लम्बी कविता
तालाबंदी
में किसी अज्ञात की खोज
विजय कुमार
(कोरोना
महामारी में संघर्ष करते हुए तमाम अनाम योद्धाओं को समर्पित)
उतरती धूप और सिहरती हुई पत्तियों ने
कहा कुछ मद्धम
मद्धम
कबूतरों की
शरारती आंखों ने
और
कोयल की कुहू
कुहू ने भी कहा
कि
तुम्हारी खामोश
मृत्यु के शोक गीत
लिखे जायेंगे
इसी तरह से
तुम्हारी शोरगुल
से भरी इस बेतरतीब दुनिया में
वे सांस लेते
हैं बंद कमरों में
एक खालीपन की ऊब
में
मृत्यु के
गलियारे में जमा जरूरतों
और अर्थहीन
वस्तुओं के पैम्फ्लेट पलटते
इस उदित होते
अस्त होते सूरज को देखो
भूख तुम्हें
बताएगी
कुछ आदिम
सच्चाईयों के बारे में
सुनसान पड़ी
सड़कों के कुछ और भी अर्थ हो सकते हैं
जो तुम्हें समझ
में आयेंगे
क्रूरताओं के
घूरे पर
कोई थकान उतरी
पड़ी होगी
और
कुछ मर्म स्थल
बचे हुए होंगे भूले बिसरे
रुई का एक फाहा
उड़ता चला जायेगा
इस पूरे संसार
पर
रिकॉर्ड रूम से
सेमिनारों से
विडियो
कॉन्फ्रेंसों से
परे धकेले जा
सकते हैं
तुम्हारी
उपलब्धियों के बखान और
गला काट
स्पर्धाओं के उद्बोधन
गायब हो चुके
सफल मनुष्यों की खोपडियां
एक तरफ रख दी
जायेंगी
उनके भीतर भरे
हुए
जानकारियों के
भंडारों का कोई अर्थ नहीं रह जायेगा
प्रेतों की तरह
से खड़े होंगे
बंद पड़े शीशे
के शो रूमों में
वैक्यूम क्लीनर ,
कारों के नये
मॉडल,
फ्रिज
और वातानुकूलित
यंत्र
कम्यूटर के की-बोर्ड
पर उंगलियां चल रही होंगी
पर स्क्रीन पर
कुछ नहीं आएगा
कोई
भोलापन कहेगा कि
यकीन करो मुझ पर
सुंदरता अभी भी
टहल रही है
अंगडाई लेते
कुत्तों के झुंड में
नो पार्किंग
बोर्डों के नीचे से
लौट रहा होगा
कोई अनाम वक्त
बाजारों में
बंद शॉपिंग
कॉम्पलेक्सों के व्यर्थ सूचना पट्टों से
कुछ मत कहो कुछ
मत कहो
उदास रोते हुए
विवरण होंगे
एक लालची दुनिया
की चिपचिपाहट
मुरझाये हुए
गुलदस्ते, बर्गर किंग,
ऑनलाइन पेमेंट
के डेबिट कार्ड
भयभीत देहों से
झर रहा होगा जिये हुए जीवन का पलस्तर
रोबदार समझी गयी
हर आवाज में
भरी होगी
अनिश्चय की कोई सड़ांध
और झुर्रियां
सभ्यता की भी हो सकती है
इससे पहले कभी
इतनी साफ नहीं देखी होंगी.
बुनियादें हिल
रही हैं
बुनियादें हिल
रही हैं
कौन ? कौन ?
कोई नहीं बस एक
मौन.
