सदानंद शाही कविताएँ भी लिखते हैं. उनकी २०१३ से २०१७ के बीच की कविताओं का प्रकाशन लोकायत (वाराणसी) ने 'माटी पानी' शीर्षक से किया है, इसमें हिंदी के साथ-साथ भोजपुरी की भी कुछ कविताएँ शामिल हैं.
रोहिणी अग्रवाल वैसे तो कथा-आलोचक हैं पर इस कविता संग्रह की उन्होंने समीक्षा लिखी है. डूब कर लिखी है.
माटी पानी का काव्यत्व
प्रो. रोहिणी अग्रवाल
कोई इतनी भावप्रवण कवितायें भी लिख सकता है! न चमत्कृत करने की अतिरिक्त उछल-कूद, न ज्ञान बघारने की दीनता. बस, अपने अंतर में बहते दरिया में डुबकी लगाने की अधीरता. अलबत्ता डुबकी लगा लेने के बाद क्या सब कुछ वैसे का वैसा रह जाता है?
न्ना! सब तो बदल जाता
है.
पर्यवेक्षण का
सूक्ष्म संसार संवेदना की विराटता से सनसना कर कितने कुछ अनकहे को कह जाता है- एक
सम्मोहक मितभाषी संकोच के साथ. सत्ता का कुटिल चरित्र हो या प्रेम की अमाप
गहराइयां, समय को बींधते सवाल हों या सपनों को जिलाये रखने का हठ- सब
कुछ तो यहां मौजूद है, कवि के अंत:स्पर्शी व्यक्तित्व की
बानगी बन कर.
देख रही हूं, कविता
में संवेदना की चांदनी सुख बन कर झर-झर झर रही है, नदी की
कलकल नाद पैदा कर रही है, और गहन चिंतन की उत्ताल लहरें
बहुआयामी जीवन की बहुरंगी परतों के भीतर पैठ जाना चाहती हैं.
सोचती हूं, समय
तो शक्तिशाली लहर है- वेग से उमड़ कर आती गतिशील ऊर्जा का स्रोत. अपने भीतर कितनी
ही गहराइयों, चीत्कारों, पीड़ाओं के
साथ कितने ही सपनों, आकांक्षाओं और टकराहटों को छुपाए हुए.
लहरों की पीठ पर सवार समय का हर पल व्यक्ति की गत्यात्मकता को बस दो ही चीज़ों से
तो परखता है - तुरत-फुरत निर्णय लेने की क्षमता और तमाम बीहड़ताओं के बीच भी
धीर-गम्भीर भाव से अपना रास्ता तलाशने की कर्मशील दृढ़ता. लेकिन समय को सिंहासन
बना कर ठोस-ठस्स तानाशाही में तब्दील करती वर्चस्ववादी ताक़तों का क्या किया जाए?
क्या समय उनके हाथों पराजित हो गया है? या रुक
कर उनकी सनक और बचकानेपन से खिलवाड़ करने की मासूम शैतानी में अपना मनोरंजन कर
लेना चाहता है?
“भेड़
चाल चलना
सीटी बजते ही
हुआं-हुआं करना
कोमल और सुंदर पर टूट
पड़ना…”
समय सत्यम शिवम
सुंदरम का समन्वित रुप है. वह ऐसी नकारात्मकता को देर तक कैसे बर्दाश्त करेगा भला?
कहते रहें सत्ता के
शीर्ष से नारे उठाने वाले कि जीवन को जीवन की मुस्कान के साथ घोलकर जीना देशद्रोह
है; एक ही थैली के चट्टे-बट्टों के साथ मिल बैठकर बदल दें भाषा
का चरित्र कि
“असभ्य लोग भक्त
कहलाने लगें
कुटिल खल कामी
भगवान क़रार दे दिए
जाएँ
बुद्धि और विवेक को
भेज दिया जाए
काले पानी
भाषा गाली में सिमट
कर रह जाए”;
और विचार को
स्वास्थ्य के लिए हानिकारक सिद्ध कर टेढ़े रास्ते चलते हुए विश्वविद्यालयों के
बुनियादी चरित्र पर काला रंग फेरने लगें, लेकिन ‘झूठ जी’ से ‘सच सच बोलने’ की
गुहार का तीव्रतर होते चलना और अपनी ही बेखबरी में खोई रीढ़ पर टिकी अस्मिता का
अपने सपनों को हासिल करने की लड़ाई का अनवरत जारी रखना दरअसल समय और ज़िंदगी की
रवानगी में मनुष्य की लय को शामिल करना हैं.
