स्मरण में है आज जीवन : सूरज पालीवाल















भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित ‘स्मृतियों का बाइस्कोप’ शैलेंद्र शैल के स्मरणों का संग्रह है जिसमें आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ, इन्द्रनाथ मदान, कवि कुमार विकल, पहल के संपादक ज्ञानरंजन और ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह आदि की यादें शामिल हैं. कहना न होगा कि ये सिर्फ स्मरण नहीं हैं, उस समय को समझने जानने का रोचक उपक्रम भी है. आलोचक सूरज पालीवाल विस्तार से इसकी चर्चा  कर रहें हैं.   




स्मरण में है आज जीवन           
सूरज पालीवाल





शैलेंद्र शैल हिंदी कविता में सुपरिचित नाम है. वे लगातार पत्र-पत्रिकाओं और साहित्यिक मित्रों के बीच अपनी उपस्थिति बनाये रखते हैं. कई बार नौकरियों के झमेले और बढ़ते पारिवारिक दायित्वों के चक्कर में साहित्यिक रुचि धीरे-धीरे तिरोहित होने लगती है. इसकी गुंजाइश तब और अधिक हो जाती है जब नौकरी साहित्य से एकदम भिन्न प्रकार की हो. शैल जी के साथ यह संभावना और बलवती हो जाती यदि वे अपनी मूल प्रवृति की उपेक्षा और साहित्यिक मित्रों से दूरी बना लेते. जिस प्रकार जीवन में कई बार दो धु्रवांतों को साधने की कला विकसित कर ली जाती है उसी प्रकार शैल जी ने भी नौकरी और साहित्य-दोनों के साथ चलने का संकल्प लिया.
(शैलेन्द्र शैल)

कहना न होगा कि वे एम.ए. करते ही भारतीय वायु सेना में अधिकारी बन गये थे. सेना की नौकरी एकदम भिन्न प्रकार की होती है, ऊपर से देखने पर वहां भावुकता के लिये कोई जगह नहीं होती पर जरा ठहरकर सोचिये यदि भावुकता के लिये सेना में कोई जगह नहीं होती तो अपने देश की मिट्टी को अपनी मातृभूमि मानकर शहीद हो जाने वाले सैनिकों के लिये क्या कहेंगे ? समाज अपने छोटे-छोटे स्वार्थों के लिये कुछ भी बेचने को तैयार खड़ा है पर सैनिक अपने जीवन को ही दांव पर लगा देता है. यह भावुकता सेना के कड़े अनुशासन में भी विद्यमान रहती है, न वह उच्छृंखल होती है और न स्वच्छंद. शैल जी पूरे जीवन सेना में अधिकारी रहे पर जहां भी रहे वहां पर अपने साहित्यिक मित्रों के साथ अपनी साहित्यिक अभिरुचि पर धार धरते रहे. यही कारण है कि तीन खंडों में विभाजित संस्मरणों की इस पुस्तक में साहित्यिक मित्रों पर लगभग आधे पृष्ठ लिखे गये हैं. वे इस बात को मानते हैं कि साहित्य ने उन्हें जितनी पहचान दी है, उतनी नौकरी में नहीं मिली.

‘स्मृतियों का बाइस्कोप’ शीर्षक से प्रकाशित पुस्तक में लगभग 16 संस्मरण हैं. पहले खंड को ‘साहित्य की परिधि से’ नाम दिया गया है जिसमें आठ संस्मरण हैं. ये आठों संस्मरण हिंदी की उन जानी-मानी हस्तियों पर हैं, जिन्हें पढ़कर शैल जी से ईर्ष्या होती है कि उन्हें यह सौभाग्य अकेले कैसे मिला ? यह विरल स्थिति है इसलिये कि हम सब अपने-अपने विश्वविद्यालयों से पढ़कर आये हैं पर उनमें कितने नाम हैं, जिन्हें हम गर्व के साथ दूसरों के सामने ले सकते हैं और उन पर संस्मरण लिखकर स्वयं को उस पंक्ति में खड़ा कर सकने की स्थिति में होते हैं, जिस पंक्ति में वे स्वनामधन्य लेखक खड़े हैं. पहला ही संस्मरण आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी पर है, जिनके वे विद्यार्थी रहे हैं. कहना न होगा कि आ. द्विवेदी के प्रिय छात्र डॉ. नामवर सिंह अपने पूरे जीवन अपने गुरु का पुण्य स्मरण करते रहे और कहते रहे कि मेरे गुरुवर ऐसा कहते थे या ऐसा सोचते थे. नामवर जी स्वयं बड़ा नाम है पर उनके गुरु तो बहुत बड़े थे, ऐसे बड़े गुरु का छात्र होने का सौभाग्य शैल जी को भी मिला, यह कम बड़ी बात नहीं है.

शैल जी अपने गुरु पर संस्मरण लिखकर उनका साहित्यिक मूल्यांकन नहीं कर रहे थे वैसे भी संस्मरण में इस प्रकार का मूल्यांकन संभव नहीं है. मूल्यांकन के लिये जिस प्रकार के शुष्क और कठोर औजारों की आवश्यकता होती है, उस तरह के औजार संस्मरण को सूखा और व्यर्थ बना देते हैं. संस्मरणों में जिस प्रकार की आत्मीय अंतःसलिला प्रवाहित होती है, उससे वे न केवल पठनीय बल्कि स्मरणीय भी बन जाते हैं. शैल जी की पर्यवेक्षण क्षमता गजब की है इसलिये वे बहुत बड़े रहस्योद्घाटनों से बचकर बहुत छोटी किंतु मारक पहचानों को अपने संस्मरणों के घटक के रूप में प्रयोग करते हैं. उदाहरण के रूप में कहूं तो इस संस्मरण के पहले ही अनुच्छेद में वे बहुत सारी ऐसी बातें कह देते हैं, जो हिंदी के सामान्य पाठक के लिये नयी भी है और जरूरी भी ‘आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी वर्ष 1960 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से त्यागपत्र देकर पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में हिंदी विभागाध्यक्ष पद पर सुशोभित हुये. इतने महान लेखक, विचारक, समालोचक और अध्यापक का चंडीगढ़ में आना अपने आप में एक महत्वपूर्ण घटना थी. इसने चंडीगढ़ के साहित्यिक हलकों और विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में स्फूर्ति भर दी.
(आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी)

