कहानियाँ झूठी होती हैं, पर सच से कम सच भी नहीं होतीं, यही इनकी ताकत है. हिंदी की युवा पीढ़ी के महत्वपूर्ण लेखक प्रचण्ड प्रवीर जिन्होंने अपने शास्त्रीय ज्ञान से वैसे भी चकित कर रखा है, कहानियों के माध्यम से भी लगातार विस्मित कर रहें हैं. राशियों को आधार बनाकर लिखे उनकी कहानियों के संग्रह ‘उत्तरायण’ और ‘दक्षिणायन’ अभूतपूर्व हैं.
कोरोना
के निर्वासन के दिनों में प्रवीर ने यह कहानी लिखी है. इसके पात्र ऐसा लगता है
उन्होंने अपने आस-पास से उठायें हैं. लेकिन मैं समझता हूँ वास्तविकता से उनका कोई
सम्बंध नहीं है. अगर लगे तो इसे संयोग ही समझना चाहिए. हाँ कहानी में आई कविताएँ वास्तव
में हैं और उनके कवि भी हैं. 'विष्णु खरे स्मृति संस्थान' का भी अस्तित्व है. पर ‘समालोचना’ के किसी
वरुण देव को मैं नहीं जानता. खैर यह कहानी पढिये. कई बार आपदाएं भी अवसर देती हैं.
लव इन द टाइम ऑफ़ कोरोना
प्रचण्ड प्रवीर
मुख
यह सारी कवायद सन् २०२० की होली के दिन शुरू हुयी. दस मार्च की सुबह
जब अर्चना ‘दाग़’ की नींद खुली तो वह रात में आये सपने को ले कर मायूस हो गयीं.
बड़ी देर तक वह सोचती विचारती रहीं. कोरोना के संक्रमण के डर से दिल्ली में होली
नहीं खेली जा रही थी. बिना पुआ बनाए होली कैसे मनेगी? सो पुआ बनाते-बनाते अर्चना ‘दाग़’ सपने पर फिर
विचारने लगीं. अन्त में कशमकश से उबर कर उन्होंने वरुण देव को फोन किया. नमस्ते के
बाद उन्होंने कहा,
“वरुण जी, जैसा कि यह लोक प्रसिद्ध है कि जो आपकी साहित्यिक वेब पत्रिका ‘समालोचना’ पर छपता है वही हिन्दी साहित्य का अंग है. जो समालोचना पर चर्चित नहीं है वह साहित्य में है ही नहीं. इसी लिहाजे मैं आपको अपनी एक दुविधा बताना चाहती हूँ."
“वरुण जी, जैसा कि यह लोक प्रसिद्ध है कि जो आपकी साहित्यिक वेब पत्रिका ‘समालोचना’ पर छपता है वही हिन्दी साहित्य का अंग है. जो समालोचना पर चर्चित नहीं है वह साहित्य में है ही नहीं. इसी लिहाजे मैं आपको अपनी एक दुविधा बताना चाहती हूँ."
वरुण देव ने बड़े सौम्यता से अर्चना ‘दाग़’ का आभार प्रकट करते हुए
कहा,
"आप स्वयं ‘दाग़ देहलवी’ की परम्परा की श्रेष्ठ लेखिका हैं. आपके मुख से ऐसा सम्मान बड़ी बात है. किस दुविधा से आप ग्रस्त हैं?”
"आप स्वयं ‘दाग़ देहलवी’ की परम्परा की श्रेष्ठ लेखिका हैं. आपके मुख से ऐसा सम्मान बड़ी बात है. किस दुविधा से आप ग्रस्त हैं?”
इस प्रकार पूछे जाने पर अर्चना जी ने कहा,
“वरुण जी, कल रात मेरे सपने में स्वर्गीय विष्णु खरे आये. उन्होंने कहा कि मेरे जाने के बाद हिन्दी में आलोचना शून्य हो गयी है और अनुवाद का स्तर गिरता जा रहा है. क्षेत्रवाद बढ़ रहा है. हर तरफ निराशा छा रही है. आलोचक उपनिषदों के कथ्य को पुराण का कह कर भरी सभा में मूर्खता का प्रदर्शन करते हैं. साहित्य के गिरोह के नेता समालोचक बन बैठे हैं. उनका प्रतिवाद करने वाला भी कोई नहीं है. अगर यही चलता रहा तो हिन्दी की परम्परा अधोगति को प्राप्त होगी."
यह सुन कर वरुण देव बोले,
“आपके कथन में कुछ सच्चाई है. आज हिन्दी के परिदृश्य में क्षेत्रवाद हावी है. किन्तु इसके लिए हम क्या कर सकते हैं? क्या आपके सपने में आकर विष्णु जी ने कोई मार्ग दिखाया?”
“मैं समझती हूँ कि यह दायित्व हम पर है. विष्णु जी ने जो कुछ कहा वह इस तरह समझा जा सकता है कि आज कोई वाल्मीकि कृत रामायण, महाभारत, रामचरितमानस को सम्प्रदाय और रुढ़ियों से अलग करके विमर्श नहीं करना चाहता. आधुनिक हिन्दी साहित्य इतना विपुल और गम्भीर नहीं है. इसलिए दुनिया की महान कृतियों का अनुवाद ही सही-सही किया जाए और आम जनता में प्रसारित किया जाए तो यह सार्थक होगा.”
यह
विष्णु जी ने स्वयं कहा या आप उनके वचनों का विमर्श करके बता रही हैं?” वरुण जी की इस शङ्का पर अर्चना दाग़ बोली, “सपनों का
कोई दैविक विधान नहीं है. उन्हें हमें अपने सन्दर्भों से समझना होगा. इसलिए मैं
विष्णु खरे स्मृति संस्थान की स्थापना कर रही हूँ. आपसे अनुरोध है कि आप भारत के
सभी हिन्दी भाषी क्षेत्रों से श्रेष्ठ कवियों, अनुवादकों
और आलोचकों को आमंत्रित कीजिए. मैं ज़ोरबाग़ का शानदार बंगला इस संस्थान को समर्पित
करती हूँ. उनके रहने-खाने का इंतजाम किया जाए. साथ ही मैं सभी साहित्यकर्मियों को
एक लाख रुपए प्रति महीना का पारिश्रमिक भी दूँगी. मैं समझती हूँ कि मारखेज की
किताब ‘हैजा के समय में प्यार’ के हिन्दी अनुवाद से काम शुरू किया जाना चाहिए."
अर्चना जी के ऐसे कल्याणकारी वचन सुन कर वरुण देव ने मधुर स्वर में
उनकी वन्दना की. और इस काम में तत्परता से जुट गए.
प्रतिमुख
वरुण देव ने भारत के कोने-कोने से प्रतिभाशाली व्यक्तियों को आग्रह कर
के दिल्ली आने का न्योता दिया. इनमें आठ प्रदेश के साहित्यकार जम्मू के कवि कुँवरजीत
चौधरी, पंजाब से कवयित्री मेनका कुमार,
राजस्थान के तकनीकी जानकारी वाले साहित्यकर्मी व कवि पर्वतराज
बीकानेरी, उत्तर प्रदेश से कवि और ललित लेखक महाप्राण,
बिहार के स्वप्निल कवि सितांशु खुसरो, मध्य
प्रदेश से वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी स्नेहशंकर शुक्ल, हरियाणा के
अनुवाद विशेषज्ञ और आलोचक सुरेश गोस्वामी और हिमाचल प्रदेश से विष्णु खरे के मित्र,
कवि, लेखक, कला और
सिनेमा विशेषज्ञ ‘प्रमोद भारद्वाज’ को आमंत्रित किया गया. साथ ही पूरे काम के संयोजन के
लिए उत्तराखण्ड के कहानीकार भूतनाथ को भी बुलाया गया.
इक्कीस मार्च को प्रमोद भारद्वाज को छोड़ कर शेष साहित्यकर्मी
ज़ोरबाग़ के बंगले में इकट्ठे हुए. प्रमोद भारद्वाज रात को हवाई जहाज से आने वाले
थे. वरुण देव ने अर्चना ‘दाग़’ की उपस्थिति में सभी को सम्बोधित किया.
“जैसा कि आप सभी जानते हैं कि स्वर्गीय विष्णु खरे की स्मृति में ‘विष्णु खरे स्मृति संस्थान’ ने आलोचना और अनुवाद को बढ़ावा देने के लिए इस साल आप सभी माननीयों को यहाँ आमन्त्रित किया है. आप के सुख-सुविधा और पारिश्रमिक का पूरा ध्यान रखा जाएगा. अर्चना जी की यह इच्छा है कि हम मारखेज की कृति ‘हैजा के समय में प्यार’ के अनुवाद से कार्य प्रारम्भ करें."
“जैसा कि आप सभी जानते हैं कि स्वर्गीय विष्णु खरे की स्मृति में ‘विष्णु खरे स्मृति संस्थान’ ने आलोचना और अनुवाद को बढ़ावा देने के लिए इस साल आप सभी माननीयों को यहाँ आमन्त्रित किया है. आप के सुख-सुविधा और पारिश्रमिक का पूरा ध्यान रखा जाएगा. अर्चना जी की यह इच्छा है कि हम मारखेज की कृति ‘हैजा के समय में प्यार’ के अनुवाद से कार्य प्रारम्भ करें."
