रेणु की राजनीति : प्रेमकुमार मणि



यह फणीश्वरनाथ रेणु का जन्म शताब्दी वर्ष है, रेणु के लेखन के विविध आयामों को समझने के प्रयास हो रहें हैं. उनकी राजनीतिक चेतना क्या थी, किस तरह से इसने अपना रूप लिया और फिर वह क्योंकर सक्रिय राजनीति से विमुख हुए, उनके साहित्य में इसकी क्या भूमिका रही आदि प्रश्नों से यह आलेख संवाद करता है.
वरिष्ठ लेखक प्रेमकुमार मणि के लेखन की स्पष्टता और गहराई ने इस लेख को इस विषय पर महत्वपूर्ण बना दिया है.      


रेणु की राजनीति                                      
प्रेमकुमार  मणि





णीश्वरनाथ रेणु (1921 -1977) बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे.  लेखक के साथ वह स्वतंत्रता सेनानी और राजनीतिक कार्यकर्ता भी थे. बल्कि राजनीतिक कार्यकर्ता पहले थे, लेखक बाद में बने. उनके  इन  दोनों  रूपों  में एक गहरा अंतर-संबंध  है, जिसे जाने बिना हम रेणु-साहित्य का भी सम्यक विवेचन-अध्ययन नहीं कर सकते. अतएव रेणु-साहित्य के सम्यक अध्ययन हेतु ही उनकी राजनीति का अध्ययन आवश्यक है .

रेणु का जन्म, गांव औराही, हिंगना अब बिहार के अररिया जिले में स्थित है, जो एक समय संयुक्त पूर्णिया  जिले का हिस्सा था. यह कोई  अचानक से मैला -आँचल नहीं बना था, उसकी लम्बी और सतत चलने वाली प्रक्रिया थी, मजबूत कारण थे. रेणु के शब्दों में यह-


"पूर्णिया जिला  देशी-विदेशी जमीन्दारों का गढ़  था. अंग्रेज जमीन्दारों के नाम पर कई गांव और कस्बे बने हुए हैं. फ़ोर्ब्स साहब के नाम पर फ़ोर्ब्सगंज (फारबिसगंज ), एक साहब की मेम के नाम पर मेरीगंज. कई राजे, दर्जनों 'कुमार' और बहुत से नवाबों के गढ़ और हवेलियां आज भी मौजूद हैं. जिले में ऐसे भी बड़े-बड़े किसान हैं जिनके पास दो-दो हवाई जहाज हैं और दूसरी ओर वहीं पचहत्तर प्रतिशत भूमिहीन अभी भी बड़े, छोटे और मझोले किसानों के शोषण के लिए मौजूद हैं.
(एक सक्षात्कार में रेणु ; रचनावली -4, पृष्ठ 421) 

यह इलाका कई तरह के अन्य पिछड़ापन से ग्रस्त रहा है. हर वर्ष भयानक बाढ़ लाने वाली कोसी का यह इलाका ऐतिहासिक रूप से अभिशप्त और त्रस्त है. मलेरिया और कॉलरा जैसी बीमारियां इस इलाके के हजारों लोगों को हर साल सताती रही थीं. जाने कितने लोग हर साल असमय काल-कवलित होते रहे थे. इसकी पीड़ा और पिछड़ेपन को समझना आसान नहीं है. इसी पिछड़ेपन की कहानी रेणु ने कई रूपों में लिखी है. किसानों, भूमिहीनों  और मिहनतक़शों के  दैन्य व  पीड़ा को समझना राजनीतिक चेतना के अभाव में मुश्किल हो जाता है. इसलिए जिस लेखक के पास राजनीतिक समझ का अभाव होगा उनके लिए ऐसे इलाकों का साहित्यिक चित्रण भी निष्प्राण होगा.

रेणु का परिवार किसान था. जाति के हिसाब से उनका कुल-परिवार  ऐसे सामाजिक समूह से था, जिन्हे बिहार में अत्यंत पिछड़ा कहा जाता है. रेणु-परिवार के पास यदि जमीन-जायदाद नहीं होती, तो पारम्परिक रीति-नीति में  इनके परिवार के लोगों को दूसरे के घरों में चाकरी या बट-बेगारी करनी होती. लेकिन रेणु परिवार की आर्थिक स्थिति अन्य परिवारों से थोड़ी बेहतर थी. ग्रामीण पृष्ठभूमि में किसी परिवार की आर्थिक स्थिति मजबूत होने का अर्थ है, उस परिवार के पास यथेष्ट भूमि का होना. रेणु का परिवार भूमिहीन नहीं, भूमिधर था. इनके पिता शिलानाथ मंडल जागरूक इंसान थे. स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी दिलचस्पी थी और जिला स्तर पर उन्हें जाना जाता था. कई तरह की पत्रिकाएं उनके यहाँ आती थीं, जिनकी चर्चा रेणु ने अपने संस्मरणों में की है. जब वह पांचवीं जमात में ही थे कि उनके घर पंडित सुंदरलाल की प्रतिबंधित किताब 'भारत में अंग्रेजी राज' आयी. फिर चाँद पत्रिका का फांसी अंक भी उन्होंने घर में देखा. इन बगावती किताबों के लिए उनके घर की पुलिस द्वारा तलाशी भी ली गयी और कहा जाता है कि उन्हें बचाने में बालक रेणु ने भी कुछ 'करतब'  दिखलाये थे. यह सब उनका राजनीतिक प्रशिक्षण ही था.


उन्हें पढ़ने के लिए पहले तो फारबिसगंज के 'ली अकादेमी'  मे भेजा  गया, जो एक हाई स्कूल था, लेकिन 1936 में वह विराटनगर स्थित आदर्श स्कूल में चले गए जिसका सञ्चालन  नेपाल का सुप्रसिद्ध कोइराला परिवार करता था. एक नाटकीय घटनाक्रम में रेणु का जुड़ाव कोइराला परिवार से हुआ और उसी परिवार में रह कर उनकी पढाई भी होने लगी. रेणु के व्यक्तित्व में जो एक आभिजात्य अंदाज़ है उसकी पृष्ठभूमि इसी कोइराला परिवार से हासिल हुई प्रतीत होती है. कोइराला परिवार राजनैतिक परिवार भी था, इसलिए स्वाभाविक है,  पिता से प्राप्त उनके राजनीतिक संस्कारों का परिष्कार इस परिवार में हुआ. 1937 में रेणु ने हाई स्कूल किया और इसी वर्ष आगे की पढाई के लिए बनारस आ गए, जहाँ बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में उन्होंने दाखिला लिया. इण्टर की पढाई यहीं से हुई. बनारस में वह 1940 तक रहे.

