बिहार की गिरमिटिया मजदूरिनें और जॉर्ज ग्रियर्सन : यादवेन्द्र

East Indian Women, Men and Children (१८९०-१९९६)


स्वाधीन भारत के इस कोरोना काल में मजदूरों की जो दुर्दशा हो रही है, वह अमानवीय तो है ही औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों द्वारा कुली के रूप में हिन्दुस्तानियों ख़ासकर बिहार और पूर्वी उत्तर-प्रदेश के मजदूरों की भर्ती और अप्रवास की भी याद दिलाती है. तब भी इन मजदूरों में स्त्रियाँ शामिल थी, उन्हें ज्यादा पसंद किया जाता था.

लेखक अनुवादक यादवेन्द्र बिहार की गिरमिटिया मजदूरिनों पर अपनी आगामी किताब के संदर्भ में शोध कार्य कर रहें हैं. भाषाशास्त्री और हिंदी साहित्य के इतिहासकार के रूप में समादृत जॉर्ज ग्रियर्सन 1883 के अपने इस रिपोर्ट में जो गिरमिटिया मजदूरों पर है, अंग्रेजी सरकार के निष्ठावान प्रतिनिधि के रूप में सामने आते हैं. यह लेख इसी रिपोर्ट पर आधारित है.




बिहार की गिरमिटिया मजदूरिनें और जॉर्ज ग्रियर्सन         

यादवेन्द्र 





रवरी 1883 में प्रख्यात भाषा शास्त्री के तौर पर विख्यात सर जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने  बंगाल सरकार को एक विस्तृत रिपोर्ट "रिपोर्ट ऑन कोलोनियल इमीग्रेशन फ्रॉम द बंगाल प्रेसिडेंसी" शीर्षक से एक रिपोर्ट सौंपी. बंगाल सरकार ने 'द एमिग्रेशन एक्ट 1871' के लागू होने के बाद  किस तरह से उसके प्रावधानों का पालन किया गया, क्या उनमें किसी तरह की खामी है और यदि है तो उन खामियों को कैसे दुरुस्त किया जा सकता है- इन तीन प्रमुख बिंदुओं पर अध्ययन करने के लिए शासन ने जॉर्ज ग्रियर्सन को कहा था. बंगाल प्रेसीडेंसी के अधिकार क्षेत्र में आने वाले गिरमिटिया मजदूर भर्ती करने वाले प्रमुख शहरों का व्यापक दौरा कर उन्होंने सरकारी दस्तावेज खंगाले और संबंधित अफसरों, एजेंटों और बाहर भेजे गए लोगों के परिजनों से बातचीत की. इन्हीं विषयों पर उपलब्ध विस्तृत जानकारी उन्होंने अपनी रिपोर्ट में संकलित की.

(सर जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन)
इस रिपोर्ट में ग्रियर्सन स्पष्ट तौर पर कहते हैं कि मैं यह मान कर अपनी यह रिपोर्ट तैयार कर रहा हूँ कि सरकार बिहार से अधिकाधिक संख्या में मजदूरों को प्रवास के लिए भर्ती करने की इच्छुक है पर इसके लिए अपने अधिकार क्षेत्र में आने वाले कानूनी रास्तों का ही सहारा लेगी. तत्कालीन परिस्थितियों में ब्रिटिश उपनिवेश में भारत का लेबर मार्केट में दबदबा था. और अंग्रेज जब चाहते तब उनके आपूर्ति को नियंत्रित कर अपना दबदबा कायम रखते. इसका दूसरा पहलू बहुत दिलचस्प है जिसमें ग्रियर्सन कहते हैं कि हालॉकि मजदूरों की माँग पूरी करने में चीन भारत से आगे है लेकिन चीनी मजदूरों और भारतीय मजदूरों के बीच एक बड़ा अंतर है-

जहाँ  चीनी मजदूर अपने लिए पर्याप्त पैसा इकट्ठा करने के बाद स्वतंत्र हो जाना चाहते हैं और अपने पूर्व मालिकों के समकक्ष स्थापित होना चाहते हैं वहीं भारतीय मजदूरों की महत्वाकांक्षाएँ बड़ी सीमित होती हैं, उनकी ख्वाहिश बेहतर पगार पाने वाले कुली बने रहने की होती है उससे ज्यादा की उन्हें दरकार नहीं होती. यही कारण है कि इन उपनिवेशो में भारतीय मजदूर ज्यादा लोकप्रिय हैं.

