डॉ. स्कन्द शुक्ल (MBBS, MD, DM : Rheumatologist, Immunologist) हिंदी के पाठकों के सुपरिचित लेखक हैं. रोगों की जटिलता, बचाव और निदान को सृजनात्मक भाषा में जिस तरह से वो प्रस्तुत करते हैं, वह अप्रतिम तो है ही उनकी प्रसिद्धि का कारण भी है. कविता-कहानी के साथ-साथ उनके दो उपन्यास भी प्रकाशित हैं- 'परमारथ के कारने' और 'अधूरी औरत'
कोरोना काल में मनुष्य क़ैद है, उसकी सामाजिक जटिलता भले ही स्थगित हो मानसिक
जटिलता बढ़ी है. चिकित्सक अगर लेखक भी हो तो वह इसे किस तरह देखता है और लिखता है ?
स्कन्द शुक्ल ने इसे एक दिलचस्प पर कारुणिक आख्यान में बदल दिया है.
पढ़ते हैं.
लॉकडाउन के बाद
लॉकडाउन के दौर में वह अपने कमरे में अकेला क़ैद नहीं था. उसके पास उसका शानदार नया एंड्रॉयड सेलफ़ोन था, जिसमें पौने आठ अरब इंसान थे. साथ ही बालकनी के कोने में एक तोता, जिसे उसने बड़ी मेहनत से थोड़ी-सी मानव-भाषा सिखायी थी. माँ-बाप दिल्ली में बहन के पास गये थे और वहीं रह गये, छोटा भाई मुम्बई में फँसा रहा. फ़्लैट के काम-धाम के लिए एक कामवाली आती थी, उसे भी इस माहौल में छुट्टी दे दी गयी थी. तो इस तरह से पाँचवीं मंज़िल के दो बीएचके के उस इलाक़े में कुल तीन जन थे : एक इंसान, दूसरी मशीन और तीसरा तोता.
तोता तो फिर तोता ही था. उसके लिए भला लॉकडाउन में क्या बदला था ! वह तो पहले से लॉकडाउन में रहता आया था. तीन साल से उसी पिंजरे में. लॉकडाउन के भीतर लॉकडाउन! जब आप लॉकडाउन में होते हैं, तब आपको उसके बाहर का लॉकडाउन प्रभावित नहीं करता. आपकी स्वतन्त्रता का निकटतम दायरा एक बार बँध गया, सो बँध गया. उससे बाहरी बन्धनों के होने-न होने से भला क्या फ़र्क़! दूर की परतन्त्रताएँ केवल समाचार हुआ करती हैं, उनमें व्यवहार का कष्ट देने की क्षमता नहीं होती. वहीं मिर्ची-अमरूद-चावल खाओ, उसी में गिराओ. वहीं पानी पीना, वहीं मल-मूत्र छोड़ देना. सुविधाएँ यहीं दी जाएँगी, सफ़ाई कर दी जाएगी. जितने पंख फड़फड़ाने हों, इसी में फड़फड़ाइए. बोल सकते हैं आप, चीख भी सकते हैं. पर बाहर निकलने का ख्याल! भूल जाइए!
आरम्भ के दिनों में उसने तोते के साथ औपचारिकता-मात्र निभायी. पिंजरे में भोजन रख दिया, पानी दे दिया. धूप आने पर स्वर सुनायी दिया, तो स्थान बदल दिया. किन्तु इससे अधिक कुछ नहीं. एक पक्षी से इंसान कितनी देर सम्पर्क में रह सकता है! देखें तो और लोग क्या कर रहे हैं! किस तरह से लॉकडाउन का लुत्फ़ उठा रहे हैं. कुछ तो एक्साइटिंग चल रहा होगा!
अँगूठा मोड़कर स्क्रीन पर रखते ही वह सेलफ़ोन में समूची मानव-प्रजाति से जुड़ जाता है. सभी मित्र, ढेर सारे रिश्तेदार. देश-विदेश के सेलिब्रिटी, अनेक अनजाने लोग भी. सबसे पहले वह सोशल मीडिया पर नयी डीपी डालता. नीचे किसी कवि का ध्यान खींचता दार्शनिक वाक्य लिखता. फिर लाइक आते, कमेंट भी. वह उनके उत्तर लिखता. मुसकुराता. मन में सोचता. सुख के क्षण टप-टप-टप मन के गमले की सूखी मिट्टी को भिगो देते. कुछ घण्टों का काम हो गया ...
तोते की चीखें गाहे-बगाहे कानों में
पड़तीं, तो ख़लल जान पड़ता. कम्बख़्त चैन से न
ख़ुद रहता है, न रहने देता है! अरे, खिड़की
पर टँगे हो; सामने इतना ऊँचा-चौड़ा नीला आसमान है. उसे
चुपचाप निहारो न! अपना चुग्गा खाओ, पानी पियो, पंखों की वर्जि करो और बाहर की दुनिया को चुपचाप देखते रहो ! काहे
डिस्टर्ब करते हो! मगर मुआ सुआ कहाँ सुधरने वाला ! उसी
समय अधिक चीखें निकालता, जब वह फ़ेसबुक या ह्वाट्सऐप पर अपनी
वार्ताओं में मशगूल रहता. गोया उसकी खुशी से कुढ़ रहा हो. कम्बख़्त परिन्दा! इंसानी
ज़बान के चार शब्द क्या सीख लिये, इंसानी व्यवहार भी
प्रदर्शित करने लगा! अरे अपनी परिन्दगी की जद में रह न!
लेकिन वह यह भूल रहा था कि जब जन्तु पालतू
हो जाता है, तब वह अपनी प्रकृत
पाशविकता से हटकर पालक मनुष्यता की ओर आने का प्रयास करता है. मनुष्यगत अच्छाइयाँ
ही नहीं, बुराइयाँ भी सोखने लगता है. पला हुआ जानवर पूरी तरह
जानवर नहीं रहता ; वह मिश्रित गुणधर्म वाला हो जाता है. उसी
तरह जिस तरह पालने वाला मनुष्य पूरी तरह मनुष्य नहीं रहता, वह
पशुता की ओर धीरे-धीरे खिंचने लगता है. पशुता की बुराइयाँ ही नहीं, अच्छाइयाँ भी. पशु-मनुष्य-संसर्ग से दोनों में बहुत-कुछ अदला-बदली करता है.
