उपलब्ध कराता है. इस दिशा में, फैंटेसी पूंजी की तानाशाही द्वारा आधुनिक सभ्यता के छिपे और दमित पक्षों को भड़का देती है. यह दमित और प्रछन्न पक्ष आधुनिकता के साधारण/असाधारण, सामान्य/असामान्य तथा वैध/अवैध के सरल द्विभाजनों के भीतर पकड़े नहीं जा सकते हैं. जैकसन फैंटेसी की इन विशिष्टताओं को रेखांकित करते हुए लिखतीं हैं:


इस तरह से फैंटेसिक साहित्य उस बुनियाद की ओर संकेत करता है जिसपर सांस्कृतिक व्यवस्था टिकी होती है. इस प्रक्रिया में एक संक्षिप्त क्षण के लिए वह अव्यवस्था, अवैधता – जोकि कानून के दायरे के बाहर अवस्थित है, जोकि मूल्यों की प्रभावशील व्यवस्था के बाहर है को खोल देता है. फैंटेसिक संस्कृति के अकथनीय और अगोचर को चिह्नांकित करता है: जिसको की खामोश करा दिया गया है, अदृश्य बना दिया गया है, ढक दिया गया है तथा अनुपस्थित बना दिया गया है. फैंटेसी के पहले से दूसरे प्रकार्य की गति; निरूपण के रूप में अभिव्यक्ति से निष्कासन के रूप में अभिव्यक्ति, फैंटेसिक कथ्य की आवर्ती विशेषताओं में से एक है चूंकि यह इच्छा की परिपूर्णता, अदृश्य को दृश्यमान करने तथा अनुपस्थिति  को खोजने की कोशिश की असंभाव्यता को बताता है. यह बताना प्रभावशील व्यवस्था की भाषा का प्रयोग करते हुए तथा उसके नियमों को स्वीकार करते हुए उसके अंधेरे इलाकों की पुन: प्राप्ति करता है. चूंकि अव्यवस्था की ओर यह परिभ्रमण प्रभावशील सांस्कृतिक व्यवस्था के मूल से ही शुरू हो सकता है, अत: साहित्यिक फैंटेसी उस व्यवस्था की सीमाओं को बताने का सूचकांक है. वह अवास्तविक की प्रस्तावना को वास्तविक के व्यतिरेक में रखता है – एक ऐसी वर्गीकरण जिसकी पड़ताल फैंटेसिक उसके (वास्तविक) अंतर से करता है.

In this way fantastic literature points to or suggests the basis upon which cultural order rests, for it opens up, for a brief moment, on to disorder, on to illegality, on to that which lies outside the law, that which is outside dominant value systems. The fantastic traces the unsaid and the unseen of culture: that which has been silenced, made invisible, covered over and made ‘absent’. The movement from the first to the second of these functions, from expression as manifestation to expression as expulsion, is one of the recurrent features of fantastic narrative, as it tells of the impossible attempt to realize desire, to make visible the invisible and to discover absence. Telling implies using the language of the dominant order and so accepting its norms, recovering its dark areas. Since this excursion into disorder can only begin from a base within the dominant cultural order, literary fantasy is a telling index of the limits of that order. Its introduction of the ‘unreal’ is set against the category of the ‘real’—a category which the fantastic interrogates by its difference. (Jackson 2 )

इस तरह फैंटेसी का अवास्तविक यथार्थ का गहन निरीक्षण करता है. फैंटेसी यथार्थ से पोषित हुए इस यथार्थ को ही उलट देती है. इसी निश्चित अर्थ में फैंटेसी नकारात्मकता की वाहक है. वह यथार्थ की तार्किकता के निरीक्षण के क्रम में उसमें अंतर्निहित अतार्किकता (irrationality) को खोल देती है. मुक्तिबोधीय फैंटेसी की इस तर्कातीत प्रवृत्ति को परमानंद श्रीवास्तव बख़ूबी पहचनाते हैं. इस ओर संकेत करते हुए वे लिखते हैं, “इस काव्य-संसार में अक्सर चीज़ें नियमों के बाहर तर्कातीत रूपों में घटित होतीं हैं और नकारात्मक निषेधमूलक संवाद-युक्तियाँ एक ही काव्य-प्रक्रिया में अथवा एक ही नाटकीय संरचना में गुंथी हुई जान पड़ती हैं.” (58)

अत: फैंटेसी में अंतर्निहित तार्किकता यथार्थ की अतार्किकता को सामने ले आती है. इसलिए यह समझा जा सकता है कि फैंटेसी की तार्किकता में उसके अपने कायदे-कानून होते हैं जिस ओर नामवर सिंह अपने लेख कहानी और फैंटेसी में काफ्का की कहानी मेटामोर्फोसिस के संदर्भ में ध्यान दिलाते हैं. (कहानी: नई कहानी 91-92) मुक्तिबोधीय फैंटेसी यथार्थ के दमित और उपेक्षित आयामों को सामने लाने के लिए फैंटेसी के शिल्प की सहायता से तर्क से परे चली जाती है. नामवर सिंह मुक्तिबोधीय फैंटेसी की इस तर्कातीत प्रवृत्ति और उसके वैशिष्ट्य को पकड़ लेते हैं. अंधेरे में पर केन्द्रित अपने एक निबंध में वे लिखते हैं:


हिन्दी में कविता के अंतर्गत फैंटेसी के उपयोग के लिए मुक्तिबोध विख्यात हैं, किन्तु इस उपयोग की कलात्मक सार्थकता पर बहुत कम विचार किया गया है. स्वयं मुक्तिबोध फैंटेसी शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में करते थे. उनके लिए कामायनी भी एक तरह की फैंटेसी थी. इस प्रकार स्वप्न-कथा फैंटेसी का एक प्रकार मात्र है. मुक्तिबोध की दृष्टि में कविता के अंतर्गत फैंटेसी के प्रयोग की सबसे बड़ी सुविधा यह है कि लेखक वास्तविकता के प्रदीर्घ चित्रण से बच जाता है. कहना न होगा कि स्वप्न-शैली में कथा कहने के कारण अंधेरे में कविता में काफी मितव्ययिता और सघनता आ गयी है तथा वर्णन के अनावश्यक विस्तार से अपने-आप ही निजात मिल गयी. स्वप्न-शैली के कारण एक और कथा अनिवार्यत: चित्रात्मक हो गयी तो दूसरी ओर एक से अधिक कथाओं के क्रमबद्ध संयोजन से भी लाघव आ गया, क्योंकि स्वप्न-क्रम प्रकृत्या अतार्किक और विषयाधर्मी होता है. स्वप्न-शैली के साथ एक सुविधा यह भी है कि आवश्यतानुसार देश और काल की दृष्टि से नितांत असंबद्ध तथा दूर की वस्तुओं को एकत्रित रखा जा सकता है. (कविता के नए प्रतिमान 225)

हालांकि सिंह की यह टिप्पणी विशेष रूप से अंधेरे में पर केन्द्रित है, लेकिन मुक्तिबोधीय फैंटेसी के संदर्भ में इस विचार की व्यापक प्रासंगिकता है.कवि-कर्म के संदर्भ में फैंटेसी की विशिष्टाओं को रेखांकित करते हुए मुक्तिबोध लिखते हैं: 


फैंटेसी के अंतर्गत कवि-कल्पना, जीवन की सारभूत विशेषताएँ प्रकट करते हुए, एक ऐसी चित्रावली प्रस्तुत करती है कि जिससे वह तथ्यात्मक जीवन, जिसकी कि स्वानुभूत विशेषताएँ प्रोद्भाषित की गयी हैं, अधिकाधिक प्रच्छन्न, गौण और नेपथ्यवासी हो जाए. संक्षेप में, फैंटेसी के अंतर्गत भाव-पक्ष प्रधान और विभाव-पक्ष गौण और प्रच्छन्न तो होता ही है, साथ ही यह भाव-पक्ष, कल्पना को उत्तेजित करके, बिंबों की रचना करते हुए, एक ऐसा मूर्त विधान उपस्थित करता है, के जिस विधान में उस विधान के ही नियम होते हैं. इस मूर्त विधान में विभाव-पक्ष मात्र सूचित होता है, मात्र ध्वनित होता है. किन्तु इस नेपथ्यवासी मूलाधार के बिना, उस अंडरग्राउंड – भूमिगत – विभाव-पक्ष के बिना, उस मूर्त-विधान का जीवन-महत्त्व प्रोद्भाषित हो ही नहीं सकता. (मुक्तिबोध रचनावली 4 195)

यह गौरतलब है कि मुक्तिबोध अपनी रचना-प्रक्रिया को फैंटेसी की रचना-प्रक्रिया बताते हैं. रचना-प्रक्रिया में रूप और तत्त्व की एकात्मकता को सुनिश्चित करते हुए ही वे फैंटेसी की साहित्यिक विधा के प्रयोग की बात करते हैं. फैंटेसी के मूर्त विधान और उसके आंतरिक नियमों पर मुक्तिबोध यथेष्ट विचार करते हैं[ii]

