भुवनेश्वर का जन्म शाहजहाँपुर में हुआ था, उनके व्यक्तित्व की ही तरह
उनका जन्म-मृत्यु वर्ष भी विवादग्रस्त है. जन्म के लिए १९१०, १९१२ तथा १९१४ तथा मृत्यु के लिए १९५७ के पक्ष में
प्रमाण पेश किये गयें हैं. प्रमाणिक रूप से कुछ कहना मुश्किल है अभी भी. बनारस में
उनका शव लावारिश मिला था जिसे किसी भिखारी का शव समझकर गंगा में प्रवाहित कर दिया
गया.
हिंदी साहित्य भुवनेश्वर को एकांकीकार के रूप में जानता है. भुवनेश्वर के १५ एकांकी, ८ कहानियाँ, अंग्रेजी
और हिंदी में कुछ कवितायेँ और छिटपुट लेख आदि मिलते हैं. उनकी अंग्रेजी कविताओं का
हिंदी रूपांतरण रमेश बक्षी और शमशेर बहादुर सिंह ने किया है जो भुवनेश्वर प्रसाद
शोध संस्थान शाहजहाँपुर से प्रकाशित उनके समग्र में संकलित हैं.
कथाकार प्रेमचंद भुवनेश्वर के प्रशंसक थे और हंस में भुवनेश्वर को
प्रकाशित करते रहते थे. उनकी अधिकतर एकांकी और कहानियाँ हंस में ही प्रकाशित हुईं
थीं. प्रेमचंद भुवेनश्वर के एकांकी संग्रह ‘कारवां’ को ‘हिंदी साहित्य के इतिहास
में एक नई प्रगति का प्रवर्तक मानते थे’. अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ की बैठक में
उन्होंने जैनेंद्र के साथ भुवनेश्वर का नाम लेते हुए कहा था कि ‘जैनेंद्र में
दुरुहता और भुवनेश्वर में कटुता कम हो तो इनका भविष्य उज्ज्वल है.’
निराला से उनका विवाद चला, जिसका बुरा प्रभाव उनकी रचनाओं के प्रकाशन पर पड़ा. वे अपने को उपेक्षित महसूस करने लगे. बोहेमियन ढंग का उनका जीवन, जीवन का असंगत-दर्शन और हिंदी साहित्य की अपनी राजनीति के वे अंतत: क्रूर शिकार हो गए.
अंग्रेजी के ‘Absurd’ के लिए हिंदी में ‘असंगत’ शब्द का प्रयोग होता है. विश्वयुद्धों की निराशा, हताशा के बाद पश्चिम में अस्तित्ववादी दर्शन (Existentialism) कलाओं में लोकप्रिय हुआ और बड़ी संख्या में अब्सर्ड नाटक लिखे गए जिनमें Samuel Beckett का ‘Waiting for Godot’ केन्द्रीय स्थान रखता है.
भुवनेश्वर की एंकाकी कला अब्सर्ड नाटक के नजदीक है. सवाल यह है कि जो प्रवृत्ति यूरोप में पांचवे- छठे दशक में लोकप्रिय हुई वह तीसरे दशक में भुवनेश्वर में कहाँ से अंकुरित हो गयी? क्या इसके लिए उनका जीवन ज़िम्मेदार है. खैर.
भुवनेश्वर की प्रसिद्ध कहानी ‘भेड़िये’ हंस में अप्रैल १९३८ में
प्रकाशित हुई थी. इस कहानी पर तब से लेकर आजतक विचार विमर्श चलता रहता है. इसे
पहली आधुनिक हिंदी कहानी भी कहा गया.
साहित्य के गहरे और सतर्क अध्येता-आलोचक शिवकिशोर तिवारी ने इस महत्वपूर्ण कहानी का परीक्षण किया है. इसके स्रोतों तक उनका पहुंचना न केवल मौलिक है बल्कि पहली बार हो रहा है. यह आलेख ख़ास महत्व का है और अब बिना इसके साहित्य में भुवनेश्वर की कहानी भेड़िये की चर्चा पूरी नहीं हो सकेगी.