एक-दूसरे से अनेक आचार व व्यवहार लिये जाते हैं. भाषा के मीठे बोलों से लेकर
विषाणु तक!
असहजता से वह उठकर बैठ जाता है.
दुनिया-भर में कोरोनावायरस के मामले लगातार बढ़ रहे हैं. मृत्यु-दर 3-ही प्रतिशत के आसपास है, फिर क्यों इतने आकुल हो रहे हैं? ज़्यादातर मरने
वाले बीमार भी हैं और बुज़ुर्ग भी. ऐसे में स्वस्थ और युवा लोगों को इस तरह से
क्यों घबराना ? वह फ़ेसबुक पर नसीहतें देता टाइप करता जाता है.
चिल मारो यार ! अच्छा रोज़ कोई-न-कोई लाइव आकर कुछ-न-कुछ एक्साइटिंग करेगा ! ओके?
क्या मुर्दानी सूरतें बना रखी हैं! अरे लॉकडाउन है ! ऐसा मौक़ा फिर कभी मिलेगा! एन्जॉय द चेंज !
आभासी प्रतिक्रियाओं की सबसे बड़ी
समस्या यह है कि गणितीय सत्यों की तरह प्रस्तुत होती हैं. पिछले क्षण इमोजी नहीं
था, इस क्षण है. अभी पल-भर पहले ही लाइक
ग़ायब था, अब आ गयाहै. सुबह तक प्रोफ़ाइल-पिक पर केवल चार-सौ
लाइक थे, अब ढाई हज़ार हैं. सुख की नन्ही अफ़ीमी ... सॉरी ...
डोपामीनी बूँदें गणित की संख्याओं की तरह मन के गमले में टपकायी जा रही हैं.
एक-दो-तीन-चार-... तीस-... सत्तर-... एक सौ चौदह-... तीन सौ नौ-... सात सौ
इक्यासी-... एक हज़ार दो सौ बारह ... .
अभी कल ही बिनमौसम पानी बरसा था.
किन्तु इस वास्तविक बरसात में गणितीयता नहीं होती. बूँदों की संख्या इतनी अधिक
होती है कि कोई उन्हें न गिन सकता है और न गिनना चाहता है. सब बस केवल दो ही चुनाव
करते हैं. या तो भीगते हैं अथवा नहीं भीगते. पर सोशल मीडिया की स्नेहवर्षा इतनी
तीव्र कभी नहीं होती कि वह गणित से अपना पीछा छुड़ा ले. बड़े-से-बड़े सेलिब्रिटी के
सामने वह प्रसिद्धि के आँकड़े प्रस्तुत करती है. जहाँ आँकड़े हैं, वहाँ असुरक्षा है. जहाँ असुरक्षा है,
वहाँ अकेलापन और अधिक है. आँकड़ों से असुरक्षा, असुरक्षा से अकेलापन. अकेलेपन से फिर आँकड़े. यही क्रम चलता जाता है.
वह कोरोनावायरस के आँकड़ों की टहनियों
में किसी चमगादड़ की तरह उलझ जाता है. हॉर्स्शू-बैट जिसे इस महामारी के लिए
ज़िम्मेदार माना जा रहा है. चेहरे पर घोड़े की नालनुमा संरचना जिससे वे उड़ते समय
ध्वनियाँ निकालते हैं. जब वे टकराकर लौटती हैं, तब उन्हें सुनकर अपने-आप को हवा में बिना टकराये सन्तुलित रखते हैं.
मनुष्य भी गज़ब प्राणी है! बेचारे चमगादड़ के चेहरे पर
घोड़े की नाल खोज लेता है ! फिर उसे अजीब-ओ-ग़रीब नाम दे डालता है!
दिन बदल रहे हैं : कुछ दिन तक वे नामों
के खाँचों में बँटकर चलते हैं. तारीख़ें कुछ तिथियों तक संख्याओं की संज्ञाओं का
सम्मान करती हैं. पर धीरे-धीरे ये दोनों संज्ञा-रहित और संख्या-रहित होते जाते हैं.
वही रोज़ सूरज का निकलना और डूबना. वही रात का आना, फिर दिन में बदल जाना. वैसे ही चिड़ियों का बालकनी में चहचहाना, वैसे ही तोते का जब-तब बोलना या चीखना. इंटरनेट न हो, तब तो सचमुच समयबोध ही भूल जाए आदमी! दैनिक जीवन की गणित घुलते ही वह फ़ोन
में मौजूद गणित की ओर भागता है!
बाहर सब-कुछ अपरिमेय, भीतर सब-कुछ परिमेय! न गिन पाना
कितना एक-सा जान पड़ता है ! गिनने में कितनी नवीनताएँ मिलती हैं! प्रकृति में वह
बात कहाँ जो एंड्रॉयड के भीतर के संसार में है. अरे, किसी ने
नयी डीपी लगायी है ! केवल ढाई-सौ लाइक! भक्क!
कोरोनावायरस के आँकड़े दिन-दिन ऊँचे
पायदान चढ़ रहे हैं. दुनिया-भर से मौतों की खबरें आ रही हैं. एंड्रॉयड में झलक रही
हैं और वहाँ से उसकी आँखों से मन में उतर रही हैं. सुखदायी आँकड़ों के साथ दुखदायी
आँकड़े भी. आज तो भारत में कुल मरीज़ पन्द्रह हज़ार से अभी अधिक हो गये! उसकी सबसे
अधिक चाही गयी तस्वीर पर आये लाइकों से भी कहीं ज़्यादा! कहाँ रुकेगा यह वायरस
जाकर! ये निठल्ले वैज्ञानिक भी न जाने क्या कर रहे हैं! टीका बना लेने में इतनी
देर लगती है भला! अरे पैसा बहाओ, रात-दिन जुटो, बना डालो! ईज़ी!
वह मार्केटिंग-सेक्टर का आदमी रहा है.