अवरुद्ध हरकतों
के पीछे जो अदृश्य है
उसे एक तेज चाकू
की तरह से पढो
कि
पहले कब दो फांक
खुल गया था इस तरह से समय
(दो)
हर चेहरे पर एक
मास्क
हर मास्क के
पीछे एक चेहरा
छुप गए सारे हाव
भाव
मुस्कुराहटें
क्रोध
और कातरता
तुमने धरती को
भी तो पहना दिया था एक मास्क
छिप गए पहाड़
नदियां चरागाह और जंगल
कई सदियों तक
धूप आई और गई
कई सूर्योदय हुए
कई सूर्यास्त
पीढियां बीतती
गईं
इतिहास के पन्ने
पलटते गए
तुम्हारी अवैध
संतान की तरह से
तुम्हारा ही एक
शत्रु कहीं पल रहा था अनाम
सत्ताधीशों, सेनाध्यक्षों, नगरपिताओं
धनकुबेरों
अब
युद्ध की
घोषणाएं करो
बिगुल बजाओ
प्रवचन, उपदेश, व्याख्यान
बालकनियों में
खड़े दासों से
घण्टे घड़ियाल
बजवाओ
भेज दो सेनाओं
को
विजय अभियान पर
पर कहां भेजोगे ?
किन दिशाओं में ?
आखेट स्थल कहाँ
युद्ध भूमियाँ
कहाँ
पुलवामा कहां है
बालाकोट कहां है
सिनाई की
पहाड़ियां कहाँ हैं
गाज़ा पट्टी कहां
है
मेक्सिको की
सीमा पर खड़ी
कंटीले तारों की
बाड़ कहां है
कौन सी है 'लाइन ऑफ़ डिफेंस'
कौन सा है
अतिक्रमण
शत्रु अदृश्य
निराकार
गति से अधिक तेज
तिलस्म की
मानिंद सर्वव्यापी
आकार से अधिक
सूक्ष्म
छह फुट की सोशल
डिस्टेनसिंग
हंसती है एक
बेहया हंसी
सारे भूमंडलीकरण
पर
स्पर्श में छुपी
है मृत्यु
स्पर्श में छिपे
हैं अन्त
कल किसने देखा
है
एक गुडी मुडी
सिकुडा हुआ
वर्तमान
घडी की रेंगती
सुइयों
सरकती हुई
तारीखों पर
भोले विश्वासों
पर, यकीनों पर
मेटल स्क्रीन, सीट बेल्ट, बटन और कमीज के
अस्तर पर
और
व्यापार समझौतों
की दुनिया पर
यह किसका
अट्टाहास है ?
यह कब्र किसके
लिये खोदी गयी है
यह शव पेटिका
किसके लिये बन रही है
वह जो मरेगा कल
या परसों या उसके अगले दिन
वह जो दुनिया का
पांच लाख पांच सौ पचपनवा संक्रामक रोगी है
पर जो अभी
ज़िन्दा है
तुम्हारे
आँकड़ों में
छिन्न भिन्नताऐं
कहती हैं
लिखो हमारे नए
इतिहास
तुम्हारे स्पेशल
इकोनॉमिक ज़ोन उदास
कारखाने बिसूरते
हुए
शेयर बाजारों से
उड़ती हैं धूल
निवेश सूचियां
सीली हुई
मिसाइलों की तरह
फुसफुसा कर कहा
उन्होंने कल
कि कहीं कोई
कूड़ेदान खाली नहीं है
इस दुनिया में
पंख कटे
मेघदूतों जैसे ये सारे डेवेलपमेंट प्लान
तुम्हारी
मूर्खताओं के स्मारक हैं
वातानुकूलित
अधिवेशन कक्षों से उठे
जो वक्ता
और जाने कब गली
के गटर में गिर पड़े.
लंच पर
एक सभासद ने कहा
दूसरे से सहसा मुड़कर
सभा में आप देर
तक कुछ बोल रहे थे
क्या बोल रहे थे
मैं भी तो कुछ
बोलना चाहता था
बहस में शरीक भी
होना चाहता था
पर राष्ट्रीय
संकट की घड़ी है
रात को नींद ठीक
से आती नहीं है
किसी ने कहा कि
दुनिया हो गयी है अनिश्चित
दूसरे ने कहा यह
जीवन संध्या है
तीसरे ने कुछ और
कहा
चौथे ने कुछ और
बाकी मुंह बाये
तबलीगी जमातियों की खोज के भड़कीले किस्से सुन रहे थे
दुश्मनों की
शिनाख़्त हुई
विपदाओं ने रचे
नए मुहावरे
कुछ नए शब्द
ईजाद हुए
खौलते हुए खून
के बारे में
कुछ कौमी घृणाओं
और लानतों के बारे में
धमकी देता हुआ
दहाड़ता था वाशिंग्टन में कोई बेचारगी में
हँस पड़ता था
बेजिंग में कोई घाघ हँसी
प्रधान सेवक
माँगता था राष्ट्र से माफी हर रोज एक नयी मोहक अदा में
पर कहीं कोई
शब्द नहीं था
भूख की किसी
अंधेरी गुफा के बारे में
सैंकड़ो मील चल
पड़े
सिर पर पोटली
उठाये
सड़क पर चलते
चलते हुई किसी मृत्यु के बारे में
एक खामोश रुदन
अभी पड़ा था अलक्षित.
