साहित्य
ही नहीं समाज को भी निर्भय आलोचकों की जरूरत होती है. मैनेजर पाण्डेय अपनी आलोचना से
ये दोनों कार्य करते हैं. उनके लिए साहित्य मनुष्यता में मनुष्य की रुचि का दस्तावेज़
है जो समाज में घटित होता है. प्रो. मैनेजर पाण्डेय वय के अस्सीवें वर्ष में प्रवेश
कर गए हैं, और अभी भी सक्रिय हैं और आलोचक के उत्तरदायित्व का निर्वहन कर रहें हैं.
जन्म दिन
की अशेष शुभकामनाओं के साथ उनके आलोचना संसार
की यात्रा करता आलोचक प्रो. रवि रंजन का यह आलेख आज समालोचन प्रस्तुत कर रहा है.
मैनेजर पाण्डेय का आलोचना-संसार
रवि रंजन
शब्दानां विविनक्ति
गुम्फनविधीनामोदते सूक्तिभिः
सान्द्रं लेहि रसामृतं, विचिनुते
तात्पर्यमुद्रां च यः।
पुण्यैः सङ्घटते
विवेक्तृ-विरहादन्तर्मुखं ताम्यतां
केषामेव कदाचिदेव सुधियां
काव्य-श्रमज्ञोजनः ।।
राजशेखर : ‘काव्यमीमांसा’
(‘किसी कवि को
बड़े पुण्य प्रभाव से काव्यरचना के परिश्रम को समझने वाला ऐसा विद्वान-आलोचक
व्यक्ति प्राप्त होता है, जो शब्दों की रचना-विधि का भली-भाँति विवेचन करता है,
सूक्तियों-अनोखी सूझों से आह्लादित होता है, काव्य के सघन रसामृत का पान करता है
और रचना के गूढ़ तात्पर्य को ढूँढ निकालता है.’)
नामवर सिंह
द्वारा किया गया भावार्थ, आलोचना,जनवरी-मार्च 2008. पृ.128
“उसे ज़िद की
‘वामिक़’-ए-शिकवा-गर किसी राज़ से न हो बा-ख़बर
मुझे नाज़
है कि ये दीदावर मेरी
उम्र भर की
तलाश है.”
(वामिक़ जौनपुरी)
“और मैं समीक्षा को सृजनात्मक चीज मानता हूँ. एक समीक्षक सही माने में कृति कार के साथ मिलकर कृति के आंतरिक मूल्य और उन मूल्यों की ओर इंगित करने वाली दिशा का अध्ययन करता है....स्पेंगलर का एक वाक्य याद आ रहा है, द लिटररी आर्ट ऑफ फॉर्म ऑफ द फ्युचर वुड बि क्रिटिसिज्म.”
मलयज (डायरी, 31 जनवरी, 1958)
हिन्दी में आजकल रचनात्मक और आलोचनात्मक साहित्य प्रभूत मात्रा में लिखा जा रहा है, पर इनमें कितना साहित्य है और कितना विलाप या प्रलाप, इस बर्रे के छत्ते में हाथ डालने का यह अवसर नहीं है. मार्क्स ने लिखा है कि कलाकार उसी तरह सृजन करता है जैसे रेशम का कीड़ा रेशम बनाता है. कितु, साहित्य के वे सर्वहारा जो प्रकाशकों की मांग पर बाज़ार को मद्देनज़र रखते हुए लिखते हैं, वे सृजन के बजाय पुस्तकों का उत्पादन करते हैं.
दरअसल कोई भी
समर्थ आलोचक महत्त्वपूर्ण रचनाओं के द्वारा पाठकों को दुनिया की पहचान कराने के
साथ ही कई बार अपने समय के ज्वलंत सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक
प्रश्नों से सीधे-सीधे मुखातिब होता है और अपने विवेचन-विश्लेषण द्वारा औसत लोगों
को निरंतर जागरूक बनाने के अपने सामाजिक दायित्व का बखूबी निर्वाह करता चलता है.
जिस समाज में ऐसे लोगों की कमी होती है वहाँ केवल साहित्य ही नहीं, बल्कि समाज
की गति भी थम जाती है और लोग आत्मसंतुष्टि के सूअरबाड़े में क़ैद हो जाने के लिए
अभिशप्त होते हैं:
जाण भगत का नित मरण अनजाने का राज
सर अपसर समझै नहीं पेट भरण सूं काज .
आलोचना का लक्ष्य रचना की व्याख्या के साथ ही उसकी सार्थकता की भी मीमांसा है और यह तभी संभव है जब आलोचक में समाजालोचन के साथ ही आत्मालोचन करने का भी नैतिक साहस हो. स्पष्ट ही यहाँ देखने का अर्थ केवल अपने-आप को देखने के साथ ही नंगी-खुली आँखों से जीवन-जगत, सभ्यता, इतिहास, वर्तमान आदि को देखना और पीड़ित मनुष्य की मुक्ति के लिए भविष्य की रूपरेखा को निर्धारित करना है. समर्थ आलोचक की तीक्ष्ण दृष्टि सिर्फ देखती ही नहीं, दिखाती भी है और एक प्रकार से वह समाज की आलोचना से भी जुड़ जाती है. इसलिए समाज को समझे बिना किसी शब्दकर्मी के संघर्ष को भी नहीं समझा जा सकता. इन दोनों दशाओं के तालमेल से आलोचना में एक पड़ाव ऐसा भी आता है जब साहित्य के संघर्ष और समाज के संघर्ष में अद्वैत की स्थिति उत्पन्न होती है. इसीलिए कहा जाता है कि जीवन में संघर्ष के बिना बड़े से बड़े रचनाकार की कृति में चमत्कार प्रदर्शन की प्रवृत्ति आ जाती है. यह सही है कि सलीकेदार आलोचना के माध्यम से साहित्य की समझ के बिना साहित्य के अभिग्रहण की प्रक्रिया का वृत्त पूरा नहीं हो सकता है. किन्तु, आलोचना जब केवल अकादमिक होकर रह जाती है तो वह साहित्य को सामान्य पाठकों और आम जन से दूर करती हुई कई बार विकर्षक भी हो जाती है. परिणामस्वरूप वह धीरे- धीरे हाशिए पर खिसक जाने की नियति का शिकार होती है. ऐसे में हमें उन आलोचकों की ज़रूरत शिद्दत के साथ महसूस होने लगती है जो वस्तुनिष्ठ होकर मनुष्य और समाज के आपसी सम्बन्ध को बताएं, पाठकीय अभिरुचि को समुन्नत करें, नयी बदलती हुई सामाजिकता और सौन्दर्य-चेतना पर बहस करें, नयी रचना में उसकी तलाश करें और साहित्य के आंतरिक मूल्यों के साथ-साथ बाह्य मूल्यों को भी जानें-समझें.
जान बेकमेन के
शब्दों में कहें तो आज हम ऐसे दौर में जी रहे है जब
‘वर्तमान
पूंजीवादी सभ्यता सामूहिक अनुभव को व्यक्तिगत बनाती है, और सामूहिक विवेक पर
प्रतिबन्ध लगाती है.’
यह रवैया पूरे साहित्य को इतिहास और समाज से काट देता है और ऐसे ही समय में हमें ‘शब्द और कर्म’ के बीच एकता बरतने वाले वाले मैनेजर पाण्डेय सरीखे आलोचक की आवश्यकता होती है.
आज वित्तीय
पूंजी के इस दौर में कोरोना महामारी की वजह से पैदा हुई महामंदी की चपेट में फँसे
दुनिया के अधिकांश देशों में जब सत्तारूढ़ अभिजनों और आम जनता की आशा-आकांक्षाओं के
बीच खाई बढ़ती जा रही है तथा लोकतंत्र के प्रति असहिष्णुता का अंत होता दिखाई नहीं
दे रहा, ऐसे में आलोचना भी खतरे में है. रचनाकार बिम्ब-प्रतीक आदि की ओट में कुछ
देर के लिए भले ही छुप जाए, आलोचक को यह सुविधा नहीं है. इस अर्थ में उसका संघर्ष
ज़्यादा खतरनाक है. खगेन्द्र ठाकुर ने लिखा है कि यह ऐसा दौर है जिसमें चमत्कार
अथवा चमत्कारिक उपलब्धि के बिना जीने में मज़ा नहीं आता, जबकि सामान्य लोगों का
जीना मुश्किल है .इसलिए लेखक भी आयोजित और प्रायोजित चर्चा-परिचर्चा के माध्यम से
अपने व्यक्तित्व में चमत्कार अर्जित करना चाहता है. ऐसी स्थिति में आलोचना और खास
तौर से ‘निर्मम आलोचना’ कम ही लोगों
को सह्य होती है. यह असहिष्णुता जनतांत्रिक समाज की बुनियाद को कमज़ोर करने के साथ
ही आलोचना की संस्कृति के रास्ते में भी बाधा उपस्थित करती है. आलोचना के सामने संघर्ष के कई अन्य मुद्दे भी
हैं. कई बार हमारे रचनाकार पुराने मूल्यों-मानदण्डों की जगह पश्चिम के मूल्यों का
कई बार अंधानुकरण करते नज़र आते हैं. रचना एवं आलोचना के नाम पर हिन्दी में लिखी
जाने वाली ऐसी पुस्तकों की आजकल भरमार है जहाँ विचार ही नहीं, बल्कि शब्दावली,
मुहावरे और वाक्य-संरचना आदि पर भी अंग्रेज़ी हावी है. इसलिए आलोचना के सामने अपने
समय के तेजाबी यथार्थ को अपनी जमीन से जुड़ी भाषा और सही सन्दर्भ में समझने-समझाने और
साथ ही रचनाकारों और पाठकों को सही रास्ता दिखाने की चुनौती है. अमूमन यह माना
जाता है कि आलोचना पढ़कर या उससे प्रभावित होकर कोई रचनाकार कविता, कहानी या
उपन्यास नहीं लिखता:
‘सोने को रंग कसौटी चढ़े, पै कसौटी के रंग चढ़े नहीं सोने.’
