कथा - गाथा : नदिया के पार रीमिक्स :आनंद पांडेय

(Courtesy : National Memorial of Peace and Justice in Montgomery)


केशव प्रसाद मिश्र के उपन्यास ‘कोहबर की शर्त’ पर आधारित फ़िल्म ‘नदिया के पार’ पूर्वी उत्तर-प्रदेश और भोजपुरी भाषी इलाकों में बहुत लोकप्रिय हुई थी. ख़ासकर चन्दन और गुंजा का मासूम प्यार तो जनमानस में रच बस ही गया था.

आनंद पाण्डेय की कहानी ‘नदिया के पार रीमिक्स’ की पृष्ठभूमि और कथा-भूमि भी यही है पर इसमें ‘संस्कृति’ के रखवाले भी हैं.
इस कहानी के छोटन और गुड्डी के साथ क्या होता है ?


कहानी प्रस्तुत है.

नदिया के पार रीमिक्स                                          
आनंद पांडेय


रामसनेही मिश्र और सरस्वती के विवाह के कई बरसों तक कोई संतान नहीं हुई थी. वे तीर्थ-व्रत, पूजा-पाठ, मान-मनौती सब करके निराश हो गये थे.

एक सुबह सरस्वती शौच से लौटीं तो उनका जी मिचलाता हुआ घर आया. वे भूल चुकी थीं कि औरतों के जी मिचलाने का कोई और भी कारण होता है. पति को बताईं तो उन्होंने इसे कोई वजन नहीं दिया और नीम की पत्ती चबाने की सलाह दी. दोपहर तक रह-रहकर कई बार कैय के दौरे पड़े.

तीसरे पहर नाउन-ठकुराइन किसी के घर का बैना लेकर आई. वह उनकी सखी थी. उन्हें अनमनी देख कारण पूछ बैठी. कुछ घरेलू उपचार बता चल पड़ी.

द्वार पर मिसिर गाय-भैसों को सानी-पानी दे रहे थे. उन्हें देखकर नाउन की आँखें चमक गईं. परिहास करते हुए बोली— मैं तो जानती थी कि तुम परूआ बैल हो, लेकिन आज लगा बुढ़ापे में भी साँड़ बने फिर रहे हो.

मिसिर ने बिना उसकी तरफ देखे तपाक से जवाब दिया— भौजी, जब तक तुम तिलोर बछिया बनी रहोगी, हम जुआन साँड़ बने रहेंगे. पुट्ठे पर हाथ न फेरा तो यह जनम अकारथ जाएगा. भगवान को कौन मुँह दिखाऊँगा?

नाउन मिसिर के अंग विशेष की ओर इशारा करके बोली— अरे...कनचोदऊ, तुम्हारा कट-कटकर गिरेगा.... तुम्हारे मुंह में कीड़े पड़ें.... कहाँ की बात कहाँ ले जा रहे हो!

यह नाउन का आखिरी अस्त्र होता था. वह उम्र का ख्याल किये बिना गाँव भर के देवरों से परिहास करती थी. उसमें रोते हुए को भी हँसा देनी की कला थी. जब जोड़ बराबरी का मिल जाता तो इसी वाक्य से समापन करती. मिसिर को यह सुनकर सनातन आनंद आया.

जबरदस्त हँसी-मजाक के बीच में उसे खूब संज़ीदा होने भी आता था. हँसी-मज़ाक वह दूर से करती थी लेकिन संज़ीदा होने पर वह व्यक्ति के पास जाकर खड़ी हो जाती थी. वह मिसिर के पास जाकर संजीदगी से बोली— सखी की तबीयत ठीक नहीं है. कह रही हैं मन पनछा रहा है. कुछ दवा दारू का इंतजाम करो. बेचारी अकेली है, देखभाल कौन करे.

हाँ, आज सबेरे से दिक हैं. कुछ दाना-पानी भी नहीं किया.

मिसिर ने इस ढंग से कहा कि जैसे उन्होंने दवा-दारू दे दिया है. जल्दी ही ठीक हो जाएँगी. यह कोई चिंता की बात नहीं है.

नाउन का मुँह थोड़ी देर के लिए खुला रहा. फिर ऐसा मुँह बनाया जैसे उसका विवेक जग उठा हो. थोड़ा साहस करके बोलीभगवान करें, आपकी अँगनइयाँ बधइया बजे. कोई बड़ा नेग-चार लूँगी.

मिसिर का मुँह राख हो गया. अभी-अभी हँसता हुआ उनका चेहरा संतानहीन हो गया.

वह एक क्षण के लिए शर्मिंदा हुई. उसे लगा कि उसने एक क्रूर मजाक कर दिया है. जब औरत-मर्द जवान हों तभी ये मजाक अच्छे लगते हैं. जब तीसरे पन में पैर पड़े हों और आदमी सब कुछ करके निराश हो चुका हो तो यह मजाक मजाक नहीं रह जाता. व्यंग्य बाण बन जाता है. उसको अपनी चूक का अहसास होने में देर न लगी.

मिसिर के सामने रुकना उसे असह्य लगा. वह तुरंत वहाँ से चल पड़ी. पर कुछ दूर चलकर खड़ी हो गयी. यहाँ से उसे कुछ कहना आसान लगा. अपनी चूक को ढँकने के लिए ढाँढस बँधाने के अंदाज़ में बोली— मेरा मन कहता है, अबकी मेरी जबान खाली नहीं जाएगी.

दालान में लेटी मिसिराइन यह सब सुन रही थीं. नाउन का आखिरी वाक्य मिसिर पर काम कर गया. वे तुरंत उनके पास गये. उनके चेहरे पर नाउन की झूठी बातों ने एक चमक पैदा कर थी. मिसिराइन से बोले— सुनी, फुलमतिया की माँ क्या कह रही थी! मिसराइन घृणा से भरकर बोलीं— हरामी जले पर नमक छिड़क रही है. हम न जाने किस जनम का फल भोग रहे हैं. जब हमारा भाग्य ही खोटा है तब लोगों के ताने तो सुनने ही होंगे.


(दो)
नाउन की दूर की कौड़ी सही साबित हुई. मिसिरान को एक-के-बाद एक दो लड़के हुए. बड़ा दिल्ली में नौकरी करता है. उसकी बहू को आज सुबह ही मिचली आई है. मिसिराइन खुशी में पैर नहीं रख पा रही हैं. वे चाहती हैं कि बड़े बेटे की साली को मँगवा लें ताकि बहू को घर के काम-काज से दूर रखकर पूरा आराम दे सकें. वे कहीं से चूकना न चाहती थीं.

वे छोटे लड़के की राह देख रही हैं. लेकिन, लड़का है कि इसके पाँव घर में टिकते ही नहीं हैं. बड़े भाई की शादी में मिली मोटर साइकिल लेकर वह दिनभर यहाँ-वहाँ घूमता रहता है. बाबा की पार्टी के काम से कई-कई दिन घर ही नहीं आता है. हर बात पर सबको गर्व करने के लिए कहता है. चारपायी पकड़े बाप के प्रति उसकी हमदर्दी मानो खत्म ही हो गयी है. कहता है कि इन्होंने हमारे लिए किया ही क्या है! कोई और हमारा बाप बना होता तो हम हवाई जहाज में उड़ते. मिसिर तो कुछ सुन नहीं पाते. सब माँ को ही सुनना पड़ता. माँ  जवान बेटे को टोकने से बचतीं. लेकिन, आज मन-ही-मन वे छोटे के खिलाफ शिकायतों का पिटारा खोल चुकी हैं.

मिसिर पर बुढ़ापे का कहर बरपा है. न आँख से दिखता है, न कान से सुन पाते हैं. ओसारे के एक कोने में चारपायी पर पड़े-पड़े खाँसते रहते हैं. वे आज खुशी और आशंका में इतनी डूब-उतरा रही हैं कि उन्हें मिसिर की सेवा की भी सुध नहीं आयी. इससे वे बहुत क्रुद्ध हो गये हैं. अपनी मृत आवाज़ में गंदी-गंदी गालियों की बौछार से उन्हें भिगोते रह रहे हैं.

छोटन तीन बजे घर लौटा. रोज मिसिराइन उसके नहाने-खाने के पीछे पड़ जाती थीं. आज आते ही उसे खुशखबरी दीं. छोटन खुशी से उछल पड़े. भाभी के पास जाकर खबर की तस्दीक की. पीछे-पीछे मिसिराइन आईं और आदेश दिया कि भैया की ससुराल से गुड्डी को लिवाकर आओ. छोटन खुशी-खुशी तैयार हो गये. सैलून जाकर दाढ़ी-बाल कटवाये. कपड़े इस्तिरी करवाये. ससुराल जाने के सारे ठाट-बाट करके साली को लिवाने चले.