कहा जा सकता है कि फैंटेसी मुक्तिबोधीय रचना-प्रक्रिया का अपरिहार्य परिणाम है. मुक्तिबोधीय राजनीतिक-सौन्दर्य की ज़मीन पर कविता, यथार्थ से सहयोग प्राप्त फैंटेसी के रूप में प्रस्तुत होती है. मुक्तिबोधीय कलात्मक क्षण अर्थात कला के तीन क्षण एक अनवरत प्रक्रिया के द्योतक हैं जहां कि एकात्मकताओं के रूप में यह तीन क्षण एकात्मकताओं या एकात्मक-बहुविधों (singular-multiples) की सार्वभौमिकता का विधान करते हैं. इस तरह मुक्तिबोधीय फैंटेसी कला के तीन क्षण के माध्यम से कला के सत्य के रूप में सार्वभौमिक एकात्मकता को आलोकित करती है. मुक्तिबोधीय फैंटेसी की सार्वभौमिक एकात्मकता वर्चस्ववादी सार्वभौमिकता अर्थात पूंजी की छद्म सार्वभौमिकता का विध्वंस करते हुए परिस्थिति के सत्य को प्रकट कर देती है जिसे शासकवर्गीय ज्ञानमीमांसीय वर्चस्व दबाए और छिपाए रखने में प्रयासरत होता है[iii]

इस दिशा में, फैंटेसी की साहित्यिक विधा – जोकि फैंटेसी के अस्मितावादी प्रकटन के रहस्यवादी और पारंपरिक प्रयोगों के बतौर समझी और इस्तेमाल की जाती है –  की मुक्ति के लिए मुक्तिबोध अपनी कविताओं में व्यवकलनीय और आक्रमक अनुसंधान करते दिखते हैं. अत: मुक्तिबोध फैंटेसी की सीमाओं और उसकी असुविधाओं को भी पहचानते हैं. इन सीमाओं को उजागर करते हुए मुक्तिबोध साहित्यिक विधा के रूप में फैंटेसी को उसके पारंपरिक समझ और प्रयोग से मुक्त करते दिखते हैं. फैंटेसी की इन सीमाओं को प्रस्तुत करते हुए मुक्तिबोध लिखते हैं “यथार्थ के प्रति बहुत बार न केवल अयथार्थ दृष्टिकोण दिखायी देता है, वरन् यथार्थ को उपस्थित करने का तरीका काल्पनिक तथा फैंटेसी-प्रधान भी हो सकता है. इसका फल यह होता है कि यथार्थ अपनी विकृतावस्था में उपस्थित होता है – इतना कि बहुत बार उसे पहचानना भी मुश्किल हो जाता है. उस पर वृथा-दार्शनिकता, अति-मनोवैज्ञानिकता, अस्पष्ट प्रतीक-विधान तथा अर्थहीन भावुकता के आवरण पर आवरण चढ़ाये जाते हैं.” (मुक्तिबोध रचनावली 4 205-206) 

मुक्तिबोध यहीं नहीं ठहरते बल्कि फैंटेसी के संदर्भ में यथार्थवादी शिल्प और यथार्थवादी दृष्टिकोण के अंतर को स्पष्ट करते हुए कला के शिल्प और उसकी आत्मा के अंतर को उजागर करते हुए बताते हैं कि किस तरह तथाकथित यथार्थवादी दृष्टि भी नितांत अयथार्थवादी रचना को उत्पन्न कर सकती है. (मुक्तिबोध रचनावली 4 197)

इससे उलट मुक्तिबोध भाग्यवादी या भाववादी शिल्प में भी संवेदनात्मक उद्देश्यों, उन उद्देश्यों द्वारा परिचालित कल्पना तथा अनुभावात्मक जीवन ज्ञान – जोकि कल्पना के भीतर की सामग्री है – के विश्लेषण के द्वारा ही फैंटेसी के अध्ययन के पक्षधर हैं. (वही) इस तरह हम देखते हैं कि मुक्तिबोध न सिर्फ फैंटेसी की सीमाओं को पहचानते हैं बल्कि इस साहित्यिक विधा की शक्ति और सुविधाओं को भी पहचानते हैं. फैंटेसी की इन सुविधाओं और असुविधाओं का गहन और सटीक वर्णन करते हुए मुक्तिबोध फैंटेसी के यथेष्ट विश्लेषण के लिए कुछ बिन्दु सामने रखते हैं. वे लिखते हैं:


फैंटेसी के प्रयोग में कई प्रकार की सुविधाएं होती हैं. एक तो यह कि जिये और भोगे गये जीवन की वास्तविकताओं के बौद्धिक अथवा सारभूत निष्कर्षों को, अर्थात जीवन-ज्ञान को, (वास्तविक जीवन-चित्र न उपस्थित करते हुए), कल्पना के रंगों में प्रस्तुत किया जा सकता है. इस प्रकार की ज्ञान-गर्भ फैंटेसी वास्तविक जीवन ही का प्रतिनिधित्व करती है. लेखक वास्तविकता के प्रदीर्घ चित्रण से बच जाता है. वह, संक्षेप में, ज्ञान-गर्भ फैंटेसी द्वारा, सार-रूप में, जीवन की पुनर्रचना करता है. किन्तु फैंटेसी का प्रयोग कुछ विशेष असुविधाएँ भी उत्पन्न करता है, जिनमें से एक यह है कि फैंटेसी में कभी-कभी जीवन-तथ्य इस प्रकार प्रस्तुत होते हैं कि उन्हें पहचानना भी मुश्किल हो जाता है. यहाँ तक कि कभी-कभी उनका क्रम स्थापित करने में अड़चन होने लगती है. प्रतीकात्मक रूप से प्रस्तुत होने के कारण वास्तविकता या जीवन-तथ्य, अधिकतर अनुमान से ही, संवेदनात्मक अनुमान ही से, पहचाने जा सकते हैं. संक्षेप में फैंटेसी एक झीना पर्दा है, जिसमें से जीवन-तथ्य झांक-झांक उठते हैं. फैंटेसी का ताना-बाना कल्पना-बिंबों में प्रकट होनेवाली विविध क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं ही से बना हुआ होता है. दूसरे शब्दों में, तथ्यों का उद्घाटन अत्यंत गौण और विकारपूर्ण होता है; किन्तु उन तथ्यों के प्रति की गयी क्रिया-प्रतिक्रिया प्रधान होती है.

ऐसी स्थिति में, मेरे ख्याल से, फैंटेसी का विश्लेषण इस प्रकार होना चाहिए – सबसे पहले हम फैंटेसी में गुंथी हुई क्रियाएँ-प्रतिक्रियाएँ जानें, और क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं के सूत्र से हम प्रच्छन्न और अर्ध-प्रच्छन्न जीवन-तथ्यों तक जायें. ये जीवन-तथ्य संवेदनात्मक उद्देश्यों की अपनी निधि हैं – अर्थात जीवन की वह विशेष सामग्री है कि जिसके प्रति कवि द्वारा क्रियाएँ-प्रतिक्रियाएँ उपस्थित की गयी हैं.
(मुक्तिबोध रचनावली 4 197-198) [ज़ोर मेरा] 

मुक्तिबोध की लंबी और जटिल कविताएं फैंटेसी की कार्यात्मकता को प्रस्तुत करती हैं. मुक्तिबोध की कविता अपनी फैंटेसी से आकर्षित करती है. अपनी अविश्वसनीय और असाधारण गतिमयता से वह पाठक को अपने अंदर खींचती हैं. यह गौरतलब है कि मुक्तिबोध की कविता के अविश्वसनीय और असाधारण तत्त्व – कथ्य, प्रतीक, पात्र और घटनाएँ – बाह्य जगत की भौतिकता में गहरे से जमें  होते हैं. मुक्तिबोध, फैंटेसी के अविश्वसनीय और असाधारण शिल्प या रूप का – जैसा कि मैंने पहले भी रेखांकित किया है – आधुनिक जीवन-जगत के उन दबे और छिपे पहलुओं को प्रक्षेपित करने के लिए प्रयोग करते हैं जोकि अलक्षित छूट गये हैं अर्थात पूंजी के वर्चस्व की चकाचौंध में दमित हैं. अत: फैंटेसी के माध्यम से मुक्तिबोध रहस्यवादी रूप में प्रकट हो रहे उतार-चढ़ाव की प्रक्रिया में दमित के पुनरागमन (Return of the repressed) और वास्तविक के पुनरागमन (Return of the real) को सुनिश्चित करते हैं. प्रस्तुत लेख के अगले भाग में मेरी कोशिश मुक्तिबोध की कविता भविष्य-धारा में वास्तविक के पुनरागमन को व्याख्यायित करना है. 