विराट नगर और बनारस ने रेणु के मानस का किस रूप में निर्माण किया, इस पर अध्ययन आज भी अपेक्षित है. यह पूरा समय राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अत्यंत घटनापूर्ण है. कहा जाता रहा है, और बहुत हद तक यह सच भी है कि उन्नीस सौ तीस का दशक भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का अत्यंत महत्वपूर्ण दशक है. इसका आरम्भ ही युवा भागीदारी से होता है. दिसम्बर 1929 में  मात्र चालीस साल के जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस अध्यक्ष हो जाते हैं. 1931 में भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी दी जाती है. 1934 में युवा जयप्रकाश नारायण की पहल से कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन होता है. 1936 में लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ का गठन होता है. उत्तरप्रदेश के अवध और बिहार के मगध  इलाके  में इन्ही दिनों  किसान आंदोलन होते हैं. 1935 में व्यवस्थित रूप से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का गठन होता है 1938  में कांग्रेस के भीतर वाम और दक्षिण  (सुभाष बोस और पट्टाभि सितारमैय्या ) की टक्कर  होती है, जिसमें वामपक्ष की जीत होती है. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्वयुद्ध का वातावरण बनता है. यूरोप में फासीवादी राजनीति का उभर होता है ; और अंततः सितम्बर 1939 में दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हो जाता है.

जयप्रकाश नारायण
इस दरम्यान युवा रेणु ने किस तरह इस पूरे घटनाक्रम को आत्मसात किया, इसका अध्ययन दिलचस्प हो सकता है. 1938 में जब वह बनारस में ही थे, उनके बिहार में समाजवादी जयप्रकाश नारायण ने 'समर स्कूल ऑफ़ पॉलिटिक्स' का आयोजन किया था. एक साक्षात्कार में रेणु ने इसकी विस्तार से चर्चा की है.


'उन दिनों मैं बनारस में पढता था. पटना से प्रकाशित होने वाली बिहार सोशलिस्ट पार्टी की (रामबृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित) साप्ताहिक पत्रिका 'जनता' में कार्रवाइयाँ विस्तार पूर्वक छपती रहती थीं. जयप्रकाशजी उस स्कूल के प्रिंसिपल थे. एक-डेढ़ महीने का वह प्रशिक्षण शिविर अपने ढंग का अकेला था. कमलादेवी चट्टोपाध्याय, मीनू मसानी, अच्युत पटवर्धन, नरेन्द्रदेव, मेहर अली, अशोक मेहता जैसे  लोगों ने क्लास लिए थे..और इसका मेरे जैसे लोगों पर अनुकूल प्रभाव पड़ा था. यानी समाजवाद और बिहार सोशलिस्ट पार्टी के प्रति अधिक आस्थावान हो गया था.. मैं उसमें चाह कर भी सम्मिलित नहीं हो सका था. किन्तु बेनीपुरी के सम्पादन और लेखन की कृपा से दूर रह कर भी इसमें सम्मिलित होने जैसा लाभ हुआ."
(रेणु रचनावली -4 / 419)

1940 में विश्वविद्यालय की पढाई से विरक्त हो वह घर आ जाते हैं और अपने इलाके में किसान राजनीति को बल देने की कोशिश करते हैं. स्पष्टतः वह समाजवादी सक्रियता से जुड़ते हैं, जिसका उनके प्रान्त बिहार में बोलबाला था और जिसकी चर्चा ऊपर में रेणु ने स्वयं की है. सोशलिस्टों ने राजनीतिक आंदोलन को राष्ट्रीय आंदोलन से पृथक नहीं किया था. अंग्रेजों की औपनिवेशिक गुलामी से देश की आज़ादी के लिए उनका संघर्ष अहम थालेकिन उनका लक्ष्य समाजवादी उद्देश्यों की प्राप्ति थी, जिसमें उत्पादन के समस्त साधनों पर सामाजिक मिल्कियत मुख्य स्वप्न था. रेणु की राजनीति यही थी. 1942 में वह गिरफ्तार किये जाते हैं और लगभग डेढ़ वर्ष जेल में रहने के बाद बीमारी की हालत में रिहा किये जाते हैं. प्लूरुसि का इलाज पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल में होता है, जहाँ लतिकाजी से उनका परिचय होता है. भारतीय राजनीति में यह कितना घटनापूर्ण समय है, कहने की जरुरत नहीं. लेकिन रेणु के जीवन का सूक्ष्मतापूर्ण अध्ययन हमें यह बतलाता है कि रेणु राजनीति और साहित्य के बीच तेजी से पेंडुलम की तरह डोल रहे हैं. उनकी कहानियां 1944 से छपनी शुरू हो जाती हैं. लेकिन रेणु भारत और नेपाल की राजनीतिक लड़ाई में बराबर सक्रिय दिखते हैं. वह तेजी से इस पूरे संघर्ष, उसकी बुनावट, उसकी विशिष्टताओं और यहां तक कि मिथ्याचारों को भी आत्मसात करते हैं, समझते हैं.


(दो)
जैसा कि सब जानते हैं समाजवादियों ने देश की आज़ादी को झूठा माना था और इसके मनाये जा रहे जश्न में हिस्सा नहीं लिया था. 1948 में इनलोगों ने कांग्रेस पार्टी से अपने को अलग कर लिया था. 1934 से अलगाव तक ये लोग कांग्रेस के भीतर ही कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (सीएसपी) बना कर काम कर रहे थे. लेकिन बदली हुई परिस्थियों में इन्हे कांग्रेस से बाहर आना आवश्यक लगा.  इन सब का मानना था कि कांग्रेस दक्षिणपंथी शक्तियों का जमावड़ा है और चूँकि राष्ट्रीय आज़ादी हासिल कर ली गयी है, उनके साथ होने का अब कोई मतलब नहीं है. समाजवादी  उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए समाजवादियों को अपने संघर्ष अब तेज करने होंगे. इसलिए आवश्यक है कि वे एक अलग राजनीतिक दल के रूप में संगठित हों. रेणु अपने इलाके पूर्णिया जिले में इसी समाजवादी पार्टी के कार्यकर्त्ता बनते हैं. उस वक़्त के तमाम समाजवादी जवाहरलाल नेहरू के प्रति एक मोह और मैत्री भाव रखते थे. लेकिन अब जब कि नेहरू प्रधानमंत्री हो गए थे, तेजी से समाजवादियों का उन से मोहभंग हो रहा था. व्यक्तिगत रूप से रेणु में भी यह मोह और उसका भंग आप देख सकते  है. रेणु ने एक एकांकी लिखी है  'उत्तर नेहरू चरितम'.

इस में व्यंगपूर्ण लहजे में रेणु ने नेहरू के कई रूपों को एक साथ देखने की कोशिश की है. यहाँ 1930 का  वीर जवाहर है, किसानों का सबसे बड़ा हितैषी नेहरू है, कामरेड नेहरू है, ब्लैक मार्केटियरों को फांसी पर चढाने की मन्सा रखने वाला नेहरू है, उद्योगों का राष्ट्रीयकरण करने वाला नेहरू है और अंततः प्रधानमंत्री नेहरू है. यह कटु व्यंग राजनीति की गहराइयों में पैठ रखने वाला ही लिख सकता है. रेणु इस रूप में दक्ष थे. यह एकांकी उनकी सुलझी राजनीतिक समझ को हमारे सामने रखता है. इसे नागार्जुन की एक कविता 'तुम रह जाते दस साल और, जो उन्होंने नेहरू के अवसान पर लिखी थी, के साथ रख कर देखेंगे, तब दो रचनाकारों की राजनीतिक समझदारियों का तुलनात्मक अर्थ-भेद  भी आपके सामने  होंगे.