1881 - 82 में करीब 1800 मजदूर बंगाल प्रेसीडेंसी से दुनिया के विभिन्न देशों में गिरमिटिया प्रणाली के अंतर्गत भेजे गए और जिसमें से 90% से ज्यादा बिहार के पटना, शाहाबाद और सारण जिलों से भेजे गए. इनके अलावा गया, दरभंगा, मुजफ्फरपुर और चंपारण जिलों से भर्ती किए गए. अंग्रेज़ अपने जिन उपनिवेशों में मजदूर ले जाने के लिए उत्सुक थे उनमें मॉरिशस (आम बोलचाल में मिरिच), गयाना (दमरा) और ट्रिनिडाड (चिनितात) अग्रणी थे.

प्रवास के मुद्दे पर ग्रियर्सन अपने विचार स्पष्ट शब्दों में कहते हैं:

"बाहर विदेश जाने वाले पुरुषों को लेकर आम जनता के मन में जिस तरह के पूर्वाग्रह और शंकाएँ  हैं उससे कहीं ज्यादा पूर्वाग्रह स्त्रियों को लेकर हैं. यह व्यापक धारणा आम भारतीय के मन में बनी हुई है कि भर्ती करने वाले एजेंट सीधी-सादी और बेहद ईमानदार महिलाओं को बहला-फुसलाकर बाहर ले जाते हैं और उसके बाद उनसे वेश्यावृत्ति कराते हैं.

वे एक पढ़े लिखे समझदार स्थानीय नागरिक के एक प्रतिवेदन का वे हवाला देते हैं जिसमें कहा गया है कि

"गिरमिटिया प्रणाली के अंतर्गत बहुत बड़े पैमाने पर अत्याचार और भ्रष्टाचार किया जाता है. ऐसी घटनाएँ  बहुत आम हैं कि भर्ती करने वाले एजेंट और उनके कारिंदे गरीब परिवारों की बहू-बेटियों को और कई बार सम्मानित परिवारों के स्त्रियों को भी, बहला-फुसलाकर अपने चंगुल में फाँस  लेते हैं और उन्हें कभी भी साफ-साफ शब्दों में यह नहीं बताते कि विदेश ले जाकर उनसे काम क्या काम कराया जाएगा. हर तरह के प्रलोभन देकर उन्हें पहले अपने परिवारों से दूर और घरों से बाहर किया जाता है. कभी-कभी किसी दूसरी जगह रख कर डिपो ले जाया जाता है और तब खुलासा किया जाता है कि किस देश ले जाया जाने वाला है. यह देखा जाता है कि अधिकांश स्त्रियाँ  इस खुलासे के बाद देश छोड़ कर विदेश जाने के लिए एकदम मना कर देती हैं लेकिन एक बार घर छोड़ कर बाहर कदम रख देने के बाद सम्मान सहित परिवारों में लौटना उनके लिए संभव नहीं रह जाता. एकबार हमेशा-हमेशा के लिए घर का रास्ता बंद हो जाने के बाद उन स्त्रियों के पास एजेंट का ठिकाना छोड़कर  कहीं और जाने का कोई रास्ता नहीं बचता- थोड़े बहुत विरोध के बाद दो-चार दिनों में वे अपनी नियति को मानकर हथियार डाल देती हैं. वैसे भी  एजेंट के पास ना नूकुर करने वालों को काबू में करने में सक्षम बलशाली लोगों की फौज होती है. ऐसी कई स्त्रियाँ  अपनी जान बचाने के लिए भर्ती एजेंटों और उनके संगी साथियों की रखैल बन कर रहने के लिए तैयार हो जाती हैं."

इस प्रतिवेदन में कुछ उदाहरण ऐसे गिनाए गए हैं जिनमें उग्र विरोध करने वाली स्त्रियों को शांत करने के लिए यह कह दिया जाता है कि ठीक है, जब तुम नहीं राजी तो हम तुम्हें बाहर नहीं भेजेंगे. उनकी जगह कुछ अन्य स्त्रियों को डिपो लाकर कागज पर उनके नाम पते लिखा दिए जाते हैं. जब प्रतिरोध थोड़ा कम हो जाता है तो मौका देखकर जहाज खुलने के ऐन समय फर्जी नाम पते पर ही पुरानी स्त्रियों को जबरन विदेश जाते जहाज पर लाद दिया गया.

