देवनागरी जगत की दृश्य संस्कृति (सदन झा) : शुभनीत कौशिक



समीक्षा कृति से संवाद करती है, और उसके प्रति रुचि पैदा करती है, वह न तो पुस्तक-परिचय है न उसका प्रचार. संवाद के लिए विषय-वस्तु और पृष्ठभूमि से परिचय आवश्यक है और जहां जरूरत हो वहाँ असहमति की ज़िम्मेदारी का एहसास भी. ऐसी समीक्षाएं कृति को आलोकित करती हैं. 

शुभनीत कौशिक इतिहास के अध्येता हैं और साहित्य में रुचि रखते हैं. उनकी लिखी समीक्षाओं में ये दुर्लभ गुण मिलते हैं. इतिहासकार सदन झा की किताब 'देवनागरी जगत की दृश्य संस्कृति' की यह समीक्षा आप पढ़ें और देखें.




देखने की संस्कृति और राजनीति का इतिहास                         
शुभनीत कौशिक






तिहासकार सदन झा उन गिने-चुने समाज-वैज्ञानिकों में से हैं, जो अंग्रेज़ी के साथ-साथ हिन्दी में भी गंभीर और शोधपरक लेखन का कार्य लगातार कर रहे हैं. पिछले कुछ वर्षों में उनके द्वारा लिखे गए विचारोत्तेजक निबंधों का संकलन है, उनकी किताब देवनागरी जगत की दृश्य संस्कृति (राजकमल प्रकाशन, 2018). अलग-अलग ऐतिहासिक संदर्भों पर लिखे गए इन निबंधों में जो बात साझा है, वह है दृश्य संस्कृति के इतिहास से उनका गहरा जुड़ाव. इन निबंधों में सदन झा जन-संस्कृति या आम फ़हम संस्कृति के विभिन्न पहलुओं को समझने की कोशिश करते हैं. जन-संस्कृति से उनका तात्पर्य दैनिक जीवन में रची-बसी कभी शोर-शराबे के साथ कभी चुपचाप सँवरती उन अनेक प्रक्रियाओं से है, जिन्हें किसी एक ठौर पर रखकर व्याख्यायित करना मुश्किल होता है.अकारण नहीं कि इस पुस्तक में भाषा, साहित्य, इतिहास के साथ-साथ गाँव और शहरों के अनुभव भी शामिल हैं.

दृश्य संस्कृति की पड़ताल करते ये निबंध जहाँ एक ओर भाषा व साहित्य के अनदेखे-अनछुए पहलुओं को उद्घाटित करते हैं, वहीं दूसरी ओर ये शहरी अनुभवों, रोज़मर्रा की प्रौद्योगिकी (जैसे रेडियो), राष्ट्रीय प्रतीकों से जुड़ी राजनीति के इतिहास की ओर भी हमारा ध्यान खींचते हैं. इस संकलन की भूमिका में सदन झा ने दृश्य संस्कृति को समझने, उसकी व्याख्या व ऐतिहासिक विश्लेषण में पेश आने वाली चुनौतियों पर भी गहराई से विचार किया है. दृश्य संस्कृति के विभिन्न पक्षों पर हुए लेखन की सीमा बताते हुए सदन झा कहते हैं कि इनमें दृश्य जगत को साहित्य, लिखित थाती और शब्दों की दुनिया से असंपृक्त कर देखने का रुझान रहा है. 

देखने के समाज-विज्ञान की वकालत करते हुए वे देखने की संस्कृति और राजनीति का इतिहास लिखते हैं. इस क्रम में, वे आधुनिकता के विमर्श में अनुभव की अनुपस्थिति को रेखांकित तो करते ही हैं. साथ ही, ज्ञान उत्पादन की अंदरूनी राजनीति की ओर भी इशारा करते हैं. दार्शनिक जॉर्जियो अगंबेन की कृति इन्फैन्सी एण्ड हिस्ट्री के हवाले से वे बताते हैं कि कैसे आधुनिक काल में ज्ञान ने अनुभव को न सिर्फ विस्थापित कर दिया, बल्कि अनुभव के स्वतंत्र वजूद को ही ख़त्म कर दिया. नतीजा ये कि अनुभव साक्ष्य में तब्दील हो गया और इस तरह ज्ञान का एक और स्रोत भर होकर रह गया. उल्लेखनीय है कि इस दृष्टिकोण से समाज-विज्ञान भी अछूता न रहा और वह भी विज्ञान की प्रयोगशाला का ही एक विस्तार बन गया.   