रीतिकाल के कवि ने भिन्न सन्दर्भ में जो बात कही है, वह रचना और आलोचना के अन्तस्सम्बन्ध को लेकर भी विचारणीय है. क्या यह सच नहीं है कि रामचन्द्र शुक्ल की छायावाद-विषयक आरम्भिक आलोचना ने छायावादी कवियों को प्रभावित किया और कालान्तर में छायावादी कवियों के द्वारा ‘राम की शक्तिपूजा’,’तुलसीदास’ और ‘कामायनी’ सरीखे श्रेष्ठ काव्य की रचना संभव हो सकी. इसी प्रकार रामविलास शर्मा, मलयज, नामवर सिंह, मैनेजर पाण्डेय, नित्यानंद तिवारी, विश्वनाथ त्रिपाठी, शिवकुमार मिश्र, विजयबहादुर सिंह जैसे बड़े आलोचकों के हस्तक्षेप ने प्रगतिशील और जनवादी रचनाकारों का मार्ग प्रशस्त करने के साथ ही हिन्दी के सुधी पाठकों में क्रांतिकारी साहित्य के सर्जकों और महज़ क्रांतिकारी मुद्रा अपनाकर क्रान्ति के ढिंढोरची बने फिरने वाले अग्निवर्षी लेखकों में फर्क कर सकने का विवेक जगाया.
आज के आलोचक से
अपेक्षा है कि वह विभिन्न विचारधाराओं के नाम पर फैले धुंध के बीच तमाम मनुष्य
विरोधी कारस्तानियों को बेनकाब करते हुए मानवतावादी जनतांत्रिक मूल्यों का पैरोकार
बने और साहित्य में चित्रित जीवन के यथार्थ के विश्लेषण के साथ ही साहित्य को
बोधगम्य बनाते हुए यथासंभव उसमें आम पाठकों की रुचि जाग्रत कर सके. देश और दुनिया
में जहां कहीं भी अच्छा लिखा जा रहा है, उससे अपने भाषिक समुदाय को परिचित करना,
उसकी आलोचना करना, देश और काल के प्रवाह में उन रचनाओं की अवस्थिति को रखकर उनके
महत्त्व को चीन्हना आदि सार्थक आलोचना का बुनियादी काम है.
सखाराम गणेश देउस्कर की सुप्रसिद्ध बांग्ला पुस्तक ‘देशेर कथा’ तथा देश और दुनिया के बड़े विचारकों के महत्त्वपूर्ण निबंधों को ‘संकट के बावजूद’ शीर्षक से अपनी लम्बी भूमिका के साथ मैनेजर पाण्डेय द्वारा हिन्दी में पुस्तकाकार प्रस्तुत किया जाना इसका अच्छा उदाहरण है. गौरतलब है कि ‘अवधारणाओं का संकट’ शीर्षक नामवर सिंह के विख्यात निबंध के बाद ‘संकट के बावजूद’ का प्रकाशन हिन्दी आलोचना के दो बड़े आलोचकों के बीच सार्थक संवाद का रचनात्मक सुफल है.
इसके अलावा पाठ
केंद्रित व्यावहारिक आलोचनात्मक पद्धतियों के माध्यम से साहित्यिक रचना को नया अर्थ
देने का दायित्व भी आलोचक का ही है. नामवर सिंह ने सही लिखा है कि
“कोई सर्जनात्मक कृति इसलिए कृति है कि वह कोई स्थिर वस्तु नहीं है, जड़ पदार्थ नहीं है. पढ़ने की प्रक्रिया में ही कृतियाँ अर्थ ग्रहण करती हैं और सार्थक होती है. ...सृजन से ग्रहण तक सम्प्रेषण की समग्र प्रक्रिया में काव्यकृति निरंतर उपजती और उपजाई जाती है. यह ‘उपज’ ही उसका जीवन है. किसी कृति को जड़ पाठ से मुक्त करना ही उसकी प्रासंगिकता है.”
(वाद विवाद
संवाद,पृ.71)
कहना न होगा कि हमारे समय में लाभ-लोभ के व्याकरण से दूर रहकर हिन्दी के जो गिने-चुने आलोचक पूरी ईमानदारी और सत्यनिष्ठा से उपर्युक्त दायित्वों का निर्वाह कर रहे हैं, उनमें मैनेजर पाण्डेय संभवतः सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं.
वस्तुत: मैनेजर
पाण्डेय हिन्दी में प्रगतिशील-जनवादी आंदोलन की देन होने के साथ ही उसका विकास
करने वाले आलोचक हैं. हमारे इस विचित्र त्रासद समय में वे हिन्दी आलोचना के
क्षेत्र में सतत सक्रिय उन थोड़े से लेखकों में एक हैं जिनके ‘शब्द और कर्म’ के बीच
फाँक संभवत: न के बराबर है. उनके जीवन और लेखन में बनावटीपन, दिखावा या दुराव-छिपाव प्राय:
नहीं है. उनकी
आलोचना में छठी शताब्दी के कवि भर्तृहरि से लेकर समकालीन विचारकों, कवियों,
कथाकारों एवं आलोचकों के साथ ही हाल में कोरोना महामारी के दौरान तालाबंदी के कारण
अपने ही देश में विस्थापन की त्रासदी के शिकार करोड़ों मजदूरों के ह्रदय विदारक
पलायन की पीड़ा को व्यक्त करनेवाले भोजपुरी में रचित ‘माई गे माई बिहान होई कहिया’
गीत के रचयिता के अवदान का विवेचन-विश्लेषण करते हुए चीजों को उनके सही नाम से
पुकारने पर बल है.
उनके शब्दकर्म में परिवेश के प्रति गहरा लगाव झलकता है और ऐसा प्रतीत होता है जैसे वे सामने बैठे पाठक या व्याख्यान देते समय अपने श्रोताओं से बतकही में मशगूल हों. उनकी भाषा की यह देशजता अपनी प्रकृति में पर्याप्त संश्लिष्ट है. यह एक ओर उस वैचारिकता या सिद्धांत तक पहुंचती है जिसे जनवादी मानवतावाद कहा जाता है तो दूसरी ओर वह लोक जीवन के उस उष्ण और भौतिक धरातल तक पहुंचती है, जहाँ गजब की सक्रियता और जीवन्तता है. उनकी आलोचना में सतही यथार्थ के बजाय विभिन्न प्रातिनिधिक कलाकृतियों में अन्तर्निहित यथार्थ की द्वंद्वात्मकता को चीन्हने की चाह है.
सच तो यह है कि मैनेजर पाण्डेय का आलोचना साहित्य हमारे समय-समाज की विसंगति और विडम्बना को उजागर करने के साथ ही एक हद तक इनसे मुक्ति का मार्ग सुझाने में भी सक्षम है. उसमें पाठक को केवल सावधान ही नहीं, बल्कि आवश्यकतानुसार हर तरह का जोखिम उठाने, अपने समय के ज्वलंत प्रश्नों से टकराने और अन्याय का प्रतिरोध करने की चेतना जगाने की क्षमता है. विभिन्न रचनाकारों और आलोचकों की कृतियों के बारे में केवल आलोचकीय मंतव्यों या उपदेशों की अभिव्यक्ति के बजाय उनके यहाँ विवेच्य कृतियों में अनुस्यूत अपने समय की जटिल वास्तविकताओं एवं समग्र सत्य को उसके द्वंद्वात्मक सिरों से पकड़ने की बेचैनी है. आजादी की दहलीज़ पर पाँव रखते भारत के बारे में अज्ञेय ने कहा था कि हमें एक आलोचक राष्ट्र का निर्माण करना होगा. उनके अनुसार आलोचना से हमारी अनुभूति में व्यापकता और गहराई आती है तथा बगैर गहरी अनुभूति के संस्कृति संभव नहीं है. मैनेजर पाण्डेय की आलोचना भी हिन्दी पाठक के यथार्थ बोध को विकसित कर उसके चिंतन और चेतना के दायरे का विस्तार करने वाली ऐसी आलोचना है जो जन पक्षधर संस्कृति का विकास कर सकने में समर्थ है.