(तीन)
चिंतकों ने कहा
के इस संसार के सारे संकट है मनुष्य निर्मित
पर हम पंगु है
भाषा में उनकी
पहचान अब संभव नहीं
धर्म जाति कुल
वंश देश भाषा समाज हैसियत
से परे अब उसकी
पहचान
वह भाषा में
समाता ही नहीं
कलाकारों ने कहा
की
आकार–प्रकार
दिखाई नहीं देता
शत्रु है अगोचर
वह रूप में अब
बंधता नहीं
वह कभी विचारों
से उठता है
कभी इरादों से
कभी त्वचा की
सूक्ष्म रंध्रों से
कवि ने कहा कि
सारे अतीत राजनीतिक हैं
और वर्तमान भी
राजनीतिक है
ऊपर आकाश में
चमकता चन्द्रमा भी राजनीतिक है
राजनीतिक हैं
आकाश, धूप, परछाइयां, नदी, पोखर,पहाड़
और आदिवासी भी
खामोशियों में
किये गये एकालाप भी राजनीतिक हैं
हम हैं सिर्फ एक
कच्चा माल उनके लिये
रोग, जीवाणु, औषधियां, प्रयोगशालाएं
सब राजनीतिक हैं
चिल्लाता है कोई
ईरान से कोई बल्गारिया से
जो सेफ्टी किट
भेजा गया वह नकली है
त्वचा की भी इस
तरह से एक राजनीति है
सेनिटाइज़र नहीं
बचे थे अब
चिंतकों लेखकों
कलाकारों कवियों बौद्धिकों
तुम अमर रहो
तुम्हारी जन्म शताब्दियां मनायी जाती रहें
पिछले युगों की
तरह से निर्विघ्न
तुम्हारी मेजों
पर
जीवन और मृत्यु
के सवाल
जमा रहें सारे
शब्दकोश पैमाने सूक्ष्मदर्शी यंत्र
ध्वनियाँ
प्रतिध्वनियाँ मुहावरे तर्कों के विश्लेषण
और
कल्पनाएं भी
थोड़ी बहुत
इस बीच लोग जो
रोज थोड़ा थोड़ा खत्म होते जा रहे थे
थोड़े से भोजन, थोड़ी सी साँसे, थोड़ी सी
नींद
और
दस बाई दस की
खोलियों आठ-दस ठुंसे हुए लोगों के उदास चेहरों के बीच से
घर की ओर लौटते
नंगे पैर थे, भूख और जिल्लत की
रोटी थी
घर पर छह महीने
की बच्चियों को छोड़ आयी कुछ नर्से थीं
एक सफाई
कर्मचारी गली में झाडू लगता हुआ अकेला
इनके आंसू छिप
जाते थे सेफ्टी मास्कों के पीछे
चैनलों पर नाच
गानों के बगल में
सलमान खान, कैटरीना कैफ और कपिल शर्मा के बगल में
रोज मरने वालों
के आँकड़े
मेरा समय की
सबसे बड़ी खबर थी
और मृतकों की
संख्याएं
वे रोज पहले से
ज़्यादा थीं उत्तेजक
रोज एक विकराल
शोर शराबे में
मनाया जाता था
मृत्यु का महोत्सव एक अलग त'रीके
से
रोज एक नयी
दिलचस्पी का सामान
जुटाया जाता था
कितनी मेहनत से
किसी ने कहा कि
बहुत कुछ घट रहा है
और कुछ सिद्ध
नहीं होता
आकाश अपराध बोध
से घिरा है
'इतिहास के अंत और सभ्यताओं के संघर्ष' की घोषणा
वाली वह किताब
धूल चाट रही है
कहीं
और एक वायरस
खोजता फिर रहा है सैमुअल हटिंग्टन की कब्र को
वुहान से मिलान
तक
न्यूयॉर्क से
ईरान तक
समय के इस
अज्ञात को कहां पकड़ा जा सकता था ?