रेणु 1952 तक समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय रहे. इसी वर्ष भारत में वयस्क मताधिकार के आधार पर पहला आमचुनाव हुआ था. यह वयस्क मताधिकार एक नयी और कुछ मायने में, बड़ी चीज थी, क्योंकि इसके पहले के अंग्रेजी ज़माने में 1937 और 1946 में जो चुनाव हुए थे, उसमें सभी बालिगों को वोट के अधिकार नहीं थे. लेकिन यह भी था कि नए संविधान द्वारा भारत के नागरिकों को केवल  राजनीतिक समानता  ही मिली थी आर्थिक और सामाजिक समानता नहीं, जिसकी चर्चा जोर देकर डॉ आंबेडकर ने संविधान सभा के आखिरी महत्वपूर्ण वक्तव्य में की थी. नेहरू और दूसरे समाजवादी भी नए संविधान से संतुष्ट नहीं थे. लेकिन इसमें लगातार संशोधन की गुंजाइश थी और इस आधार पर लोगों का सोचना था कि धीरे-धीरे बहुजनों  की आकांक्षाएं इस पर  हावी होंगी और आर्थिक-सामाजिक बराबरी भी सुनिश्चित की जा सकेगी.

स्वयं समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण इस प्रथम आमचुनाव को लेकर काफी उम्मीद लगाए बैठे थे. अपने बिहार में उन्हें अपनी समाजवादी पार्टी द्वारा प्रांतीय सरकार बना लेने की पूरी  उम्मीद थी. देश में एक प्रबल समाजवादी प्रतिपक्ष के गठन का भी स्वप्न था. लेकिन तमाम उम्मीदें धराशायी हो गयीं. समाजवादियों को कहीं कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली. देश भर के समाजवादी अवसाद में डूब गए थे. इतने अवसाद में कि उसी वर्ष उनलोगों ने कुछ ही समय पूर्व कांग्रेस के आलाकमान रहे, दक्षिणपंथी नेता कृपलानी के नेतृत्व में काम कर रही किसान-मजदूर प्रजा पार्टी से विलय कर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का गठन कर लिया. सोशलिस्ट पार्टी अब प्रजा सोशलिस्ट पार्टी बन गयी थी. कृपलानी ने विलय की शर्त यह रखी थी कि सोशलिस्टों को वर्ग-संघर्ष की नीति छोड़नी होगी. सोशलिस्टों ने छोड़ भी दी. दुखी नरेन्द्रदेव ने इसे समाजवाद का बधियाकरण माना और कहा वर्गसंघर्ष की नीति त्याग देने के पश्चात् समाजवादियों के पास रह ही क्या जाता है.

आचार्य नरेन्द्रदेव
नरेन्द्रदेव बड़े नेता थे, इसलिए उनकी प्रतिक्रिया हमें उपलब्ध है. रेणु के मन पर क्या गुजरी होगी, इसका अनुमान ही किया जा सकता है. सोशलिस्ट पार्टी के कृपलानी की पार्टी के साथ विलय का मुख्य कारण छुटभय्ये समाजवादी नेताओं का संसदीय ढांचों, यानी धारा-सभाओं में येनकेन आने का उतावलापन ही था. कांग्रेस की तरह ही समाजवादी पार्टी में भी आर्थिक-सामाजिक ढाँचे के ऊपरी तबके से आये लोगों का बोलबाला था. उन्हें उम्मीद थी कि कृपलानी की मोहर लगने और वर्गसंघर्ष की नीति-त्याग देने से समाज के मलाईदार तबके में उनका विरोध थम जायेगा और चुनावों में उन्हें सफलता मिलने लगेगी. कुछ हद तक यह सफलता बाद में मिली भी, लेकिन बहुत अधिक नहीं. जयप्रकाश नारायण इन सब से बहुत खुश नहीं थे. शायद इसीलिए उन्होंने सक्रिय राजनीति से सन्यास ले लिया.

रेणु के राजनीतिक गुरू जेपी ही थे. दोनों की मानसिकता बहुत हद तक मिलती -जुलती थी. जेपी में एक छुपा लेखक था और रेणु में एक छुपा राजनीतिक कार्यकर्त्ता. थोड़ा आगे -पीछे जेपी और रेणु दोनों राजनीति से सन्यास ले चुके थे. रेणु पूर्णकालिक लेखक बन गए और जेपी पूरे तौर पर जीवनदानी भूदानी. रेणु का रास्ता निश्चित तौर पर जेपी से बेहतर था. जेपी ने भी रेणु का रास्ता अपनाया होता तो हिंदी को एक और बेहतर लेखक मिला होता.

रेणु के मन में एक उथल-पुथल चल रही थी. उनकी पार्टी स्वतंत्र समाजवादी उसूलों के साथ बस चार साल ( 1948 -1952 ) काम कर सकी थी. उनलोगों ने तात्कालिक सफलता के लिए सिद्धांतों का सौदा कर लिया था. इस सिद्धांतहीन पार्टी के साथ रहने का अब क्या अर्थ था ! इसी निराशा में उन्होंने स्वयं को साहित्य की तरफ शिफ्ट कर लिया. हालांकि उन्होंने  इस बात को स्वीकार किया है कि अपने लेखन में भी वह राजनीतिक सोच से विलग नहीं हुए. उनके उपन्यास 'मैला आँचल', 'परती-परिकथा' या 'जुलूस' में हम उनकी राजनीतिक समझ और सोच को देख सकते हैं. अपने दोनों प्रमुख उपन्यासों 'मैला आँचल' और 'परती-परिकथा' में वर्णित दो गांवों मेरीगंज और परानपुर में आज़ाद भारत के ग्रामीण ढांचे में उभरते राजनीतिक हलचल को उन्होंने जिस बारीकी के साथ देखा-समझा है, वह महत्वपूर्ण है. मेरा मानना है उसपर अबतक अपेक्षित कार्य नहीं हुआ है. भारतीय परिप्रेक्ष्य में रेणु का महत्व वही है, जो फ्रांसीसी परिप्रेक्ष्य में अपने समय में बाल्ज़ाक का था. लेकिन यह एक अलग विषय  है. मैं अभी रेणु की राजनीति तक सीमित होना चाहूँगा.