मैनेजर पाण्डेय
का मानना है कि
“आलोचना रचना की व्याख्या करती हुई, उसे व्यापक पाठक समुदाय तक पहुँचने में मदद करती हुई खुद सामाजिक बनती है और रचना को भी सामाजिक बनाती है. ....आलोचना, चाहे समाज की हो या साहित्य की, वह सामाजिक बनती है, एडवर्ड सईद के शब्दों में, ‘सत्ता के सामने सच कहने के साहस से.’ हिन्दी आलोचना के बेजान और बीमार होने का एक कारण हमारे समाज का वह बौद्धिक वातावरण है जिसमें साहित्यवाद का सहयोगी सहमतिवाद है.”
उल्लेखनीय है कि भूमंडलीकरण के चलते भारत समेत पूरे विश्व पर आये ‘संकट के बावजूद’ मैनेजर पाण्डेय की आलोचना, पाठक को समाज के प्रभुत्वशाली वर्ग के प्रपंच और क्रूर आतंक के सामने पलायन की जगह, विपरीत स्थितियों से जमकर लोहा लेने के लिए प्रेरित करती है. देश और समाज की राजनीति और संस्कृति को आकार देने में कलम की ताकत के प्रति उनकी आस्था दृढ़ है और यह आस्था ही उनके ‘शब्द और कर्म’ की मूल अंतर्धारा है. उनकी आलोचना में सत्ता के ढांचे की संरचना तथा वैयक्तिक प्रतिरोध, विरोध और पराजय के जो जीवंत सन्दर्भ विद्यमान हैं, भारतीय और पाश्चात्य काव्यशास्त्रीय चिंतन की जो सांस्कृतिक आभा एवं दार्शनिक उच्चाशय हैं या फिर गहरी स्वाधीनता की माँग और प्रबल मुक्ति की युगांतरकारी आकांक्षा है, वह भारत की गंगा-जमुनी तहजीब के आत्मसातीकरण का प्रमाण है. निस्संदेह वह अपने समय के सुपठित समाज के प्रति अधिक उन्मुख और संवादमयी है, किन्तु, जीवन के स्वाभाविक और सजीव स्पर्श से दूर रहने के अभ्यस्त आलोचकों की भाँति वहाँ आम जनता के सुख–दुःख, आशा-आकांक्षा को परे रखकर विवादैषणा मात्र की प्रवृत्ति नहीं है. याद आते हैं मुक्तिबोध जिन्होंने स्पष्ट लिखा है कि जनता का साहित्य से मतलब जनता को तुरंत समझ में आ जाने वाला साहित्य कतई नहीं है.
अनेकानेक सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दों पर विचारते हुए या विभिन्न साहित्यिक कृतियों के आलोचना-क्रम में समूचे भारतीय जनमानस को उसकी विविधता और व्यापकता में पकड़ने की छटपटाहट के चलते मैनेजर पाण्डेय की छवि केवल हिन्दी साहित्य के आलोचक के बजाय भारतीय समाज के एक संश्लिष्ट सर्जक बुद्धिजीवी या ‘पब्लिक क्रिटीक’ के रूप में उभरती है. अशोक वाजपेयी ने सही कहा है कि ‘मैनेजर पाण्डेय हिन्दी के उन उंगली पर गिने जाने योग्य आलोचकों में एक हैं जिन्होंने हिन्दी आलोचना को साहित्यवाद से मुक्त किया है.
मैनेजर पाण्डेय
के आलोचना साहित्य में जगह-जगह जो धारदार व्यंग्य है उसकी चोट से न तो लेखक
बिरादरी बच पायी है और न ही वह मध्य वर्ग, जिससे वे खुद संबद्ध हैं. अली सरदार
ज़ाफरी ने अपने एक भाषण में कहा था कि साहित्य की लोकशाही समाज की लोकशाही से बड़ी
होती है, इस अर्थ में आलोचना का काम साहित्य की सब विधाओं में सबसे बड़ा सार्वजनिक
कार्य है. जाहिर है कि जो आलोचना जीवन के कड़वे यथार्थ से अलग होकर खुद में ही मगन
रहती है, उसका समाज और साहित्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. इस अर्थ में मैनेजर
पाण्डेय की आलोचना जीवंत रचनात्मक प्रयत्नों से सरोकार रखने वाला सांस्कृतिक कर्म
है. यहीं पर उनकी आलोचना रचनात्मक गतिविधियों का हिस्सा बन कर अपने समय-समाज की हर
हलचल से जुड़ जाती है. सिनेमा और समाज के बीच परस्पर अंतर-संबंधों पर बातचीत के
दौरान मैनेजर पाण्डेय कहते हैं :
“आजकल हिन्दी में जो कविताएँ लिखी जा रहीं हैं, उनकी भाषा, बनावट और उनसे व्यक्त होने वाली बौद्धिकता सामान्य पाठकों की पहुँच के परे है. कुछ कवि यह तर्क देने लगे हैं कि आज का जीवन जटिल है इसलिए उस जीवन से जुड़ी पूरी कविता भी जटिल हो रही है. यह आत्मरक्षा में गढ़ा गया कुतर्क है.....मैं कई बार यह कहता हूँ कि आज स्थिति यह है कि कवि लगातार पुरस्कृत हो रहे हैं और कविता तिरस्कृत हो रही है. .......आज के बहुत सारे कवि पाठकों की आलोचना आत्मरक्षा में करते हैं पर उससे नुकसान कवि या पाठक का भले ही न हो पर कविता का जरूर होता है.’
(कथादेश. सितम्बर 2010)
इसी प्रकार ‘सुविधा में रहकर दुविधा की भाषा’ बोलने के आदतन शिकार भारतीय मध्य वर्ग को जब वे बेनकाब करते हैं तो अनायास नागार्जुन की ‘घिन तो नहीं आती’ कविता का स्मरण हो आता है, जिसमें कलकत्ते में खचाखच भरी ट्राम में कुली-मजूरों के प्रति मध्यवर्गीय अभिजनों की बेरुखी का उपहास किया गया है. अभी हाल में कोरोना महामारी की वजह से हुई देशव्यापी तालाबंदी के दौरान भारतीय महानगरों में रोजी-रोटी के लिए आकर रहने वाले पिछड़े इलाकों के मजदूरों के त्रासद पलायन के दौरान उन्हें ‘प्रवासी’ कहे जाने पर पाण्डेय जी ने बहुत रोष प्रकट करते हुए केंद्र और विभिन्न राज्य सरकारों के साथ ही सुविधाजीवी सुखासीन समुदाय को भी कटघरे में खड़ा किया.
जाहिर है कि गहरे आत्मसंघर्ष की प्रक्रिया से गुजरे बगैर कोई लेखक अपने ही वर्ग की दुखती रग पर कतई उंगली नहीं रख सकता. मैनेजर पाण्डेय ने खुद लिखा है कि लेखक का आत्मसंघर्ष तभी सार्थक और सर्जनात्मक होता है, जब वह व्यापक सामाजिक संघर्षों से जुड़ा हो. इसलिए अध्येताओं से यह अपेक्षा स्वाभाविक है कि वे उनकी आलोचना में अन्तर्निहित आत्मसंघर्ष की शिनाख्त अवश्य करें, जो वस्तुत: आत्मालोचन से निर्मित है और जिसको नज़रअंदाज करने पर न केवल आलोचना, बल्कि उन तमाम रचनाओं का सामाजिक सन्दर्भ भी अनदेखा रह जाएगा, जिनकी सामाजिकता की पहचान उनकी आलोचना का मुख्य लक्ष्य रहा है.
मार्क्स ने जहाँ ‘दुराग्रह से मुक्ति’ को सच्ची आलोचना की बुनियादी शर्त माना है, वहाँ जार्ज लुकाच ने आलोचनात्मक टेक्स्ट के लिए उसका पठनीय होना जरूरी बतलाया है. मैनेजर पाण्डेय की आलोचना में यदि एक ओर जगह-जगह अपने निजी वर्गीय व वर्णीय आग्रह से मुक्ति के लिए आत्मसंघर्ष झलकता है, वहीं वह पठनीय आलोचना का भी बेहतर उदाहरण है. आम तौर पर माना जाता है कि आमफहम भाषा में आलोचना के नंगे हो जाने के अपने खतरे हैं. बावजूद इसके उन्होंने साबित कर दिया है कि आलोचना केवल प्रभावोत्पादक भाषा, गझिन शब्दावली और पश्चिमी सैद्धांतिकी पर बहस करने का नाम नहीं, बल्कि अपने समय की वास्तविकताओं को जीवंत और रचनात्मक ढंग से समझने- समझाने के साथ-साथ अपने समय के ज्वलंत प्रश्नों से टकराने, आदर्श को यथार्थ में बदलने का वातावरण बनाने, वर्तमान को अतीत से जोड़कर भी उससे अलग करने, अपनी सभ्यता और संस्कृति का अवगाहन करते हुए क्षयिष्णु एवं उदीयमान तत्त्वों की पहचान करने और साहित्य की रचना के लिए अनुकूल वातावरण बनाने और गतिरोध तोड़ने का नाम भी है. आलोचनात्मक लेखन में अपने मिथ्या पांडित्य का प्रकांड दर्शन उड़ेलने वाले आलोचकों से भिन्न व विपरीत वे रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, नंददुलारे वाजपेयी, विजयदेव नारायण साही, मलयज, रामविलास शर्मा, मुक्तिबोध, नामवर सिंह जैसे बड़े आलोचकों की समृद्ध परम्परा को संग्रह-त्याग के विवेक से आत्मसात कर उसे विकसित करने का उपक्रम करते हैं. स्पष्ट ही इस उपक्रम में सहमति-असहमति के अनेकानेक बिंदु उभर कर सामने आए हैं.