रोज़मर्रा का इतिहास और शहर
शहरों के दैनंदिन जीवन के इतिहास को समझने के क्रम में सदन झा हमें दरभंगा समेत समूचे मिथिलांचल में बीसवीं सदी के आखिरी दशकों की उपभोक्ता संस्कृति से वाकिफ़ कराते हैं. इसमें जहाँ एक ओर खान-पान की संस्कृति में आती तब्दीलियों की बानगी देती जॉन नज़ारथ की बेकरी रीगल और उनके उत्पादों की लोकप्रियता है. वहीं दूसरी ओर है संतोष रेडियो’, जो समय के साथ विशिष्ट सामाजिक मूल्य अख़्तियार कर लेती है. संतोष रेडियो के बहाने सदन झा उपभोक्ता संस्कृति में आते बदलावों को रेखांकित करते हैं. सामाजिक सोपानों पर आधारित मूल्यबोध और निजी या पारिवारिक संपत्ति से जुड़ी धारणाएँ इस बदलाव का अहम हिस्सा हैं. एक दृष्टांत के जरिये वे यह भी समझाते हैं कि कैसे रेडियो जैसी मीडिया से जुड़ी कोई वस्तु सामाजिक मूल्य अख़्तियार कर लेती है. अकारण नहीं कि इतिहासकार डेविड आर्नाल्ड ने रेडियो जैसे वस्तुओं को लघु प्रौद्योगिकी की संज्ञा देते हुए उनका सामाजिक इतिहास लिखे जाने पर ज़ोर दिया है. ख़ुद अपनी किताब एवरीडे टेक्नोलॉजी में आर्नाल्ड भारतीय संदर्भ में टाईपराइटर, सिलाई मशीन, साइकिल और चावल मिल का दिलचस्प सामाजिक इतिहास लिखा भी है.   

सदन झा द्वारा शहरों पर लिखे हुए लेखों के केंद्र में राजधानी दिल्ली और उसके रोज़मर्रा के जीवन के विविध आयाम हैं. मामूली राम की दिल्ली में जहाँ ख़बरों के मामूलीपन की विस्तृत पड़ताल की गई हैं, वहीं एक अन्य लेख के केंद्र में है, दिल्ली की गलियों, दीवारों और बसों पर लिखी हुई इबारतें और उनके सामाजिक-सांस्कृतिक निहितार्थ. सदन झा चित्र, अक्षर और शहर के उस त्रिकोणीय संबंध की पड़ताल करते हैं, जिसमें सड़क की आँखों के जरिये शहर की कहानी कही जाती है.

शहर की देह पर अक्षराघात शीर्षक वाले इसी लेख में सदन झा लोक-वृत्त (पब्लिक स्फ़ियर) और जन-स्थान को अलग-अलग करके देखते हैं. उनके अनुसार यह पब्लिक स्फ़ियर की बात नहीं, यह तो जन-स्थान की बात है. (पृ. 58) लेकिन इसके उलट, सदन झा इसी किताब की भूमिका में लिखते हैं कि मेरा मानना है कि जिन शर्तों पर अधिकांश विद्वान जन और लोक संस्कृति में फ़र्क करते हैं, वह आज के समय में अपने आप में भ्रामक और आरोपित होगा. लोक और जन आज के परिप्रेक्ष्य में एक-दूसरे से घुले-मिले हैं. (पृ. 12) यदि सदन झा के अनुसार, लोक और जन घुले-मिले हैं तो फिर लोक-वृत्त (पब्लिक स्फ़ियर) और जन-स्थान को अलग-अलग कर देखना कैसे संभव है? इस अंतर्विरोध को सदन झा ने स्पष्ट नहीं किया है.     
(सदन झा )

शहर और उसके विभिन्न आयामों से जुड़े ये दिलचस्प निबंध फ्रेंच दार्शनिक और इतिहासकार मिशेल दे शेर्तु (1925-1986) की भी याद दिलाते हैं, जिन्होंने रोज़मर्रा के जीवन-व्यवहार का विश्लेषण अपनी चर्चित किताब द प्रैक्टिसेज ऑफ एवरीडे लाइफ में किया है. शेर्तु ने इस किताब को आम आदमी को समर्पित करते हुए लिखा था कि आम लोग ही समाज की अनसुनी आवाज़ होते हैं. वे अपने प्रतिनिधित्व की अपेक्षा किए हुए बिना इतिहास-चक्र को गति देते हैं. इतिहासलेखन और समाजविज्ञान में आते बदलावों को लक्षित करते हुए शेर्तु ने लिखा था कि अब इतिहास की दूधिया रोशनी (फ़्लडलाइट) अतीत की दर्शक-दीर्घा के उस हिस्से पर पड़ रही है, जहाँ आम लोग बैठे हुए हैं. उल्लेखनीय है कि शेर्तु ने वॉकिंग इन द सिटी शीर्षक वाले अपने विचारोत्तेजक लेख में शहर के भूगोल, उसकी संरचना, उसके स्थापत्य से जुड़े प्रश्नों पर गहराई से विचार किया था. शेर्तु का मानना था कि 