ख़ल्के-ख़ुदा की भविष्य-धारा: वास्तविक का पुनरागमन

दमित और वास्तविक के पुनरागमन का स्पष्ट साक्ष्य मुक्तिबोध की कविता भविष्य-धारा है. हालांकि यह कविता एक भविष्य-वक्ता का नाटकीय एकालाप है जहां भविष्यवाणियाँ किसी सुंदर, मनमोहक या समरसतापूर्ण जगत् का यूटोपियन प्रक्षेपण नहीं करती बल्कि इतिहास की भविष्य-धारा की खोज और निर्माण में आने वाली बाधाओं का फैंटेसिक चित्रण करतीं हैं. निश्चित रूप से इसी बिन्दु पर प्रस्तुत कविता का भविष्य कथन फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की प्रसिद्ध नज़्म हम देखेंगे (322) के भविष्य कथन के व्यतिरेक में खड़ा दिखता है. हम देखेंगे में क़यामत के दिन का वादा है कि जब सब ताज उछाले जाएँगे और तख्त गिराए जाएँगे. (वही) फ़ैज़ भी अपनी कविता में इतिहास की भविष्य-धारा के रूप में ख़ल्के-ख़ुदा के मुक्त हो जाने का चित्र खींचते हैं लेकिन मुक्तिबोध इस प्रक्रिया में गहरे विश्लेषण और उत्खनन की ओर जाते हैं. वे इस बात का अनुसंधान करते हैं कि क्यों इतिहास बार-बार भविष्य-धारा की ख़ल्के-ख़ुदा को अपने में समाहित कर लेता है? मुक्तिबोध की फैंटेसिक कविताएं यह प्रश्न उठाती है कि क्या मनुष्य इतिहास की जकड़न में ही क़ैद रहने को अभिशप्त है? वह इस बात का विश्लेषण करतीं हैं कि कैसे इतिहास का यथार्थ बार-बार प्रकृति के वास्तविक को अपनी जकड़न में क़ैद करता रहता है? 

अत: मुक्तिबोध के यहाँ इतिहास की कुटिल गति का विश्लेषण, उत्खनन और फैंटेसिक विध्वंस है. इस प्रक्रिया के संदर्भ में ही मुक्तिबोध भविष्य-धारा की ख़ल्के-ख़ुदा की झलक सामने  लाते हैं. इस अर्थ में मुक्तिबोधीय फैंटेसी, विद्रोह का रोमांटिक प्रक्षेपण नहीं बल्कि छायावादी, प्रगतिवादी और तथाकथित प्रयोगवादी प्रवृत्तियों के आंतरिक क्रिटिक का प्रतिफलन है. प्रस्तुत कविता एक अनहोनी घटना के संदर्भ में कुछ प्रश्नों के साथ खुलती है और यह अनहोनी घटना है एक वैज्ञानिक की अपनी ही प्रयोगशाला में हुई हत्या. प्रश्न यही है कि यह हत्या क्यों हुई? आखिर वैज्ञानिक ऐसा क्या कर रहा था? वे ऐसा क्या खोज रहा था


क्यों वैज्ञानिक सो गया
सतत् प्रज्वलित गैस-स्टोव पास
स्वयं की प्रयोगशाला में?
क्यों वह अचेत हो गया?
कि कमरे में घूमने लगीं अदृश्य लहरें
वह महक अजीबो-गरीब द्रव्यों की
(अत्यंत उग्र) सिर को चकरा देनेवाली .
हैं ढुली पड़ीं शीशियाँ, परीक्षण-नलिकाएँ
क्यों हुई भयानक घटना यह?
क्या यहाँ किसी ने बेहोशी की दवा पिला
चोरी कर ली नव-गणित-पंक्तियों की अद्भुत
वे नव-आविष्कृत समीकरण के सूत्र

खो गए कहाँ!! 
(मुक्तिबोध रचनावली 2 104)

प्रस्तुत कविता में मुक्तिबोध विज्ञान और गणित की भाषा का भरपूर प्रयोग करते हैं. जहां विज्ञान की भाषा या शब्दावलियों से वे एक जुनूनी वैज्ञानिक की किसी ज़रूरी खोज की ओर ध्यान दिलाते हैं तो वहीं गणितीय भाषा फैंटेसिक की एक आभासी दुनिया का विधान करती है. मसलन “अनबूझे ऋण-एक राशि के वर्गमूल  अर्थात गणित में काल्पनिक मानी जाने वाली संख्या के शब्द प्रयोग से वे एक आभासीय फैंटेसिक माहौल तैयार करते हैं. सवाल यह है कि क्या वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशाला में किसी ऐसे गणितीय समीकरण तक पहुंच जाता है कि जो समीकरण वास्तविक दुनिया के आभासीय संघटन को उजागर कर सकता है. अर्थात ऐसा समीकरण जो यथार्थ के वक्ष में खौल रहे दमित वास्तविक की ओर संकेत कर दे. गौरतलब है कि समीकरण के खो जाने के क्रम में ही अवस्था के भ्रम लोक में आत्मा जाग उठती है और यथार्थ के आभासीय परिसर में एक अजीब हलचल होने लगती है. इस तरह, मुक्तिबोध प्रस्तुत कविता में विज्ञान और गणित की भाषा की सहायता से आत्म के सवाल का गहन उत्खनन करते हैं. खोये हुए को खोजने में संत्रस्त वैज्ञानिक भूल को सुधारने के क्रम में नई-नई भूलें करता रहा. 

वैज्ञानिक ऐसी सूझ में अपने आत्म पर ही अपने आत्म का प्रयोग करता रहा. यहाँ इन दो आत्मों को एक समझना जल्दबाज़ी होगी क्योंकि काव्य-वाचक यह स्पष्ट करता है कि ऐसा वैज्ञानिक भीषण एकांतों में करता रहा. इस तरह वैज्ञानिक नितांत एकांत में आत्म के संघटन को समझना चाहता था. वैज्ञानिक की समस्या यह थी कि अपने को दुनिया से काट कर वे होने के सवाल पर विचार कर रहा था. इस ओर ध्यान न दे सकने के कारण कि उसके जुनून का एक सामूहिक पहलू भी है जिसके लिए ही वे कर्मरत है वे भूल सुधारने के क्रम में लगातार भूल करता गया. सवाल यह है कि वैज्ञानिक किस भूल को सुधारने की जुनूनी कोशिश में मग्न था? कविता में काव्य-वाचक वैज्ञानिक के इन जुनूनी प्रयासों की आंतरिक हलचलों को सामने लाता है जिसने वैज्ञानिक को अंतर्मुखी बना दिया. क्या वैज्ञानिक की अंतर्मुखता ही उसकी हत्या का कारण नहीं बनती कि जिस कारण  मृत्यु की सीढ़ियों पर कदम रखते हुए सीढ़ियाँ और वैज्ञानिक दोनों ही शून्य में लुप्त हो जाते हैं. अत: क्या वैज्ञानिक की अंतर्मुखता उसकी सीमाओं की ओर संकेत है? क्या उसकी अंतर्मुखता को पहचानना ही उसके द्वारा खोजे गए गणितीय समीकरण के सामान्यीकरण की पूर्व-शर्त नहीं है? ऐसा लगता है कि इन सवालों से टकराते हुए ही काव्य-वाचक कह उठता है कि 

“वह वैज्ञानिक नाम का अब!!
व उसका सत्य
हमारे कहाँ काम का अब
 कि शायद, वह मर गया. 

(मुक्तिबोध रचनावली 2 106) 


इसी बीच किसी रहस्यमय माहौल में काव्य-वाचक किसी अजीब आशंका और भय के साथ वैज्ञानिक की प्रयोगशाला में दाखिल होता है और इस सवाल के साथ कि आखिर वह गणितीय समीकरण कहाँ खो गया, वे टेबल, ड्रॉअर, अलमारी सब जगह छान-बीन करता है. इस तरह कविता की फैंटेसी, वैज्ञानिकीय परिवेश से जासूसी कथा का रूप धारण कर लेती है. यह पूरा छंद ही एक जासूसी कथा का हिस्सा लगता है जहां काव्य-वाचक वह गणितीय समीकरण ढूँढने के लिए पागल हुआ जा रहा है. इस तरह फैंटेसी में यह गणितीय-समीकरण उस स्वायत्त संकेतक (signifier) की भूमिका निभा रहा है कि जिसके द्वारा कविता में कर्ता (पहले वैज्ञानिक और अब काव्य-वाचक) गतिमय हैं और कविता के प्रतीकात्मक ऑर्डर अर्थात सामाजिक यथार्थ का विधान करते हैं. 