‘मैं वर्ष 1961 में एम.ए. करने जलंधर से चंडीगढ़ आया तो आचार्य जी के व्यक्तित्व से बेहद प्रभावित हुआ. उनका ऊंचा लंबा कद, गौरवर्ण, उन्नत ललाट, चश्में के भीतर से झांकती बड़ी-बड़ी आंखें और पान खाने से कत्थई पड़ गये दांत एक विशिष्ट छाप छोड़ते थे. सादा धोती कुर्ता और कपड़े का जूता उनकी वेशभूषा थी. सर्दी में बंद गले का कोट और कभी-कभार मफलर भी. पढ़ाते समय कुर्सी पर बैठे-बैठे वे एक पैर हिलाते रहते थे.’

यह आ. द्विवेदी का ऐसा परिचय है, जो किताबों के अलावा अन्य किसी संस्मरण में भी नहीं मिलता है. अधिकतर लोग उनके पांडित्य से प्रभावित होकर लिखते हैं पर शैल जी उनके आत्मीय और सरल व्यक्तित्व से अधिक प्रभावित हैं. इस प्रकार के संस्मरण वही आदमी लिख सकता है जो न दूसरे के ज्ञान से आक्रांत है और न अपने ज्ञान से दूसरों को आक्रांत करना चाहता है. अधिकांश अध्यापक खड़े होकर पढ़ाते हैं पर द्विवेदी जी बैठकर पढ़ाते थे और एक पैर हिलाते रहते थे, यह स्वाभाविक टिप्पणी है, इसलिये महत्वपूर्ण भी है. इस प्रकार का पर्यवेक्षण छात्र ही कर सकता है और छात्र भी वह जो उनकी सहजता से प्रभावित हो.

शैल जी के संस्मरणों की यह विशेषता है कि वे बहुत सामान्य सूचनाएं देकर उस समय की अर्थपूर्ण उपस्थिति को साकार करते हैं. अधिकांश संस्मरणों में देखा जाता है कि जिस व्यक्ति पर संस्मरण लिखा गया है, उसकी उपस्थिति को गौण करके संस्मरणकार आगे चलता रहता है पर शैल जी ऐसा नहीं करते बल्कि यह कहना भी गलत नहीं होगा कि वे अपनी उपस्थिति को केवल एक दृष्टा के रूप में रखते हैं. द्विवेदी जी के बारे में यह जानकारी शायद ही किसी ने दी होगी कि ‘उन्हें चावल, मछली और अरहर की बघारी हुई दाल पसंद थी.’ यह इस तरह की जानकारी है कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे क्या खाते थे पर फर्क इसलिये पड़ता है कि अपने गुरु की रुचियों के बारे ज्यादातर छात्र अनभिज्ञ रहते हैं लेकिन शैल जी पूरी तरह विज्ञ हैं. वे इस सामान्य नियम से भी परिचित थे कि जिन्हें खाने पर बुला रहे हैं उनके लिये उनकी रुचि का खाना परोसा जाये.

शैल जी ने इसी संस्मरण में एक दूसरी जानकारी और दी है, जिसे देने के कई अर्थ हैं- ‘आचार्य जी को अपने ड्राइंग रूम में बिठाते हुये मैं आह्लादित हो उठा. फ्रिज में बियर पड़ी थी पर आचार्य जी के सामने पीने का प्रश्न ही नहीं था. सबने शर्बत पिया.’

यह जानकारी सामान्य है कि ‘सबने शर्बत पिया’ लेकिन ‘फ्रिज में बियर पड़ी थी’. ये दो वाक्य हैं, दोनों एक दूसरे के विरोधी हैं पर दोनों का संबंध मजबूती के साथ जुड़ा हुआ है. यह संस्मरण ऐसे समय में लिखा गया है जब कई अध्यापक छात्रों के साथ रसरंजन करते हुये विश्वविद्यालयीय राजनीति में अपना पक्ष प्रबल बनाये रखते हैं. यह जानकारी इसलिये भी महत्वपूर्ण है कि शैल जी तब वायु सेना में अफसरी कर रहे थे लेकिन अपने गुरु के सामने वे उतने ही सलज्ज विद्यार्थी के रूप में प्रस्तुत हो रहे थे, जितने अपने अध्ययन काल में थे. यह विनम्रता आज गायब होती जा रही है.  शैल जी ने आ. द्विवेदी का एक ओैर उदाहरण दिया है, जिससे वे भी चकित हैं और आज इस संस्मरण पढ़कर हम भी. शैल जी के घर पर खाने में थोड़ी देर थी तो द्विवेदी जी ने कहा ‘वे एकांत में बैठकर शाम के समारोह के लिये अध्यक्षीय भाषण लिखना चाहते हैं.’

संस्मरण में यह मात्र सूचना है लेकिन यह सामान्य सूचना नहीं है, यह आज के समय के लिये चुनौती है. जब कालेज और विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरगण बगैर किसी पूर्व तैयारी के तुरंत भाषण देने के लिये चल देते हैं तब आ. द्विवेदी जैसे उद्भट विद्वान को उनसे कुछ सीखना चाहिये. वे चाहते तो बिना लिखे ही बोल सकते थे, लेकिन उन्हें मालूम था कि सामने बैठा श्रोता मूर्ख नहीं होता, वह वक्ता की नब्ज पहचानता है, वह किसी और को कितना सुनने आता है या मजबूरी में आता है पर द्विवेदी जी को तो वह सुनने के लिये ही आया है. ऐसी बहुत सहज-सामान्य घटनाओं के माध्यम से शैल जी अपने संस्मरण को अविस्मरणीय बनाते हैं. वे इस संस्मरण के माध्यम से चंडीगढ़ के हिंदी विभाग की कीर्ति को भी रेखांकित करते हैं, जिससे पूरा हिंदी जगत चकित था.
(डॉ. इन्द्रनाथ मदान)