किसी शहर में पैदल चलते हुए आम लोग ही उस शहर को, उससे जुड़े अनुभवों को बुनियादी रूप से रचते हैं. पसीने से लथपथ अपनी देह से आम लोग वह नगरीय टेक्स्ट लिखते हैं, जिसे वे भले ही न पढ़ पाएँ, लेकिन जिसके बगैर शहर की कल्पना भी नहीं की जा सकती.  


देखने की राजनीति और राष्ट्रीय ध्वज     
राष्ट्रीय झंडे पर लिखे हुए निबंध में सदन झा झंडे को देखने से जुड़े भिन्न-भिन्न दावों की प्रकृति और उनकी राजनीति को समझने का प्रयास करते हैं. वे झंडे को राष्ट्र के प्रतीक के रूप में देखते हैं, जिसका नियमन राज्य अक्सर एक पवित्र वस्तु के रूप में करता है. जोकि सीधे तौर पर राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन में धार्मिकता की उपस्थिति के सवाल से भी जुड़ा हुआ है. जनता द्वारा किसी प्रतीक या वस्तु के देखने के विभिन्न तरीक़ों को समझाते हुए वे इसमें अंतर्निहित संस्कृति, पवित्रता और धार्मिकता के तत्त्वों को भी विश्लेषित करते हैं.

सदन झा न्यायिक विमर्श और प्रशासनिक व्यवहार के बीच फर्क की ओर भी हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं. न्यायिक विमर्श और प्रशासनिक व्यवहार के बीच के इस अंतर के बारे में इतिहासकार ज्ञान प्रकाश और रोहित दे ने क्रमशः आपातकाल और आम हिंदुस्तानियों के नजरिए से संविधान पर लिखी गई अपनी हालिया पुस्तकों में विस्तारपूर्वक लिखा है. उल्लेखनीय है कि सदन झा ने भी राष्ट्रीय झंडे से जुड़ी राजनीति पर ही केन्द्रित अपनी एक अन्य किताब रिवरेंस, रेसिस्टेंस एंड पॉलिटिक्स ऑफ सीइंग द इंडियन नैशनल फ़्लैग (2016) में भारत के राष्ट्रीय ध्वज की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, राजनीतिक प्रतीक के रूप में उसके इस्तेमाल, राष्ट्रीय आंदोलन और राजनीतिक सत्ता से झंडे के जुड़ाव से लेकर तिरंगे के उत्तर-औपनिवेशिक भारतीय राज्य के प्रतीक बनने की यात्रा पर सविस्तार लिखा है.

प्रशासनिक व्यवहार से ही जुड़ा हुआ मसला है राज्य द्वारा जनसमुदाय पर अपना नियंत्रण स्थापित करने की कामना. जोकि सीधे तौर पर शासन और नियंत्रण से जुड़ी हुई है. मिशेल फूको के हवाले से कहें तो राज्य द्वारा नियंत्रण के ऐसे प्रयासों के फलस्वरूप लोग शासन की इकाइयों में तब्दील हो जाते हैं. राज्य के ऐसी नियंत्रणकारी नीतियाँ भीड़ की उन्मादी प्रवृत्ति और उसके सत्ताविरोधी राजनीतिक चरित्र के नियमन का प्रयास करते हैं. स्पष्ट है कि भीड़ की इस राजनीतिक प्रकृति में लोकवाद और राजनैतिकता के तत्त्व भी समाहित होते हैं.    