(तीन)
यक्ष्मा व्याधि से दूसरी दफा ठीक होने और लतिका जी के साथ विवाह के बाद रेणु ने पटना में अपना निवास बनाया था. उन्होंने  कई बार कहा कि वह स्वयं को पटना का नागरिक होने योग्य नहीं समझते. उनका मन गांव में रमता था. लेकिन 'मैला-आँचल' की प्रसिद्धि के बाद उनका गांव रहना संभव नहीं था. 'परती-परिकथा' के लिखते समय वह इलाहाबाद रहे. दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और दूसरे शहरों में वह जाते रहते थे. भारत की साहित्यिक दुनिया के शीर्षस्थ लोगों में उनकी गिनती होने लगी थी. दूसरे उपन्यास 'परती-परिकथा'' और प्रथम कथा-संकलन 'ठुमरी' के प्रकाशन के बाद हिंदी साहित्याकाश में उनकी स्थिति ध्रुवतारे की तरह की बन गयी थी. रेणु जैसा दूसरा कोई नहीं था. किसी अन्य से उनकी तुलना नहीं हो सकती थी. इस तरह 1955 से 1965 तक का उनका समय लगभग विशुद्ध रूप से लेखकीय रहा. उन्होंने इस बीच राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं ली.

लेकिन 1964 में कम्युनिस्ट पार्टी के विभाजन ने उन्हें एक बार फिर उद्वेलित किया. वह विचलित भी हुए. नेहरू की मृत्यु हो चुकी थी और भारत की दक्षिणपंथी राजनीति अपने मौज में थी. समाजवादियों के इकट्ठे होने के दिन थे; लेकिन वे बिखर रहे थे. लेकिन इससे भी बड़ी बात जो भारतीय राजनीति में उभर रही थी, वह थी हर पार्टी में कुछ खास होशियार लोगों की बढ़ती तानाशाही. राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हैसियत तंग होती जा रही थी. 1965 में उनकी कहानी आती है 'आत्मसाक्षी'. 1930 के दशक से पार्टी के लिए खंजड़ी बजा-बजा कर प्रचार कार्य और चंदा उगाहने वाला एक ग्रामीण कम्युनिस्ट कार्यकर्त्ता गनपत अपनी ही पार्टी के अधिकारियों द्वारा बेइज्जत किया जा रहा है. पार्टी में उसकी कोई औकात नहीं रह गयी है. इस कहानी की तारीफ अज्ञेय जी खूब करते थे. जर्मन विद्वान लोठार लुटसे ने इसका अपनी जुबान में अनुवाद किया और इसे केंद्र में रखते हुए रेणु से एक साक्षात्कार भी किया. इस  कहानी को कई लोगों ने  केवल कम्युनिस्ट पार्टी के एक कार्यकर्त्ता की दयनीयता और एक पार्टी विशेष के आंतरिक संकट के रूप में देखा.. लेकिन नहीं, रेणु सभी राजनीतिक दलों में कार्यकर्ताओं की बदहाली को देख चिंतित थे. उनका मानना था यदि राजनैतिक दलों में जनतंत्र सुरक्षित नहीं रहेगा तो देश में भी जनतंत्र सुरक्षित नहीं रह सकता.

अपनी सोशलिस्ट पार्टी में ही कालीचरण की स्थिति का बयान वह 'मैला आँचल' में कर चुके थे. गाँवों से आए साफ़-सुथरे और क्रांति-चेता युवकों की पार्टी में कोई औकात नहीं होती थी. कार्यकर्त्ता यदि पिछड़ी जातियों से आया हुआ है, तब तो और भी बुरी स्थिति होनी थी. रेणु पार्टी के भीतर कथनी और करनी के इस भेद को देख रहे थे.

1970 में 'दिनमान' को दिए एक साक्षात्कार में, जिसे उसके संपादक रघुवीर सहाय ने स्वयं लिया था, रेणु ने विस्तार के साथ राजनीतिक स्थितियों पर चर्चा की है. ध्यातव्य है कि 1969 के वसंत में कम्युनिस्ट पार्टी का एकबार फिर विभाजन हो गया था. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से टूटकर युवा कम्युनिस्टों का एक धड़ा अलग हो गया था. बंगाल के नक्सलबाड़ी जिले में किसानों के संघर्ष को इस धड़े ने न केवल समर्थन दिया बल्कि उसे  अपना संघर्ष घोषित कर दिया, जब कि  बुजुर्ग कम्युनिस्ट इसे समर्थन देने से इंकार कर रहे थे. नक्सलबाड़ी की देखा-देखी देश के अन्य हिस्सों में भी इस तरह के संघर्ष उभरने लगे. बिहार में समाजवादी से सर्वोदयी हुए जयप्रकाश नारायण  ने  मुजफ्फरपुर के पास मुशहरी में खुद को केंद्रित किया और रेणु को भी एक भावुकतापूर्ण पत्र लिखा. जेपी और रेणु के जीवन में राजनीतिक सक्रियता का यह एक नया रूप था. जेपी सर्वोदय के लिबास में थे और रेणु एक लेखक के. दोनों के पास कोई पार्टी नहीं थी. दल-हीन  जनतंत्र का बिरवा संभवतः इसी रूप में पनपा.

कवि रघुवीर सहाय के साथ संपन्न उस महत्वपूर्ण बातचीत में, जिसकी चर्चा मैंने ऊपर की है, कई तरह की बातें उभर कर आई हैं. रघुवीर सहाय भी राजनीतिक चेतना संपन्न कवि थे. उन्होंने दिनमान में प्रकाशित इस वार्ता का शीर्षक रखा 'टूटता विश्वास'. इस पूरी बातचीत में रेणु ने अपने जिले की भूमि समस्या को केंद्र में रखा है. क्योंकि नक्सलवादी आंदोलन के केंद्र में भूमि समस्या थी. जमींदार और बड़े किसान अब हर तरह के भूमि आंदोलन को नक्सलवादी आंदोलन कहने लगे थे. रेणु कहते हैं 'पूर्णिया अंचल की कहानी भूमिहीनों की कहानी है.' उन्होंने अपने इलाके के महत्वपूर्ण कम्युनिस्ट कार्यकर्ता, (जो कभी समाजवादी कार्यकर्त्ता थे) नक्षत्र मालाकार को बातचीत के केंद्र में रखा.

इस नक्षत्र मालाकार के तीन रूप थे. एक रूप नछत्तर माली का था, जो 1936 से सोशलिस्ट पार्टी का कार्यकर्त्ता था.  जेपी ने उसका नाम पूछा तब, उसने बतलाया नछत्तर माली. जेपी ने प्यार भरी झिड़की दी. ये क्या नाम हुआ. आज से आप का नाम हुआ नक्षत्र मालाकार. नछत्तर माली नक्षत्र मालाकार बन गए. सामंतो-ज़मींदारों से मालाकार को काफी चिढ थी. शोषण को बर्दास्त करना उसने नहीं सीखा था. उसने अकाल के समय ज़मींदारों के अन्न भंडारों पर धावा बोल दिया और अनाज को  भूखों में बाँट दिया. उसे लुटेरा घोषित कर दिया गया. इसी पात्र को रेणु ने अपने उपन्यास 'मैला आँचल' में चलित्तर कर्मकार के रूप में रखा है. कालीचरण अंततः इसी कर्मकार की तरफ बढ़ता है. यही समाज की नियति थी. नक्सलवाद की पगध्वनि को रेणु ने पचास के दशक में ही सुन-समझ लिया था. कथाकार मधुकर सिंह को दिए एक साक्षात्कार में भी रेणु ने प्रसंगवश नक्षत्र मालाकार की विस्तृत चर्चा की है. उनके पूरे वक्तव्य को देखना ही ठीक होगा.

