लमही : हमारा कथा-समय - 2 : शशिभूषण मिश्र















विजय राय द्वारा संपादित पत्रिका ‘लमही’ के हिंदी कथा-साहित्य पर केन्द्रित अंक के दूसरे खंड ‘हमारा कथा-समय-2’ में ४८ कथाकारों पर आलोचकों और विवेचकों ने अपनी आलोचना प्रस्तुत की है. ज़ाहिर है किसी भी पत्रिका के लिये यह एक बड़ा कार्य है इसके लिये विजय राय बधाई के पात्र हैं.


इस अंक के आलेखों की विस्तार से चर्चा कर रहें हैं शशिभूषण मिश्र. 
  

कथा-रचनाशीलता का दस्तावेजी साक्ष्य                                     
शशिभूषण मिश्र




मही के स्वप्न को पूरा करने का समर्पित उद्यम है– ‘हमारा कथा समय’ जिसे विजय राय की संकल्प दृढ़ता और सर्जनात्मक उद्यमशीलता ने संभव बनाया है. समकालीन कथा साहित्य की रचनाशील पीढ़ियों का ऐसा दुर्लभ संयोजन इधर के वर्षों में देखने को नहीं मिलता. अपनी स्मृतियों के सीमान्त तक पहुंचने की पुरजोर कोशिशों के बावज़ूद भी मुझे हिन्दी की ऐसी कोई पत्रिका याद नहीं आती जिसने हिन्दी कहानी की रचनाधर्मिता को इतनी गहराई और विस्तार के साथ मूल्यांकित किया हो ; वो भी पुराने के साथ अतिरिक्त मोह और नए के साथ अतिरिक्त उपेक्षा बरते बिना. ऐसा नहीं है कि हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं ने इस दिशा में प्रयास नहीं किए किन्तु लमही ने जितने व्यापक स्तर पर यह प्रयास किया,वह विरल है. लमही के इस प्रयास की चर्चा करते हुए हिन्दी कहानी के विकास में पहल, तद्भव, हंस, कथादेश, नया ज्ञानोदय, वागर्थ, पाखी, वसुधा, बया, परिकथा आदि पत्रिकाओं के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता. इन पत्रिकाओं न केवल हिन्दी कहानी की प्रतिभाओं को पहचाना और निखारा बल्कि उन्हें खुद को साबित करने का अवसर भी दिया.
लमही के इस प्रयास को आगामी समय में समकालीन कथाकारों के उपलब्धिपरक मूल्यांकन के लिए तो याद ही  किया जाएगा, समकालीन कथा आलोचना की संभावनाओं को सामने लाने और उन्हें तराशने के लिए भी याद किया जाएगा. लमही ने इस अंक में यत्नपूर्वक बड़े कद के लेखकों-आलोचकों के साथ संभावनाशील आलोचकों को एक साथ मंच देकर न केवल अपने दृष्टिबोध को प्रमाणित करने का मौका दिया है बल्कि ख़ुद की कमियों -सीमाओं को पहचानने और उसे बेहतर करने का विकल्प मुहैया कराया है.हमारा कथा समय’ का यह दूसरा खंड है जिसमें हिन्दी कहानी का उर्वर धरातल तैयार करने वाले 48 रचनाकारों के कथा-कर्म को देखने-परखने की कोशिश की गयी है. कथा-कर्म के इस मूल्यांकन में जहां एक ओर रोहिणी अग्रवाल,संजीव कुमार,सूरज पालीवालशम्भु गुप्त और राकेश बिहारी जैसे कहानी के शीर्ष आलोचक शामिल हैं वहीं दूसरी ओर विष्णु चन्द्र शर्मा, अखिलेश, महेश दर्पण, हरियश रायबलराम जैसे साहित्यकार भी हैं जिन्होंने अपने लेखन में समय के एक बड़े हिस्से को रचा है. कथा साहित्य संबंधी आलोचना में नए सन्दर्भ विकसित करने वाले वैभव सिंह, पल्लव, अमिताभ राय, पंकज पराशर  जैसे आलोचकों के साथ अरविन्द कुमार, अजीत प्रियदर्शी, अच्युतानंद मिश्र, प्रताप दीक्षित, प्रमोद कुमार तिवारी जैसे युवा आलोचक भी इस पड़ताल में साझीदार हैं. निशांत, प्रज्ञा, राजीव कुमार के साथ पूजा सिंह, स्मृति शुक्ल, श्रुति कुमुद, अल्पना सिंह, धर्मेन्द्र प्रताप सिंह, गौरी त्रिपाठी जैसी आलोचना की नयी कोपलों की भागीदारी ने इस अंक को कई मायनों में यादगार बनाया है. 
(विजय राय)
हिन्दी की समकालीन आलोचना में वैभव सिंह और पंकज पराशर ने पिछले एक दशक में अपनी उल्लेखनीय पहचान बनायी है. वैभव सिंह के पास विचारधारा की वैचारिकी का गहरा अध्ययन-चिंतन  है तो पंकज पराशर के पास कथा-आलोचना की व्यवस्थित समझ. वैभव सिंह ने ‘विचारधाराकहानी और समकालीनता’ शीर्षक से कहानी में विचारधारा की निर्मिति की विवेचना करते हुए इस जरूरी पहलू को उभारते हैं कि कहानी के ट्रीटमेंट और व्यापक संवेदना में विचारधारा के अस्तित्व को पहचानने में धैर्य की जरूरत पड़ती है. उनकी स्पष्ट मान्यता है कि कोई भी  सृजनात्मक कृति न तो पूरी तरह से विचारधारा के भीतर होती है और न ही पूरी तरह से उसके बाहर. विचारधारा रचना का केंद्र न होकर परिधि भी हो सकती है ; उसके महीन, सांकेतिकप्रतीकात्मक रूप कहानी में सूक्ष्म रूप में बिखरे हुए हो सकते हैं. युवा आलोचक पंकज पाराशर इक्कीसवीं सदी के कथा परिदृश्य के बहाने आज की स्मृतिहीन  आलोचना के संकटों की पहचान करते हुए लेखकों के पोलिटिकली करेक्ट दिखने के चलन की नोटिस लेते हैं. फार्मूलाबद्धता और प्रशस्तिपरकता में फंसी उदीयमान कथा आलोचना की निर्मम तहकीकात के रूप में इस लेख को पढ़ा जा सकता है.