यहाँ जैक लकां की एडगर एलन पो की कहानी दी पर्लोइनड लेटर पर उनके मनोविश्लेषकीय पाठ का ज़िक्र सार्थक हो सकता है. कहानी में राजा और मंत्री की उपस्थिती में एक पत्र रानी को सौंपा जाता है और रानी सब के सामने उस पत्र को बिना खोले निकल जाती है. मंत्री पत्र की रहस्यमयता को भाँपते हुए रानी की पूछताछ और राजा की नज़रों से पत्र को बचाते हुए निकल जाता है. लेकिन मंत्री भी पत्र को अनखुला ही रहने देता है और छद्म रूप में मेटल रेक में लगा देता है. जहां पुलिस निरीक्षक भी उस पत्र को नहीं ढूंढ पाता चूंकि उसे लगता है कि पत्र मंत्री ने छिपा दिया है तो वहीं जासूस डपलिन मंत्री द्वारा छद्म रूप में  मेटल रेक में लगाए गए पत्र को पहचान लेता है. लकां के अनुसार यह कहानी दिखाती है कि किस तरह पत्र एक स्वायत्त संकेतक के रूप में पहले दृश्य में राजा, रानी और मंत्री और दूसरे दृश्य में पुलिस, मंत्री और डपलिन के मध्य के प्रतीकात्मक ऑर्डर का विधान करता है. अत: यह पत्र की अस्पष्ट प्रकृति ही है कि जिस कारण वे कहानी का सच्चा कर्ता है और कहानी में मनुष्य कर्ता को बनाता है तथा जिस कारण कहानी का सामाजिक यथार्थ विकसित होता है. (Homar 46) 

एक ओर राजा और पुलिस की स्थिति यथार्थवादी मूर्ख की तरह है कि जिन्हें लगता है कि दुनिया पूर्वनिर्धारित है और उनका उससे सीधा संबंध है. लकां के अनुसार यह एक तरह का सरल अनुभववाद है. दूसरी तरफ मंत्री की स्थिति एक देखने वाले तमाशबीन की तरह है जो यह देख पा रहा है कि पहली  स्थिति अंधी और अनभिज्ञ है लेकिन तीसरी स्थिति इस बात से पूरी तरह परिचित है कि क्या हो रहा है. लेकिन मंत्री को फिर भी लगता है कि वे पत्र को छिपाये रख सकता है और अंतत: वे अपने को मूर्ख बनाता है कि पत्र (संकेतक) उसके अधीन है. इसे ही लकां काल्पनिक ऑर्डर कहते हैं. तीसरी स्थिति डपलिन की है जोकि व्यापक संरचना में पत्र की भूमिका को समझते हुए ही कोई कदम लेता है अर्थात यहाँ कर्ता संरचना को समझते हुए ही कोई कदम उठाता है. लकां के लिए यही प्रतीकात्मक ऑर्डर है. (Lacan, Seminar on The Purloined Letter 39) इस तरह लकां दिखाते हैं कि पो की इस जासूसी कहानी में पत्र अपनी अस्पष्ट प्रकृति द्वारा अर्थात उसके स्वायत्त संकेतक (जिसका की कोई संकेतित नहीं है) होने के द्वारा कहानी के यथार्थ को बनाता है. जहां एक ओर पो का स्वायत्त संकेतक (पत्र) कहानी के यथार्थ को बनाता तो वहीं मुक्तिबोध का स्वायत्त संकेतक (वैज्ञानिक का गणितीय समीकरण) फैंटेसी में यथार्थ का ही विसर्जन कर देता है. काव्य-वाचक के आत्म के लिए वे गणितीय-समीकरण एक अभिलाषित वस्तु बन जाती है. इस तरह मुक्तिबोध फैंटेसी के भीतर काव्य-वाचक की फैंटेसी को स्पष्ट करते हैं. 

“मैं भय आशंकाहत पिछले दरवाज़े से
ऐसा खिसका मानो शरीर से गुपचु
 खिसक जाये आत्मा
यह आत्म-लहर चल मीलों पार कहीं पहुंची
खोजती हुई सब और अभिलषित वस्तु स्वयं!!” 

(मुक्तिबोध रचनावली 2 107) 

काव्य-वाचक गणितीय समीकरण को खोजते हुए इमली के महावृक्ष के नीचे खेलते बच्चों के बीच पहुंचता है जहां उसे वैज्ञानिक का खोया हुआ गणितीय समीकरण प्राप्त होता है. सवाल यह है कि काव्य-वाचक को यह बच्चों के बीच ही क्यों प्राप्त होता है? गौरतलब है कि एक भूतपूर्व विद्रोही का आत्मकथन में भी दमित विद्रोह के सामान्यीकरण की संभावना मुक्तिबोध बच्चों के बीच ही छोड़ते हैं तथा अंधेरे में में भी गांधी द्वारा काव्य-नायक को एक बच्चा सौंपा जाता है. बहरहाल, गणितीय समीकरण के साक्षात्कार द्वारा मुक्तिबोध असंभव की संभावना को सामने रखते हैं. एक ऐसा संकेतक कि जिसका कोई संकेतित ही न हो यथार्थ के वास्तविक से सीधा साक्षात्कार है. यह वास्तविक का घातक साक्षात्कार है जहां यथार्थ विसर्जित हो जाता है. बाद्यु के शब्दों में यह Eventual Rupture है. कविता में गणितीय समीकरण को हाथ में लिए जब काव्य-वाचक पहाड़ की चोटी पर पहुंचता है तो मुक्तिबोध सशक्त फैंटेसिक चित्रण द्वारा यथार्थ के विसर्जित होने के क्षण का घातक प्रक्षेपण करते हैं. 



मैं हूँ पहाड़ की चोटी पर
हाथ में उसी वैज्ञानिक की
बस वही गणित-कापी विचित्र
ले खड़ा हुआ.
पास में भव्य दानवाकार तोप-सी एक
मुंह ऊंचा किए रशिम-तृषिता
वह दूरबीन
देखती खड़े तारे नवीन !!
गुरु के ग्यारह चंद्रों में दो को ग्रहण लगा .
उस वैज्ञानिक के समीकरण
सूत्रों के सत्य-परीक्षण में संलग्न यहाँ
देखता हूँ कि
काले पहाड़ के पीछे से
रात्रि के गोल गुंबज का स्याहा किनारा ही
चिर गया व उस गहरी दरार में से भीतर
अपरिसीम दूरियाँ
                  महकती हुई सचेत प्रवाहित हो
गंभीर गहन ध्वनि-आंदोलन कर उठीं 
(मुक्तिबोध रचनावली 2 108-109)

क्या यह अपरिसीम दूरियाँ यथार्थ से वास्तविक की दूरियाँ ही नहीं हैं जो अपनी अनस्मिता (non-identity) के प्रस्फुटन के द्वारा अपने पर थोपी गयी पहचान का विद्रोह कर रहीं हैं? वास्तविक की अनस्मिता का अपनी पहचान के विरुद्ध यह विद्रोह ही ध्वनि-आंदोलन है. यह कबीर का अनहद नाद ही है कि जिसका ज़िक्र मुक्तिबोध कविता में आगे करते हैं. (वही 121) इस अनहद नाद के बीच ही मुक्तिबोध श्रम के वास्तविक अर्थात हमारी कर्मण्यता के दमित के रहस्य को उजागर कर देते हैं. यही उस दबाए हुए का पुनरागमन है कि जिसके दमन पर ही पूंजी का यथार्थ का विकसित होता है.

एक-एक ध्वनि-तरंग अनुवादिता प्रकाश तरंगों में
वे आसमान में रंग-बिरंगी प्रतीक शत
ज्यामितिक भिन्न रूपाकृतियों में नाच उठे
                क्षण उद्भासित
                क्षण विलयित
                पुन: प्रकाशित वे
काले पहाड़ की चोटी को
उद्भास-क्षणों तम-हायफ़नों द्वारा नभ से जोड़ने लगे
                 तब मुझे भान हो उठा
कि कोट्यावधि नेत्रों से बिल्कुल दूर हटा
सैंकड़ों पीढ़ियों की आँखों से कर ओझल
जो ढाँका गया छिपाया गया ज़बर्दस्ती
कोई रहस्य
प्रस्फुटित हुआ कि एक-एक प्राप्त वेग
प्राप्त मस्ती
कि दाबे गये भाव-अनुभव की गहन वेदनामयी महक
लेकर अपार दूरियाँ अतल विस्तार विचारात्मक
हैं फूट पड़ीं
शब्दाभिव्यक्ति, पर, मिल न सकी


इसलिए रंग-संकेत किरण-भाषा में नाच उठीं !!
(मुक्तिबोध रचनावली 2 109) [ज़ोर मेरा]

दबाये गये भाव-अनुभव की वेदनामयी महक निस्संदेह दमित वास्तविक का पुनरागमन है. मुक्तिबोध जानते हैं कि इस दमित को अभिव्यक्ति देना आसान काम नहीं है. निश्चित रूप से इसीलिए मुक्तिबोध अभिव्यक्ति के खतरे उठाने की बात करते हैं. अभिव्यक्ति की गहन समस्या यह है कि उसके उच्चारित होने में ही यह आंतरिक खतरा है कि वह उसी भाषा को पैदा कर दे कि जिसके प्रतिरोधात्मक अंतर्विरोध से वह पैदा हुई है. इसीलिए मुक्तिबोध कविता में गणितीय समीकरण का काव्यानुवाद न करते हुए उसके प्रस्फुटन को रंगों के संकेत और किरणों की भाषा में प्रकट करते हैं. काव्य-वाचक का काम इसी गणितीय समीकरण को साहित्यिक शब्द-रंग-ध्वनि में बदलना है कि जिसको वैज्ञानिक ने किरणों की तरंगों से छान कर गणितिक अंकों में अनुवादित किया है. 