ठीक-ठाक सैलरी, पसन्द का काम. पर अब
फ़ोन पर बिना तनख्वाह के काम करने को कहा जा रहा है. नौकरी रहेगी, पैसे नहीं मिलेंगे भाई- बॉस फ़ोन पर कहते हैं. आने वाला पूरा साल किल्लत का
है. देखते हैं, कैसे मैनेज होता है! बी प्रिपेयर्ड फ़ॉर टफ़
टाइम्स अहेड! वह और बुझ जाता है. सामने कोरोनावायरस का बहु-शेयर्ड चित्र है. किसी
गेंद से निकले ढेर सारे लम्बे काँटे. अरे! कमरे में एक हू-ब-हू ऐसी ही गेंद टँगी
है. शोपीस! संसार की सबसे भयानक चीज़ें इतने सामान्य आकारों-आकृतियों की हो सकती
हैं- वह सोचने लगता है. भयकारिता में भी ऐसी सामान्यता ! डर का इतना सहजरूपी होना!
वह अपने चेहरे को जब-तब शीशे में
निहारने लगा है. पहले से कुछ वज़न गिरा है, चेहरा अब रोज़ शेव करना नहीं पड़ता. रूटीन के सारे काम अब बिना डेडलाइन के
किये जाते हैं. लेकिन नौकरी पर लटकती तलवार! वह तो जैसे हर दिन लम्बी होती जा रही
है! वह अपनी दोनों हथेलियों से चेहरे को टटोलता है. हॉर्सशू चेहरे पर? नहीं पर वह चमगादड़ तो नहीं है! रबिश!
पर विषाणु ने क्या दुनिया-भर को
चमगादड़ों में नहीं बदल दिया? अथवा इंसानी पहचानों के पीछे छिपी चमगादड़ी वास्तविकता को सामने नहीं रख
दिया? न जाने कितने ही लोगों के चेहरों पर ग़ुलामी के नालें
गड़ी हैं, जो उन्हें इस महामारी से पहले दिखी नहीं थीं. वे
उसी के सहारे परतन्त्र हुए उड़ते थे. बिना गिरे भरी गयी इन उड़ानों को ही वे अपना
कौशल समझते हुए. जब-तब पकड़ लिये जाते थे, काट कर खा लिये
जाते थे. महामारी का यह पैटर्न नया कहाँ है, यह तो पुराना है! हम-सब हॉर्स्शू-बैट ही तो हैं! कोरोनावायरस ने तो केवल हमारी पहचान को अधिक
स्पष्ट ढंग से सामने रख दिया है!
उसका जी मिचला रहा है. लगता है उल्टी
आएगी. गले में हल्की खराश भी है. हैं! अरे! पर वह बाहर तो कहीं गया नहीं! अख़बार
भी दो सप्ताह से बन्द है! बस सब्ज़ी-दूध के लिए रोज़ एक-बार बिल्डिंग के नीचे उतरता
है! और कभी-कभार ऑर्डर! केवल इतने से! नहीं-नहीं! इतना वहमी नहीं होना चाहिए!
सेलफ़ोन पर उसे जहाँ-तहाँ लॉकडाउन के
प्रतिरोध की ख़बरें मिलती हैं. इडियट्स ! घरों में नहीं रह सकते ! चमगादड़ों की तरह
यहाँ-वहाँ मँडरा रहे हैं ! देश के एक राज्य से दूसरे राज्य की ओर सड़कों पर पैदल
चलती मज़दूरों की भीड़. राशन के लिए दुकानों पर मारामारी. मुहल्लों में महामारी के
लोगों की जाँच के लिए पहुँचे डॉक्टरों से मारपीट करते लोग. किसके चेहरे पर घोड़े की
नाल नहीं गड़ी ? कौन ऐसी परिस्थितियों
में स्वयं को पूरी तरह मनुष्य घोषित करने का दुस्साहस कर सकता है !
लगभग रोज़ ही उसकी मम्मी-पापा-बहन व
उसके परिवार से बात होती रहती है.
“पापा आपको डायबिटीज़ है, उम्र भी साठ के ऊपर है. आपको बिल्कुल घर में ही रहना है. मम्मी को भी समझा दीजिएगा. मॉनिंगवॉक की अपनी आदत को इस समय ढील दीजिए ; कसरत के और भी तो तरीक़े हो सकते हैं न !”
“अरे बेटा , लेकिन राशन व सामान के लिए तो बाहर निकलना ही होता है न ! दवा भी घर बैठे आने से रही !” वे अपनी मजबूरी का हवाला देते हैं, वह चिढ़कर फ़ोन रख देता है. ये लोग कितने पिछड़े हुए हैं ! बिलकुल भी इंटरनेट-सैवी नहीं ! हद है !
लॉकडाउन ने इंटरनेट की दुनिया गुलज़ार
कर रखी है. जो इंटरनेट जानते हैं, आराम से गुज़र-बसर कर ले रहे हैं. जो उससे खेल लेते हैं, वे और मज़े में हैं. लेकिन इस गुज़र-बसर-मज़े में भी वे गणितीयता से पिण्ड
नहीं छुड़ा पाते. गणित सभी कम्प्यूटरीय रागों-द्वेषों का पैमाना है : इस गणिज्जाल
के छिन्न-भिन्न होते ही वास्तविक संसार अपनी असहायता और असजता लिए सामने आ जाता है.
रोज़ उसे अपने चेहरे में चमगादड़ीय
वृद्धि मिलती है. बाहर के जगत् को न देखने के कारण उसकी आँखें छोटी हो रही हैं.
देर तक जग कर दफ्तर का काम करने के कारण शक्ल पर घोड़े की नाल और गहरा गयी है. कान
सदा बॉस के ईमेल-एलर्ट पर धरे हैं; खाली समय पर वह सूचनाओं के अन्तर्जाल में भटकता उड़ा करता है. संसार क्या
है, चीन की वह भीड़भाड़-भरी वेट मार्केट ही तो है, जहाँ क़िस्म-क़िस्म के जानवर दैहिक-मानसिक विष्ठाओं को साझे ढंग से
त्यागते-भोगते अपने काटने की बारी की प्रतीक्षा करने के लिए अभिशप्त हैं. खच्च !
एक और गया किसी लोलुप के पेट में!
"हेलो मामा! मेरी ऑनलाइन क्लासें चल रही हैं. बहुत पढ़ना पड़ता है आज-कल. मम्मी से पिटाई भी हो जाती है."