साठोत्तर पीढ़ी की कहानी को उत्कर्ष पर पहुंचाने वाले जीवंत कथाकार ज्ञानरंजन की प्रतिबद्धताएं बहुत स्पस्ट रही हैं. कथनी और करनी की अभिन्नता का पर्याय है उनका जीवन. उनके लेखन को उनके जीवन से अलगाकर नहीं देखा जा सकता. ख्यातिलब्ध आलोचक रोहिणी अग्रवाल ने ‘ठहरे हुए जीवन का गतिशील चित्र’ शीर्षक से ज्ञानरंजन के कथाकार पर डूबकर लिखा है. उनका अभिमत है कि सादगी ज्ञानरंजन की कहानियों की अप्रतिम विशेषता है. यह सादगी उर्वरता, वक्रता और व्यंग्यात्मकता से लबालब है जो अनंत धीरज के साथ ठहरी हुई ज़िन्दगी के भीतर दबे स्पंदनों को सुनती-उकेरती है. वह ज्ञानरंजन की चर्चित कहानी ‘अनुभव’ को विकास की जगमगाहट के पीछे छुपे घुप्प अंधरे को समय रहते पहचानने वाली कहानी के रूप में और ‘बहिर्गमन’ को मनोहर के बहिर्गमन के माध्यम से ‘व्यक्तित्वसमय और समाज के विकास की समस्त सर्जनात्मक संभावनाओं के निषेध’ के रूप में पढ़ती हैं. रोहिणी अग्रवाल ने आलोचना में जिन औजारों की खोज की है उनमें ‘रचना के पाठ में आलोचक का सर्जनात्मक हस्तक्षेप’ मुख्य है. रचना की लय में एकाकार होकर वह उसकी हर एक हरकत को सुनती-गुनती एक समानांतर पाठ रचती हुई आलोचना के भीतर भी अमूर्तन को संभव बनाती हैं. रिदम से भरी इतनी भाव-प्रवण आलोचना के उदाहरण हमारी समीक्षा प्रणाली में कम हैं.
यह सुखद संयोग है कि विधागत घेरेबंदी को तोड़ने वाले स्मृतिशेष दूधनाथ सिंह पर कथाकार अखिलेश ने जिस शिद्दत से लिखा है उससे पता चलता है कि एक बड़ा लेखक किसी व्यक्तित्व का मूल्यांकन करते हुए उसके साथ समूचे परिदृश्य को किस तरह खंगालकर रख देता है. वह दूधनाथ सिंह की कहानियों पर बात करते हुए उस पूरी कथा परंपरा का निचोड़ भी प्रस्तुत करते हैं जिसकी भूमि अमरकांतमोहन राकेश, निर्मल वर्मा जैसे कथाकारों ने अपने रचनात्मक श्रम से तैयार की थी. इस लेख में साठोत्तरी पीढ़ी की सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि साथ परंपरा के प्रति उनके ऋण भाव को देखा जा सकता है. रेखांकित किया जाना चाहिए कि किसी लेखक के अवदान का मूल्यांकन करते हुए उसे उस परंपरा में बेहतर दिखाने के बजाय वह उनके समानधर्माओं को भी समान महत्व देते हैं. उनकी स्थापना है कि दूधनाथ सिंह यथार्थ की परिपाटीगत मान्यता को प्रश्नांकित ही नहीं करते संबंधों की मान्य संरचना से भी बगावत करते हैं. दूधनाथ सिंह की कहानियां आमतौर पर छोटी जगहों और ग्रामीण क्षेत्रों को शामिल करती हैं जहाँ सामंतवाद और उसके उत्पाद ज्यादा ताकतवर हैं इसीलिए दूधनाथ सिंह का नायक बार-बार अँधेरे और दुर्गन्ध का सामना करता है. सपाट चेहरे वाला आदमी , रक्तपात, माई का शोकगीत, काशी नरेश से पूछो, धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे जैसी उल्लेखनीय कहानियों की शक्ति और प्रभाव को दिखाते हुए उनकी कहानियों में ‘नायक’ की स्थिति का निचोड़ प्रस्तुत करते हैं.
इस पूरे अंक में आकर और विवेचना दृष्टि से दो सबसे बड़े लेखों-मूल्यांकनों उल्लेख बेहद जरूरी है. पहला ‘मुक्तिबोध की आत्मकथा’ जैसी रचना के प्रणेता विष्णुचंद शर्मा का है जो प्रख्यात कथाकार महेश दर्पण की कहानियों पर केन्द्रित है और दूसरा कथा आलोचक अरविन्द कुमार का जो हिंदी कहानी के दुलारे कथाकारों में से एक स्वयं प्रकाश पर है. पहला दस पेज का है और दूसरा नौ पेज का. लमही के दस पेज मायने रहते हैं, बहरहाल इन दोनों लेखों के मार्फ़त हिंदी कहानी के इन दो नक्षत्रों को जानना दिलचस्प है. जिस तरह विष्णु चन्द्र  शर्मा ने महेश दर्पण के बहाने उस पूरे युग की बनावट को उभारते हैं जहां नयी कहानी और साठोत्तरी कहानी आकार ले रही थी. उनको पढ़ते हुए ऐसा लगता है गोया किसी लेखक के बहाने वह पूरी विरासत को एक बड़े फलक के साथ याद कर रहे हों. इस मुखातिबी में महेश के कथाकार का अन्तरंग साक्षात्कार ही नहीं उस पूरी पृष्ठभूमि का भी साक्षात्कार है जिसमें महेश का कथाकार विकसित होता है. इतना बहुआयामीरोचक और बतकही से भरा लेख इस अंक की उपलब्धि है. 
इस लिखे को केवल महेश दर्पण की कथा आलोचना के रूप में नहीं बल्कि हिंदी कहानी की हलचलों और विरासत को विदग्ध वर्णन की तरह पढ़ा जाना चाहिए. दूसरा बड़ा लेख सक्षम आलोचक अरविन्द कुमार ने तैयार किया है जो बड़े धैर्य के साथ स्वयं प्रकाश के कथात्मक संसार में आवाजाही करता है और उनकी रचना के तमाम कोनों को स्पर्श करता है. स्वयं प्रकाश की कहानियों की कथावस्तु का अवगाहन करते हुए उनकी चर्चित कहानियों-पार्टीशन, सूरज कब निकलेगा,आदमीजात का आदमी,रसीद का पाजामा, नीलकांत का सफ़र, जो हो रहा है, दस साल बाद, इनका जमाना, नैनसी का धूड़ा, बलि के अंतर्पाठ का संधान करते हैं.
सूरज पालीवाल और शम्भु गुप्त हिन्दी कथा आलोचना के दो बड़े परिसरों के रूप में अपनी ख्याति रखते हैं. इन परिसरों ने कहानी आलोचना के विपुल औजार निर्मित किये हैं जिनसे संश्लिष्ट और जटिल होती कथात्मक भंगिमाओं को भेदने में मदद मिलती है. सूरज पालीवाल ने एक ओर श्रेष्ठ कथाकार संजीव पर तो दूसरी ओर वरिष्ठ कथाकार रमेश उपाध्याय की कहानियों पर सुविज्ञ चिंतन किया है. जीवन का सहज अंकन करने वाले अचर्चित कथाकार पानू खोलिया के कथा मर्म तक पहुँचने का जो श्रमसाध्य कार्य शम्भु गुप्त ने किया है वह युवा पीढ़ी के आलोचकों के लिए प्रेरणास्पद है. 