यह आलेख यहाँ प्रस्तुत है. कहानी भी दी जा रही है. जिन्होंने कहानी न पढ़ी हो कृपया पहले कहानी पढ़ लें फिर आलेख पढ़ें. (आलेख का लिंक कहानी के अंत में है)
भेड़िये
भुवनेश्वर
‘भेड़िया क्या है’,- खारू बंजारे ने कहा, ‘मैं अकेला पनेठी से एक भेड़िया मार सकता हूँ.’ मैंने उसका विश्वास कर लिया. खारू किसी चीज से नहीं डर सकता और हालाँकि ७० के आस-पास होने और एक उम्र की गरीबी के सबब से वह बुझा-बुझा सा दिखाई पड़ता था; पर तब भी उसकी ऐसी बातों का उसके कहने के साथ ही यकीन करना पड़ता था. उसका असली नाम शायद इफ्तखार या ऐसा ही कुछ था; पर उसका लघुकरण ‘खारू’ बिलकुल चस्पाँ होता था. उसके चारों ओर ऐसी ही दुरूह और दुर्भेद्य कठिनता थी. उसकी आँखें ठंडी और जमी हुई थीं और घनी सफेद मूँछों के नीचे उसका मुँह इतना ही अमानुषीय और निर्दय था जितना एक चूहेदान.
जीवन से वह निपटारा कर चुका था, मौत उसे नहीं चाहती थी; पर तब
भी वह समय के मुँह पर थूककर जीवित था. तुम्हारी भली या बुरी राय की परवा किए बिना
भी, वह कभी झूठ नहीं बोलता था और अपने निर्दय कटु सत्य से
मानो यह दिखला देता था कि सत्य भी कितना ऊसर और भयानक हो सकता है. खारू ने मुझसे
यह कहानी कही उसका वह ठोस तरीका और गहरी बेसरोकारी, जिससे
उसने यह कहानी कही, मैं शब्दों में नहीं लिख सकता, पर तब भी मैं यह कहानी सच मानता हूँ - इसका एक-एक लफ्ज.
‘सुनो, मैं ग्वालियर के राज से आईन में आ रहा था. अजीब सर्दी थी और भेड़िये गोलों
में निकल पड़े थे. हमारा गड्डा काफी भरा था. मैं, मेरा बाप,
गिरस्ती और तीन नटनियाँ - १५-१५ साल की. हम लोग उन्हें पछाँह लिये
जा रहे थे.’
‘किसलिए?’ - मैंने पूछा
‘तुम्हारा क्या खयाल है, मुजरा करने? अरे बेचने के लिए.
और वह किस मसरफ की हैं? ग्वालियर की नटनियाँ छोटी-छोटी गदबदी
होती हैं और पंजाब में खूब बिक जाती हैं. यह लड़कियाँ होती तो बड़ी चोखी हैं,
पर भारी भी खूब होती हैं. हमारे पास एक तेज बंजारी गड्डा था और तीन
घोड़ों-से तेज भागनेवाले बैल.
हम लोग तड़के ही चल दिये थे, दिन-ही-दिन में हम आगे जाने वाले साथियों से मिल जाना
चाहते थे. वैसे डर के लिए हमारे पास दो कमान और एक टोपीदार बंदूक थी. बैल हौसले से
भाग रहे थे और हम लोग 20 मील निकल आए थे कि बड़े मियाँ ने घूमकर कहा - `खारे, भेड़िये हैं?’
मैंने तेजी से कहा - ’क्या कहा? भेड़िये हैं? होते तो बैल न
चौंकते?’
बूढ़े ने सर हिलाकर कहा - ’नहीं, भेड़िये जरूर हैं. खैर, वह हमसे
दस मील पीछे हैं और हमारे बैल थक चुके हैं; लेकिन हमें पचास
मील और जाना है.’ बूढ़े ने कहा - ’और मैं इन भेड़ियों को जानता हूँ, पार साल इन्होंने कुछ कैदियों को खा लिया था और बेड़ियों और सिपाहियों की
बंदूकों के सिवा कुछ न बचा. बंदूक भर लो!’
मैंने कमानों की तान के देखा, बंदूक तोड़ी, सब ठीक था.