हालाँकि अपनी रिपोर्ट में ग्रियर्सन कहते हैं कि यह मेरे विचार नहीं हैं बल्कि आम भारतीय के प्रतिनिधि के तौर पर प्रस्तुत उस व्यक्ति का विचार है जिसके प्रतिवेदन का मैंने उद्धरण दिया है. इसके साथ ही वे अपनी रिपोर्ट में यह स्पष्ट कर देते हैं कि मेजर पिचर* की रिपोर्ट में भी इसी आशय की बात लिखी गई है.

ग्रियर्सन ने विस्तृत पड़ताल के बाद अपनी रिपोर्ट में प्रवास पर जाने की इच्छुक महिलाओं  को चार वर्गों में विभाजित किया है  :

*उन मजदूरों की पत्नियाँ जो पहले प्रवास में रह चुके हैं और अब अपनी पत्नियों को लेकर जाना चाहते हैं- पर प्रवास में रह रहे मजदूरों की पत्नियों की संख्या बहुत मामूली थी.

*ऐसी विधवा स्त्रियाँ जिनकी देखरेख करने वाला कोई सगा संबंधी नहीं है-  विधवाओं के बारे में ग्रियर्सन का कहना था कि वे लांछन मुक्त थीं और कोई भी देश उनको लेने में आनाकानी नहीं करता. पर उनके साथ मुश्किल यह थी कि वे अपना देश छोड़ने को आसानी से राजी नहीं होती थीं.

*विवाहित स्त्रियाँ जो अपने घरों से निकल गईं - या तो उनके पतियों और परिवारों ने उन्हें त्याग दिया या (हो सकता है उनके कोई प्रेमी हों, या न भी हों) या इतर कारणों से अपने पतियों के बंधन से मुक्त होना चाहती हैं.

*वेश्याएँ- वेश्याओं का जहाँ तक सवाल था उनको अपने देश में आने की इजाजत कानूनी रूप में देने के लिए कोई देश कोई समाज खुले तौर पर तैयार नहीं होता.

ग्रियर्सन ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि अंग्रेज हुकूमत वाले उपनिवेशों में महिलाओं को आमंत्रित करने के लिए सबसे बड़ी उम्मीद चौथी श्रेणी की महिलाओं पर ही टिकी हुई थी- वे बहुत आसानी से अपना घर बार छोड़कर नए परिवेश में जा बसने को तैयार रहतीं और अपेक्षाकृत शुद्ध और निर्मल (comparatively pure) भी थीं.

"किसी से भी पूछा जाए तो वह यह नहीं कहेगा कि इन बेचारियों को विदेश ले जाने के लिए तैयार करना कोई पाप है- यह उनके लिए भी अच्छा था और देश के लिए भी अच्छा था. एक बार जब महिलाएँ अपना घर छोड़ देती हैं- चाहे वे स्वेच्छा से बाहर निकल जाएँ  या उन्हें बाहर निकाल दिया जाए- उनके पति कभी उन्हें स्वीकार नहीं करेंगे. और यदि उनके लिए विदेश जाने का यह रास्ता बंद कर दिया गया तो ले देकर उनके सामने दो ही विकल्प बचेंगे- आत्महत्या या वेश्यावृत्ति.", ग्रियर्सन लिखते हैं.

रिपोर्ट में अपना पक्ष वे एकदम स्पष्ट कर देते हैं कि जहाँ  तक बिहार का संबंध है उन्हें भर्ती करने वाले एजेंटों द्वारा विवाहित महिलाओं को बहलाने फुसलाने और प्रलोभन देकर भर्ती करने के आरोपों में कोई सच्चाई नहीं लगती. अपने निष्कर्षों में वे कहते हैं कि जिन जिलों में गिरमिटिया भर्तियाँ बहुत लोकप्रिय हैं वहाँ  के ग्रामीण इस तरह की घटनाओं से इंकार करते हैं लेकिन जिन इलाकों में भर्तियाँ कम हैं, नहीं हैं या बदनाम हैं उन जिलों में ऐसी शिकायतें अक्सर सुनने में आती हैं. तो इसका कारण यह हो सकता है कि लोगों को सही बात की जानकारी न हो.

वे साफ़-साफ़ कहते हैं कि गिनती ज्यादा से ज्यादा करने के लिए महिलाओं को येन केन प्रकारेण भर्ती करने की घटनाएँ  नहीं होती, ऐसा नहीं है,  लेकिन जहाँ  तक विवाहित महिलाओं का संबंध है इन शिकायतों पर विश्वास नहीं किया जा सकता.

