कलकत्ता - कुछ कविताएँ : अंचित



(Photo Credit: Sagar Lahiri)


समालोचन पर आप अंचित को पढ़ चुके हैं, कोलकाता पर केन्द्रित इन सात कविताओं के साथ वह फिर आपके समक्ष हैं. इन कविताओं में शहर तो है ही अपने अतीत और वर्तमान में एक साथ अपनी ही छाया में हिलता हुआ, एक नर्म धड़कता दिल भी है जो किसी चेतना पारीक के विरह में है.

सुंदर और मार्मिक कविताएँ. 

कलकत्ता                            

कुछ कविताएँ : अंचित




हावड़ा जक्शन

इस शहर में कोई अगर
मुझसे तुम्हारे बारे में पूछेगा तो
मैं क्या जवाब दूँगा?

कलकत्ता एक बार लगता है कि थोड़ा भी नहीं बदला,
और देखो ध्यान से तो लगेगा सब कुछ बदल गया.
मेरी बाँहों पर सिगरेट के जले के दाग महीन हो गए,
और मैंने सोचा था इससे ज़्यादा दर्द तुम दे नहीं पाओगी.

कलकत्ता रबर से पोंछ कर मिटा दिया गया-
कोई स्मृति नहीं मेरे बटुए में अब.

कई कवियों की पूर्व-स्मृतियों की तरह धूमिल है सब,
भाषा में तत्सम शब्दों की तरह ही याद हूँ तुम्हें ,
यही दिलासा कि ताउम्र एक ही नदी के दो नामों की तरह रहेंगे -

कवितायें, भूल जाने का रिकार्ड भर हैं.
जैसे मुझे अब बांग्ला नहीं आती, जैसे नीरा नाम
से मेरा कोई राब्‍ता नहीं, जैसे अब एक ही लाल शाल
बची है हम दोनों को मिला कर.

मेरा एक दोस्त बैरकपुर के लिए ट्रेन पकड़ता है
और मैं सोचता हूँ अब मुझे कविता लिखना छोड़
देना चाहिए.



कलकत्ता अगर मुझे दूर ही करना है - आख़िरी ख़त
(शीर्षक प्रीतिश नंदी की कविता से प्रेरित)

दो चार दिनों में शाम की आड़ में
कुहरे का बाज़ार चल निकलेगा और
मुझे आम के बग़ीचे याद आएँगे.
कविता से कुछ नहीं होता-
मैं बार बार पोखरे के किनारे चीख़ूँगा और
बार बार तुम्हारे नर्म गरम हाथों से
ठुकरा दिया जाऊँगा.

इधर गंगा रूठेगी उधर बेलूर का अँधेरा पुकारने लगेगा

प्यार से कुछ नहीं होता,
मैं फुसफुसाऊँगा बंगाली उपन्यासों की
नायिकाओं के कानों में
और उनके लिए अपना समस्त जीवन
तबाह कर दूँगा, उनसे जुड़ी सब किंवदन्तियाँ
मेरी देह में पैबस्त हो जाएँगी.

एक बार तो लौटूँगा पूरब -
जब जब बढ़ेगी ठंड क्योंकि

महज़ ठुकरा दिया जाना भी
सम्बंध की सहमति को ज़िंदा रखेगा.


(Photo Credit: Ronodip Kar)


चेतना पारीक की मृत्यु कामना

मर जाओ मर जाओ मर जाओ
अब तो मर जाओ चेतना पारीक़.

तुमको नींद से भरी ठंडी सर्द रातों
की क़सम का वास्ता,
तुमको पुरानी गलियों की बंद लम्बी
खिड़कियों का वास्ता.

मैं कब तक आऊँगा कलकत्ता और
बिना मिले लौट जाऊँगा,
मैं कब तक तुम्हारे बेतक्कलुफ दिल से
आस लगाए बैठा रहूँगा.

पोखरों में मछलियाँ अभी भी तुम्हारा इंतज़ार करती हैं .
नयी तितलियाँ कितनी आसानी से अब भी तुम्हारा
ऐतबार करती हैं .