देवनागरी जगत और रेणु की आंचलिकता      
एक नयी भाषा का उदय शीर्षक वाले लेख में सदन झा उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध से लेकर बीसवीं सदी के दूसरे दशक में प्रकाशित हुई हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकों के जरिए देवनागरी जगत की दृश्य संस्कृति और उसके सांस्कृतिक व प्रतीकात्मक मूल्यों की गहरी पड़ताल करते हैं. इस क्रम में, वे हमें देखने के इतिहास से जुड़ी पेचीदगी से रूबरू कराते हैं. बालकृष्ण भट्ट द्वारा संपादित पत्रिका हिन्दी प्रदीप में जुलाई 1883 में छपे देखना-दिखाना शीर्षक वाले लेख के जरिये वे नैतिक-राजनीतिक भाषा के उपयोग के बारे में बताते हैं. देखने-दिखाने के महत्त्व के बारे में हिन्दी प्रदीप के इसी लेख में लिखा गया था कि देखने और दिखाने की इच्छा निकाल दी जाय तो जनाकीर्ण जगत और जीर्ण अरण्य बराबर हो जाय. देखने की संस्कृति को समझते हुए सदन झा चित्र, चित्र और देखने से जुड़े हुए साहित्य के विश्लेषण के साथ-साथ देखने के विमर्श का मूल्यांकन भी करते हैं.

उपन्यासकार फणीश्वरनाथ रेणु की आंचलिक आधुनिकता का विश्लेषण करते हुए वे रेणु के अनोखे लहजे, कोसी अंचल की सांस्कृतिक स्मृति और कहन के अनूठेपन को व्याख्यायित करते हैं. रेणु के उपन्यासों में चित्रित गाँव के बारे में सदन झा रेखांकित करते हैं कि यह कोसी नदी के पूरब का गाँव है, जिसमें भाषा, जाति के अलावा वैचारिक दावेदारियाँ भी सक्रिय हैं. रेणु के कथा-साहित्य में, जिसे सदन झा एक समृद्ध भाषाई आर्काइव का दर्जा देते हैं, इतिहास अतीत के चिह्नों के रूप में बिखरा हुआ है. यह सांस्कृतिक अतीत बहुलता का भी परिचायक है.

उल्लेखनीय है कि रेणु ने ख़ुद ही अपनी कालजयी कृति मैला आँचल को एक आंचलिक उपन्यास कहा था. यहाँ तक कि आंचलिकता के मुद्दे पर जब बहस उठी तो रेणु ने उसमें सार्थक हस्तक्षेप भी किया था. यहाँ यह उल्लेख कर देना प्रासंगिक होगा कि हिंदी की पत्रिका सारिका ने आंचलिकता के प्रश्न पर एक परिचर्चा भी आयोजित की थी. परिचर्चा में रेणु ने भी भाग लिया और अपना वक्तव्य भी दिया, जाहिर है आंचलिकता के पक्ष में ही. फणीश्वरनाथ रेणु की विश्व-दृष्टि और उनकी विशद जानकारी का परिचय पाना हो तो जनवरी 1962 में सारिका में छपा वह लेख पढ़ना चाहिए. लेख का शीर्षक ख़ालिस रेणु के अंदाज़ में है : पतिआते हैं तो मानिए आंचलिकता भी एक विधा है. अपने इस लेख में रेणु आंचलिकता की बात करते हुए उसी सहजता के साथ मिखाइल शोलोखोव, विलियम फाकनर, इर्वा आन्द्रिच, नाज़िम हिकमत, स्वात दरवेश की कृतियों का उल्लेख करते हैं, उनसे जिरह करते हैं, जिस सहजता से वे अपने प्रिय रचनाकार शरत चंद्र और सतीनाथ भादुड़ी की कृतियों का ज़िक्र करते हैं.  

हालांकि, रेणु की आंचलिकता पर आधारित इस विचारोत्तेजक लेख में सदन झा ने प्रेमचंद के उपन्यासों के संदर्भ में जो सरलीकृत टिप्पणियाँ/धारणाएँ दी हैं, उनसे मैं सर्वथा असहमत हूँ. गोदान के संदर्भ में सदन झा लिखते हैं कि 

गोदान में ग्रामीणों के मध्य राजनीतिक चेतना नदारद है.(पृ. 182) इस संदर्भ में कहना चाहूँगा कि अगर गोदान के ग्रामीणों में राजनीतिक चेतना मौजूद नहीं है, तब शायद हमें राजनीतिक चेतना को ही फिर से पारिभाषित करना होगा. इसी संदर्भ में, डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा है कि गोदान का कथानक किसान-महाजन संघर्ष को लेकर रचा गया है. यहाँ होरी पूरे महाजन वर्ग और उसके सहायक जमींदार वर्ग के कारिंदों से युद्ध करता हुआ परास्त होता है. किसान-महाजन संघर्ष का होरी ही एक महान प्रतीक बन जाता है. 