यहाँ यह सवाल उठ खड़ा होता है कि यह वैज्ञानिक कौन है? मुक्तिबोध के यहाँ इस वैज्ञानिक का क्या प्रतीकात्मक आशय है? मेरे सहचर मित्र कविता में मुक्तिबोध एक मित्र को संबोधित करते हैं कि कैसे उसके हस्तक्षेप से वे खूंखार, सिनिक, संशयवादी होने से बच गए. वे बताते हैं कि किस तरह उस मित्र ने उन्हें बुद्धि के हाथों-पैरों की बेड़ियों से आज़ाद करवाया. इसी कविता में मुक्तिबोध स्पष्ट करते हैं कि उस मित्र ने अपने कंधे पर उन्हें इसीलिए खड़ा किया ताकि,

“तनकर उंची गर्दन कर दोनों हाथों से
मैं स्याह चंद्र का फ़्यूज़ बल्ब
जल्दी निकाल
पावन प्रकाश का प्राण बल्ब
वह लगा सकूँ
जो बल्ब तुम्हीं ने श्रमपूर्वक तैयार किया
विक्षुब्ध ज़िंदगी की अपनी
वैज्ञानिक प्रयोगशाला में.”  
(मुक्तिबोध रचनावली 2 249) 


मुक्तिबोध के यहाँ चाँद पूंजीवाद का प्रतीक है. मुक्तिबोध स्याह चंद्र अर्थात पूंजी के फ़्यूज़ बल्ब को निकाल कर मनुष्य की कर्मण्यता के प्राण बल्ब के प्रस्थापन द्वारा आत्म को पूंजी की प्रेतनुमा जकड़न से मुक्त करना चाहते हैं. यहाँ इस बल्ब को तैयार करने वाला उनका मित्र भी एक वैज्ञानिक है. प्रस्तुत कविता में यह बल्ब गणितीय समीकरण के रूप में सामने आता है. केलिफोर्निया विश्वविद्यालय में मुक्तिबोध पर केन्द्रित अपने हालिया जमा किए पीएचडी शोध कार्य में विद्वान ग्रेग्री यंग गौलडींग इस गणितीय सूत्र को समानता का सूत्र कहते हैं जोकि मानव-मुक्ति के स्वप्न से जुड़ा है. (Goulding 105)

इस गणितीय सूत्र को समानता का सूत्र मानने की कुछ समस्याएँ हो सकतीं हैं. सबसे पहले तो यही सवाल उठता है कि मुक्तिबोध मानव मुक्ति के इन प्रतीकों को बल्ब या गणितीय सूत्र जैसे रूपकीय प्रतीकों से ही क्यों प्रकट करते हैं? उसमें भी वे सीधे तौर पर समानता की बात अधिकतर क्यों नहीं लाते? इसका एक जवाब यह हो सकता है कि मुक्तिबोध कविता के फैंटेसिक परिवेश के निर्वहन के लिए ही ऐसे रूपकों को गढ़ते हैं. उसमें भी बल्ब और गणितीय सूत्र जैसे तकनीकी, वैज्ञानिकीय तथा गणितीय रूपकों के द्वारा वे पूंजीवादी आधुनिकता कों प्रस्तुत करते हैं. लेकिन यह रेखांकित करना भी ज़रूरी है कि समानता का विचार भी न सिर्फ इसी पूंजीवादी आधुनिकता से उपजता है बल्कि पूंजी के साम्राज्य को बनाए रखने में निर्णायक भूमिका भी निभाता है. इसी बुनियाद पर प्रतिनिधित्व पर आधारित राजनीति फलती-फूलती है. गौरतलब है कि उत्तर-आधुनिकतावाद इसी प्रतिनिधित्व की राजनीति का व्यापक होना अर्थात संकट है. निश्चित रूप से इसी अर्थ में न सिर्फ उत्तर-आधुनिकता आधुनिकता का अगला चरण है बल्कि संकटग्रस्त पूंजी का बाह्यकरण भी है. मुक्तिबोध आधुनिकता के इस आंतरिक संकट से परिचित थे इसीलिए प्रतिनिधित्व से अधिक वे सम्मिलित श्रम पर ज़ोर देते थे. वे यह मानने को तैयार नहीं थे कि ऊपर के कमरे हमारे लिए बंद हैं और न ही इन ऊपर के कमरों अर्थात प्रतिनिधित्व तक पहुँचना उनका लक्ष्य था. बल्कि उनके अनुसार, 

“यह गलत है, वह भ्रम है
हमारा अधिकार सम्मिलित श्रम
और छीनने का दम है.”

 [चाँद का मुंह टेढ़ा है(मुक्तिबोध रचनावली 2 285)

पूंजी खंड एक के पहले ही अध्याय में मार्क्स भी यह दिखाते हैं कि पूंजी का भौतिक यथार्थ अर्थात अमूर्त मानव श्रम असमानताओं या गैर-समानताओं की समानता पर आधारित है. अत: मुक्तिबोध के गणितीय सूत्र को समानता के सूत्र में विघटित कर देना उसी यथार्थ को संघटित कर देना होगा जिसको मुक्तिबोध अपनी कविताओं में तोड़ते हैं. मुक्तिबोध इस बात से परिचित थे इसीलिए वे अपनी कविताओं के फैंटेसिक रूपकों पर अत्यधिक श्रम करते थे. अपनी कविताओं से वे पूरा ब्रह्मांड नाप लेते थे. इस ब्रह्मांड यात्रा में उन्हें ऐसे कितने ही वैज्ञानिक गाहे-बगाहे मिल जाते थे. गौरतलब है कि मुक्तिबोध की कविता में मित्र हैं, वैज्ञानिक हैं, कबीर हैं, गुफा के अंधेरे में पत्थर-कुर्सी पर किताब पढ़ता आजानुबाहु है, जोकि वरिष्ठ आलोचक चंचल चौहान के अनुसार मार्क्स ही हैं. (48)  

इस तरह मुक्तिबोध की कविताएं ब्रह्मांड-धूल से लिपटी कविताएं हैं जोकि फैज की ख़ल्के-ख़ुदा ही है. मुक्तिबोध इस ब्रह्मांड-यात्रा में भी पूंजी के आततायियों की छायाएँ नापते चलते हैं. वे जानते हैं कि चाहे कितने वैज्ञानिकों की वह हत्याएँ कर दें लेकिन फिर भी मैं जीवित है एक परंपरा में. सवाल यह है कि यह मैं क्या है? कविता में काव्य-वाचक वैज्ञानिक को भी इस “मैं” में शामिल कर लेता  है. क्या यह परंपरा अनेक विद्रोही मैं की सामूहिक मैं या हम बनने की परंपरा है? मुक्तिबोध पहचानते हैं कि कैसे पूंजी की प्रेतनुमा जकड़न में जकड़ी हुई आत्मा अपने ही सत्यों कों खाने लगती है और अपने ही उपलब्ध सत्यों कों खो देती है. अपने उपलब्ध सत्यों को खो देना वैयक्तिक-आत्म की परिसीमा में अपने ही आत्म के वास्तविक को खो देना है. पूंजी की तानाशाही के युग में यह  आत्म के निर्वासन का भौतिक यथार्थ है जिस ओर मार्क्स की पड़ताल बार-बार ध्यान दिलाती हैं. अपनी भविष्यवाणियों में काव्य-वाचक आत्म के इसी संकट की ओर संकेत करता है जहां सामूहिक मैं का कंटक पौधा पूंजी के विनाश अर्थात क्रांति के भ्रूण कर्ता के रूप में श्रमिक वर्ग के अंदर पल रहा है. 

“मेरी भविष्यवाणियाँ सुनों!!
उग रहा तुम्हारे अंतर में सिर उठा,
एक कंटक पौधा
जो ठाठदार
मौलिक सुनील 
वह मैं ही हूँ!!” 