"ऐसी एक भी घटना सामने आए तो पूरे जिले में हंगामा मच जाएगा. और ऐसी जुर्रत करने वाले भर्ती एजेंट को लोग पीट पीट कर मार डालेंगे और यदि वह बच गया तो उसके ऊपर आपराधिक मुकदमा चलना  निश्चित है. इसका दूसरा परिणाम यह होगा कि उस जिले में भर्ती की प्रक्रिया हमेशा हमेशा के लिए ठप हो जाएगी. चंपारण जिले में ऐसा ही हुआ जिसके कारण वहाँ  से न तो कोई मजदूर बाहर जाने के लिए भर्ती हुआ और न ही कोई भर्ती एजेंट जिले में अपनी शक्ल दिखाने की हिम्मत जुटा पाया. स्थानीय  जनता भर्ती एजेंटों और उनके गुर्गों पर बहुत पैनी नजर रखती  है और जब किसी इलाके में कोई स्त्री घर से गायब हो जाए तो उनका सीधा निशाना ये ही होते हैं. इस तरह के बहुत सारी शिकायतें विभिन्न जिलों में मजिस्ट्रेट के सामने की जाती हैं- अपने अध्ययन के दौरान मैंने ऐसे बहुत सारे मामलों के रिकॉर्ड देखे लेकिन ऐसी हर शिकायत का अंजाम एक ही हुआ- शिकायत सिरे से झूठी पाई गई. कुछ मामलों में यह देखा गया कि गायब हुई औरत ऐसे किसी एजेंट से कभी मिली ही नहीं. कभी-कभी ऐसा भी देखने में आया कि वह अपने प्रेमी के साथ घर से भागी और बाद में कहीं भर्ती एजेंटों से उन दोनों की मुलाकात हुई और वे गिरमिटिया मजदूर बनकर कहीं और चले गए."

1883 की ग्रियर्सन की रिपोर्ट में यह दर्ज है कि बांकीपुर, पटना और शाहाबाद के बाद सोनपुर मेला बाहर भेजे जाने वाले कुलियों की बहाली के लिए सबसे मुफीद जगह थी. एक एजेंट से बात का हवाला देते हुए वे लिखते हैं कि उस मेले में एक बार में 100 के करीब लोग भर्ती हो जाते हैं लेकिन उस साल बरसात बहुत हुई थी मेला मंदा था, इसलिए एजेंट (दीप लाल नाम था उसका)  केवल 30 लोगों को भर्ती कर पाया.

सारण की एक ब्राह्मण महिला की चर्चा दीप लाल करता है जो गयाना से कुछ साल रह कर वापस आई थी पर (उसके अनुसार) गाँव में कोई नाते रिश्तेदार नहीं मिले सो वह अपने पति और बच्चों के पास वापस गयाना चली गई. उसे वापस भेजने का काम दीप लाल ने ही संपन्न किया- उसके बयान के अनुसार वह महिला इतने गहने और बक्सों में भरे पैसे लेकर गयाना लौटी कि उन्हें उठाने के लिए चार आदमियों की जरूरत पड़ी.

दीप लाल ने ग्रियर्सन को बताया कि विदेश जाने के लिए जहाज पर चढ़ने के दिन हर पुरुष कुली के लिए उसे 18 रु मिलते हैं और महिला कुली के लिए 26 रु मिलते हैं- लेकिन यदि कलकत्ता के डिपो में ही किसी की मृत्यु हो जाए या कोई वहाँ से भाग जाए तो उसके आधे पैसे काट लिए जाते हैं. अपने लिए विभिन्न इलाकों में काम करने वाले नुमाइंदों (अरकाटी) को वह प्रति पुरुष के लिए दस और महिला के लिए चौदह रूपये देता है.

महिला कुलियों की उपलब्धता कम रहती थी जबकि माँग ज्यादा, और महिलाओं को भर्ती करने में एक कानूनी अड़चन यह होती थी कि उसके परिजनों की लिखित सहमति अनिवार्य होती है. कुलियों की भर्ती करने वाले लोगों के वक्तव्य ग्रियर्सन ने रिकॉर्ड किये हैं- उनका कहना है कि उन्हें हर महिला कुली के लिए 10 से 15 रु अतिरिक्त खर्च करने पड़ते हैं जिससे उसके परिजनों को खिला पिला कर लिखित सहमति पत्र प्राप्त की जा सके.