शम्भु गुप्त ने पानू खोलिया की कहानियों की वस्तु संरचनाकथा शिल्प की दृश्यात्मकता-चित्रात्मकता, कथा-स्थितियों की स्वायत्तता पर मनोयोग से लिखा है. बहरहाल, क्या साठोत्तर के बाद की हिन्दी कहानी पर संजीव के बिना कोई सार्थक बातचीत हो सकती है ? हालाकि उनकी चर्चा मुख्यतः उपन्यासों को लेकर हुई है इसलिए उनका कहानीकार रूप थोड़ा दब गया है. अपराधआपरेशन जोनाकी, प्रेरणास्रोत, सागर सीमान्त जैसी कहानियों के पाठ-चिंतन द्वारा इनकी परिवर्तनकामी उपादेयता को प्रस्तुत किया गया है. वह संजीव के यहाँ स्त्री चरित्रों की साधारणता के बावज़ूद निर्णायक समय में जूझने की जबदस्त क्षमता,आदिवसियों के शोषण के तमाम तरीकों,श्रमशील तबके के अभावों में जीने की अभिशप्ति जैसी चिंताओं को मुख्य रूप से देखते हैं. संजीव की तरह ही रमेश उपाध्याय की कहानियाँ भूमंडलीकरण के बाद मजदूर  संगठनों की विफलता और मजदूरों के अधिकारों के संकट (देवी सिंह कौन), उत्तर भारतीय गाँवों में व्याप्त जाति प्रथा और स्त्री शोषण (प्रौढ़ पाठशालामाटीमिली), सामाजिक परिवर्तन और व्यक्ति के अटूट हौसले (शेष इतिहास ) को जीने वाली कहानियाँ हैं. तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो सूरज पालीवाल और शम्भु गुप्त दोनों ही कहानी का वर्णनशील पाठ तैयार करते हैं पर यथार्थ के प्रति जितना आग्रह शम्भु गुप्त के यहाँ हैसूरज पालीवाल के यहाँ नहीं है. 