आ. द्विवेदी के बाद दूसरा महत्वपूर्ण संस्मरण अपने दूसरे गुरु डॉ. इंद्रनाथ मदान पर है. मदान जी को हिंदी जगत उनकी उदारता के लिये जानता है कि उन्होंने खुद एसोशिएट प्रोफेसर रहते हुये आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी को प्रोफेसर नियुक्त करवाया. यह विरल घटना है जो उनकी उदारता और ज्ञान के प्रति सम्मान के लिये हिंदी जगत में आज भी कही-सुनी जाती है. आज तरक्की के लिये नाममात्र की संगोष्ठियों से लेकर स्तरहीन लेख लिखने और दूसरों के पुराने लेख चुराकर अपने नाम से छपवाने की दौड़ जारी है. विभागों में जब भी इस प्रकार की नियुक्तियों की स्थिति आती है, तब स्थितियां देखने योग्य होती हैं, कौन कितना लहालोट होकर कुलपति के पैर छू रहा है और कौन आफिस के चक्कर लगा रहा है कि मालूम हो जाये कि कौन विशेषज्ञ आ रहे हैं. आशार्थियों के शोध छात्र घरों में बैठकर इधर-उधर से सामग्री छपवाने की जुगाड़ बैठा रहे हैं ताकि अपने गुरु की एपीआई बढ़ जाये. धनराशि से लेकर न जाने क्या-क्या समर्पित किये जाते हैं, जो न केवल हास्यास्पद होते हैं अपितु शर्मनाक भी होते हैं. पर एक डॉ. मदान थे, जिन्होंने द्विवेदी जी की प्रतिभा और परेशानी को देखते हुये खुद की प्रोफेसरी सहर्ष दे दी-ऐसा उदाहरण हिंदी में शायद ही दूसरा हो.

इस प्रकार की उदारता के कई किस्से शैल जी के पास हैं, जिन्हें वे धीरे-धीरे सुनाना पसंद करते हैं. हड़बड़ी में न वे खुद रहते हैं और न यह चाहते हैं कि दूसरा भी हड़बड़ी दिखाये. डॉ. मदान का परिचय देते हुये उन्होंने लिखा


‘मैंने डॉ. इंद्रनाथ मदान को पहले-पहल वर्ष 1959 में डी.ए.वी. कालेज जलंधर में देखा था. उनके साथ एक छोटे कद के मोटे चश्मे वाले अन्य व्यक्ति को भी देखा. पता चला वे मोहन राकेश थे. वे दोनों एम.ए. के छात्रों को पढ़ाते थे और मैं नया-नया फरीदकोट से इंटर करते-करते आया था. हम उन दोनों को दूर से ही देखते, कभी बात करने का साहस नहीं जुटा पाये. उन्होंने लाहौर में एम.ए. करने के बाद कई नौकरियां कीं. अपने शुरूआती संघर्षों के बारे में उन्होंने एक संस्मरण में लिखा है-अब जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है माक्र्स फ्रायड से अधिक बलवान है. जब जवानी थी तो पैसे नहीं थे और जब पैसे मिलने लगे तो जवानी सरक चुकी थी. इस तरह शुरू में नौकरियों के चक्कर ने शादी के लिये निकम्मा बना दिया वरना हम भी आदमी थे काम के.’

यह मदान जी का परिचय है पर इस परिचय के साथ मोहन राकेश का जिस प्रकार परिचय दिया गया है, उस पर कौन मोहित नहीं होगा. हिंदी का इतना बड़ा नाम कि संस्मरण पढ़कर मैं डी.ए.वी. कॉलेज, जलंधर को इसलिये देखने गया था कि वहां मोहन राकेश पढ़ाते थे. मेरे लिये वह कॉलेज कई विश्वविद्यालयों से बड़ा था. मैंने उस नहर को भी देखने की कोशिश की जिसके बारे में रवींद्र कालिया ने अपने संस्मरणों में लिखा है, पर दुर्भाग्य कि वह नहर अब सूख चुकी है. हम अपनी स्मृतियों और धरोहरों के बारे में कितने विरक्त हैं कि हमें यह अहसास ही नहीं होता कि भावी पीढ़ी के लिये भी कुछ महत्वपूर्ण धरोहरों को सुरक्षित रखा जाये.
 
1964 में डॉ. मदान को पंजाब सरकार ने साहित्य शिरोमणि पुरस्कार से सम्मानित किया, यह मात्र सूचना है जिसपर प्रसन्न हुआ जा सकता है पर पुरस्कार लेते हुये डॉ. मदान ने जो कहा, वह उन्हें और उनके व्यक्तित्व को समझने के जरूरी है. उन्होंने कहा-   

‘मैं सच कहता हूं कि मैं लेखक नहीं हूं और यह विनय भाव से नहीं अहं भाव से कह रहा हूं. अगर पंजाब सरकार को मेरे साहित्यकार होने का वहम हो गया है तो मैं इसका दोषी नहीं हूं. इस अभिनंदन समारोह में जिस सव्यसाची का हाथ है, उसका नाम लिये बिना नहीं रह सकता. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने अपराध को स्वीकार भी कर लिया है. इसलिये सबकी स्नेह सराहना का ऋण चुकाने के लिये यह थैली, जो मुझे मिली है, सव्यसाची को सौंपना चाहता हूं ताकि यह हिंदी के काम आ सके. हिंदी के लिये जब साधन नहीं थे तब साधना थी, लेकिन आज जब साधन हैं तो साधना रूठ रही है. अंत में मेरी एक छोटी-सी चाह भी है. इस अवसर की स्मृति को सुरक्षित रखने के लिये खाली थैली मुझे लौटा दी जाये. और खालीपन से मेरा सदा मोह भी रहा है.’
कहना न होगा कि उनके इस वक्तव्य को पढ़कर कोई भी पाठक बहुत देर तक विस्मित होकर चुप बैठा रहेगा, उनका यह वक्तव्य इसलिये चकित करता है कि आज तो अदना-सा पुरस्कार पाकर भी आदमी अपने अहम् का विस्फोट करता हुआ न जाने क्या-क्या कह जाता है. पर डॉ. मदान ऐसा नहीं करते. वक्तव्य के अंतिम शब्द कि ‘खालीपन से मेरा सदा मोह भी रहा है’ उनके अपने जीवनानुभवों का क़ड़वा सच है. कुमार विकल पर लिखे संस्मरण में कई बार डॉ. मदान की उदारता और सहजता का जिक्र आया है, जिसे पढ़कर उनके प्रति सम्मान और बढ़ता है-