उसका नौ साल का भांजा फ़ोन पर बताता है.
बचपन के लिए यह माहौल अजब चिड़चिड़ाहट लेकर आया है. बच्चों के विकास के लिए स्कूल व
घर , दोनों की ज़रूरत है किन्तु एक-साथ
नहीं. वे एक बार में एक ही परिवेश में पनप सकते हैं. अब जब स्कूल घर चला आया है और
उनके बाहर घूमने-खेलने पर पाबन्दी लगी हुई है, तब उनकी तकलीफ़
तो बढ़नी ही है.
कभी-कभी वह सोकर उठता है तो ख़्याल आता
है कि शायद यह-सब एक स्वप्न ही है. कोई विषाणु नहीं फैला है, कोई महामारी नहीं आयी है. लॉकडाउन
केवल मन का भरम है, एक बुरा सपना जो बीत चुका है. तभी
मोटरसायकिल के लोन की क़िस्त में कटने का मेसेज गूँज उठता है और पिछले एक महीने से
जड़ बना एकांउट का आँकड़ा सामने है. सैलरी नहीं मिलेगी, लीव-विदआउट
पे चलेगी! वह खीझ उठता है बाहर उग आये सूरज पर! फिर एक बार!
मानव क़ैद में है किन्तु प्रकृति
उन्मुक्त महसूस कर रही है. लोग घरों में बन्द हैं, जानवर बाहर टहल रहे हैं. “मुम्बई के पास फ्लेमिंगो पक्षियों का मेला लगा
है”, भाई कल ही फ़ोन पर बता रहा था. गंगा में डॉल्फ़िन तैर
रही हैं, सागर-तटों पर कछुए अण्डे देने बड़ी तादाद में लौटे
हैं. कुदरत के दीर्घकालिक घाव पूरे जा रहे हैं. कैसा मॉन्ट्रियल? कौन-सा क्योतो? सारी योजनाएँ-परियोजनाएँ जो
बनायी गयीं थीं, सभी नियमावलियाँ एवं मानक जो गढ़े गये थे,
केवल छलने पर आमादा थे? इंसान की नीयत ही नहीं
थी कि पृथ्वी की सेहत सचमुच सुधरे, वह केवल एक कम बीमार ग्रह
चाहता था जो उससे देखभाल की कम-से-कम फरियाद करे.
'न मरो, न मोटाओ' की कहावत उसके कानों में गूँजती है तो अपने
एक मित्र की माँ याद आने लगती हैं. वह भी इसी शहर में है और सम्पर्क में भी. माँ
को कई बीमारियाँ हैं, इलाज भी महँगा. ऐसे में वह पूरा इलाज
नहीं कराता. सभी दवाइयाँ नहीं, सारी जाँचें नहीं. कहता है
कि केवल उतना, जितने से अम्मा न मरें-न मोटाएँ. पृथ्वी और
पार्थिव माँओं के प्रति लोगों का बर्ताव एक ही सिद्धान्त लिये है. न इनका जीवन
हाय-मेन्टेन्स होना चाहिए, न बीमारी. सो इतने प्रयास ज़रूर
करते रहो कि न बीमारी लायबिलिटी बने, न इलाज. बीच का रास्ता.
न मरो-न मोटाओ. दुनिया तो इतने पर भी सन्तुष्टि से प्रशंसा करेगी ही कि कितना
आदर्श पुत्र है ! बटोरो ब्राउनी !
उसे लगता है वह चिड़चिड़ा हो रहा है.
उसकी गर्लफ्रेंड से जब भी फ़ोन पर बात होती है, आठ-या-दस वाक्यों के बाद दम तोड़ने लगती है. सरसता के लिए सामान्यता चाहिए,
सामान्यता के लिए बाह्यता. जो बाहर नहीं जा पा रहा, वह कैसा सामान्य ? जो सामान्य नहीं, वह कैसे सरस हो ? रखो फ़ोन! हाँ-हाँ, ईवन आय डोंट वॉन्ट टू टॉक टू यू! हर समय कोरोना-कोरोना-कोरोना! इस लड़की
के पास और कोई रोमैंटिक बात जैसे है ही नहीं!
"समस्या पर ऊ डेरात नाय बकी बतियात है", माँ फ़ोन पर कहती हैं. "तुहँसे चर्चा न करै तौ केहसे करै ? जबसे ई बीमारी वाला बवाल भवा, यहर कब्भौ मिल्यो ?"
"कैसे मिलना हो माँ! गया था एक दिन, पुलिस से डण्डे भी पड़े, मुर्गा भी बनना पड़ा! वापस! फिर भी उसमें कोई सिम्पैथी नहीं!"
वह किलसन के साथ कहता है. माँ उसके
बदलते स्वभाव से चिन्तित हैं.
“ब्यवसाय और ब्यौहार जब दूनौं बीमार पडैं, तौ मनई पहिले आपन व्यवहार सम्भालै, भैया. ब्यौहार बचि गा, त ब्यवसाय लौटि आयी. पर जौ ब्यौहार नायँ बचा, तब ब्यवसाय पायौ जाय पर इंसान कस उबरी "
"आप-लोग बहुत ओल्ड-स्कूल हैं माँ ! हमारे टाइम में व्यवहार उसी से होता है, जिसे व्यवसाय होता है किसी क़िस्म का. जो काम का, उसी से रिश्ते. बेकाम-नाकाम से हमारी पीढ़ी न जुड़ती है, न उन्हें जोड़ती है. सैलरी आये पहले तो ... न जाने यह कम्बख़्त वायरस कहाँ से आ गया !"
उसने अब-तक भय को अचानक ही जाना था.
कोई भी घटना या वस्तु उसे तभी डराती है, जब वह अपने संग क्षण-भर में प्रकट होने का भाव लाती है. किन्तु पहली बार
वह धीमेपन से डर रहा है, मानो कोई रसायन हो जो हाथों की रगों
में धीरे-धीरे रिस रहा हो. हाथ ! अभी कितने दिन ही हुए जब उसने अपनी गर्लफ्रेंड के
हथेली को सहलाते हुए किसी कवि की पंक्तियाँ टूट-फूट के संग सुनायी थीं. "उसका
हाथ अपने हाथ में लेते हुए मैं सोच रहा था ... कि इस दुनिया को तुम्हारे ... हाथ
की तरह सुन्दर और गर्म होना चाहिए." वह सुख से चौंक उठी थी , "वाओ ! कितनी सुन्दर लाइनें ! कहाँ से टीपीं ?" देर
तक वह सर्जना का दावा करता रहा था किन्तु जब उसने मानने से बार-बार इनकार दिया,
तब सच किसी अधपचे भोजन की तरह मुँह से बाहर आ गिरा. "कोई
केदारनाथ सिंह हैं. हिन्दी के कवि."