अगर होरी का संघर्ष और प्रतिरोध निष्क्रिय और नाकाफ़ी जान पड़ता हो, उसमें राजनीतिक चेतना की झलक न मिलती हो तो एक निगाह होरी की पत्नी धनिया और बेटे गोबर के प्रतिरोध और चेतना पर भी डालनी चाहिए. कुछ लेखकों ने प्रेमचंद को भारतीय निष्क्रियता का विश्वासी बतलाया था. उन्हीं लेखकों को जवाब देते हुए नामवर सिंह ने अपने लेख प्रेमचंद और भारतीय कथा साहित्य में भारतीयता की समस्या में लिखा कि क्या होरी की यह निष्क्रियता ही गोदान का कथ्य है, पत्नी धनिया और पुत्र गोबर के बार-बार फूट पड़ने वाले विद्रोह के बीच भी होरी की समझौतापरस्ती क्या अंततः पाठक-हृदय में विस्फोट पैदा नहीं करती? प्रेमचंद की इस यथार्थवादी कला में होरी भारतीय किसान की एक प्रतिमा ही नहीं, बल्कि दर्पण भी है जो भारतीय किसान को उसकी निष्क्रियता की त्रासदी का अभाव प्रतिबिम्बित दिखाकर विद्रोह के लिए ललकारता है.

दूसरी बात, जो सदन झा ने गोदान के संदर्भ में लिखी है, जिससे मैं असहमत हूँ. वह है गोदान की भाषा और उसमें दर्शाए गए गाँव की सामाजिक परिस्थिति के संदर्भ में. सदन झा लिखते हैं खड़ी बोली में लिखा उत्तर प्रदेश का यह गाँव अवधी, भोजपुरी या ब्रज नहीं के बराबर इस्तेमाल करता है. अंचल यहाँ अपनी भाषायी विविधता से महरूम है और यह गाँव जातियों से खाली है.मैं यहाँ भी सदन झा से असहमत हूँ. क्योंकि गोदान के गाँव में जाति का सामाजिक यथार्थ तो उपस्थित है ही. जातिगत उत्पीड़न के विरुद्ध दलितों का प्रतिरोध भी गोदान में अपने मुखर स्वर में मौजूद है. जहाँ तक प्रेमचंद की भाषा और भाषाई विविधता का सवाल है. रामविलास शर्मा ने इसी संदर्भ में अपने लेख प्रेमचंद की कला में जो लिखा है, उस पर भी ध्यान देना चाहिए. रामविलास शर्मा के अनुसार :

'प्रेमचंद के पात्रों की भाषा एक अध्ययन करने की वस्तु है; देहाती, हिंदी, उर्दू, अंग्रेज़ी और इनके मिश्रण से बनी अनेक प्रकार की भाषा शैलियाँ एक युग के सांस्कृतिक आदान-प्रदान का इतिहास हैं...प्रेमचंद का गद्य देहाती भाषा की दृढ़ भूमि पर निर्मित हुआ है; कहावतें, मुहावरे, उपमाएँ उन्होंने वहीं से सीखी हैं; भाषा की सरलता के लिए भी उन्हें वहीं से प्रेरणा मिली है. प्रेमचंद की कला का रहस्य एक शब्द में उनका देहातीपन है; ग्रामीण होने के कारण वह समाज के हृदय में पैठकर वे उसके सभी तारों से संबंध स्थापित कर सके हैं.'   


विभाजन, विस्थापन और सिनेमा       
कहना न होगा कि निज/आत्म की तलाश की बानगी देती फणीश्वरनाथ रेणु की रचनाओं में लोक में संचित अतीत भी प्रतिबिम्बित होता है. आत्म की यही खोज सदन झा विभाजन पर बनी फ़िल्मों में भी देखते हैं, जिसे वे खोये हुए और बरामद आत्म के रूप में देखते हैं. विभाजन की सिनेमाई जमीन की पड़ताल करते हुए वे तमस, छलिया, लाहौर, अमर रहे यह प्यार, ग़दर, अर्थ 1947 सरीखी फ़िल्मों में प्रकट होने वाले पश्चाताप के बोझ और जेंडर की राजनीति की ओर भी इशारा करते हैं.