साहित्यिक कृतियों की आलोचना के क्रम में मैनेजर पाण्डेय उनकी अर्थवत्ता के साथ-साथ सार्थकता की पड़ताल करते हुए कृति-विशेष के रचनात्मक अभिप्राय एवं प्रभाव की मीमांसा पर बल देते हैं. वे अपने समय के चिंतन एवं मूल्यों, चेतना एवं विवेक को एक तार्किक क्रम के द्वारा अपने समय की दशाओं, समस्याओं को भी जांचते-परखते हैं और उनको विवेकशील चिंतन की शक्ल देकर केवल साहित्य-सृजन के क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि स्वस्थ बौद्धिक समाज और रचनात्मक वातावरण के निर्माण में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं.
मैनेजर पाण्डेय के आलोचना साहित्य का बीज शब्द है- ‘संघर्ष’ और उनके यहाँ इसका फलक जीवन संघर्ष तथा साम्राज्यवाद और सामन्तवाद विरोधी वैचारिक संघर्ष से लेकर आत्मसंघर्ष तक प्रसारित है. मुझे याद है कि जीवन संघर्ष को अपने ख़ास अंदाज़ में समझाने के क्रम में लगभग दस साल पहले हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग द्वारा आयोजित ‘हिन्दी आलोचना और मैनेजर पाण्डेय’ विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी में आत्म वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए पाण्डेय जी ने मिर्ज़ा ग़ालिब का एक मानीखेज़ शेर उद्धृत किया था:
अहले-बीनिश को
है तूफ़ान-ए-हवादिस मकतब
लतमा-ए-मौज कम
अज सीली-ए-उस्ताद नहीं.
(जिसके पास दृष्टि है उसके लिए उसके लिए आफ़त और बदकिस्मती के तूफ़ान ही पाठशाला और लहरों के थपेड़े गालों पर उस्ताद के चांटों की तरह होते हैं.)
मुक्तिबोध ने लिखा है कि साहित्य विवेक मूलत:
जीवन –विवेक है. उनका यह भी कहना है कि मनुष्य सबसे ज्यादा पारिवारिक संघर्ष में
टूटता है. मैनेजर पाण्डेय भी जीवन और साहित्य, दोनों क्षेत्रों में लगातार संघर्ष
रत रहे हैं. इस क्रम में ‘शब्द और कर्म’, ‘साहित्य और इतिहास-दृष्टि’, ’साहित्य और
समाजशास्त्रीय दृष्टि’, ’भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य’, ‘अनभै साँचा’,
‘आलोचना की सामाजिकता’, ’संकट के बावजूद’(अनुवाद,चयन और सम्पादन),’मुक्ति की
पुकार’,(सम्पादन), ’सीवान की कविता’(सम्पादन) जैसी कृतियों के साथ-साथ
साक्षात्कारों (‘मेरे साक्षात्कार’ और ‘मैं भी मुँह में जबान रखता हूँ’) तथा
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित उनके सैकड़ों आलेखों, व्याख्यानों आदि की
गुणात्मकता एवं परिमाण तथा साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में उनके निरंतर जीवंत और
सार्थक हस्तक्षेप को देखते हुए कालिदास की एक उक्ति का अनायास स्मरण हो आता है :
‘क्लेश: फलेन हि पुनर्नवतां विधत्ते.’
मैनेजर पाण्डेय के यहाँ संघर्ष का मकसद है मुक्ति, जिसका अर्थ किसी मायने में मोक्ष नहीं है. यह मुक्ति केवल भारतीय समाज में व्याप्त गुलामी की संरचनाओं, दमन, यातना आदि से मनुष्य की मुक्ति ही नहीं, बल्कि अपने पूर्वाग्रहों एवं खास तौर पर दुराग्रहों से मुक्ति के लिए आत्मसंघर्ष भी है. तमाम बड़े लेखकों की तरह आत्मसंघर्ष को जिन्दगी का रस-रक्त बनाए चलना उनकी भी नियति रही है. वे उन गिने चुने आलोचकों में से एक हैं जो जितनी दूसरों की आलोचना करते हैं, उतनी ही अपनी और अपनों की भी. याद रहे कि दूसरों की आलोचना करने में कई बार शहादत का आकर्षण हुआ करता है, पर अपनों की और विशेष रूप में अपनी आलोचना कर या सुन सकने के साहस के उदाहरण बहुत कम मिलते है. यह उनके आलोचना कर्म की विश्वसनीयता का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष है. दूसरे शब्दों में उनकी आलोचना में एक तरह की मूलगामिता है, जिसके तहत वहाँ किसी मुद्दे की जड़ तक जाने की प्रवृत्ति दिखाई देती है. चूंकि मनुष्य के लिए मूल मनुष्य ही है, इसलिए उनमें मनुष्य की मुक्ति को दृष्टि पथ में रखते हुए सारे संसार की आलोचना करने, अपने समाज की आलोचना करने और आवश्यकतानुसार अपनी आलोचना करने और सुन सकने का नैतिक बल भी है. एक सुधी आलोचक के रूप में उनकी संघर्ष शीलता में ‘असहमति का साहस और सहमति का विवेक’ काबिल-ए-गौर है. अंतोनियो ग्राम्शी के हवाले से वे मानते हैं कि आलोचना का एक दायित्व नई संस्कृति के निर्माण के लिए संघर्ष भी है, जो साहित्य और समाज दोनों की होगी. मैनेजर पाण्डेय का सम्पूर्ण आलोचना कर्म ‘नए समाज के निर्माण के लिए वैचारिक संघर्ष’ है. इस संघर्ष में हथियार के तौर पर आलोचना को माध्यम बनाने के क्रम में उन्होंने सबसे पहले उसे साहित्य वाद से मुक्त किया और इतिहास और समाजशास्त्र जैसे ज्ञान के दूसरे अनुशासनों से साहित्यालोचन का आवयविक सम्बन्ध स्थापित किया. इसके चलते कुछ तथाकथित शुद्धतावादियों ने उन पर साहित्य को समाज विज्ञान का उपनिवेश बनाने का बचकाना आरोप भी लगाया.
मैनेजर पाण्डेय
का आलोचक साहित्य की भावभूमि और समाजविज्ञान की विचारभूमि पर एक साथ खड़ा होकर
बहुराष्ट्रीय कंपनियों के भारत में धुआंधार पूंजी निवेश, भारत सरकार द्वारा
‘कल्याणकारी राज्य’ की जवाबदेही को बरतरफ़ करके सार्वजनिक क्षेत्रों में विनिवेश को
बढ़ावा देने, लघु उद्योगों की लगभग समाप्ति, बाजारवाद, उपभोक्तावाद एवं वृद्ध
पूंजीवाद (लेट कैपिटलिज्म) के सर्वग्रासी प्रसार, विसंस्कृतिकरण, साम्प्रदायिकता, जातिवाद,
विचारधारात्मक कट्टरता, तथाकथित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तथा
संचार के अन्य साधनों के द्वारा सच को संदेहास्पद बना देने के कारण पैदा हुए संकट की
गिरफ्त में फँसे भारतीय मनुष्य की अनुभूति की संरचना में तेजी से आ रहे नकारात्मक
बदलाव के चलते दिनानुदिन लुप्त होती जा रही सामाजिकता व इंसानियत के कारणों की
पड़ताल और इस ‘संकट के बावजूद’ मुक्ति का मार्ग खोजने के लिए बेचैन दिखाई देता है.
इस क्रम में परंपरा
के अन्धस्वीकार अथवा अन्धनिषेध से बचते हुए मैनेजर पाण्डेय साहित्यिक एवं सामाजिक
विकास की प्रक्रिया को इतिहास की धारा में रखकर देखने-दिखाने के आग्रही हैं. वे
बार-बार यह कहते-लिखते रहे हैं कि जो लोग इतिहास को रौंदने की कोशिश करते हैं,
कालांतर में इतिहास उन्हें रौंद डालता है.