‘बारूद की नई पोंगली भी निकाल के देख
ले.’ मेरे बाप ने कहा.
‘बारूद की पोंगली,’ मैंने कहा, ‘मेरे पास तो
पुरानी ही वाली है.’
तब बूढ़े ने मुझे गालियाँ देनी शुरू
कीं - ’तू यह है, तू वह है.’
मैंने पूरा गड्डा उलट डाला; पर नई पोंगली कहीं नहीं थी.
मेरे बाप ने भी सब टटोला - ’तू झूठ
बोलता है, तू भेड़ियों की औलाद,
मैंने तुझे नई पोंगली दी थी!’ पर वह बारूद यहाँ कहीं नहीं थी. मेरे
बाप ने मेरी पीठ पर कुहनी मारते हुए कहा, ‘शहर पहुँचकर मैं
तेरी खाल उधेड़ दूँगा, शहर पहुँचकर...’ और इसी वक्त अचानक
बैल एकदम रुककर पूँछ हिलाकर जोर से भागे. मैंने सुना मीलों दूर एक आवाज आ रही थी,
बहुत धीमी जैसे खँडहरों में भी आँधी गुजरने से आती है -
ह्वा आ आ आ आ आ आ आ आ!
‘हवा,’ मैंने सहम के कहा. ‘भेड़िये!’ मेरे बाप ने नफरत से कहा, और बैलों को एक साथ किया. पर उन्हें मार की जरूरत नहीं थी. उन्हें
भेड़ियों की बू आ गई थी और वे जी तोड़कर भाग रहे थे. दूर मैं एक छाटे-से काले
धब्बे को हरकत करते देख रहा था. उस सैकड़ों मील के चपटे रेगिस्तानी बंजर में तुम
मीलों की चीज देख सकते हो. और दूर पर उस काले धब्बे को बादल की तरह आते मैं देख
रहा था. बूढ़े ने कहा, जैसे ही वह नजदीक आ जाएँ, मारो. एक भी तीर बेकार खोया तो मैं कलेजा निकाल लूँगा.’ और तब उन तीन
लड़कियों ने एक दूसरे से चिपटकर टिसुए (आँसू) बहाना शुरू किया. ‘चुप रहो.’ मैंने
उनसे कहा, ‘तुमने आवाज निकाली और मैंने तुम्हें नीचे ढकेला.’
भेड़िये बढ़ते हुए चले आते थे, हम लोग भूरी पथरीली धरती पर उड़ रहे थे, पर भेड़िये! बूढ़े ने लगामें छोड़ दीं और बंदूक सँभालकर बैठा. मैंने कमान
सँभाली - मैं अँधेरे में उड़ती हुई मुर्गाबियों का शिकार कर सकता था और मेरा बाप -
वह तो जिस चीज पर निशाना ताकता था अल्लाह उसे भूल जाता था. कोई 400 गज पर मेरे बाप
ने आगे वाले भेड़िये को गिरा दिया. धाँय! उसने नटों की तरह एक कलाबाजी खाई;
और फिर दूसरी बिलकुल नटों की तरह. बैल पागल होकर भाग रहे थे,
हवा में उनके मुँह का फेन उड़कर हमारे मुँहों पर मेह की तरह गिरता
था; और वे रँभा रहे थे जैसे बंजारिनें ब्यानेवाली भैंसों की
नकलें करती हैं. पर भेड़िये नजदीक ही आते जा रहे थे. गिरे हुए भेड़ियों को वे बिना
रुके खा लेते थे; वे उनके ऊपर तैर जाते थे. मेरे बाप ने मेरे
कन्धे पर बंदूक की नली रख ली थी. धाँय-धाँय ! (मेरी गरदन पर अब तक जले का दाग है.)
मैंने भी 16 तीरों से 16 ही भेड़िये गिराये, बूढ़े ने 10
मारे थे, पर तब भी वह गोल बढ़ता ही आता था.
‘ले बंदूक ले!’ उसने कहा, ‘मैं बैलों को देखूँगा.’’
उसका खयाल था कि बैल उससे भी तेज भाग
सकते थे, पर यह खयाल गलत था.