उनका सुझाव है कि यदि किसी साल निर्धारित अनुपात से ज्यादा महिलाएँ भर्ती के लिए उपस्थित हो जाएँ तो अतिरिक्त संख्या को अगले वर्षों की कम भर्ती के साथ समायोजित  कर दिया जाए.

भर्ती करने वाले एजेंट और उनके नुमाइंदों से बात करके ग्रियर्सन बार-बार यह मुद्दा उठाते हैं कि भर्ती करने का जिम्मा महिला एजेंटों  को भी को दिया जाना चाहिए. रिपोर्ट में  इस तरह के भी संदर्भ आए कि पहले रानीगंज में, गया में और आरा में ऐसी महिला एजेंट हुआ करती थीं. एक महीने में जो एजेंट  ढाई सौ कुलियों की भर्ती करे उसे 50 रु प्रतिमाह का इनाम मिलता है और यदि 500 कुलियों की भर्ती करे तो यह राशि बढ़कर 100 रु  प्रति माह हो जाती है. ग्रियर्सन अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं कि कुलियों की भर्ती करने वाले सभी एजेंटों का एक स्वर से यह कहना है की महिलाओं की भर्ती करना सबसे मुश्किल काम होता है. वे इस बात को बड़ी दृढ़ता के साथ सामने रखते हैं कि यदि वे इज्जतदार औरतों को अपने काम में मदद करने के लिए अपने प्रतिनिधियों के तौर पर  शामिल कर सकें तो उससे उन्हें बहुत  मदद मिलेगी और तादाद और चरित्र में भी अच्छी महिलाओं की भर्ती की जा सकती है.

बांकीपुर, पटना में काम करने वाले सब एजेंट दीप लाल सिंह के हवाले से वे लिखते हैं कि यदि महिला भर्ती कर्ताओं को यह काम सौंपा जाए तो कहीं ज्यादा सफलता मिलेगी- वे ऊंची जाति की महिलाओं तक अपनी पैठ आसानी से बना सकती हैं. ऐसे परिवारों की जो महिलाएं अपने घरों से निकाल दी गई हैं उनके सामने दो ही रास्ते बचते हैं- या तो वे शहर की तरफ रुख कर कोई गलत रास्ता अख्तियार करें या आत्महत्या कर लें. यदि ऐसी परित्यक्त और संकटग्रस्त महिलाओं को भर्ती किया जा सके तो मुझे यह ज्यादा व्यावहारिक और भलाई का काम लगता है. 

ग्रियर्सन अपने दौरे में जब मुजफ्फरपुर पहुँचे तो उन्होंने कागजातों की जाँच  के बाद एक बहुत दिलचस्प तथ्य की तरफ इशारा किया- उन्होंने पाया कि वहाँ 1880 तक बाहर जाने के लिए जितनी भी भर्ती हुई वह सारी की सारी महिलाओं की हुई, एक भी पुरुष इनमें शामिल नहीं था. इसको थोड़ा सा और विस्तार दिया तो मालूम हुआ कि जुलाई 1877 से नवंबर 1880 के बीच मुजफ्फरपुर से 51 व्यक्तियों की भर्ती हुई जिनमें से 22 पुरुष थे- और इन सब की भर्ती 1880 में ही की गई. अगले तीन सालों में भर्ती लगभग ठप रही.

रिकॉर्ड देखने के बाद ग्रियर्सन ने खुद मौके पर जाकर बाहर जाने के लिए भर्ती होने वाली कई महिलाओं के पते ठिकाने ढूँढ़ने की कोशिश की. रिपोर्ट में शामिल अपनी डायरी में उन्होंने लिखा है कि उनमें से ज्यादातर महिलाएँ मुजफ्फरपुर शहर की ही थीं और लोगों को उनके बारे में मालूम था. वे सभी औरतें ऐसी वेश्याएँ थीं जिनका धंधा कोई ख़ास चल नहीं रहा था इसीलिए उन्होंने बाहर जाकर नया विकल्प ढूँढ़ने  का फैसला किया- वहाँ  उनके कोई नाते रिश्तेदार नहीं थे और न ही ऐसा कोई था जो उनकी खोज खबर लेता. पहले उनके बारे में जानने वालों को यह भी नहीं मालूम था कि वे अब क्या कर रही हैं, जिंदा भी हैं या मर गईं.