‘डॉ. मदान क्रानिक बैचलर थे और कुमार की कविता की निष्पक्ष समीक्षा करते थे. जब कभी हमारा पीने का मूड होता, जो अक्सर होता, और पैसों की किल्लत, हम उनके घर पहुंच जाते. हम दोनों उन्हें बड़े सटल तरीके से भावनात्मक स्तर पर ब्लैक मेल करते. आज जब मैं यह याद करता हूं तो अपनी इस हरकत पर बेहद गुस्सा आता है. कई बार तो ऐसा भी हुआ कि हम स्वयं अपने आपको उनके घर खाने पर आमंत्रित कर लेते. हमें पता था कि वे मोहन राकेश और एकाध अन्य जिगरी दोस्त के अलावा किसी के साथ बैठकर नहीं पीते थे. वे हमें पैसे देते और कहते-जाओ भूख चमकाने के लिये कुछ ले आओ. हम बोतल लाकर उनके ड्राइंगरूम में बैठे पीते रहते. वे स्वयं सलाद काटकर हमारे सामने रख देते. वे कढ़ी बहुत अच्छी बनाते थे. बीच-बीच में किचन में जाते और अपने कुक चुन्नीलाल को हिदायतें देते रहते. फिर बाथरूम जाते और वहां रखी जिन की बोतल से एक पैग  पीकर पान चबाते हुये हमारे पास आकर बातचीत का छोर फिर से पकड़ते.’

शैल जी इसके उलट आ. द्विवेदी के बारे में पहले ही बता चुके हैं कि फ्रिज में बीयर रखी है और वे सब लोग शर्बत पीते हैं लेकिन डॉ. मदान पर लिखते हुये वे खुलते हैं. यह दो आचार्यों के व्यक्तित्व का अंतर है लेकिन इससे यह अनुमान लगाना गलत होगा कि कौन सही या कौन गलत है या कौन सहज और कौन असहज है. हिंदी समाज भुलक्कड़ भी है और कृतघ्न भी इसलिये हिंदी की नयी पीढ़ी डॉ. मदान और उनके योगदान को भूल चुकी है, शैल जी का यह संस्मरण डॉ. मदान के उदार और विशाल व्यक्तित्व को फिर से जीवित करता है लेकिन यह उनके बारे में जानने की प्यास को कम करने की अपेक्षा और अधिक बढ़ाता है. शैल जी से आग्रह है कि वे डॉ. मदान पर विस्तार से लिखें इसलिये कि उनके पास जो जानकारियां हैं वे अब शायद ही अन्य किसी के पास सुरक्षित हों.

जिस प्रकार अपने गुरुओं पर लिखना कठिन है, अपने दोस्तों पर लिखना भी उतना ही कठिन है. लिखते हुये कहीं दोस्ती आड़े आती है तो कहीं खुद्दारी. दोनों को साथ लेकर चलना मुश्किल होता है. इस स्थिति में मन कड़ा कर लिखने भी बैठिये तो अंदर का ज्वार विवेक को कई बार दबा देता है. गुजरे हुये दोस्त पर लिखना तो और भी कठिन होता है. मैं जब कुमार विकल पर शैल जी के संस्मरण को पढ़ रहा था तो कई बार मैं स्वयं को संभाल नहीं सका. क्या कोई कवि अपनी कविता को धार देने के लिये अपने ऊपर इतना अत्याचार कर सकता है ? जीवन की चकाचौंध से विरक्ति और हर समय कविता में डूबे रहना, अपने और अपने परिवार के प्रति अत्याचार नहीं हैं तो और क्या हैं ? इस संस्मरण को पढ़ते हुये मुझे आज के कवि और विशेष रूप से विश्वविद्यालयों में अध्यापन कर्म कर रहे कवि याद आते रहे, जो मोटी तनख्वाह वसूलते हुये एक ओर दुनियाभर के लाभ-लोभ के चक्कर तथा दूसरी ओर कवि की मायावी दुनिया में लिप्त रहते हैं. ऐसे कवियों को देखकर कुमार विकल क्या कहते होंगे, यह शैल जी ने नहीं लिखा लेकिन उनके गुरु डॉ. मदान ने लिखा

‘यहां गर्मी बहुत है ओर उधर डॉ. कुंतल मेघ मनाली में शिव-पार्वती पर सांस्कृतिक चिंतन कर रहे हैं. शायद दो-चार सांस्कृतिक कविताएं फूटेंगी.’