गोविंद निहलानी द्वारा निर्देशित धारावाहिक तमस और एमएस सथ्यु की गरम हवा जैसी विभाजन केन्द्रित फ़िल्मों में प्रकट होने वाली विभाजन और विस्थापन की त्रासदी और उसके निहितार्थों पर फ़िल्म अध्येताओं, समाजवैज्ञानिकों ने काफी लिखा है. लेकिन सदन झा यहाँ छलिया’, ‘लाहौर और अमर रहे यह प्यार जैसी फ़िल्मों के हवाले से बँटवारे और विस्थापन की ऐतिहासिक त्रासदी का मूल्यांकन करते हैं. राजेन्द्र कुमार, नंदा और नलिनी जयवंत की फ़िल्म अमर रहे यह प्यार की कहानी में पिता की गैर-मौजूदगी को विश्लेषित करते हुए सदन झा एक अहम सवाल उठाते हैं कि क्या यह कास्ट्रेटेड और अनुपस्थित पिता के द्वारा एक प्रकार के ओईडिपल कॉम्प्लेक्स की तरफ ले जाता है?’ लेकिन इस महत्त्वपूर्ण सवाल पर ठहरने और इसकी संभावित व्याख्या तलाशने की बजाय सदन झा ग़दर और अर्थ 1947 जैसी दूसरी विभाजन केन्द्रित फ़िल्मों की ओर बढ़ जाते हैं.

विभाजन और उससे उपजे विस्थापन पर केन्द्रित इन फ़िल्मों का अंतर्दृष्टिपूर्ण विश्लेषण करते हुए सदन झा ध्यान दिलाते हैं कि यह सिनेमाई देह जेंडर की राजनीति के परफ़ार्मेंस की, उसके उत्पादन की देह है और पश्चाताप का अध्ययन इन जेंडर इबारतों के बिना नहीं हो सकता.सदन झा अपनी इस पुस्तक में दृश्य संस्कृति के अनछुए पहलुओं को महानगरीय सीमाओं और अंग्रेज़ी भाषी अभिजात्यता की परिधि से बाहर निकालने के अपने उद्देश्य में सफल रहे हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि उनकी यह किताब हिंदी में दृश्य-संस्कृति के अध्ययन में दिलचस्पी जगाने और संवाद की प्रक्रिया को आगे ले जाने का काम करेगी.


आख़िर में सदन झा के शब्दों में ही कहूँ तो यह किताब उस हक़ीक़त से बेजा नहीं जिसे हम बोल-चाल में गाहे-बगाहे उत्तर भारतीय विशेषण के साथ प्रयोग करते हैं. कहना न होगा कि यह विचारोत्तेजक किताब इतिहास के साथ-साथ राजनीति, साहित्य, सिनेमा और दृश्यकला आदि विधाओं में रुचि रखने वाले पाठकों के लिए बेहद उपयोगी और दिलचस्प साबित होगी.
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शुभनीत कौशिक इतिहास और साहित्य में गहरी दिलचस्पी रखते हैं और फ़िलहाल बलिया के सतीश चंद्र कॉलेज में इतिहास पढ़ाते हैं.
kaushikshubhneet@gmail.com 

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  1. कृष्ण कल्पित17 जून 2020, 9:12:00 am

    बहुत सुन्दर सार्थक समीक्षा । किताब पढ़ने की इच्छा जगाती हुई । इस तरह के अध्ययन हिन्दी में कम हैं । बधाई ।

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  2. यतीश कुमार17 जून 2020, 9:12:00 am

    दरभंगा ,रेणु ,प्रेमचंद्र,फिल्मों का असर ,शहर और रहने वाले लोग उनके अनछुए पहलू।
    आश्चर्य हो रहा है ऐसी पैनी दृष्टिकोण से लिखी किताब का और उसकी सारगर्भित समीक्षा का।
    आप तीनों को साधुवाद ।पढ़नी होगी अब तो

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  3. रमाशंकर सिंह17 जून 2020, 9:18:00 am

    शुभनीत को पढ़ना हमेशा अपने आपको समृद्ध करने जैसा होता है। इस लेख को पढ़ना और भी सुंदर है क्योंकि सदन जी की इस किताब बिलकुल इसकी शुरुआत में ही पढ़ा था तो बात और भी बन जाती है।

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  4. अब किताब को पढ़ जाना मजबूरी है.