कहाँ था उसका
ठिकाना ?
कौन से पते और
कौन से पिन कोड पर ?
एक वरिष्ठ कवि
कह गया कि संसार की सभ्यताएं
अपने अंतिम दिन
गिन रही हैं
दूसरा वरिष्ठ
कवि जाते जाते कह गया –
मुझे विश्वास है
यह पृथ्वी रहेगी
यदि और कहीं
नहीं तो
मेरी हड्डियों
में
मैं अपने वरिष्ठ
कवियों के अस्थि कलशों को स्पर्श करना चाहता हूं
और
संसार के सारे
म्युजियम
फिलवक्त लॉक
डाउन की घेरा बंदी में हैं.
_________
विजय कुमार जी ने मुंबई के त्रासद जीवन और महानगर की यंत्रणाओं पर विलक्षण कविताएं लिखी है । अगर आप मुंबई के आन्तरिक जीवन को जानना चाहते है तो उनकी कविताएं उस जीवन का साक्ष्य प्रस्तुत करती है ।
जवाब देंहटाएंलेकिन -तालाबंदी में किसी अज्ञात की खोज में कविता , उनके कवि स्वभाव का नया रूप प्रकट करती है । हम जिस तरह के कोरोना समय में रहते है ,उससे कोई कवि नही बच सकता । यह कविता उन लोगो की कथा है जो इस दुनिया का निर्माण करते है और सबसे ज्यादा बेदखल किये जाते है । सुदूर गांव से महानगरों में आये हुए लोग , जहां हैं , वहां ठहरे हुए है । इस यातना को विजय कुमार जैसे कवि अनुभव कर सकते हैं ।
विजय कुमार को इस कविता के लिए बधाई । आपने इसे समालोचन में प्रकाशित करके यह तस्दीक किया कि आप उन तमाम लोगो की तकलीफों के साथ है जो अपने अपने यातना शिविर में कैद हैं ।
बहुत मार्मिक और सिर्फ़ अनुभव की अधूरी कविता न होकर अनुभवबोध की पूरी कविता।तात्कालिकता के साथ उसका अतिक्रमण करती हुई कविता।हा हार्दिक बधाई।
जवाब देंहटाएंजब से यह कविता मैंने पढ़ी है, इसकी अछोर व्याप्ति और त्वरित सिंफनी में उलझा हुआ हूं। हमारे समय की विसंगतियों को गझिन तरीके से फ्रीज कर रही है। अवसाद और विषाद में ले जा रही है।
जवाब देंहटाएंबहुत ही मार्मिक कविता साधुवाद
जवाब देंहटाएं'रात पाली' के माध्यम से कचरे में बदलती जा रही शहरी सभ्यता को जिस काव्यात्मकता से आपने खंगाला था, अरसे बाद कुटिलता से बिछायी गयी वायरस की व्याप्ति से छटपटाते पूरे विश्व की रुँधती हुई सांसों और अंत के निकट आ पहुँची मानव सभ्यता के भयाक्रांत समय को गहरे संवेदन और व्यथा से पकड़ा है।
जवाब देंहटाएंब्योरे कथ्य समय निरुपायताओं और सर्वग्रासी पूँजीवादी
मानवभक्षी विश्व सभ्यता की प्रयोगशाला से आगत इस व्याधि पर यह विचलित कर देने वाली कविता है।
आपकी लेखनी चलती है तो जैसे मनुष्यता से छीजते विश्वास की धज्जियां उड़ती हुई दिखाई देती हैं।
व्यापक फलक पर लिखी हुई एक गहरी बहुआयामी कविता जो पूरी सभ्यता के संकट को उजागर करती हुई दूर तक करंट मारती है।
जवाब देंहटाएंअद्भुत कविता ! नयी लकीर खींचती हुई ! विजय कुमार जितने सिद्ध सृजन-पारखी हैं, उतने ही सिद्ध सर्जक भी हैं ! सलाम !