कहना न होगा कि कुमार विकल के अंदर बेचैनी बहुत थी, यह बेचैनी उन्हें सामान्य जीवन नहीं जीने दे रही थी. क्या कुमार विकल जैसे कवि सामान्य जीवन जी सकते थे या सामान्य जीवन जीकर वे अपनी कविताओं से दुनिया को बदलने का सपना देख सकते थे ? यह संभव नहीं है, ऐसे लोग अपना रास्ता अलग बनाते हैं जो धारा के विपरीत होता है. अधिकांश समझदार लोग हवा का रुख पहचानकर चलना शुरू करते हैं पर कुमार विकल जैसे लोग हवा तो क्या आंधी के विरोध में चलने का फैसला करते हैं, इसी से उनकी कविता में ताप आता है और वह लोगों के सिर पर चढ़कर बोलती है. उनके यह कहने में किसी को भी अहम् की बू आ सकती है कि ‘हिंदी में केवल तीन कवि हुये हैं- कबीर, निराला और कुमार विकल’ पर कुछ हद तक यह बात सही है. तीनों में अपने समय से टकराने की ताकत और दुनिया को बदलने की जो बेचैनी है, वह विरल है, जो तीनों को एक धारा से जोड़ती है.
(कुमार विकल)

शैल जी ने कुमार विकल की इस खासियत के बारे में लिखा है 

‘मुझे नहीं पता कि कुमार पंजाबी कवि पाश से कभी मिला भी था और मिला भी था तो कितनी बार. पंजाब में फैले आतंकवाद के दिनों में दोनों की सोच में काफी हद तक समानता थी. पाश की कविताओं में भी वही आग थी जो कुमार की कविता को जीवंत बनाती थी. दोनों ही अपनी-अपनी कविता के माध्यम से अपने समय की राजनीतिक और सामाजिक विसंगतियों से जूझ रहे थे. जहां एक ओर पाश कहता है- मैं एक कुत्ते की तरह लड़ना चाहता हूं, एक ऐसे कुत्ते की तरह जो अपनी पूरी ताकत से अपने आपको पानी में डूबने से बचाना चाहता है’ तो दूसरी ओर कुमार ‘दीवार के इस पार, उस पार’ कविता में कहता है- इस रहस्यमय तंत्र में, जब मैं मरूंगा एक कुत्ते की मौत, तो दीवार के उस पार, कोई नहीं करेगा मेरी लाश स्वीकार.’

इस तरह की कविताओं के ताप को अनुभव करने के लिये किसी आलोचक की जरूरत नहीं है, ये सीधे-सीधे आग उगलती कविताएं हैं जो मानव विरोधी व्यवस्था के विरोध में लिखी गई हैं.
व्यवस्था विरोध एक ओर कवि के रूप में मजबूत बनाता है तो दूसरी ओर परिवार और घर में कमजोर भी करता है. बड़े और चेतना संपन्न कवि इन दो पाटों के बीच लगातार पिसते हुये अकेलेपन के शिकार होते चले जाते हैं. कुमार विकल ने अपनी इसी तरह की परेशानी के बारे में शैल जी को लिखा

‘प्यारे भाई शैल, तुम रोज याद आते हो और बहुत याद आते हो. इस शहर से बुरी तरह ऊब गया हूं और खास तौर से इस क्लर्की से. लेकिन सामने कोाई निजात नहीं. नौकरशाही की यातना को जितना मैंने भोगा है, शायद मेरे परिचितों और मित्रों में किसी ने नहीं. समझौतों और चापलूसी से मुझे बहुत तकलीफ होती है.’ इसी तरह एक और पत्र में वे लिखते हैं-
   
'जब तक तुम इलाहाबाद में थे तो मुझे एक बात का कभी अहसास नहीं हुआ कि तुम काफी दूर हो क्योंकि किसी भी दिन तुम्हारा फोन आ सकता है-मैं चंडीगढ़ में हूं या दिल्ली तक कभी भी आ सकते हो. लेकिन कलकत्ता, न जाने क्यों मुझे दूरी का अहसास होने लगता है. इधर मेरा अकेलापन बढ़ रहा है. आजकल शामें घर में ही व्यतीत होती हैं. मध्यवर्गीय संभ्रांत लोग अच्छे नहीं लगते. अपने साथ जीने का तरीका सीख रहा हूं. अकेलापन अच्छा लगता है-लेकिन ज्यादा गहराई से नहीं. फिर भी चाहता हूं कि कभी रात को धुत्त सड़कों पर भटका जाये, फिजूल औैर अर्थहीन बातें की जायें. लेकिन किसके साथ ?’

इस मनःस्थिति ने उन्हें अल्कोहलिक बना दिया था, वे अपने अकेलेपन से भी लड़ रहे थे और शराब पर होती निर्भरता से भी. कविता में डूबकर जीने वाले किसी भी कवि के जीवन में इस प्रकार की स्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं, जिनका इलाज किसी दूसरे व्यक्ति के पास नहीं है. अपनी इस स्थिति के बारे में उन्होंने शैल जी को लिखा-


‘मैं गलत दिनों से गुजर रहा हूं. डाक्टरी इलाज के बिना मेरा लौटना संभव नहीं. डैथ-विश बहुत छाई हुई है. सो तुम प्लीज मेरी नीरू बहन से जरूर मिलो ताकि मैं दिल्ली अपना इलाज करवा सकूं. इधर बहुत कविताएं लिखी हैं. दूरदर्शन केंद्र मुझे लेकर एक छोटा-सा वृत्तचित्र बना रहा है. लेकिन शैल, इस सबसे क्या होगा ?’

यह एक कवि की निराशा नहीं है बल्कि उनके समय की निराशा है, जो ईमानदार व्यक्ति को लगातार अकेला और निःसहाय करती जाती है. यह संस्मरण न केवल कुमार विकल की कविता यात्रा का जीवंत दस्तावेज है अपितु उन जैसे कवि के निरंतर छीजते जाने का भी प्रमाण है.

1969 में शैल जी का स्थानांतरण इलाहाबाद हो गया. इलाहाबाद उन दिनों साहित्य का गढ़ माना जाता था. रवींद्र कालिया इलाहाबाद में ही थे, जो डी.ए.वी. कालेज, जलंधर में उनके वरिष्ठ थे. शैल जी जलंधर और चंडीगढ़ के साहित्यिक संस्कारों को लेकर इलाहाबाद गये थे. हालांकि वे अब वायु सेना में थे पर साहित्यिक विरादरी में उनका मन अधिक रमता था. नौकरी उन्हें आर्थिक चिंताओं से मुक्त रख रही थी तो साहित्य उनकी मानसिक खुराक थी. कालिया जी के घर पर ज्ञानरंजन से पहली मुलाकात हुई. यह मुलाकात दो ऐसे व्यक्तियों की मुलाकात थी जो जीवन को भरपूर जीना चाहते थे. लगभग आधी शताब्दी पहले हुई मुलाकात स्थायी बन गई और अलग-अलग क्षेत्रों में काम करते हुये भी दोनों एक दूसरे के सुख-दुख के साथी बने रहे. ज्ञान जी के बारे में हिंदी में यह मशहूर है कि वे बहुत छोटे पत्र लिखते हैं पर शैल जी को लिखे पत्र इस बात की गवाही नहीं देते. 1992 में उन्होंने शैल जी को पत्र लिखा कि 

