फ़ेलिक्स डिसोज़ा की कविताएँ (अनुवाद- भारतभूषण तिवारी)












मराठी के समकालीन कवि फ़ेलिक्स डिसोज़ा के दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. उन्होंने कुछ नाटकों और नुक्कड़ नाटकों का भी निर्देशन किया है. उन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है. उनकी कुछ कविताओं का मराठी से हिंदी अनुवाद भारतभूषण तिवारी ने किया है.


ये कविताएँ वर्तमान संत्रास और असुरक्षा को न केवल अभिव्यक्त करतीं हैं बल्कि प्रतिपक्ष भी सृजित करती हैं. ये एकदम आज की कविताएँ हैं. 

इन कविताओं के साथ मराठी के ही कवि-आलोचक. चित्रकार गणेश विसपुते की यह टिप्पणी भी ख़ास तौर से आपके लिए.




"फ़ेलिक्स डिसोज़ा मुंबई के नजदीक वसई इलाके से आते हैं. उनके समूह की भाषा मराठी की एक लुप्त होती जा रही बोली है. जिसका नाम ‘सामवेदी’ बोली है. शायद इसलिए भी भाषा उनकी कविताओं में प्रमुख आस्था का विषय रही है. उनकी एक कविता में बूढ़ी दादी का जिक्र है, विस्मृति की वजह से दादी के साथ ही उनकी भाषा भी मर रही है. भाषा का रूपक फ़ेलिक्स समकालीन संदर्भ से भी खूब जोड़ते हैं, जहां सच कहने की परिभाषा ही बदली जा रही हो, या बचपन में  सुने हुए उस मांत्रिक के मंत्रोच्चारण को याद करते हुए वह कहते हैं कि उस मंत्रोच्चारण का अर्थ यदि पता होता, तो वे मंत्र पढ़कर अपने देश पर आई विपत्ति को टाल देते.
विज्ञापनों और स्पेक्टॅकल्स से सजी हुई उपभोक्तावादी दुनिया में यह जानते हुए भी कि सिर्फ देखना, चखना प्रमुख होकर रह गया है और कविता को सुनने और पढ़ने की संभावना बची नहीं है, वे बलपूर्वक कहते हैं कि
“आप अगर कलाकार हैं तो कह उठेंगे, यह वाक्य, जो आपके लिए बेहद ज़रूरी है- “मुझे कहना है कुछ”.
आज के दहशतज़दा माहौल में जहां डरा-डरा कर चुप रहने की ताकीद दी जा रही है, वहीं यह कवि बोलने की आवश्यक ज़रूरत पर अपना ध्यान खींचता है.  और सिर्फ बोलना ही नहीं, प्रश्न पूछते रहने की आवश्यकता को भी रेखांकित करता है.

फ़ेलिक्स डिसोज़ा बहुत ही महत्त्वपूर्ण कविता लिखने वाले मराठी के युवा कवि है. उनकी कविताओं में अपनी बोली की परंपरा से प्राप्त जीवन्त रस है. सामवेदी बोली में स्त्रियां मरने वाले व्यक्ति के शोक में जो मर्सिए (वर्णुका) गाती थीं, उन शोक गीतों को, मिथकों को भी फ़ेलिक्स ने पुनर्जीवित किया है. यह एक तरह से भाषा के साथ-साथ मनुष्यता को बचाने का भी प्रयास है .

फ़ेलिक्स की कविताओं का स्वर मद्धिम है, तीव्र स्वर में यह कविता बोलती नहीं है. लेकिन जिस तीव्रता से वे समकालीन वर्तमान में साधारण आदमी की पीड़ा का बखान करते हैं, लगता हैं, यह कोई बहुत ही समझदार मगर हताश हुए संवेदनशील व्यक्ति का स्वगत हो. लुप्त हो रही लोकजीवन की शैली, बोलियाँ, लुप्त होती भाषाओं के दुख से, समकालीन आक्रामक विज्ञापनों से भरपूर दुनिया के आघातों से आहत संवेदनशील व्यक्ति का एकालाप.