आज-कल उसे अपने हाथ ठण्डे महसूस होते.
ऋतु के प्रभाव के कारण नहीं, यह महीना तो अप्रैल का है. यह गिरता तापमान अकेलेपन के कारण है. समाजहीन
व्यक्ति की ठण्डक का कोई सानी नहीं- न कोई ऋतु, न कोई
ऊँचाई. सर्वाधिक अकेला आदमी मरने के बाद होता है, लेकिन जब
वह मृत्यु से बचने के उपाय करता है, तभी से यह मारक जाड़ा
उसकी हड्डियों में घुसने लगता है. दुनिया उसकी गर्लफ्रेंड का हाथ कभी थी, आज नहीं है. आज तो हाथ दुनिया की तरह ठण्डे और मृतप्राय हैं, उनपर ग्लव्स के कफ़न डाल दिये गये हैं.
पिताजी उसे प्राणयाम की सलाह देते हैं.
मेडिटेशन इस समय घर-बैठे उपचार है, जब बीमारी से ज़्यादा उसका ख़ौफ़ तुम्हें सताता हो. ह्वाट रबिश पापा! ये-सब
बाबा-वाबा टाइप काम करना शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर घुसाना है. शिकारी को न
देखने से क्या उसका ख़तरा कम हो जाता है! नहीं डैड! देखता हूँ कुछ!
सूचनाओं की क्रान्ति चारों ओर से आँकड़ों
के कौर से खिला रही है. घर का राशन चाहे ख़त्म होने लगे, सूचनाएँ ख़त्म नहीं हो रहीं.
वैज्ञानिक तथ्य, राजनीतिक घोषणाएँ, वायदे, भविष्यवाणियाँ- सभी का दौर जारी है. विषाणु हवा में कितनी
देर सक्रिय रहता है, सीवर में कितनी देर. कैसे मनुष्य-मनुष्य
में फैलता है, किस तरह से आदमी की साँसें थकते-थकते
धीरे-धीरे हार मानती जाती हैं. ज्योतिषी हैं कि उच्च के सूर्य से आशा लगाये हैं,
महाशक्ति के राष्ट्रपति गठिया-रोग की किसी अज्ञात दवाई से. कोई गरमी
से वायरस के हारने की बात कर रहा है, कोई गर्म पानी पीकर उसे
छू कर रहा है, तो कोई टीके की बेचैन ताक में है. सारे
टोने-टोटके, भस्म-भभूत, असिद्ध-अपुष्ट
उपाय उसके एंड्रॉयड फ़ोन पर लगातार चमक रहे हैं.
बीतते दिनों के साथ उसमें ढेरों जन्म
हुए हैं, अनेक मौतें भी. उसके
भीतर का मनुष्य क्षीण हो रहा है, चमगादड़ नित्य फड़फड़ा रहा है.
जीवन की डोर पर वह उलटा लटका है अपने सूचना-फल को कुतरता हुआ. सारी दुनिया का उलटा
बोध पाता हुआ. क्या विचित्र जीव ! फल जो सीधे उगता है, उसे
चमगादड़ उलटा खाता है ! लेकिन फिर सीधी सूचनाओं को उलटे बिना खाया भी तो नहीं जा
सकता न ! चमगादड़ होने का अभिशाप है यह !
यूट्यूब पर वह कोई गाना सुने? या फिर किसी साहित्यकार की कविताओं
में डूब जाए? फ़िल्म-तारिकाओं के सुन्दर चित्र स्क्रॉल करे?
या फिर दाढ़ी बढ़ाने का, गंजे होने का, खाना बनाने का, कसरत करने का, नाचने का या डीपी बदलने का चैलेन्ज ख़ुद को और अपनी फ़ेसबुक-लिस्ट को दे
डाले! नहीं-नहीं-नहीं! इन-सब से सूचनाओं के फल उगना बन्द नहीं होंगे! फल उगेंगे
तो चमगादड़ खाएगा ही ! इस काम के लिए वह पहले उलट कर थिरेगा! सूचना का विपरीत सेवन! यह रुकने वाला नहीं!
वह भूखा है, खाने के सामान के लिए नीचे जा सकता
है. ऑर्डर दे सकता है, मँगा सकता है. नीचे सब्ज़ी-दूध-फल लेने वह उतरता है, तब मास्क और
ग्लव्स चढ़ाकर. ऊपर आकर उन्हें सावधानी से उतारता है. उन्हें धूप में डालता है. फिर
हाथ-मुँह धोता है. भूख अपने लिए भोजन चाहती है, अकेलापन
साहचर्य. नाक और मुँह इस वैषाण्विक दौर के नवीन गुप्तांग हैं : इन्हें यथासम्भव
गुह्य-गोपन रखकर ही मनुष्य को बरतना है. अन्यथा संक्रामक अश्लीलता मनुष्य के जीवन
को संकट में डाल सकती है. यह स्पर्श के संकट का दौर है, जिसमें
स्पर्श-संवेदनशील पर सर्वाधिक पहरा है. होठ और उँगलियाँ परिधानों की परतन्त्र हैं,
उनकी स्वच्छन्दता दण्डनीय. साहचर्य के लिए मौजूद सभी पौने आठ बिलियन
साथी एंड्रॉयड में रहा करते हैं : वह उसमें बार-बार बदहवासी-भरी आवाजाही करता है.