“चींटियां
प्रभुता पर लघुता की
विजय का
आख्यान लिख गई
और वे ताकते रह गए.”
न, यह
दंभ भरा उद्घोष नहीं, अपने सपनीली रचनात्मक ताक़त का,
अनुभवों की गझिन यात्रा का निचोड़ है जो उपलब्धि के नाम पर हाथ में
कोई ठोस नायाब हीरा बेशक़ न रखे, मन के भीतर फैली दुनिया को
कूप-तालाबों से निकाल सृष्टि तक ले आता है जहाँ भाव की कोई एक लहरी, सम्वेदना की झंकार, दृश्य के भीतर छिपी नाटकीयता,
चित्र में उमड़ती गति या किताब के पन्नो में फ़रफ़राती ज़िंदगी
चुपचाप बदल देती है आपके होने को. तब मायने नहीं रखता कि विज्ञापन और फ़रमान के बल
पर सत्ता के चोटीधारी क्या-क्या कर करतब दिखाएंगे. कवि की संवेदना में विचार की
संश्लिष्टता इस क़दर घुलमिल गई है कि अपार धीरज और पैना व्यंग्य, इत्मीनान और आक्रोश को एक साथ साध कर वे मनुष्य
और सपनों के बने रहने की बात करते हैं.
“कबूतर
भी उनका, संदेश भी उनका, बांचेगे वही नचाएंगे
वही”- कवि शुतुरमुर्गी दृष्टि का क़ायल नहीं कि जिजीविषा की ज़मीन और संघर्ष के
खतरों को न पहचानें. वे जानते हैं, चींटी सरीखी औसत आदमी की अदना औकात, लेकिन साथ ही इस
सच को रेखांकित करना भी नहीं भूलते कि महादंभियों- योद्धाओं की तलवारबाज़ी के बीच
चींटी की कतारें शक्कर के दाने ढो-ढो कर संकट के दिनों के लिए कितनी ही रसद जमा
करती चलती हैं- अलक्षित भाव से, संगठनबद्ध होकर.
“ये आवारा फूल क्यों
खिले हुए हैं
इन्हें हमने तो नहीं
लगाया था
फिर भी
खिले हुए हैं” –
ज़िद नहीं, विश्वास-
अपराजेय संघर्ष को सींचती ऊर्जा का आत्मविश्वास और आत्मसम्मान की खनक से गूंजता
स्वर.
राष्ट्रवाद की उग्र
हुंकारें देश और संस्कृति की गरिमा को जिस नृशंसता से नष्ट कर रही हैं, वह
सदानंद शाही की संवेदना को झकझोरने के लिए पर्याप्त हैं. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद इन
दिनों दो नामों पर टिका जा रहा है- राम और गाय. कविताएँ पढ़ रही हूं और आँखों के
सामने अनायास कल्पना-चित्र तैरने लगते हैं- पॉलीथीन खा
कर हांफती- तिल तिल मरती गाएं. मानो, गाय देश का रूपक बन गई
हो और पॉलीथिन हो गया हो उग्र हिंदू राष्ट्रवाद.