सबसे पहले पर्वतराज बीकानेरी ने इस उपक्रम का व्यावाहरिक पक्ष रखा, “आजकल अनुवाद नहीं चलता है. लोग नहीं पढ़ेंगे."
अर्चना ‘दाग़’ ने बड़ी शालीनता से कहा,
“हमें मालूम है इसलिए ही तो हम चाहते हैं कि यह काम आगे बढ़े. इसमें सहयोग
कीजिए.“
इस पर बीकानेरी बोले, “आजकल आडियो कहानियों और उपन्यासों का चलन है. मेरा सुझाव है कि आप ‘हैजा
के समय में प्यार’ का अनुवाद कीजिए, पर उसको अंतत: आडियो बना
कर बेचा जाय."
अनुवाद विशेषज्ञ सुरेश गोस्वामी ने कहा,
“मेरा सुझाव है कि हम अनुवाद कर देते हैं, किन्तु जहाँ-जहाँ मूल उपन्यास में ‘हैजा’ शब्द है, वहाँ-वहाँ ‘कोरोना’ से बदल देंगे. किताब का नाम होगा ‘कोरोना के समय में प्यार’." यह सुन कर बीकानेरी ने टेबल थपथपा कर सहमति जता कर टिप्पणी की, “वैसे हमारे देश में कोरोना समस्या चीनी मूल की है जो इटली घूम कर आए एक विदेशी महामारी का स्थानीय अनुवाद है."
स्नेहशंकर शुक्ल ने सुरेश के सुझाव पर आपत्ति की, “यह तो नकल होगा."
कुँवरजीत चौधरी ने कहा,
“मेरे हिसाब से यह समसामायिक अनुवाद होगा. पूरी दुनिया अभी हैजे से नहीं, कोरोना से जूझ रही है. इस तरह शब्द बदल देने से आशय नहीं बदल रहा है. यह आसानी से समझ में भी आ जाएगा. इसलिए नकल नहीं हुआ."
महाप्राण ने कहा, “मैं समझता हूँ कि नकल कुछ और नहीं एक तरह का कामचलाऊ अनुवाद है जिसमें मूल रचनाकार के विषय में बताया न गया हो." सारी निगाहें मेनका कुमार की तरफ़ गयीं. उन्होंने ऐसे देखा जिसका मतलब था कि मेरा मौन ही अनुमोदन है.
वरुण देव ने फरमाया,
“भूतनाथ जी, आप सबसे कम साहित्यिक हैं. किन्तु अनुशासित हैं. इसलिए मैं इन सबके देखभाल का, काम की प्रगति का लेखा-जोखा रखने वाला आप को बनाता हूँ. आप ही हमें इस काम के बारे में बताते रहिएगा. आज रात आप एयरपोर्ट से विष्णु खरे के मित्र प्रमोद भारद्वाज को लेते आइएगा. कोरोना का खतरा बढ़ रहा है, इसलिए आप सभी लोग इसका ख्याल रखिएगा. और आप सभी लगातार हाथ धोते रहिएगा. सनद रहे कि चीन और इटली जैसे देशों में हजारों लोग इससे जूझ रहे हैं और कई हज़ार लोग मर चुके हैं."
अर्चना दाग़ और वरुण देव जी के जाने के बाद सितांशु खुसरो ने सुरेश गोस्वामी से कहा,
“अच्छा अनुवाद तभी हो सकता जब उसमें देसी सन्दर्भ हों. क्यों न हम अनुवाद के साथ-साथ रचना को और बेहतर बनाते जाएँ?”
भूतनाथ कुछ निर्रथक किस्म का आदमी था. वह साहित्य की दुनिया में चोरी-छुपे घुसते रहने की कोशिश करता रहता था. वह कविता, कहानी, आलोचना, अनुवाद, स्त्री विमर्श, जाति विमर्श, पुरस्कार विमर्श, फलाना विमर्श, ढिमका उत्कर्ष में हाथ आजमाता रहता था. पर हिन्दी के सजग पत्रिकाओं और प्राध्यापकों ने उसके नापाक मंसूबे कभी पूरे न होने दिए. उसने कहा,
“मेरे हिसाब से काव्य की आत्मा रस है. हमें इसमें ‘रस’ डालना चाहिए." भूतनाथ की बात सुन कर सभी हँस पड़े.
महाप्राण ने सुझाव दिया,
“अच्छे और मूल अनुवाद लगने के लिए हमें ऐसे शब्द डालने चाहिए जिसमें ‘श’, ‘ष’ और ‘स’ का बहुधा प्रयोग हो. पात्र की भाषा ऐसी होनी चाहिए कि लगे कि वे ‘सञ्जीव’, ‘कङ्कड़’ और गङ्गा’ के अनुनासिक उच्चारण से जूझ रहे हों."
स्नेहशंकर शुक्ल ने कहा,
“यह सब पुरानी बातें हो गयी हैं. लोग मुझे सुक्ल जी कहते हैं, मैं बुरा नहीं मानता. आज कोई ऐसा हो नहीं सकता है जो स, स और स में भेद करे.“ कुँवरजीत चौधरी ने पूछा, “श, ष और स?” स्नेहशंकर शुक्ल ने कहा, “जी वही स, स और स."
शनिवार की रात भूतनाथ एयरपोर्ट पर प्रमोद भारद्वाज की प्रतीक्षा कर रहा था, उसकी नज़र एक सुन्दर युवती पर जा पड़ी. वह कुछ परेशान सी दिख रही थी. भूतनाथ ने सोचा रस की निष्पत्ति के लिए उत्कृष्ट विभाव जरूरी हैं. रस का राजा है शृङ्गार. उत्तम पुरुषों के लिए सुन्दर स्त्री से बढ़कर कोई विभाव नहीं. अगर इसकी प्रेरणा से काव्य में रस की निष्पत्ति हो जाय तो क्या बात होगी?
वह लड़की किसी से फोन पर बात कर रही थी, “ह्वाट? पागल. अच्छा हिन्दी में बात करूँ? क्यों...? अच्छा सुन लो... मैं जानती हूँ तुम्हारा मन कलुषित है. अभी दो घंटे बाद मिलोगे? कहाँ? देर न हो जाए तुम्हें! अच्छा... हाँ.. सुनो..”
मूर्धन्य ‘ष’ का शुद्ध उच्चारण सुन कर भूतनाथ उसके पास जा कर उसकी बातें सुनने लगे. जैसे ही युवती ने फोन रखा, भूतनाथ ने कहा, “देवी जी, मैं विष्णु खरे स्मृति संस्थान में काम करता हूँ. आप ही हमारी मदद कर सकती हैं."
लड़की ने चौंक कर उसकी तरफ़ देखा. “मेरा नाम भूतनाथ है. यह रहा हमारे संस्थान का कार्ड. ज़ोरबाग़ में हमारा एक बंगला है. अगर आप वहाँ सोमवार को सवेरे आ सकेंगी तो हमारे साहित्यिक कार्य में मदद मिलेगी."
“कैसी मदद?” लड़की ने हैरानी से पूछा.
“हमारे कई दोस्त यह नहीं मानते कि आज भी कोई श, ष, स में उच्चारण का भेद कर सकता है. अगर आप आ कर हमारे साथियों को यह दिखा दें, तो बड़ी मेहरबानी होगी." लड़की ने इतराकर मुँह फुलाया और आगे बढ़ गयी.
इधर प्रमोद भारद्वाज एयरपोर्ट पर बाहर निकले और भूतनाथ के पास आ कर उस जाती हुई मुस्कुराती इठलाती लड़की के बारे में पूछा.
रात के बारह बजे तक सितांशु खुसरो, महाप्राण, कुँवरजीत चौधरी, सुरेश
गोस्वामी, बीकानेरी, स्नेहशंकर शुक्ल
और मेनका कुमार प्रमोद भारद्वाज और भूतनाथ से बात कर रहे थे. प्रमोद भारद्वाज ने
निर्णायक स्वर में कहा,
“मौलिकता एक भ्रम है. फिर भी इस भ्रम को बनाए रखना चाहिए. शून्य से कुछ नहीं उपजता. मैं शून्य को भरने के लिए एकांत में कुछ फिल्में देखूँगा. उपन्यास के आवरण के लिए कुछ विचार करता हूँ. आप लोग तब तक अलग-अलग अध्यायों का अनुवाद कीजिए. मैं समय-समय पर समीक्षा करता रहूँगा. मैं महाप्राण की बात से सहमत हूँ कि ‘श’, ‘ष’ और ‘स’ के प्रयोग अधिक होने चाहिए, बीकानेरी इसके आडियो बुक बेचेंगे. तभी हिन्दी का दम दिखेगा."