पिछली तीन रातों से उसे नींद नहीं आ
रही. सेलफ़ोन स्क्रॉल करते-करते उसी में गिर जाता है ; पता ही नहीं चलता कि जाग रहा है अथवा
नींद में है. तभी चिचियाने की आवाज़ से लगता है कि बालकनी में कोई मौजूद है. वह
उठता है और उधर की ओर बढ़ता है. पिंजरे में बन्द चमगादड़ फड़फड़ा रहा है. काली देह,
पैनी नन्ही आंखें. कभी वह पिंजरे में उलटा लटक कर सन्तुलन बनाने
लगता है, तो कभी धप्प से नीच गिर पड़ता है. वहीं अधत्यागा मल
पड़ा है, वहीं अधखाया फल. न जाने इसकी क़ैद की अन्तिम गति क्या
होगी !
पिंजरे के पहुँच कर वह ठिठक जाता है.
चमगादड़ ने टकरा-टकरा कर अन्ततः पिंजरे का दरवाज़ा खोल दिया है. एक झटके में वह उसकी
उँगली से आकर चिपक जाता है! नहीं! किन्तु ग्लव्स-चढ़े हाथों पर उसके नन्हे नुकीले
दाँत महसूस नहीं होते. वह झटकता है और काले मांस का वह छोटा सा लोथड़ा खिड़की से
बाहर उड़ जाता है.
उसे लगता है वह संक्रमित हो गया है.
लेकिन चमगादड़ के काटने से तो यह रोग फैलता नहीं न ! वह तेज़ी से रबड़ के दस्तानों को
हटाकर अपनी उँगलियों को देखता-टटोलता है. कोई ज़ख्म नहीं, न खून की कोई बूँद. मास्क के नीचे
उसकी साँसें उखड़ती जान पड़ती हैं, धड़कन बिना रुके दौड़ रही
हैं. क्या पता ! जितना ये वैज्ञानिक बताते हैं, सत्य उतना
ही थोड़े है ! नीचे गिरे दस्तानों को वह उठाता है, रबर के
आकार को टटोलता-झाड़ता है. एक सफ़ेद स्टिकर उसके भीतर चिपका पड़ा है, जिसमें तीन शब्द लिखे हैं: लीव विदाउट पे !

पिंजड़े एकदम साफ-सुथरा है. परिन्दा भी
हरा-भरा. वह अपनी उँगली उसकी ओर बढ़ाता है, जैसे लॉकडाउन के पहले अक्सर लाड़ में बढ़ाया करता था. तोता उसकी तर्जनी पर
अपनी चोंच का पैनापन धर देता है. कोई गड़न नहीं, न कोई चुभन.
मनुष्य को पिछले इक्कीस दिनों में मिला यह पहला जीवन-स्पर्श है.
उसकी आँखों में कृतज्ञता तैर रही है. लॉकडाउनों में क़ैद दो जीवन आपस में संवाद-रत हैं. यह स्थिति लम्बी चल सकती है. शायद अगले महीने भी. उसके बाद भी स्थिति सामान्य शायद न हो सके. सामान्यताएँ जितनी आसानी से जाती हैं, उतनी आसानी से लौटतीं नहीं. उन्हें उपजाने व पनपाने में बहुत समय और बड़ी कोशिशें लगती हैं. वह बालकनी से नीचे झाँकता है, तो नज़रें फ़र्श पर गड़ी लाल टाइलों से टकराती हैं. काफ़ी ऊँचाई है ! वह अपनी उँगली खींच लेता है और पिंजरे का दरवाज़ा खोल देता है. पीछे हटता है और तोते की गतिविधि देखता है.
परिन्दा सावधानी से इधर-उधर-ऊपर-नीचे गर्दन मटकता बाहर निकलता है. आहिस्ता से उचक कर बालकनी के किनारे जा बैठता है. लड़खड़ाता है, फिर सन्तुलन बनाता है. अबकी वह उड़ता है और छज्जे पर जा बैठता है. वहाँ बैठकर पंख फड़फड़ाता है और अबकी बार सामने के पेड़ पर. लगता है पक्षी का लॉकडाउन बीत चुका है. उसके मन में एक चैन की साँस चलने लगती है कि तभी अगले पल कानों में चीख गूँजा जाती है. हरे पंखदार जिस्म को बाहर मैदान में कुत्ते नोच रहे हैं.
उसकी आँखों में कृतज्ञता तैर रही है. लॉकडाउनों में क़ैद दो जीवन आपस में संवाद-रत हैं. यह स्थिति लम्बी चल सकती है. शायद अगले महीने भी. उसके बाद भी स्थिति सामान्य शायद न हो सके. सामान्यताएँ जितनी आसानी से जाती हैं, उतनी आसानी से लौटतीं नहीं. उन्हें उपजाने व पनपाने में बहुत समय और बड़ी कोशिशें लगती हैं. वह बालकनी से नीचे झाँकता है, तो नज़रें फ़र्श पर गड़ी लाल टाइलों से टकराती हैं. काफ़ी ऊँचाई है ! वह अपनी उँगली खींच लेता है और पिंजरे का दरवाज़ा खोल देता है. पीछे हटता है और तोते की गतिविधि देखता है.
परिन्दा सावधानी से इधर-उधर-ऊपर-नीचे गर्दन मटकता बाहर निकलता है. आहिस्ता से उचक कर बालकनी के किनारे जा बैठता है. लड़खड़ाता है, फिर सन्तुलन बनाता है. अबकी वह उड़ता है और छज्जे पर जा बैठता है. वहाँ बैठकर पंख फड़फड़ाता है और अबकी बार सामने के पेड़ पर. लगता है पक्षी का लॉकडाउन बीत चुका है. उसके मन में एक चैन की साँस चलने लगती है कि तभी अगले पल कानों में चीख गूँजा जाती है. हरे पंखदार जिस्म को बाहर मैदान में कुत्ते नोच रहे हैं.
उसके पैर उसका भार छोड़ देते हैं, वह ज़मीन पर आ धपकता है. तेज़ चलती
साँसें सिसकियों में बदलती हैं, सिसकियाँ फफकियों में. अबकी
बार वह रुकता नहीं है.