छोटन गाँव से बीस किलोमीटर दूर के एक कॉलेज में बीए की दूसरी साल में थे. दो साल पहले जब भाई की शादी में गये थे तब गुड्डी को देखकर उनके भीतर नदिया के पार फिल्म के चंदन की आत्मा चुपके से घुस गयी थी. वे गुड्डी को गुंजा के रूप में देखने लगे थे. आज उन्हें फिल्म के दृश्य जिन्दगी में उतरते लग रहे हैं. शरीर का ताप बढ़ गया है, शरीर में हल्की-सी कँपकँपी हो रही है. चित्त अस्थिर हो गया है.


(तीन)
दो कमरों, छोटे- से आँगन और बरामदे का एक घर गाँव के हिसाब से शहरी है. रामकिशोर शुक्ल आयुर्वेद के डॉक्टर हैं. खेती-किसानी से कोई वास्ता नहीं. इसलिए उनका घर किसानों के जैसा नहीं था. वे रहनेवाले कहीं और के हैं लेकिन डॉक्टरी के कारण इस गाँव में बस गये हैं. उन्होंने धरती का एक छोटा टुकड़ा खरीदकर यह घर बनवाया और यहीं के होकर रह गये. गाँववालों ने कभी उनके गाँव-घर से किसी को आते-जाते नहीं देखा. शादी-ब्याह में भी नहीं. उनका समाज-परिवार यह गाँव ही था. एक दबी-सी अफवाह थी कि वे एक धोबन को लेकर भाग आए थे. उनकी पत्नी हैं भी एक गुलाबी रेशम की धुली साड़ी की तरह. बेटे की चाहत में एक-एक करके सात बेटियाँ हुईं. सुंदरता में एक-से बढ़कर एक. उन्होंने अपनी सारी बेटियों को अच्छे से पढ़ाया. सायकिल पर बिठाकर जब वे बेटियों को परीक्षाएँ दिलवाने जाते तो लोग हँसते लेकिन अब लोग जलते हैं क्योंकि सात में से पाँच बेटियाँ प्राथमिक विद्यालय की शिक्षिकाएँ हैं. एक को दहेज के लोभ में ससुराल वालों ने जलाकर मार नहीं डाला होता तो वह भी किसी अच्छे पद पर होती. सबकी खाते-पीते घरों में शादियाँ हुईँ. गाँव के और घरों की लड़कियाँ मायके आतीं तो देखकर तरस आता. लेकिन, वैद्यजी की बेटियों को देखने पूरा गाँव जुट जाता. उन्हें देखकर लगता कि ससुराल में भी लड़कियाँ सुखी और खुशहाल रह सकती हैं.

छोटी बेटी गुड्डी सबसे प्रतिभाशाली है. स्कूली बोर्ड की परीक्षाओं में जिला टॉपर रही. अभी बीएससी कर रही है. मेडिकल की परीक्षा की तैयारी भी कर रही है. लखनऊ में बहनोई के यहाँ सालभर रहकर कोचिंग भी कर आई है. किसी शहर ने बहुत कम समय में शायद ही किसी को इतना ज्यादा बदला हो जितना कि गुड्डी को लखनऊ ने बदल दिया है. वह लड़की गयी और व्यक्तित्व बनकर लौटी. अब गाँव में उसका दम घुटता है लेकिन घर की माली हालत ऐसी नहीं कि वैद्यजी उसे शहर में रखकर पढ़ा सकें. वह जल्द-से-जल्द गाँव से उछलकर किसी बड़े शहर में सेटल हो जाना चाहती है. पढ़ाई ही एक ज़रिया हो सकती है, यह मूलमंत्र वह खूब समझती है इसलिए जीतोड़ मेहनत से पढ़ती है. जब कभी माँ उसके किसी व्यवहार से खीझ पड़तीं तो डॉक्टर साहब यह कहकर उसका पक्ष लेते कि एक दिन वह बहुत बड़ी डॉक्टर बनेगी. तुम्हारा घर सँभालने के लिए थोड़ी ही पड़ी रहेगी.

डॉक्टर साहब बरामदे में चारपाई पर लेटे हैं. बगल में कुर्सी पर उनकी धर्मपत्नी बैठी हैं. दोनों आपस में कुछ चर्चा कर रहे हैं. वे हमेशा साथ ही देखे जाते थे. जवानी के दिनों में गाँववाले वैद्यजी का खूब मजाक उड़ाते थे. उनको मेहरा या मेहरबस कहते लेकिन वैद्यजी घर पर रहते तो या तो लड़कियों को पढ़ाते, नहलाते-धुलाते या फिर घर के कामों में हाथ बँटाते. लड़कियों से कोई काम नहीं कराते थे. इस सोच से कि कहीं उनकी पढ़ाई का नुकसान न हो जाये. खाली समय में दोनों परानी आपस में बातें करते रहते.

इतने में एक किशोर मोटर सायकिल खड़ी कर दोनों के पाँव छूता है और मिठाई का एक डिब्बा चारपायी पर रख देता है. दोनों उसे पहचानने की कोशिश करते हैं. लेकिन, जब तक उसे समझ में आता तब तक वे उसे पहचान चुकते हैं.

शुक्लाइन पूछती हैं— का भैया, कैसे आये? सब कुशल मंगल है?
छोटन ने बड़ी विनम्रता से आने का प्रयोजन बताया.
शुक्लाइन ने आँचल पसारकर संध्या माई और भगवान का आभार जताया. एक नाती की सकुशल जचगी की प्रार्थना की. डॉक्टर साहब ने भी मन-ही-मन पत्नी की बातों को दुहराया.

गुड्डी किचन में चाय बना रही है. शुक्लाइन ने किचन से गुड्डी को बुलाया-  आओ, देखो छोटन बाबू आए हैं.

छोटन को उसका बुलाया जाना अच्छा लगा. वह आई. हाथ जोड़कर भैया नमस्ते कहा. भैया कहना उन्हें बुरा लगा. जीजा कहती तो अच्छा लगता. पर गुड्डी जीजा-साले वाले देशी पचड़े से चिढ़ती थी. जब वह अज्ञातयौवना थी तब एक जीजा अक्सर ‘जीजा-धर्म’ का निर्वाह करते हुए उसके देह पर यहाँ-वहाँ हाथ फेरते थे. जब वह पुरुष मनोविज्ञान को समझने लगी तब उस जीजा के व्यवहार का अर्थ समझ में आया और वह सालीपने से चिढ़ने लगी थी. पर, छोटन इस मामले में परम परंपरा-प्रेमी थे. विवाह के समय से ही वे उससे आदर्श ‘साली-धर्म’ के निर्वाह की आशा करते आये हैं लेकिन वह उन्हें अभी तक निराश ही करती आई है. उसने दो साल से उनकी फेसबुक फ्रैंड रिक्वेस्ट स्वीकार नहीं किया है.

माँ ने उसने बताया कि वह मौसी बननेवाली है. छोटन उसे लिवाने आये हैं. बच्चा होने तक उसे बहन की देखभाल करनी है.

उस समय तो उसने कुछ नहीं बोला. पर जब सब खा-पीकर सोने गये तब उसने जाने से साफ मना कर दिया. उसका कहना था, एक तो पढ़ाई खराब होगी. दूसरे वह इतने लंबे समय के लिए नहीं जाएगी. तीसरे दीदी के यहाँ अभी तक टॉयलेट नहीं बना है. वह खेत में शौच के लिए नहीं जा सकती है. चौथे गाँव भर के बूढ़े-जवान, जो जीजा के भाई लगते हैं, अश्लील मजाक करेंगे जो उसे कतई पसंद नहीं है.

रात में माँ के ऊँच-नीच समझाने, सुबह बाप के डाँटने और फोन पर बड़ी बहनों के दबाव बनाने के बाद वह किसी तरह से बेमन से जाने को तैयार हुई.

मान-मनुहार में सुबह का समय निकल गया. गर्मी का दिन था इसलिए डॉक्टर साहब ने दिन उतरने पर जाने के लिए कहा. तब तक गुड्डी को भी अपने कपड़े, किताबें और सामान रखने का समय मिल जाता.

गुड्डी लखनऊ से लाया बड़ा-सा एयर बैग पीठ से लटकते हुए कंधों पर टाँग बाइक के दोनों ओर पैर करके बैठी. माँ को यह अच्छा नहीं लगा लेकिन छोटन को बहुत अच्छा लगा. सरप्राइज खुशी! वे इसके नाना अर्थ लगाने लगे. बाइक गाँव से बाहर निकली तो उसकी गति तेज होनी स्वाभाविक थी. इसमें छोटन का गुड्डी को इंप्रेस करने का प्रयास भी गतिवर्धक का काम कर रहा था. संतुलन बनाने के लिए गुड्डी ने दोनों हाथों से छोटन के कंधों को पकड़ लिया. छोटन का हाल मत पूछिए. उनकी विजयी मुद्रा का सिर्फ़ अंदाज लगा सकते हैं.