“मौलिकता एक भ्रम है. फिर भी इस भ्रम को बनाए रखना चाहिए. शून्य से कुछ नहीं उपजता. मैं शून्य को भरने के लिए एकांत में कुछ फिल्में देखूँगा. उपन्यास के आवरण के लिए कुछ विचार करता हूँ. आप लोग तब तक अलग-अलग अध्यायों का अनुवाद कीजिए. मैं समय-समय पर समीक्षा करता रहूँगा. मैं महाप्राण की बात से सहमत हूँ कि ‘श’, ‘ष’ और ‘स’ के प्रयोग अधिक होने चाहिए, बीकानेरी इसके आडियो बुक बेचेंगे. तभी हिन्दी का दम दिखेगा."
सुरेश गोस्वामी ने कहा, “लकिन कोई ऐसा भी है जो आज सुद्ध-सुद्ध बोल सकता है?”
कुँवरजीत चौधरी ने ठीक किया, “शुद्ध शुद्ध."
भूतनाथ ने कहा, “हाँ, एयरपोर्ट पर मैंने एक सुन्दर लड़की देखी. उसका हिन्दी और अंग्रेजी दोनों का उच्चारण बहुत अच्छा था. “सुनकर सितांशु ने एकदम से खड़े हो कर पूछा, “लड़की?”
मेनका कुमार ने कहा, “बैठ जाओ. वो यहाँ आ नहीं रही है."
तभी दरवाजे की घंटी बजी. भूतनाथ ने बाकियों से कहा, “मैं देखता हूँ.“
सबकी हैरान आँखे खुली की खुली रह गयी, जब देखा कि सामने सफेद टॉप और लाल स्कर्ट में बेहद खूबसूरत लड़की खड़ी है, जिसके गले में एक गाढ़ा गुलाबी रेशमी रुमाल बंधा है और होठों पर और गोरे गालों पर गहरी लाली है. उसने भूतनाथ को देखते ही कहा, “मुझे लगा कि सोमवार सुबह तक काफी देर हो जाएगी. इसलिए मैं आज ही चली आयी."
फिर उसने सारे साहित्यकर्मियों को एक-एक करके देखा. भूतनाथ ने एक-एक करके उससे सबका परिचय कराया. उस लड़की ने कहा, “मेरा नाम जिनिया है और मेरा उच्चारण एकदम स्पष्ट है."
स्नेहशंकर शुक्ल ने चुनौती पेश की, “अच्छा? हम कैसे मानें? कुछ सुनाइए जिसमें ‘स’, स’ और ‘स’ हो."
जिनिया स्थिति समझ गयी और दो घड़ी सोच कर उसने सुनाया, “शेष, गणेश, महेश, दिनेश, सुरेशहु जाहि निरन्तर गावै."
सुरेश गोस्वामी ने वहीं टोका, ‘एकदम गलत है. रसखान की कविता ऐसे है -
'सेस गनेस महेस दिनेस, सुरेसहु जाहि निरंतर गावै.
जाहि अनादि अनंत अखण्ड, अछेद अभेद सुबेद बतावैं॥ '
बीकानेरी ने गाल पर हाथ रख कर टिप्पणी की, ‘पर इनका उच्चारण शुद्ध है. आवाज़ भी मधुर है. इनसे उपन्यास की रिकार्डिंग करवा सकते हैं."
इन बातों को दरकिनार कर के भूतनाथ ने कहा,
“जिनिया जी, जिसने आपको नहीं देखा और जिसे आपने नहीं देखा, सभी उसकी निन्दा करते हैं और स्वयं वह भी अपने को धिक्कारता है. आपके आने से अब हमारे काव्य में ‘रस’ आ जाएगा."
जिनिया ने खुद पर इतराकर बदले में तारीफ की, “भूतनाथ जी, आप सच में एक कवि हैं."
सितांशु ने प्रतिवाद किया, “जिनिया जी, यह कवि नहीं है. जो उसने आपको सुनाया वह वाल्मीकि रामायण से लिया गया है." सितांशु की उत्तेजना को महाप्राण ने पीठ थपथपा कर शांत कराया. मेनका कुमार ने पूछा,
“जिनिया, इतनी रात गये आपके अचानक आ जाने का कारण?”
जिनिया ने खुलासा किया, “दरअसल मैं इटली से आयी हूँ. एयरपोर्ट पर मेरा कोरोना टेस्ट निगेटिव आया है. पर फिर भी मुझे अलग-थलग रहने को कहा गया है. और मैं वहाँ नहीं रहना चाहती थी."
कोरोना का नाम सुनते ही हड़कम्प मच गया. सभी मेनका कुमार के पीछे जा छुपे.
स्नेहशंकर शुक्ल ने हिम्मत दिखाते हुए चिल्लाये, “दूर हटो, दूर हटो. अभी इसी
दरवाजे से वापस जाओ."
जिनिया ने अपनी घड़ी देखते हुए कहा, "बाईस मार्च शुरू हो चुका है. कहाँ जाऊँगी मैं? आज तो
जनता कर्फ्यू है."
बीकानेरी बोले, “जनता कर्फ्यू सुबह सात बजे से शुरू होगा. आप अभी जा सकती हैं."
भूतनाथ ने सबकी असमंजस को ध्यान में रख कर मिन्नते की, “आप को चले जाना चाहिए. आप..."
यह सुन कर जिनिया ने शोखी से गुनगुनाया,
यह सुन कर जिनिया ने शोखी से गुनगुनाया,
“जो मैं होती राजा बन की कोयलिया, कुहुक रहती राजा तोरे बंगले पर, नज़र लागी राजा तोरे बंगले पर."
भूतनात को काटो तो खून नहीं. उसने फिर से कहा, “आप चली जाइए."
जिनिया ने न में सिर हिला कर कहा, “और न जाऊँ तो?”
प्रमोद भारद्वाज ने धमकाया, “हम पुलिस बुलाएंगे." सुनते ही जिनिया धम से सोफे पर बैठ गयी और ढिठाई से
कहा ,"बुला लीजिए. अभी सारी दुनिया कोरोना की मारी है,
आप एक अबला नारी से डर गए?“
सबको परेशान करते हुए जिनिया थिरक कर गाने लगी –
“तदबीर से बिगड़ी हुयी तक़दीर बना ले, तक़दीर बना ले,
अपने पे भरोसा है तो ये दाँव लगा ले, लगा ले दाँव लगा ले.
क्या खाक़ वो जीना है जो अपने ही लिए हो,
अपने ही लिए हो खुद मिट के किसी और को मिटने से बचा ले,
अपने पे भरोसा हो तो ये दाँव लगा ले, लगा ले दाँव लगा ले.”
भूतनाथ और सितांशु खुसरो मंत्रमुग्ध हो कर यह देखते ही रह गए. जिनिया
की इतनी अदा काफी थी जो सबको बेचैन कर दे.
मेनका कुमार ने सबकी तरफ से मोर्चा सम्भाला, “आप क्या चाहती हैं?”
जिनिया ने कहा, “बस एक दिन गुजारने दीजिए. मैं आप लोग के साहित्यिक कार्य में सहयोग भी
करूँगी. रात में नौ बजे ‘जनता कर्फ्यू’ खत्म होने के बाद चली जाऊँगी. मेरी कुछ
मजबूरी है. मैं सबसे दूर रहूँगी. मेरे पास मास्क भी है." जिनिया ने अपने हैंडबैग
से मास्क निकाल कर दिखाया.
कुँवरजीत चौधरी ने कहा, “शरणागत की रक्षा करनी चाहिए. यह हमारी शरण में आयी है. लेकिन जिनिया, अगर हमें फिर भी कोरोना से खतरा है.“
जिनिया ने सिर हिला कर कहा, “वो खतरा आप सबको एक दूसरे से भी है. भूतनाथ अभी एयरपोर्ट से आए हैं. उनके साथ आने वाले इन सज्जन (प्रमोद भारद्वाज की तरफ इशारा कर के) को भी संक्रमण हो सकता है. आप सब एक दूसरे से एक मीटर दूर हो जाइए."
यह सुन कर सभी एक दूसरे से एक मीटर दूर फैल गए. मेनका कुमार ने सवाल लिया, “कितनी भाषाएँ आती है तुम्हें?”
जिनिया अपनी लम्बी नाजुक उँगलियों पर गिनने लगी- “बंगाली, हिन्दी, अंग्रेजी, रशियन, इटालियन, फ्रेंच, स्पैनिश... थोड़ी बहुत मराठी और कन्नड़.“
प्रमोद भारद्वाज ने कहा, “यह लड़की तो सचमुच हमारे काम आ सकती है. तुमने ‘हैजा के समय में प्यार’
स्पैनिश मूल में पढ़ी है?”
जिनिया ने आँखें मीची और मुसकुरा कर हामी भर दी.
गर्भ
अलगे दिन ‘जनता कर्फ्यू’ के दिन भूतनाथ सुबह-सुबह उठ कर नाश्ता बनाने
में जुट गए. जब मेनका कुमार किचन में आयी तो उन्होंने कहा, “बाकी मुझे बनाने दो. सबको उठाओ, नाश्ता तैयार हो
रहा है." थोड़ी देर बाद वापस आकर भूतनाथ ने कहा कि प्रमोद भारद्वाज को उनके रूम
में नाश्ता देना होगा, वह दे देगा. वे अभी १९४१ में आयी ‘बॉल
आफ फायर’ फिल्म देख रहे हैं. सितांशु ने आ कर कहा कि वह जिनिया को नाश्ता दे आएगा.