दुनिया के कोई बैल उससे तेज नहीं भाग सकते थे.
मैं बंदूक का भी निशाना खूब लगाता था, पर वह देशी जंग लगी बंदूक. खैर, वह लड़की उसे 5 मिनट में भर देती थी. बादीं अच्छी लड़की थी, वह बंदूक भरती थी, मैं निशाना मारता था - अचूक.
मैंने दस और गिराए - धाँय-धाँय-धाँय! जब सब बारूद खत्म हो गई तो भेड़िये भी कुछ
हारे-से मालूम होते थे.
मैंने कहा, ‘अब वे पिछड़ गए.’
बूढ़ा हँसा - ’वह इतनी-सी बात से नहीं
पिछड़ सकते. पर मैं मरते-मरते कह चलूँगा कि सात मुल्क के बंजारों में खारे-सा खरा
निशानेबाज नहीं है.’
मेरा बाप बुढ़ापे में बड़ा हँसोड़ हो
गया था.
हाँ, तो भड़िये कुछ पीछे रह गए थे. उन्हें कुछ खाने को मिल गया था. ‘सप-सप-चट’
बैलों पर कोड़ा बोल रहा था कि पाँच मिनट बाद ही उन्होंने फिर हमारा पीछा शुरू किया.
वे हमसे 200 गज पर रह गए होंगे और बढ़ते ही आते थे. मेरे बाप ने कहा, ‘सामान निकालकर फेंको, गड्डा हल्का करो.’
‘एकबारगी ठोकर खाकर गड्डा चरकराकर चला.
पूरे बंजारों में यह गड्डा अफसर था, और सब सामान फेंककर हमने उसे फूल-सा हल्का कर दिया था, और कुछ देर तो हम भेड़िये से दूर निकलते मालूम हुए, पर
तुरन्त ही वे फिर वापस आ गए.
बड़े मियाँ ने कहा, ‘अब तो, एक बैल खोल दो.’
‘क्या?’ मैंने कहा, ‘दो बैल गड्डा खींच ले जाएँगे?’
उसने कहा, ‘अच्छा, तब एक नटनिया फेंक दो.’
मैंने उन तीन में से मोटी को ही उठाया और गड्डे के बाहर झुलाकर फेंक दिया. हा!
ग्वालियर की नटनिया, उसे दाँत लगा दो तो वह भी भेड़ियों का
मुकाबला कर ले! पहले तो वह भागी, पर यह जानकर कि भागना बेकार
है, घूमकर खड़ी हो गयी और सामनेवाले भेड़िये की टाँगें पकड़
लीं. पर इससे भी क्या फायदा था. एकदम वह नजर से ओझल हो गयी. जैसे किसी कुएँ में
गिर पड़ी हो. गड्डा हल्का होकर और आगे बढ़ा, पर भेड़िये फिर
लौट आए.
‘दूसरी फेंको’, बड़े मियाँ ने कहा. पर अब की मैंने कहा, ‘आखिर क्या हम लोग सैर करने के लिए मारे-मारे फिरते हैं, एक बैल न खोल दो.’
मैंने एक बैल खोल दिया. वह पीठ पर
पूँछ रखकर चिंघाड़ता हुआ भागा और गोल उसके पीछे मुड़ गया.
मेरे बाप की आँखों में आँसू भर आए.
‘बड़ा असील बैल था, बड़ा असील बैल था...,’
वह बुदबुदा रहा था.
‘हम बच तो गए’, मैंने कहा. पर तभी, ह्वा आ आ आ
आ आ आ! गोल वापस आ गया था. ‘आज कयामत का दिन है’, मैंने कहा
और बैलों को इतना भगाया कि मेरी हथेली में खून छलछला आया.
पर भेड़िये पानी की तरह बढ़ते चले आ
रहे थे और हमारे बैल मरके गिरना ही चाहते थे. ‘दूसरी लड़की भी फेंको!’ मेरे बाप ने
चीखकर कहा.
इन दोनों में बादीं भारी थी और कुछ
सोचकर काँपते हाथों वह अपनी चाँदी की नथनी उतारने लगी थी और मैंने शायद बताया नहीं, मुझे वह कुछ अच्छी भी लगती थी.