वे इस विजय को दर्ज करना चाहते थे और सबको बता भी देना चाहते थे. बाइक रोककर बैठे-बैठे एक सेल्फी ली, जिसमें उनकी इस हरकत की चुटकी लेने के भाव वाला गुड्डी का चेहरा भी था, और फेसबुक पर लगा दिया— कमिंग फ्रॉम भैया की ससुराल विद साली. अपनी इस खुशकिस्मती और उपलब्धि पर ग्रेट ब्रो, झक्कास, लुकिंग ग्रेट भाई, गर्दा दोस्त जैसे सैकड़ों कमेंट्स और लाइक्स की संभाव्यता पर निश्चिंत होकर बाइक स्टार्ट करने ही वाले थे कि गुड्डी ने खुद बाइक चलाने के प्रस्ताव से उनके पैरों के नीचे की जमीन खिसका दी.

वे गुड्डी के प्रति पूर्ण समर्पण का परिचय देना चाहते थे लेकिन एक मर्दाना माहौल में लड़की बाइक चलाए और वे बैठें तो जो देखेगा, क्या कहेगा. उन्होंने इस आशय की बात उससे कही तो उसने बेलौस जवाब दिया-  लोग हँसेंगे तो हँसने दीजिए. मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता. आपको पड़ता है तो पीछे मुँह छिपाकर बैठिए. प्लीज... मुझे चलाने दीजिए.

इसके आगे वे निरुत्तर हो गये. चुपचाप उतर बाइक गुड्डी को दे पीछे बैठ गये. उन्हें लगा कि देवीजी चला-वला पाएँगी नहीं! अभी हार कर अपने ही दे देंगी. लेकिन, जब उसने अनुभवी सवार की तरह बाइक भगानी शुरु की तो उनके पुरुष अहं को थोड़ी झेंप पहुँची. उन्हें क्या मालूम कि गुड्डी की बहुत- सी दबी हसरतों में से एक थी बाइकर बनकर दुनियाभर में भटकना. वह फेसबुक पर कई महिला बाइकर्स को फॉलो भी करती है. किसी-किसी से उसे साथ में चलने के ऑफर भी मिले थे पर वह अभी इंतज़ार करना चाहती है.



(चार)
पुल से होकर नदी पार करते ही सड़क को छेंककर खड़े लोगों के कारण बाइक को रोकना पड़ा. एक लड़का बाइक के सामने खड़ा हो गया. गुड्डी ने बाइक रोक दी. लड़के ने झपटकर चाभी निकाल ली. गुड्डी के दिमाग़ में अनहोनी से घिर जाने का एहसास भर उठा. अपराध की अनगिनत कहानियाँ निचुड़कर उसका निजी अनुभव बन जाने की संभाव्यता से कौंध पड़ीं. वह भय से सिहर उठी. पर संयम बनाये रखा.

छोटन निर्भीक युवा थे. स्कूल-कॉलेज के झंझटी और लफड़ेबाज़ लौंडों के साथ उठना-बैठना था. इधर राजनीति में भी सक्रिय थे. फुर्ती से कूदकर गुड्डी के सामने ढाल की तरह खड़े हो गये. उनका खून खौल उठा. ताव में आकर सवाल-जवाब करने लगे. उनके सामने एक छोटी-सी भीड़ थी. इसलिए उनके अंदाज़ में संयम भी था.

इस तरह के झुंड को ज्यादातर ऐसे लड़के-लड़कियाँ हाथ लगते जो प्रेम में होते और घर वालों के चोरी-छिपे मिलते इसलिए वे पकड़े जाने पर प्रतिरोध नहीं करते. उन्हें डर होता कि बात बढ़ेगी तो घरवालों तक पहुँचेगी इसलिए वे तरह-तरह की यातनाएँ भोगकर और अन्याय सहकर भी कुछ न बोलते. भीड़ का मन जब लड़की के देह से खेलने, नोच-खसोटने से और जोड़े को पीटने से भर जाता तो उनकी गिड़गिड़ाहट और निवेदन देने लायक हो पाता. तब उसमें क्षमा का भाव पैदा होता. उन्हें पाँव पर गिराकर माफ कर देती. और दुबारा ऐसी गलती न करने का वचन लेकर जाने देती. कब से यह रीति चली आ रही थी, यह कहना बड़ा कठिन है.

हाल के दिनों में देश की सांस्कृतिक राजनीति में कुछ ऐसा हो गया था जिससे इन भीड़ों के इस कर्म में हिंसा और देह सुख के साथ-साथ संस्कृति और समाज की रक्षा का दायित्व-सुख भी जुड़ गया था. सरकार ने रोमियो विरोधी दस्ता बनाकर जनता को भी जागरूक कर दिया था. ऐसी भीड़ों में यह जागरूकता सबसे पहले फैली और इसने अपने काम को और अधिक सुरक्षा-भावना से करना शुरू कर दिया था. सुदूर इलाकों में पुलिस की उपस्थिति कम थी इसलिए पुलिस का काम भी इन्हें ही करना पड़ता था. ऐसे माहौल में रोमियो मनचले और मनचले संस्कृति सेवक मान लिये गये थे.

छोटन और गुड्डी आज ऐसे ही एक नव जागरूक और अनुभवी भीड़ के हवाले पड़ गये थे. छोटन और गुड्डन को बदनामी का डर न था. दोनों में कुछ छिपाने को नहीं था. वे प्रेमी जोड़े न थे. उनमें प्रेम करने का अपराधबोध न था. इसलिए उनमें आत्मविश्वास था. उन्होंने झुंड के सदस्यों को दबाव में लेने की कोशिश की. भीड़ तो मान-मर्दन के सुख के लिए ही तो रोज़ शाम इकट्टी होती थी. इसलिए छोटन का निरपराध और सहज प्रतिरोध भीड़ को चुनौती की लगी. इससे झुंड की नैतिक सत्ता और प्राधिकार चौकन्ना हो गया. लड़की के आत्मविश्वास और प्रतिरोध के प्रयासों ने उसे पतिता सिद्ध कर दिया था. ऐसी लड़कियों के रहते गाँव-समाज की लड़कियों के नाम खराब होते हैं. यह बात भीड़ के मन में तुरंत बैठ गयी. झुंड की नजर में यह दंड के सही पात्र थे. वे छेड़ दिए गये नाग की तरह दोनों पर टूट पड़े.
एक ने डाँटते हुए धमकाया— उड़ो मत, अभी बताता हूँ, क्यों रोका हूँ.
दूसरे ने दबाव में लेते हुए पूछा—किसके लड़के हो? तेरा घर कहाँ है?

तीसरे ने इनकी ओर आते हुए न्यायाधीश की मुद्रा और स्वर में आरोप सिद्ध किया— गाँव-देश की बहन-बिटिया हैं, इनकी इज्जत खराब करते हो. छिनरई करते हो... स्साले. इसके बाद सजा देने की बारी आयी. कइयों ने एक साथ छोटन पर थप्पड़ और घूसों की बरसात कर दी.

गुड्डी बाइक को स्टैंड पर लगाने के बाद छोटन को छेंककर बचाने लगी. छोटन पर गिरने के लिए उठे कई हाथ उसके सिर और पीठ पर भी पड़े. पर वह छोटन को एक बच्चे की तरह अपनी छाती में छुपाकर बचाने की कोशिश करती रही. तब तक किसी बलिष्ठ लड़के ने उसके बालों को पीछे से खींचकर उसे खड़ी कर दिया. उसकी पीठ को अपनी छाती से जकड़कर उसके स्तनों को मसलने और उसके नितंब में अपने को रगड़ने लगा. उसके बिखरे काले घुंघराले बालों की महक से वह मोहांध हो गया. पल भर में उसे लगा कि वह उसे बचाकर कहीं दूर लेकर चला जाय. जब तक गुड्डन उसके चंगुल से खुद को छुड़ा पाती तब उसके जैसे कई और उस पर टूट पड़े. तरबूज़ की फाँक जैसे उसके होठों से निकले खून से उसके दाँत लाल हो गये. पता नहीं काटनेवाले के मुँह में खून कैसा लग रहा था. उसके बालों से छूटकर जमीन पर गिरी उसकी गुलाब के फूल की कढ़ाई वाली हेयर क्लिप किसी के पैरों से दबकर टूट गयी थी. प्लास्टिक के टूटे टुकड़े सीसे के फूल के चारों ओर काँटों की तरह बिखरे थे. उसकी कातर चीख-पुकार-दुहाई पर किसी का ध्यान न था. जैसे टूटी क्लिप किसी को नहीं दिख रही थी.

एक थोड़े उम्रदराज लगनेवाले ने सबका ध्यान खींचा और धक्का देकर उसके देह से सबको अलग किया. वे उसके शरीर से किसान के पत्थर से उड़ जाने वाली चिड़ियों की तरह नहीं दूर हुए बल्कि शव-भोज कर रहे गिद्धों की तरह ढिठाई से बमुश्किल अपने कदम पीछे उठाने की तरह हटे. लड़कों के बीच से लड़की को खींचते हुए पूछा—तू किसकी बेटी है रे? गुड्डी के पस्त पड़े मन को यह आदमी रक्षक और सहारे की तरह लगा. उसने उसके प्रति कृतज्ञतापूर्ण भाव से उत्तर दिया.