एक भले और साधारण नागरिक के अच्छाई की लकीर की  तुलना में तानाशाहों की लम्बी होती जाती लकीर उसके स्वतंत्रता की संभावनाओं को नष्ट कर रही है. और वहीं यह कवि दृढता पूर्वक अच्छाई के पक्ष में बोलते रहने और सवाल पूछते रहने पर आग्रह कर रहा है, जो किसी भी सच्चे कवि का आवश्यक कर्म है."
गणेश विसपुते
  




फ़ेलिक्स डिसोज़ा की कविताएँ                       
मराठी से हिंदी अनुवाद भारतभूषण तिवारी




मुझे कहना है कुछ


1)

कोई खींचता आ रहा है लम्बी लकीर
जिसके आगे अनेक लकीरें होती जाती हैं छोटी, और छोटी
और कुछ तो हमेशा के लिए दिखाई देना बंद कर देती हैं

यह लम्बी, और लम्बी होती जाने वाली लकीर
हो सकती है एक मर्यादा
जिसकी वजह से पार नहीं की जा सकती कोई भी 
दहलीज
यह लकीर यानि हो सकती है एक
लक्ष्मण रेखा
सुरक्षित परतंत्रता लागू करने वाली.



2)

आप इस आज़ाद देश के नागरिक हैं
और आप के चेहरे का भोलापन
उन्हें चाहिए विज्ञापन के पहले पृष्ठ पर
जिसमें उनके लिए संभव है छुपाना
क्रूरता, हिंसा और पराजय

बहुत देर बाद
यानि जब आप सच-सच बोलना चाहते हैं
तब समझ में आने लगता है
भाषा में कोई अर्थ नहीं बचा आपकी दबी हुई आवाज़ के लिए
आपकी वेदना के उच्चारण में दिखलाए जाते हैं
देशद्रोही स्वर

 वैसे तो बारिश को बारिश कहने की परम्परा
उन्होंने रोक दी है
और आप बादलों  से भरे आसमान में
तारे देखने का नाटक हूबहू करने लगते हैं.


3) 

मांत्रिकों की ऐसी अनेक कहानियाँ
मशहूर हैं इस देश में
जिन्हें हम इतिहास के तौर पर सुनते आए हैं
बचपन से

जिनके महज मंत्रोच्चारण से भी
खतरनाक विपत्ति टल जाने की अनेक कहानियों से
हमें वाक़िफ़ करवाया गया होता है

हमें नहीं पता होता मंत्रोच्चारण का अर्थ
वह पता होता तो चूल्हे पर कंडे जलाते हुए
टाली जा सकती थी इस देश पर 
मांत्रिकों के रूप में आई यह विपत्ति

देश की यह घटना सुनाई जाएगी
जब किसी कहानी की तरह तब बताया जाएगा
कि कैसी दुर्गति पा गया था यह देश
और महज मंत्रोच्चारण से भी
कैसे बदल डाली एक मांत्रिक ने इस देश की नियति

तब आपके कानों में सुनाई पड़ने लगेंगे देशाभिमान 
के सुमधुर गीत मन्त्रों की तरह 
जब आप में नहीं बचेगी बिलकुल भी   
आपकी कोई भी आज़ादी.



4) 

आप अगर कलाकार हैं तो कह उठेंगे
यह वाक्य जो आपके लिए बेहद ज़रूरी है

मुझे कहना है कुछ… 

इस वाक्य के बाद आपको अचानक याद आएगा
उनके लिए कितना निरापद है आपका कहना
और आपकी समझ में आएगा
कि आप कैसे अब तक ज़िन्दा हैं
और अब तक कैसे बची है ज़िन्दा रहने की आज़ादी

आप कवि हैं
और आप कहने  लगते हैं 
भाषा से प्यार करना
आपका अधिकार है… 

आप अधिकार के बारे में बोलने लगते हैं

और निकाल लिए जाते हैं भाषा के कवच-कुण्डल
बतलाया जाता है
अब के बाद नहीं बना सकता कवि नई भाषा

आपके सामने अचानक रखा जाता है
नई-नवेली सुन्दर
भाषा का नया सौन्दर्य कोश
और बार-बार बतलाया जाता है

कविता लिखने की आज़ादी अब भी है बरकरार
आप लिख सकते हैं सुन्दर-सुन्दर कविताएँ.