सूरज पालीवाल कथार्थ का उत्खनन करते हुए आगे बढ़ते हैं जबकि शम्भु गुप्त विचारधारा,कथाकार के ट्रीटमेंट पर थोड़ा विस्तार से बात करते हैं. हालाकि सूरज पालीवाल के यहाँ विश्लेषण की जितनी सरलता है शम्भु गुप्त के यहाँ उतनी नहीं है लेकिन कहानी के संरचनागत पहलुओं को उभारने में शम्भु गुप्त के योगदान को नहीं भुलाया जा सकता. 
कहानी के समालोचन’ को एक नए मोड़ बिंदु तक लाने में संजीव कुमार और राकेश बिहारी की भूमिका को नजरअंदाज करना संभव नहीं.  कहानी की ‘भीतरी और बाहरी दुनिया के साझेपन’ से बनी इन आलोचना दृष्टियों में ग़जब का टटकापन भी है और निर्मम बर्ताव का साहस भी. कहना होगा कि हिन्दी में जिन गिने-चुने आलोचकों ने इक्कीसवीं सदी की हिंदी कहानी का तलस्पर्शी साफगोई से आंकलन किया है उनमें संजीव कुमार एक हैं.  मर्मी कथाकार योगेंद्र आहूजा की कहानियों के मार्फ़त इस लेख को ‘कथा-युक्तियों के सवाल को संजीदगी से उठाने’ के सन्दर्भ में भी पढ़ा जा सकता है. उनकी टिप्पणी है कि योगेन्द्र आहूजा ‘कहानी के चले आते ढांचे को अपने लिए नाकाफी पाकर’ उसे आमूलतः बदलते हैं. समय के सबसे बड़े सवालों से टकराने की महत्वाकांक्षा से भरी योगेन्द्र आहूजा की कहानियों का संरचनागत पाठ भी इस अवलोकन में वाबस्ता है. 


कहानी आलोचना में ‘भूमंडलोत्तर कहानी’  के पुरस्कर्ता  राकेश बिहारी हमारे समय की सबसे स्पष्ट आवाज़ हैं. उन्होंने ‘विषय के चयन से लेकर उसके निर्वाह तक वर्जनाओं का निषेध’ करने वाले दास्तानगो प्रियंवद के कथा संसार का मूल्यांकन करते हुए इस बात पर बल दिया है कि उनकी कहानियाँ ‘एक ख़ास राजनैतिक-वैचारिक काट से लगभग आक्रान्त कहानियों के वर्चस्व के बीच’प्रेम के नैरन्तर्य को बचाए रखने का जतन करती हैं.निश्चित तौर पर प्रियंवद उन मुट्ठी भर लेखकों में हैं जिनके भीतर विधाओं इतना गहरा अंतरानुशासन है. स्मृतिशेष राजकिशोर जी के बाद ‘अकार’ पत्रिका को प्रियंवद ने अपने श्रम से न केवल सवारा है बल्कि प्रतिगामी शक्तियों के विरुद्ध एक वैचारिक हस्तक्षेप के रूप में तैयार किया है. बहरहाल, राकेश बिहारी प्रियंवद की कहानियों के ताने बाने के रेशे-रेशे को एक रंगरेज की तरहां उकासते हैं. यह मूल्यांकन ‘प्रेम और देह की नैतिकता’ के विशेष सन्दर्भ में लिखा गया है. अन्दर खुलने वाली खिड़की, पलंग, बूढ़े का उत्सव, नदी होती लड़की, अधेड़ औरत का प्रेम, दिलरस आदि कहानियों को केंद्र में रखकर वह उन कथा-संधियों में पैठते हैं जहां प्रियंवद का कथाकार अपने उठान पर है.
युवा पीढ़ी में पल्लव और अमिताभ राय कथा-आलोचना की प्रतिभाशाली उपस्थितियाँ है. पल्लव ने ‘बनास जन’ पत्रिका के माध्यम से पठन-पाठन-लेखन संस्कृति को तो समृद्ध किया ही है, हिन्दी के महत्वपूर्ण रचनाकारों के लेखकीय अवदान पर केन्द्रित अंकों द्वारा अपनी साहित्यिक नागरिकता के कर्तव्य को भी निभाया है. वहीं अमिताभ राय ने अपनी स्थापनामूलक सहमतियों-असहमतियों से समकालीन आलोचना को नयी धार दी है. उन्होंने शिवमूर्ति की कहानियों की अन्वीक्षा करते हुए स्थापना दी है कि ‘कलात्मक सिद्धि की आकांक्षा शिवमूर्ति के साहित्य में एक आंतरिक अंतर्विरोध का निर्माण करती है. जात-पात-धरम की संकीर्णता में फंसे ग्रामीण-कस्बाई समाज में भ्रष्टाचार और अनैतिकता की व्याप्ति (बनाना रिपब्लिक), शोषण और  दुर्व्यवहार का सामना करती दलित स्त्रियों का जीवन और संघर्ष और उनकी जीवटता (कसाईबाड़ा,सिरी उपमा जोग, भारत नाट्यम,तिरिया चरित्तर,अकाल दंड,केशर कस्तूरी) शिवमूर्ति के मूलगामी सरोकार हैं. 