देश निर्जीव भूखंड तो
नहीं कि आप उसे जिस भी रंग में चाहें, रंग दें. वह जीती-धड़कती अस्मिताओं
के सह-अस्तित्व का आधार है, सिर्फ़
मनुष्य या प्राणियों की धड़कनों से गूंजता स्थल नहीं, वन-पादप
और इतर जीवंत-थिर इयत्ताओं के साथ सामंजस्यपूर्ण संबंध का क्षेत्र. इसलिए शाही जी
की चिंता में मनुष्यता की अस्मिता के संग-संग इको सिस्टम को बचाने की चिंता भी है-
प्रकृति के साथ ठीक मानवीय स्पंदन और संबंध जोड़कर संवाद करने की आतुरता :
पेड़
पक्षियों के घोंसला
घर हैं
बेसहारा आदमी के लिये
पीठ टिकाने की जगह हैं
प्रेमियों का भरोसा
हैं
बिरही जनों के लिए
दिलासा हैं
ग़रीब गुरबा के लिए
रोज़गार हैं पेड़
क्या आपने
कभी किसी पेड़ को
बातें करते सुना है?
कभी फुरसत से उन्हें
सुनिए
वे कुछ कहना चाहते
हैं
आपके साथ रहना चाहते
हैं”
लेकिन प्रकृति की कौन
कहे, आज के उग्र हिंदू राष्ट्रवाद में तो मनुष्य की जान की
गारंटी नहीं है. जान कीमती है गाय की, प्रतीकों की; और विचार को फूहड़ता में, फूहड़ता को गालियां में,
और गालियों का ट्रोल करने की कला में
विघटित कर देने वाले नए ज़माने के
नये भक्तों-पुजारियों
की.
“ईजाद
कर ली गई हैं
गाय दूहने की अनेक
विधियाँ
इंजेक्शन तरह-तरह के
जिनको लगा देने से
दूध के साथ
अक्सर उतर आता है
गाय का खून भी
इंजेक्शन ऐसे भी हैं
कि लगा दो
तो गाय दूध के बजाए
वोट देने लगती हैं.”
ऐसे में सच कहना यानी
नोहा की तरह समूची सृष्टि को बचाने के लिए नाव लेकर निकल पड़ने का जोखिम! जोखिम
में निडरता और दृढ़ता जितनी ही ज़रूरी है सपने देखने की मिठास-
काश कि एक दिन
दुनिया भर टैंक
सीमाओं से हटा दिए
जाते
पहुँचा दिए जाते
संग्रहालयों में
जहाँ बच्चे देखते
और देखकर चिहाते
कि लो यह भी कभी डरने-डराने
की चीज़ था
----
सीमाओं पर होने लगती
फूलों की खेती
सुगंध फैलती
इस पार भी
उस पार भी
लड़कियाँ फूल चुनने
आतीं
इधर से भी
उधर से भी
----
लोगों के आने और जाने
से मिट जाते
टैंक के निशान.
सदानंद शाही प्रेम के
कवि नहीं हैं, लेकिन प्रेम उनकी संवेदना को तरलता और वैचारिकता को सघनता
देता है. प्रेम उन्हें ‘मैं’ के परे मनुष्य से जोड़ता है तो लैंगिक दुराग्रहों के
पार जीवन से जूझती स्त्री की दृढ़ता और लोचशीलता में देखने की दृष्टि भी देता है.
इसलिए वे ‘पत्नी होने की अनिवार्य शर्त’ कविता में आदर्श पति को आड़े हाथों ले
पाये हैं :
“वैसे तो
उसने
और भी बहुत सारे काम
अपने हाथ में ले रखे थे
जैसे बीवी का बैंक
अकाउंट
पैसे का हिसाब-किताब
ख़रीद फ़रोख़्त
और सबसे बढ़कर बीवी
की निगरानी
जिसे वह पूरी
मुस्तैदी से करता था
वह कब किससे मिली
मिली तो क्यों
जैसी पूछताछ के साथ
गाली-गलौज
मारपीट
सब शामिल हैं.
तो स्त्री की ओर से
समूची पितृसत्तात्मक व्यवस्था को चुनौती देते हुए ऐलान कर सके हैं:
हम आसमानों को थाहने
निकली हैं
हमें हमारे पंख लौटा
दो
अपना
सोने का पिंजरा अपने
पास रखो.