अपनी रिपोर्ट में ग्रियर्सन 1874 की बेतिया की एक घटना का उल्लेख करते हैं जिसमें त्रिनिडाड के लिए भर्ती करने वाले एजेंट ने बेतिया शहर की एक ईसाई महिला और उसके बच्चों को गलत तरीके से झूठ बोलकर, दबाव डालकर भर्ती किया था. इसकी शिकायत होने पर काफी बवाल हुआ, पिटाई के डर से वह एजेंट तो फरार हो गया पर उसके बाद वहाँ  दूसरे एजेंट के लिए काम करना असंभव  हो गया. दुर्भाग्य से बेतिया की उस महिला को भर्ती करने वाली एजेंट खुद भी एक महिला थी. वे इस घटना के हवाले से  लिखते हैं कि एजेंटों की बहाली में बहुत सावधानी बरतनी चाहिए नहीं तो बेतिया जैसी घटनाएँ और भी होंगी और विदेशों को भेजे जाने के लिए कुलियों की भर्ती पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ेगा.

बेतिया की उस औरत के बयान को ग्रियर्सन उद्धृत करते हैं जिसमें वह बताती है कि किस तरह से उसे बहला-फुसलाकर विदेश जाने के लिए भर्ती होने को राजी किया गया था.

"एक दिन कुएँ पर एक अपरिचित महिला से मुलाकात हुई तो उसने मुझे कहा कि यदि मेरे साथ चलोगी तो मैं तुम्हारे  लिए पटना में अच्छे रोजगार का इंतजाम कर सकती हूँ, जिसमें  अच्छे पैसे मिलेंगे. उसके बाद दूसरे और फिर तीसरे दिन कुएँ पर मैं जब भी जाती तो वह आ जाती और मुझसे यही बात दुहराती. इस घटना से पहले मैं उससे कभी नहीं मिली थी. चौथे दिन जब फिर से मेरी उससे मुलाकात हुई तो उसने मुझे फिर से ज्यादा पैसे का लालच दिया और कहा कि वह उसके साथ पटना चले. उसके कहने पर उसके साथ-साथ मैं अपने दो बच्चों के साथ संत घाट के एक बगीचे में चली गई जहाँ पहले से दो चपरासी इंतजार करते हुए मिले. जब हमारी मुलाकात हुई तो अंधेरा हो चुका था. मैं उन चपरासियों का नाम भी नहीं जानती थी न उन्हें पहले कभी देखा था. वहाँ से अंधेरे में वे सब मुझे पकड़ कर बेतिया शहर ले गए और एक घर में बंद कर दिया. तीन-चार दिनों से चल रहे इस घटनाक्रम के बारे में मैंने अपने पति से कुछ नहीं बताया था क्योंकि उस महिला ने मुझे इसकी सख्त हिदायत दे रखी थी कि मैं घर में इस बारे में किसी को न बताऊँ- वैसे मेरा अपने पति से कोई झगड़ा चल रहा हो, ऐसा भी नहीं था."

दरभंगा की यात्रा के दौरान उन्हें दो ऐसी महिलाओं की रिपोर्ट मिलती है जो भर्ती होने के लिए आई तो थीं लेकिन उनकी भर्ती को रद्द कर दिया गया. उस पर अफसोस जाहिर करते हुए ग्रियर्सन ने अपनी टिप्पणी में  कहा कि उनके आवेदन को रद्द करने का  कारण यह बताया गया है  कि जब उनसे घर परिवार के बारे में सवाल किए गए तो वे  इनके बारे में लगातार परस्पर विरोधी जानकारी दे रही थीं. मजिस्ट्रेट उनके बार-बार बदलते जवाबों से संतुष्ट नहीं हुआ और उसने उनके आवेदन सीधे सीधे रद्द कर दिए, बेहतर यह होता कि उनकी पृष्ठभूमि के बारे में कुछ दिन लगा कर थोड़ी जाँच और कर ली जाती और उनके बारे में फैसला तब लिया जाता. उनका सुझाव है कि यदि किसी स्त्री मजदूर के बारे में किसी तरह की शंका हो तो उसे रजिस्ट्रेशन ऑफिस में 10 दिनों तक रोके रखने की इजाजत दी जाए और उसकी इच्छा की अनदेखी कर के विदेश भेजे जाने के अवसर से उसे वंचित नहीं किया जाना चाहिए.