‘तुम पहल के शुरूआती दिनों से जुड़े हो. इस लंबी यात्रा की कहानी अब परिपक्व हो गयी है. आपातकाल की दिक्कतों से लेकर आर्थिक संघर्ष तक सभी मित्रों ने बहुत सहारा दिया, जिसे मैं अपनी अर्जित पूंजी मानता हूं. तुम सब लोग पहल के निकलने के साझीदार हो, मैं हमेशा ही तुम्हें याद करता हूं-क्योंकि उसी समय के बहुत से लोग बिला गये. तुमने सघनता और मैत्री को बनाये रखा.’
(ज्ञानरंजन)

इसी तरह का एक और पत्र 1996 में लिखा ‘लंबे मार्ग में बहुत से आये और बहुत से गये लेकिन मैं इस बात को भीतरी स्मृति में कभी नहीं भुला सकता कि तुमने 30 साल तक निरंतर साथ निभाया है. हर तरह से तुम साथ खड़े रहे हो. मित्रता का तार कभी टूटा नहीं. मुझे इस तरह के रिश्तों की मन में बहुत सांत्वना और खुशी रहती है.’

शैल जी को यह सौभाग्य प्राप्त है कि वे ‘पहल’ के निकलने की तैयारी के दिनों से ज्ञान जी से जुड़े हैं इसीलिये उन्होंने आपातकाल के दिनों की उन भीषण घटनाओं को भी याद किया है जो अब इतिहास बन चुकी हैं. आपातकाल के दौरान ‘पहल’ और ज्ञान जी के विरुध्द स्थानीय मित्रों के अलावा ‘धर्मयुग’ और ‘कादंबिनी’ के संपादकों तक ने कूट षड्यंत्र रचे थे जिनका सामना ज्ञान जी ने निडरता के साथ किया, जो आज उनकी अपनी उपलब्धि भी है और सार्थकता भी.

‘इंडिया टुडे’ के ‘साहित्य वार्षिकी 2019’ में बाबुषा कोहली ने ज्ञान जी का साक्षात्कार लिया है, जिसमें उन्होंने फिर से उस षड्यंत्र को आरोप की तरह पूछा है. बाबुषा कोहली ने बगैर पर्याप्त जानकारी के क्यों पूछा यह तो वही जानें पर ज्ञान जी ने जो तल्ख उत्तर दिया, वह महत्वपूर्ण है. उन्होंने कहा


‘आपके सवाल में एक गैर जानकारी भरा मिथ्या आरोप भी है. हमने चार दशक की यात्रा में कभी भी ऐसे फैसले नहीं लिये जो अफसोसनाक रहे हों. पहल वामपंथ के सभी धड़ों और लोकतांत्रिकों का प्यार और सहयोग पाती रही है, यही उसकी प्राणशक्ति है. दक्षिणपंथ, कलावाद, फासीवाद के विरुद्ध पहल का रचनात्मक संसार कभी लड़खड़ाया नहीं. निरंतरता और विश्वसनीयता पहल की पूंजी है. आपके पास कोई प्रामाणिक जानकारी है इसमें मुझे शंका है. पहल ने आपात काल का कभी समर्थन नहीं किया, जबकि वह आपात काल के कुछ महीनों पूर्व ही निकली थी. हमारे दांत भी नहीं आये थे फिर भी हमने उसी अंधेरे दौर में फासिज्म के विरुद्ध एक अंक निकाल कर अपने को प्रकट किया. इस अंक में सारी दुनिया के फासीवाद-विरोध की महानतम रचनाएं शामिल हैं. कृपया पहल का वह अंक देखें. पहल किसी भी कम्युनिस्ट पार्टी की पत्रिका नहीं है, न रही है. हमारे ऊपर यह दबाव प्रलेस के बड़े रचनाकारों की तरफ से बनाया गया था कि पहल को संगठन की मुख-पत्रिका बना दें, पर हमने उसका स्पष्ट तिरस्कार किया. आप आपातकाल के दौर में प्रकाशित धर्मयुग और कादम्बिनी के अंकों को देखें. इनमें लेख, कॉलम और संपादकीयों के मार्फत आपात काल का रचनात्मक विरोध प्रकाशित करने के खिलाफ कितना कुछ लिखा गया है ? पहल को सेंसर करने, संपादक की नौकरी लेने और जेल भेजने संबंधित बयान, प्रस्ताव और लेख छपे हैं. चार छह कॉलम में यह प्रकाशित है. जासूस तंत्र और जिलाधीश द्वारा पहल के प्रकाशन को अवरुद्ध करने का प्रयास हुआ. रवींद्र कालिया के इलाहाबाद प्रेस पर ये शक्तियां पहुंचीं और आप टिप्पणी करती हैं कि पहल ने आपातकाल का समर्थन किया.’  

ज्ञान जी ने अपने ऊपर लगे आरोपों का जिस प्रामाणिकता के साथ उत्तर दिया है, उसकी पुष्टि शैल जी ने अपने संस्मरण में और विस्तार से की है. ज्ञान जी अपनी तरह से ‘पहल’ का संपादन कर रहे हैं, यह बात छुटभैयों की समझ न तब आई थी और न अब आ रही है. अब भी तरह-तरह के आरोप उन पर लगाये जाते हैं पर वे निश्चिंत होकर न केवल पहल का संपादन कर रहे हैं अपितु रचनात्मक उत्कर्ष के लिये लगातार तत्पर हैं. हिंदी में ‘सरस्वती’ के बाद यह पहली पत्रिका है, जिसका इतिहास निडरता के साथ समय से मुठभेड़ करती रचनाओं को प्रकाशित करने का रहा है.