मार्क्स ने लिखा है कि ‘इतिहास प्राक-भविष्य होता है’. जो लोग इतिहास से फरार होकर अपनी विरासत का मूल्यांकन करते हैं वे या तो यथास्थिति वाद के शिकार होते हैं या रूमानी क्रांतिकारिता के. हमें विरासत में प्राप्त भारतीय साहित्य एवं विश्व साहित्य की कुछ उल्लेखनीय कृतियों का मूल्यांकन करते हुए मैनेजर पाण्डेय सबसे पहले उस साहित्य का मूल्य निर्धारित करते हैं जो शोषक वर्गों की मुखालफ़त करते हुए मेहनतकश अवाम के हितों की तरफ़दारी करता है. पर इसके साथ ही वे यह भी आंकने की कोशिश करते हैं कि शोषित जनता के खून पसीने की कमाई के आधार पर रचित कोई कला मौजूदा समय में दलित-पीड़ित तबके की मुक्ति में किस सीमा तक सहायक हो सकती है. इस क्रम में वे उपयोगिता वादी विचारकों से नितांत भिन्न रुख अख्तियार करते हुए मार्क्स-एंगेल्स समेत संसार के उन मार्क्सवादी और गैर-मार्क्सवादी विचारकों के क़रीब दिखाई देते हैं जिन्होंने सामंती और बुर्जुआ समाजों में रचित शाश्वत महत्व वाली कलाकृतियों में निहित सौन्दर्य बोध को भी मनुष्यता के विकास में साधक माना हैं. याद आते हैं जार्ज लुकाच जिनका कहना है कि विचारधाराओं की पर्वतमालाओं में मार्क्सवाद-लेनिनवाद की अवस्थिति एवरेस्ट शिखर की तरह है, पर एवरेस्ट शिखर पर बैठे किसी खरगोश को यह भ्रम कदापि न होना चाहिए कि वह घाटी के हाथी से बड़ा है.
याद रहे कि इतिहास पर बल देने के बावजूद मैनेजर पाण्डेय की आलोचना में इतिहास वाद का भी कोई आग्रह नहीं है. साहित्येतिहास लेखन के लिए आलोचनात्मक चेतना और आलोचनात्मक लेखन के लिए इतिहास चेतना की महती आवश्यकता पर बल देने वाले मैनेजर पाण्डेय साहित्यिक कृतियों में इतिहास-चेतना को रचना की समाजशास्त्रीय प्रामाणिकता तथा कालजीविता और कला-चेतना को उन कृतियों के सौन्दर्यबोधीय स्वरूप से जोड़कर देखते हैं. उनके अनुसार जिन रचनाओं में इतिहास-चेतना और कला-चेतना का दुर्लभ संयोग घटित होता है और उनकी अंतर्वस्तु की नैसर्गिक आकांक्षा के अनुरूप रचनाकार उपयुक्त फॉर्म की तलाश कर लेता है, वे रचनाएं युगांतरकारी महत्त्व प्राप्त कर लेती हैं और कालजयी हो जाती हैं. तात्पर्य यह कि किसी रचना के कालजयी होने के पहले उसका कालजीवी होना ज़रूरी है.
सुविख्यात विचारक राबर्ट वाइमान द्वारा महान कलाकृतियों के सन्दर्भ में कथित ‘विगत सार्थकता और वर्तमान अर्थवत्ता का द्वंद्वात्मक सम्बन्ध’ को अपने अनोखे अंदाज में व्याख्यायित करते हुए उन्होंने लिखा है:
“किसी कलाकृति की उत्पत्ति, उसका अस्तित्व, और उसका जीवन समाज तथा इतिहास के बाहर नहीं होता. कृतिकार और पाठक भी समाज और इतिहास से परे नहीं होते. मनुष्य की चेतना और उसकी सृजनशीलता की उपज में अपने समय, समाज और ऐतिहासिक परिस्थितियों की सीमाओं से ऊपर उठने की क्षमता होती है. इसका यह अर्थ नहीं कि ऐसी चेतना और उसकी संरचनाओं का अपने समय, समाज, और ऐतिहासिक स्थितियों से कोई सम्बन्ध नहीं होता. किसी महत्त्वपूर्ण रचना में यथार्थ का केवल प्रतिबिम्बन ही नहीं होता, उसमें यथार्थ संबंधी चिंतन और यथार्थ की पुनर्रचना भी होती है. इस तरह रचना में कालबद्धता से कालजयीपन का केवल विरोध नहीं होता बल्कि विरोधी गुणों का संघर्षधर्मी साहचर्य भी होता है. ..कोई भी सार्थक रचना इतिहास की उपज होती है, लेकिन उसका अपना भी एक इतिहास होता है जिसे वह स्वयं बनाती है. उसका वर्तमान होता है तो उसका अतीत भी होता है. उसके पाठकीय ग्रहण का वर्तमान होता है तो उत्पत्तिमूलक अतीत भी होता है. इन दोनों के द्वंद्वात्मक सम्बन्ध के बोध के आधार पर ही किसी रचना की प्रासंगिकता का निर्णय हो सकता है.”
(आलोचना की सामाजिकता, पृ.292).
आचार्य राजशेखर ने ‘काव्यमीमांसा’ में अनेक प्रकार के आलोचकों का उल्लेख किया है- सतृणाभ्याव्हारी, अरोचकी, मत्सरी एवं तत्त्वाभिनिवेशी. कहने कि ज़रूरत नहीं कि पाठकों-आलोचकों की उपर्युक्त श्रेणियों के अलावा साहित्य की दुनिया में कुछ ऐसे अबोध लोग कभी-कभार आवाजाही करते दिखाई पड़ते है जिनके बारे में अल्लामा इक़बाल ने लिखा है:
फूल की
पत्ती से कट सकता है हीरे का ज़िगर
मर्द-ए-नादां पर क़लाम-ए-नर्म-ओ-नाज़ुक बे-असर.
हिंदी साहित्य
के हमारे समय के कुछ सतृणाभ्याव्हारी आलोचकों को टेरी इगल्टन के हवाले से मैनेजर
पाण्डेय हिन्दी आलोचना का ‘जनसंपर्क पदाधिकारी’ कहते हैं, जो आलोचना के नाम पर थोक
भाव में पुस्तक समीक्षा लिखकर अपने मन चीते कवियों-लेखकों का गुणगान व गुट गान
करते हुए अपनी जान-पहचान का दायरा बढ़ाने में लगे रहते हैं. एक विद्वान ने तो अपना
ईमानदार क्षोभ प्रकट करते हुए यहाँ तक कह डाला है कि
‘आज
पुस्तक-समीक्षा साहित्य के कलेवर पर एक ऐसे बदसूरत नासूर की तरह है, जो साहित्य के
रक्त पर पोषित होता है.’
इनसे भिन्न
तथाकथित प्रगतिशीलता और जनवाद की कसौटी पर साहित्यिकता की बलि चढ़ाकर शोक शैली में
आलोचना लिखने वाले ‘अरोचकी’ आलोचकों का दृष्टिदोष से पीड़ित एक वर्ग है जिसे हर
अच्छी रचना में प्रच्छन्न रीतिवाद या कलावाद नज़र आता है. अंग्रेज़ी की एक कहावत का
इस्तेमाल किया जाए तो इस वर्ग के आलोचक उन तथाकथित समझदार लोगों की तरह हैं जो स्नान
पात्र में बच्चे को नहलाने के बाद पानी के साथ-साथ बच्चे को भी फेंक आते हैं.
याद आते हैं
प्रेमचंद, जिन्होंने तत्कालीन रचनाओं में जीवन के उल्लास, आह्लाद एवं विनोदवृत्ति
के अभाव से चिंतित होकर लिखा था:
‘इस जीवन
संग्राम में साहित्य पर जो सबसे बुरा असर पड़ा है, वह यह कि वह मर्सिया हुआ जाता
है.’
कहना न होगा कि
समकालीन आलोचना में कुछेक अपवादों को छोड़कर तथाकथित क्रांतिकारिता और आत्यंतिक
वैचारिकता की कोख से पैदा हुए मर्सियाकरण के इस दौर में मैनेजर पाण्डेय का आलोचना
साहित्य किसी मरुभूमि में जलाशय की तरह है. वे हिन्दी के अक्षर-जगत में
प्रगतिशील-जनवादी कही जानेवाली बिरादरी में अपने खुले जीवट, अद्वितीय सत्यनिष्ठा,
मूलगामी आलोचना-दृष्टि एवं वाग्मिता के प्रकर्ष के चलते सर्वसमादृत हैं. अंतोनियो
ग्राम्शी उनके प्रिय विचारकों में से एक है, जिनका मानना था कि
‘कलाकार के सम्मुख भी एक राजनीतिक परिदृश्य अवश्य होता है पर वह किसी राजनीतिकर्मी की तुलना में कम नपातुला होता है, इसीलिए वह कम कट्टर होता है.’
मैनेजर पाण्डेय
का भी मानना है कि
‘अपने समय और
समाज के सन्दर्भ में प्रगतिशील होने के लिए मार्क्सवादी होना आवश्यक नहीं है. अगर
कोई रचनाकार अपने समय और जीवन से गहरे स्तर पर जुड़ा हुआ है, तो उसकी रचनाशीलता में
प्रगतिशीलता होगी.’