'कुछ वर्षों तक हम साथी रहे. जब-जब राजनीतिक लोगों ने उसे 'राजनीतिक' मानने से इंकार किया और उसको विशुद्ध क्रिमिनल करार दने की साजिश की- हम कई लोगों ने इसका विरोध किया- 1947 से ही. हम कई लोग- जिसमे बंगला के प्रसिद्ध लेखक सतीनाथ भादुड़ी भी थे-पहले पार्टी में उसके निष्कासन के विरुद्ध आवाजें उठाते रहे और जब वह पार्टी से निकाल दिया गया और परम स्वतंत्र होकर जब वह अपने जी का करने लगा, उसकी लूट, डकैती, हत्या आदि की कहानियां सुन कर हमने लिख कर उसकी निंदा की. किन्तु तब भी उसको 'राजनीतिक' मानता रहा.. जिस तरह आप, आज उसके बारे में जानना चाहते हैं, तत्कालीन जिला पुलिस के अधिकारी और गुप्तचर विभाग वाले भी अक्सर हम से मिल कर नक्षत्र के बारे में ऐसे ही सवाल करते थे. उन्हें जो जवाब देता था, आज भी दे रहा हूँ- 'नक्षत्र जनता का आदमी है'. वह गिरफ्तार हुआ, आजीवन कारावास की सजा झेल रहा था. अभी इतना ही कि नक्षत्र मालाकार का मतलब है जन-जीवन की एक जबरदस्त छटपटाहट.'
(रेणु रच.-4 /420)

इस छटपटाहट को रेणु जिस व्यग्रता से समझ रहे थे, दूसरे नहीं समझ रहे थे. 1970 के आसपास रेणु ने कई बार अपने इलाके की भूमि समस्या को उठाया. दिनमान में जब रिपोर्टिंग करते थे, तब भी इस समस्या पर सांकेतिक रूप से लिखा. 1966 के भीषण सूखे की उन्होंने रिपोर्टिंग की. उससे जनित अकाल को देखा-समझा था. उन्हें कुछ आभास हो रहा था. 22 नवम्बर 1971 को उनके पूर्णिया जिले के धमदाहा थानांतर्गत रूपसपुर चंदवा गाँव में जमीन्दारों ने इकठ्ठा हो कर एक साथ चौदह आदिवासियों की हत्या कर दी. यह बिहार का पहला नरसंहार था. कांग्रेस पार्टी के नेता और तत्कालीन विधानसभाध्यक्ष, हिंदी लेखक लक्ष्मीनारायण सुधांशु के नेतृत्व में यह कुकृत्य हुआ था. समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर ने पूरे राज्य में इसके खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया. मजबूर होकर तत्कालीन भोला पासवान शास्त्री सरकार को  दिग्गज नेता लक्ष्मीनारायण सुधांशु की गिरफ़्तारी सुनिश्चित करनी पड़ी. जिस आशंका की ओर रेणु बार-बार संकेत कर रहे थे, वह प्रकट हो चुका था.

इन सब कारणों से रेणु की निराशा बढ़ने लगी थी. राजनीतिक दलों पर से उनका विश्वास उठने लगा था. ऐसा लगता है उनका समाजवादी बुखार भी कुछ समय के लिए  उतर गया था. लेकिन उनके मन में आमजन की पीड़ा घनी भूत होती जा रही थी. कोई बीस साल के अंतराल के बाद एक बार फिर वह सामने आते हैं. 1972 में उन्होंने संसदीय राजनीति में स्वयं को सक्रिय किया. उन्होंने बिहार विधानसभा का निर्दलीय चुनाव लड़ा. उन्हें भी अपने नेता जेपी की तरह चुनाव जीतने  की उम्मीद थी. यह उनके पत्रों और साक्षात्कारों से पता चलता है. लेकिन वह बुरी तरह पराजित हुए. इस पराजय के बाद वर्तमान संसदीय ढांचे से वह नाउम्मीद हो चुके थे. इसी बीच गुजरात में नवनिर्माण आंदोलन हुए और जेपी ने युथ  फॉर डेमोक्रेसी शीर्षक से गुजरात के युवकों के नाम खुला पत्र लिखा. कुछ ही महीनों बाद बिहार के छात्रों ने जब भ्रष्टाचार के विरुद्ध और शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन के लिए आंदोलन शुरू किया, तो जेपी ने अपने  सन्यास का परित्याग किया और उसे समर्थन की घोषणा की. आंदोलन तेजी से बढ़ गया, क्योंकि देश-समाज की स्थिति विषम हो गयी थी. रेणु मानो  इंतजार ही कर रहे थे. वह एक बार फिर सक्रिय हुए. सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन में उन्होंने भागीदारी की. जेल भी गए. जैसा कि सब जानते हैं किस तरह देश में आपातकाल घोषित किया गया और लोकतंत्र की चूलें क्यों हिल गयीं.

दुनिया के अनेक देशों में जनतंत्र के कुचले जाने के समाचार आ रहे थे. चिली में साल्वाडोर अलेंदे के खिलाफ सैनिक विद्रोह, या बगल के बंगला देश में ही शेख मुजीबुर्रहमान की सैनिक दस्ते द्वारा निर्मम हत्या से अनेक लोकतंत्र प्रेमियों को लगा कि क्या भारत में भी जनतंत्र के दिन गिने-चुने हैं ? समाजवादी स्वप्न और कार्यक्रम कुछ वक़्त के लिए नेपथ्य में चले गए. लोकतंत्र रहेगा या नहीं रहेगा का प्रश्न प्रमुख हो गया. कई अंतर्विरोधों और मलबे के ऊपर एक पार्टी का गठन होता है. दलहीनता की वकालत करने वाले जेपी इसके पुरोहित बनते हैं. 1977 में जब लोकसभा के चुनाव हुए तब जेपी की राजनीति को सफलता हासिल हुई. चुनाव के नतीजे आते ही रेणु अपने ऑपरेशन के लिए अस्पताल में भर्ती हुए और फिर नहीं लौटे. 11 अप्रैल 1977 को उन्होंने हमेशा के लिए विदा ले ली.

रेणु यदि कुछ समय और जीवित होते तो क्या करते, या जेपी के सपनों के एकबार फिर टूटने पर उनकी क्या प्रतिक्रिया होती, इसकी कल्पना शायद बेमानी है. जेपी को निराशा हाथ लगी, रेणु भी निराश होते. इससे अधिक कुछ नहीं होता. इस से अधिक हो भी क्या सकता था.