मर गये कितने कवि तुम्हारे प्यार के 
चक्कर में चेतना पारीक़ -
तुम उनसे कविता में पूरी ना हुई .

कितने पागल हो गए, कितने प्रेमी
कितने खुदा - तुमने किसी को
आदमी नहीं छोड़ा.

मैं तुमसे प्रेम चाहता था चेतना पारीक़
तुम मुझसे कविताएँ चाहती थी.

हम कितने अधूरे रहे -
अपने अधूरेपन में मर जाओ,
अपनी मोहब्बत में मर जाओ,
किसी कविता में मर जाओ चेतना पारीक़,
मेरी याद में मर जाओ .



इच्छाओं के बारे में

तुम नहीं जानते क्या चाहिए मुझे -
कितनी आकाशगंगाएँ कितने सूरजमुखी !

जहाँ फ़्लाइओवर शुरू होता है,
वहाँ लगीं पीली लाईटों सी अकेली हो जाती है उदासी मेरे भीतर.

यक्ष-प्रिया के पास जैसे हृदय में कामनाएँ हैं -
पूर्ण संवाद की अस्पष्ट ध्वनियाँ पहुँचती हैं तुम्हारे पास. 

कलकत्ते की दोपहर जितनी उमस हमें खायी जाती है और
हम जब भी कविता में होते हैं इंतज़ार में या विरह में.

हम खेलते हैं हिंसा से प्रेम करते हुएनीला मेघ बने ,
आसमान बने, बरसते हुए पर्वतों पर,  शहर पर स्वप्न की तरह.



बेलूर मठ

दुख धँसा रहता है
माँस के भीतर हड्डियों को पकड़े
चिपटा हुआ देह से,
वही आत्मा की ज्योत है मेरे भीतर -
जीवन की किताब से अचानक ही
उड़ जा सकती हैं पूरी पूरी पंक्तियाँ.
थके हुए दिनों में जब कोई कविता घर नहीं आती
जब हर उजास ख़्वाब बीत चुके की मलिन छाया में मैला हो जाता है,
दोपहर और साँझ के बीच झिलमिलाते अंधेरे में
मेरे घुटने कांपते हैं. 

हम एक साथ पुरानी दिल्ली जाना चाहते थे,
लड़ना चाहते थे इतिहास के हत्यारों से,
और उस तरह रहना चाहते थे जैसे पहाड़ के
साथ शांति रहती है ठंड के मौसम में.

हर कविता के अंत में यही सोचता हूँ -
कलकत्ता बीत गया जैसे
पटना बीत जाएगा वैसे ही.
जिस तरह याद आती है दिल्ली
वैसे ही याद आता रहेगा.





(Photo Credit: Maciej Dakowicz)




सोनपुर लौटते हुए

जीवन चलता जाता है नदी और दीयरे के बीच,
उजास रातों में तुमसे प्रेम करने की इच्छा रखते हुए
कपास के खेतों के पास तैर रहा हूँ बेपरवाह और रात उजली है.

मेरी बंगाली नाटकों की नायिका
तुम बनलता सेन नहीं हो,
तुम चेतना पारीक नहीं हो,
कलकत्ता नहीं है कहीं भी पसरा हुआ आसपास तुम्हारे.
शान्तिनिकेतन के जंगल अपनी गंध से अघाते हुए
अब नहीं खींचते मुझसे.

फिर भी तुम याद आती हो
तुम्हारी आवाजों की वेवलेंथ अभी भी सेट है दिल में. 
तुमसे प्रेम करने की इच्छा रखते हुए बह रहा हूँ
जो थोड़ा बहाव है, क्षीण होता हुआ,
जो थोड़ा पानी है, बाकी गंध भुला दे रहा है. 
और मेरा नाविक मुझे इसी प्रेम की दुहाई देते हुए लौट चलने को कहता है.
 
रात ज्यादा है, सोनपुर दूर है, सुबह काम पर जाना है.
 
मैं प्रेम के योग्य नहीं हूँ,
और घर इंतज़ार करता है.