एक आदमी उसी दिशा से बड़ी हड़बड़ी में आया जिससे गुड्डी और छोटन आये थे. अपनी बाइक खड़ी करते हुए आश्चर्य और वीरता मिश्रित भाषा में बोला— पंद्रह किलोमीटर से पीछा कर रहा हूँ. गाड़ी का पेट्रोल खत्म हो गया था नहीं तो कब का धर लिए होते. हमें तो लगा कि गँड़ुआ नचनिया के पीछे लगाकर बैठा है. ये तो लौंडिया है भोसड़ी के.

भीड़ अब किसी न्याय के उच्चतम मूल्यों के प्रति अत्यंत समर्पित और दायित्वबोध से भरी हुई अदालत बन गयी थी. उसने लड़की के बाइक चलाने और उसके पीछे लड़के के बैठने को उनके पतित और चरित्रहीन होने का सबसे अकाट्य सबूत माना. कोई भली लड़की बाइक नहीं चला सकती, कोई भला मर्द लड़की के पीछे नहीं बैठ सकता! वह इस निष्कर्ष पर पहुँच चुकी थी कि ऐसी ही लड़कियों की देखादेखी पूरे समाज की लड़कियाँ बिगड़ रही हैं. लड़कों का क्या दोष? सुंदर लड़कियाँ खुद ही फँसाती हैं लड़कों को. कोई लड़की जब तक खुद नहीं चाहती तब तक कोई लड़का उसे नहीं फँसा सकता.

झुंड से थोड़ी दूर सड़क के किनारे लेटे हुए एक आदमी ने लड़खड़ाती जबान में आदेश देने के दारोगाई अंदाज में कहा—लाओ, बाँधो छिनरों को. लौंडो, फोन करके रोमियो स्क्वॉड को बुलाओ.

पीछा करते हुए पहुँचे सज्जन को बात गड़ रही थी कि वे एक लड़की की बाइक से आगे न निकल सके. इस खीझ से निजात पाने के लिए उन्होंने अपने रक्षक के सामने फरियादी की तरह खड़ी होकर रोती आवाज़ में गुहार लगाती गुड्डी के नितंब पर पूरी ताकत से लात मारी. गुड्डी का मन हार चुका था. हारे मनवाले शरीर में कितनी ताकत होती? कटे पेड़ की तरह मुँह के बल गिर पड़ी. पीठ पर फिर कई लात पड़े. वह चीख़ से खुद को बचा रही थी. चीख़ ऐसी कि मृतकों में भी करूणा और दया पैदा कर दे.

लड़खड़ाती आवाज़वाले आदमी ने पूरे जोर से पूछा— अरे स्सालो, मार डालोगे क्या?

लड़खड़ाती आवाज़ और गुड्डन की चीखों का असर हुआ कि छोटन की मूर्छा टूटी और वह उसे बचा लेने के लिए उसकी ओर बढ़ना चाहा. इसका असर भीड़ पर भी हुआ. परिणाम के डर से कुछ तो दबे पाँव वहाँ से भाग खड़े हुए. जो ज्यादा ढीठ और साहसी थे वे गुड्डी को छोड़कर छोटन को घेर कर खड़े हो गये. एक अनुभवी लगनेवाले व्यक्ति ने छोटन से पिता का नाम पूछा. नाम से जाति का पता चल गया. पता चलते ही अब तक का उसका बना-बनाया संतुलन खराब हो गया. वह अब तक शाकाहार का सेवन करता आया था. अचानक उसे मांसाहार की तलब लगी. उसने उछलकर छोटन की कमर के नीचे के हिस्से पर डंडे से पीटना शुरु कर दिया. साथ में दंडित करनेवाली आवाज़ में गालियाँ बरसा रहा था—  ब्राह्मण होकर ये सब करते हो. हम लोग पैलगी करते हैं और तुम स्साले नाम खराब करते हो... सटाक्. नाम खराब करते हो... सटाक्.

लड़खड़ाती आवाज़ में फिर सुनायी दिया— अरे स्सालो, मार डालोगे क्या?

जो गिद्ध अब तक गुड्डी को लहूलुहान करके समूह भोज का आनंद उठा रहे थे वे सहसा छोटन पर टूट पड़े.

वैद्यजी की राजदुलारी एक तरफ अचेत पड़ी थी. तो बहुत मान-मनौती के बाद अधेड़ावस्था में मिसिरजी को बाप का सुख देनेवाले छोटन दूसरी तरफ. दोनों को साँसे तकलीफ दे रहीं थीं लेकिन दोनों की चेतना की लीला अभी न रूकी थी. शाम की ठंढी हवा से गुड्डी के खून में सनने से बच गये सिर के एक हिस्से के बाल बल खा रहे थे. भौंरों जैसी काली बड़ी-बड़ी आँखें कठोर धरती की छाती में अधखुली निष्कंप गड़ी हुई थीं.

एक लड़का पूरे मनोयोग से वीडियो बना रहा था. उसने उकसाया कि दोनों को कमर से नीचे नंगा करके लड़के को लड़की के ऊपर लिटा दो ताकि वीडियो ज्यादा-से-ज्यादा शेयर हो. दो लड़कों ने यह काम पूरा किया. गुड्डी और छोटन दो जिस्म एक जान के रूप में पेश किये जा चुके थे.

लड़खड़ाती आवाज़ में किसी ने कहा पुलिस आ गयी. दो-चार मुँहों से एक साथ निकला— आने दो. कौन-सा गलत किया है. दूसरे ने कहा, पुलिस के हाथ लग जाते तो क्या हल्दी-दूब से चूमती... फिर भी भीड़ में अपराधबोध और कानून के भय की एक लहर ने उसे पल भर में अदृश्य कर दिया.

कुछ तमाशबीन अभी उन्हें घेरे खड़े थे. ये मारनेवाले नहीं थे. सिर्फ़ देखनेवाले थे. इसलिए ये किसी दंड के भय से बचे हुए थे. ये लोग सिर्फ तमाशा देख रहे थे लेकिन मन-ही-मन कभी दुख, कभी खेद भी  महसूस करते थे. लेकिन, इन्हें बचा लेने का भाव उनमें न आया.

मारनेवाले उन्हें अमर समझ रहे थे. उतरते अंधेरे के एकांत में वे उन्हें बेहोश जानकर छोड़ भागे थे. ताकि किसी अनहोनी का जिम्मा उन पर न आये. वे उनकी जानें नहीं लेना चाहते थे. वे तो सिर्फ मनोरंजन के मकसद से दिनभर खेती-बाड़ी के काम के बाद शाम में यहाँ इकट्ठा होते थे. उनका जीना ऐसे ही था जिसमें ऐसे काम अजूबे नहीं थे.

गुड्डन-छोटन के शरीर समाज के उच्च नैतिक स्तर के स्मारक की तरह अचल पड़े हुए थे. कोई कहता लगता है मर गये, कोई कहता अभी साँसें चल रही हैं.

यदि उन्हें इस जगह न रुकना पड़ा होता तो थोड़ी दूर बाद उन्हें खेतों और बागों से भरा रास्ता मिलता. कुछ वैसा ही जैसा ‘नदिया के पार’ में था. जहाँ रूककर चंदन ने गुंजा से पूछा था— हम आपके हैं कौन?
                             

(पांच)
रात उतर आयी है. मिसिर की साँसे लंबी हो रही हैं. गले से घर्र-घर्र की आवाजें आ रही हैं. चारपायी से उतारकर उन्हें जमीन पर लगे बिस्तर पर लिटा दिया गया है. गाँव भर के लोग इकट्ठा हो गये हैं. पास के कुछ रिश्तेदार भी आ गये हैं. बड़कऊ को फोन पहुँच गया है, वे चल चुके हैं. छोटन का फोन बंद आ रहा है. शुकुलजी ने बताया कि वे टाइम से निकल गये थे. उन्हें अब तक पहुँच जाना चाहिए था. सरस्वती पति के पास जमीन पर पस्त हैं. छाती पीटपीट कर विलाप कर रहीं हैं. कुछ महिलाएँ उनको सँभाले हुई हैं. नाउन बीच-बीच में उनकी साड़ी ठीक कर देती. उधर छोटन के आने में देरी की वजह से उनकी कलप दुगुना हो गयी है. यमराज उनका प्राण दोनों ओर से नोंच रहे हैं. मन में बड़ी कसक है, दोनों लड़के बाप का मुँह नहीं देख पा रहे हैं.

गोदान कराया गया. मुँह में गंगाजल डाला गया. मिसिरजी निर्मोही की तरह सबको रोत-कलपता छोड़ चले गये.