इसलिए मैंने दूसरी से कहा, ‘तू निकल!’ पर उसको तो जैसे फालिज मार गया था. मैंने
उसे गिरा दिया और वह जैसे गिरी थी, वैसे ही पड़ी रही. गड्डा
और हल्का हो गया और तेज दौड़ने लगा. पर पाँच ही मील में भेड़िये फिर वापस आ गए.
बड़े मियाँ ने गहरी साँस ली, माथा पीट लिया - हम क्या करें,
भीख माँग के खाना बंजारों का दीन है, हम रईस
बनने चले थे...
मैंने बादीं की तरफ देखा, उसने मेरी तरफ. मैंने कहा, ‘तुम
खुद कूद पड़ोगी कि मैं तुम्हें धकेल दूँ?’ उसने चाँदी की नथ
उतारकर मुझे दे दी और बाँहों से आँखें बन्द किए कूद पड़ी. गड्डा बिलकुल हवा-सा
उड़ने लगा. वह पूरे बंजारों में गड्डों का अफसर था.
पर हमारे बैल बेहद थक गए और बस्ती तक
पहुँचने के लिए अब भी 30 मील बाकी थे. मैं बंदूक के कुन्दे से उन्हें मार रहा था; पर भेड़िये फिर लौट आए थे.
मेरे बाप के मुँह से पसीना टपकने लगा
- ’लाओ, दूसरा भी बैल खोल दें.’
मैंने कहा, ‘यह मौत के मुँह में जाना है. हम लोग दोनों मारे
जाएँगे, हमें या तुम्हें किसी को तो बचना चाहिए.’
‘तुम ठीक कहते हो.’ उसने कहा, ‘मैं बूढ़ा आदमी हूँ. मेरी जिन्दगी खत्म हो गई. मैं
कूद पड़ूँगा.’
मैंने कहा, ‘हिरास मत होना. मैं जिन्दा रहा तो एक-एक भेड़िये को
काट डालूँगा.’
‘तू मेरा असील बेटा है! मेरे बाप ने
कहा और मेरे दोनों गाल चूम लिये. उसने अपने दोनों हाथों में बड़ी-बड़ी छूरियाँ ले
लीं और गले में मजबूती से कपड़ा लपेट लिया.
‘रुको,’ उसने कहा - ’मैं नए जूते पहने हूँ, मैं इन्हें दस
साल पहनता; पर देखो, तुम इन्हें मत
पहनना, मरे हुए आदमियों के जूते नहीं पहने जाते, तुम इन्हें बेच देना.’
उसने जूते खींचकर गड्डे पर फेंक दिए
और भेड़ियों के बीचोबीच कूद पड़ा. मैंने पीछे घूमकर नहीं देखा, लेकिन थोड़ी देर मैं उसे चिल्लाते सुनता रहा - यह ले!
यह ले! भेड़िये की औलाद! भेड़िये की औलाद! और फिर चट-चट! चट-चट! मैं ही किसी तरह
भेड़ियों से बच गया.
खारू ने मेरे डरे हुए चेहरे की तरफ
देखा, जोर से हँसा और फिर खखारकर
बहुत-सा जमीन पर थूक दिया.
‘मैंने दूसरे ही साल उनमें से साठ
भेड़िये और मारे.’ खारू ने फिर हँसकर कहा. पर उसके साथ ही उसकी आँखों में एक
अनहोनी कठिनता आ गयी, और वह भूखा, नंगा उठकर सीधा खड़ा हो गया.
_________________
यह कहानी बार बार पढ़ी है. बहुत सी व्याख्याएँ भी इसकी. यहाँ तक कि गहरे नशे में मेरे दोस्त ने कहा कि भेड़िया प्रतीक है, पूँजीवाद की अनिवार्य परिणति का यानी हहराते हुए विनाश का.
जवाब देंहटाएंसारी व्याख्याएँ.. खारू की आँखों की अनहोनी कठिनता नहीं समझा पातीं.
उम्मीद है ये लेख कोशिश करेगा.
कल सुबह यह आलेख प्रकाशित होगा।
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.