व्यक्ति के भीतर उपजे ‘तिकड़म-छल और उसके समानांतर सत्ता-व्यवस्था के विभिन्न रूपों’ को अपनी ‘कहानियों में हथियार की तरह इस्तेमाल करने की कला-दक्षता’ को रेखांकित करते हुए अमिताभ उनके कथा मर्म तक पहुँचते हैं. दूसरी तरफ पल्लव ने असग़र वजाहत की कहानियों पर लिखते हुए उनकी लघुकथा वाली-प्रविधि और व्यंग्यमूलक शिल्प की खूबी को दिखाया है. असग़र की केक, स्वीमिंग पूल,तमाशे में डूबा देश,डेमोक्रेसिया, शाह आलम कैम्प की रूहें, मैं हिन्दू हूँभगदड़ में मौत जैसी बहसतलब कहानियों की  अंतर्वस्तु में पैबस्त ‘साम्प्रदायिकता विरोधी रुख,भूमंडलीकरण की उद्दाम लालसाओं से उपजी विकृतियों के खिलाफ आक्रोश और सत्ता की दुरभिसंधियों का प्रश्नांकन’ जैसे मूलभूत मुद्दों को चीन्हने का उपक्रम इस लेख में मुब्तला है. 
लमही के इस अंक में ऐसे कई समर्थ कथाकारों ने अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी और अपनी पीढ़ी के कथाकारों का रोचक विश्लेषण किया है. इस क्रम में हरियश राय ने हिमांशु जोशी, महेश दर्पण ने योगेश गुप्त, बलराम ने कामतानाथ, प्रज्ञा ने शंकर,राजीव कुमार ने राजू शर्मा की कहानियों से रोचक संगत की है. हरियश राय ने जिस तरीके से  हिमांशु जोशी की कहानियों पर बात की है उससे सीखा जाना चाहिए कि लेखक के बारे में सर्वस्वीकृत बातें दुहराने के बजाए हमें रचना की अंतरवर्ती धारा में एकमेक होकर किस तरह टेक्स्ट का विस्तार करना चाहिए. जलते हुए डैने, अगला यथार्थ, तपस्या, सजा, न जानना, आँखे, फासला आदि कहानियों के माध्यम से उनकी कहानियों में  ‘अंत की प्रतीकात्मक परिणति’ की ओर ध्यान खींचते हैं. निम्न मध्यवर्गीय व्यक्ति के जीवन के अभावों को व्यक्त करने,पहाड़ी जीवन के दर्द और संघर्ष को शब्दांकित करने, स्वाधीनता आन्दोलन के सन्दर्भों को कहानियों का उपजीव्य बनाने और वृद्धावस्था के संकटों को उभारने वाले कथाकार के रूप में पहचान करते हैं. 
कथाकार महेश दर्पण ने योगेश गुप्त को ‘बेहतर जीवन की अपेक्षा में रची गयी कहानियों’ का सर्जक मानते हुए संस्मरणात्मक अंदाज में लिखा है. यह व्यक्तिव का मूल्यांकन अधिक है कथाकार का कम. अपनी कहानियों में आम बोलचाल की भाषा को बरतने वाले  बलराम ने ‘खतरनाक मौन अन्वेषण के कथाकार’ कामतानाथ का सधा और कांक्रीट विवेचन किया है. छुट्टियाँ,अंत्येष्टि,तीसरी सांस,लाख की चूड़ियाँ,संक्रमण और युद्ध जैसी जरूरी कहानियों की चर्चा करते हुए हम इस लिखे से कामतानाथ के कथाकार को काफ़ी हद तक जान पाते हैं. 

नवें दशक में शंकर की पहचान कथाकार के रूप में उभरती ही है, उसके बाद कहानी की महत्वपूर्ण पत्रिका ‘परिकथा’ के योजनाकार के रूप में भी उनकी विशिष्ट पहचान बनी है.मन्नत टेलर्स’ कहानी की सृजनकार प्रज्ञा के ‘कथाकार के भीतर के आलोचक’ को यहाँ सकते हैं. मरता हुआ पेड़, जगो देवता जगो, सत्संग, बत्तियां, कालिख, फ़रिश्ते, खुशबू, बालकनी जैसी कहानियों पर बातचीत करते हुए वह ‘सचेत रूप से यथार्थ को नए सिरे से रखने, लेखकीय हस्तक्षेप के द्वारा परंपरा का संवर्धन’ करने वाले कथाकार के रूप में शंकर की पहचान करती हैं. वर्गीय चेतना को वाणी देने,धार्मिक संकीर्णता के उभार को चीन्हने,पूंजी का दुश्चक्र, राजनीति और अंध राष्ट्रवाद का  प्रत्याख्यान रचने; जैसी कथा-धुरियों की पहचान करती दृष्टि इस लेख के मूल में हैं. सृजनरत राजीव कुमार कथा-विन्यास में बौद्धिकता के प्रयोग,सामान्यीकरण के निषेध, व्यवस्थागत विद्रूप की तहकीकात करने,गतिशील उद्दाम दैहिक संबंधों के सन्दर्भों को सामने लाने वाले वरिष्ठ कथाकार राजू शर्मा के कथाकार की विशिष्टाओं की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं. टेक्स्ट को केंद्र में रखकर किया गया यह एक असरदार मूल्यांकन है.
युवा आलोचक अजीत प्रियदर्शी ने नीलकांत, बी. मदन मोहन ने एस आर हारनोट, प्रताप दीक्षित ने प्रकाश बाथम, सुधीर सुमन ने जितेंद्र भाटिया, कवि-आलोचक की संधि रेखा पर खड़े अच्युतानंद मिश्र ने मोहन थपलियाल, कवि निशांत ने काशीनाथ सिंह,आलोचक प्रमोद कुमार तिवारी ने पंकज बिष्ट,दिवाकर भट्ट ने वल्लभ डोभाल, रामनिहाल गुंजन ने रामनारायण शुक्ल, शशिकला राय ने राकेश कुमार सिंह,आशीष सिंह ने शैलेन्द्र सागर और नवनीत मिश्र, जितेन्द्र कुमार ने रामधारी सिंह दिवाकर की कहानियों पर अपनी रायशुमारी की  है. 