(मुक्तिबोध रचनावली 2 116-117) 

मुक्तिबोध का सम्पूर्ण साहित्य इसी सामूहिक मैं के अनवरत अनुसंधान का प्रतिफलन है. मुक्तिबोध जानते हैं कि इसकी नीली कोंपल के पत्तों और पत्र-कगारों पर कांटे और शूल हैं. यह वही मीठा बेर-झाड़ है जिसकी चर्चा मुक्तिबोध अपनी कविता मीठा बेर में करते हैं जोकि आत्म की रचनात्मकता का प्रतीक है. (देखें Bali 71-72) मुक्तिबोध जानते हैं कि सामूहिक आत्म के पौधे की अनुसंधानी जड़ें पूंजी को उसके भीतर से फाड़ते हुए आत्म को पूंजी की प्रेतनुमा जकड़न से मुक्त कर देगी. यही मुक्तिबोध का भविष्य-कथन है.


ये अनुसंधानी जड़ें
तोड़ देंगी चबूतरा
और वहाँ से पकड़ पृथुल दीवार
चढ़ेंगी शिखर
व फोड़ देंगी गुंबज
फाड़ देंगी अंतराल
 लाख-लाख फूलों के पीले नेत्र
गूढ जिज्ञासा के
देखते रहेंगे सारा बंजर प्रसार
प्रियजनों
मेरी भविष्यवाणियाँ सुनो
तुम मेरी परंपरा हो प्रिय
आगे बढने वाली दुर्जय!! 

(मुक्तिबोध रचनावली 2 118-119)


गौरतलब है कि काव्य-वाचक की यह भविष्यवाणी है कि अनुसंधानी जड़ें शिखर चढ़ कर उसी गुंबज कों फोड़ देगी जिसको काव्य-वाचक ने वैज्ञानिक के गणितीय-सूत्र कों पढ़ते हुए चिरते देखा था. यहाँ इस संभावना पर भी गौर करना सार्थक हो सकता है कि उपरोक्त काव्यांश में प्रकट हुआ बंजर प्रसार क्या पूंजी का ही बंजर प्रसार तो नहीं है? बहरहालयहाँ यह रेखांकित करना ज़रूरी है कि मुक्तिबोध इस कविता में भविष्य-कथनों की झड़ी लगा देते हैं जिसके अनुसार सामूहिक मैं की प्राप्ति के लिए मनुष्य को देश-देशांतरों तक घूमना पड़ेगा, मणियों-रत्नों की खोज में हाथ काले होंगे, यातनाएँ होंगी, अज्ञातवास होगा. 

“अज्ञातवास बारह वर्षों का निश्चित है
तुम घर छोड़ोगे
पत्नी छोड़ोगे
पैसे-पैसे के लिए पेट के लिए मरोगे और
साथ न छोड़ोगे पागलपन भी

अपने मन का.” 

(मुक्तिबोध रचनावली 2 119) 

निस्संदेह यह पागलपन मानव-मुक्ति के लिए क्रांति का ही पागलपन है? गौरतलब है कि क्रांति के इसी पागलपन में काव्य-वाचक को नाचता हुआ मस्तमौला कबीर भी मिलता है जो बाज़ार में खड़ा अपने ही घरों को फूंकने की पुकार लगा रहा है. यह उसी वैज्ञानिक का जुनून है जो ब्रह्म-रंध्र में द्रोही अनहद नाद गुंजाना चाहता था. सवाल यह है कि क्या सामूहिक मैं या क्रांति के मणि-रत्न काव्य-वाचक को प्राप्त होते हैं? यह दिलचस्प है कि काव्य-वाचक की भविष्यवाणी के अनुसार यह मणि-रत्न मैन-होल में प्राप्त होंगे. यह दिलचस्प है कि वैज्ञानिक की प्रयोगशाला, गणितीय परिवेश और ब्रह्मांड की यात्रा से होते हुए मुक्तिबोध कविता को मैन-होल पर ले आते हैं.


बीच सड़क में बड़ा खुला है एक अंधेरा छेद,
एक अंधेरा गोल-गोल
                  वह निचला-निचला भेद,
जिसके गहरे-गहरे तल में
                  गहरा गंदा कीच.
उनमें फंसे मनुष्य.......
घुसो अंधेरे जल में
                      गंदे जल की गैल
स्याह भूत-से बनो, सनो तुम
मैन-होले से मनों निकालो मैल
काल-अग्नि के बनो प्रचंड हविष्य
जब कि सभ्यता एक अंधेरी
भीम भयानक जेल –
तोड़ो जेल, भगाओ सबको, भागो खुद भी!!
अपने रंग को खोजो,
हरिया-तोता, आक, धतूरा काम आएंगे .
चट्टानी परतों पर धूप-चिलचिलाहट
भी उपयोगी है !!
पत्थर के थर-के-थर में जो
बंदी हैं करनीले कण-कण

उन्हें निकालो. 

(मुक्तिबोध रचनावली 2 123-124)

यह दिलचस्प है कि यहाँ मुक्तिबोध मैन-होल के प्रतीक के द्विअर्थ खोल रहे हैं. एक ओर तो मैन-होल और उसमें जमा कीच तथा मनों मैल के माध्यम से मुक्तिबोध भारतीय समाज में श्रम के जातीय विभाजन अत: श्रम के सामाजिक-तकनीकी विभाजन की ओर ध्यान दिलाते हैं, जिस ओर मैं तुम लोगों से दूर हूँ कविता में भी वे ध्यान दिलाते हैं, तो दूसरी ओर वे मैन-होल को पूंजीवादी सभ्यता के रूप में भी प्रस्तुत कर रहे हैं जिसके कीच में मनुष्य अपने स्थैतिक आत्म के साथ फंसा हुआ है. गौलडींग के अनुसार भविष्यधारा में मैं तुम लोगों से दूर हूँ जैसा आत्म-निरीक्षण नहीं है. (Goulding 112) 

इसका कारण तो वे स्पष्ट नहीं करते लेकिन हो सकता है कि इसका कारण यह हो कि प्रस्तुत कविता में मुक्तिबोध मैन-होल को साफ करने की बात कर रहे हैं जबकि मैं तुम लोगों से दूर हूँ  में वे स्पष्ट करते हैं कि वे मेहतर नहीं हो सकते अत: वे समाज के सामाजिक-तकनीकी श्रम के विभाजन और उससे जुड़ी उत्पादन-पद्धति की ओर संकेत करते हैं. गौलडींग यह नहीं पहचान पाते की मुक्तिबोध का एक संकेत पूंजीवाद की सभ्यता-समीक्षा की ओर भी है. हालांकि वे यह मानते हैं कि यह मैन-होल आधुनिक शहरी जिंदगी और उसमें अंतर्निहित उत्पीड़न और अंधेरे का प्रतीक भी है. (112) वे यह ध्यान नहीं देते कि मुक्तिबोध के लिए उत्पादन पद्धति भी आवश्यक है जिसका संकेत कविता ही आगे देती है. मनुष्य की कर्मण्यता को पूंजी की उत्पादन पद्धति से मुक्त करने के स्वप्न में मुक्तिबोध वैज्ञानिक और कलाकार के द्वैत के विध्वंस की भविष्यवाणी करते हैं. इस अर्थ में वे यह दिखाते हैं कि विज्ञान मनुष्य की कर्मण्यता की रचनात्मकता का ही अन्य पक्ष है. पूंजीवादी समाज में मनुष्य की कर्मण्यता की रचनात्मकता से अलग विज्ञान तकनीकी और मशीनों के रूप में मनुष्य के विरुद्ध ही खड़ा हो जाता है. अत: यह विज्ञान का जड़ीभूत रूप है. मुक्तिबोध उत्पादन पद्धति के बदलने की भविष्यवाणी करते हैं कि जब श्रम के सामाजिक-तकनीकी विभाजन को तोड़ मनुष्य वैज्ञानिक और कलाकार एक साथ बन सकेगा.