गाँव के बड़े-बुजुर्गों ने बेटों के आने के बाद ही दाह-संस्कार करने का फैसला किया. इसलिए पूरी रात और अगले दिन कम-से- कम दोपहर तक माटी की रखवाली करनी थी.

पुलिस ने लाशों को कब्जे में लिया और बाइक की डिक्की तोड़कर कागज निकाला. गाड़ी वैद्यजी के नाम-पते पर थी. एक सिपाही उनके पास दौड़ाया गया. वैद्यजी ने लाशों की पहचान की. वे छोटन के शव को घर खबर नहीं पहुँचा पाए. न उनके घर इत्तला कर पाये. बेटी का शव लेकर घर चले गये.

बड़कऊ आ चुके थे. बड़े पुत्र के नाते अंतिम क्रिया और कर्मकांड में उलझे हुए थे. सूर्यास्त से पहले-पहले मुखाग्नि देने की हड़बड़ी थी. शव उठने ही वाला था कि पुलिस की एक गाड़ी रूकी. सही पते की पुष्टि के बाद कुछ लिखा-पढ़ी हुई. गाड़ी से एक शव उतारा गया. एक और शव देखते ही वज्रपात हो गया. चारों ओर फिर से चीख-पुकार मच गयी. मिसिर परिवार के सात दुश्मन भी रो पड़े.

मिसराइन फिर से अचेत हो गयीं. बड़कऊ और उनकी पत्नी भी होश में कहाँ थीं? ग्राम प्रधान को पुलिस ने एकांत में बुलाकर पूरी घटना के बारे में बताया. प्रधान ने पुलिस की बात को एकाध खास लोगों को बताया. पल भर में यह बात फैल गयी कि छोटन भाई की साली के साथ खुलेआम गलत काम कर रहे थे. राहगीरों की मार से मौत हुई है. यह बात फैलते ही रोना-धोना कम हो गया. जितने मुँह उतनी बातें होने लगीं. नाउन ने कुछ महिलाओं को इस तरह की खुसुर-पुसुर करते सुना तो बिगड़ पड़ी— जा माता, अपने ही आँगन का पौधा न पहचान पायीं? हमार छोटन ऐसा न था. बड़ी तपस्या से आया था. चिड़िया-सा फुर्र हो गया. बेबस हाथ मलते रहिए. अलोप हो गया.

कुछ समझदार लोगों ने बाप के शव से एक कफन उतारा, बांस काटकर एक टिक्ठी सजायी और एक साथ दोनों शवों को लेकर श्मशान की ओर चल पड़े. बड़कऊ कभी बाप को कंधा देते, कभी भाई को.

अभी तक चौबीस घंटे भी न हुए थे कि वह वीडियो गाँव के एक लड़के के पास पहुँच गया. उसने श्मशान पर ही कुछ लोगों को दिखाया. थोड़ी ही देर में वीडियो कई मोबाइलों में पहुँच गया. सामने जलती लाशों से के प्रति रीति-रिवाज को छोड़ लोग झुंड-के-झुंड वीडियो देखने लगे. वीडियो से छोटन के गलत काम की पुष्टि हो चुकी थी. जितने लोग बोल रहे थे उन सबका यही विचार था कि अच्छा ही हुआ. ऐसे पापियों के साथ ऐसा ही होना चाहिए. कुछ लोग जरूर किसी भी हालत में इस पर भरोसा नहीं कर पा रहे थे. जो लोग कुछ नहीं बोल रहे थे, वे किसी को बेमौके पर इस तरह की बात करने से रोक भी नहीं रहे थे.  

बाप के शव के बगल में जल रही छोटन की लाश सचमुच घृणा की ज्वाला में भस्म हो रही थी.
________________
आनंद पाण्डेय
(अम्बेडकर नगर, 15 जनवरी 1983) 
'पुरुषोत्तम अग्रवाल संचयिता' का ओम थानवी के साथ सह-संपादन तथा ‘सोशल मीडिया की राजनीति' नामक पुस्तक का संपादन. 'लिंगदोह समिति की सिफारिशें और छात्र राजनीति' नाम से एक पुस्तिका प्रकाशित.
सम्पर्क
174-A, D 2 area, राष्ट्रीय रक्षा अकादमी, पुणे
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  1. आनंद को ढेर सारी बधाई। बहुत अच्छी कहानी लिखी है । मैं एक साथ में पूरी पढ़ गया।

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  2. इस कहानी में लोकभाषा जीवित है जो कहानी को स्वाभाविक बनाती है ।

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  3. बहुत ही अच्छी कहानी व वर्तमान सामाजिक राजनीतिक वातावरण पर एक कुठाराघात

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  4. हमारा समाज जिस तरह हिंसक घृणा को पोस रहा है, उसकी डरावनी रिपोर्ट है यह कहानी, काश यह केवल कल्पना भर होती

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  5. मनोज पांडेय1 जुल॰ 2020, 7:53:00 pm

    Sundar par daravni kahani... Yatharth jis gati se bhayav ho raha hai usme romance k liye jagah din par din kam hi hoti jani hai... Sab taraf hatyare ghoom rahe hain...

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  6. व्यवस्था व्दारा परोसे गये culture ने पिछले कुछ वर्षों में नंगा नाच ही दिखाने का प्रयास किया है। यह भयावहता की पराकाष्ठा का प्रतीक बन चुका है। समाज की जड़ों को कमज़ोर करने की साजिश के तहत भी इसे देखा जाना चाहिये।

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  7. मैंने comment कि या किनन्तु वह unkown name हो गया।

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  8. कहानी वर्तमान समय के यथार्थ से हमारा परिचय कराती है। समाज में बढ़ती दिन प्रतिदिन की हिंसा और स्त्री पुरुष के सहज मानवीय रिश्ते को अपने तरीके से विश्लेषित कर स्त्री को वस्तु के रूप में तब्दील कर देने वाले, सामंती जनसमूह अथवा भीड़ के मनोविज्ञान को गहराई से पकड़ती है। कहानी की सबसे बड़ी विशेषता उसका फ्लो है, प्रवाह जो शुरू से लेकर अंत तक बना रहता है। वह पाठक को बांधता है। नदिया के पार रीमिक्स एक तरीके से हमारे समय का पाठ है, जिस समय में हम जी रहे हैं। जैसे एक ताप लोगों के मन में निरंतर बना हुआ है, वह कभी भी हिंसा का रूप ले सकता है। उनकी अपनी कुंठाएं, हताशाएं किसी पर भी हिंसा के रूप में टूट पड़ेंगी।
    काश यह कहानी, कहानी होती। मगर यह हमारे समय का भयावह सच है। आनंद पांडे उस यथार्थ को पकड़ते हैं, जो बेहद त्रासद है। कहानी की यही सफलता है।
    हमारे समय में एक जरूरी हस्तक्षेप।








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  9. राहुल द्विवेदी2 जुल॰ 2020, 11:06:00 am

    कल ही यह कहानी पढ़ी । मन विचलित हो गया । कुछ लिखने की स्थिति मे न था । इस कालखण्ड में रची हुई एक निर्मम (?) कहानी है यह । प्रेमचंद के कफन से तुलना करूँ तो इस कहानी का ट्रीटमेंट "कफन"से भी ज्यादा विचलित करने वाला है ••••। आनन्द जी को बधाई दूँ या सम्वेदनाएँ , समझ न आ रहा ।मुझे पक्का यकीन है कि इस कहानी के सृजन के बाद वह भी सो तो न पाये होंगे ••