शैल जी का यह संस्मरण केवल ज्ञान जी से 50 साल की मैत्री का ही दस्तावेज नहीं है अपितु ‘पहल’ के संघर्षों का प्रामाणिक इतिहास भी है. शैल जी ने रवींद्र कालिया, सतीश जमाली के साथ निर्मल वर्मा पर भी संस्मरण लिखा है. इसके साथ ही सातवें दशक के इलाहाबाद पर भी उनका एक संस्मरण है. ये सब संस्मरण न केवल इलाहाबाद के साहित्य जगत के जीवंत इतिहास हैं बल्कि उन दोस्तों के साथ बिताये पलों के भी गवाह हैं, जिन्होंने वायु सेना के एक अधिकारी को लगातार साहित्यिक बनाये रखा. चंडीगढ़ से लेकर इलाहाबाद तक साहित्य जगत के वे सारे चर्चित लोग इन संस्मरणों में शैल जी की नजरों से अलग-अलग रूपों में आये हैं, जिन्हें पढ़कर बाद की दो-तीन पीढ़ियां जवान हुईं.

पुस्तक के दूसरे खंड में संतूर वादक पं. शिवकुमार शर्मा तथा जगजीत सिंह पर संस्मरण हैं. पं. जी से बाद में भेंट हुई, जो औपचारिक ही कही जायेगी पर जगजीत सिंह तो उनके साथ पढ़ते थे. जगजीत सिंह ने चित्रा जी से मिलवाते हुये यही परिचय दिया था ‘यह शैल है बी.ए. में हम इकट्ठा पढ़ते थे. पढ़ता तो यह था, मैं तो कभी-कभी हाजिरी पूरी करने के लिये क्लास में चला जाता था.’ 
(चित्रा और जगजीत सिंह)

यह परिचय दोनों की आत्मीयता का प्रमाण है. शैल जी ने जगजीत सिंह के विकास के हरेक सोपान का परिचय देते हुये लिखा है कि कैसे उसकी धुन ने उसे गजल गायकी का बेताज बादशाह बनाया. हम जिन जगजीत सिंह को जानते हैं वे ‘मिर्जा गालिब’ की गाई गई गजलों से जानते हैं लेकिन शैल जी जगमोहन से जगजीत सिंह बनते हुये उनके विकास क्रम में उन्हें जानते हैं. तीसरे खंड में ‘आत्मीय स्मृतियों की परिधि से’ के अंतर्गत 6 संस्मरण हैं. पत्नी उषा पर लिखा गया संस्मरण ‘दर्द आएगा दबे पांव ..’ शीर्षक से है. 

शैल जी के लगभग सारे संस्मरण पहले परिचय के साथ शुरू होते हैं पर पत्नी पर लिखा गया यह संस्मरण लंदन में मैडम तुसाड के वैक्स म्यूजियम से शुरू होता है. कहना न होगा कि वे अपनी बीमार पत्नी उषा को उसकी परिचारिका को साथ लेकर बेटे बहू से मिलने लंदन गये थे. जिस संधिवात की बीमारी से उषा जी का चलना-फिरना भी मुश्किल था, उस अवस्था में लंदन तो क्या पड़ौस में जाने में भी परेशानी होती है. वे पति पत्नी बाद में थे पहले तो मित्र थे और मित्र से पहले स्वस्थ प्रतिस्पर्धी. इस संस्मरण की शुरूआत भी फैज के शेर से हुई है, जो पढ़ते ही उदास कर जाता है ‘दर्द आएगा दबे पाव लिये सुर्ख चराग, वो जो इक दर्द धड़कता है कहीं दिल से परे.’ वो दर्द उषा जी और उनकी इस अवस्था के लिये है जिसे शैल जी मन से अनुभव करते हैं और उसकी घनीभूत पीड़ा को लगभग मौन होकर सहते भी रहते हैं. एक साथ पढ़ने वाले मित्र जब पति पत्नी बनते हैं, तो जीवन में एक खुलापन भी होता है और एक चुनौती भी. इस खुलेपन और चुनौती को दोनों ने हर स्थिति में स्वीकार किया इसलिये परिवार में वह संवेदनशीलता बनी रही जो कभी मित्रता और विवाह के केंद्र में थी. शैल जी ने उन भावुक क्षणों को भरे मन से रेखांकित किया है जब बीमार पत्नी पति से कहती है

‘भगवान करे तुम्हें मेरी उम्र भी लग जाये. तुमसे पहले तो मैं अपने सिरजनहार के पास जाऊंगी. मैं बहू-बेटे, बेटी-दामाद किसी पर भी बोझ नहीं बनना चाहती. तुम्हारी बात और है. तुम दोस्त पहले हो, पति बाद में और तुमने जीवन भर मेरा हाथ थामने की शपथ ली है.’

ये वाक्य किसी भी पाठक को भावुक करते हैं, भारतीय परिवारों की यह अमूल्य धरोहर है जिसे पति पत्नी दोनों मिलकर जीते और अनुभव करते हैं. मां पर लिखा संस्मरण ‘मां का पेटीकोट’ सिर्फ मां का ही नहीं बल्कि परिवार के संघर्षों को एक-एक कर सामने लाता है. मध्यवर्गीय परिवारेां की परेशानियों और चिंताओं को सबसे अधिक मां ही झेलती है, परिवार में घटित होने वाली कोई भी घटना बगैर मां को छुए नहीं निकलती पर मां ही है जो चुपचाप सब कुछ सहती रहती है. पिता की तरक्की होती रही, जगहें बदलती रहीं, बच्चे बड़े होते रहे पर मां की दिनचर्या में कोई अंतर नहीं आया. वे घर के हर सदस्य के लिये रात-दिन चिंतित रहतीं पर अपने स्वास्थ्य का कोई ध्यान नहीं रखतीं. शैल जी ने मां की पारिवारिक व्यस्तता में निढाल होते जाने को क्रमशः रचा है, जो मध्यवर्गीय भारतीय परिवारेां की हरेक मां से मेल खाता है. ‘पिता की बाइसिकल’ और ‘मां का पेटीकोट’ संस्मरण को एक साथ पढ़ने के बाद जो चित्र बनता है, वह ठेठ भारतीय परिवारों की उन चिंताओं का चित्र है, जिसमें माता-पिता रात-दिन खपते रहते हैं पर अपने बच्चों को जहां तक हो कोई परेशानी नहीं आने देते. शैल जी की परवरिश ऐसे ही सामान्य परिवारों की तरह एक परिवार में हुई जिसकी धड़कनें आज भी सुनी जा सकती हैं.