अजीत प्रियदर्शी का लेख पाठ केन्द्रित आलोचना का उम्दा उदाहरण है. वह नीलकांत की चर्चित कहानी ‘मटखन्ना’ को कुम्हार जीवन की त्रासद गाथा के रूप में पढ़ते हैं. औद्योगीकरण प्रभाव से परंपरागत तौर-तरीको से जुड़े शिल्पियों-कारीगरों के त्रासद आख्यान के रूप में भी इसे पढ़ा जा सकता है. वह नीलकांत को पूर्वी उत्तरप्रदेश के ग्रामीण जीवन के सामाजिक-आर्थिक यथार्थ,जातिवादी और लैंगिक भेदभाव (बदला,दंगल,अनसुनी चीख),जमीदारी उन्मूलन,स्त्री शोषण,सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार(पुरुष प्रिया,एक रात मेहमान,हे राम) को बेनक़ाब करने और जन पक्षधरता में आवाज उठाने वाला जनपक्षी कथाकार मानते हैं. अगले लेख में पहाड़ी जीवन के असह्य किस्सों के बीच ‘सामान्य जन के वजूद का कथाकार’ मानते हुए बी मदन मोहन ने हारनोट की दारोश, मुट्ठी में गाँव जीनकाठी, कीलें, आग जैसी कहानियों पर विस्तार से बात की है. हारनोट की कहानियां व्यापक विश्लेषण की मांग करती हैं. 

प्रताप दीक्षित ने खुद कहानियाँ लिखी हैं और  बाथम पर जिस अंदाज में लिखा है उससे उनकी कहानियों के रचनात्मक आशय को समझने में मदद मिलती है. सुधीर सुमन ने  काफ़ी भीतर तक घुस कर जितेन्द्र भाटिया की कहानियों को छुआ है मगर अच्युतानंद का लेख निराश करता है. जबकि निशांत का लिखा एक कवि के नजरिए से काशीनाथ सिंह की कहानियों का रोचक पाठ है. वह काशीनाथ की चर्चित कहानियों-चोट,लाल किले का बाजकहानी मोहन सराय की को दुर्दांत जातिवाद पर केन्द्रित चिंता के रूप में और सुधीर घोषाल को राजनैतिक दृष्टिकोण की परिपक्व कहानी के रूप में पढ़ते हैं. महुआ चरितसदी का सबसे बड़ा आदमी, आदमीनामा जैसी चर्चित बेहद चर्चित कहानियों पर बात की काफ़ी गुंजाइश थी पर निशांत ने कहानियों पर केन्द्रित रहने के बजाए रचनाकार के कथेतर सन्दर्भों पर केन्द्रित रहे हैं. 

प्रमोद कुमार तिवारी ने पंकज बिष्ट की चर्चित काहनियों- बच्चे गवाह नहीं हो सकतेहलटुन्ड्रा प्रदेशमोहनजोदड़ोखेलआखिर क्या हुआमुकाम के माध्यम से बिष्ट के कथाकार की जन-पक्षधरता को रेखांकित करते हुए इन कहानियों में बच्चों की उपस्थिति के निहितार्थों की ओर संकेत करते हैं. पंकज बिष्ट ने एक कथाकार के रूप में जितनी ख्याति अर्जित की है उससे कहीं अधिक धारा के विरुद्ध साहस से आगे बढ़ने वाली ‘समयांतर’ पत्रिका के कारण की है. इसे पढ़ने-लिखने और चाहने वाले पाठक जानते हैं कि हिन्दी पट्टी में ऐसी धारदार पत्रिकाएँ कितनी हैं ? 
पत्रिका से गुजरते हुए कहानीकार शशिभूषण के लेख पर सहसा ठिठक गया हूँ. कथाकार नवीन सागर पर लिखते हुए उन्होंने उनके समकालीनों को जिस तरह धिक्कारा है उसे यहाँ नत्थी कर रहा हूँ –

‘कहानीकार के रूप में आज उनका नाम तक नहीं लिया जाता जबकि अनेक कुलेखकों की कट्टा भर किताबें प्रकाशित हैं. कई अलेखकों के घर पुरस्कारों से भरे हैं.(पृष्ठ-165) वह आगे फिर उनके समकालीनों से शिकायत दर्ज करते हुए लिखते हैं कि –

‘इस संग्रह की कहानियां सत्तर अस्सी के दशक के किसी हिन्दी कहानीकार से कमतर नहीं हैं. बल्कि कहना चाहिए कि नवीन सागर के कहानीकार की उपेक्षा का उनके समकालीन कहानीकारों को फायदा ही मिला. नवीन सागर की कहानियों की भूमि वाली उनसे कमजोर कहानियाँ चर्चा में बनी रहीं...उनके पास अविस्मरणीय कहानियों की संख्या भी उन कहानीकारों से कम नहीं है जिन्होंने सत्तर-अस्सी के दशक में कहानीकार की प्रसिद्धि हासिल की. (पृष्ठ-165) 

किसी रचनाकार को बेहतर साबित करने का यह कौन सा तरीका है कि उसके समकालीनों को इस तरह कमतर साबित किया जाए ? और रही बात ‘फायदा मिलने’ वाली तो इसका फैसला कैसे होगा ? और इससे हिन्दी आलोचना या पाठकों का क्या भला होगा ? लेख के अंतिम हिस्से में वह प्रस्ताव करते हैं कि 