भूतनाथ कुछ कहने को हुआ, मेनका कुमार ने कहा, “तुम दोनों अब झगड़ा मत करना. मैं ही उसे उठा कर नीचे बुलाती हूँ."
जब मेनका कुमार जिनिया के कमरे में गयी, तब बिस्तर पर सिमटी जिनिया ने सकुचाते हुए पूछा, “आपको
मुझसे डर नहीं लगता?”
“क्यों लगेगा? मैं तुमसे दूर हूँ.” मेनका कुमार ने कहा, “चलो, तैयार हो कर नीचे नाश्ता कर लो. सब दूर-दूर बैठेंगे.“ यह सुन कर जिनिया रो पड़ी. जब वह चुप हुयी, मेनका कुमार ने कहा, “जब भरोसा हो तो मुझसे सच कह सकती हो.“
नाश्ते के बाद हाल में सभी बड़े टेबल के इर्द गिर्द बैठे थे.
महाप्राण ने सुझाया, 'हैजा के समय में
प्यार’ के दूसरे अध्याय में जब पहाड़ों पर जब टेलीग्राफ के तार लगाए जा रहे हैं,
इस संस्करण के पेज एकसठ पर दूसरे पैराग्राफ के बाद, यहाँ पर हम कुँवरजीत चौधरी की यह कविता लगा सकते हैं.
पहाड़
शिखर
पर बैठे तुम
नहीं जान सकते
पहाड़ से देखना
पहाड़ को देखने से
बिल्कुल अलग है
जैसे पैरों से खड़ा होना
और पैरों पर खड़ा होना -
पहाड़ पर चढ़ने से अलग है उतरना
उतरने से अलग है खड़े रहना
पहाड़ पर चढ़ना
चलना सीखना है एक बच्चे का
रेंगना चलना गिरना उठना ...
पहाड़ से उतरना
नदी हो जाना है बर्फ का
पिघलना बहना कलकलाना ...
पहाड़ पर खड़े रहनापत्थर हो जाना है.
नहीं जान सकते
पहाड़ से देखना
पहाड़ को देखने से
बिल्कुल अलग है
जैसे पैरों से खड़ा होना
और पैरों पर खड़ा होना -
पहाड़ पर चढ़ने से अलग है उतरना
उतरने से अलग है खड़े रहना
पहाड़ पर चढ़ना
चलना सीखना है एक बच्चे का
रेंगना चलना गिरना उठना ...
पहाड़ से उतरना
नदी हो जाना है बर्फ का
पिघलना बहना कलकलाना ...
पहाड़ पर खड़े रहनापत्थर हो जाना है.
(कमलजीत
चौधरी की कविता, ‘हिन्दी का नमक’ संग्रह से)
जिनिया सुन कर स्तब्ध रह गयी. वह औरों को देखने लगी. भूतनाथ और सितांशु
चोरी-चोरी उसे देख रहे थे. सुरेश गोस्वामी बोले, “ऐसे तो हम मूल कथ्य को बदल रहे हैं. यह ठीक नहीं कर रहे."
बीकानेरी ने कहा, “बिल्कुल ठीक कर रहे हैं. यह आडियो बुक में प्राण फूँक देगा. वैसे भी
सीधा-सीधा अनुवाद हो गया तो आलोचना क्या होगी?”
स्नेहशंकर शुक्ल ने अपनी बात रखी, “यह आलोचना नहीं निन्दा को आमंत्रित करेगा. वैसे मेरा मत है कि इन विवादित बिन्दुओं को अर्चना ‘दाग़’ के समक्ष रखा जाए. उनकी सहमति भी आवश्यक है. बहरहाल जितने भी मत आए उनका स्वागत है."
मेनका कुमार ने जिनिया से कहा, “यह अध्याय तीन के शुरू के चार पैराग्राफ मूल स्पैनिश में है. जरा इसका अनुवाद करके दिखाना." जिनिया ने उनके दिए हुए कागजात लिए और देखने लगी.
भूतनाथ ने प्रस्ताव रखा, “जब बूढ़ा नायक अपनी प्रेमिका से उसके पति के निधन के बाद पहली बार मिल कर लौट आता है, जब वह उसकी चिट्ठियों को पढ़ना शुरू कर चुकी है उसके बाद, जब मुलाकात के समय उसके पेट में मरोड़ उठता है ओर वह किसी तरह भाग आता है. वहीं कथानक में बारिश हो जाएगी. एक पंक्ति में बारिश का उसके पड़ोसियों को भिगोना जोड़ दिया जाएगा. वहाँ पर मेनका कुमार की यह कविता डाली जा सकती है.
सर्दियों
की बारिश
भले
ही बाहर ठंड है
सर्दियों की बारिश फिर भी जल रहे माथे पर रखी ठंडे पानी की पट्टी है
इस बारिश में भीगने पर जुकाम लगने का डर आधा सच्चा और आधा झूठा है
उस भीगे हुए को मैंने सड़क पार करते हुए देखा
बारिश की गोद से उचक उचक जाते देखा
जब उसे कोई नहीं देख रहा था
उसे अपने आप को गुदगुदाते हुए देखा
बारिश की आवाज़ में वह ख़लल नहीं डालता
बाहर बारिश हो तो
पायदान से पैर रगड़ता
पाँव में लगी बारिश और मिट्टी को झाड़ कर
दबे पाँव कोमल कदमों से अपने घर में घुसता है
भीगा हुआ
पर अंदर से खुश
जैसे कोई धन लेकर घर लौटता है
मैंने देखा उसे
लौट कर घर वालों से बात करते हु
अभी जो बारिश में सड़क पार की
इस बात को रोज़नामचे से काटते हुए
निजी और सार्वजानिक राय को अलग करके
बारिश के सुख को राज़ की तरह छुपाते हुए,
तौलिए से बालों को पोंछता
वह सभी से बताता है
आज बहुत बारिश थी,
सड़कें कितनी गीली
रास्ते फिसलन भरे
पर वह सही सलामत घर पहुँच कर बहुत खुश है
सर्दियों की बारिश फिर भी जल रहे माथे पर रखी ठंडे पानी की पट्टी है
इस बारिश में भीगने पर जुकाम लगने का डर आधा सच्चा और आधा झूठा है
उस भीगे हुए को मैंने सड़क पार करते हुए देखा
बारिश की गोद से उचक उचक जाते देखा
जब उसे कोई नहीं देख रहा था
उसे अपने आप को गुदगुदाते हुए देखा
बारिश की आवाज़ में वह ख़लल नहीं डालता
बाहर बारिश हो तो
पायदान से पैर रगड़ता
पाँव में लगी बारिश और मिट्टी को झाड़ कर
दबे पाँव कोमल कदमों से अपने घर में घुसता है
भीगा हुआ
पर अंदर से खुश
जैसे कोई धन लेकर घर लौटता है
मैंने देखा उसे
लौट कर घर वालों से बात करते हु
अभी जो बारिश में सड़क पार की
इस बात को रोज़नामचे से काटते हुए
निजी और सार्वजानिक राय को अलग करके
बारिश के सुख को राज़ की तरह छुपाते हुए,
तौलिए से बालों को पोंछता
वह सभी से बताता है
आज बहुत बारिश थी,
सड़कें कितनी गीली
रास्ते फिसलन भरे
पर वह सही सलामत घर पहुँच कर बहुत खुश है
(मोनिका
कुमार की कविता, ‘आश्चर्यवत’ संग्रह से)
“यह बड़ा ही उत्तर आधुनिक काम होगा. कोरोना के समय में प्यार. मेरा पूरा समर्थन है इस तरह के नये सुझावों का. जब तक अनुवादों में मौलिकता की गंध न आए, तब तक वह उतरन की चीज है. लेकिन हम पुराने कपड़ों में रंग बिरंगे फुदने, घंटी, सलमें सितारें टाँक रहे हैं और उन्हें एकदम नए अंदाज़ का बना रहे हैं. मज़े की बात है यह कोरोना के समय ही लिखा जा रहा है."
महाप्राण ने चिन्ता प्रकट की, “यहाँ अन्धविश्वास को बढ़ाया जा रहा है. देखिए, आज
शाम में पाँच बजे लोग थाली पीटेंगे. विज्ञान को तिलांजलि दी जा रही है. मुझे
आश्चर्य न होगा अगर बहुत से लोग उत्साह में बम और पटाखे भी फोड़ने लगे."
स्नेहशंकर शुक्ल ने कहा, “अब सुरेश गोस्वामी जो भी लिख कर देंगे, मैं उसकी
वर्तनी देखता जाऊँगा. सितांशु जी निरीक्षण करेंगे कि अनुवाद ठीक हुआ या नहीं.
स्पैनिश मूल से अनुवाद का काम मेनका कुमार देख ही रही हैं. अब हम लोग अपने कमरे
में बैठ कर काम कर ही सकते हैं. पौने पाँच बजे के आस पास फिर मिलते हैं."