पाण्डेय जी की
आलोचना में अपवर्जन के बजाय एक समावेशी प्रवृत्ति है. इसीलिए मूलत: मार्क्सवादी
विचारधारा में अपनी गहरी निष्ठा के बावजूद उन्हें गांधीवाद, लोहियावाद, अम्बेडकरवाद,
स्त्रीवाद आदि विचारधाराओं में व्यापक मानवता के हित में जहाँ और जितना कुछ उपयोगी
प्रतीत होता है, उसे ग्रहण से कोई परहेज़ नहीं है. दलित साहित्य में लालित्य की कमी
देखकर छटपटाते हुए
‘सिर धुनि धुनि
पछिताई’
वाली मुद्रा में आलोचना के नाम पर प्रलाप करनेवालों को पाण्डेय जी ग़ालिब के माध्यम से समझाने की कोशिश करते हैं;
‘फ़रियाद की कोई लय नहीं है, नाला पाबन्द-ए-नय नहीं है.
क्यूँ रद्दे क़दह करे है जाहिद, मय है मगस की क़य नहीं है.’
हिन्दी में पढ़ने-लिखने वालों को याद दिलाना शायद ज़रूरी हो कि मैनेजर पाण्डेय हिन्दी के पहले आलोचक हैं जिन्होंने बीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण में ‘हंस’ पत्रिका में प्रकाशित ‘क्या आपने बज्रसूची का नाम सुना है ?’ शीर्षक विस्तृत आलेख के माध्यम से अश्वघोष द्वारा वर्णव्यवस्था के विरुद्ध रचित इस महाग्रंथ की ओर हमलोगों का ध्यान आकृष्ट किया और इस मुद्दे पर भारतीय साहित्य की अपनी परम्परा में उपलब्ध इस लगभग भुला-सी दी गई स्मारक कृति (मोनुमेंटल ट्रीटाइज़) का जीर्णोद्धार किया.
इसी प्रकार
राजेन्द्र यादव द्वारा संपादित ‘हंस’ के स्त्री विशेषांक में मध्य युगीन देवदासी
मुद्दुपलानी (17390-1790) ) द्वारा तेलुगु
भाषा में चार खण्डों में विरचित पांच सौ चौरासी विलक्षण कविताओं के संग्रह
‘राधिका-सान्त्वनम’ की विस्मयकारी अंतर्वस्तु और उससे जुड़े विचित्र विवाद तथा
‘तद्भव’ में प्रकाशित ‘श्रृंखला की कड़ियाँ : मुक्ति की राहें’ जैसे अत्यंत
महत्त्वपूर्ण निबंधों के माध्यम से उन्होंने भारतीय स्त्री वाद की प्रस्तावना पेश
करने की कोशिश की.
साहित्यिक
कृतियों में निहित विचारधारात्मक अर्थ का संधान करने के क्रम में विचारधारा के आतंक
से ग्रस्त होकर किसी रचना को केवल विचार में घटाकर अवमूल्यित करना मैनेजर पाण्डेय
के आलोचक को कतई स्वीकार्य नहीं है. ‘शब्द और कर्म’ पुस्तक में वे ‘विचारधारा’ को ‘विचारों
की धारा’ समझने वालों का उपहास करते हुए साहित्य में विचार के साथ ही परम्परा,
भावबोध, सौन्दर्यबोध आदि को किसी रचनाकार की विचारधारा का हिस्सा मानते हैं. साहित्य
का हर सजग पाठक जानता है कि जब रचनाकार किसी अवधारणा (कंसेप्ट) को प्रत्यक्ष बोध का विषय (परसेप्ट) में
तत्त्वान्तरित करने के बाद अपनी ऐन्द्रिय गोचर अनुभूति को अभिव्यक्त करता है तभी
श्रेष्ठ साहित्य का सृजन संभव हो पाता है. प्रसंगवश याद आते हैं डॉ. रामविलास
शर्मा, जिनका मानना था कि
“कला की विषयवस्तु न वेदान्तियों का ब्रह्म है, न हेगेल का निरपेक्ष विचार. मनुष्य का इन्द्रियबोध, उसके भाव, विचार, उसका सौन्दर्यबोध कला की विषयवस्तु है.”
(आस्था और सौन्दर्य, पृ.31)
मैनेजर पाण्डेय
के आलोचनात्मक लेखन और खास तौर से उनके व्याख्यानों में निहित आवेग व संवेग कई बार
उनके सुन्दर-सुगठित गद्यात्मक वाक्य को कविता में बदल देता है. साहित्य-सृजन के
बुनियादी सौन्दर्यात्मक मूल्यों को अतिक्रान्तिकारिता के आवेश में नज़रअंदाज कर
अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने को आमादा बहुतेरे आलोचकों से नितांत भिन्न व
विपरीत वे एक तत्त्वाभिनिवेशी आलोचक की तरह इस आत्मघाती विभ्रम के दुष्परिणामों को
लेकर शुरू से ही सावधान रहे हैं. इसी वजह से उनकी आलोचना राजनीति शून्य कला और
केवल राजनीति से अभिप्रेरित कला जैसे दो अतिवादी छोरों के बीच की खाली जगह को भर
सकने में समर्थ है. हमारे समय के एक अन्य बड़े आलोचक नित्यानंद तिवारी की शब्दावली
उधार लेकर कहें तो पाण्डेय जी का आलोचना-कर्म ‘एक तरह की कला के विरुद्ध’ एक
मुनासिब सांस्कृतिक कार्रवाई है.
कहा जाता है कि
बरगद के विशालकाय वृक्ष के नीचे कोई अन्य पौधा कभी पनप नहीं सकता. एक लम्बे अरसे
तक नामवर सिंह के कनीय सहकर्मी और मित्र रहे मैनेजर पाण्डेय अपनी प्रकृति,
जीवन-व्यवहार और लेखन में नामवर सिंह से भिन्न अपनी स्वतंत्र पहचान रखने वाले
अकादमिक और संस्कृतिकर्मी हैं. उनकी आलोचना पर आचार्य रामचंद्र शुक्ल तथा गजानन
माधव मुक्तिबोध का प्रभाव लक्षित किया जा सकता है. दूसरे शब्दों में मैनेजर
पाण्डेय की अनुभूति की संरचना अपने आप में अनोखी है. बड़े आलोचकों को पढ़ते हुए उनसे
सीखना, सहमत-असहमत होना और अंतत: दो टूक शब्दों में अपनी राय रखने में उन्हें कोई
हिचक नहीं होती.
रौल्फ फॉक्स ने
‘गद्य की विलुप्त होती कला’ पर विचार करते हुए लिखा है कि
“ज़बरदस्ती किसी
शैली की रचना करने के प्रयत्न से अधिक झुंझलाहट पैदा करने वाली चीज़ और कोई नहीं हो
सकती. किन्तु, दुर्भाग्य
वश, यह मानना पड़ेगा कि ऐसे समय जब विचार कठिन, दुखद या अरुचिकर हो जाता है, तब बनावटी
शैली के प्राधान्य प्राप्त करने की संभावना भी ज्यादा रहती है.”
(‘उपन्यास और
लोकजीवन’,अनुवाद: नरोत्तम नागर)
उपर्युक्त सन्दर्भ
में ‘आलोचना-59’ के नामवर सिंह द्वारा लिखित सम्पादकीय पर मैनेजर पाण्डेय की
टिप्पणी बहुत महत्त्वपूर्ण है. उन्होंने विस्तार के साथ उदाहरण देकर बतलाया है कि
कैसे
“इस संपादकीय
में विचारशीलता से अधिक उत्तेजना की व्यंजना है. ...इसमें विशेषण संज्ञा के दुश्मन
बन गये हैं. कहा जाता है कि विशेषण भाषा
के दुश्मन होते है,
लेकिन यहाँ तो वे विचार के भी दुश्मन बन गये हैं. इस संपादकीय में शायद ही कोई ऐसी धारणात्मक
संज्ञा हो, जिसके
अर्थ को सीमित,
संकुचित या विकृत करता हुआ कोई न कोई विशेषण साथ न लगा हो. ’राजनीतिक समझ’ के साथ ’स्थूल’ लगा हुआ है तो ’लोकवादी रुझान’ के साथ ’अंध’. केवल ‘लेखक’ के
साथ लगभग एक दर्जन विशेषण हैं,
जैसे- जागरुक,
युवा, पराश्रयी, निष्ठावान, पिछलग्गू, अधकचरे, अनाड़ी, अनुवादक, अग्निवर्षी आदि.
इतने विशेषण के बाद किसी संज्ञा के
सुरक्षित बचने की कोई संभावना नहीं है. “
(आलोचना की सामाजिकता, पृ.63)
पहली बार सुधीश पचौरी द्वारा संपादित ‘नामवर के विमर्श’ पुस्तक में प्रकाशित मैनेजर पाण्डेय का निबन्ध नामवर सिंह के आलोचना साहित्य पर लिखित कुछ बेहतरीन निबन्धों में से एक है जिससे गुजरने के बाद नामवर जी के आलोचक-व्यक्तित्व के अनेक ऐसे पहलू सामने आते हैं जिनकी शिनाख्त उनके अंधभक्त कर ही नहीं सकते.