‘मेरे विनम्र मत में देर से ही सही यह नवीन सागर को हिन्दी कहानी की चर्चा और बहस में शामिल करने का सही वक्त है. हिन्दी के इस अत्यन्त महत्वपूर्ण कवि-कहानीकार की चली आती उपेक्षा असह्य है.(पृष्ठ-167 ) 

वह जिस बात की अपेक्षा दूसरों से कर रहे हैं वह उन्हें खुद भी करना चाहिए था. मुझे लगता है कि शशिभूषण के पास एक बहुत बेहतर मौक़ा था जब वह अपनी असह्यता को ताक़त बनाकर नवीन सागर की कहानियों पर लिखते हुए एक बड़ी रेखा खींचते.
इस पूरे अंक की ख़ासियत यह भी है कि इसमें युवतर आलोचना की खासी सहभागिता है. अक्सर ऐसा होता है बिलकुल नए लेखक को या तो नजरअंदाज कर दिया जाता है या उन्हें गहराई से पढ़ा नहीं जाता. खैर, आलोचना की इन नयी कोपलों में पूजा सिंह, श्रुति कुमुद, अल्पना सिंह, गौरी  त्रिपाठी, धर्मेन्द्र प्रताप सिंह,स्मृति शुक्ल,रत्नेश विष्वक्सेनउन्मेष कुमार सिन्हाअखिलेश्वर पाण्डेय,नेहा साव, कुमारी उर्वशी,एकता कुमारी, पीयूष राज,प्रदीप कुमार सिंह,नेहा चतुर्वेदी ने जिस तरह से कहानियों को देखने-समझने-मूल्यांकित करने की कोशिश की उस पर बात करना  जरूरी समझता हूँ. पूजा सिंह मंजूर एहतेशाम के कथा परिसर में घुस कर लौटती नहीं बल्कि उस बेबसी की निशानदेही करती हैं जो निम्न मध्यवर्गीय मुस्लिम परिवारों के चेहरों पर टंकी है. वह इस निष्कर्ष पर पहुँचती हैं कि ‘मंजूर एहतेशाम की कहानियों से गुजरना एक आम हिन्दुस्तानी मुसलमान की जिन्दगी के उन सारे रंगों से गुजरना है जो इस शोरगुल,पूर्वग्रह और अतिरंजना से भरे समय में कहीं खो से गए हैं.’ 

श्रुति कुमुद ने रघुनन्दन त्रिवेदी की कहानियों की पड़ताल करते हुए ऐसी आलोचना लिखी है जिसमें उनका व्यक्तित्व झलकता है;  लेकिन जहां तक कहानियों के मूल्यांकन का सवाल है यह लेख आकर्षक शैली के बावजूद उद्धरणों की अधिकता के चलते चितेरे कथाकार रघुनन्दन त्रिवेदी के कथाकार को विस्तार से बयाँ नहीं कर पाता. अल्पना सिंह ने यशस्वी कथाकार-चित्रकार प्रभु जोशी की कहानियों पर व्यवस्थित और विस्तार से लिखा है. आकाश में दरार,पितृ ऋण,धूल और धूल,एक युद्ध धारावाहिकमोड़ पर,यह सब अंतहीन आदि कहानियों की संगत करते हुए वह उन इलाकों में दाखिल होती हैं जहां कथाकार की चिंताओं का संघनन होता है. गौरी त्रिपाठी ने स्मृतिशेष कथाकार रवीन्द्र कालिया की कहानियों पर विचार करते हुए उनकी चर्चित कहानी ‘काला रजिस्टर’ के साथ न्याय किया है किन्तु अन्य किसी और कहानी पर या कुछ और कहानियों पर बात हो पाती तो बेहतर होता. उनके इस अभिमत से सहमत होने की गुंजाइश भी कम है कि ‘आजादी के बाद के भारत की जो सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियाँ थीं उसका पूरा माहौल रवीन्द्र कालिया की कहानियों में दिखता है.(पृष्ठ-36)

अगर देखें तो रवीन्द्र कालिया भारतीय महानगरीय जीवन के कथाकार हैं. आज भी भारत की लगभग पैसठ से सत्तर प्रतिशत आबादी गांवों में रहती है, इसलिए ये कहना कि आजादी के बाद की सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों का पूरा माहौल उनकी कहानियों में मिलता है, सही नहीं है. खैरधर्मेन्द्र प्रताप सिंह की विद्यासागर नौटियाल और महेश कटारे की कहानियों पर जिस तरह की लिखत-पढ़त है उसमें कथाकार की संवेदना को छूने का जतन बराबर मौजूद है. स्मृति शुक्ल ने एक तरफ समाज की त्रासद विडंबनाओं को,राजनीति की मारक भूमिकाओं को,तनाव और द्वंद्व को व्यक्त करने वाले महत्वपूर्ण कथाकार राजेन्द्र दानी की कहानियों की तो दूसरी ओर चर्चा से बाहर रहे जरूरी कथाकार हरिचरण प्रकाश की कहानियों का दीर्घजीवी आकलन किया है. 