फिर भी खींच रही है नदी तुम्हारी ओर
सारा पानी बह रहा है तुम्हारी ओर

एक उजास रात है और जीवन चलता जा रहा है.


कलकत्ता आख़िरी कविता

जब अपने शहर में कोई द्वार नहीं खुलता
लम्बी खिड़कियों से झाँकती पूर्व प्रेयसी
याद आती है

उसका शहर ऐसा है कि डँस लेता है.
ज्ञानेंद्रपति को वहीं अमरता का श्राप लगा
स्वदेश दीपक वहाँ से कभी लौटे ही नहीं

लालसा और प्रेम के बीच झूलता हुआ कलकत्ता
मौसमों के बीच- ना सर्द ना गर्म, कम्बल से भारी देह
और ललाट पर बार बार फूटता पसीना

हत्याओं का पर्व मना रहे देश के लोगों, कहते हैं,
कोई प्रेमी मरता है तो एक बार मृतात्मा
कलकत्ता ज़रूर जाती है

मैं संगीत नहीं समझता पर स्वर की उच्चतम सीढ़ी पर
मद्धिम रोशनी में पूर्व प्रेयसी की हिलती हुई नंगी पीठ,
ज़राशुँको के एक पुराने लाल दीवारों वाले मकान ने छुपा रखी है

बहुत पहले वहीं एक तंत्रपीठ की एक भैरवी ने
मुझसे कहा था कि देश डूबाने वाले बनारस से चुनाव लड़ेगा
और पाँच साल बीतते बीतते हम सब हिंसक हो जाएँगे

यह हिंदी कविता का दुर्भाग्य और दबाव दोनों है, जहाँ संकेत अपराध हैं,
जहाँ कठिन नहीं हुआ जा सकता, जहाँ खेल गम्भीर नहीं होते,
और मैं वाहवाही के ढाँचे में ख़ुद को भर नहीं पा रहा.

मैं प्रसाद के उपन्यासों वाला जल-दस्यु बनना चाहता था
जो बनारस और कलकत्ते के बीच रहने वाली और अधेड़ पतियों के भार से दबी
औरतों के सपने में आता.

ये आकांक्षाएँ माँस से लिपटी हुई हैं
मैं भूल जाना चाहता हूँ लालसा और प्रेम के घाट
और बीच में बहता गंगा का पानी

मुझे शिष्टाचार से घिन्न होने लगी है
और मेरा पागलपन मुझसे बार बार मद्धिम रौशनी वाले
कमरों में क़ैद हो जाने को कहता है

प्रेयसी की पसीने से भींगी अनावृत उज्जवल पीठ के
बिना राजनीति और कविता का कोई मतलब नहीं है-
यह वाक्य भी मैंने कलकत्ता में पढ़ा था

कलकत्ता हिंदी के कवियों का मुर्दाघर है,
मैंने सुना, लेकिन मेरे पास ना कविता है
ना हिंदी,  इसीलिए वहाँ मेरी लालसा अतृप्त
बिचर रही है

ऊँचीं छतों वाले पुराने मकान, सबसे ज़्यादा परिचित देह गंध
और गीले चुंबनों का बिम्ब है कलकत्ता
और इसीलिए भी

यह आख़िरी कविता है
जो हुगली के पुराने घाटों
और उसके पुराने स्टीमरों के लिए लिखी जाएगी-

जितने नायक थे सब कविता में थे
जितने ईश्वर थे सब भाषा में थे 
जितने कवि थे सब सभाओं में थे

इसीलिए मैं अकेला रहा
और सोचता रहा कलकत्ता.