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  5. अच्छा लगा। जोरे कलम और जियादा

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  6. समय के सामाजिक इतिहास के पुनर्लेखन की ओर संकेत करती यह किताब हिंदी में किये जा रहे सक्षम सामाजिक अध्ययन का उदाहरण है।शोध और आलोचना के कई आयामों की ओर संकेत करती समीक्षा हमारे समकाल में लिखी जा रही गंभीर समीक्षा की नज़ीर भी है।समालोचन और शुभनीत को बहुत बधाई।

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  7. पहले किताब की बात, किताब सामान्य प्रचलन की किताबी शक्ल से थोड़ी अलग है, जो इसे दिलचस्प बनाती है और पाठक को आकर्षित भी करती है। सदन जी ने दृश्य संस्कृति से जब बात भीड़ और राजनीति तक ले आते है तो पाठक को इस बात के लिए सतर्क भी करते है कि हमें सिद्धान्त की दुनिया से जितना ज़िरह ज़रूरी है उतना ही ज़िरह आमफ़हम की परिभाषा से भी होना चाहिए। किताब में भीड़ का विमर्श इसी का उदाहरण है। किताब का फलक और हसरते दोनो ही नीचे से ऊपर के इरादे को रखती है।

    शुभनीत जी की समीक्षा की भाषा बेहद खूबसूरत है, किताब के हर करवट को समीक्षक ने बख़ूबी ध्यान से कलमबद्ध किया है। बधाई

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  8. आशीष सिंह17 जून 2020, 11:35:00 am

    एक कृति के मूलभाव से परिचित कराती सम्यक कृति परिचय है यह। ठहरकर और ध्यान से पढ़ने को विवश करती है ।हिंदी में ऐसी किताबें कम ही ही हैं ।जल्दी ही हम लोग मूल टेक्स्ट से रूबरू होंगे ।आभार

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  9. शुभनीत ने विमर्श की एक बहुत समर्थ और पारदर्शी भाषा विकसित की है। उन्‍हें पढ़ते हुए अर्थ का अनुमान नहीं लगाना पड़ता। हिंदी के समाज-वैज्ञानिक लेखन के लिए यह किसी ख़ुशख़बरी से कम नहीं है। यह इसलिए कहना पड़ रहा है कि युवतर पीढ़ी के बहुत से अध्‍येताओं की रचनाओं का तर्क और तात्‍पर्य अटपटे वाक्‍यों व झुटपुटे शब्‍दों में स्‍वाहा हो जाता है।
    बहरहाल, समीक्षा में शुभनीत ने एक जगह सदन झा के इस तर्क का प्रतिवाद किया है कि गोदान में राजनीतिक चेतना अनुपस्थित है, और फिर इस भ्रांति का निराकरण करने के लिए उन्‍होंने रामविलास शर्मा का उद्धरण दिया है। समीक्षा में 'लोक' और 'जन' की चर्चा करते हुए शुभनीत कहते हैं कि लेखक ने इन पदों को परस्‍पर-व्‍यापी मान कर लोक-वृत्त (पब्लिक स्फ़ियर) और जन-स्थान के बीच एक अंतर्विरोध पैदा कर दिया है। मुझे लगता है कि शुभनीत को गोदान में राजनीतिक चेतना की अनुपस्थिति के उपरोक्‍त उल्‍लेख की तरह इस अंतर्विरोध का भी दो-चार पंक्तियों में खुलासा करना चाहिए था।

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  10. शुभनीत भाई ने काफी विस्तृत समीक्षा लिखी है। इस किताब के बारे में वैसे तो पता था, परन्तु अब पढ़ने का सहज ही मन करने लगा। बधाई।