रत्नेश विष्वक्सेन ने रवीन्द्र वर्मा और कृष्ण बिहारीउन्मेष कुमार सिन्हा ने सूरज प्रकाशअखिलेश्वर पाण्डेय ने जयनंदननेहा साव ने राजकुमार राकेशकुमारी उर्वशी ने मिथिलेश्वरएकता कुमारी ने हरिपाल त्यागी, पीयूष राज ने शानीप्रदीप कुमार सिंह ने हृदयेश और नेहा चतुर्वेदी ने सुदर्शन नारंग की कहानियों का जैसा विश्लेषण किया है, उनमें बड़ी रेखाएं खींचने वाली आलोचकीय दृष्टि भले न मिले पर उसके भीतर की अर्थ परतों बाहर लाने का उत्साह जरूर सन्नद्ध है. राजकुमार राकेश ने पतलियों और मुह के बीचएडवांस स्टडीसाउथ ब्लाक में गांधीधारावीआपातकाल डायरी जैसी कई बेजोड़ कहानियाँ लिखी हैं जिनमें कथा के स्थापत्य, कथाकार की प्रेक्षण क्षमता और प्रस्तुति की नव्यता पर बहुत बातचीत की गुंजाइश है. नेहा साव का लेख उनके अधूरे कथाकार को सामने लाता हैऐसा और भी कथाकारों के साथ हुआ है पर अब बस्स.
मुझे लगता है कि लमही के इन अंकों को यदि पुस्तक के रूप में निकालना संभव हो पाए तो यह बहुत बढ़िया बात होगी. इससे पढ़ने-लिखने में रूचि रखने वालों और कहानियों पर शोध करने वाले छात्रों को भी बहुत कुछ सीखने को मिलेगा.
____________
शशिभूषण मिश्र
सहायक प्रोफेसर
राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय
बांदा,उ.प्र.
मो.9457815024 

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  1. सूरज पालीवाल3 दिस॰ 2019, 11:45:00 am

    शशि भूषण मिश्र जिस गंभीरता से आलोचना लिखते हैं उसी गंभीरता से दूसरे आलोचकों को पढ़ते भी हैं, यह विरल होती प्रवृत्ति है, उन्हें बधाई ।

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  2. प्रमोद कुमार तिवारी3 दिस॰ 2019, 11:46:00 am

    Shashibhushan Mishra भाई आपने बहुत ही मेहनत और लगन से पत्रिका के बहाने कहानी और आलोचना के अनेक पक्षों को समेट लिया है। हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं।

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  3. तरुण भटनागर3 दिस॰ 2019, 12:37:00 pm

    विश्लेषण परक और कहानियों की अंतर्वस्तु पर अच्छा लिखा है. भाषा में प्रवाह और पठनीयता है.

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  4. शशिभूषण जी ने बहुत ध्यान से एक-एक लेख को पढ़ा है। आलोचक को बहुपठित और बहुश्रुत होना ही पड़ता है। मेरी बधाई स्वीकार करें।

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  5. यह मात्र किसी (लमही) पत्रिका के एक विशेषांक की समीक्षा न हो कर पूरे हिन्दी कथासाहित्य को समेटा गया महत्वपूर्ण कार्य है। शशिभूषण मिश्र ने प्रत्येक लेख को गंभीरता से पढ़ा और गुना है साथ ही बहुत लगन से लिखा है। उन्होंने कई-कई पक्षों की विवेचना की है। सरल व प्रवाहमय भाषा में बहुत मार्के की बातें कही गई हैं।
    इस मानीखेज कार्य के लिए लेखक व ब्लॉगर दोनों बधाई के पात्र हैं।.लेकिन लेख में जो चित्र लगा है वह ‘लमही, हमारा कथा-समय 1’ का है। जबकि लेख ‘हमारा कथा-समय 2’ पर आधारित है।

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  6. ऊपर पत्रिका के इस अंक का भी चित्र है। यह लिखना आवश्यक था, जो छूट गया था।।

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  7. नमस्कार
    2 का चित्र प्रथमतः दिया ही गया है। 1 का इसलिए कि पहला इस तरह था।

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  8. शशिभूषण मिश्र का यह लेख बहुत ही गंभीर और विशद आलोचना-दृष्टि का परिचय देता है। शशिभूषण ने एक-एक लेख गम्भीरता से पढ़ा है और लेखक और आलोचक को समग्रता में लेते हुए उस पर लिखा है। आज की कहानी की रचना और आलोचना पर यह अपने-आप में एक मुकम्मल लेख है।
    यह लेख यह भी सूचना देता है कि शशिभूषण मिश्र के रूप में एक युवा दृष्टिसम्पन्न कथा-आलोचक आकार ग्रहण कर रहा है।

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  9. सम्यक विश्लेषण ।
    शशि भूषण जी नें बेहतरीन तरीके से अपनी बात रखी है । वह ना केवल पढ़ रहे हैं बल्कि बराबर लिख भी रहे हैं ।

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  10. भाई शशिभूषण जी ने 'लमही' के कथा-समय 2 के हरेक लेखों का बड़ी गहनता से अध्ययन और उसपर विचार कर एक महत्वपूर्ण शोध आलेख लिखा है। बहुत बधाई!

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  11. वाह! बहुत बढ़िया लेख।शशिभूषण जी ने जितने मन से हर लेख पढ़ा उतने ही मन से उस पर कलम चलाई है। इतना बारीक अध्ययन उस पर विचारपरक आलेख यूँ लगता है उनका पूरा पूरा ध्यान हरेक कथाकार के साथ उन पर लिखने वाले आलोचकों पर बराबर इसलिए रहा है कि हरेक का सही मल्यांकन हो। बिना किसी पक्षपात इतना लंबा लेख। सराहनीय है।सचमुच लमही के इन विशेषांकों को एक पुस्तक रूप में निकलना चाहिए।लमही के संपादक जी को बहुत बहुत बधाई।और उनके इस प्रशंसनीय कार्य के लिए बहुत आभार।

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