शाही जी स्त्री-मन के
कवि हैं, स्त्री के साथ सख्यभाव जोड़ने वाला मानवीय-स्पंदन –
“मुझे
एक समूचा जीवन यह
जानने में लग गया
कि एक स्त्री को
जानना
केवल उसके दुखों को
जानना नहीं है
एक स्त्री को जानना
उसके सपनों को जानना
है
उसके उल्लास को
और आनंद को
जानना है.”
स्त्री होना कमतर
होना नहीं है, प्रकृति और संवेदना के साथ एकमेक हो जाने की कला है-
भीतर-भीतर सिहरती-संवरती धड़कनों को सुनने-बतियाने की सरलता. स्त्री प्रेम की
स्नेहिल पुकार है. शाही जी स्त्री के इस संवेदन में शरीक होने की नियामत रखते हैं.
प्रेम की ओस में भीगे ‘कुछ लम्हे कुछ पल’ उनके यहाँ ताउम्र सुरक्षित रहते हैं,
ज्यों किताब के पन्नों में दबा गुलाब का फूल. प्रिय की अधीर
प्रतीक्षा पुरुष की आक्रामक पजेसिवनेस का विलोम है जिसे कवि ने आत्मसात कर लिया है,
और ‘होप अगेन्स्ट द होप’ मंत्र से दीक्षित होकर प्रतीक्षा में
प्रतीक्षा की कितनी ही ज़िंदगियां काट सकता है. प्रिय को पा लेने की कामार्त्त भूख
जब प्रिय के साथ बने रहने के अशरीरी एहसास में रूपांतरित हो जाती है, तब ही प्रेम की भीतरी गलियों में ज़िंदगी की चहलक़दमी के बीच अवसाद और
उल्लास के धूसर-चटकीले रंग तिरने लगते हैं. पूरी कविता उद्धृत करना चाहूंगी :
वैसे भी
उस से रोज़-रोज़
मिलना
कहाँ हो पाता है
फिर भी उसका शहर में
होना
इत्मीनान की तरह है
कि जब मन में
आएगा
उठेंगे और मिल आएंगे
नहीं भी मिले
तो दिख ही जाएगी
आते-जाते
दुआ सलाम के साथ
एक अर्थपूर्ण
मुस्कुराहट उठेगी
उसके चेहरे पर
और वह
हवा में हाथ हिलाते
हुए
आगे बढ़ जाएगी
इस तरह महीनों निकल
जाएंगे
बिना देखे
बिना मिले
और
बिना बात किए
उसके शहर में न होने
से
इत्मीनान थोड़ा दरक
जाता है
आसमान थोड़ा उदास हो
जाता है
हवा में ऑक्सीजन कम
हो जाती है
धरती का नमक कम हो
जाता है
पक्षियों का चहचहाना
कम हो जाता है
यह भी नहीं कि
रोज़मर्रा के काम बंद
हो जाएं
या ठीक से नींद न आए
बस
मन के कोने में कहीं
एक चोर घड़ी
टिकटिकाने लगती है
उसके लौटने का
इंतज़ार करती हुई सी. (उसके लौटने का इंतज़ार)
शाही जी की कविताओं
का फलक जितना बड़ा है, उतना ही प्रखर है आशा का स्वर. दुनिया की स्वार्थपरता और
संकीर्णता व्यक्ति रूप में उन्हें आहत अवश्य करती है, लेकिन
अपनी कविताओं में वे ‘मैं’ को हावी होने नहीं देते. निजी राग-द्वेष, हर्ष-शोक को वे आम आदमी के सपने-संघर्ष के साथ जोड़ देते हैं. उनका
व्यक्तित्व कामरेड का व्यक्तित्व है- मनुष्य के पक्ष में खड़े होकर लड़ने वाला हर
योद्धा उनका अपना अक्स.
“वे हार भले जायें
पराजित नहीं होते.”
मोह को विश्वास में
ढालने का मूलमंत्र उन्हें उनके इसी सरोकार ने दिया है.