हिन्दी में आचार्य नलिन विलोचन शर्मा की ‘साहित्य का इतिहास दर्शन’ और नामवर जी की ‘इतिहास और आलोचना’ से लेकर छोटे-बड़े अनेक विद्वानों की इस विषय पर अच्छी-बुरी पुस्तकें मौजूद थी. इसकी प्रकार ‘साहित्य का समाजशास्त्र’ पर रामबाबू सक्सेना से लेकर अपने जमाने में महाप्रतापी कहे जानेवाले दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ.नगेन्द्र के साथ ही प्रोफ़ेसर निर्मला जैन और उनकी शिष्याओं द्वारा संपादित-अनूदित अनेक पुस्तकें पढ़ी-पढाई जाती थीं. पर ज्ञान के इन अंतरअनुशासनिक विषयों पर जिज्ञासु अध्यापकों एवं विद्यार्थियों के पास हिन्दी में कोई मुकम्मल किताब नहीं थी. चूँकि कुछेक अपवादों को छोडकर सामान्यत: हिन्दी क्षेत्र में हिन्दी साहित्य के छात्रों को अंग्रेज़ी की अच्छी पढ़ाई के लिए माहौल बहुत कम मिलता है, इसलिए वे इन विषयों पर मूलत: अंग्रेज़ी में लिखित या दुनिया की अन्य भाषाओं से अंग्रेज़ी में अनूदित उन सैकड़ों पुस्तकों से लाभ उठा पाने में समर्थ नहीं हो पाते जो कमोबेश हर बड़े विश्वविद्यालय के पुस्तकालयों में उपलब्ध हैं. मैनेजर पाण्डेय को इसके लिए साधुवाद दिया जाता है कि यह कमी उन्होंने अपने कठोर अकादमिक श्रम के साथ पूरी की. चूंकि ‘साहित्य और इतिहास दृष्टि’ पुस्तक प्रथमत: नामवर सिंह द्वारा सम्पादित ‘आलोचना’ में धारावाहिक छपी थी. इसलिए इस सन्दर्भ में बतौर सम्पादक नामवर जी भी धन्यवाद के पात्र हैं.
किन्तु, ‘साहित्य
और इतिहास दृष्टि’ तथा ‘साहित्य और समाजशास्त्रीय दृष्टि’ सरीखी इन ज़रूरी पुस्तकों
के लेखन और अनेक भारतीय विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों में एम.फिल और पी-एच.डी
के पाठ्यक्रम में शामिल ‘साहित्य का इतिहास दर्शन’ और ‘साहित्य का समाजशास्त्र’
जैसे पत्रों (कोर्सेज) के अध्ययन-अध्यापन के दौरान इन पुस्तकों की उपयोगिता और अपार
लोकप्रियता के कारण एक लम्बे अरसे तक हिन्दी में मैनेजर पाण्डेय की छवि
साहित्य-सिद्धांत के एक बड़े जानकार अकादमिक आलोचक की बनी गई. यह सुखद है कि
धीरे-धीरे जब प्रेमचंद, मुक्तिबोध, नागार्जुन, त्रिलोचन जैसे कुछ बड़े रचनाकारों पर
उनके महत्त्वपूर्ण निबंधों तथा अन्य पुस्तकों में संकलित सामग्री की ओर सुधी
पाठकों का ध्यान गया तो पता चला कि केवल सिद्धांत निरूपण के बजाय विभिन्न रचनाओं
की व्यावहारिक आलोचना के क्रम में वे सिद्धांतों का यथास्थान विवेकसम्मत विनियोग
करते रहे हैं. जिन महाकवि सूरदास को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जैसे बड़े समालोचक ने केवल
वात्सल्य और शृंगार के कवि के रूप में लगभग स्थापित करते हुए लिखा था; “'वात्सल्य' और 'शृंगार' के क्षेत्रों
का जितना अधिक उद्घाटन सूर ने अपनी बंद आँखों से किया, उतना किसी और कवि ने नहीं.
इन क्षेत्रों का कोना-कोना वे झाँक आए.” सूरदास की कविता में ‘किसान चेतना’ की खोज हिन्दी आलोचना में मैनेजर पाण्डेय का मौलिक योगदान है. उन्होंने सूरदास में केवल वात्सल्य और शृंगार ढूँढ़ने वालों को अपनी समाजशास्त्रीय दृष्टि के साथ ही कला-मर्मज्ञता के अनोखे मेल से निर्मित आलोचना-दृष्टि के तहत समझाया कि ‘सूर मूर अक्रूर लै गयो ब्याज निवेरत उधौ’ में मूलधन हैं कृष्ण और ब्याज है कृष्ण की स्मृति.
‘प्रगीत और
समाज’(लिरिक एंड सोसाइटी) निबन्ध में थियोडोर अडोर्नो ने लिखा है कि
“प्रगीत
तत्त्वत: सामाजिक होता है. प्रगीत की पुकार का मर्म वही समझ सकता है जो उसकी
आत्मपरकता में निहित मानवीयता की आवाज़ सुन पाता है.”
सूरदास के प्रगीतों में निहित सामाजिकता का उद्घाटन करने के बावजूद आलोचक मैनेजर पाण्डेय को इस बात का गहरा बोध है कि
“कविता सचमुच समाजशास्त्रीय आलोचना के लिए टेढ़ी खीर है. बड़ा से बड़ा साहित्यिक समाजशास्त्री भी कविता से मुठभेड़ से बचता है. क्योंकि ऐसी मुठभेड़ के दौरान कविता और समाजशास्त्रीय आलोचना में से कभी एक और कभी-कभी दोनों की दुर्गति होती दिखाई देती है.... प्राय: समाजशास्त्री रचनाओं के भीतर पैठकर उसकी आन्तरिकता को उजागर करने के बदले उस पर तरह-तरह के नामों का लेबल चिपकाने में लगे रहते हैं. यह पद्धति सबसे दयनीय और दर्दनाक तब हो जाती है जब वह कविता के सर्वाधिक कोमल और कलात्मक रूप प्रगीत पर लागू की जाती है. ख़ास तौर से जब प्रगीत की सामाजिकता की व्याख्या के नाम पर उसे कवि की सामाजिक दृष्टि का दृष्टांत मान लिया जाता है या आलोचक की सामाजिक मान्यताओं को सिद्ध करने का साधन बना दिया जाता है तब कविता के साथ अन्याय होता है.”
कवि त्रिलोचन का एक संग्रह ‘उस जनपद का कवि हूँ’ नाम से प्रकाशित है. मैनेजर पाण्डेय अपने जनपद के कवियों की सुध लेने वाले आलोचक के रूप में सामने आते हैं. इस सदर्भ में उनके द्वारा संपादित ‘सीवान की कविता’ की भूमिका बारम्बार पठनीय है जिसमें अपने अदेखे-अनजाने इलाके के अल्पख्यात अच्छे रचनाकारों की कविताओं का उन्होंने गहरा विवेचन-विश्लेषण प्रस्तुत किया है. वस्तुत: मैनेजर पाण्डेय की रचना-केन्द्रित व्यावहारिक आलोचना मुझे कई बार उन्हें शुद्ध सैद्धांतिक आलोचक या आलोचकों का आलोचक घोषित करनेवालों से यह कहती प्रतीत होती है:
मिरे नासेहा
मिरे नुक्ता-चीं तुझे मेरे दिल की ख़बर नहीं
मैं हरीफ़-ए-मस्लक-ए-बंदगी तुझे संग-ए-दर की तलाश है.
(नासेहा-उपदेशक, नुक्ता-चीं-आलोचक, हरीफ़-ए-मस्लक-ए-बंदगी-भक्तों की परम्परा का विरोधी, संग-ए-दर -दहलीज़ का पत्थर )
रवीन्द्रनाथ ने लिखा है कि विवेकानंद को सही
मायने में कोई विवेकानंद ही पूरी तरह समझ सकता है. इसी तर्ज़ पर कहा जा सकता है कि
मैनेजर पाण्डेय सरीखे बड़े आलोचकों का सम्यक मूल्यांकन उनके स्तर के ही किसी
विद्वान-आलोचक के वश का काम है. वजह यह कि यह कार्य विलक्षण प्रतिभा, गंभीर ज्ञान,
पर्याप्त समय, कठोर अकादमिक श्रम और अपार धैर्य की मांग करता है. हिन्दी आलोचना के
क्षेत्र में उनके अवदान पर ‘आलोचना का आत्मसंघर्ष’ (2011,वाणी
प्रकाशन, दिल्ली)
शीर्षक से एक संपादित पुस्तक उपलब्ध है जिसमें कुछ विद्वानों के मूल्यवान आलेख शामिल हैं. किन्तु, उसके बाद भी पाण्डेय जी निरंतर सक्रिय रहे हैं और इस बीच उनके बोले और लिखे को एक आलेख में समेटना आसान नहीं है. ऐसे में फैज़ अहमद फैज़ की याद न आए, यह मुमकिन नहीं:
उनसे जो कहने
गए थे ‘फैज़’ जां सदका किए
अनकही ही रह गई
वह बात सब बातों के बाद.