लौटना

दूर जाने वाले किसी अपने से
हम पूछते हैं उसके लौटने का वक़्त
लौटना एक ऐसी संभावना है
जिससे जुड़ी है आशा और आनंद
जिसमें बाकी है प्रेम
और जिसमें अब भी यादें भर-भर आती हैं

कभी-कभी हम जाते हुए इतनी जल्दी में होते हैं
कि भूल जाते हैं कि किस विशिष्ट रास्ते से
लौटना है या भूल जाते हैं कि हमें लौटना है
अपने मूल स्थान पर अपनी जड़ें खोजते हुए

कुछ लोग तो सपनों का पीछा करते हुए थक जाते हैं
और जब लौटना यह एकमात्र विकल्प उनके सामने होता है
तब
खाली हाथ लौटते हुए बेहद शर्मिंदा होते हैं
उनकी गिनती हमेशा गुमशुदाओं में की जाती है

कुछ लोग तो वापसी के सफ़र में होते हैं
मगर पहुँच नहीं सकते राह देखने वाले की नज़र में
उन्हें बुलावा आया होता है
असमय रुका हुआ होता है उनका लौटना

कुछ के अनुसार
उनकी वापसी का सफ़र हो जाता है शुरू 
और जिस दिशा में वे निकल गए थे
उसकी विपरीत दिशा से
उन्हें बुलाने वाली आँसुओं की और हिचकियों की
आवाज़ आती रहती है
कुछ लोग तो लौटने को
एक पद्धति मानते हैं
तयशुदा होते हैं लौटने के नियम
अँधेरा होने  से पहले
या सुबह होने से पूर्व...

आजकल लौटना इस सम्भावना के इर्द-गिर्द जमने 
लगा है पल-पल बढ़ता जाने वाला डर
यहाँ तक कि राह देखने वालों के मन में
लौटने वाला सही-सलामत लौट आएगा इस ख़याल की बजाय
मन में आने लगते है कितने ही डरावने ख़याल
जिनकी संभावना अधिक है इन दिनों

लौटना यह इतना अनिश्चित है कि
कल सवा आठ बजे लौटा हुआ आज सवा आठ पर
ही लौटेगा ऐसा नहीं है और
समय पर लौटना कितना ज़रूरी है
राह देखने वालों के लिए और
राह देखना लौटने वालों के लिए

जब हम समय पर नहीं पहुँच पाते
तब लौटना हमें ख़ुशी नहीं दे पाता
जैसे
नींद से लड़ते हुए पिता की राह देखने वाली लड़की
राह देखते-देखते सो जाती है
तब कितना दयनीय होता है पिता का लौटना
जो राह देखते-देखते
थक कर सो चुकी लड़की की
नींद में लौट नहीं सकता.





आप, हम और हमारे गीत

अँधेरा होने को है
फिर भी आप इतने बेख़ौफ़
मानों वाक़िफ़ हैं आप 
इस फैलते अँधेरे के राज से

आप उजाले में खड़े होकर
अँधरे में काली पड़ती जाती 
आँखों में गिन रहे हैं
थरथराता डर

उजाले का आधार लेकर आप करते रहे
अपनी राक्षसी परछाइयों को और भी लम्बा

भगवान को प्रसन्न  करने हेतु आपने 
दी एक ज़िंदा आदमी की बलि
अपना माथा धोने के लिए आपने
निकाल लिए एक असहाय औरत के गीले वस्त्र
आग के हवाले कर दीं आपने छोटे बच्चों की कोमल चीखें
फिर भी आप बे-ख़ौफ़
और कहते हैं कहाँ है चीख
हिंसा कहाँ है
आप जिस हिंसा की बात करते हैं
वह हमारे गाँव में हैं नहीं
और अब ज़्यादा बोले तो... 
तो चुप बैठिए और देखिए
सुनाई पड़ती है या नहीं कोई चीख
इतनी चतुराई आप में कहाँ से आती है
कहाँ से आती है उन्माद फैलाने की यह जल्दी

आपके डरावने क़दमों  की आवाज़ से
विध्वंसक स्वप्न फड़फड़ा रहा है यहाँ के
भविष्य पर
इस बर्फ़ पर सफ़ेद कपड़े में सुलाए गए
ये बच्चे जो जीवित नहीं दिखाकर
आप कहते हैं चुप बैठिए
और कहते हैं कवि आप
अपने कोमल अंतःकरण से लिखें
राज्य के गौरव गीत
बदले में हम आपको देंगे भरपूर मानधन
और मुहैया करवाएंगे राजाश्रय

मगर आपके झूठेपन और प्रलोभन के
षडयंत्र में हमारे गीत धोखा नहीं करेंगे
समय की सदाएँ सुनने का यही तो वक़्त है
दरवाज़ा खोलने से पहले ही अंदर घुस आने वाले
डर से बिना डरे
कविता के दरवाज़े पूरी तरह खुले रखने होंगे
और कवियों के ह्रदय भी
इस फैलते जाते डर को लौटाने के लिए.