छपरा की तहकीकात के ग्रियर्सन दो उदाहरण देते हैं- एक मनहरनी (216 नंबर/ 1872) जिसके पिता का नाम श्रीपाल दुसाध लिखा हुआ था, लेकिन जब वे उस पते पर पहुँचे तो न श्रीपाल के बारे में किसी ने कुछ बताया न ही मनहरनी के बारे में बताया.

पड़ोस का ही एक उदाहरण वे रोजिया मुसम्मात का देते हैं  (212 नंबर/ 1873)- जब उस पते पर पहुँचकर वे अधान मियाँ से मिलते हैं जो रिकॉर्ड के अनुसार रोजिया का पिता था तो उस ने सिरे से नकार दिया कि उसकी न तो इस नाम की कोई लड़की थी और न ही वह इस नाम से परिचित है. ग्रियर्सन कहते हैं कि हो सकता है किन्हीं कारणों से वह घर से भाग गई हो या परिवार ने उसे घर से निकाल दिया हो इसलिए कोई उसका नाम नहीं ले रहा है.

उपर्युक्त उदाहरण वास्तविक पहचान छिपाने के उद्देश्य से नाम और पते में हेरा फेरी करने की बात में  सामने आता  है.

रिपोर्ट के अंत में जॉर्ज ग्रियर्सन ने जो सुझाव दिए हैं वे गिरमिटिया प्रणाली को मजबूत बनाने को ध्यान में रख कर दिए गए पर  साथ-साथ सरकार का माननीय चेहरा दिखाने की भी कोशिश की गई है.

 #  मजदूरी करने के लिए विदेश जाने वालों को वे जानकार और सजग बनाने की वकालत करते हैं. वे कहते हैं कि प्रवास के देशों के बारे में इच्छुक लोगों  को ज्यादा भौगोलिक जानकारी दी जानी चाहिए.
# विभिन्न उपनिवेशों द्वारा प्रवासी मजदूरों को दी जाने वाली सुविधाओं और शर्तों के बारे में पर्चे छपवा कर गाँव के पंचों को उपलब्ध कराया जाना चाहिए.
# जिले के अफसरों को लोगों को सर्दी के दिनों में जहाज यात्रा करने की सलाह देनी चाहिए जिससे वे गर्मी और भीड़भाड़ से बच सकें.


आगे वे इस उपनिवेशी प्रणाली को और मजबूत बनाने के लिए कुछ महत्वपूर्ण सुझाव देते हैं-

जैसे मजदूरों की भर्ती की पूरी प्रक्रिया में जिले के अफसरों के कामकाज में पुलिस को हस्तक्षेप करने से रोका जाए और भर्ती करने वालों के खिलाफ शासन का रवैया मित्रवत रहे, ज्यादा सख्त नियम कानून बनाने की जरूरत नहीं है. स्पष्ट है वे गिरमिटिया प्रणाली को बनाये रखने के पक्ष में खड़े दीखते हैं.
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yapandey@gmail.com 

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  1. यादवेन्द्र जी इस विषय पर कार्य कर रहे हैं, इसकी थोड़ी-सी चर्चा उन्होंने जब मुझसे की थी, तभी से इस काम को पढ़ने की गहरी उत्सुकता थी. कमाल का शोध, गजब की भाषा और बेहतरीन विश्लेषण है. यादवेंद्र जी को हार्दिक बधाई और ऐसी कमाल की सामग्री बेहतर प्रस्तुति के साथ यहाँ उपलब्ध कराने के लिए मॉडरेटर को भी हार्दिक साधुवाद.

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  2. कागजात बहुवचन ही होता है इसलिए कागजातों उसी तरह गलत है जैसे हालातों गलत है ।

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  3. यादवेन्द्र जी का लेख अच्छा लगा। उनके इस कार्य में उनका श्रम दिखाई दे रहा है। मॉरिशस में लंबे समय तक रहा हूं। आप्रवासी मजदूरों का दु:ख पहाड़ से भी बड़ा है, स्त्रियों का तो और भी! उनकी भाषा भी अब उनकी नहीं रह गई है, फिर भी उस भोजपुरी को बचाने के लिए वे लगातार संघर्ष करते रहते है। इस तरह के और कार्य सामने लेने की जरूरत है।
    - देवेन्द्र चौबे, दिल्ली

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  4. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 21.5.2020 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3708 में दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।

    धन्यवाद

    दिलबागसिंह विर्क

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