“सब कुछ ख़त्म होने
के बाद भी
सब कुछ बचा रह जाता
है
सब कुछ के इंतज़ार
में.”
अंत के पार सृजन की
संभावनाओं से हरी है उनकी वैचारिक दुनिया; और हो भी क्यों न! बुद्ध का हमसफर
होने का विश्वास (जब भी चलता हूँ /मेरे साथ साथ चलते हैं बुद्ध) उन्हें करुणा और
प्रेम, अहिंसा और कल्याण के मार्ग से भटकने नहीं देता.
कथालोचक के लिए सरल
नहीं होता कविता का आस्वाद करना. या शायद अच्छी कविता की पहली शर्त ही यही है कि
वह भीतर की तरलता को गाढ़ा करते हुए संवेदना को गहन और वैचारिकता को प्रखर करे, लेकिन
आस्वाद की प्रक्रिया तो गूंगे का गुड है न! कहते रहें आलोचक कि कविता के टूल्स के
साथ कथालोचक कथा-कहानी की आलोचना में मशग़ूल रहते हैं. लेकिन इतना जानती हूँ कि
शाही जी की कविताओं के प्रभाव को जब भीतर जज्ब करना संभव नहीं रहा और कूल-किनारे
तोड़ वह अभिव्यक्ति के लिए मचल ही पड़ा, तब कथालोचन के अपने
चिर परिचित टूल्स के साथ ही कविता से मुठभेड़ करने आ खड़ी हुई हूं.
न कविता की लय-ताल का
ज्ञान, न काव्यशास्त्रीय सिद्धान्तों का. महज़ एक पाठक के
भावोच्छवासों का आरेखन! लेकिन आलोचना पाठकीय प्रतिक्रिया का सजग गम्भीर प्रयास के
अतिरिक्त और है भी क्या? पाण्डित्य प्रदर्शन या जजमेंट देने
की अहम्मन्यता तो कदापि नहीं.
बस इतना भर कह सकती हूं कि कैनवस पर उकेरी कलाकृति को देखना ‘देखना‘ भर नहीं होता, उसमें निमग्न होकर उसके पार बसे ‘अपने‘ किसी लोक से गुफ्तगू करना भी होता है. सदानंद शाही की कविताएं अपनी जमीन की नमी और पुख्तगी को थहाने और बनाये रखने की लोचशील झंकार हैं.
बस इतना भर कह सकती हूं कि कैनवस पर उकेरी कलाकृति को देखना ‘देखना‘ भर नहीं होता, उसमें निमग्न होकर उसके पार बसे ‘अपने‘ किसी लोक से गुफ्तगू करना भी होता है. सदानंद शाही की कविताएं अपनी जमीन की नमी और पुख्तगी को थहाने और बनाये रखने की लोचशील झंकार हैं.
__________________________________
प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग
महर्षि दयानंद विश्व विद्यालय, रोहतक, हरियाणा
rohini1959@gamil.com
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार(१५ -१२ -२०१९ ) को "जलने लगे अलाव "(चर्चा अंक-३५५०) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
एक विस्तीर्ण काव्य-संसार से परिचय कराने के लिये समालोचन का शुक्रिया!
जवाब देंहटाएंरोहिणी जी ने बहुत सुंदर व आत्मीयता से लिखा है!��
इंजेक्शन ऐसे भी हैं
जवाब देंहटाएंकि लगा दो
तो गाय दूध के बजाए
वोट देने लगती हैं.”.... सदानंद शाही जी की रचनाओं से हमें अवगत कराने के लिए आपका आभार डा. रांहिणी जी, बहुत दिनों बाद ऐसी बेसाख्ता रचना से रूबरू हुई। धन्यवाद
आभार।
जवाब देंहटाएंरोहिणी जी की कलम से पुस्तक विवेचना, कविताओं की समीक्षा की यह बानगी रोचक और पठनीय है। सदानंद शाही जी की कविताओं से यह परिचय बहुत अच्छा लगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद समालोचन
बेहतरीन।
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