जवाब देंहटाएं' वाशिंगटन की दहाड़ ' और ' बीजिंग की घाघ हंसी ' के बीच पिघलते हमारे समय की त्रासदी और उस त्रासदी में ' घटित होते हमलोग ' की आवाज का आख्यान प्रस्तुत करती कविता । आदरणीय विजय कुमार की रचनाओं का पुराना प्रशंसक हूँ । उन्हें ख़ूब बधाई ।
तालाबंदी और उससे उपजी मानवीय त्रासदी पर इधर जो कविताएं आईं हैं, विजयकुमार की ये कविताएं, उनमें अलग स्पेस बनाती हैं, ये पाठक पर निश्चय ही गहरा प्रभाव छोड़ती हैं, परिदृश्य भी बहुत व्यापक है।
जवाब देंहटाएंयह इतमीनान से पढ़ीजानेवाली एक बड़ी रचना है।इस दौर की भयावह विडम्बना और दोपहरी में खाली सड़क पर अपने घरों की ओर भागती लहूलुहान जिजीविषा को इस कविता में बार -बार देखा जा सकता है। 'मुनादी ' की तरह यह कविता भी खूब पढ़ी जाएगी ।
जवाब देंहटाएंek kavita jisme murm ,such aur byore itne ghul-mil gaye hain ki samay nirbheek bole raha hai.av
जवाब देंहटाएंकोरोना-काल के संकट में कविताओं के थोक उत्पादन ने और संकट उत्पन्न कर दिया है । विजय कुमार की यह कविता लेकिन उनसे अलग और सच्ची कविता है । इस कविता में हमारी भयावह सभ्यता की जो निर्मम सच्चाई उजागर हुई है वह कोरोना से पहले ही वर्तमान थी । कोरोना-काल ने इस संकट को उजागर कर दिया है । कोई संकट किसी कविता में किस तरह रचनात्मक तनाव से अनुस्यूत होता है यह कविता इसका एक उदाहरण है ।
जवाब देंहटाएंसमालोचन पर ही कुछ दिनों पूर्व अशोक वाजपेयी की कोरोना एकांत पर फुसफुसी कविताएँ प्रकाशित हुईं थीं । अशोक वाजपेयी और विजय कुमार की इस लम्बी कविता के जरिये हम अच्छी और बुरी कविता में क्या अंतर होता है - यह जान सकते हैं । ख़ास तौर पर युवा कवियों को विजय कुमार और अशोक वाजपेयी की कविता पढ़कर बेहतर और बुरी कविता के बारे में सीखना चाहिए ।
विजय कुमार और समालोचन को इस महत्वपूर्ण कविता के प्रकाशन के लिए साधुवाद !