छह-सात बातें

1)
जो आपको और मुझे भी पता है
और हमें पता है
कितना ज़रूरी है उसे चीख-चीख कर बताना

फिर भी हम बता नहीं सकते किसी को

हम आपस में सरगोशियाँ करते हैं बस
कहते हैं
कि बेहद ख़राब है ज़माना
और उस से भी ख़राब है इन दिनों ज़िंदा रहना.


2)

इस बात के बारे में मैं आपको
कुछ भी नहीं बताऊँगा
क्योंकि गोपनीयता इस बात की असली ज़रूरत है
और फिर
आप अपने ख़ास हैं
इसलिए आपसे कहता हूँ

आप किसी से कहेंगे नहीं इस शर्त पर
इसी शर्त पर मुझे बतलाई गई है
यह बात.



3) 

यह असल में अफ़वाह है
और फैलते जाना
यही उसके अफ़वाह होने का
सुबूत है
और ज़्यादातर
जब फैलाई जाती है अफ़वाह
तब वह अफ़वाह की तरह नहीं फैलाई जाती
वह फैलाई जाती है किसी डर की तरह
जो कसमसा रहता है हमारे आगे-पीछे
और जब हम कर रहे होते हैं कोशिश
गर्दन सीधी रख कर चलने की
तब हमारे कंधे पर हाथ रखकर
दबाया करता है हमारे कंधे.


4) 

यह सबसे 
भयानक बात है
जो स्कूल की किताब में 
छपी है

जिसमें कितने ही सालों से हारता आया है एक
दुर्जन
जिसमें से सुनाई पड़ते हैं सज्जनों की
जीत के ढोल-नगाड़े 

दुर्जन-सज्जन का इतिहास
इन दिनों भी बताया जाता है
जहाँ दुर्जनों के घरों से सुनाई पड़ते हैं जीत के ढोल-नगाड़े
और सुई की नोंक से ऊँट गुज़र जाए इतना
कठिन हो गया है सज्जनों का जीतना.


5) 

काले पत्थर की रेखा जितने स्पष्ट
और रोज़ उगने वाले सूरज से
बतलाया जाता है जिसका रिश्ता
ऐसी बात जो छुपा कर रखी गई है
पुरातन ख़ज़ाने जैसी
जिसके बारे में मैं इतना ही बता सकता हूँ
वह इतनी मूल्यवान है
कि उस बात का कहना मात्र हो सकता है मृत्युदंड

या अभिननंदन होगा किसी राजा के प्रधान सेनापति
एकदम चुप बैठने के बदले में


6) 

पाँच-छह बातों में यह
आखिरी बात

जो आपको पता है
और
सभी को पता है
और
अहम बात यह कि इस बात का पता होना
बिलकुल ज़रूरी नहीं 




प्रश्न

बहुत लोगों से मैं पूछता आया हूँ प्रश्न
कुछ तो उलटे मुझसे ही प्रतिप्रश्न कर
मुझसे दूर चले गए

कुछ लोगों ने यह भी कहा कि
सारे प्रश्नों के उत्तर होते ही हैं ऐसा नहीं

और हमारे मन में भी उठते हैं प्रश्न मगर
हमने कभी एक वाक्य भी प्रश्न की तरह नहीं कहा

कुछ लोग प्रश्न सुनकर इतना हँसे कि
हँसते-हँसते उनकी आँखों में
दुख के आँसुओं के पहाड़ खड़े हो गए
वे कहने लगे हँस-हँसकर पेट दुखने वाले इन दिनों में
बुझती जा रही है भूख प्रश्न मन में उठने की और पूछने की भी

कुछेक ने दरवाजे की झिरी से मेरी तरफ देखा
और बोले हमारी सारी ज़रूरतें हो गई हैं पूरी
इसलिए जी सकते हैं हम प्रश्नों के बिना
उनके लिए प्रश्न माने
स्वस्थ शरीर में अचानक घुसने वाली बीमारी है
और वह दिखाते रहते हैं बचने के लिए
लगवाए गए टीकों के निशान

उनमें से कुछ ने ऐसा भी कहा कि
सवाल सिर्फ उन्हीं के मन में उठते हैं
जो अब भी दो पत्थरों के बीच उम्मीद से आँखें लगाए हैं
कि अब उड़ेगी चिंगारी और
अब फैलेगा उजाला
ज़रा सी गर्माहट ओढ़ी जाएगी

इसी तरह बहुत से लोग मिलते हैं
जवाबों के बिना जीने वाले
प्रश्नों का ढूह दरकने लगता है मस्तिष्क में
मैं लिखने लगता हूँ कविता
जिसे सुनने पढ़ने की संभावना
डूब चली है.