_____________
shuklaskand@yahoo.co.in
बहुत ही सुंदर और मार्मिक
जवाब देंहटाएंमुझे ये कहने में कोई संकोच नहीं है कि डॉ. स्कंद शुक्ल जैसा उपयोगी और ललित लेखन करने वाला हिंदी में कोई दूसरा नहीं है।वे मेरे बहुत अच्छे मित्र हैं ,यह मेरे विशेष प्रसन्नता की बात है।
जवाब देंहटाएंयह पूरा लेख अद्भुत है।'चमगादड़ीयत' और नाक और मुंह का गुप्तांग होना तथा और कई प्रयोग तथा आलेख में त्रासदी का विरल आख्यान उन्हें अनूठा लेखन सिध्द करने के प्रमाण हैं।
बिना पढ़े कह रहा हूं, एक संपादक के रूप में बहुत अच्छा काम किया है। स्कंद का, ख़ासतौर से स्कंद की सर्जनात्मक वैज्ञानिक हिंदी भाषा का प्रशंसक हूं। मेरा चश्मा टूट गया है, फिर भी अभी लैपटाप खोलकर देखूंगा।
जवाब देंहटाएंइसका सच पूछे तो इंतजार था ।स्कन्द के लगभग लेख कई क्लिष्टताओं को तोड़ते दिखते हैं
जवाब देंहटाएंभाषा और विज्ञान का अद्भुत मेल ।साधुवाद आप दोनों को
अपने वक्त के बेहतरीन कवि कथाकार चिकित्सक गद्यकार नवचिंतक जिनसे हिंदी के नए लेखक सीख सकते हैं। समालोचन की अविस्मरणीय प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंडाॅ स्कंद शुक्ला हमारे समय के बेहतरीन चिकित्सक ही नहीं बल्कि चिकित्सीय और साहित्य लेखक भी हैं । इस बेहतरीन लेखक को सलाम।
जवाब देंहटाएंएक सन्नाटे से भर गया है मन। लगता है अभी-अभी एक अंधेरी सुरंग से निकला हूँ। आतंकित हूँ।
जवाब देंहटाएंइस आलेख का ध्येय ही है आतंकित करना!
हटाएंसाहित्य का काम अंधेरे समय में भी रोशनी की किरण ढूंढ लाना है। पर यह आलेख समय के अंधेरे को बढ़ाने के लिए लिखा गया है।
हटाएंबेहतरीन है। सैल्यूट लेखक को।
जवाब देंहटाएं■ शहंशाह आलम
डॉ स्कन्द शुक्ल को पढ़ना , आजकल मेरे लिए जरुरी दिनचर्या है.कोरोना काल में तमाम तरह के मिथों और भ्रमों से उबरने के लिए उन्हें पढ़ना बेहद जरुरी मानता हूँ.
जवाब देंहटाएंऔर यह रचना तो इस दौर की बेहतरीन साहित्यिक कृति है
वर्तमान समय को अद्भुत तरीके से पारिभाषित करता यह फिक्शन हमारे कल के साहित्य का वास्तव हो सकता है| ख़ूबतरीन ललित लेखन|
जवाब देंहटाएंगणेश विसपुते
पूरा आलेख अपने त्रासदीय अंत के कारण मूल्यहीन हो गया है। यदि दो जीवन संवादरत थे तो तोते को आज़ाद करना क्यों जरूरी था? जो इतने सालों पिंजरे में रहा हो उसे ढंग से उड़ना भी नहीं आता है। फिर अच्छे दिनों में साथ देनेवाले को बुरे समय कुत्तों के हवाले करने के पीछे या तो अज्ञान है या संवेदनहीनता। मेरे परिवार में दो महत्त्वपूर्ण सदस्य हैं, एक हमारा श्वानपुत्र स्पार्क और दूसरा हमारा मिट्ठू,दोनों के साथ यह समय इतने आनंद से बीत रहा है,कि हम यह सोच रहे हैं कि ये दोनों नहीं होते तो हमारा क्या होता? डॉक्टर साहब जीवप्रेमियों का मनोविज्ञान समझने में असफल रहे हैं।
जवाब देंहटाएंकोरोना काल में कड़वी सी हुई जिंदगी में डॉ. स्कंद का लेखन पढ़कर लगता है जैसे उन्होंने मिशरी की डली चखाकर जीवन में मिठास घोल दी है। शुक्रिया इस वैज्ञानिक चेतना युक्त मानवतावादी लेखन के लिए। हार्दिक शुभकामनाएं। मर्मस्पर्शी कहानी है।
जवाब देंहटाएंLockdown के इन दिनों में मैं अपने दोस्त और पालतू कुत्ते के ज्यादा नज़दीक आई हूँ। सोशल मीडिया सिर्फ आंकड़ा भर ही है या औपचारिकता यह भी शिद्दत से महसूस की है और संवाद और रिश्ता कुत्ते से अधिक गहरा हुआ है। मनुष्य चुनाव हर स्थिति में करता है यह उसकी इच्छा नहीं उसकी मजबूरी भी है। तोते को ऐसे समय बाहर छोड़ देना मनुष्य के चुनाव का परिचायक है और यह मानसिक जटिलता lockdown की वजह से उभरी है बस, lockdown इसका कारण नही।
जवाब देंहटाएंजितना स्पर्शी और मार्मिक उतना ही रचनात्मक और प्रयोगधर्मी! आपदोनों को बहुत बधाई!
जवाब देंहटाएंउफ्फ.. इस लॉक डाउन ने कितना कुछ दिखाया है और सिखाया है सभी को..
जवाब देंहटाएंबेहतरीन.. स्कंद जी की लेखनी तो हमेशा से ही धारदार है..
सुनीता
मार्मिक व अंतर्द्वंद्व का सटीक चित्रण......!!!!
जवाब देंहटाएंसहज प्रवाह और प्रभावी चित्रण।
जवाब देंहटाएंसहज प्रवाह और प्रभावी चित्रण
जवाब देंहटाएंअंतिम पैरा पढ़ के दिमाग हिल गया.. अगर हम भी लोकडाउन न माने तो क्या हो सकता है..