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  10. 'नदिया के पार रीमिक्स' कहानी बिल्कुल यथार्थवादी शैली में लिखी गई है। सचमुच गांव का हास-परिहास और दूसरों को दंड देने की तीव्र उत्कंठा बिल्कुल ऐसे ही होती है; जैसा कहानी में चित्रित किया गया है। 4 खंडों में बंटी इस कहानी का पहला और दूसरा खंड कहानी का मजबूत प्लाट तैयार करता है। मूल कहानी तीसरे और चौथे खंड में है। यह कहानी प्रेमचंद की शैली में लिखी गई है। बीच-बीच में अवधी शब्दों (कय, परूआ, तिलोर, परानी) के प्रयोग से अवधी माटी की सुगंध आ रही है। कहानी पढ़ते समय मैं कई कई मनोदशाओं से गुजरा। 'छोटे इस मामले में परम भारतीय थे' जैसे वाक्यों ने काफी हंसाया। छोट्टन की हरकतों से लौंडपन की बू आ रही है। अक्सर इस उम्र के लड़के बाइक चलाने, सुंदर लड़की के साथ सेल्फी लेने, किसी से प्रेम करने जैसे गहरी इच्छा को पाले रहते हैं। रामकिशोर शुक्ल और उनकी पत्नी का चित्रण एक आदर्श माता-पिता के रूप में किया गया है। गुड्डी का चित्रण सपनों को अपनी चाहत बना लेने वाली एक जागरूक लड़की के रूप में हुआ है। यह कहानी मूलतः छोट्टन और गुड्डी की कहानी है। अगर वह दर्दनाक घटना न घटी होती तो कहा नहीं जा सकता है कि आगे उनकी कोई कहानी बनती भी या नहीं। गुड्डी ने अपनी तरफ से सारे दरवाजे बंद कर रखे हैं। वह उनको भैया कहकर संबोधित करती है, सालीपने से चिढ़ती है और फ्रेंड रिक्वेस्ट तक स्वीकार नहीं करती है। इसे हम एकतरफा रोमांस कह सकते हैं।
    इस कहानी का तीसरा और चौथा खंड हमें सोचने पर मजबूर कर देता है। कहानीकार अंत में पाठक को ऐसी स्थिति में छोड़ देता है जिसमें वह न हंस सकता है और न रो सकता है। एक अच्छी कहानी वही होती है जो हमें सोचने पर विवश कर दे। यह कहानी पाठक को बहुत गहरे स्तर तक सोचने पर विवश कर देती है। पाठक को सारी सच्चाई पता रहती है लेकिन यह सच्चाई भीड़ को पता नहीं है और न ही वह पता करना चाहती है। उसे तो बस इस तरह की अपराधिक गतिविधियों से यह आत्मसंतुष्टि मिलती है कि वह नेक काम कर रहा है। शव जल रहे हैं जबकि लोग वीडियो देखने में भाव विभोर हैं। लड़की लड़का साथ हैं तो वह कुछ गलत ही कर रहें हैं या करेंगे और उसको रोकना भीड़ का धर्म है और यह सोचकर तुरंत गुंडों की भूमिका में आ जाना; यह हमारे समाज का एक कडवा सच है। लेखक इससे बचने का कोई प्रयास नहीं करता। सबसे सशक्त और प्रभावशाली चरित्र गुड्डी का ही है। मंटो ने कहा है जिस कहानी में आप न हों, उस कहानी को आप कह भी नहीं सकते। इस कहानी में कहानीकार हमारे साथ स्टोरी टेलर की भूमिका में बराबर बना रहता है। इस कहानी में उसी समाज में रह रहे प्रगतिशील सोच से संपन्न रामसनेही शु्क्ल जैसे लोग भी हैं जो पिछड़ी सोच के छुप्प अंधेरे में दीये की तरह टिमटिमा रहे हैं।
    एक संवेदनशील कहानी के लिए आपको ढेर सारी शुभकामनाएं!

    डॉ. अवधेश कुमार पान्डेय

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  11. https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=3235085276513698&id=100000367737131

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    1. डॉ. शिवदत्ता वावळकर3 जुल॰ 2020, 7:46:00 pm

      भाई आंनद पांडेय जी ने बेहतरीन कहानी लिखी है। इसे हमने फेसबुक पर भी शेअर किया है।

      हटाएं
  12. भाई Anand Pandey द्वारा लिखित कहानी 'नदिया के पार रीमिक्स' पढ़ी। एक समय था जब केशव प्रसाद मिश्र के उपन्यास ‘कोहबर की शर्त’ पर आधारित फ़िल्म ‘नदिया के पार’ अत्यंत लोकप्रिय हुई थी। विशेषकर पूर्वी उत्तर-प्रदेश और भोजपुरी भाषी क्षेत्रों में चन्दन और गुंजा के मासूम प्यार ने जनमानस का दिल जीत लिया था। ठीक उसी पृष्ठभूमि के तर्ज पर आनंद पाण्डेय द्वारा सृजित कहानी ‘नदिया के पार रीमिक्स’ की भी कथाभूमि रोचक और आकर्षित करती है। इस कहानी में 'संस्कृति' संवर्धन के नाम पर छोटन और गुड्डी के साथ होनेवाले व्यवहारों का सामाजिक परिदृश्य विभिन्न घटना-प्रसंगों के माध्यम से उभारा गया है।

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  13. जिस समय और समाज में प्रेम करना 'अपराधबोध' बन जाये, जिसमें 'घृणा की ज्वाला में' सारी मनुष्यता, कोमलता और आत्मीयता चटचटा कर भष्म होने लगे, जिसमें कोई भी सुरक्षित न रह जाये, कभी भी कोई भी शिकार हो जाये- ऐसे भयावह और क्रूर समाज के निर्मिति को रेखांकित करती कहानी है- 'नदिया के पार रीमिक्स'।

    प्रिय मित्र Anand Pandey ने परकाया प्रवेश के ज़रिए गली कूचे में मिलने वाले अपराधियों के मन और विचार को बहुत गहराई से उकेरा है।

    अब ऐसे अपराधी, जाति और वर्ग की सीमाओं से परे जाकर अपनी क्रूर कुंठा का घिनौना रूप दिखलाने लगे हैं। कहानी इसे विशेष रूप से रेखांकित करती है कि अब 'संस्कृति की रक्षा' का भार केवल सवर्णों के ही जिम्मे नहीं रह गया है। उसका विस्तार हुआ है। कहानी में ब्राह्मण जाति की जानकारी होने पर कहानी के पात्र छोटन पर 'संस्कृति के रक्षकों' की क्रूरता और बढ़ जाती है।

    आनन्द भाई ने कहानी कहने की कला और मुहावरे को बड़ी बारीकी से निभाया है।

    कहानी विचलित करती है। और शायद, यही इस कहानी की ताकत है।

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  14. जिस समाज में गुंडे मवाली और कुंठित लोग संस्कृति का ठेका लेकर परंपरा के नाम पर गोरक्षक बन जाते हों, वहाँ ऐसा ही होता है। कहानी में जो हुआ वो किसी के साथ भी हो सकता है।

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  15. डॉ अविनाश कुमार उपाध्याय,
    प्राध्यापक फ्रेंच भाषा एवं साहित्य

    नदिया के पार फिल्म की पृष्ठभूमि से संबद्ध यह कहानी पुरातन से नूतन सामाजिक समस्या की तरफ ले जाती है। इस कहानी का अंत दुखद जरूर है लेकिन यह कहानी सीख दे जाती है। ऐसा लगता है कि हम आज भी अपनी पुरानी रूढ़िययो और विसंगतियों से युद्धरत हैं।

    कहानी के लेखक को साधुवाद। मॉब लिंचिंग के जीवंत उदाहरण से कहानीकार ने इस कहानी में आजकल की सामाजिक विवशताओं को दिखाया है कि कैसे हम बिना कुछ जाने समझे अफवाह और घृणा के आधार पर आदमखोर बन जाते हैं।
    इस कहानी में आज के ग्रामीण भारत की हिंसक और प्रेम विरोधी संस्कृति की एक झलक मिलती है।

    भाषा में प्रवाह है। एक कहानी पढ़ने का जो सुख या उद्देश्य होता है उसे् यह पाठक को देती है। गुड्डी का चरित्र एक सशक्त स्त्रीत्व को दर्शाता है। यह चरित्र लम्बे समय तक पाठक के मस्तिष्क पटल पर जागृत रहेगा।

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  16. बहुत डूब कर लिखी गई कहानी।

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  17. पढ़ना कई बार महज पढ़ना नहीं होता। वह अक्सर हमारे आस पास घट रही चीजों का पारदर्शी होना भी होता है। इस कहानी का रचना समय 2016-17 के आसपास का है। मैं इस कहानी के पहले पाठक होने की खुशफहमी पाल सकता हूं। अगर मुझे ठीक से याद है तो आनंद जी से कहानी के शिल्प और कंटेंट को लेकर तकरीबन एक डेढ़ घंटे बातचीत हुई थी। और हस्बेमामूल यही वही समय था जब एक फासीवादी सरकार नई नई सत्ता में आने के अपने 2 साल पूरे कर रही थी। पूरे देश में कथित तौर पर मुसलमानों की लव जेहाद के नाम पर मॉब लिंचिंग हो रही थी। उत्तर प्रदेश में एक तथाकथित महंत मुख्यमंत्री बन बैठे थे और कुर्सी पर बैठते ही प्रदेश भर में एंटी रोमियो स्कवायड का गठन किया था। गांव में घेर घेर कर मुस्लिम लड़कों को पकड़कर उन्हे सबक सिखाया जा रहा था। इस पार्टी के घोषित लुंपेन देश में घूम घूमकर गौ मांस के नाम पर लोगों के रसोईघर चेक कर रहे थे। इस कहानी का वितान अपने समय के इन रेशों की कीमियागिरी में बखूबी संप्रेषित हुआ है। यह संयोग हो सकता है कि इस कहानी के ठीक बाद कश्यप की फिल्म मुक्काबाज अाई। फिल्म का कलेवर भी वही है जो इस कहानी का है। दूसरी महत्वपूर्ण बात इस कहानी के संदर्भ में यह है कि आलोचना और राजनीति के बरक्स इस कहानी की रचना धर्मिता पर बात होनी चाहिए क्योंकि कहानीकार की यह पहली कहानी है। जिसने यह कहानी पढ़ी है वह बखूबी इस बात को समझेंगे कि मैं क्या कह रहा हूं...?? खैर कहानी पर और बातें होंगी, अभी फिलहाल...इति।