समय की गहन पड़ताल करती स्तब्ध करने वाली कविता।
जवाब देंहटाएंएक कविता में कई कवितायें, तीन कविताओं में कई लोक । पंक्तियों में अनगिन भाव । इस एकांत कालखंड में आपका कवि भीतर की भीड़ में से कितना कुछ चीन्ह बीन कर बाहर ले आया।
जवाब देंहटाएंइस भयावह कोरोना काल का आख्यान है यह कविता। अभिधा और व्यंजना, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष, आगत और अनागत, दृश्य और अदृश्य का जैसा वितान खींचती है यह कविता, मानो किसी वृत्तचित्र में रूपांतरित हो जाती है। विजय जी, इस घड़ी बधाई क्या दूं। बस यही कहूंगा कि इससे प्रामाणिक तस्वीर क्या हो सकती है।
जवाब देंहटाएंआपके लिखे को हमेशा ही ध्यान से ,खोज कर पढ़ता हूं , कोरोना त्रासदी पर हर संवेदनशील रचनाकार हाथ आजमा रहा है ।आपकी कविता कतई अलहदा और इस त्रासदी के कई पक्षों को समेटती है , डिटेल्स है पर कविता की शर्त पर ।
जवाब देंहटाएंइस समय की सबसे बड़ी त्रासदी को इतनी सशक्त विधि से प्रस्तुत करने की सामर्थ्य केवल आपमें है। सभी विडम्बनाओँ को इस तरह प्रस्तुत करना कविता के ज़रिए एक संवेदनशील कवि से ही सम्भव था। में तो अभी तक अभिभूत हूँ। शायद अभी इसे दोबारा तिबारा पढ़ना लाजिम है। आपको बधाई देने की स्थिति में भी नहीं हूँ विजय जी।
जवाब देंहटाएंआपने जब मुंबई के अलक्षित इलाकों,क़िरदारों और संदर्भों को अपने
जवाब देंहटाएंस्तंभ में रूपाकार देना शुरु किया था तो वह सृजन मनुष्यता को अतीत की धमनियों से वर्तमान में ध्वन्यांकित कर रहा था।विडम्बना ,असहायता, असहिष्णुता, दुक्ख, खीझ,व्यंग्य, आत्मीयता, विस्थापन और विसंगतियों
के रसायन की एक विनिर्मिति गद्य में
कवि मन ने श्रृंखलाबध्द प्रविधि में इमारत की तरह तामीर की थी।वो एकदम दूसरे विजयकुमार थे।और
यह उस विजयकुमार के विस्तार का
दूसरा छोर है।हम ऐसी कविता जो बिल्कुल अभी की त्रासदी के गहरे आत्मिक हलातोल का परिणाम है।अपने दुखद अदृश्य आयामों में अभी
इसे न जाने क्या और-और दिखाना अशेष है,तब भी हम इसे अभी और
बार-बार लिखने को विवश होंगे।समय
आपको लिखने के लिए असहाय कर देगा।मुमकिन है यह कविता और विस्तृत हो।आप उत्तर कविता लिखें।क्योंकि आपके लेखों की आधारभूमि में इतिहास को इतिहास के लिये बचाने
की विकलता है।यह कविता फिल्म के
शिल्प में एक करुण सिंफनी को साथ
लेकर बहती है।इसमें स्थानीयता के आलंबन में विश्व मनुष्यता के लिये पुकारें हैं।यह सोशल -पोलिटेकल कविता है।बहुत सारे संदर्भो में समानांतर अंतर्भुक्त।लेकिन
जैसे जबरदस्त कथावस्तु के बावजूद अच्छी से अच्छी फिल्म अधूरी बनी रहती है,इसका अहसास भी ऐसा
कुछ हुआ है।
जो आने को शेष है उसकी प्रतीक्षा में।
विजय कुमार की यह कविता हमारे समय का एक महाख्यान रचती है। यह कविता बहुत से बेतरतीब विवरणों, सूचनाओं, घोषणाओं, घटनाओं एवं कथाओं -सबको उनकी जमीन से निकालकर नए जमीन पर रोपती है। जिसमें तात्कालिक और सर्वकालिक एक दूसरे के सामने आ जाते हैं। सारे तथ्य ,सारे विवरण भाषा की एक विशाल मिक्सर ग्राइंडर में डाल दिये जाते हैं। कवि अपनी संवेदना से उसे घुमाता है। पूरी शक्ति और ऊर्जा से। यह कविता क्रम तोड़ती है।
जवाब देंहटाएंयथार्थ को यथार्थ के परे और सच को अनुकूलन के परे देखने की कोशिश ही इस कविता का शिल्प है। यह शिल्प और अन्तर्वस्तु के पुराने विभाजन की नहीं ,बल्कि उनके घुलमिलकर एक होने की कविता है।समय और संवेदना के एकाकार की कविता है।कवि और कविता के एकाकार की कविता है। कवि को इस कविता के लिए बहुत -बहुत बधाई।
अरुण देव जी एक बात कहूँ आज साहित्य का केंद्र प्रिंट से डिजिटल माध्यम हो गया है और इसके केंद्र में हैं समालोचन. इसके लिए आपको कम से कम पद्मश्री तो मिलना ही चाहिए. क्या उल्लेखनीय काम आप कर रहें हैं भाई. ऐसा दमदार तो कोई भी पत्रिका नहीं है. साहित्यिक पत्रकारिता का मापदंड आपने स्थापित कर दिया है. कोरोरना-काल में अर्थवान साहित्य दे रहें हैं आप.