रेणु की राजनीतिक चेतना के एक और वैशिष्ट्य पर बात किये बिना इस लेख को समाप्त करना ठीक नहीं होगा. इस बात पर कम लोगों की नजर गयी है कि रेणु ने लोहियावादी समाजवाद से एक दूरी बनाये रखी है. बिहार और उनके कोसी इलाके में 1960 के दशक में राममनोहर लोहिया की सोशलिस्ट पार्टी का प्रभाव बढ़ने लगा था. 1964 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के एक धड़े से जुट कर सोशलिस्ट पार्टी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी बन गयी, जिसे संक्षेप में संसोपा कहा जाता था. इस समाजवादी धड़े ने एक नारा दिया 'संसोपा ने बाँधी गाँठ; पिछड़ा पावें सौ में साठ'.
(डॉ. राममनोहर लोहिया)

इसे राममनोहर लोहिया की जाति-नीति कहा गया. लोहिया विलक्षण नेता थे. प्रखर वक्ता और बेजोड़ संगठनकर्ता. उनकी खासियत यह थी कांग्रेस और नेहरू विरोध में समाजवादियों को  उन्होंने इस स्थिति में ला दिया कि वे जनसंघ के निकट आते चले गए. कांग्रेस के अर्द्ध-दक्षिणपंथ का विरोध करने वाले सोशलिस्ट पूर्ण- दक्षिणपंथियों की गोद में जा बैठे. जाति-नीति का दोयम दर्जे के सोशलिस्टों ने खूब प्रचार किया. रेणु इस प्रभाव में कभी नहीं आये. यह अकारण नहीं था. वैचारिक रूप से रेणु अधिक प्रौढ़ दीखते हैं. वर्ण और वर्ग के अंतर्विरोधों को जिस सूक्ष्मता से उन्होंने समझा है, उस से राजनेताओं को सीख लेने की जरूरत है. जाति और वर्ण की स्थिति को रेणु नकारते नहीं, स्वीकारते हैं ; लेकिन उसे वर्गीय नजरिये से ही देखते हैं. लोहिया वर्गीय नजरिये की उपेक्षा करने लगे थे और इससे चीजें काफी उलझ जा रही थीं. कृपलानी की पार्टी से समझौते और उनके द्वारा वर्ग संघर्ष की नीति के परित्याग पर लोहिया ने कोई नाराजगी प्रकट की हो,ऐसा प्रमाण नहीं उपलब्ध है. लोहिया की  मृत्यु के बाद संसोपा के लोगों ने कुलक किसान नेता चरण सिंह की राजनीति के साथ समझौता कर के भूमि सुधारों के कार्यक्रमों से अपनी दूरी बना ली. चरण सिंह ने समाजवादियों का दूसरी बार बधियाकरण कर दिया था, इस बार उनकी चेतना का बधियाकरण हुआ था.

रेणु की सोच अलग है. वह भूमि समस्या पर हमेशा जोर देते रहे. वर्ग और वर्ण के अंतर-संबंधों  को वह बखूबी समझते थे. 'मैला आँचल' में आपस में उलझते राजपूत और यादव टोले को भी उन्होंने देखा और संथाल आदिवासियों के खिलाफ एक साथ जुड़ते भी देखा. उनके उपन्यास 'परती परिकथा' में सवर्ण जाति से आने वाला सुवंस गांव के ही दलित परिवार की युवती मलारी से प्रेम करता है. लेकिन वे गांव में एक साथ नहीं रह सकते. उन्हें गांव छोड़ना पड़ता है. दूसरी तरफ जित्तन उसी गांव में ताजमनी के साथ रह सकता है. यह क्यों और कैसे संभव होता है? जित्तन और सुवंस  दोनों तथाकथित ऊँची जातियों से हैं.लेकिन अंतर यह है कि जित्तन ज़मींदार है, जब कि सुवंस  की कोई उल्लेखनीय आर्थिक हैसियत नहीं है. दोनों का वर्ण एक है, लेकिन वर्ग एक नहीं है. जित्तन गांव में ही रह कर ताजमनी से प्रेम कर सकता है, सुवंस नहीं कर सकता. वर्ग की ताकत वर्ण से अधिक है. यह रेणु की राजनीतिक समझ है, जिसे लोहिया समझने में विफल हो जाते हैं.

रेणु यह भी जानते हैं कि भारत औद्योगिक देश नहीं है, कृषि प्रधान  देश है. उत्पादन का सबसे बड़ा साधन यहां आज भी खेत है,  भूमि है. इसलिए भारत में वर्ग संघर्ष का पहला पाठ सिर के बल खड़े  भूमि -संबंधों को पैर के बल खड़ा करना है, भूमि को उनलोगों के अधिकार में लाना है जो उस पर मिहनत करते हैं.



(चार)
हिंदी साहित्य में अनेक लेखक हुए जिनके राजनीतिक सरोकार थे. राष्ट्रीय आंदोलन में तो कई ऐसे लेखक हुए, जिन्होंने जेल की सजा भी भुगती. जैनेन्द्र कुमार जेल गए, अज्ञेय गए, यशपाल,  माखनलाल चतुर्वेदी ने भी कैद की सजा पायी. इन सब की सूची बहुत लम्बी हो सकती है. आज़ादी के बाद भी अनेक ऐसे लेखक हुए जिनके खुले राजनीतिक सरोकार थे. मुक्तिबोध, रामविलास शर्मा और नामवर सिंह जैसे लोग कुछ  समय तक कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य रहे. राहुलजी तो कम्युनिस्ट पार्टी से निकाले गए और फिर शामिल कर लिए गए. हाल तक अनेक प्रगतिवादी लेखक-कवि किसी न किसी कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े थे. इसमें कोई बुराई भी नहीं है.

लेकिन रेणु की राजनीतिक सक्रियता या सम्बद्धता और दूसरों की सक्रियता-सम्बद्धता में एक फर्क है. इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए. अधिकतर कम्युनिस्ट लेखकों ने अपने दल या उसकी रीति-नीति पर अपने लेखन में कोई सवाल नहीं उठाये. अपनी पार्टी के अंतर्विरोधों और पाखंडों का पर्दा-फास नहीं किया. निर्मल वर्मा जैसे लेखक भी हुए, जो मार्क्सवाद से सीधे दक्षिणपंथी भगवा-अखाड़े में कूद गए. बहुत ऐसे लेखक हुए जिन्होंने पद-प्रतिष्ठा-पुरस्कार हासिल करने तक मार्क्सवादी खेमे का इस्तेमाल किया और जब उनका स्वार्थ पूरा हो गया तो अपने स्वाभाविक जमात में शामिल हो गए. कुछ ने इसे अभिनव ज्ञान की प्राप्ति के रूप में लिया.