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  11. बहुत शुक्रिया। इतने विस्तार से लिखने के लिए और तीनों-चारो असहमतियों के लिए भी. ठीक ही ध्यान दिलाया है कि जन स्थान और पब्लिक स्फेयर के बीच अंतर का जिक्र तो किया लेकिन उसे विस्तार नहीं दिया. पब्लिक स्फेयर को क्या लोक बृत कहना उचित होगा? पब्लिक स्फेयर जिस तरह हैबरमास इस्तेमाल करते हैं वह संस्थाओं के जाल से बनता है. जबकि मैं जन स्थान जैसे सड़क, बस के सीट, सड़क किनारे के दीवाल आदि की बात कर रहा हूँ.  मैं पब्लिक स्पेस की बात कर रहा हूँ इसलिए स्फीयर की नहीं.
    प्रेमचंद और रेणु पर असहमतियां बानी रहेंगी. मैंने अपनी बात विस्तार से IESHR बाले आलेख में लिखा है.आपने बहुत सही चिन्हित किया है कि अनेक आलेखों में मैं जल्दी में हूँ यहां. विभाजन के सिनेमा बाली बात भी एकदम सही है. इससे कई सतहीनुमा जुमले भी आ गए हैं. यह इसलिए भी कि अनेक आलेख यहां मैं एकेडेमिक पाठक के लिए नहीं, एक ऐसे पाठक के लिए लिख रहा था जो एकेडेमिक और नॉन एकेडेमिक के बीच कहीं है. अलग अलग समय में लिखे को एक जगह एकत्र करने के नुक्सान तो हो जाते हैं. 
    क्या प्रेमचंद के बगैर रेणु को या किसी भी दूसरे महान साहित्यकार को लिखा जा सकता है. उत्तर है और ना दोनों में होगा. लेकिन, मेरे लिए  रेणु को लिखते हुए प्रेमचंद का जिक्र जरुरी हो जाता है, कई मायनो में. इसके अपने खतरे भी हैं. हम वहीँ नूरा कुश्ती में फंस जाते हैं. बगैर नूरा कुश्ती में फंसे मेरा मत है कि रेणु लिख रहे हैं. उनसे पहले ही से बेनीपुरी, अमृत लाल नागर, यात्री भी (उनकी उपन्यासिका का मैं जिक्र कर रहा हूँ). और ये सब कहीं न कहीं गांव और शहरी सामाजिकता को हिंदी में ला रहे हैं. यह जो सामाजिकता है उसका भाषायी संस्कार, उसके भाषायी सरोकार  भिन्न है. आप कहेंगे क्या भिन्न है? यह सवाल एक समाज विज्ञान के छात्र के लिए बेहद जरुरी सवाल है. तो मैं कहूंगा  कि ये समाज और सामाजिकता के स्थापित भाषीयी संस्कार से संवाद कर रहे थे, उसे तोड़ रहे थे. सवाल है कैसे? होरी किस जाति का है ?  ज़रा बताइये तो? मिस मालती और मिस्टर मेहता की जाति भी जोड़ दें. कफ़न मुझे एकमात्र ऐसी रचना मिलती है प्रेमचंद की जो पात्रों को उनकी जातिगत पहचान के साथ सामने लाता है.  लेकिन महज जाति का होना या न होना प्रेमचंद की महानता को कमतर नहीं करता है. वहाँ वर्ग चेतना है, और बेहद संश्लिष्टता के साथ है. लेकिन स्थानीयता नहीं है. गाँव है शहर है. न तो ग्रामीण चेतना ही और न ही शहरी चेतना ही खंडित है. रही मासूम रजा की तरह शहर नहीं. नागर के लखनऊ और लखनवीं भाषायी चेतना नहीं है. सब एक सी भाषा बोलते हैं खड़ी बोली. आप उत्तर प्रदेश और बिहार के गाँव में जाएँ तो बहुत से हिंदी पढ़ने बाले अपनी मातृ भाषा हिंदी कहेंगे. अवधी, ब्रज, भोजपुरी को जैसे खड़ी बोली हिंदी ने डस लिया हो जैसे. होरी धनिया से किस भाषा में बात करता है? मुझे प्रेमचंद पढ़े हुए बहुत समय हो गया शायद मुझे फिर से पढ़ना चाहिए. मैं भी नूरा कुश्ती में ही लग गया.      
    बहरहाल, मजा आया. धन्यवाद. बहुत शुक्रिया इस समीक्षा को प्रकाशित करने के लिए समालोचन और अरुण देव जी का भी. 
    सदन.

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  12. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक चर्चा मंच पर चर्चा - 3736
    में दिया गया है। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
    धन्यवाद
    दिलबागसिंह विर्क

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  13. सौरव राय17 जून 2020, 3:06:00 pm

    शुभनीत भाई ने काफी विस्तृत समीक्षा लिखी है। इस किताब के बारे में वैसे तो पता था, परन्तु अब पढ़ने का सहज ही मन करने लगा। बधाई।

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  14. अपने ढंग की अलग किताब,देखने की संस्कृति के बहाने हिन्दी पट्टी की ्बारीक सामाजिक पड़ताल की गई है। भाषा, बोली,जाति, राजनीति,चेतना,विद्रोह सारी चीजों को एक साथ निकट अतीत के साहित्य, सिनेमा,जन व्यवहार,के बजरिए खंगालने का अनूठा उद्यम है। समीक्षा सहज व अटपटेपन से मुक्त है। ्््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््

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  15. सदन जी को बहुत कम पढ़ा है। लेकिन जितना ही पढ़ा उन्होंने उत्सुकता बढ़ाई। आपकी समीक्षा अविलंब पुस्तक लेने और पढ़ने के लिए प्रेरित करती है। सदन सर बधाई और अच्छी समीक्षा के लिए आपको भी बधाई।

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  16. सटीक और सारगर्भित आलेख

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