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंसमय विकट है। इस महात्रासदी के हम सब गवाह हैं।आज रचनात्मक सफलता - असफलताओं से ज़्यादा बड़े सवाल इस समय के भीतर किसी तरह से दख़ल देने के हैं।एक प्रयास था। जिन मित्रों ने इसे पसंद किया उन सभी के प्रति मैं ह्रदय से आभार प्रकट करता हूँ।
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (27-04-2020) को 'अमलतास-पीले फूलों के गजरे' (चर्चा अंक-3683) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
*****
यह कविता कोरोना के बहाने सभ्यता की पुनरीक्षा है-छूट गए अवसरों और अमानवीय निर्मितियों का दुख बोध और विक्षोभ। यह निर्वासित का विमर्श है। विजय जी से संवाद करते हुए लगता रहता है कि वह किसी आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक हानि से सतत उद्वेलित हैं। यह कविता जैसे उस कॉस्मिक विवेक का इज़हार बन जाती है। साभ्यतिक यातना को कहने के लिए जिस विकट थिएटर की अपेक्षा एक कविता कर सकती है, उस के लिये यह युक्तियुक्त पोएटिक डिवाइस है।
जवाब देंहटाएंलाजवाब लेखन
जवाब देंहटाएंविजय कुमार जी की यह लंबी कविता, सिर्फ़ महामारी के समय का त्रासद आख्यान ही नहीं बल्कि उससे पहले की अराजकताओं और सभ्यता की वर्तमान विवशताओं का सशक्त विवरण भी है। मनुष्य की अब तक की सब उपलब्धियों, वैभव और सफलताओं की परिभाषाएँ बदल गयी हैं, या अचानक उनका खोखलापन सामने आ गया है। यह सधी हुई लंबी कविता बीसवीं और इक्कीसवीं सदी के समस्त सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक परिदृश्य की मीमांसा करती है। कहती है कि विडंबना मात्र एक वायरस से मृत्यु नहीं, विडम्बना इस दुनिया में जिए जाना भी है, जहाँ मनुष्यता, संवेदना, पारस्परिकता कबके समाप्त हो चुके हैं।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन सृजन आदरणीय
जवाब देंहटाएंसादर
'कोरोना काल' मनुष्य के अस्तित्व के बरक्स उस सभ्यता की समीक्षा भी है जो प्राकृतिक न्याय के नियमों को पृथ्वी के उपर जीवन के परिप्रेक्ष्य में मृत्यु को बेहद करीब से देखती,भोगती और महसूसती आखिरी साँसे गिन रही है । यह प्रकृति पर अब तक हमारे द्वारा किए गए तमाम अत्याचारों , उसके शोषण और दोहन का हिसाब है जिसे पूरी मानवजाति को चुकाना पड़ रहा है । आज प्रकृति के आगे विज्ञान असहाय और निरूपाय है, विश्व की महाशक्तियाँ चारो खाने चित्त हैं । भौतिक विकास की चकाचौंध फीकी पड़ चुकी है । प्रकृति का इतना रौद्र रूप और तांडव इतनी खामोशी से मनुष्यजाति ने शायद पहले कभी देखा-भोगा नहीं होगा । इस महाविनाश के मुहाने पर खड़ी पृथ्वी शायद इतनी लाचार कभी नहीं रही होगी । श्री विजय कुमार की इस लंबी कविता में ये तमाम चीजें बहुत बारीकी से अनुभवजन्य भावबिम्बों में छनकर रूपायित हो रही हैं किसी भयानक पटकथा की तरह जिसे खुद हमने हीं लिखा हो और हम हीं स्वयं टाइटेनिक की तरह डूबते देख रहे हों ।
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