आज आदरणीय प्रोफ़ेसर मैनेजर पाण्डेय जी के जन्मदिवस के अवसर पर हिन्दी में पढ़ने-लिखने वालों की शुभकामना है कि वे आजीवन स्वस्थ-प्रसन्न और सक्रिय बने रहें तथा कम से कम शतायु हों -‘जीवेत शरद: शतम्’.
_______________________________
(रवि रंजन ) |
रवि रंजन
प्रोफ़ेसर एवं पूर्व अध्यक्ष,
हिन्दी विभाग,
मानविकी संकाय, हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय,
हैदराबाद-
500 046
ई.मेल : raviranjan_hcu@yahoo.com
मोबाइल: 9000606742
Swapnil Srivastava
जवाब देंहटाएंमैनेजर पांडेय नामवर सिंह के बाद के भरोसेमंद आलोचक है , उन्होंने नामवर आलोचना का विस्तार किया है । उनकी आधुनिक दृष्टि उनके लेखन में दिखाई देती है । रवि रंजन ने उनके बारे में विस्तार से लिखा और उनकी आलोचना के विविध स्थलों को छुआ है ।
रचनाकार जीवन और जगत को देखता है ;लेकिन आलोचक इसके साथ रचनाकार और रचना को भी देखता है .आलोचना मुश्किल -कार्य है ,किन्तु आलोचना की आलोचना कितना मुश्किल है ,इसे वही अनुभव कर सकता है ,जो इसे संभव करता है . मैनेजर पांडेय ने अपने आलोचना -कर्म से हिंदी -साहित्य को गति दी है . उन्हें समझने का विशद और औचित्यपूर्ण प्रयास इस निबंध में दिखता है . रविरंजन जी को इस ख़ूबसूरत और विद्वतापूर्ण निबंध के लिए बधाई .
जवाब देंहटाएंकवि पुरस्कृत हो रहे हैं और कविता तिरस्कृत ! प्रोफ़ेसर मैनेजर पांडे का यह एक वाक्य समकालीन हिंदी कविता की बेजोड़ आलोचना है । बहुत अध्यवसाय से लिखा गया आलेख । एक बार पढ़ गया लेकिन कुछ लिखने से पहले एक बार फिर पढ़ना होगा । बहरहाल प्रोफ़ेसर रविरंजन और समालोचन का आभार ।
जवाब देंहटाएंउम्मीद थी कि इस विशेष आयोजन के अवसर पर नया आलेख पढ़ने को मिलेगा. यह आलेख 'हिंदी समय' वेबसाइट पर बहुत पहले से उपलब्ध है और मैनेजर पांडेय के आलोचना कर्म पर केंद्रित 'आलोचना का आत्मसंघर्ष' (वाणी प्रकाशन, दिल्ली) पुस्तक के संपादकीय का एक अंश है.
जवाब देंहटाएंPankaj Parashar
धन्यवाद बन्धु ।
निवेदन है कि ध्यान से पढ़ने पर पता चलेगा कि इसे दुबारा लिखा गया है और बहुत सी बातें जोड़ी गई हैं।
आपके इस आलेख का मैं प्रशंसक हूँ और मैंने 'आलोचना का आत्मसंघर्ष' (वाणी प्रकाशन, दिल्ली) पुस्तक तभी ख़रीद ली थी, जब यह पुस्तक छपी थी. आप सुधी पाठक और बेहतरीन आलोचक हैं और आपको बारहा पढ़ने को जी चाहता है. हार्दिक साधुवाद.
हटाएं' साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका ' डॉ मैनेजर पाण्डेय जी की पुस्तक पढ़कर वर्गीय सोच और आलोचना की समझ को व्यापक दृष्टि मिली। ऐसे आलोचकों का अकाल पड़ने वाला है। नये लोग अपने-अपने पूर्वाग्रहों से संबद्ध दिखलाई पड़ते हैं। उनके जन्मदिन पर शतायु होने और निरंतर सृजनरत रहने की कामना करता हूं।
जवाब देंहटाएंआपसे सहमत हूँ।
हटाएंहमारे समय के सुधि आलोचक मैनेजर पांडेय के जन्मदिन पर इस शोधपरक आलेख के प्रस्तुतिकरण के लिए अरुण देव जी को साधुवाद।अक्सर देखा गया है कि किसी लेखक,रचनाकार,आलोचक के चले जाने के बाद उसके गुणों की परख की जाती है।मसलन वीरेंद्र चट्टोपाध्याय जैसे कवि,जिन्हें बहुत कम लोग जानते हैं।यदि रचनाकार के जीवन काल मे उसे समुचित सम्मान देने की प्रवृत्ति हो तो उसकी रचनात्मक वयस में संभवतःवृद्धि होगी ।मैनेजर पांडेय एक मननशील प्राध्यापक और आलोचक हैं जिनपर बार बार लिखा -गुना जाना चाहिए और बारंबार उसे पढ़ा भी जाना चाहिए।प्रोफेसर रविरंजन जी को सार्थक आलेख के लिए बधाई।
जवाब देंहटाएंजितना गंभीर पाण्डेय सर का आलोचना कार्य है ,उतनी ही गंभीरता से लिखा गया यह आलेख है।
जवाब देंहटाएंइस आलेख की विशेषता यह है कि आलोचना जैसे गूढ़ व रूक्ष विषय पर आधारित होने के बावजूद भी यह अत्यंत सरस है। 'अरथ अमित अति आखर थोरे।' आदरणीय रवि रंजन सर तथा अरूण देव सर को हार्दिक धन्यवाद।
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 24.9.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
श्री मैनेजर पाण्डेय के कृतित्व,व्यक्तित्व और आलोचना के क्षेत्र में उनके अवदान को काफी विस्तार से श्री रवि रंजन ने भारतीय और पाश्चात्य साहित्य के आलोचकों का संदर्भ देकर रेखांकित किया है । मुझे लगता है कि पाण्डेय जी की आलोचना दृष्टि मनुष्य की मुक्ति और उसके आत्मसंघर्ष में अपनी सार्थकता खोजती,रचना और उसकी अंतर्वस्तु से एक निरंतर संवाद है । नामवर सिंह का कथन सही है कि रचना कोई जड़ वस्तु नहीं है बल्कि रचनाकार,आलोचक और पाठक तीनों अपने तरीकों से उसमें खाद-पानी देकर उसकी उपज बढ़ा सकते हैं और इसी से वह प्रासंगिक बनी रहती है ।
जवाब देंहटाएंरविरंजन ने पाण्डेय जी के आलोचकीय अवदान को कई कोणों से संदर्भित किया है। उनके लेखन में हिन्दीतर सिद्धान्त, अवधारणाएं और स्थापनाएं देशज प्रासंगिकता अर्जित कर लेती हैं। निश्चय उनके अवदान पर और काम की जरूरत है। समालोचन उन्हें आलोकित करने का जरूरी उपक्रम कर रहा है।
जवाब देंहटाएंव्यवस्थित,सारगर्भित और ज्ञानपरक भी ।
जवाब देंहटाएंइस आलेख के आरम्भ में वामिक जौनपुरी की एक काव्यपंक्ति उद्धृत है:
जवाब देंहटाएं'मुझे नाज़ है कि ये दीदावर मिरी उम्रभर की तलाश है।'
अब तक देश और दुनिया के जिन महत्त्वपूर्ण और जिंदादिल विद्वानों से मिलना हुआ है,उनमें आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री एवं प्रोफेसर जी.हरगोपाल के अलावा प्रोफेसर मैनेजर पांडेय को पढ़ते और सुनते हुए बहुत कुछ नया सीखने को मिलता रहा है।
लगभग एक दशक पूर्व मैनेजर पांडेय के अवदान पर केंद्रित एक राष्ट्रीय संगोष्ठी में प्रस्तुत प्रपत्रों को 'आलोचना का आत्मसंघर्ष' शीर्षक से पुस्तकाकार प्रकाशित करवाने के क्रम में लिखित पांच-सात पृष्ठों के सम्पादकीय को यहां लगभग अठारह पृष्ठों में विस्तार से दोबारा लिखा गया है।
जिन विद्वान-मित्रों ने इसे पढ़कर टिप्पणी लिखी,उन सबको साधुवाद।
रवि रंजन मैनेजर पांडेय की आलोचना-दृष्टि के कायल ही नहीं बल्कि गंभीर अध्येता रहे हैं और उन पर सोचते- विचारते रहे हैं। मैनेजर पांडेय पर इनकी संपादित पुस्तक पांडेय जी की आलोचना को जानने- समझने की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। उक्त आलेख में रवि जी ने हिन्दी आलोचना के परिदृश्य को संक्षेप में स्पष्ट करते हुए पांडेय जी की आलोचना को एक जरूरी और वैचारिक सर्जनात्मक हस्तक्षेप के रूप में देखने की कोशिश की है। उन्होंने पांडेय जी की आलोचना की कई विलक्षणताओं और विशेषताओं की ओर भी संकेत किया है, जो गौर-तलब है। बहुत बहुत बधाई।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंमैनेजर पांडेय जी के आलोचना कर्म के विभिन्न पहलुओं से आलेख अवगत कराता है। इस शानदार आलेख के लिए रवि रंजन सर का हार्दिक आभार ।
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