जवाब देंहटाएंस्कन्द जी के लेखन के मुरीद अनेक लोग हैं और उन्हीं में से एक मैं भी हूँ। चिकित्सा शास्त्र और विज्ञान की तमाम अबूझ एवं बोझिल पहेलियों को बेहद आसान और रोचक ढंग से पाठकों के समक्ष परोसने का जितना सधा कौशल उनके पास है, उतना सम्भवतः किसी दूसरे लेखक के पास नहीं। यह कहानी कोरोना जैसी महामारी से क्षण-प्रतिक्षण संघर्ष करते मनुष्य के मानसिक धरातल की गहन पड़ताल करती है। साथ ही, पाठक को 'कहानीपन' के स्वाद का भी सुखद अहसास कराती चलती है। भाषा पर स्कन्द का अधिकार मुझे विस्मय में डाल देता है : एक व्यक्ति जो पेशे से डॉक्टर है, कैसे भाषा को इतनी बारीकी के साथ बरत पाता है! कैसे इतने महीन-ज़हीन भाषिक प्रयोग कर पाता है!खैर, जो है, हमारे सामने है।
जवाब देंहटाएंबहुत साधुवाद, इस कठिन समय मे समय निकालकर इतनी मार्मिक कहानी( ललित निबंध) लिखने के लिये।
स्कंद को पढ़ना हमेशा प्रिय रहा है। अभी की मानसिक अवस्था का बहुत प्रभावी चित्रण किया है, मगर तोते के अंत और दुःखी कर दिया। हम सब बड़ी विकट अवस्था में हैं। मुक्त होना चाह रहे मगर ऐसा नहीं ....
जवाब देंहटाएंबढ़िया निबंध। बधाई स्कंद, धन्यवाद समालोचन।
हर शब्द,हरेक पंक्ति किसी अंधेरी काली गुफ़ा से गुजारती हुई, जहां चारों तरफ चमगादड़ों के फड़फड़ाने की आवाजें ही कानों तक पहुंच रही है और अंत बिल्कुल उस गुफ़ा की समाप्ति पर गहरी खाई का अवलोकन है,जो अंदर तक सिहरा देता है, कंपकंपा देता है।
जवाब देंहटाएंस्कन्द जी की इस कहानी का अंत संभावित यथार्थ की ओर संकेत करता हुआ उनके ही शब्दों में इस सत्य की ओर इंगित करता है कि सामान्य स्थिति जितनी आसानी से जाती है,वह उतनी ही आसानी से लौटती नहीं है।
जवाब देंहटाएंरचना वेतनभोगी मध्यवर्ग के आसन्न भविष्य की संभावित दुश्वारियों को प्रभावकारी ढंग से चित्रित करने में सफल है।
स्कंद जी को साधुवाद और इसके प्रकाशन के लिए अरुण जी को भी धन्यवाद।
त्रासदिय अंत के बारे में इतना ही कहूंगा कि लंबे लाकडाउन के बाद आम जन के पंख भी इतने ही निस्तेज होंगे, और अनेक रूपों में बाजारू कुत्तों के पंजो में होंगे असहाय जन।
जवाब देंहटाएंस्कन्द भाई, आपके सार्थक और सारगर्भित लेखों के बाद आपकी कहानी से यह पहला परिचय है l शानदार l
जवाब देंहटाएंकोरोना लॉक डाउन इन दो शाब्दिक क्रियाओं ने मानो आदमी को स्वयम की चेतना से जुड़ने का मौका तो दिया मगर लीव विद आउट पे जैसी परिस्थियां देकर भविष्य की चिंता भी पैदा कर दीं बहरहाल वास्तविकता को बयान करता आलेख आज की शानदार अभिव्यक्ति है डॉक्टर साहब को बधाई
जवाब देंहटाएंवर्तमान करोना काल पर यदि दृष्टि डालें तो संभवत हम सभी का अंजाम वही होने वाला है पिंजरे से बाहर निकल कर जो कि तोते का हुआ। स्थितियों का, लोगों का, मन और मनोविज्ञान का अत्यंत बारीक से वर्णन किया हुआ है। आने वाला समय लॉक डाउन से भी ज्यादा संघर्ष का समय है और इस संघर्ष में कौन जीतेगा या नहीं जीतेगा भविष्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती
जवाब देंहटाएंएक सुंदर यथार्थवादी कहानी के लिए स्कन्द जी को साधुवाद।lockdown पर लिखी गयी अब तक की बेहतरीन कहानी।शुक्रिया समालोचन।
जवाब देंहटाएंसाहित्यकार और चिकित्सक की जुगलबंदी। साधुवाद।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन हिंदी लेखकों में से एक,
जवाब देंहटाएंबिना चश्मे के, थोड़ी परेशानी तो हुई, पर लैपटाप पर पढ़ गया। बहुत अच्छा लिखा है स्कंद शुक्ल ने। उम्मीद से ज़्यादा।
जवाब देंहटाएंलॉक पर हर जगह रचनाओं की इतनी बाढ़ आ गई है कि पता नहीं अगले दस साल में इससे हटकर कुछ लिखा -सोचा जाएगा कि नहीं।
जवाब देंहटाएंShandar...
जवाब देंहटाएंडॉ.स्कन्द शुक्ल की रचनाओं से यह मेरा प्रथम परिचय है I वह बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं I उनके लेखन में विविधिता, सरसता और आकर्षण है I
जवाब देंहटाएंलाजवाब लेखन आद्योपांत बांधे हुए। बार-बार पढ़ने को मन करता है, इन पंक्तियों को इंसानी ज़बान के चार शब्द क्या सीख लिये, इंसानी व्यवहार भी प्रदर्शित करने लगा! अरे अपनी परिन्दगी की जद में रह न!
जवाब देंहटाएंलेकिन वह यह भूल रहा था कि जब जन्तु पालतू हो जाता है, तब वह अपनी प्रकृत पाशविकता से हटकर पालक मनुष्यता की ओर आने का प्रयास करता है. मनुष्यगत अच्छाइयाँ ही नहीं, बुराइयाँ भी सोखने लगता है. पला हुआ जानवर पूरी तरह जानवर नहीं रहता ; वह मिश्रित गुणधर्म वाला हो जाता है. उसी तरह जिस तरह पालने वाला मनुष्य पूरी तरह मनुष्य नहीं रहता, वह पशुता की ओर धीरे-धीरे खिंचने लगता है. पशुता की बुराइयाँ ही नहीं, अच्छाइयाँ भी. पशु-मनुष्य-संसर्ग से दोनों में बहुत-कुछ अदला-बदली करता है. एक-दूसरे से अनेक आचार व व्यवहार लिये जाते हैं. भाषा के मीठे बोलों से लेकर विषाणु तक!
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