रेणु ने सक्रिय राजनीति से सन्यास लेने के बाद भी समाजवादी सोच और आदर्शों को नहीं छोड़ा. उन्होंने अपने गुरु जेपी का भी अनुकरण नहीं किया. उन्होंने अपने गुरु के सही राह पर आने का इंतज़ार किया. अवसाद के क्षणों में या बंगला संस्कृति के प्रभाव में उन्होंने वाममार्गी औघड़पंथ में रूचि ली. लेकिन इसे छुपाने की जरुरत उन्हें महसूस नहीं हुई. अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने वाममार्गियों (औघड़ी संस्कृति) के समतावादी चरित्र और वर्णवाद के प्रति उनके स्पष्ट विरोध को रेखांकित किया है. अपने लेखन में भी उन मूल्यों की हमेशा हिफाजत की जिन मूल्यों के लिए वह राजनीतिक संघर्ष कर रहे थे. भूमिहीन किसान, कारीगर-दस्तकार, स्त्रियां, आवारा बच्चे, हर तरह के सामाजिक पाखंड से जूझ रहे सामाजिक कार्यकर्त्ता, अपनी ही पार्टी के भीतर लोकतान्त्रिक मूल्यों के लिए लड़ रहे राजनीतिक कार्यकर्त्ता और लछमिन कोठारिन, वामनदास  और प्रशांत जैसे निष्कलुष-निर्जात (डिकास्ट) चरित्र हिंदी साहित्य में केवल रेणु के ही यहां क्यों हैं ? इस पर किसी ने सोचा है ?

रेणु का अनुकरण करने की कोशिश कुछ लोगों ने की है. लेकिन वे विफल हुए हैं. उनका अनुकरण करने के लिए आवश्यक है कि राजनीतिक मिथ्याचार और सामाजिक अवगुंठन को कोई उस तरह समझे, जिस तरह रेणु ने समझा है. रेणु न अपनी आंचलिकता में हैं, न अपनी भाषा के राग-विराग में. यह सब उनका बाह्य है, उनका असली स्वरुप उनकी चेतना में है और इसे समझना मुश्किल इसलिए है कि यह थोड़ा जटिल है.

नागार्जुन की कविताओं में राजनीति है; और उनका एक उपन्यास 'बलचनमा' भूमि समस्या पर ही केंद्रित है. लेकिन नागार्जुन राजनीति के मिथ्याचार को उस  बारीकी से नहीं देख पातेजिस तरह रेणु देखते हैं. रेणु ने भी संथाल किसानों के साथ दूसरे लोगों के संघर्ष को चित्रित किया है. 'मैला आँचल' के मेरीगंज में सिपहिया टोला के राजपूत और गुअर टोले के यादव आपस में लड़ते रहते हैं. कायस्थ बिसनाथ प्रसाद भी इन्हीं के बीच डोलते रहते हैं; लेकिन जैसे ही आदिवासी संथालों से लड़ने का प्रश्न उठता है, राजपूत, यादव और कायस्थ इकठ्ठा हो जाते हैं. आदिवासियों के प्रति हमदर्दी रखने वाला केवल डॉ प्रशांत होता है. 

रेणु के इस सामाजिक विभाजन को समझना बहुत आसान नहीं है. नागार्जुन के यहाँ राजनीतिक ब्योरे हैं, परिदृश्य भी है, लेकिन वह समझ नहीं है, जो रेणु के यहाँ है. नागार्जुन और अन्य कई प्रगतिवादी लेखक राजनीति के केवल बाह्य को देख पाते हैं. उसके अंदरूनी परतों और अवगुंठनों को देखना हो तो रेणु के अलावे बहुत कम उदहारण मिलेंगे. 

यह दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि बहुत कम मार्क्सवादी लेखकों  ने यथार्थवादी स्तर पर गांवों की सामाजिक आर्थिक स्थितियों की विवेचना की. यदि की भी प्रभावकारी अंदाज़ में नहीं. इसलिए रेणु की परंपरा को विकसित करना आज भी एक चुनौती है.

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प्रेमकुमार मणि
9431662211

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  1. शानदार आलेख अग्रज प्रेम कुमार मणि जी!को ढेर सारी शुभकामनाएं व बधाई।

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  2. संतोष दीक्षित18 जून 2020, 9:29:00 am

    मणि जी किसी भी विषय को उसकी सम्पूर्णता के साथउठाते हैं! विविध आयामों और उदाहरणों के साथ अपनी बात तार्किक ढंग से रखते हैं।लेकिन मेरा मानना है कि मैला आंचल में रेणु राजनीतिक चरित्रों और प्रेम प्रस॔ग की भूल भुलैया में 'लोक' के साथ पूरी तरह न्याय नहीं कर पाते हैं। जैसा न्याय या वर्णन विभूति बाबू ने उसी इलाके पर लिखे अपने उपन्यास 'अरण्य कथा' में किया है। रेणु के साये का पीछा करते लेखक भी ऐसे ही भ्रम का शिकार हुए। अभी भी यह सिलसिला जारी है। वैसे मणि जी ने बहुत बढ़िया लिखा है और बधाई के पात्र हैं।

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  3. इतना तीखा और विश्लेषणात्मक आलेख एक लंबे समय बाद पढ़ा। रेणु को सही रूप में समझने के लिए उनकी राजनीति समझना ज़रूरी है यह बात तो स्पष्ट थी। पर उस राजनीति को जिस तरह लेखक ने खोला है वह प्रशंसनीय है। प्रेम कुमार जी आभार। समलोचन नेयह महत्त्वपूर्ण लेख प्रकाशित किया अतः बधाई। धन्यवाद।

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  4. मणि जी तथ्यों के साथ महत्वपूर्ण स्थापनाएं देते हैं । रेणु ने लोहिया से अलग रास्ता बनाया था, यह बड़ी जानकारी है ।

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  5. राजनीति हम कहे किसे? किसी घटना को राजनीति क्यों कहा जाता है? यह संजीदगी से लिया जाने वाला सवाल है, लेखक ने राजनीतिक चरित्रों तथा उपन्यासों के किरदारों की वास्तविकता का जो आकलन पेश किया है बेहद ज़रूरी है l प्रेमकुमार मणि जी का लेख हमेशा से मेरे लिए नई जानकारियों से भरा होता है, रेणु के राजनीतिक जुड़ाव का जो जमा आकलन प्रेम जी ने किया है, वह बेहद दिलचस्प भी है l अभी पिछले कुछ दिनों में समाजिक चौपाल पर साहित्य और समाज विज्ञान पर बहस हो रही थी , लेकिन उसका फ़लक अभी बढता ही कि बहस समाप्त हो गयी l उन्ही बहसों के दरमियान मै यह सोच रहा था की यदि भारतीय राजनीतिक सिद्धांत; उपन्यासों और उनमे निर्मित पात्रो और लेखको के राजनीतिक परावर्तन को आधार बनाता तो बात और कारगर होती l मेरी इस चिंता को आज यह लेख और तीव्रता देता हैl मै यह भी मानता हूँ की राजनीति की भाषा और विमर्श का जुड़ाव जब तक साहित्यक दुनिया से होता है , बाते और विमर्श ज्यादा स्पष्ट नज़र आते है l जैसे जैसे हम साहित्य की दुनिया से दूर होते जा रहे है, राजनीति की भाषा और समझ भी अधूरी होती जा रही है lप्रेम जी बहुत बधाई तथा समालोचन का शुक्रिया

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  6. शम्भू गुप्त18 जून 2020, 11:32:00 am

    महत्वपूर्ण और हिन्दी कथा-साहित्य की परम्परा को पुनरवलोकित करने वाला आलेख। मणि जी को और समालोचन को बधाई ।

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  7. आफत के दौर में मणिजी ने रेणु के बहाने एक राजनैतिक विकल्प की ओर भी इशारा किया हैं...यह दुर्लभ गुण संयोग से हिंदी के वर्तमान लेखकों में काफी कम है...जिस राजनीतिक चेतना के साथ रेणु दिखाई देते हैं–रास्ता वही है.