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  18. जगन्नाथ दुबे5 जुल॰ 2020, 1:24:00 pm

    आनंद पांडेय की कहानी 'नदिया के पार रीमिक्स' हमारे समय के यथार्थ का विद्रूप चेहरा उपस्थित करती है। कोहबर की शर्त जिन्होंने पढ़ा होगा , जिन्होंने नदिया के पार नाम की फ़िल्म देखी होगी, या जिन्होंने यह दोनों किया होगा वे इस कहानी को पढ़ते हुए इसकी समय सापेक्षता को और बेहतर तरीके से समझ सकेंगे।

    हिंदुस्तान की सामाजिक-संरचना में जिस तरह बदलाव हुए हैं उन बदलाओं को उपन्यास, फ़िल्म और उसके बाद इस कहानी को पढ़ते हुए आप समझ सकेंगे। असल में यह कहानी नदिया के पार की ख़ूबसूरत जोड़ी का उत्तर जीवन है जो इस कहानी में उक्त जोड़ी के प्रारंभिक जीवन के रूप में दर्ज हुआ है।

    पिछले दिनों में संस्कृति,राष्ट्र और राष्ट्रप्रेम के नाम पर जिस तरह की हिंसक मानसिकता को विकसित किया गया है उसने हिंदुस्तान के मानवीय मूल्यों को नष्ट करने में सबसे अहम भूमिका निभाई है। यह कहानी उसी भूमिका का बयान है।
    मैं किसी रचना के लिए व्यक्तिगत आग्रह नहीं करता पर इस कहानी के लिए मेरा आप सभी से आग्रह है कि इसे एकबार जरूर पढ़ें। कहानी छोटी है पर कथ्य बड़ा है। हमारे समाज की सच्चाई को एक कहानी के शक्ल में लिखने के लिए आनंद जी की हार्दिक बधाई।

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  19. कहानी का प्लॉट कमाल का है। वर्त्तमान समय का हस्तक्षेप है कहानी में।
    कहानी की बुनावट में तनिक कमी ज़रूर लगी मुझे लेकिन कहानी हम तक स्वीकार्य हुई।
    ये कहानी का सकारात्मक पक्ष है।
    संपादक महोदय से अनुरोध है कि एक लाइव बातचीत आयोजित करें। कहानी कई पक्षों पर बातचीत की मांग कर रही है। संपादक महोदय के प्रतियुत्तर का इंतजार है।

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  20. बहुत ही शानदार प्रस्तुतीकरण, वर्तमान और अतीत को समेटे हुए बेहद ही संजीदगी पूर्वक इसे लिखा गया है,

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  21. Anand Pandey dvara likhit 'Nadiya k Paar remix ' Bahu gahrai se likhi gyi kahani . Prastut kahani me Sanskriti k naam pe Ho rhe hinsak ghrina Ko atyant marmik dhang se darsaya gya hai.

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  22. सरस ओर सहज कहानी ,देशज कहानी के धर्म का निबाह करती हुई एक राजनीतिक कटाक्ष है ।लेखक की पहली कहानी होने के नाते कहीं कहीं कसाव की कमी है ,प्रयास सराहनीय है ,आगे कुछ बेहतरीन कहानिया पढ़ने को मिलेगी ,इस उम्मीद में।
    नादिया के पार फ़िल्म से परिचय बचपन में माँ के द्वारा हुआ,उनकी पसंदीदा फ़िल्मों में से एक ओर इस के गाने गुनगुनाती हुई माँ हमेशा अच्छी ओर सुंदर दिखती । शायद हम सब परिवार के साथ रह कर गूंजा ओर चंदन की थोड़ी कहानी महसूस किए हो ।ख़ैर बात अब इस रीमिक्स की तो गुड्डन ओर छोटन दोनो के सपने नदी की बहती हुई धार के दो किनारे है ।जो साथ बहते मिलते नहि ।धार ये समाज है जो आज बदल गया जिसने बहुत ही निर्मम तरीक़े से झूठे अहंकार के लिए इन्हें मिला दिया ।बेजान शरीरों के साथ जो क्रूरता हो रही है वो मन को झिकझोड दे रही है ।कहानी का पहला भाग बहुत ही ख़ूबसूरत है ।भाग चार थोड़ा कसाव की माँग करता है ।

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  23. ' Nadiya k Paar remix ' is a prose friction . The story is a crafted form in its own right . This particular story has deep roots and the power of friction has been recognised in our so called "modern society "for hundreds of year .Overall the story writer has delineated the violent fall which is often commited in name of Society....
    As per as my view story is worth reading once ...

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  24. आंनद पांडेय जी ने अपनी प्रवीणता का प्र्रदर्शन अच्छी तरह से किया है।

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  25. आपकी यह कहानी जीवन का आत्मबोध करती है

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  26. कहानी को नए स्वरूप में बहुत ही सुंदर और रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है गोया कि किसी मजे हुए कहानीकार की कृति है।अंत की घटनाओं से कहानी अत्यंत दुखान्त हो जाती है जो कि समाज के एक वर्ग के चरित्र के कटु यथार्थ को प्रतिबिंबित करती है और अन्ततः पाठक के मन में वितृष्णा और विषाद की स्थिति उत्पन्न करती है।

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  27. प्रत्येक समाज और पीढ़ी अपनी परिवर्तित परिस्थितियों के संदर्भ में नए मूल्य स्वीकार करती है इसकी प्रतिक्रिया बृक्ष की भांति है जो सतत विकास करती है।
    इस कहानी को कहानीकार में बाल्यावस्था के प्रेम को अत्यन्त सूक्ष्म स्तर तक ब्यक्त किया है आज की सबसे बड़ी जन क्रांति प्रेम सम्बन्ध की है जिसकी एक नई झांकी निरूपित हैं।।

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  28. सामन्ती कालखंड के प्रवेश में रचित कहानी तथाकथित भौतिकता के विकसित गाँव की पृष्ठ भूमि और कहानी की मुख्य पात्र गुडिया के सपनों का दर्दनाक अंत कितना दूषित है । इससे स्पष्ट झलकता है कि आज दौर में मुखर स्त्रियों को कैसी कैसी अकल्पनीय चुनौतियों का सामना करना पड़ता है अकल्पनीय है ।
    नारी सशक्तिकरण पर मौजूदा हालात कैसे है इस पर कहानी और अधिक दिलचस्प हो जाती है । राज्य विशेष की सरकार का मंद वैचारिक रुख और रूपरेखा देश को किस ओर ले जायेगी यह विमर्श और भी महत्व पूर्ण है ।
    बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ का खोखला स्वर मध्यम वर्गीय परिवारों की प्रतिभावान बेटियों के चाँद पर विजय करने का स्वप्न ध्वस्त होने की प्रक्रिया कह सकते है । पितृ सत्ता का कुरूप चेहरा आज भी जीवित है, जहाँ प्रकाश की किरण होनी थी वहाँ 21 वी सदी भारत विषैली गैस की हवा के गुब्बारों में उड़ाया जा रहा है ।