दुपहर के खाने के बाद मेनका कुमार के कमरे में अपना किया अनुवाद ले कर
जिनिया पहुँची और उनके टेबल के दूसरी ओर बैठ गयी. “यह लीजिए." मेनका कुमार ने आँखों पर चश्मा चढ़ाया और अनुवाद देखने लगी. “अच्छा है. अब बताओ परेशानी क्या है
तुम्हें?”
“मेरी
परेशानी कुछ अजीब सी है. जिनिया ने सकुचाते हुए कहा, “मैं
समझती हूँ जब मूल न मिल सकता हो तब अनुवाद से काम चला लेना चाहिए." मेनका कुमार ने
चश्मा उतार कर पूछा, “शादी करने जा रही हो?”
जिनिया ने हाँ में सिर हिला कर बताया, “मुश्किल यह है कि मोहन अब रात में मिलेगा. अगर अपने घर में पहुँचूँगी तो
बंद कर दी जाऊँगी. घर वाले मेरी शादी कहीं और कर देंगे.“
“और
मोहन?”
जिनिया ने खुश हो कर कहा, “सब अच्छा है. बस एक ही शर्त रखी है उसने.“
“क्या?”
“उसे
बच्चे नहीं चाहिए. “ जिनिया ने सकुचा कर कहा और नज़रें नीची कर ली. “दरअसल मोहन
कहीं फँस गया. वरना मैं उसके साथ ही उसके शहर कल रात चली गई होती. पर.. खैर अब कल
हमारी शादी होगी, तेईस मार्च को."
“तुमने
स्पैनिश क्यों सीखी थी?” मेनका कुमार ने पूछा.
“पढ़ाई
करते-करते. डॉन किहोते को स्पैनिश मूल में पढ़ने के लिए. दरअसल मैं भाषा
में काम करती हूँ." जिनिया ने कहा
“वह
तो मालूम होता है.” मेनका कुमार ने कहा, “जब तुम इतनी भाषा
जानती हो, हर कुछ मूल में पढ़ती हो तो फिर...?”
“फिर?”
जिनिया ने सवाल किया.
“फिर
तुम प्रेम के अनुवाद के लिए क्यों राजी हो गयी?”
मेनका के इस सवाल पर जिनिया स्तब्ध रह गयी. मेनका कुमार ने आगे समझाया,
“भाषा का अनुवाद होता है, वाणी का नहीं. अनुभूति का नहीं. प्रेम का अनुवाद नहीं होता जिनिया."
यह सुन कर जिनिया का चेहरा कुम्हला गया. आँखें भर आयी वह वहाँ से उठ कर चली गयी.
मेनका के इस सवाल पर जिनिया स्तब्ध रह गयी. मेनका कुमार ने आगे समझाया,
“भाषा का अनुवाद होता है, वाणी का नहीं. अनुभूति का नहीं. प्रेम का अनुवाद नहीं होता जिनिया."
यह सुन कर जिनिया का चेहरा कुम्हला गया. आँखें भर आयी वह वहाँ से उठ कर चली गयी.
विमर्श
शाम को पौने पाँच बजे सब इकट्ठे हुए थे. सब अपना-अपना काम दिखा रहे थे.
जिनिया बार-बार मेनका कुमार से नज़रें चुरा रही थी. वहीं भूतनाथ और सितांशु उससे
नज़र मिलाने के लिए तड़प रहे थे. यह देख कर बीकानेरी और महाप्राण बार-बार मुस्कुरा
रहे थे.
अचानक अगल-बगल से घंटी और शङ्ख का शोर आने लगा. सुरेश गोस्वामी
चिल्लाये, “हम भी बॉल्कोनी में
चलते हैं." सारे लोग दूरी बनाते हुए बॉल्कनी में पहुँचे. अगल बगल के बंगलों में,
बॉल्कनी में, छत पर, लोग
थालियाँ चम्मचों से पीट रहे थे. कोई घंटी बजा रहा था, कोई
शङ्ख फूँक रहा था. बाकी लोग तालियाँ बजा रहे थे. भूतनाथ जिनिया के पास पहुँच कर
उसे चोरी-चोरी देखने लगा. जिनिया ने तालियाँ बजाते हुए उससे पूछा, “कोरोना से डर नहीं लगता? तुम्हें भी हो जाएगा. मैं
इटली से लौटी हूँ."
भूतनाथ ने हँस कर कहा ‘नहीं’ और वह भी तालियाँ बजाने लगा. कुँवरजीत चौधरी आस-पास के माहौल का विडियो बनाने लगे.
भूतनाथ ने हँस कर कहा ‘नहीं’ और वह भी तालियाँ बजाने लगा. कुँवरजीत चौधरी आस-पास के माहौल का विडियो बनाने लगे.
शाम ढलने लगी तब हॉल में बैठे लोग से जिनिया ने कहा,
“मैं आप लोग से कुछ कहना चाहती हूँ. आप लोग को तकलीफ़ देने के लिए मैं माफ़ी चाहती हूँ. सच है कि मैं इटली से लौटी हूँ, पर आज नहीं दो हफ्ते पहले. मैं कल तक मुम्बई में थी. मुझे कोरोनो होता तो शायद अब तक संक्रमण हो चुका होता. अब मुझे जाना है.“
बीकानेरी ने कहा, “अरे वाह. आपने फालतू में हम सब को डरा दिया."
जिनिया ने सितांशु और भूतनाथ को देख कर कहा, “जिनको डरना चाहिए था वे तो डरे ही नहीं." यह सुन कर
स्नेहशंकर शुक्ल ठहाका मार कर हँसने लगे. प्रमोद भारद्वाज ने पूछा, “कब जाना है
आपको?”
जिनिया ने कहा, “नौ बजे जनता कर्फ्यू खत्म होगा. पर मुझे आठ बजे तक नई दिल्ली रेलवे स्टेशन तक पहुँचना है."
“कैसे
जाएँगी?” महाप्राण ने पूछा.
“कुछ
न मिला तो ज़ोरबाग़ से पैदल ही जाना पड़ेगा. पहुँच जाऊँगी."
जिनिया ने डबडबायी आँखों से कहा.
जिनिया ने डबडबायी आँखों से कहा.
प्रमोद भारद्वाज ने कहा, “मेरे रहते तुम्हें पैदल नहीं जाना पड़ेगा. भूतनाथ, गाड़ी निकालना. हम और तुम इन्हें छोड़ कर आएँगे." सितांशु ने कहा, “मैं भी चलूँगा.“ प्रमोद भारद्वाज ने डाँटा, “कोरोना संक्रमण चल रहा है. भूतनाथ तो केवल सुरक्षा के लिए है. आपात स्थिति में काम आ सकता है." फिर उन्होंने जिनिया से कहा,
“जिनिया जी, आप जाने से पहले कुछ गा कर सुनाइए." जिनिया ने लजाते हुए न में सिर हिलाया. प्रमोद भारद्वाज ने महाप्राण से कहा, “आप कुछ पढ़िए.“
भूतनाथ ने बीच में कहा, “मैं पढ़ देता हूँ महाप्राण की एक कविता.'
उन्माद
तुमने
इस कदर सताया मुझे
कि तुम्हें लगा तुम भी सता सकती हो
कि तुम्हें लगा तुम भी सता सकती हो
एक
सताई गई स्त्री भी सता सकती है
यह तुम बता सकती हो
यह तुम बता सकती हो
(अविनाश
मिश्र की कविता, ‘चौंसठ सूत्र सोलह अभिमान’ संग्रह से)
जिनिया बोली, “आप अच्छी भूमिका बाँध लेते हैं." स्नेह शंकर शुक्ल ने कहा, “हमारी एक कविता है – प्यास में. सुनिए
प्यास
में
प्यास
में
पानी ही भूमिका है
पानी ही विचार है
पानी ही कविता-कथा है
पानी ही उपसंहार है!
पानी ही भूमिका है
पानी ही विचार है
पानी ही कविता-कथा है
पानी ही उपसंहार है!
( प्रेमशङ्कर
शुक्ल की कविता, ‘झील एक नाव है’ संग्रह से)
सितांशु ने कहा, “जिनिया जी, अब तो आप जाने वाली हैं, कोई गीत सुना दीजिए."
इतने मनुहार पर अंततः जिनिया ने गा ही दिया -
कुछ बोल के ख़ामोशियाँ तड़पाने लगी हैं
चुप रहने से मजबूरियाँ याद आने लगी हैं
तू भी मेरी तरह हँस ले, आँसू पलकों पे थाम के,
तू भी मेरी तरह हँस ले, आँसू पलकों पे थाम के,
जितनी है ख़ुशी ये भी अश्कों में ना बह जाए
अँखियों के झरोखों से, मैंने देखा जो साँवरे
तुम दूर नज़र आए, बड़ी दूर नज़र आए
जिनिया की दर्दीली आवाज़ सुन कर सब के सब मंत्र मुग्ध हो गए. फिर
जिनिया अपना हैण्डबैग ले कर तैयार हो गयी. भूतनाथ बाहर गाड़ी निकालने चला गया.