उत्पादन की पद्धति आवश्यक है
धूल-ईंट के सस्ते रंग भी बहुत काम के
कलाकार से वैज्ञानिक फिर वैज्ञानिक से कलाकार
तुम बनो यहाँ पर बार-बार
इन्हीं विविध रंगों द्वारा ही
मन के अपने अभ्यंतर के रूप

कर सकोगे तुम अंकित 

(मुक्तिबोध रचनावली 2 124)

अत: मुक्तिबोधीय फैंटेसी कलाकार से वैज्ञानिक और वैज्ञानिक से कलाकार बनते हुए अन्तर्मन के रूप का अंकन करना चाहती है. अन्तर्मन के रूप का यह अंकन ही अवचेतन की चेतन में मार्ग-रेखा बनाना है (मुक्तिबोध रचनावली 5 33-34) अर्थात यह रचनात्मकता के रूप में अवचेतन की प्रतिशक्ति से  चेतन का स्थानांतरित (displace) होना है. अहं के रूप में व्यक्तिक-आत्म का विसर्जित होना और आत्म का विकेंद्रित होना है. अत: यह पूंजी की जकड़न से रचनात्मकता का मुक्त और उन्मुक्त होना है. कहने की ज़रूरत नहीं है कि कलाकार से वैज्ञानिक और वैज्ञानिक से कलाकार का यह अनवरत सफर दरअसल मुक्तिबोध द्वारा इसी रचनात्मकता की अनवरत अनुसंधान है. मुक्तिबोध अनुसंधान के कवि हैं, आत्मानुसंधान के और इस आत्मानुसंधान में फैंटेसी की महत्वपूर्ण भूमिका है. मुक्तिबोध के लिए यही आत्मानुसंधान सामाजिक रूपांतरण के लिए राजनीतिक पड़ताल को व्यापक बनाता है. यही अनुसंधान मुक्तिबोधीय फैंटेसी को रहस्यवादी फैंटेसी से अलग बनाता है. मलयज मुक्तिबोधीय फैंटेसी के रहस्य को बखूबी पहचानते हैं उनके लिए मुक्तिबोध के बिम्ब रहस्य की रंगारंग छवियों के अंतराल में जीते हुए भी एक औसत अर्थ की निर्मम शिला पर टिके होते हैं. (268) 

उनके अनुसार मुक्तिबोध का रहस्य किसी अबुद्धिवाद या अंतर्क्य अनुभव की ओर संकेत नहीं करता बल्कि यह वातावरण को रचने का आग्रह है. यह रहस्य है क्योंकि जिज्ञासा है, जिज्ञासा ही रहस्य को जन्म देती है. इस रहस्य के मूल में छिपाने की नहीं, तलाश करने की वृत्ति है, टटोलने और मूर्त करने की, भटकाने या उलझाने की नहीं.” (वही 269) वारदात को तलाशने की यह वृत्ति ही मुक्तिबोधीय अनुसंधान है जोकि वारदात के सत्य का सतत् चिह्नांकन करता है. मुक्तिबोध अपनी फैंटेसी में वारदात के सत्य से ज्ञान की सीमाओं को लांघते हुए अज्ञात को ज्ञात के दायरे में लाते हैं. गौरतलब है कि मलयज के लिए भी मुक्तिबोध का रहस्य-दर्शन एक प्रकार की ज्ञान-मीमांसा है. उनकी फैंटेसी एक सृजनात्मक छ्लांग है.(वही) अत: यह कहा जा सकता है कि मुक्तिबोधीय फैंटेसी ज्ञान-उत्तेजना की सतत् पड़ताल है जोकि कला के सत्य का सतत् चिह्नांकन करती है.
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अनूप बाली  
पीएचडी रिसर्च स्कॉलर 
साहित्यिक कला. स्कूल ऑफ़ कल्चर एंड क्रिएटिव एक्सप्रेशन 
अम्बेडकर  विश्वविद्यालय दिल्ली (AUD )
संपर्क: 9873065824, 7011566920
ईमेल: anupbali350@gmail.com


संदर्भ ग्रंथ-सूची
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त्रिपाठी, अवधेश. "मुक्तिबोध: जगत् समीक्षा की हुई उसकी ." कविता का लोकतंत्र. दिल्ली: विद्या बुक्स, 2019. 70-129.
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[i] “‘Desire is desire of the Other’ accentuates the dimension of alienation and places the doubling on the level of desire at the forefront, the relation between the subject and the Other, the fact that there is no subject of desire and that desire is inscribed in the Other; but the axiom also means that ‘desire of’, desire that seems to aim at concrete object, is ‘desire of the other’, desire that seems to aim at the surplus-object.” (Tomšič 116) [Foot Note 46]
[ii] इस पर अधिक पढ़ने के लिए देखें मेरा लेख “The ‘Three Moments of Art’ and Truth-Event: Reflections on Muktibodhian Creative-Process”, इस लेख को प्राप्त करने के लिए निम्न वेबलिंक पर जाएँ।

[iii] परिस्थिति के इस सत्य को हम परिस्थिति के विध्वंस के रूप में देख सकते हैं जोकि  परिस्थिति के असत्यत्व को सामने लाता है। समकालीन फ्रेंच दार्शनिक ऐलन बाद्यु इस प्रक्रिया की व्याख्या Event अर्थात वारदात की दार्शनिक अवधारणा से प्रस्तुत करते हैं। परिस्थिति (situation), बाद्यु के लिए वह पद है जोकि उपस्थित विविधता को दर्शाता है। उसको दर्शाने की प्रक्रिया में वह संबंधित विविधता को एक समरूपी संरचना देता है, जिसे बाद्यु count-as-one का साम्राज्य कहते हैं। (Being AND Event 24) वहीं परिस्थिति के व्यवस्थापन (state of the situation) से उनका अर्थ परिस्थिति का संगठन है, जहां समरूपता की गणना अर्थात count-as-one की पुनर्गणना की जाती है। इस अर्थ में परिस्थिति का व्यवस्थापन, परिस्थिति की संरचना की महासंरचना (metastructure) है। इस अर्थ में उपस्थित विविधता के तत्त्व या अवयव परिस्थिति से संबंधित (belong to) होते हैं तो परिस्थिति का व्यवस्थापन, अपनी महासंरचना में उनका अंतर्वेशन (inclusion) करता है। परिस्थिति, जहां उपस्थित विविधता के तत्वों का प्रस्तुतीकरण करता है, तो वहीं परिस्थिति का व्यवस्थापन उनका प्रतिनिधित्व करता है। (वही 102) इस अर्थ में, परिस्थिति का व्यस्थापन राजनीतिक राष्ट्र-राज्य के सार को अपने में समाहित किए रहता है जिसका लक्ष्य उपस्थित विविधता की समरूपता को अपनी महासंरचना में बनाए रखना होता है। बाद्यु के लिए एकात्मकता वह पद/संबंध (term) है जोकि परिस्थिति (situation) में तो उपस्थित होती है मगर परिस्थिति के व्यवस्थापन (state of the situation) में पुन: उपस्थित नहीं होती या वे उनका प्रतिनिधित्व नहीं करता। बाद्यु इस बारे में लिखते हैं,…..a singular term is definitely a one-multiple of the situation, but it is ‘indecomposable’ inasmuch as what it is composed of, or at least part of the latter, is not presented anywhere in the situation in a separate manner……. This term exists – it is presented – but its existence is not directly verified by the state.” (Being AND Event 99) बाद्यु के लिए, एकात्मकता ऐतिहासिक अस्तित्व की तथा विशेष रूप से वारदात के कार्यस्थल की मूलभूत विशेषता होती है।” (वही, 522) [अनुवाद मेरा] वारदात, एकात्मकता का वास्तविक होना और संबंधपरकता का खत्म हो जाना है। यह गौरतलब है कि मुक्तिबोध भी, विरोधी युग्मों के तर्क के अनुरूप कार्य करने वाले मिथ्या द्वैतों को नकारते हैं। इस बिन्दु पर विचार करने की बजाए कि कर्ता किसी क्रिया को स्वायत्त तरीके से कैसे शुरू करता है बाद्यु इस ओर ध्यान दिलाते हैं कि बदलती हुई परिस्थितियों में क्रियाओं की स्वायत्त श्रृंखलाओं से कर्ता या व्यक्ति (subject) किस तरह उभरता है। (Feltham & Clemens, An introduction to Alain Badiou’s Philosophy 5-6) बदलते हुए हालातों में क्रियाओं की स्वायत्त श्रृंखलाओं को बाद्यु एक विशेष अर्थ में Event कहते हैं, जिसका हिन्दी अनुवाद हम यहाँ वारदात के रूप में कर रहे हैं। बाद्यु की सत्य-प्रक्रियात्मकता की यह अवधारणा मुक्तिबोधीय कला-अभ्यास, आलोचनात्मक-निरीक्षण और विशेषत: रचना-प्रक्रिया में कलात्मक सत्य को समझने के लिहाज से बेहद ही प्रासंगिक है। बाद्यु यह मानते हैं कि बिना वारदात के कोई सत्य उत्पन्न नहीं हो सकता और कला के संदर्भ में, सत्य, कोई कलाकृति नहीं बल्कि वह कलात्मक-प्रक्रिया है जोकि वारदात के द्वारा शुरू होती है। (Handbook Of Inaesthetics 11)

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  1. दृष्टिसंपन्न बढ़िया लेख ।

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  2. Laxman Singh Bisht Batrohi18 जुल॰ 2020, 4:29:00 pm

    अकादमिक शैली में लिखा यह लेख बहुत विस्तार से फैंटेसी के भीतरी संसार को उपलब्ध स्रोतों के जरिये स्पष्ट करता हुआ उसका अतिक्रमण भी करता है. लेखक के पास वह अंतर्दृष्टि है जिसके जरिये वह मुक्तिबोधी-मध्यवर्गीय रूमान से मुक्त होकर नए भारतीय समाज की आकांक्षाओं के दबावों से जन्म ले रहे नए जटिल फंतासी-संसार को परिभाषित कर सके. यूरोपीय परिभाषाओं-गणनाओं के (दुश)चक्र से मुक्त होकर अपनी जड़ों के संसार के बीच से अपनी तलाश. शायद वही मुक्तिबोध का आज के सन्दर्भ में वास्तविक एक्सटेंशन होगा.