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  29. Kudos Anand ji

    इन 25 साल में नदियों के साथ क्या-क्या हुआ, पता नहीं। गंगा के पाट संकरे हो गए। गंडक और भी बूढ़ी लगने लगी। दिल्ली-पटना रेल मार्ग में कोइलवर में बना सोन नदी पर लोहे का पुल। लाखों लोगों ने इन पच्चीस साल में नदियों को पार किया होगा। लकिन इनमें से जिसने भी ‘नदिया के पार’ देखी होगी, भूल नहीं पाया होगा। जब 1में फिल्म देखी थी तो उस वक्त लड॥कपन में फिल्म देखते वक्त रोन की आदत थी। रो तो अब भी देता हूं, मगर चंदन और गूंजा की बातों न कहीं ज्यादा रुला दिया था। पटना का सिनेमा हॉल था। शायद राजधानी का गौरव अशोक में ही लगी थी। मोहल्ला का मोहल्ला रिक्शा में बैठकर नदिया के पार देखने जाता था। जो भी लौटता चंदन और गूंजा को साथ लिए चला आ रहा था। कितनी चाचियों और कितनी दीदियों ने गूंजा के लिए आंसू बहाये होंगे, अब भी याद है। मोहल्ल की लड़कियां यही बात करतीं कि गीता दीदी ज्यादा रोई या पूनम दीदी। जब यह फिल्म रिलीज़ हुई थी तब मुंबई में काफी बारिश हो रही थी। बारिश के कारण मुंबई के थियेटरों में यह फिल्म नहीं देखी गई। लकिन बिहार-यूपी की चाचियों, दादियों और दुल्हन बनन का ख्वाब सजाए लड़कियों ने इस फिल्म को सुपरहिट कर दिया। कहीं से गुज़रिये फिल्म के गाने सुनाई देते थे। मेरे पास आज भी नदिया के पार का ऑडियो कैसेट है। ए गूंजा तोरी उस दिन सखिया..करती थी क्या बात हो..कितना अपना लगने लगे जब, कोई बुलाये ल के नाम हो..नाम न ले तो क्या कह के बुलाये..हर गाना और हर गान के एक-एक बोल। 25 साल में कितनी नदियां सूख गईं इस देश में, लकिन नदिया के पार का किस्सा नहीं सूख पाया। इस फिल्म की याद को ताजा करन का सुखद काम किया है बिदेसिया ब्लॉग ने। ँ३३स्र्:६६६.्रुीि२्रं.ू.्र क्िलक करते ही गूंजा यानी साधना सिंह का इंटरव्यू है। बनारस और कानपुर में जन्मी और पली-बढ़ी साधना सिंह मुंबई में रहती हैं। कहती हैं वो कभी खुद को गूंजा से अलग ही नहीं कर पाईं और मुंबई की फिल्म इंडस्ट्री न कभी गूंजा को समझा ही नहीं। साधना ने ठीक किया गूंजा को उन लाखो-करोड़ों लोगों के लिए बचा लिया जिन्होंने गूंजा को हीरोईन नहीं बल्कि पड़ोस की लड॥की समझा था। चंदन का किरदार करने वाले सचिन तो अब भी दिखते हैं। लकिन साधना ने अंग प्रदर्शन करने से इंकार किया तो फिल्म की दुनिया में अजनबी हो गईं। सीरियल ट्राई किया तो उनका मन नहीं लगा। अब सब की गूंजा घर -बार ही संभालती हैं। साधना की बेटी सीना फिल्मों में आन की तैयारी कर रही हैं। ब्लॉगर ने फिल्म के 25 साल पूरे होने पर साधना सिंह को बेहतरीन इंटरव्यू किया है। साधना कहती हैं कि मुंबई में बारिश खत्म होते ही नदिया के पार दुबारा रिलीज़ की गई। इस बार सुपरहिट हो गई। साधना बताती हैं कि गूंजा के लिए उन्होंन कभी समझौता नहीँ किया। यह भी ख्याल रखा कि वे विश्वनाथ प्रसाद शाहाबादी की बहू हैं। जिन्होंने भोजपुरी की पहली फिल्म हे गंगा मइया तोहरे पियरी चढ़इबो बनाई थी। यह फिल्म भी गज़ब की थी। इसका टाइटल गाना मेरे पिताजी को काफी पसंद था। मुझे याद है जब यह फिल्म आई थी उसी दौरान में शादी की वीडियो रिकार्डिग होने लगी थी। जब भी कैसेट बनता, सात फेरे को फिल्मी सीन में तब्दील करन के लिए नदिया के पार का गाना बजाया जाता था। जब तक पूरे न हो फेरे सात..तब तक दुल्हन नहीं दुल्हा की। रे तब तक बबुनी नहीं बबुवा की। इस गान के बिना सालों तक बिहार-यूपी में कोई शादी नहीं हुई। मंत्रों के साथ शादी के मंडप में यह गाना ज॥रूर बजा। अब पता नहीं क्या-क्या बजता है। दस साल से इस इलाके की एक भी शादी में नहीं गया हूं। बिदेसिया ब्लॉग को चलाने वालों में पाडेय कपिल, प्रेम प्रकाश, बीएन तिवारी और निराला शामिल हैं। नदिया के पार को सिर्फ याद नहीं किया, बल्कि पेशेवर ढंग से तमाम पहलुओं को सामने लान की कोशिश की गई है। लोकरंगों के कई ब्लॉग बन गए हैं लकिन बिदेसिया की बात ही कुछ और है। इतनी सारी चीो हैं बिदेसिया पर कि उनकी बात फिर कभी। अभी तो बस..याद आ रहा है नदिया के पार का एक और गाना। जोगी जी कोई ढूंढ़े मूंगा, कोई ढूंढ़े मोतिया..हम ढूंढ़े अपनी जोगनिया को। जोगी जी ढूंढ़ के ला दो। लेखक

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  30. नदिया के पार के समय से हमारा समय कितना बदला है, हम कितने लोकतांत्रिक हुए हैं, कितने आधुनिक.... और मानसिक सोच के स्तर पर कितना विकसित हुआ है हमारा समाज; आनंद पांडेय की कहानी तमाम दावों का विपर्यय रचती है। हमारे नागरिक समाज का कितना क्षरण हुआ है, नफरत और हिंसा की जड़ें कितनी गहरी हुई हैं (इसे ' बाबा ' जैसे लोगों ने वैधता भी प्रदान की है!), यह कहानी संवेदनात्मक पाठ प्रस्तुत करती है। छोटन उन्हीं लोगों के लिए खाद - पानी का काम कर रहा था और उसी दिशा में विकसित भी हो रहा था, जिस हिंसा का शिकार हुआ..... हिंसा की संस्कृति देर - सबेर सबको निगलेगी, आज जो सत्ता के दंभ में इसे बढ़ावा दे रहे हैं और उन्हें भी जो उस तंत्र को मजबूत बनाने में सहयोग कर रहे हैं। हिंसक भीड़ का हिस्सा बनने वाले लोग भी
    इसकी गिरफ्त में आएंगे ही!!

    आनंद पांडेय ने कुशलता पूर्वक और वाजिब ही इसे नदिया के पार से जोड़कर दिखाया है, इससे हमारे दौर की तासीर ज्यादा महसूस होती है। तकनीक झूठ को सौ फीसदी सच दिखने लायक बना देता है, यह इस कहानी का महत्वपूर्ण आयाम है। याद कीजिए जब छोटन का दाह - संस्कार हो रहा है और कुछ लोगों को वह वायरल विडियो दिखता है -- पुलिस वाले की कही बात पर जरा संशय भी होता पर विडियो देखकर उसकी गुंजाइश भी खत्म हो गई -- उससे तो माता - पिता और अन्य परिजन भी क्या इसे हत्या को लेकर व भाव रखेंगे जो बगैर देखे रखते !! कितना भयावह है यह सब !!!

    इस क्रूर सच की कहानी लिखने के लिए आनंद पांडेय को बधाइयां..... अगली कहानी के इंतजार के साथ...

    -- राजीव रंजन गिरि




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  31. कहानीकार की यह पहली कहानी है? अद्भुत!

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  32. Bahut badhia kahani . Padk ke achchha laga . Aap apne talent to NDA see nikalkar academic line me le aayie

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  33. बहुत सुंदर कहानी अत्यंत सजीव चित्रण के साथ।
    डा आनंद पांडेय को बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं।

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  34. आनंद श्रेष्ठ23 अग॰ 2020, 1:22:00 am

    ऐसा कहा जाता है की समय बदलता है लेकिन आप इसे कैसे देख सकते और किस प्रकार महसूस कर सकते ?
    छू कर नहीं ना ! देखकर ही समझ सकते हैं ना !कुछ बदलते प्रतीकों के सहारे !
    संवाद के तरीके ,कुछ काम करने के तरीके ! इसी से ना ?
    समय परिवर्तनशील होता है ,होना भी चाहये !लेकिन कैसा परिवर्तन हो ?
    मानवीय हो ,जहां मानवता का एहसास हो !लेकिन अगर वैसे परिवर्तन से समय पर कुछ आडंबर हावी हो जाये ,मानवता के जगह दानवता हावी हो साथ ही साथ मानवता बाधित कर दानवता की सीढ़ी चढ़ा जाए तो इससे क्या परिलक्षित होगा ? क्या संस्कारी होना दानवता की पर्यायवाची मान लिया जाए जहां मानव होने के मूल्य को समाप्त कर संस्कृति को विकृत कर आगे बढ़ा जाए ? क्या इसे ही आज के जमाने मे संस्कार कहेंगे !
    मेरे मित्र की यह कहानी साहसपूर्वक बेहस यह संदेश देती है कि बदलते प्रतीकों को देखते हुए ही हम और आप समझ सकते है कि कैसा हमारा मन होते जा रहा है जहां वो रक्षक की जगह भक्षक बनते जा रहा है ,जहां मनुष्य के हाथ मे किताब और पेन होना चाहये वहां डंटा और झंडा है । किसे मारना चाहते हैं अपने मानव समाज को ही, अपने हमउम्र को ही, अपने सरोकार को ही ।
    जब इंसान ही इंसान का दुश्मन हो जाये अपने घर मे ही तो क्या इसे संस्कारी प्रवृत्ति कहा जाएगा या आसुरी विकृति!
    इस कहानी को पढ़े और समझे विनाशक समय को जो बदलते प्रतीकों के सहारे वर्णन किया गया है !ये बदलाव क्या संस्कारी है जहां मानवीय संवेदना शून्य है या हमारे मन पर संवेदन विकृति हावी हो गयी है !

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