प्रमोद भारद्वाज ने अपनी टोपी ठीक की और वह भी बाहर निकले. जिनिया ने सब से
बारी-बारी से नमस्ते कर के विदा ली. मेनका कुमार ने जिनिया से कहा, “मेरी बात याद रखना."
प्रमोद भारद्वाज आगे की सीट पर बैठे. भूतनाथ कार ड्राइव कर रहा था.
जिनिया पिछले सीट पर बैठी थी. वे बाहर की ओर चल दिए.
केन्द्रीय सचिवालय के पास पुलिस वालों ने कार रुकवा दी. भूतनाथ ने
शीशा नीचे किया और पुलिस से इशारे से कहा, “साथ में बड़े साहब हैं." प्रमोद भारद्वाज ने पुलिस से कहा, “गृह मंत्रालय के काम से जा रहा हूँ. यह देखो मेरा आईडी कार्ड.“ प्रमोद
भारद्वाज का कार्ड देख कर पुलिस वालों ने उन्हें जाने दिया. उसके साथ ही प्रमोद
भारद्वाज मोबाइल अपडेट देख कर बोले, “ओह, कल से दिल्ली पूरी तरह बन्द होने वाली है. सारी रेलगाड़ियाँ रद्द. मेट्रो
भी बन्द. ये गाड़ी तो जाएगी पर जिनिया तुम उस शहर पहुँच कर आगे कैसे जा पाओगी?" जिनिया ने असहजता में कुछ मुस्कुरा कर कहा, “देखते
हैं.“
रेलवे स्टेशन पहुँच कर भूतनाथ ने गाड़ी पार्किंग में लगायी. प्रमोद
भारद्वाज ने कहा, “आपको प्लेटफॉर्म तक
छोड़ कर आते हैं." जिनिया ने हाँ में सिर हिलाया. गाड़ी ग्यारह नम्बर के
प्लेटफॉर्म पर आ रही थी. जिनिया झटक कर वहाँ पहुँच जाना चाहती थी. अचानक सीढ़ियाँ
चढ़ कर पुल पर दौड़ते ही उसने भूतनाथ का ख्याल किया और पलट कर बोली, “प्रमोद सर पीछे छूट गए."
“आ जाएँगे. वे अपना मास्क ठीक कर रहे हैं." भूतनाथ ने पीछे उन्हें आता देख कर कहा.
“तुमसे
भी विदा लेना है.” जिनिया ने हँस कर कहा. बाँहे फैला कर मज़ाक में बोली, “गले नहीं मिलोगे?”
भूतनाथ ने जिनिया को हसरत से निहारते हुए कहा, “आपको कुछ देना है."
जिनिया ने चौंक कर उसे देखा. भूतनाथ ने अपनी जेब में से एक इत्र की
शीशी निकाल कर उसे सौंपते हुए कहा,
मैं
ऐसे प्रवेश चाहता हूँ
तुममें
कि मेरा कोई रूप न हो
मैं तुम्हें ज़रा-सा भी न घेरूँ
और तुम्हें पूरा ढँक लूँ
तुममें
कि मेरा कोई रूप न हो
मैं तुम्हें ज़रा-सा भी न घेरूँ
और तुम्हें पूरा ढँक लूँ
(अविनाश
मिश्र की कविता, ‘चौंसठ सूत्र सोलह अभिमान’ संग्रह से)
जिनिया सुन कर कुछ न बोली और उसने इत्र की शीशी अपनी मुट्ठी में रख ली.
वह जल्दी से सीढ़ियाँ उतर कर प्लेटफॉर्म पर चली गयी. वहीं सामने मोहन उसकी
प्रतीक्षा कर रहा था. भूतनाथ उसे जाता देखता रह गया. पीछे से प्रमोद भारद्वाज ने
उसके कन्धे पर हाथ रख कर थपथपाया.
जिनिया मोहन के सामने खड़ी थी. उसने मोहन के लिए बाँहे फैलायी. मोहन
ने पास आ कर सीधे पूछा, “दो हफ्ते हो गए न?
तुम्हें बुखार या खाँसी तो नहीं?” यह सुन कर
जिनिया चौंकी. “लगता है कल तुम्हारा फोन अचानक बंद नहीं हो गया था! तुम दो हफ्ते
इस बात का इंतजार कर रहे थे कि मैं कोरोना से मरती हूँ या नहीं?
मोहन ने सकपका कर कहा,
जिनिया वहीं खड़ी सोचने लगी. उसने मोहन से पूछा, “अगर मुझे कोरोना हुआ तो तुम्हारे शहर में इलाज होगा?”
“नहीं नहीं, तुम ग़लत सोच रही हो. मेरा मतलब वह नहीं था. मैं तो बस पूछ रहा था... आओ
देखो, यह आखिरी गाड़ी है. इसके बाद सारी गाड़ियाँ रद्द कर दी गयी हैं."
जिनिया वहीं खड़ी सोचने लगी. उसने मोहन से पूछा, “अगर मुझे कोरोना हुआ तो तुम्हारे शहर में इलाज होगा?”
“यह भी मुश्किल है. अगर डर लग रहा है तो तुम यहीं रह जाओ. अब लॉकडाउन के बाद मिलना ठीक रहेगा. यही समझदारी है." मोहन ने कहा.
“कहाँ जाऊँ? घर जाऊँगी तो वहाँ ‘चुलबुल लीला पाण्डेय’ से मेरी शादी कर दी जाएगी. तुम्हें पता भी है कि एक दिन मैंने कहाँ और कैसे गुज़ारा है?” जिनिया ने पूछा.
“अपनी सहेली सौम्या के घर ही गयी होगी! अब उससे क्या फर्क पड़ता है. तुम ठीक हो न! आओ गाड़ी में बैठते हैं या फिर तय कर लो यदि तुम्हें वापस जाना है तो."
यह बातें सुन कर जिनिया पूरी तरह लाल हो गयी. उसने अपनी मुट्ठी भींची और गुस्से में कहा, “तुम्हें फर्क नहीं पड़ता कि मैं जिन्दा रहूँ या मर जाऊँ. रात कहीं अजनबी के घर गुजारूँ या रेलवे स्टेशन पर."
“तुम
खामखाँ तमाशा बना रही हो.” मोहन ने खीज कर कहा.
“सौम्या कलकत्ता में है. कल देर रात तक मैं इधर-उधर भटक रही थी कि कहाँ रुकूँ? जब तुमने अपने पास जगह नहीं दी तो सौम्या के यहाँ मैं क्यों रुकती? मैं सोचती रही कि तुम्हारा फोन लगेगा और तुम मुझे लेने आओगे. और तुम्हारा फोन सुबह जा कर ठीक होता है!“"
जिनिया गुस्से में चीखी, “मैंने तय कर लिया है. मैं वापस जा रही हूँ."
जिनिया झट से वापस सीढ़ियों की तरफ़ दौड़ पड़ी. दौड़ते हुए उसे ठोकर लगी. इस पहले कि वह गिरती, भूतनाथ के मजबूत हाथों ने उसे सम्भाल लिया. हड़बड़ाहट में जिनिया की मुट्ठी खुली. इससे पहले कि इत्र की शीशी गिरती, भूतनाथ ने उसकी मुट्ठी को अपने हाथों में ले कर सहेज लिया.
जब जिनिया, भूतनाथ और प्रमोद
भारद्वाज वापस लौटे, तब घर में मास्क लगाए अर्चना ‘दाग़’ और
वरुण देव को सामने बैठा पाया. वरुण देव ने भूतनाथ से सवाल किया, “भूतनाथ, ये आपने किनको और कैसे बुला लिया? हमें बिना बताए? यह बात अर्चना जी को अखर रही है. यह
संस्थान के नियमों का उल्लङ्घन हैं.“
भूतनाथ ने भूल स्वीकारी, “हाँ, यह दोष तो हुआ है. लेकिन बात ही ऐसी थी कि हमें
जिनिया को वापस लाना पड़ा."
महाप्राण और बीकानेरी ने सारा किस्सा अर्चना ‘दाग़’ को सुनाया. तब
अर्चना ‘दाग़’ ने भूतनाथ से पूछा, “अगर जिनिया को कोरोना हुआ तो?”
भूतनाथ ने जवाब दिया, “ऐसे भी जीने में क्या रखा है?”
अर्चना दाग़ ने कड़ाई से कहा,
“ज़ीस्त से तंग हो ऐ दाग़ तो जीते क्यूँ हो,
जान प्यारी भी नहीं जान से जाते भी नहीं."
“ज़ीस्त से तंग हो ऐ दाग़ तो जीते क्यूँ हो,
जान प्यारी भी नहीं जान से जाते भी नहीं."
सबने डर कर अर्चना दाग़ को देखा. अर्चना ने वरुण देव जी को निर्देश
दिया, “जिनिया को अलग-थलग रखना पड़ेगा.
लोधी कॉलोनी में जो दूसरा बंगला है वहाँ जिनिया और भूतनाथ को भेज दो. वरना सब को
कोरोना होने का खतरा है."
सितांशु अपने केहुनी पर खाँसने लगा. उसने शरारत से मुसकुराते हुए पूछा, “मैं भी उसी बंगले में चला जाऊँ?“
अर्चना ‘दाग़’ ने डाँटा, “अगर आप चले जाएंगे तो कौन पूरा करेगा – कोरोना के समय में प्यार ?”