उन्माद

ख़बरों में मिली हुई यह हिंसा
बार-बार दिखाई जा रही है प्रमुखता से
प्रमुखता से दिखाई जा रही है हिंसा
हिंसा के भयावह दृश्य से
डराया जा रहा है फिर-फिर
मानों दी जा रही है ताकीद
कुछ न कहने के बारे में

एक युवक कहता है
क्यों दिखाई जा रही है हिंसा
जो मुझे लगातार आकर्षित करती है
एक बूढ़ा कहता है
सभी की आँख में होता है मोतियाबिंद
मुझे भी अब साफ़ दिखाई नहीं दे रहा…

फ़िल्मी दृश्य की भाँति तयशुदा ढंग से
फ़िल्माए गए हैं दृश्य हिंसा के

नहीं दिखाया जाता है हिंसा का असली चेहरा.

दिखाए जाते हैं हिंसा के बाद के दृश्य जिसमें
इंसानों के ही आकार की छोटी-छोटी
गठरियाँ पीठ पर बाँधे जो राह मिल जाए उस पर
चल पड़े हैं लोग किसी दिशा में 
जिनकी हारी हुई आकृतियाँ पीछे से
दिखाई जाती हैं बार बार...

उनके चेहरे पर डाली गई
तेज़ रौशनी में ढँक जाती हैं
उनकी आँखों के
मृत्यु घाट तक पहुंचे हुए भयभीत स्वप्न

दिखाई जाती हैं भयभीत होकर भागते हुए
फूली हुई साँसें
क़दमों का भगोड़ापन
आतंकित छिपकर देखने वाली आँखें
बर्बाद हो चुके घर
थरथर काँपते हुए अपने में सिमटती लड़कियाँ
एकाकी हो चुके  अकबकाए बच्चे

सारा डर अचूक टाइमिंग के साथ
कैमरे में दर्ज हो गया है

ख़बरों में मिली हुई यह हिंसा दिखाई जाती है
डर की तरह
छिपा हुआ होता है हिंसा और उत्स्फूर्तता की चर्चा में
हिंसा के पीछे की करतूत
और किसी की जीत का भयावह उन्माद
थपेड़ा जाता है मिट्टी में
जिस पर फ़हराती रहती है 
लोगों की राष्ट्रीय स्वतंत्रता.
_____________


भारतभूषण तिवारी
bharatbhooshan.tiwari@gmail.com 

भारतभूषण तिवारी द्वारा मराठी से हिंदी में अनूदित कुछ कवियों को यहाँ पढ़ें.

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  1. अपने समय की राजनीति अर्थनीति को बहुत बारीकी से अभिव्यक्त करती कविताएँ हैं. अनुवाद भी बहुत प्रभावी है. कवि और अनुवादक और और समालोचन को ख़ूब बधाई.

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  2. अहिन्दी काव्य का सुंदर अनुवाद के साथ शानदार प्रस्तुतिकरण ।

    सामायिक रचनाएं।
    बहुत सुंदर।

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  3. Hindi poetry is full of outstanding poets...we'll be enriched should we allot some (more) time to exploring its inner tones...the adversarial relation between the demagogic differentials we tend to read so often in parts of poetry in the regions thriving in that culture will fade day by day once literature of the zone is absorbed with some attention...poetry for long has escaped the hieratic clutches...its demotic nature will save the day someday...poetry will save the earth, just to modify Dostoevsky....full marks to Arun Dev ji and "Samalochan"....best wishes.......

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  4. Felix की कविताएँ तो अच्छी हैं ही, इनका अनुवाद भी सुंदर हैं। कुछ दिनों पहले मैंने भी फेलिक्स की एक कविता का हिंदी अनुवाद किया था जिस का शिर्षक हैं ये 'अच्छे दिन नहीं हैं।'

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