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  8. बहुत सुन्दर, शिक्षाप्रद, सूचनात्मक और गहन विश्लेषणात्मक यह लेख केवल राजनीति और साहित्य के दर्शन के मध्य दोलन करते 'रेणु' के आवर्त-काल की गणना का 'कैलकुलेशन-शीट' ही नहीं है, बल्कि समाजवाद के उठते-गिरते श्रृंग और गर्त के मध्य आज के समाज की सच्चाई के आकलन का एक महत्वपूर्ण संकेत-पत्र भी है. प्रेम कुमार मणि जी को साधुवाद!!!!

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  9. रूसी आलोचक चेरनीवस्की ने लिखा है कि रचना को कायदे से समझने के लिए रचनाकार को जानना बहुत ज़रूरी है।माणि जी का यह आलेख रेणु के संदर्भ में एक अनोखे दस्तावेज़ के तौर पर बारम्बार पढा जाएगा और समाजवादियों को चेताता रहेगा कि वर्ग के भीतर जातिगत भेदभाव और जाति के भीतर वर्गीय विभाजन के रेखांकन को अपना एजेंडा बनाए बगैर सामाजिक न्याय के लिए किए जानेवाले संघर्ष को सही दिशा नहीं दी जा सकती।
    इस महत्त्वपूर्ण आलेख को प्रकाशित करने के लिए अरुण जी को धन्यवाद।

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  10. बहुत गहरी नज़र और सहानुभूति के साथ, वस्तुपरक.विश्लेषण...साधुवाद!

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  11. स्वप्निल श्रीवास्तव18 जून 2020, 6:59:00 pm

    यह लेख रेणु को जानने समझने के लिए नया दृष्टिकोण है । मणि जी ने इसे लिखने के लिए रेणु के जीवन और साहित्य का गहन अध्ययन किया है । रेणु पर लिखने से जो छूट गया है , उसका ऋण चुकाया जाना चाहिए । रेणु जी आप आपको साधुवाद ।

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  12. दया शंकर शरण19 जून 2020, 5:44:00 am

    प्रेम कुमार मणि जी से मैं क्षमा याचना सहित सहमत नहीं हूँ । अपने समय के सामाजिक यथार्थ को नागार्जुन की रचनाओं में भी खासकर कविता में काफी गहराई तक देखा जा सकता है । वे मूल रूप में एक कवि हैं -एक ऐसा जन-कवि ,जो अपने समय के अंतर्विरोधों को एक गहरी संवेदनात्मक दृष्टि से देखता और परखता है । रेणु भी चीज़ों को एवं अपने समय और समाज के संश्लिष्ट यथार्थ को न सिर्फ़ एक कथाकार की दृष्टि से देखते हैं बल्कि मनुष्य से उनका रिश्ता एक गहरी भावात्मक संवेदना को लिए मानवीय अंतर्संबंधों की अनेक परतों में पसरी हुई है । रेणु जीवन के चितेरे हैं,उनके पात्र जीवंत और बोलते-बतियाते हैं ।लेकिन उनकी राजनीतिक दृष्टि समाजवाद के रंग-विरंगे सपनों के आकर्षण में अंततः भटकाव का शिकार हो जाती है । इसलिए बदलाव की जो बेचैनी नागार्जुन की कविताओं में दीखती है ,वो अपेक्षाकृत रेणु में कम है । वैसे रेणु के पास जो दृष्टि है वो साहित्य के लिए इतनी मूल्यवान है कि उसके सामने कोई भी विचारधारा बौनी पड़ जाय तो कोई आश्चर्य नहीं । रेणु का कथा साहित्य समाज का आईना तो है लेकिन प्रेमचंद की दृष्टि में साहित्य सिर्फ आईनाभर नहीं है । वह अंधेरे में राह दीखाती आगे-आगे चलनेवाली एक मशाल भी है ।

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  13. रेणु की राजनीतिक चेतना की परत दर परत पड़ताल करता यह आलेख बेहद महत्वपूर्ण है,लोग उनके इस रूप से परिचित न हो कर आंचलिक कथाकार व मैला आंचल के लेखक के रूप में ही उनको याद करते हैं।हालांकि आंचलिकता व भाषाई राग विराग को मणि जी ने रेणु का वाह्ययांतर कहा है,यह बात हजम नहीं होती,उनकी चेतना के साथ साथ लोक,आंचलिकता,भाषा व साहित्यिक सोंदर्य दृष्टि भी कम महत्वपूर्ण नहीं।बहरहाल स्पष्ट शानदार लेख हेतु मणि जी को बधाई।

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  14. कुछ कामों में व्यस्त होने के कारण आदरणीय मणि जी के इस आलेख को पढ़ने का वक़्त मैं आज निकाल पाया. मणि जी ने जिस तरह एक-एक चीज़ का विश्लेषण किया है, वह कमाल है. अनेक नये तथ्यों को उन्होंने उद्घाटित किया है, अनेक नये पहुलओं को अनावृत्त किया है. मेरी ओर से उन्हें हार्दिक बधाई.

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  15. चार हिस्सों में विस्तृत लेकिन पठनीय आलेख। प्रेमकुमार मणि जी ने इस एक आलेख में रेणु जी के समग्र व्यक्तित्व को समेट लिया है। उनके लेखन की एक पूरी पृष्ठभूमि बिल्कुल स्पष्ट हो गयी है।

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  16. रेणु की जीवन दृष्टि और उनकी कला को समझने में एक महत्वपूर्ण और मददगार आलेख । बधाई।

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  17. डॉ अवधेश राय28 जून 2020, 3:12:00 am

    रेणु लोहिया से क्यो अलग रहे इसका एक कारण यह भी होसकता है कि वे जय प्रकाश जी काफी नजदीक थे इसलिए लोहिया जी जब 1 जनवरी, 1956 को अलग सोशलिस्ट पार्टी बनाई जयप्रकाश जी से अलफ हो गए तब वे उनसे जुसे नही पये हो । आचार्य नरेंद्र देव जी की मृत्यू व जय प्रकाश जी के सर्वोदयमे जाने के बाद लोहिया ही एक मात्र समाजवादी नेताथे जो समाजवाद के लिए संघर्ष कररहे थे तथा समाजवादी आंदोलन को नई दिशा प्रदान कर रहे थे ।उन्होने मुठी भर ऊर्जावान साथियो के साथ समाजवादी पार्टी को भारतीय राजनीति का केंद्र बिंदु बना दिया थे और सामाजिक वृ राजनीतिक दोनों पक्षों पर अपने विचारों से एक नई अवधारणा प्रस्तुत किया।

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