उपसंहृति
तेईस मार्च को जिनिया का हाथ भूतनाथ ने थामा और बड़ी देर तक नहीं
छोड़ा और केदारनाथ सिंह की पंक्तियाँ मन ही मन दुहरायी कि उसका हाथ अपने हाथ में
लेते हुए मैंने सोचा दुनिया को हाथ की तरह गर्म और सुन्दर होना चाहिए साथ ही उन
दोनों ने देखा कि सुन्दर साफ नीले आकाश में सुबह के सूरज की नारङ्गी किरणें नन्हे
बैंगनी बादलों के टुकड़ों पर छितर रही हैं वहीं वासन्ती बयार में धूल का
नाम-ओ-निशान नहीं और सालों के बाद एक बार फिर रंग बिरंगे पंछी नाजुक टहनियों पर
चहचहाते दिख रहे हैं जिनके कर्णप्रिय कलरव को सुन कर जिनिया का दिल धड़क जाता जिसे
भूतनाथ चुपके-चुपके कान लगा कर सुनता रहता और साथ ही दोनों ‘कोरोना के समय में
प्यार’ के सिद्धांत और व्यवहार पक्ष पर निकटता और कोमलता से विमर्श करने लगे और कम
हुए प्रदूषण को देख कर पुलकित होते रहे तथा टेलिविजन पर खबर सुनते रहे कि किस तरह
सारा देश बंद होता जा रहा है वहीं ज़ोरबाग़ के बंगले पर अनुवाद पर जोर शोर से काम
चलता रहा और कभी कभी वहाँ से लोग आ कर लोधी कॉलोनी के बंगले में जिनिया और भूतनाथ
के खोज खबर लेते लेकिन वह सिलसिला भी चौबीस मार्च की खौफ़नाक शाम को बंद हो गया जब
जिनिया ने पहली बार साँस में तकलीफ की शिकायत की और साथ ही बदन दर्द की भी और इटली में हर रोज इलाज़ के अभाव में गिरती लाशों के बारे में बताते हुए भूतनाथ से उसे छोड़कर कहीं दूर चले जाने की विनती की किन्तु
भूतनाथ ने उसका हाथ नहीं छोड़ा वहीं जीनिया की नासाज़ तबीयत की खबर को सुन कर बाकी लोग भयभीत हो गये यह भय
और भी बढ़ गया जब चौबीस मार्च की रात में आठ बजे इक्कीस दिनों के लॉकडाउन की घोषणा
की गयी और इसके साथ ही सभी देश के सारे निवासी अपने-अपने बंगलों में घरों में
कोठरियों में महलों में झोपड़ियों में अट्टालिकाओं में आशियानों में ठिकानों में
कैद हो गए बंद हो गए फँस कर रह गए और वहीं भूतनाथ को जिनिया का और जिनिया को
भूतनाथ का सहारा था लेकिन पच्चीस मार्च को ज़ोरबाग़ वाले बंगले में
साहित्यकर्मियों की मिलीजुली खाँसी की आवाज़ें आनी लगी जो कि कुछ दिनों के अंतराल
में दूर कहीं अपने घर में बंधक बने वरुण देव तक भी पहुँची और जब उन्होंने अपने
मोबाइल से ज़ोरबाग़ वाले बंगले में विडियो कॉल किया और उन्हें विश्वास नहीं हुआ कि यह महामारी विडियो कॉल से फैल गयी है क्योंकि भूतनाथ और जिनिया लगातार साहित्यकर्मियों से विडियो कॉल के द्वारा सम्पर्क में बने हुए थे यही कारण था कि वह यह मानने को तैयार ही नहीं थे कि उन्हें यह रोग असावधानी बरतने से हुआ है और वे भी खाँसी की शिकायत करने के बाद बदन
में दर्द और बुखार महसूस करने लगे और उन्होंने सहायता के लिए आकाश में गगनभेदी
पुकार लगायी जो दूर दिल्ली के लोधी कॉलोनी के बंगले में एक ही चादर ओढ़े बीमार
जिनिया और भूतनाथ ने भी सुनी पर वे बेहद कमजोरी और भूख में चिल्ला भी न सके लेकिन
मन ही मन वरुण जी के लिए प्रार्थना करने लगे वहीं रुग्ण वरुण देव जी ने विचारा कि
यह कोरोना समस्या किसी विदेशी समस्या का अनुवाद भर न हो कर महामारी का एक तरह का
सार्वभौमिक साम्राज्यवादी विस्तार है जो कि अनुवाद की सीमाओं को लाँघ कर केवल मूल
को ही ग्राह्य बनाता है और इस तरह सब कुछ निगल जाता है कि क्योंकि वह दूसरे का
आग्रह नहीं करता दूसरे की अपेक्षा भी नहीं आदर भी नहीं करता और यह जान लेते ही उन
को कर्तव्य पुकारने लगा क्योंकि क्रिया ज्ञान का अनिवार्य स्वभाव है और वे किसी तरह कम्प्यूटर के सामने बैठ कर काँपते हाथों से भूतनाथ के आखिरी भेजे ब्योरे को जिसमें उसने धनञ्जय कृत दशरूपक को देख कर पाँच सन्धियों को अध्यायों के शीर्षक में डाले जिसे कहानी के रूप में अर्चना ‘दाग़’ ने सजाया और सँवारा जिसमें न प्यार है न
कोरोना है बल्कि चिन्ता है और अंधविश्वास से परे एक विश्वास है व संकल्प है कि
देशवासी कोरोना से उबर जाएंगे समालोचना की वेबसाइट पर प्रकाशित करने में जुट गए और
साथ में बड़े-बड़े अक्षरों में नए पैराग्राफों में तीन पंक्तियाँ जोड़ दीं
__________
प्रचण्ड प्रवीर बिहार के मुंगेर जिले में जन्मे और पले बढ़े हैं. इन्होंने सन् २००५ में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली से रासायनिक अभियांत्रिकी में प्रौद्योगिकी स्नातक की उपाधि ग्रहण की. सन् २०१० में प्रकाशित इनके पहले उपन्यास 'अल्पाहारी गृहत्यागी: आई आई टी से पहले' ने कई युवा हिन्दी लेखकों को प्रेरित किया. सन् २०१६ में प्रकाशित इनकी दूसरी पुस्तक, 'अभिनव सिनेमा: रस सिद्धांत के आलोक में विश्व सिनेमा का परिचय', हिन्दी के वरिष्ठ आलोचकों द्वारा बेहद सराही गई. सन् २०१६ में ही इनका पहला कथा संग्रह 'जाना नहीं दिल से दूर' प्रकाशित हुआ. इनका पहला अंग्रेजी कहानी संग्रह ‘Bhootnath Meets Bhairavi (भूतनाथ मीट्स भैरवी )’ सन् २०१७ में प्रकाशित हुआ था. कहानियों के दो संग्रह उत्तरायण और दक्षिणायन इसी वर्ष प्रकाशित हुए हैं. इन दिनों प्रचण्ड प्रवीर गुड़गाँव में एक वित्त प्रौद्योगिकी संस्थान में काम करते हैं .
prachand@gmail.com
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लेखक को बधाई। समालोचन को धन्यवाद यह अनूठी कहानी पढ़ाने के लिए। ��
जवाब देंहटाएंबिल्कुल मौलिक और मन को चकित कर देने वाली कहानी। लेखक को बधाई और शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंक्या गजब की कहानी लिखी है प्रचण्ड जी ने। अपनी विशिष्ट शैली में लिखी एक और उत्कृष्ट रचना। शुरू से अंत तक ऐसा लगता है मानो आप वहीं उन किरदारों को देख-सुन रहे हो। कहानी का अंत तो मुझे बहुत ही पसंद आया। आशा है कि भविष्य में भी लेखक साहिब हमसे, ऐसी ही साहित्यिक मणियां साझा करते रहेंगे।
जवाब देंहटाएंविस्मयादिबोधकों की कमी खल रही है...!!