अंतिम संस्मरण ‘किस्से मेरी मयनोशी के’ अलग तरह से लिखा गया है, जिसमें पहली बार शराब पीने से लेकर अलग-अलग किस्म के मित्रों के साथ शराब पीने के आत्मीय किस्से हैं. बाद में तो वे वायु सेना में चले गये, जहां शराब पीना बुरा नहीं माना जाता. शराब के साथ दिक्कत यह है कि उसे शराबियों ने इतना बदनाम कर दिया है कि सामान्य स्थितियों में उसे बुरा माना जाता है. आश्चर्य यह है कि जो शराब पीते हैं वे भी संभ्रांत परिवारों में उसके विरोध में किस्से सुनाते हैं और जो नहीं पीते उन्हें तो आबेहयात के बारे में कुछ मालूम ही नहीं होता. बहरहाल शराब पीने की चीज है, लिखने की नहीं इसलिये इस संस्मरण पर बहुत अधिक लिखने की जरूरत नहीं है सिवाय यह बताने के कि शराब ने शैल जी को शैलेंद्र शैल बनाये रखा, जो अब भी सहज होकर लगातार लिख रहे हैं और लिखते भी रहेंगे.

‘स्मृतियों का बाइस्कोप’ पढ़ते हुये मुझे बार-बार इस बात का अहसास होता रहा कि लोग झूठे और चमत्कारी संस्मरण क्यों लिखते हैं ? शैल जी ने तो ऐसा नहीं किया वे तो बहुत सामान्य होकर उन घटनाओं के बारे में लिख रहे हैं, जो घटनाएं या व्यक्ति उनके जीवन में महत्वपूर्ण हैं. यह बात दूसरी है कि उन घटनाओं और विशेष व्यक्तियों की यादों में  कुछ ऐसा था, जो आज लिखने-पढ़ने और गुनने लायक है. 

इन संस्मरणों को पढ़ते हुये न केवल कुछ नगरों के वैशिष्ट्य को देखा-पहचाना जा सकता है बल्कि कुछ चरित्रों की महत्ता को भी रेखांकित किया जा सकता है. इसलिये ये संस्मरण अपनी सहजता में विशिष्ट और प्रामाणिक हैं.
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प्रो. सूरज पालीवाल
वी 3, प्रोफेसर आवास
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,वर्धा 442001
मो. 9421101128, 8668898600

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  1. Vicky Shambhu Nath Mishra12 फ़र॰ 2020, 6:59:00 am

    बेहतरीन समीक्षा��

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  2. बहुत अच्छी समीक्षा

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  3. बहुत अच्छी समीक्षा, जिसे पढ़कर पुस्तक ख़रीदने की इच्छा पैदा हो गई। वैसे भी कुमार विकल और ज्ञानरंजन पर तो मैं फ़िदा हूँ।

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  4. प्रो सूरज पालीवाल काअतीव धन्यवाद । उन्होने मेरे संस्मरणों के मर्म को समझा है और उनकी तह तक जाकर उनकी पड़ताल की है । संस्मरण लेखन एक जोखिम भरा काम है क्योंकि आप अपने मित्रों, अग्रजों ,परिजनों और समकालीनों पर लिख रहे हैं। कई बार लेखक को निर्ममता की हद तक ईमानदार होंना पड़ता है । और निष्कवच भी। भाई अरुण देव का आभार । उन्होने संस्मरणों में वर्णित लोगों के कई चित्र लगा कर इसे बड़े सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रकाशित किया है . ।

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  5. Aapki pustak khoob charcha mein hai. Kuchh sansmaran meri nigaah se bhi guzare hain ..aapne bahut sneh aur aatmeeyayata se , vyaktiyon aur unse Judi apni smritiyon ko antarang bhaav se likha hai.. tatasthata ka thoda abhaav hai.. shaayad aisa Hona swaabhaavik raha hoga.. Maitri aur aader bhaav ki pahli shart bhi sambhavtah yahi hai ..@ Shailendra shail

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  6. इस पुस्तक को निश्चय ही पढ़ना चाहूँगा । शैल जी के इलाहाबाद प्रवास के संदर्भ ने इसे बिना पढ़े ही आत्मीय सा बना दिया है । उस पर कालिया जी का ज़िक्र और ममता जी की टिप्पणियां ।
    इस समय इत्तेफ़ाक से कोयम्बटूर , सुलूर के एयर बेस में , स्क्वाड्रन लीडर भांजी के घर पर डेढ़ महीने के प्रवास पर हूँ । उड़ते उतरते fighter planes की गड़गड़ाहटों के मध्य एयर फोर्स के अधिकारी की समृद्ध साहित्यिक उड़ान पर पढ़ना एक दुर्लभ सा संयोग प्रतीत हो रहा है ।
    याद आ रहा है कि शैल जी की संतूर वादक शर्मा जी पर पुस्तक की समीक्षा कुछ वर्ष पूर्व मैंने की थी जो सामयिकी समीक्षा में प्रकाशित हुई थी ।

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  7. Shailji of course Paash had met Kumar Vikal many times. It was a well-knit circle of Left wing poets of Punjab. None of them could not have afforded not to meet Vikal. The younger Punjabi poets called him Shaer-e-Azam!!
    They would joke that Vikal ki kavitaen Hindi mein ho kar bhi samajh aa jaati hain kyon ki Vikal ki Hindi ne Amrit Chhaka Hua hai!!

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