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    1. आपकी टिप्पणी के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद सर। दरअसल जब अपने शोध-कार्य का तीसरा और चौथा अध्याय - जोकि मुक्तिबोध के आलोचनात्मक लेखन पर केन्द्रित हैं - लिख रहा था उस समय यह संशय न सिर्फ मेरे मन में बल्कि मेरी पीएचडी समिति के सदस्यों के मन में भी था कि कहीं पश्चिमी चिंतकों और सैद्धांतिकियों के आलोक में अपनी जड़ो और उससे जुड़े हुए मूलभूत प्रश्न पीछे न छुट जाएँ। हालांकि उन अध्यायों में भी सैद्धांतिक स्तर पर ही सही लेकिन सवाल तो उठ ही रहे थे विशेषत: मुक्तिबोध के युग के सांस्कृतिक परिदृश्य के संदर्भ में। लेकिन जैसे ही अगले अध्यायों में मुक्तिबोध की कविताओं और रचनात्मक साहित्य की ओर बढ़ा तो वह पूरी मुक्तिकामी परंपरा ही सामने आ गयी जिसने हिन्दी या हिंदुस्तानी साहित्यिक-सांस्कृति रचनात्मकता को अपने संघर्षों से सींचा है। प्रस्तुत आलेख में भी कबीर और फैज का ज़िक्र उस संघर्ष की ओर संकेत करता है। मेरी कोशिश कुछ हद तक यही थी कि सौदर्य और कला-कर्म पर मौजूदा दार्शनिक बहसों और अवधारणाओ को अपने काम में बाहर से न थोपा जाये बल्कि मुक्तिबोध के रचनात्मक और आलोचनात्मक लेखन में उन सूत्रों को पहचाना जाये जोकि समकालीन दार्शनिक प्रयासों से प्रक्रियात्मक रूप से साम्य रखती है। यह साम्यता यह रेखांकित करती है कि पड़ताल की राजनीति भाषा और पदबंधों के स्तर पर अलग होते हुए भी प्रक्रियात्मक रूप से एकात्मक है और अपनी एकात्मक सार्वभौमिकता से पूंजी की छद्म सार्वभौमिकता को उजागर करती है। बाद्यु के लिए यही कलात्मक प्रक्रियात्मकता है जोकि अपने आप में सत्य है। लेकिन यह भी रेखांकित करना ज़रूरी है कि अपनी जड़ों के व्यापक उत्खनन के माध्यम से ही कला के इस भौतिक सत्य से साक्षात्कार किया जा सकता है।

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  3. शिव किशोर तिवारी18 जुल॰ 2020, 7:05:00 pm

    उच्च कोटि का काम है। मुझे लगता है कि अंग्रेज़ी में जिसे फ़ैटेसी कहा जाता रहा है उसमें ' फ्रेंकेंस्टाइन' से लेकर 'लार्ड ऑफ़ द रिंग्स' तक आते हैं । मूलतः यह कथाएं अतिप्राकृतिक तत्त्व से युक्त होती हैं । यथार्थ के नियम इन पर लागू नहीं होते हैं । यह पाठक के मन में छिपी पूर्णता की कामना को संतुष्टि देती हैं ।
    अंग्रेज़ी आलोचना में इस विधा के अध्ययन का कोई काव्यशास्त्र नहीं है। रोज़मेरी जैक्सन (नाॅरिच युनिवर्सिटी?) ने संभवतः पहली बार इसका शास्त्र विकसित किया। एक पंक्ति में वह यह लाइन लेकर चलती हैं कि फैंटेसी की जड़ें भी वास्तव में होती हैं ।
    लकां और बोर्ड्यू के बारे में मेरी जानकारी बहुत कम है इसलिए मैं कह नहीं सकता कि उनकी लाइन क्या है।

    हिन्दी में विधा के रूप में फ़ैंटेसी लगभग नदारद है। यहाँ फ़ैटेसी एक शैली है जिसका प्रयोग कभी यथार्थ की तीव्रतर प्रतीति कराने के लिए होता है (उदय प्रकाश की कहानी ' तिरिछ') और कभी रूपक निर्माण करने के लिए (मुक्तिबोध की की कविता 'ब्रह्मराक्षस ' और कहानी ' ब्रह्मराक्षस का शिष्य')।

    मुक्तिबोध के लिए फैंटेसी इन दोनों से अलग एक और चीज़ है। डायरी के आलेख ' तीसरा क्षण' में इसका निरूपण है। मुक्तिबोध के अनुसार काव्य-रचना की प्रक्रिया का एक अनिवार्य बिन्दु फैंटेसी है। यह दूसरा क्षण है जहाँ अनुभव फैंटेसी में परिणत होता है। यह काव्यशास्त्र को मुक्तिबोध का मौलिक और साहसिक अवदान है। मुक्तिबोध की रचना-प्रक्रिया की इस अवधारणा को उनकी कहानियों और दो कविताओं- अंतःकरण का आयतन और अँधेरे में - से भी समझना चाहिए ।

    अनूप बाली जी ने 'तीसरा क्षण' पर अंग्रेज़ी में एक लेख लिखा है ऐसा पाद-टिप्पणी में लिखा है। दुर्भाग्य से जो लिंक दिया है वह नहीं खुल रहा।

    मैं इस लेख से प्रभावित हुआ। मेरी लघु टिप्पणी किसी काम आये तो मेरा सौभाग्य ।

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    1. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  4. आपके काम से तो परिचित नहीं अनूप जी मगर इस आलेख की चर्चा मैंने अपने fb वाल पर साधिकार की है।कला के ये तीन क्षण विज्ञान के तीन सार्वभौमिक क्षण से अलग है क्या?जानने की उत्सुकता है।पढ़ने में मेरी रुचि इन दिनों कमती जा रही है इसलिये।

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    1. आप विज्ञान के कौन-से तीन सार्वभौमिक क्षणों की बात कर रहें हैं मुझे मालूम नहीं। इसे थोड़ा स्पष्ट और concrete तौर पर बताएं तो समझने में मदद मिलेगी। जहां तक 'कला के तीन क्षण' की बात है तो मेरा मानना है कि यह आधुनिक हिन्दी में सौन्दर्यशास्त्र पर हुए अध्ययन-लेखन में सबसे उत्कृष्ट मौलिक संकल्पनाओं में से एक है। मुक्तिबोध इस संकल्पना द्वारा न सिर्फ सौंदर्यानुभूति के क्षण को दर्ज़ करते हैं बल्कि उत्पादन के सौंदर्यात्मक मोड की व्याख्या करते हुए द्वद्वात्मक-भौतिकवादी सौन्दर्य पर विचार करते हैं। इस दिशा में मुक्तिबोध बाह्य और आभ्यंतर के सरलीकृत द्वैत को प्रश्नांकित करते हुए आत्म-पक्ष या आभ्यंतर द्वारा वस्तु-पक्ष या बाह्य को भाषा के रूपकीय निरूपण (allegorical manifestation) में प्रस्तुत करने के कलात्मक उद्यम को कला के तीन क्षणों से व्याख्यायित करते हैं। कहा ही जा सकता है कि सौन्दर्य को इस भौतिकवादी दृष्टि से व्याख्यायित करना अपने आप में विज्ञान के समकक्ष है। लेकिन यह कहते हुए प्राकृतिक विज्ञानों, सामाजिक-विज्ञानों और सौन्दर्य संबंधी विज्ञान में फर्क को ध्यान में रखना चाहिए। (हालांकि विज्ञान क्या है इस सवाल से पुन: जूझना भी यहाँ ज़रूरी लगता है।) समकालीन इतालवी दार्शनिक फ्रेंकों बिफ़ो बेरारदी तो सौन्दर्य को विज्ञान ही बताते हैं। उनके लिए सौन्दर्य, त्वचीय या स्पर्शीय तथा विविध बाह्य प्रवाहों के संपर्कों के अध्ययन का विज्ञान है। अपनी निबंध "पोएट्री एंड फ़ाइनेंस' में वे लिखते हैं, “Actually aesthetics is the science dedicated to the study of the contact between the derma (the skin, the sensitive surface of our body-mind) and different chemical, physical, electromagnetic, electronic, and informational flows.” ( 145)

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