जवाब देंहटाएं...फिर भूतनाथ और जिनिया आइसोलेशन से सकुशल वापस लौट आए, लेकिन अद्यतन सूचना के अनुसार यह स्पष्ट नहीं है कि दोनों दाम्पत्य सूत्र में बंधे या नहीं। वैसे, यह पुख़्ता जानकारी है कि सितांशु और मोहन अपने अपने कारणों से संन्यासी हो गए। जिनिया के बाद अनुवाद पर काम करने वाले विशेषज्ञों में कुछ दिनों तक ख़ाँसी और बुख़ार के लक्षण मौजूद रहे, लेकिन सघन जाँच के बाद स्पष्ट हो गया कि यह पेट और मौसम की ख़राबी तथा भय का मिला-जुला परिणाम था। उपचार के बाद डॉक्टरों ने कहा था : "अब आपको कोई ख़तरा नहीं है... आप चाहें तो अपना काम जारी रख सकते हैं"।
लेकिन, सुना जाता है कि सभी विशेषज्ञ पारिवारिक और निजी कारणों का हवाला देकर एक दो रोज़ में ही कट लिए थे।
संप्रति, उनका सारा काम कंप्यूटरों में बंद पड़ा है। और कंप्यूटरों को फ़िलहाल सेनेटाइज़ेशन के लिए लॉक कर रखा है। अभी इस बात की कोई सूचना नहीं है कि अनुवाद का काम कहाँ तक पहुंचा था। जब पता चलेगा अथवा उचित समय पर संबंधित पक्षों को सूचित कर दिया जाएगा।
इति।
वाह ! लाजवाब कहानी
जवाब देंहटाएंऐसी कोई ख़ास मौलिकता तो नहीं ही है कहानी में , लेकिन एकदम से इस बेबाकी से छद्म नामों के समानांतर उनसे जुड़े लेखकों कवियों की संवाद और संभवतः व्यवहार शैलियों और बानगियों को , तमाम समसामयिक विमर्शों को , एक सूक्ष्म मैटाफर में से पिरोकर निक़ालते खंगालते हुए सीवनों की शिद्दतों के साथ पूरे हिंदी साहित्य के समकालीन फाउंडेशनी परिदृश्य को समेट लेना और कुछ कुछ हरिशंकर परसाई जैसी व्यंग्यात्मकता में कहानी क़ा ताना बाना बुन लेना और ख़त्म होते न होते मोदिया विदूषकी में समापन पसंद आया .(हालांकि ढेरों और लोग भी हो सकते थे जो इस तरह के कोरोना मारक साहित्यिक महामारी में आजकल बड़े जोर शोर से शामिल हैं .धुरंधर और प्रख्यात , विदेशगामी कलावंत , आकाशचारी दिगंत ...)
जवाब देंहटाएंप्रचण्ड प्रावीर की प्रतिभा का लोहा मानना पड़ेगा क्योंकि एक हालिया विपदा को आत्मसात कर उन्होंने बेहद पठनीय और कलात्मक कहानी रची है।आरंभ से लेकर अंत तक पाठक को बांधे रखना उनकी कलम का कमाल है।
जवाब देंहटाएंरचनाकार एवं सम्पादक-प्रकाशक को साधुवाद।
अभी हाल ही मे दिनांक १५ मार्च को Indian Express में अमित चौधरी की कहानी, The actual Shafi Sahuq प्रकाशित हुई है । प्रचंड प्रवीर की कहानी लव इन द टाइम ओफ़ कोरोना का form बिलकुल उससे मिलता है। हाँ कहानी ज़रूर अलग है। अमित चौधरी की कहानी में भी लेखक, कवि अपने नामों और कविताओं के साथ उपस्तिथ हैं। अमित चौधरी की कहानी एक कश्मीरी कवि शफ़ी शौक़ की कहानी है जिससे कहानीकार की मुलाक़ात Frankfurt के पुस्तक मेले में नीदा फ़ाज़ली, पवन वर्मा, जावेद अख़्तर, गिरीश कर्नाड और अन्य लेखकों से मुलाक़ात होती है । अमित चौधरी की कहानी यथार्थ और यतार्थवाद के बीच से गुज़रते हुए हमें वापस यतार्थ के धरातल पर ला खड़ा करती है, जहाँ हम सब कशमरियों के गुनहगार साबित होते हैं। चौधरी अपनी कहानी में वास्तविक लेखकों, कवियों उनकी कविताओं के प्रयोग से कश्मीर की अवास्तविक वास्तविकता से रूबरू होने का रास्ता निकालने की कोशिश करते हैं। लव इन द टाइम ओफ़ कोरोना एक जल्दबाज़ी में लिखी और जल्दबाज़ी में प्रस्तुत की गई कहानी है।
जवाब देंहटाएंएक मेधा-सम्पन्न 'अराजनीतिक' कथाकार की रचना है।
जवाब देंहटाएंकहीं जाना नहीं है, लॉकडाउन है।
बेहद दिलचस्प, प्रयोगशील और पठनीय गल्प । आनन्द आ गया भले ही आनन्द आधुनिक आलोचना का गर्हित शब्द है । बहुत दिनों बाद डरते-डरते कहानी पढ़ी । आजकल इतनी ख़राब कहानियाँ कथ्य, भाषा इत्यादि की दृष्टि से लिखी जा रही है कि क्या कहूं ? प्रचंड प्रवीर हिन्दी-साहित्य का भविष्य है । इस पर ध्यानपूर्वक ध्यान रखना होगा । यह कहानी तो एक बानगी है । यहाँ त्रासदी को कामदी में बदलने की अद्भुत कला दिखाई देती है । कहानी के सारे पात्र जीते-जागते हैं और नक़ाब में भी पहचाने जा रहे हैं हालांकि प्रचंड की भी शायद यही इच्छा रही हो कि वे पहचान में आयें । मुझे बख़्श दिया इसके लिए प्रवीर का प्रचंड शुक्रिया । समालोचन, वरुण क्षमा अरुण देव और लेखक को बधाई ।
जवाब देंहटाएंलेखक को बधाई। मौलिक कहानी है।
जवाब देंहटाएंपढ़ा. दो बार. पहली बार में हल्की कहानी लगी, दूसरी बार में जल्दबाजी में लिखी गयी कहानी. दो देशकाल जबरदस्ती पेस्ट कर दिए गए हैं. इसके कुछ पात्रों को थोड़ा नजदीक से देखा है इसलिए समझ में तो आयी लेकिन कुछ ख़ास नहीं लगी. 'अनुभव और समय' जब दोनों पकता है तब जाकर कुछ सुंदर लिखा जा सकता है : कहानी में दोनों की कमी है
जवाब देंहटाएंMan will be man😂😂
जवाब देंहटाएंअच्छी कहानी , मौलिक भी है
जवाब देंहटाएंकहानी अनुवाद से शुरू होकर हिंदी ध्वनियों के उच्चारण की शुद्धता से होती हुई कोरोना पर खत्म होती है। कोरोना पर अंतर्राष्ट्रीय कार्रवाई की साम्यता को समकालीन रचनाओं में व्यक्त भावों के माध्यम से कहानीबद्ध किया गया है। कहानी की रचनात्मकता के लिए लेखक को साधुवाद।
जवाब देंहटाएंकहानी में डर,प्यार, चिन्ता,हास्य सभी का समन्वय बखूबी किया गया है। लेखक को बधाई।
जवाब देंहटाएंकहानी कहीं पर भी बांधती हैं। बस ऐसे ही जो मन में आया ..........क्षमा करें
जवाब देंहटाएंNice stories keep it up you may write one whose name could be panic in corona
जवाब देंहटाएंBahut hi achcha likha hai. Dher sari badhai aur shubhkamnaye....
जवाब देंहटाएंएक तेज़ी से बदलते हुए घटनाक्रम पर तेज़ी से कहानी लिखना एक उपलब्धि है। जो कविता खंड कहानी में प्रयोग के लिए चुने गये हैं, वे आकर्षक हैं। हालाँकि, पहले पाठ में, कहानी के मूल कथ्य से ( जैसा मेंने ग्रहण किया) कोई प्रकट सम्बंध नहीं दिखता। रचना में अप्रकट का महत्व काफ़ी रहता है, हो सकता है, दूसरे पाठ में इसे देखा जा सके। कहानी के अंतिम अंश में व्याकरण सम्बंधी त्रुटियाँ प्रतीत होती हैं।
जवाब देंहटाएंइस कहानी की एक विशेषता यह भी लगती है कि एक मनोरंजक अन्दाज़ में यह कुछ मूलभूत मानवीय मूल्यों के संकट को करोना के संदर्भ में उजागर करती है। कुल मिला कर अपने प्रभाव में करोना समय के दबावों से मुक्त होने में इस कहानी के माध्यम से मदद मिलती है। करोना को ज़्यादा सहज और वस्तुगत तरीक़े से देखने में यह कहानी सहयोग कर सकती है। इधर के बहुत से रचनाकारों में धीरज की कुछ कमी नज़र आती है। इस कहानी पर भी इस नज़र से विचार किया जा सकता है। निर्मल वर्मा, भीष्म साहनी, अमरकान्त आदि लेखकों के रचनात्मक धीरज को याद किया जा सकता है।
यदि love in Time of Cholara का परिचय कहीं दे दिया जाता तो उचित होता, पाठकों की दृष्टि से।
Nice stories keep it up
जवाब देंहटाएंएक बेहतरीन एवं मौलिक कहानी। प्यार के सरूर और खुमार - दोनों का मिश्रण किया गया है। हिन्दी साहित्य की स्थिति पर की गई टिप्पणी बहुत समयानुकूल है।
जवाब देंहटाएंक्षमा याचना करता हूँ विजया जी से, लगता है कि उन्होंने कभी प्रचण्ड जी की कहानियों नहीं पढ़ी। काव्यात्मक शैली में लिखना इनका पुराना अन्दाज़ है। हो सकता है कि अमित बाबू ने इनका अन्दाज़ चुरा लिया हो - लहजे पर किसका copyright है - अमित बाबू का तो क़तई नहीं। बाक़ी आप बड़ी हस्ती हैं, जैसी आपकी इच्छा।
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