________________
अंचित

कविताएँ लिखता हूँ. कई पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित. कविताओं के तीन संग्रह प्रकाशित हैं. शहर पढ़ते हुए” , पिछले कविता-संग्रह का नाम है. निफ़्ट, पटना में पढ़ाता हूँ. ऑक्स्फ़र्ड यूनिवर्सिटी प्रेस के साथ अनुवादक के रूप में जुड़ा हुआ है.
पटना यूनिवर्सिटी से अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. किया है. पटना में रहता हूँ.
जन्म - 27.01.1990
ईमेल - anchitthepoet@gmail.com

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  1. जिन्होंने कोलकाता और बंगाल के तमाम अंचलों को निकट से देखा समझा है वे जान सकेंगे कि अंचित की इन कविताओं के संश्लिष्ठ से बिम्ब कितने पारदर्शी और अनूठे हैं। हालाँकि कोलकाता को आविष्कृत करने के लिए अंचित को अभी और भी कविताएँ लिखनी होंगी। इन ख़ूबसूरत कविताओं के लिए बधाई।

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  2. तेजी ग्रोवर19 अप्रैल 2019, 10:30:00 am

    कविताएँ अच्छी तो हैं, लेकिन जो आवाज़ इनमें है, उसे कुछ नवीनता की दरकार अभी है। पढ़ ते हुए कुछ अन्य कवियों का लहजा और आवाज़ आने लगती है। यह कोई बुरी बात भी नहीं, लेकिन आवाज़ अर्जित करना भी कवि ही का काम है। इतनी प्रतिभा जो इन कविताओं में चमक रही है, उसी की ख़ातिर यह एक विनम्र सी बात रख रही हूँ कवियों के सोचने लायक।

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  3. अमिताभ चौधरी19 अप्रैल 2019, 10:31:00 am

    अंचित की कविताएँ दृश्य रचती हैं और यह दृश्य जीवंत हैं। जिन्होंने कलकत्ता नहीं देखा है वह इन दृश्यों के बीच घूम रहे हैं।
    जिन्होंने देखा है, वह इसे फिर से देख रहे हैं।..

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  4. अंचित, आज भी और आज के बाद भी पढूंगी इन कविताओं को। बहुत कुछ है यहां, कवियों के सीखने लायक। पहली नज़र में इतने पैशन के चलते ठीक से पढ़ा भी तो नहीं जाता। उम्मीद है आप मेरी बात का बुरा कतई नहीं मानेंगे। मेरी पीढ़ी के कई कवियों ने अग्रजों की कही बातों से ही बहुत कुछ सीखा था। लेकिन अफ़सोस कविता ऐसी कला नहीं है जो एक बार सीखने पर आपका साथ नहीं छोड़ती। मुझे हर बार कविता को लिखना एकदम नए सिरे से करना पड़ता है। पहले वाला सिरा मालूम नहीं कहाँ छूट जाता है।

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  5. अंचित को बहुत पहले से देखता पढ़ता रहा हूँ.इन कविताओं से गुजरते हुए उनमे एक उत्तरोतर विकास देख रहा हूँ.अंचित अब एक समर्थ कवि के रूप में हम सबके सामने हैं.शुभकामनायें.

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  6. बहुत ही दमदार अभिव्यक्ति इतनी गहराई से किसी एक शहर पर उस का अवलोकन किये बिना कोई नही समझ पायेगा कुछ या बहुत कुछ इस शहर में खोया होगा जो आत्म वंचना बन मुखर हुवा।
    अप्रतिम अनुपम।
    भाभाषा में शांति निकेतन या फिर कविंद्र रविंद्र ठाकुर झांक रहे हैं।

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  7. अच्छी कविताएं है।।
    बधाई।।।।बहुत कुछ ग्राह्य है इनमें।।

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  8. अंचित, एक बार कोलकाता नहीं जा पाने की कसक मन में भरो, देखो कितनी कविताएं उभर आती हैं। मैं तुम्हारे कोलकाता से स्पंदित हूँ, कोलकाता मेरे लिए शहर कम एक जीव अधिक महसूस होता है क्योंकि कोलकाता की चुप्पी, शोर, पीड़ा,रुदन सबकुछ महसूस की जा सकती है-अद्भुत है न। पता नहीं कितने हज़ार लोगों के मन और कलम से निकली है ये कोलकाता-सबों के कोलकाता से अनुभूत हुआ जा सकता है, जिसने भी कोलकाता को एक बार मन की आंखों से देखा है।

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